गतांक से आगे

जैसी की आशा थी (और प्रार्थना भी).... युद्ध बंद हो गया। दोनों पक्षों को जान-माल की भारी हानि उठानी पड़ी। पूरे युद्ध में भारत हावी रहा और इसके जवानों ने अपूर्व वीरता का प्रदर्शन किया था। सारे देश में उत्साह-उछाह की लहर दौड़ गई थी। युद्धस्थल से लौटते जवानों का हर स्टेशन पर भव्य स्वागत होता। उपहार और मिठाइयों के अंबार लग जाते, तिलक लगाया जाता, आरती उतारी जाती।
इस बार उसने भी सक्रिय भाग लिया था, इन सब में। 'लायंस क्लब' में एक कमिटी बनी थी... जिसकी जेनरल सेक्रेट्री का पद संभाला था, उसने। पूरे मनोयोग से जुटी थी इसके कार्यक्रम को कार्यानिवत करने में। खाने-पीने की भी सुध नहीं रहती।
शरद के जौहर के किस्से भी अखबारों में खूब छपे थे.यह सब पढ़ फूली नहीं समाती वह. शहर भर में चर्चा थी। सबकी प्रशंसात्मक नजरों का केन्द्र बन गई थी वह... अब बस इंतजार था उस दिन का, जब शरद के कदम पड़ेंगे, इस जमीन पर। स्वागत का ऐसा सरंजाम करेगी कि ‘शरद‘ भी आवाक् रह जाएगा। बंगले को भी नए ढंग से सजाया-सँवारा जा रहा था।
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इधर बहुत दिनों से शरद का कोई पत्र नहीं आया था। इंतजार भी नहीं था... अब तो रू-ब-रू मुलाकात होगी। इतना पता था कि वह अपने घायल साथियों की देख-भाल में लगा है। दोपहर में अलसायी सी लेटी थी कि कॉलबेल बज उठी... पोस्टमैन था... लिफाफा ले लिया।
‘टू नेहा‘ - यह आश्चर्य कैसे? दुबारा पढ़ा, उसी के नाम यह खत था... अब अक्कल आई है, शरद महाराज को। खुशी से दमकता चेहरा लिए, अपने कमरे में आ लिफाफा खोला। ‘ओह! चार पन्नों का खत? और चारों पन्ने बिल्कुल भरे हुए‘ ‘आखिर बात कया है‘...मन ही मन मुस्कराई वह - ‘सारी कसर एक ही पत्र में पूरी कर दी है... थोड़ा सा सब्र नहीं हो सका... दिन ही कितने रह गए हैं, मुलाकात होने में‘ - चलो आराम से पढ़ेगी और पलंग पर लेट... पत्र खोला।
‘नेही... नेही... नेही... नेही...‘
पत्र रख आँखें मूँद ली। लगा ये शब्द कागज पर नहीं उभरे... वरन् उसके कानों में प्रतिध्वनित हो रहे हैं, लगातार। आगे था...
