Wednesday, October 28, 2009

ऊसर भारतीय आत्माएं


एम्.ए. की परीक्षा की तैयारियों में व्यस्त थी.अंग्रेजी में कहें तो 'वाज़ बर्निंग मिड नाईट आयल' और उसी मिड नाईट में एक कोयल की कुहू सुनाई दी.बरबस ही माखनलाल चतुर्वेदी (जिनका उपनाम 'एक भारतीय आत्मा'था) की कविता "कैदी और कोकिला' याद हो आई....ऐसे ही उन्होंने भी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान,जेल के अन्दर एक कोयल की कुहू सुनी थी और उन्हें लगा था कोयल, क्रांति का आह्वान कर रही है.

कुछ अक्षर कागज़ पे बिखर गए जो अब तक डायरी के पीले पड़ते पन्नों में कैद थे.आज यहाँ हैं.

ऊसर भारतीय आत्माएं

रात्रि की इस नीरवता में
क्यूँ चीख रही कोयल तुम
क्यूँ भंग कर रही,निस्तब्ध निशा को
अपने अंतर्मन की सुन

सुनी थी,तेरी यही आवाज़
बहुत पहले
'एक भारतीय आत्मा' ने
और पहुंचा दिया था,तेरा सन्देश
जन जन तक
भरने को उनमे नयी उमंग,नया जोश.

पर आज किसे होश???

क्या भर सकेगी,कोई उत्साह तेरी वाणी?
खोखले ठहाके लगाते, मदालस कापुरुषों में
शतरंज की गोट बिठाते,स्वार्थलिप्त,राजनीतिज्ञ में

भूखे बच्चों को थपकी दे,सुलाती माँ में
माँ को दम तोड़ती देख विवश बेटे में
दहेज़ देने की चिंता से पीड़ित पिता
अथवा ना लाने की सजा भोगती पुत्री में

मौन हो जा कोकिल
मत कर व्यर्थ अपनी शक्ति,नष्ट
नहीं बो सकती, तू क्रांति का कोई बीज
ऊसर हो गयी है,'सारी भारतीय आत्मा' आज.

Monday, October 26, 2009

ब्लॉग जगत के दर्द को साझा करते,अमिताभ बच्चन


आजकल ब्लॉग जगत कई विवादों से घिरा हुआ है....इलाहाबाद में हुई संगोष्ठी पर भी कई लोगों ने लिखा है....एक जगह पढ़ा, स्वनामधन्य नामवर सिंह ने ब्लॉग जगत के अस्तित्व को ही नकार दिया था...और अब भी उन्हें काफी शिकायतें हैं....हिंदी,अंग्रेजी मीडिया के इस पक्षपातपूर्ण रवैये पर 'अमिताभ बच्चन' भी उतने ही व्यथित हैं....उन्होंने आज के अपने पोस्ट में इस दर्द से बखूबी परिचित कराया है...प्रस्तुत है, उनके ब्लॉग से उधृत अंश..

" The media dislikes the blog not because I write on it without their consent. The media dislikes the blog because we have created a family of devoted members in the shape of our FmXt, which believes me and not them.

My prayer therefore to all our extended family. Let us continue to grow so exponentially that we become a force to reckon with. A force that shall challenge those that challenge us. A force that shall question those that question us. A force that shall stand up and defend our right to express. A force that shall not be weak and vulnerable. A force that shall not bend before injustice and wrongful blame. A force that shall have its own voice.

A VOICE THAT SHALL BE HEARD AND FEARED … !!!

So help me God

Amitabh Bachchan

Saturday, October 24, 2009

DDLJ:अच्छा है कि 'राज' हमारी यादों में जिंदा एक फिल्म किरदार है

'चवन्नीचैप' हिंदी का मशहूर ब्लॉग है,जिसमे पहली बार मैंने 'हिंदी टाकिज' सिरीज़ के तहत हिंदी सिनेमा के अपने अनुभवों को लिखा....सबको बहुत पसंद आया और अजय जी ने मुझे अपना ब्लॉग शुरू करने की सलाह दे डाली....बहुत हिचकिचाते और डरते हुए मैंने अपना ब्लॉग बनाया....और आपलोगों के स्नेह और उत्साहवर्धन ने लिखते रहने के लिए प्रेरित किया.जब अजय जी ने 'दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे' के १४ साल पूरे होने पर इस फिल्म से जुड़े कुछ अपने अनुभव लिखने को कहा तो उनका आदेश सर माथे.....


डीडीएलजे से जुड़ी मेरी यादें कुछ अलग सी हैं. इनमे वह किशोरावस्था वाला अनुभव नहीं है,क्यूंकि मैं वह दहलीज़ पार कर गृहस्थ जीवन में कदम रख चुकी थी.शादी के बाद फिल्में देखना बंद सा हो गया था क्यूंकि पति को बिलकुल शौक नहीं था और दिल्ली में उन दिनों थियेटर जाने का रिवाज़ भी नहीं था.पर अब हम बॉम्बे(हाँ! उस वक़्त बॉम्बे,मुंबई नहीं बना था) में थे और यहाँ लोग बड़े शौक से थियेटर में फिल्में देखा करते थे.एक दिन पति ने ऑफिस से आने के बाद यूँ ही पूछ लिया--'फिल्म देखने चलना है?'(शायद उन्होंने भी ऑफिस में डीडीएलजे की गाथा सुन रखी थी.) मैं तो झट से तैयार हो गयी.पति ने डी.सी.का टिकट लिया क्यूंकि हमारी तरफ वही सबसे अच्छा माना जाता था.जब थियेटर के अन्दर टॉर्चमैन ने टिकट देख सबसे आगेवाली सीट की तरफ इशारा किया तो हम सकते में आ गए.चाहे,मैं कितने ही दिनों बाद थियेटर आई थी.पर आगे वाली सीट पर बैठना मुझे गवारा नहीं था.यहाँ शायद डी.सी.का मतलब स्टाल था.मुझे दरवाजे पर ही ठिठकी देख पति को भी लौटना पड़ा.पर हमारी किस्मत अच्छी थी,हमें बालकनी के टिकट ब्लैक में मिल गए.
फिल्म शुरू हुई तो काजोल की किस्मत से रश्क होने लगा...सिर्फ सहेलियों के साथ लम्बे टूर पर जाना. साथ-साथ मेरी कल्पना के घोडे भी दौड़ने लगे,काश!हमें भी ऐसा मौका मिला होता तो कितना मजा आता.शाहरुख़ खान के राज़ का किरदार तो जैसे दिल मानने को तैयार नहीं--'ऐसे लड़के भी होते हैं? एक अजनबी लड़की का इतना ख्याल रखना ...आरामदायक कमरा छोड़ इतनी ठंड में बाहर सोना..और उस पर से उसकी डांट....ना,ऐसा तो सिर्फ फिल्मों में ही हो सकता है'.पर जब उनका टूर ख़तम हो गया तो उनके बीच जन्म लेते नए कोमल अहसास बिलकुल सच से लगे. 'तुझे देखा तो ये जाना सनम...."इस गीत के पिक्चाराइजेशन ने भी इस अहसास को बड़ी खूबसूरती से उकेरा है.
फिल्म जब पंजाब में काजोल की शादी की तैयारियों तक पहुंची तो 'राज' का चेहरा किसी के चेहरे के साथ गडमड होने लगा.वह चेहरा था मेरे छोटे भाई 'विवेक' का.बिलकुल 'राज' की तरह ही वह उस शादी के घर में बिलकुल अजनबी था.लेकिन छोटे-बड़े, नौकर-चाकर, नाते-रिश्तेदार सबकी जुबान पर एक ही नाम होता था--'विवेक'
विवेक मेरे दूर का रिश्तेदार है,मेरी मौसी के देवर का बेटा...पर है बिलकुल मेरे सगे छोटे भाई सा. मैं छुट्टियों में अपनी मौसी के यहाँ गयी थी,वहीँ विवेक से मुलाक़ात हुई.हम दोनों में अच्छी जम गयी.वह दिन भर मुझे चिढाता रहता और मैं किसी से भी उसका परिचय यूँ करवाती--"ये विवेक हैं,जिनकी विवेक से कभी मुलाक़ात नहीं हुई"
मैं अपने चाचा की बेटी की शादी में गयी थी और वहां विवेक मुझसे मिलने आया.बिलकुल 'राज' की तरह वह बाकी लोगों से ऐसे घुल मिल गया जैसे बरसों की जान पहचान हो.मुझे याद नहीं कि किसी ने विवेक को शादी में फोर्मली इनवाइट किया हो पर जरूरत भी नहीं समझी,जैसे मान कर चल रहें हों,वह तो आएगा ही.और शादी के दिन सुबह से ही विवेक तैनात.आजकल तो स्टेज,मंडप की साज सज्जा,खाना पीना सब contract पर दे देते हैं पर उन दिनों हलवाई के सामने बैठकर खाना बनवाना,बाज़ार से राशन लाना,मंडप सजाना सब घर के लोग मिलकर ही करते थे.ऐसे में विवेक के दो अतिरिक्त उत्साही हाथ बहुत काम आ रहें थे.भैया का तो वह जैसे दाहिना हाथ ही हो गया था.
डी डी एल जे के राज की तरह वह किसी मकसद के तहत लोगों को खुश नहीं कर रहा था. बल्कि यह उसके स्वभाव में शामिल था.फिल्म की तरह गान बजाना तो उन दिनों नहीं होता था.पर 'राज' की तरह ही वह जब मौका मिलता बच्चों से घिरा रहता.और जहाँ कोई मामा,चाचा,दिख जाते कहता--"बच्चों, बोलो मामा की जय'.बच्चे भी गला फाड़ कर चिल्लाते.फिर वह मामा,चाचा से कहता,"पैसे निकालिए ,ये इतनी जयजयकार कर रहें हैं.".वे लोग भी हंसते-हंसते सौ पचास रुपये पकडा देते.और वह मुझे थमा देता,'जमा करो,सब मिलकर चाट खाने जायेंगे'
अमरीश पुरी की तर्ज़ में कई बड़े-बूढे उसे यूँ काम करता देख, ऐनक उठा,सीधे ही पूछ लेते."तुम किसके बेटे हो?"और वह मुझे इंगित कर कहता,"मैं इनका छोटा भाई हूँ"..क्या परिचय देता कि मैं लड़की की चाची की बहन के देवर का बेटा हूँ.
शादी की सुबह जब दूल्हा शेव कर तैयार होने लगा तो विवेक पहुच गया,"अरे आप दूल्हा हैं,खुद शेव करेंगे?..लाइए मैं शेव कर देता हूँ." और शेव करने के बाद बोला,"अब नेग निकालिए" लड़के ने भी मुस्कुराते हुए कुछ नोट पकडा दिए जो मेरे पास जमा हो गए.इस बार आइसक्रीम खाने के लिए
मेरे चाचा दिखने में तो अमरीश पुरी की तरह रौबदार नहीं थे.पर उनके बच्चों के साथ साथ हमलोग भी उनसे बहुत डरते थे.उस पर से जब बाराती छत पर पंगत में खाना खाने बैठे तो विवेक ने उनकी चप्पलें छुपा दीं.जब चप्पलें ढूंढी जाने लगी तो चाचा की क्रोधाग्नि में भस्म होने का हम सबको पूरा अंदेशा था.हमने विवेक को आगे कर दिया,तुम्हारा आइडिया था,तुम भुगतो.और वह चाचा से बहस करता रहा,'इनलोगों ने जनवासे में हमें कितना परेशान किया है,पहले सॉरी बोलें"पूरी शादी में पहली बार चाचा के चेहरे पर मुस्कान दिखी और उन्होंने विवेक को मनाया,चप्पलें वापस करने को.
विदा होते समय रूबी जोर-जोर से रो रही थी.भाई शायद पूरे साल बहन से झगड़ता हो,पर विदाई के समय बहन को रोते देख उसका दिल दो टूक हो जाता है,भैया ने विवेक को बोला,'तुम कार में साथ में बैठ जाओ,रास्ते में जरा उसे हंसाते हुए जाना."विवेक बोला..'अरे मेरे कपड़े नहीं हैं,कोई तैयारी नहीं है,ऐसे कैसे चला जाऊं?"...भैया ने बोला,'कोई बात नहीं,मैं कल लेता आऊंगा'और विवेक दुल्हन के साथ दूसरे शहर चला गया,जहाँ पहुँचने में कम से कम ८ घंटे लगते थे.


फिर बरसों बाद विवेक से मिलना हुआ.मेरे मन में उसकी वही शरारती छवि विद्यमान थी.पर १२वीं में पढने वाला वह लड़का, अब धीर गंभीर बैंक ऑफिसर बन चुका था,शादी भी हो गयी थी.मैंने पति से परिचय करवाया."ये विवेक है"(पर दूसरी पंक्ति कि 'जिसकी विवेक से कभी मुलाक़ात नहीं हुई' कहते कहते रुक गयी.) अच्छा है कि 'राज' एक फिल्म किरदार है और हमारी यादों में जिंदा है वरना १४ साल बाद उसके हाथ में भी होता 'माऊथ ओरगन' की जगह एक लैपटॉप और चेहरे पर सदाबहार खिली मुस्कान की जगह चिंताओं का रेखाजाल.

Tuesday, October 20, 2009

वक़्त की धूप में बेरंग होता ये मन...

पिछली 'सिवकासी' वाली पोस्ट पर बड़ी इमोशनल प्रतिक्रियाएँ मिलीं. सुखद अनुभूति हुई,जानकर कि इतने लोग हमखयाल हैं. मेरे बेटे को सबने बहुत आर्शीवाद और शुभकामनाएं दीं....सबका शुक्रिया. पर सारे बच्चे ऐसे ही होते हैं--निश्छल,निष्पाप, दूसरों के दुःख में दुखी हो जानेवाले,अपनी धुन के पक्के. कई लोगों ने अपने अनुभव बांटे.ममता ने बताया,उनका बेटा भी वायु प्रदूषण,ध्वनि प्रदूषण का ख्याल कर पटाखे नहीं चलाता. राज़ी के बेटे ने इस बार,बिजली के रंगीन बल्ब और झालर लगाने से मना कर दिया और बोला--'इतनी बिजली बर्बाद करने से क्या फायदा,हम दिए जलाएंगे'. कई लोगों ने अपनी टिप्पणियों में भी बताया कि उनके बच्चों ने भी पटाखों का बहिष्कार किया है.ख़ुशी होती है ये देख कि आज के बच्चे इतने जागरूक हैं और देश का भविष्य सुरक्षित हाथों में है.ये बच्चे पाठ्य-पुस्तकों में पढ़कर सब भूल नहीं जाते बल्कि आत्मसात करते हैं और उसे व्यवहार में लाने की भी कोशिश करते हैं

मेरी एक डॉक्टर सहेली थकी मांदी क्लिनिक से आती है पर उसकी बेटी 'ग्लोबल वार्मिंग' की सोच उसे ए.सी. नहीं चलाने देती.मेरा छोटा बेटा भी,भीषण गर्मी में भी मुझे ए.सी.चलाने से रोकता है और मुझे समझाता है,"अगर हमने अभी से पर्यावरण की रक्षा का ख़याल नहीं किया तो तुम्हारी उम्र तक, जब मैं पहुंचूंगा तब तक टेम्परेचर ५० डिग्री तक पहुँच जायेगा.मैं ऑफिस से पसीने से लथपथ घर आऊंगा" जैसे भविष्य की भयावह तस्वीर उसके सामने खींच जाती है.