‘नेही, जाने क्यों आज जी कर रहा है, यही नाम लिखता रहूँ, ताजिंदगी। आज लग रहा है, यह मात्र दो अक्षरों से बना शब्द नहीं, धड़कता हुआ एक अहसास है... मेरे पूरे वजूद को थामे रखनेवाली एक सुदृढ़ शक्ति है। क्यों होता है, नेहा ऐसा? आज जब बिछड़ने का समय आया, तब ये अहसास गहरा रहा है कि दुनिया का कोई भी बंधन... इस स्नेह बंधन से मजबूत नहीं... कितना मुश्किल, सच कितना मुश्किल है, इसकी जकड़न से छुटकारा पाना।‘
एकबारगी ही दिल की धड़कन गई गुना बढ़ गई। पत्र काँप गया... ‘बिछड़ने का समय‘ ‘छुटकारा पाना‘ ये सब क्या है। झटके से उठ बैठी और एक साँस में ही, धड़कते हृदय से पूरा पत्र पढ़ गई।
पत्र क्या था... व्यक्ति के कर्त्तव्य और आकांक्षा के द्वन्द्व का दर्पण था। दिल की गहराई से निकले शब्दों में, शरद ने स्थिति बयान की थी। शरद का एक सीनियर था ,"जावेद" जो दरअसल भैया का दोस्त था.स्कूल में भैया और 'जावेद',शरद को अपने छोटे भाई से भी बढ़कर मानते थे. शरद की तरह ही, हँसमुख, खुशमिजाज, साथ ही एक सीमा तक मजाकिया। दोनों की जोड़ी ‘लारेल-हार्डी‘ के नाम से मशहूर थी हॉस्टल में। 'जावेद' को देखकर ही शायद शरद को भी 'आर्मी' ज्वाइन करने का शौक चढ़ा और जब जावेद की बटालियन में ही उसे भी शामिल किया गया तब तो जावेद ने जैसे उसे अपनी छत्र छाया में ही ले लिया.'जावेद' भैया के साथ कई बार घर भी आ चुका था भैय्या से भी अच्छी घुटती थी उसकी .
उसके इतिहास से वाकिफ थी वह। उसने घरवालों के कड़े विरोध के बावजूद गाँव में साथ-साथ बगीचे से आम चुराने वाली, पोखर में तैरने वाली... कबड्डी खेलने वाली अपनी बचपन की संगिनी उर्मिला को अपनी जीवन-संगिनी बनाया था, जबकि उर्मिला ने सिर्फ स्कूली शिक्षा ही पा रखी थी... उर्मिला का घर-बार भी छूट गया था और अब दोस्त ही उनके सब-कुछ थे। दोस्तों का घर ही अब उनका घर था।
और अब वही जावेद जिसने पूरे समाज से लोहा लेकर उसे सुरक्षा प्रदान की थी... अब समाज की बेरहम व्यंगबाणों से बींधने को उसे अकेला, निस्सहाय... निहत्था छोड़ गया था। साथ में दो वर्ष की नन्ही मुन्नी और छः महीने के दूधमुहें बच्चे की जिम्मेवारी भी सौंप गया था।
जावेद ने बड़ी बहादुरी से अपने जख्मों की परवाह किए बिना दुश्मनों से लोहा लिया था। देश को तो उस चौकी पर विजय दिला दी... उसने जबकि अपनी जिंदगी हार बैठा। हॉस्पिटल में एक-एक साँस के लिए संघर्ष करते, जावेद की कोशिशों का साक्षी था, शरद। तन-मन की सुध भूल अपने जिगरी-दोस्त को काल के क्रूर हाथों से बचाने की पुरजोर कोशिश की थी, शरद ने। पर नियति ने अपने जौहर दिखा दिए। बड़ी निर्ममता से नियति के हाथों छला गया वह। शरद ने जैसे लहू की स्याही में कलम डुबो कर लिखा था... अक्षर कई जगह बिगड़ गए थे।