हम बच्चों में बढती अनुशासनहीनता,भौतिकपरस्तता और स्वार्थीपन की शिकायत करते हैं पर कभी कभी ये बच्चे सहजता से इतनी बड़ी बात कह जाते हैं कि हमें चकित कर देते है.एक बार मैं पड़ोस में रहने वाली अपनी सहेली से बात कर रही थी तभी उसका दस वर्षीय बेटा आया और बोला --'ममी,कमलेश खेलने के लिए बुला रहा है,मैं नीचे जाऊं??"(कमलेश पास की दुकान में डिलीवरी बॉय का काम करता है,जब कभी काम से फुरसत मिलती है,बिल्डिंग में बच्चों के साथ खेलने आ जाया करता है)
सहेली ने पूछा--"और भी कोई आया है खेलने?"
"ना, और कोई नहीं...बस मैं और कमलेश हैं"
"बाद में जाना, जब सब आ जाएँ"....सहेली का आभिजात्य मन अपने बेटे को एक डिलीवरी बॉय के साथ अकेले खेलने देना गवारा नहीं कर रहा था. बेटे ने आँखे चढाकर,संदेह से पूछा--"क्यूँ?..क्यूंकि वह एक दुकान में काम करता है,इसलिए??...तुमलोग इतना भेदभाव करती हो इसलिए,इंडिया इतना पिछड़ा हुआ है...मुझे जाने दो,ना."..सहेली ने उसकी बातों से बचने को, जाने की इजाज़त दे दी...और वह दस साल का बच्चा हमें भाईचारा का पाठ पढ़ा,चला गया. ऐसे ही एक बार मैं बाहर से लौटी तो पाया घर में बिल्डिंग के बच्चे जमा होकर 'पकिस्तान' और 'साउथ अफ्रीका' के बीच चल रहा मैच देख रहें हैं.मैंने यूँ ही पूछ लिया,"तुमलोग किसे सपोर्ट कर रहें हो?..और सबने समवेत स्वर में कहा--"ऑफ कोर्स! पाकिस्तान को...आखिर वो हमारा भाई है"....जब हम ना खेल रहें हो तो पाकिस्तान को कई लोग सपोर्ट करते हैं..पर भाई का दर्जा कितने लोग देते हैं? ये बच्चे कारगिल भूले नहीं हैं....आज भी लक्ष्य,बॉर्डर,LOC इनकी फेवरेट फिल्में हैं....लेकिन जंग और खेल में फर्क करना इन्हें आता हैं.
इसी दीवाली में सात साल की अपूर्वा अपनी मम्मी से घर के सामने रंगोली बनाने की जिद कर रही थी,उसकी मम्मी ने कहा, जाओ सीढियों पर कुछ फिगर्स बना कर उसमे रंग भर दो....आप आश्चर्य करेंगे जानकर,उस बच्ची ने हर स्टेप पर एक दीपक,एक स्वस्तिक और चाँद तारे बनाए...और खुश खुश हमें दिखाया,"मैंने पाकिस्तान के फ्लैग का मार्क भी बनाया".

इन बच्चों का मन इतना कोमल होता है,दूसरो का जरा सा दुःख देख व्याकुल हो जाते हैं,कोई भी त्याग करने से जरा भी नहीं हिचकिचाते.मेरी सहेली वैशाली की बेटी स्कूल की तरफ से एक अनाथालय में एक स्किट पेश करने गयी.घर आकर दो दिन उसने ठीक से खाना नहीं खाया और उदास रही कि वे बच्चे अपने मम्मी पापा के बिना कैसे रह पाते हैं? मैं भी जब बच्चों के छोटे कपड़े अनाथालय में देने जाती हूँ तो मेरा छोटा बेटा कहता है, "तुम्हे इसके साथ कुछ नए कपड़े भी देने चाहिए"...मैं तर्क देती हूँ," सिर्फ एक दो बार की पहनी हुई है,और छोटी हो गयी है,बिलकुल नयी जैसी है." वह कुछ रोष से कहता है ."पर नयी तो नहीं है"

२६ जुलाई के महाप्रलय में जब सारा मुंबई डूबा हुआ था... कुछ ऊँचाई पर होने की वजह से हमारे इलाके में पानी नहीं भरा और बिजली भी नहीं गयी....बिल्डिंग के बच्चों ने जब टी.वी.पर देखा, कई इलाकों में तीन दिन से बिजली नहीं है, तो जैसे अपराधबोध से भर गए. उन्हें आपस में बाते करते देखा--"ये लोग एक दिन के लिए हमारी बिजली काटकर उन्हें क्यूँ नहीं दे देते?"..उन्हें अँधेरे में रहना...टी.वी.नहीं देखना गवारा था पर दूसरो की तकलीफ वे नहीं देख पा रहें थे.

इन बच्चों कि बातें सुन ,मुझे लगा....क्या हम भी बचपन में ऐसे नहीं थे?...फिर ऐसा क्या हुआ कि हम संवेदनाशून्य होते चले गए.वक़्त ने ऐसा असर किया हमपर कि हम इतने बदल गए.बचपन का एक वाक़या याद आता है...मेरी माँ बाहर गयीं थी तभी एक भिखारी आया और बोला...वह बहुत भूखा है.मैंने उसे ढेर सारे कच्चे चावल दे दिए. मैं चावल दे ही रही थी कि मेरा छोटा भाई आ गया.मुझे डर लगा ,अब ये मेरी शिकायत करेगा कि दीदी ने इतने सारे चावल दे दिए.मैंने सफाई दी...दरअसल वह बहुत भूखा था.मेरे भाई ने तुंरत कहा, "तुमने उसे फिर थोड़े दाल और आलू भी क्यूँ नहीं दिए,केवल चावल वो कैसे खायेगा?"..... ऐसे होते हैं हम सब बचपन में......फिर धीरे धीरे आगे बढ़ने की जद्दोजहद, इस दुनिया में सर्वाइव करने की कशमकश हमारी सारी कोमल भावनाएं सोख लेती है.कर्तव्यों,जिम्मेवारियों के बोझ तले ये दूसरों के लिए सोचने का जज्बा दम तोड़ देता है.हम अपनी सुविधाएं,असुविधाएं देखने लगते हैं...अपना हित सर्वोपरि रखते हैं.

दो तीन साल पहले मैंने एक संस्था "हमारा फुटपाथ" ज्वाइन की थी. यह संस्था सड़क पर रहने वाले बच्चों के लिए काम करती है.पर जब मुझे पता चला कि बाकी सारे सदस्य शाम ७ बजे इकट्ठे होते हैं क्यूंकि बाकी सारे लोग ऑफिस वाले थे और बच्चे भी सिग्नल पर फूल,गुब्बारे,खिलौने,किताबें...बेचने के बाद ही आ सकते हैं.मैं नहीं जा सकी क्यूंकि ७ बजे मेरे बच्चे भी खेलकर घर वापस आते थे ,उनकी पढाई,उनका खाना पीना देखना था.फिर दूरी के कारण आने जाने में भी २ घंटे लग जाते. मैंने कहाँ सोचा कि मेरे बच्चों के पास तो सुख सुविधा से पूर्ण आरामदायक घर है,उन बच्चों के पास तो माँ..बाप..सर पे छत...किसी का सहारा नहीं.यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं कि हम कुछ अच्छे काम करना भी चाहते हैं तो अपने फालतू बचे समय में.

हर बच्चे के दिल में एक 'मदर टेरेसा' और 'बाबा आमटे' का ह्रदय होता है पर जैसे जैसे उम्र बढती है यह छवि धूमिल पड़ती जाती है और एक समय ऐसा आता है जब ये छवि बिलकुल गायब हो जाती है.तभी तो आज इनके बाद ऐसी निस्स्वार्थ सेवा करने वाला कोई तीसरा नाम नहीं सूझ रहा.

Tuesday, October 13, 2009

बारूद की ढेर में खोया बचपन


दीवाली बस दस्तक देने ही वाली है.सबकी तरह हमारी भी शौपिंग लिस्ट तैयार है.पर एक चीज़ कुछ बरस पहले हमारी लिस्ट से गायब हो चुकी है और वह है--'पटाखे'. मेरे बेटे को भी हर बच्चे की तरह पटाखे का बहुत शौक था.दस दिन पहले से उसकी लिस्ट बननी शुरू हो जाती.पटाखे ख़रीदे जाते.दो दिन पहले से उन्हें धूप दिखाना,गिनती करना,सहेजना...जैसा सारे बच्चे करते हैं.दिवाली के दिन वह शाम से ही बैग में सारे पटाखे डाले,एक कमर पर हाथ रखे मुझे एकटक घूरता रहता क्यूंकि मैं लक्ष्मी पूजा हुए बिना, उसे नीचे जाकर पटाखे चलाने की इजाज़त नहीं देती थी.जैसे ही पूजा ख़त्म हुई,वह बैग संभाले नीचे भागता.मुझे जबरदस्ती उसे पकड़, प्रसाद का एक टुकडा मुहँ में डालना पड़ता.लेकिन जब वह ९-१० साल का था, उसके स्कूल में एक डॉक्युमेंटरी दिखाई गयी,जिसमे दिखाया गया कि 'सिवकासी' में किस अमानवीय स्थिति में रहते हुए छोटे छोटे बच्चे, पटाखे तैयार करते हैं.इसका उसके कोमल मन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उसने और उसके कुछ दोस्तों ने कभी भी पटाखे न चलाने का प्रण ले लिया.इनलोगों ने छोटे छोटे बैच भी बनाये SAY NO TO CRACKERS वह दिन है और आज का दिन है इन बच्चों ने पटाखों को हाथ नहीं लगाया.

'सिवकासी' चेन्नई से करीब 650 km दूर स्थित है.भारत में जितने पटाखों की खपत होती है,उसका 90 % सिवकासी में तैयार किया जाता है.और इसे तैयार करने में सहयोग देते हैं, 100000 बाल मजदूर.करीब 1000 करोड़ का बिजनेस होता है,यहाँ.
8 साल की उम्र से ये बच्चे फैक्ट्रियों में काम करना शुरू कर देते हैं.दीवाली के समय काम बढ़ जाने पर पास के गाँवों से बच्चों को लाया जाता है.फैक्ट्री के एजेंट सुबह सुबह ही हर घर के दरवाजे को लाठी से ठकठकाते हैं और करीब सुबह ३ बजे ही इन बच्चों को बस में बिठा देते हैं.करीब २,३, घंटे की रोज यात्रा कर ये बच्चे रात के १० बजे घर लौटते हैं.और बस भरी होने की वजह से अक्सर इन्हें खड़े खड़े ही यात्रा करनी पड़ती है.
रोज के इन्हें १५-१८ रुपये मिलते हैं.सिवकासी की गलियों में कई फैक्ट्रियां बिना लाइसेंस के चलती हैं और वे लोग सिर्फ ८-१५ रुपये ही मजदूरी में देते हैं.ये बच्चे पेपर डाई करना,छोटे पटाखे बनाना,पटाखों में गन पाउडर भरना, पटाखों पर कागज़ चिपकाना,पैक करना जैसे काम करते हैं.
जब भरपेट दो जून रोटी नहीं मिलती तो पीने का पानी,बाथरूम की व्यवस्था की तो कल्पना ही बेकार है.बच्चे हमेशा सर दर्द और पीठ दर्द की शिकायत करते हैं.उनमे कुपोषण की वजह से टी.बी.और खतरनाक केमिकल्स के संपर्क में आने की वजह से त्वचा के रोग होना आम बात है.
गंभीर दुर्घटनाएं तो घटती ही रहती हैं.अक्सर खतरनाक केमिकल्स आस पास बिखरे होते हैं और बच्चों को उनके बीच बैठकर काम करना पड़ता है.कई बार ज्वलनशील पदार्थ आस पास बिखरे होने की वजह से आग लग जाती है.कोई घायल हुआ तो उसे ७० कम दूर मदुरै के अस्पताल में ले जाना पड़ता है.बाकी बच्चे आग बुझाकर वापस वहीँ काम में लग जाते हैं.

कुछ समाजसेवी इन बच्चों के लिए काम कर रहें हैं और इनके शोषण की कहानी ये दुनिया के सामने लाना चाहते थे.पर कोई भारतीय NGO या भारतीय फिल्मनिर्माता इन बच्चों की दशा शूट करने को तैयर नहीं हुए.मजबूरन उन्हें एक कोरियाई फिल्मनिर्माता की सहायता लेनी पड़ी.25 मिनट की डॉक्युमेंटरी 'Tragedy Buried in Happiness कोरियन भाषा में है जिसे अंग्रेजी और तमिल में डब किया गया है.इसमें कुछ बच्चों की जीवन-कथा दिखाई गयी है जो हजारों बच्चों का प्रतिनिधित्व करती है.
12 साल की चित्रा का चेहरा और पूरा शरीर जल गया है.वह चार साल से घर की चारदीवारी में क़ैद है,किसी के सामने नहीं आती.पूरा शरीर चादर से ढँक कर रखती है,पर उसकी दो बोलती आँखे ही सारी व्यथा कह देती हैं.
14 वर्षीया करप्पुस्वामी के भी हाथ और शरीर जल गए हैं.फैक्ट्री मालिक ने क्षतिपूर्ति के तौर पर कुछ पैसे दिए पर बदले में उसके पिता को इस कथन पर हस्ताक्षर करने पड़े कि यह हादसा उनकी फैक्ट्री में नहीं हुआ.
10 साल की मुनिस्वारी के हाथ बिलकुल पीले पड़ गए हैं पर मेहंदी रचने की वजह से नहीं बल्कि गोंद में मिले सायनाइड के कारण.भूख से बिलबिलाते ये बच्चे गोंद खा लिया करते थे इसलिए क्रूर फैक्ट्री मालिकों ने गोंद में सायनाइड मिलाना शुरू कर दिया.चिपकाने का काम करनेवाले सारे बच्चों के हाथ पीले पड़ गए हैं.
10 साल की कविता से जब पूछा गया कि वह स्कूल जाना मिस नहीं करती?? तो उसका जबाब था,"स्कूल जाउंगी तो खाना कहाँ से मिलेगा.?'"..यह पूछने पर कि उसे कौन सा खेल आता है.उसने मासूमियत से कहा--"दौड़ना" उसने कभी कोई खेल खेला ही नही.
जितने बाल मजदूर काम करते हैं उसमे 80 % लड़कियां होती हैं.लड़कों को फिर भी कभी कभी पिता स्कूल भेजते हैं और पार्ट टाइम मजदूरी करवाते हैं.पर सारी लड़कियां फुलटाईम काम करती हैं.13 वर्षीया सुहासिनी सुबह 8 बजे से 5 बजे तक 4000 माचिस बनाती है और उसे रोज के 40 रुपये मिलते हैं (अगली बार एक माचिस सुलगाते समय एक बार सुहासिनी के चेहरे की कल्पना जरूर कर लें)