‘... ईश्वर न करे कभी किसी का ऐसे दृश्य से साक्षात्कार हो। नेहा, यदि तुम सामने होती तो सच कहता हूँ जावेद की स्थिति देख, गश आ जाता तुम्हें। जावेद का शरीर गले तक सुन्न हो गया था। मस्तिष्क ने काम करना बंद कर दिया था, आवाज आनी भी बंद हो गई थी। सिर्फ उसकी बड़ी-बड़ी आँखें खुली थीं जो सारा वक्त छत घूरती रहतीं। डॉक्टर भी आश्चर्यचकित थे कि कैसे सर्वाइव कर रहा है, वह। लेकिन मैं जानता था, दो नन्हें-मुन्नों और एक बेसहारा नारी की चिंता ने ही उसकी साँसों का आना-जाना जारी रखा है। असहनीय पीड़ा झेलते हुए भी उसने अपनी जीजिविषा बनाए रखी थी। लाल-लाल आँखें, बेचैनी से सारे कमरे में घूमती और मुझपर टिक जातीं। सच, नेहा उन आँखों का अनकहा संदेश... बेचैनी देख पत्थर दिल भी मोम हो जाता। शायद ऐसे ही वे क्षण होते हैं, नेही, जब आदमी अपना सर्वस्व अर्पण करने को उद्धत हो जाता है। ... कब सोचा था? जिंदगी, ऐसे मोड़ पर भी ला खड़ा करेगी... जिस दोस्त के संग जीवन के सबसे हसीन लम्हे गुजारे थे... उसी के लिए मौत की दुआ मांग रहा था मैं। और वह भी उस दोस्त के लिए नेहा,जिसने अपनी ज़िन्दगी मेरे नाम लिख दी. हाँ, नेहा....उस चट्टान की ओट में हम दोनों ही थे..मैं जैसे ही आगे बढ़ने को हुआ,जावेद सर ने मुझे पीछे धकेल दिया.और खुद आगे बढ़ कर जायजा लेने लगे....और एक गोली उन्हें चीरती हुई निकल गयी.उस गोली पर मेरा नाम लिखा था, नेहा....मेरा...तुम्हारे शरद का (आगे स्याही बदली हुई थी ... लग रहा था इस मोड़ पर आकर शरद की लेखनी आगे बढ़ने से इंकार करने लगी... अक्षर भी अजीब टेढ़े-मेढ़े थे, जो थरथराते हाथ की गवाही दे रहे थे।)

‘... और जावेद को शांति से इस लोक से विदा करने की खातिर, मैंने उसके समक्ष प्रतिज्ञा की, बार-बार कसम खायी कि आज से उसके परिवार का बोझ मेरे कंधे पर आ गया। प्राण-पण से उनके सुख-दुख का ख्याल रखूंगा मैं... उसके बच्चों की सारी जिम्मेवारी अब मुझ पर है... पहली बार उन आँखों की लाली कुछ कम हुई... आश्चर्य!! उसके सुन्न पड़े शरीर में एक हरकत हुई। उसके हाथ उठे, शायद मेरा हाथ थामने को लेकिन बीच में ही गिर गए... बस आँखें मुझ पर टिकी रहीं... उनमें प्रगाढ़ स्नेह से आवेष्टित कृतज्ञता का भाव तैरते-तैरते जम गया था।... चेहरे पर अपूर्व शांति फैली थी... और नेहा... मेरा मित्र सदा-सदा के लिए सो गया।‘
मुझे कोई अफसोस नहीं नेहा, झूठ नहीं कहूँगा... अफसोस था जरूर। उस सारी रात मेरी पलकें नहीं झपकीं। यह क्या कर डाला, मैंने। लेकिन जब वह दृश्य देखा, मेरी रूह काँप उठी। उर्मिला के मायके और जावेद के पिता... दोनों जगह यह मनहूस खबर देने को मैंने ही फोन किया।
अगली सुबह ही, जावेद के पिता तो आ गए पर उर्मिला के घरवालों ने आजतक कोई खोज-खबर नहीं ली। शादी के वक्त जैसा उन्होंने कहा था... उर्मिला सचमुच उस दिन से ही मर गई थी उनके लिए। फिर भी... मैं कहूँगा... उस ताड़ना से जो जावेद के पिता ने उर्मिला को दिए, उनकी बेरूखी लाख दर्जे बेहतर थी। वे जावेद की कब्र पर तो फातिहा पढ़ते रहे लेकिन इन बिलखते बच्चों और उस उजड़ी-बिखरी नारी की ओर आँख उठा कर भी न देखा।
जब जावेद के पिता जाने लगे तो आँसुओं में डूबी उर्मिला ने उनके पैरों पर माथा टेक दिया -‘अब्बा! अब आपके सिवा मेरा कौन सहारा है। इन जावेद के जिगर के टुकड़ों का ख्याल कीजिए... इतने नौकर-चाकर पलते हैं, आपके साए में, ये भी दो सूखी रोटी पर पल जाएंगे-‘ लेकिन हैदर साहब ने जोरों से पैर झटक दिया... उर्मिला का माथा दीवार से जा टकराया। जोरों से गरजे वह -‘काफिर! अपनी मनहूस सूरत न दिखा, मुझे। पहले तो जावेद को हमलोगों से दूर किया और अब इस जहान से भी दूर कर दिया... तेरा साया भी न पड़ने दूँगा, अपने खानदान पर... दूर हो जा मेरी नजरों से अपने इन पिल्लों को लेकर।‘
लेकिन उर्मिला ने फिर उनके पैर पकड़ लिए। वे बार-बार पैर झटक देते और अनाप-शनाप बोलते रहते। लेकिन उर्मिला जैसे ‘उन्माद-ग्रस्त‘ हो बार-बार अपना सर उनके पैरों पर पटक देती। आखिर मैं जबरन हाथ-पैर झटकती उर्मिला को अंदर ले गया। हैदर साहब ने पलट कर भी नहीं देखा और चले गए.
बार-बार ये दृश्य कौंध जाता है, आँखों के समक्ष और मैं सर्वांग सिहर जाता हूँ।
नेहा, अब तुम शायद मुझे ‘जज‘ कर सको। जानता हूँ नेही... ये तुम्हारे प्रति अन्याय है। लेकिन मैं तुम पर छोड़ता हँू ... ‘बोलो क्या यह अन्याय है?‘
कौन है अब, उर्मिला भाभी का इस दुनिया में। कौन उन मासूमों की देख-भाल करेगा। गाँव के स्कूल से दसवीं पास उर्मिला भाभी.... क्या कर पाएंगी जावेद के सपनों को पूरा... जो उसने इन बच्चों के लिए देखे थे। नेही... ये जीवन तो अब इन बच्चों के लिए समर्पित है। यह जावेद सर की दी हुई ज़िन्दगी है,और अब इसपर सिर्फ उनके बच्चों का हक़ है.
मुझे पता है,नेहा तुम बहुत समझदार हो.सब संभाल लोगी पर मुझे खुद पर भरोसा नहीं.और नेहा, मैं किसी मल्टी नेशनल में काम करने वाला एक्जक्यूटिव नहीं हूँ.कि देश विदेश घूमूं और मोटा सा लिफाफा हर महीने घर आ जाए.मैं कभी तपती रेगिस्तान में और कभी सियाचिन की बर्फीली हवाओं से जूझने वाला अदना सा सैनिक हूँ.बस अपनी कमाई से जावेद सर के इन दोनों बच्चों को अच्छी ज़िन्दगी दे सकूँ तो अपनी ज़िन्दगी सफल मानूंगा.
‘क्षमा? .. ना ... क्षमा नहीं माँगूंगा... यह एक शहीद की आत्मा का अपमान होगा... नेहा... मुझे प्रेरणा दो... मेरी शक्ति बनो ताकि मैं एक शहीद के सम्मान की रक्षा कर सकूँ।‘
भूल जाओ... यह भी नहीं कहूँगा... जानता हूँ भूलना इतना आसान नहीं...तुम्हारा अपराधी हूँ.वो सारी भावनाएं तुम में जगाईं , जिनसे अछूती थी तुम.पर क्या करूँ,नेहा...कोई रास्ता नज़र नहीं आता,एक दूसरे को भूलने के सिवा...इसलिए कोशिश करने में क्या हर्ज है? यह मुझे भी सुकून देगा, तुम्हें भी।
अच्छा अब विदा... विदा नेही मेरी, अलविदा (विदा कहते शब्द भी कराह रहे हैं,नेही... नहीं?)