सिवकासी के लोग कहते हैं साल में 300 दिन काम करके जो पटाखे वे बनाते हैं वे सब दीवाली के दिन 3 घंटे में राख हो जाते हैं.दीवाली के दिन इन बाल मजदूरों की छुट्टी होती है. पर उन्हें एक पटाखा भी मयस्सर नहीं होता क्यूंकि बाकी लोगों की तरह उन्हें भी पटाखे खरीदने पड़ते हैं.और जो वे अफोर्ड नहीं कर पाते.

हम बड़े लोग ऐसी खबरे रोजाना पढ़ते हैं और नज़रंदाज़ कर देते हैं.पर बच्चों के मस्तिष्क पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है.यही सब देखा होगा,उस डॉक्युमेंटरी में, अंकुर और उसके दोस्तों ने और पटाखे न चलाने की कसम खाई जिसे अभी तक निभा रहें हैं.सिवकासी के फैक्ट्रीमालिकों ने सिर्फ उन बच्चों का बचपन ही नहीं छीना बल्कि अंकुर और उसके दोस्तों से बचपन की एक खूबसूरत याद भी छीन ली.देखनेवाले बहुत प्रभावित होते हैं और तारीफ़ करते हैं पर जब मैं दीवाली के दिन अपने बेटे को पटाखे चलाते सारे बच्चों से दूर एक तरफ पीछे हाथ बांधे खड़े देखती हूँ तो देश की एक जागरूक नागरिक की जगह सिर्फ एक माँ रह जाती हूँ.कभी कभी यह भी कह देती हूँ"तुम्हारे अकेले के करने से क्या बदलेगा' और वह बड़े बूढों की तरह कहता है "किसी को तो शुरू करना पड़ेगा,न"

(आप सब को दीपावली की ढेर सारी शुभकामनाएं. मुझे आपकी दीपावली का मजा किरिकिरा करने का कोई इरादा नहीं था....पर सच से आँखें कैसे और कब तक चुराएं?

Saturday, October 10, 2009

मानसिक विकलांगता से कहीं बेहतर है,शारीरिक विकलांगता

दो दिनों से ब्लोग्वानी पर 'साहित्य मंच'के 'विकलांग विशेषांक' में रचनाएं भेजने का आमंत्रण देख रही हूँ.मैंने अभी तक इस विषय पर कुछ लिखा नहीं और जबतक अन्दर से आवाज़ न आये,मैं कुछ लिख भी नहीं पाती. .लिहाजा सोचा मैं तो कुछ भेज भी नहीं सकती,कुछ लिखा ही नहीं है.

पर आज टी.वी.पर एक दृश्य देख मन परेशान हो गया.यूँ ही चैनल फ्लिक   कर रही थी तो देखा सोनी चैनल पर IPL के तर्ज़ पर DPL यानि 'डांस प्रीमियर लीग' का ऑडिशन चल रहा था.म्यूजिक और डांस प्रोग्राम मुझे हमेशा अच्छे लगते हैं.ऑडिशन भी अक्सर रियल प्रोग्राम से ज्यादा मजेदार होते हैं,इसलिए देखती रही.

भुवनेश्वर शहर से एक विकलांग युवक ऑडिशन के लिए आया था.दरअसल मैं यह सोच रही थी,इसे विकलांग क्यूँ कह रहें हैं या किसी को भी विकलांग कहते ही क्यूँ हैं? क्यूंकि अक्सर मैं देखती हूँ,वे लोग भी वे सारे काम कर सकते हैं,जो हमलोग करते हैं.और कई बार तो ज्यादा अच्छा करते हैं.और वो इसलिए क्यूंकि वे जो भी काम करते हैं पूरी द्रढ़ता औ दुगुनी लगन से करते हैं.साधारण भाषा में जिन्हें नॉर्मल या पूर्ण कहा जाता है,उनका ज़िन्दगी के प्रति एक लापरवाह रवैया रहता है.वे सोचते हैं,हम तो सक्षम हैं,हम सारे काम कर सकते हैं इसलिए ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं समझते जबकि जिन्हें हम विकलांग कहते हैं, वे अपनी कमी को पूरी करने के लिए पूरी जी जान लगाकर किसी काम को अंजाम देते हैं और हमलोगों से आगे निकल जाते हैं.

अभी हाल ही में ,अखबार में एक खबर पढ़ी कि एक मूक बधिर युवक ने
वह केस जीत लिया है,जो पिछले 8 साल से सुप्रीम कोर्ट में चल रहा था.उसने 8 साल पहले UPSC की परीक्षा पास की थी पर उसे नियुक्ति पत्र नहीं मिला था.अब उसे एक अच्छी पोस्ट पर नियुक्त कर दिया गया है.कितने ही हाथ,पैर,आँख,कान,से सलामत लोग आँखों में IAS का सपना लिए PRELIMS भी क्वालीफाई नहीं कर पाते.रोज सैकडों उदाहरण हम अपने आस पास देखते हैं या फिर अखबारों या टी.वी. में देखते हैं कि कैसे उनलोगों ने अपने में कोई कमी रहते हुए भी ज़िन्दगी कि लड़ाई पर विजय हासिल की.

पर उनलोगों के प्रति हमारा रवैया कैसा है?हमलोग हमेशा उन्हें हीन दृष्टि से देखते हैं और कभी यह ख्याल नहीं रखते कि हमारे व्यवहार या हमारी बातों से उन्हें कितनी चोट पहुँचती है.
आज ही टी.वी. पर देखा,उस लड़के के दोनों हाथ बहुत छोटे थे.पर वह पूरे लय और ताल में पूरे जोश के साथ नृत्य कर रहा था.नृत्य गुरु 'शाईमक डावर' भी जोश में उसके हर स्टेप पर सर हिलाकर दाद दे रहें थे.पर जब चुनाव करने का वक़्त आया तो दूसरे जज 'अरशद वारसी' ने जो कहा, उसे सुन शर्म से आँखें झुक गयीं.उनका कहना था ''अगर भगवान कहीं मिले तो मैं उस से पूछूँगा,उसने आपको ऐसा क्यूँ बनाया (अगर कहीं हमें भगवान मिले तो हम पूछना चाहेंगे ,उसने 'अरशद वारसी' को इतना कमअक्ल क्यूँ बनाया.??)तुम हमलोगों से अलग हो और यह हकीकत है,इसलिए तुम्हे दूसरे राउंड के लिए सेलेक्ट नहीं कर सकते." बाकी दोनों जजों की भी यही राय थी.शाईमक ने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की पर नाकामयाब रहें.

सबसे अच्छा लगा मुझे,अरशद से उसका सवाल करना.उसने मासूमियत से पूछा-- "मैं साईकल,स्कूटी,कार,चला लेता हूँ,पढ़ा लिखा हूँ,एक डांस स्कूल चलाता हूँ,लोगों को डांस सिखाता हूँ,फिर आपलोगों से अलग कैसे हूँ?"अरशद के पास कोई जबाब नहीं था. वे वही पुराना राग अलापते रहें--"तुम इस प्रतियोगिता में आगे नहीं बढ़ सकते,इसलिए तरस खाकर तुम्हे नहीं चुन सकता"...किस दिव्यदृष्टि से उन्होंने देख लिया की वह आगे नहीं बढ़ सकता,जबकि शाईमक को उसमे संभावनाएं दिख रही थीं.और उन्हें तरस खाने की जरूरत भी नहीं थी क्यूंकि वह जिस कला को पेश करने आया था,उसमे माहिर था,अरशद ने एक और लचर सी दलील दी कि 'मैं नाटे कद का हूँ तो मैं ६ फीट वाले लोगों की प्रतियोगिता में नहीं जाऊंगा.इसलिए तुम भी प्रतोयोगिता में भाग मत लो...डांस सिखाते हो वही जारी रखो"..तो क्या उसे आगे बढ़ने का कोई हक़ नहीं? उसकी दुनिया भुवनेश्वर तक ही सीमित रहनी चाहिए? अरशद वारसी ऐसी कोई हस्ती नहीं जिनका उल्लेख किया जाए.पर वह एक नेशनल चैनल के प्रोग्राम में जज की कुर्सी पर बैठे थे.इसकी मर्यादा का तो ख्याल रखना था. करोडों दर्शक उन्हें देख रहें थे.ज्यादातर ये प्रोग्राम बच्चे देखते हैं,उन पर क्या प्रभाव पड़ेगा?वो भी यहो सोचेंगे,ये लोग हमलोगों से हीन हैं,और ये हमारे समाज में शामिल नहीं हो सकते .पर क्या पता...अरशद ने जानबूझकर कंट्रोवर्सी के के लिए यह कहा हो ....'बदनाम हुआ तो क्या, नाम न हुआ'

मुझे तो लगता है किसी विकलांग और नॉर्मल व्यक्ति में वही अंतर होना चाहिए जो किसी गोरे-काले, मोटे-पतले, छोटे-लम्बे, में होता है.जिनके पैर में थोडी खराबी रहती है वह ठीक से चल नहीं पाते.कई,बहुत मोटे लोग भी ठीक से चल नहीं पाते तो हम उन्हें विकलांग तो नहीं कहते?अगर हम इनमे भेदभाव करते हैं और इन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं तो ये हमारी 'मानसिक विकलांगता' दर्शाती है

Friday, October 9, 2009

दरीचे से झांकती....कुछ मीठी ,कुछ कसैली, यादें

आजकल मुंबई में चुनाव की गहमागहमी है. नेतागण अपनी आरामगाह छोड़कर धूप में सड़कें नाप रहें हैं. जब भी चुनाव का जिक्र आता है, एक पुरानी घटना, स्मृति के सात परदों को चीरती हुई बरबस ही आँखों के सामने आ जाती है.

मेरे पिताजी एक सरकारी पद पर कार्यरत थे. वे एक ईमानदार अफसर थे लिहाज़ा उनका ट्रांसफ़र कभी भी और कहीं भी हो जाता था. कभी कभी तो चार्ज संभाले ६ महीने भी नहीं होते और कोई न कोई शख्स अपना काम रुकता देख, उनका ट्रांसफ़र कहीं और करवा देता और पापा चल पड़ते अपने गंतव्य की ओर. ज़ाहिर है, मुझे और मेरे छोटे भाइयों को अपनी पढाई पूरी करने के लिए हॉस्टल की शरण में जाना पड़ा.

पापा की पोस्टिंग एक छोटी सी जगह पर हुई थी और मैं हॉस्टल से छुट्टियों में घर आई हुई थी. ७,८ कमरों का बड़ा सा घर,आँगन इतना बड़ा कि आराम से क्रिकेट खेली जा सके.सामने फूलों की क्यारी ,मकान के अगल बगल हरी सब्जियां लगी थी...पीछे कुछ पेड़ और उसके बाद मीलों फैले धान के खेत. एक कमरे को मैंने अपनी पेंटिंग के लिए चुन लिया, कितना सुकून मिलता था उन दिनों.जब जी चाहे , ब्रश उठाओ,थोडा पेंट करो... और जब मन करे ,ब्रश, पेंट,तेल सब यूँ ही छोड़ चल दो ..फिर चाहे एक घंटे में वापस आओ या चार घंटे में चीज़ें उसी अवस्था में पड़ी मिलतीं. .आज मेरे दोस्त,रिश्तेदार यहाँ तक कि बच्चे भी शिकायत करते हैं--'पेंटिंग क्यूँ नहीं करती??'अपने 2BHK फ्लैट में पहले तो थोडी, खाली जगह बनाओ फिर सारी ताम झाम जुटाओ.और जैसे ही ब्रश हाथ में लिया कि दरवाजे या फ़ोन की घंटी बज उठेगी.वहां से निजात पायी तो घर का कोई काम राह तक रहा होगा...फिर सारी चीज़ें समेटो. उसपर से घर के लोग हवा में बसी केरोसिन की गंध की शिकायत करेंगे.,सो अलग.(केरोसिन तेल,ब्रश से पेंट साफ़ करने के लिए उपयोग में लाया जाता है) लिहाजा अब साल में एक पेंटिंग का रिकॉर्ड भी नहीं रहा.ऐसे में बड़ी शिद्दत से याद आता है,बिना ए.सी.,बिना पंखे(क्यूंकि बिजली हमेशा गुल रहती थी) वाला वो बेतरतीब कमरा.

घर से पापा का ऑफिस दस कदम की दूरी पर था लेकिन दोपहर का खाना खाने वे ४ बजे से पहले, घर नहीं आया करते.और जब आते तो साथ में आता लोगों का हुजूम. उनलोगों को 'लिविंग रूम' में चाय पेश की जाती और अन्दर की तरफ बरामदे में लगे टेबल पर पापा जल्दी जल्दी खाना ख़त्म कर रहें होते. बरामदा,आँगन जैसे शब्द तो लगता है, अब किस्से,कहानियों में ही रह जायेंगे. और शहरों ,महानगरों में पनपने वाली पौध के लिए तो ये शब्द हमेशा के लिए अजनबी बन जायेंगे क्यूंकि 'हैरी पॉटर' और 'फेमस फाईव' में उलझे बच्चों का हिंदी पठन पाठन बस पाठ्य पुस्तकों तक ही सीमित है.उसकी सुध भी उन्हें बस परीक्षा के दिनों में ही आती है.