तुम्हारा
....(अब भी लिखने की जरूरत है :))
लगा, जैसे किसी ने आसमान में उछाल कर धरती पर पटक दिया हो... अभी... अभी कहाँ थी वह, और अब कहाँ है? क्यों दुनिया की सारी कड़वाहटें उसी के हिस्से लिखी है... पत्र हाथों से गिर पड़ा और सारी चीजें घूमती नजर आने लगीं... ‘ओऽऽह! शऽऽरऽऽद‘
धीरे-धीरे मुंदती पलकों वाले शरीर को बेहोशी ने अपने आगोश में ले लिया। पत्र से फिसल कर एक सूखे घास का छल्ला सा गिर पड़ा था...जिस पर उसका ध्यान ही नहीं गया।
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मिनटों में ही जैसे सारा पिछला जीवन जी गई -- व्यस्त होने का बहाना अब बिखरने लगा था। फाइल में गड़ी नजरें धुँधली पड़ने लगी थीं, अक्षरों की पहुँच तो पहले भी दिमाग तक नहीं थी। किसी तरह खुद को साध... शर्मा को आवाज दी...
‘येस मैडम‘ - सुन भी बिना नजरें उठाए कहा -‘एडमिशन रजिस्टर ले आइए‘ - (शर्मा थोड़ा चौंक गया... क्योंकि ‘मिड-सेशन‘ में वह कभी भी एडमिशन की इजाजत नहीं देतीं।)
शरद इतनी देर तक कुर्सी से पीठ टिकाए, एक प्रिंसिपल की व्यस्तता टॉलरेट कर रहा था। अभी भी नजरें तो फाइल पर ही जमीं थीं लेकिन कान शर्मा और शरद के बीच होते प्रश्नोत्तर पर ही लगे थे - फादर्स नेम की जगह सुना - ‘जावेद खान‘ और नजरें हठात् ही चौंक कर उठ गईं। जाने किस अदृश्य शक्ति से प्रेरित हो, शरद ने भी उसकी ओर देखा। और पल भर के आँखों के क्षणिक मिलन में वर्षों का अंतराल ढह गया।

आखिरकार... उसे फाइल गिराना ही पड़ा और बिखरे कागजों को समेटने के बहाने... अंदर का सारा कल्मष बह जाने दिया। व्यवस्थित होकर जब सर उठाया तो ये दूसरी ही नेहा थी। इतनी जल्दी संभाल लेगी, खुद को...यकीन नहीं था और अभी क्षण भर पहले की बेचैनी पर मन ही मन हँसी आ रही थी। ओह! आज इतने सारे काम निबटाने हैं उसे और वह यों निष्क्रिय बैठी अतीत के समंदर में गोते लगा रही है। बरसो पहले उसने एक पतिज्ञा की थी कि खुद भले ही 'दीपशिखा' की तरह जलती रहेगी पर जितना हो सके प्रकाश फैलाने की कोशिश करेगी ।
फुर्ती से फाइल पर कलम चलानी शुरू कर दी।इस रफ्तार से काम करने पर अपने स्कूल को इस शहर के ही नहीं, पूरे राज्य के और हो सके तो पूरे दशे के शीर्षस्र्थ विद्यालयों के बीच देखने का सपना कैसे पूरा हो सकेगा ?? आज ही किस कदर व्यस्तता है, स्टाफ की मीटिंग है, डी. एम. से भी अप्वाइंटमेंट है। और प्यून की पोस्ट के लिए कुछ इंटरव्यूज भी तो लेने हैं... और... और अभी राउंड पर भी तो जाना है... लेकिन ये शरद... ना शरद कौन... मि. मेहरोत्रा क्यों अभी तक बैठे हैं जबकि इनके वार्ड को ‘मिसेज जोशी‘ लेकर जा चुकी है... ये बच्चे से विदा भी ले चुके हैं... फिर? एक-दो बार उसने सवालिया निगाहों से उसे देखा भी पर... शरद तो... ओह! नो... मित्र मेहरोत्रा की आँखें तो खिड़की से भीतर आ गए बोगनवेलियां की कुछ लतरों पर जमी थीं।