उन दिनों चुनाव की सरगर्मी चल रही थी और चुनाव का दिन भी आ ही गया. हमलोग पापा का खाने पर इंतज़ार कर रहें थे.पता था, आज तो कुछ और देर होनी है. ५ बजे के करीब पापा खाना खाने आये.और जाते वक़्त बस इतना ही कहा--"तुमलोग बाहर कहीं मत जाना ,मैंने आज एक क्रिमिनल को अर्रेस्ट किया है" पापा पुलिस में नहीं थे पर चुनाव के दिनों में कई सारे अधिकार गैर पुलिस अधिकारीयों को भी प्रदान किये जाते हैं.हमलोग
सोचते ही रह गए,ऐसा क्यूँ कहा? हमलोग तो कहीं जाते ही नहीं थे.वहां तो हमारी दुनिया बस कैम्पस तक ही सीमित थी.कभी बाज़ार का भी मुहँ नहीं देखा.शौपिंग करने जाना हो तो जीप पर सवार हो, पास के शहर जाया करते थे. हमें लगा,शायद अतिरिक्त सावधानी के इरादे से कहा हो.

रात में भी पापा काफी देर से आये और आते ही सुबह ही पास के शहर जाने की तैयारी करने लगे क्यूंकि मतगणना होने वाली थी. उन दिनों 'इलेक्ट्रानिक मशीनों' के द्वारा नहीं बल्कि मतगणना 'मैनुअल' हुआ करती थी.एक एक मत हाथों से गिना जाता था.जबतक मतगणना पूरी न हो जाए कोई भी बाहर नहीं जा सकता था.करीब २४ घंटों तक मतगणना जारी रहती थी और अधिकारियों को अन्दर ही रहना पड़ता था.

हमें पता था ,पापा रात में,घर वापस नहीं आने वाले हैं.हमेशा की तरह बिजली भी गुल थी. मैं करीब १० बजे अपने कमरे में सोने चली गयी. अभी बिस्तर तक पहुंची भी नहीं थी कि घर के बाहर कुछ लोगों की "हो..हो" करके जोर से चिल्लाने की आवाज आई.मैं मम्मी के कमरे की तरफ दौडी. मम्मी पत्ते की तरह काँप रही थीं.उनको कंधे से थामा पर हम बिना आपस में एक शब्द बोले ही समझ गए, ये जरूर उसी बदमाश के आदमी हैं और अब बदला लेने आये हैं.दिमाग तेजी से दौड़ने लगा,बचने के क्या रास्ते हैं?पर तुंरत ही हताश हो गया. कोई भी रास्ता नहीं.सरकारी आवासों के दरवाजे तो ऐसे होते हैं कि एक बच्चा भी जोर से धक्का दे तो खुल जाए.और मजबूत कद काठी वाले ने अगर धक्का दिया तो किवाड़ ही खुलकर अलग गिर पड़ेंगे.पीछे की तरफ एक दरवाजा था तो,पर भागा कहाँ जा सकता था.चारों तरफ खुले खेत.पीछे की तरफ प्यून और सर्वेंट क्वाटर्स थे...पर कुछ दूरी पर थे.सामने वाला आवास एक डाक्टर अंकल का था,पर वे लोग किसी शादी में गए हुए थे.और अगर होते भी तो क्या मदद कर पाते?कहीं कोई उपाए नज़र नहीं आ रहा था.घर में कोई हथियार तो होते नहीं.और एक सब्जी काटने वाले चाकू से ४,५, लोगों का मुकाबला करना ,नामुमकिन था.तभी मुझे पापा की शेविंग किट याद आई और किशोर मन ने आखिरी राह सोच ली.मैंने सोच लिया,अगर उनलोगों ने दरवाजे पर हाथ भी रखा तो बस मैं शेविंग किट से 'इरैस्मिक ब्लेड' निकाल अपनी कलाई की नसें काट लूंगी. किशोर मन पर,देखे गए फ़िल्मी दृश्यों का प्रभाव था या इसे छोड़ सचमुच कोई राह नहीं थी,आज भी नहीं सोच पाती. मम्मी शायद देवी,देवताओं की मनौतियाँ मनाने में लगीं थीं.

हमने खिड़की से देखा कुछ देर की खुसफुसाहट के बाद, वे लोग बगल की तरफ एक दूसरे अफसर के घर की तरफ बढे.वे अंकल, अकेले रहते थे और पापा के साथ ही मतगणना के लिए गए हुए थे.बस घर में उनके प्यून 'राय जी' थे. इलोगों ने उन्हें जगाया और थोडी देर बाद, राय जी हाथों में लालटेन लिए हमारे घर की तरफ आते दिखे.उन्होंने दरवाजा खटखटाया.मम्मी ने किसी तरह हिम्मत जुटा,कड़क आवाज़ में पूछा--"कौन है?...क्या काम है?"तब राय जी ने बताया ये लोग सादे लिबास में पुलिस वाले हैं और इनलोगों को हमारी हिफाज़त के लिए पुलिस अधिकारी ने भेजा है.और ये लोग जोर से चिल्लाकर अपनी उपस्थिति जता रहें थे ताकि लोग समझ जाएँ कि हमलोग अकेले नहीं हैं.

यह जान, हलक में अटकी हमारी साँसे वापस लौटीं. रायजी ने कुछ दरी निकाल देने और एक लालटेन देने को कहा और वे लोग बाहर के बरामदे में सो गए.मैं तो यह सब सुन आराम से सो गयी लेकिन मेरी मम्मी की रात आँखों में कटी. उन्हें डर लग रहा था, क्या पता ये लोग झूठ बोल रहें हों और उसी बदमाश के आदमी हों. पर मम्मी की शंका निर्मूल निकली.

Monday, October 5, 2009

गीले कागज़ से रिश्ते....लिखना भी मुश्किल,जलाना भी मुश्किल


पिछले दिनों मुंबई और पुणे पर 'स्वाईन फ्लू' का कहर था. मेरे परिचितों में कोई 'स्वाईन फ्लू' से पीड़ित तो नहीं था पर काफी लोग बीमार चल रहें थे. पता नहीं कौन से कुग्रह चल रहें थे कि एक समय तो मेरे जाननेवालों में से छह लोग हॉस्पिटल में थे. किसी की माँ, किसी के पिता,किसी की पत्नी तो किसी के पति...बाकी सारे लोग तो स्वस्थ हो कर हॉस्पिटल से घर आ गए. पर मेरे सामने वाली फ्लैट में रहने वाली आंटी इतनी खुशकिस्मत नहीं रहीं. पास के नर्सिंग होम वाले,'वायरल' और फिर 'मलेरिया' समझ कर इलाज करते रहें और जब नानावटी में भर्ती किया गया तो पता चला 'डेंगू' है और १७ दिन आई.सी.यू में रहने के बाद वो साँसों की लडाई हार गयीं. ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे.


ये बुजुर्ग तमिल दंपत्ति अकेले ही रहते थे. एक ही बेटा है जो मर्चेंट नेवी में है. बहुत ही धार्मिक महिला थीं वो. कामवाली के सफाई करके जाने के बाद भी घर के बाहर,सीढियों पर और कभी कभी तो लिफ्ट में भी पोछा लगातीं. दरवाजे के बाहर रोज रंगोली बनातीं.जब सुबह मैं छः बजे 'मॉर्निंग वाक्' के लिए निकलती तो देखती वो लम्बे से स्टूल पर चढ़ कर दरवाजे के ऊपर लगे 'लक्ष्मी गणेश' की तस्वीर पर फूल चढा कर दीपक दिखाती होतीं. मैं अपने दरवाजे के ऊपर लगी 'लक्ष्मी गणेश' जी की तस्वीर से रोज मन ही मन माफ़ी मांग लेती.