जोर की आवाज से उसने फाइल बंद की तो शरद ने चौंक कर उसकी तरफ देखा। उसने एक प्रोफेशनल मुस्कान चिपका ली - ‘आइए, मि. मेहरोत्रा मैं, स्कूल के राउंड पर जा रही हूं... आप भी चलना चाहें तो चलें... हमारा स्कूल भी देख लेंगे‘ ... और वह उठा खड़ी हुईं।
शरद ने बिना कुछ कहे, धीरे से कुर्सी खिसकायी और उसके साथ हो लिया। पूरी बिल्डिंग की परिक्रमा कर आई... कहीं... बच्चों से कुछ पूछा... कहीं टीचर्स से कुछ बात की... शरद बस साथ बना रहा।
आखिरकार अब उस बरामदे पर पहुँच गई, जिससे सीढ़ियाँ उतर कर बस दस कदम के फासले पर लोहे का बड़ा गेट था। फिर मुस्करा कर... ‘अच्छा तो‘ के अंदाज में शरद की तरफ देखा। पर शरद तो जैसे पाकेट में हाथ डाले किसी गहन विचार में मग्न था... ‘अब क्या ऽऽशरद... बरसों पहले जो फैसला लिया... अटल रहो न उस पर... इतने दिनों बाद पीछे मुड़ कर क्यों देखना चाहते हो ‘ तुम तेज रफ़्तार से अपनी ज़िन्दगी की राह पे कदम बढा रहें हो,(उसकी कामयाबी के किस्से अक्सर अखबारों में पढ़ती रहती थी)...और उसने भी खुद को समेट कर अपने लिए यह राह चुन ली है दोनों राहें कितनी जुदा हैं एक दूसरे से.
असमंजस में दो पल खड़ी रहीं, फिर निश्चित कदमों से सीढ़ियों पर पैर रखा और बिना मुड़े गेट तक पहुँच गई... शरद ने भी अनुकरण किया... बाहर उसकी जीप खड़ी थी। शरद अब भी चुप खड़ा था। चाहता क्या है आखिर, शायद उसे भी नहीं पता... क्या चाहता है, वह? क्यों खड़ा है? दोनों पाकेट में हाथ डाले, उसने खोयी-खोयी निगाहें उसके चेहरे पर टिका दीं। नजरें जरूर उसके चेहरे पर थीं। पर वह जैसे उसे देख कर भी नहीं देख रहा था। क्षण भर को वह भी, जैसे वहाँ होकर भी नहीं थी।
एकाएक... खन्न की आवाज आई। दोनों ने चौंक कर देखा, एक बच्चा कंकड़ों से पेड़ पर निशानेबाजी का अभ्यास कर रहा था। वहीं से एक नया संदर्भ मिल गया। अब इस मुलाकात पर ‘द एण्ड‘ लगाना ही होगा। शरद की ओर देखा और पाया की इस आवाज ने शरद को भी धरा पर ला खड़ा किया है।

पूरी चुस्त-दुरूस्त मुद्रा में बड़ी गर्मजोशी से उससे हाथ मिलाया... थैंक्यू कहा और एक ही छलाँग में जीप पर सवार हो गाड़ी स्टार्ट कर दी पूरे वेग से काली सड़क पर जीप दौड़ पड़ी....और वह चला गया ,बिना मुड़े।
शिथिल कदमों से लौट पड़ी वह और बैग से काला चश्मा निकाल, लगा लिया आँखों पर... जबकि आकाश में फिर से काले-काले बादल घिर आए थे।
(इति - शुभम्)