आंटी को हिंदी,अंग्रेजी बिलकुल नहीं आती थी और तमिल भाषा मेरे लिए अजनबी थी. पाषाणयुग की तरह हम कभी कभी इशारों में ही बाते कर लिया करते. पर ज्यादातर अकेलापन ही उनका साथी था..कभी कभी उन्हें पास की बिल्डिंग की तमिल औरतों से बतियाते देखती पर ज्यादातर वो कभी गार्डन में तो कभी सीढियों पे अकेली बैठी ही दिखतीं.

आठ नौ साल पहले उन्होंने अपने बेटे की शादी की थी. पुत्रवधू,मुंबई की ही थी.हंसमुख चेहरा था. जब भी मिलती दो बातें कर लेती और मैं भी उसे झट चाय की दावत दे डालती. एक दिन मेरे बहुत जोर देने पर वो आई तो, पर ५ मिनट बाद ही चली गयी. पर एक दिन उसके सास ससुर बाहर गए तो वह मेरे घर आई और जो कुछ भी कहा,सुन कर विश्वास नहीं हुआ. पता चला.उससे कोई बात नहीं करता,उसे घर का काम भी नहीं करने देते,किचेन में नहीं जाने देते. फ़ोन छूने की भी इजाज़त नहीं. .अपनी माँ,बहनों को फ़ोन करना हो तो उसे पी.सी.ओ.जाना पड़ता है. मुझे दूसरे पक्ष की बात तो नहीं मालूम थी फिर भी उसकी बाते सच लगीं क्यूंकि एक बार मेरा मोबाइल और चाभी घर के अन्दर ही रह गए थे और गलती से दरवाजा बंद हो गया तो मैंने आंटी से एक फ़ोन करने की इजाज़त मांगी. फ़ोन उनके बेडरूम के कोने में रखी एक आलमारी के ऊपर रखा था.मुझे कुछ अजीब लगा,पर मैंने ध्यान नहीं दिया अब पता चला,बहू से फ़ोन दूर रखने के लिए यह व्यवस्था थी. मैं उसे दिलासा देती रही. उसने यह भी बताया, जब मेरे यहाँ वह ५ मिनट के लिए आई थी तो जाने के बाद दोनों जन पूछते रहें...क्या क्या बात हुई? लिहाज़ा मैंने भी उसे टोकना छोड़ दिया,कि मेरी वजह से वह कोई परेशानी में न पड़ जाए.

करीब छह महीने बाद उनका बेटा शिप पर से आया तो मुझे लगा,चलो अब उसके दिन बदले. पर एक घटना देख मुझे हंसी भी आई और उनके बेटे पर तरस भी आया. मैं बाहर से आ रही थी ,देखा उनके बेटे ने वाचमैंन को कुछ नए पेकेट्स थमाए.और मुझे देख जल्दी से चला गया. वाचमैंन इतने 'ज्यूसी गॉसिप' का मौका कैसे जाने देता. बिना पूछे ही बोल पड़ा--"लगता है अपनी वाईफ के लिए कुछ लाये हैं .बोले हैं रात में ११-१२ बजे लेकर जायेंगे,हमेशा ऐसे ही करते हैं." मैं 'हम्म ' कहती हुई जल्दी से आगे बढ़ गयी,अगर जरा भी इंटेरेस्ट दिखाया तो रोज ही मुझे रोक कर पता नहीं किसके किसके किस्से सुनाया करेगा.

काफी दिनों तक वह नहीं दिखी फिर एक बार उसका फ़ोन आया कि वे लोग उसे उसकी बहन के पास छोड़ गए हैं. उसके पिता नहीं हैं,माँ भी बहन के पास ही रहती थी,.उसे बहन पर बोझ बनना अच्छा नहीं लगता....इत्यादि ,वह माँ भी बनने वाली थी. मैं बधाई और दिलासा देने के सिवा और क्या कर सकती थी सो वही किया. कुछ दिनों बाद वह यहाँ आई तो एक नन्ही परी गोद में थी. आंटी की तो सारी दुनिया ही बदल गयी लगती थी. फ्लैट का दरवाजा हमेशा खुला रहता. कभी वे बच्ची की मालिश करती दिखतीं . कभी खाना खिलाते दिखतीं तो कभी लोरी गातीं मिलती. मुझे भी यह देख,बड़ा अच्छा लगा चलो अब सब ठीक हो गया है.

पर एक दिन जब वह नीचे अकेले में मिली तो फिर से रोने लगी कि बच्ची को तो बहुत प्यार करती हैं पर उसके साथ वैसा ही पहलेवाला व्यवहार है. इस बार जब बेटा घर आया तो उसे कुछ फैसले लेने पड़े और शिप पर जाने से पहले वो दुसरे टाउनशिप में एक फ्लैट ले पत्नी और बच्ची को वहां छोड़ आया. पिछले सात सालों में छः महीने में बेटा जब भी शिप पर से आता. माँ बाप से अक्सर मिलने तो जरूर आता,घर के बहुत सारे काम भी निपटाता पर रुकता वहीँ था जो स्वाभाविक भी था. इस दौरान एक और नन्ही परी उनके बेटे के घर तो आई पर इनलोगों का घर सूना ही रहा.

जब भी आंटी को अकेले देखती, मन में यही आता अगर दोनों पोतियाँ उनके साथ होतीं तो उनका जीवन कितना अलग और खुशमय होता. और आज जब आंटी इस दुनिया से विदा ले चुकी हैं तो अंकल की देखरेख के लिए बहू को दोनों बेटियों के साथ यहीं शिफ्ट होना पड़ा. दिन भर दोनों बच्चियों की शरारतों,खिलखिलाहटों, धमाचौकडी की आवाजें आती रहती हैं. अंकल के चेहरे पर भी हमेशा एक खिली मुस्कान होती और कभी वे बड़ी तो कभी छोटी का हाथ पकडे उनकी किसी न किसी शरारत का जिक्र करते रहते हैं. मुझे भी अपने सामने का फ्लैट यूँ गुलज़ार देख बहुत अच्छा लगता है पर फिर एक टीस सी उठती है 'काश आंटी भी ये सब देख पातीं' यह लिखते हुए ग्लानि सी हो रही है पर विधि की ये कैसी विडम्बना है कि किसी के जाने के बाद तो घर सूना हो जाता है और यहाँ.....

अभी दो दिन पहले देखा, कबाडी वाला आया हुआ है और बोरे में सामान भर भर कर ले जा रहा है. मुझे देखते ही अंकल ने कहा--'इतने बरसों से वाईफ ने संभाल कर रखा था पर इनका इस्तेमाल भी नहीं होता और अब घर में जगह भी नहीं है.बेटे के फ्लैट का भी सारा सामान एडजस्ट करना है.अब घर में ३ टी.वी.है ,दो फ्रीज है, इतनी सारी आलमारी है ,कहाँ रखूं?..इसीलिए निकाल रहा हूँ".....
मन सोचने लगा, पुरानी बेजान चीज़ों को तो हम इतनी जतन से संभाल कर रखते हैं अगर इस से आधी मेहनत भी रिश्ते सहेजने में लगाएं तो ज़िन्दगी का सफ़र कितना आसन और ख़ूबसूरत हो जाए"