Sunday, October 6, 2013

ख़ामोश इल्तिज़ा

तन्वी बालकनी में खड़ी सामने फैले स्याह अँधेरे को घूंट घूंट पीने की कोशिश कर रही थी ,सोचती कुछ ऐसा जादू हो कि वो स्याह अँधेरे में गुम हो जाए और फिर कोई उसे देख न पाए. तभी मोबाईल पर मैसेज टोन बजावो चेक करने नहीं गयीपता था सचिन का मैसेज होगा, "पढ़ लिया न मेरा मैसेज ,अब जरा मुस्करा दो . सचिन का पहला मैसेज पढने के बाद ही बालकनी में आयी थी. और पता था वो दूसरा मैसेज यही भेजेगा . सचिन उसके ऑफिस में हाल में ही आया है ,पर अक्सर टूर पर रहता है. पूरे देश में घूमता रहता और जहां भी जाता है वहां से उसे मैसेज जरूर करता है, कुछ ख़ास नहीं बस उसकी खिडकी से जो भी नज़ारा उसे दिखता है ,वो लिख भेजता है .कभी लिखता , ‘बर्फीली चोटियों पर चाँद की किरणें ऐसे पड़ रही हैं कि सबकुछ नीले रंग में नहा उठा  है ,काश तुम देख पाती कभी राजस्थान के सैंड ड्यून्स का वर्णन करता , कभी काले घुमड़ते बादलों का ,कभी दहकते गुलमोहर का तो कभी पछाड़ खाती समुद्र की लहरों का . एक बार ताजमहल देखने गया तो सिर्फ इतना मैसेज लिखा...वाह ताज !!  ताजमहल को देखा और तुम याद आयी वो किसी मैसेज का जबाब नहीं देती .और सचिन ये बात जानता था .एक बार मैसेज में ही लिखा था , ‘मेरा फोन तो उठाओगी नहीं पर जानता हूँ मैसेज जरूर पढ़ोगी और पढ़ कर मुस्कुराओगी भी ‘.

सचिन बहुत ही जिंदादिल और हंसमुख लड़का था . जितने दिन भी ऑफिस में रहता रौनक आ जाती ऑफिस में. लडकियां तो उसके आस-पास ही मंडराती रहतीं. लड़के भी उसके अच्छे दोस्त थे. अक्सर शाम उन सबका  किसी पार्टी का प्लान बन जाता. वो हमेशा की तरह बस अपने काम से काम रखती और फिर ऑफिस के बाद सीधा घर . शुरू में सबने उसे भी शामिल करने की कोशिश की थी. पर हर बार उसकी ना सुन कर उसे अपने हाल पर छोड़ दिया था .सचिन ने भी हर संभव कोशिश की ,साथ चाय कॉफ़ी लंच का आग्रह ,उसे घर छोड़ देने की पेशकश पर हर बार वो सिर्फ हल्का सा मुस्कुरा कर सर हिला कर ना कर देती . एक बार सचिन ने उसे कह ही दिया , “आपको पता है, आपने अपने चारो तरफ एक  दीवार उठा रखी है, पर यह दीवार दूसरों  को बाहर रखने से ज्यादा आपको अन्दर बंद रखेगी...बहुत घुटन होगी...एक छोटी सी खिड़की तो खोलिए ,थोड़ी ताज़ी हवा आने दीजिये
आपकी बातें मेरी बिलकुल समझ में नहीं आ रहीं...ये काम निबटा लूँ ज़रा कब से पेंडिंग पड़ा है और तन्वी ने कंप्यूटर स्क्रीन पर नज़रें गड़ा दीं.
कोई बात नहीं ,हम भी छेनी हथौड़ा लेकर इस दीवार को गिरा कर ही रहेंगे .उसकी तरफ एक मुस्कुराहट उछालता सचिन चला गया वहाँ से .

वो बेतरह डर गयी , अगर सचिन ज्यादा से ज्यादा टूर पर नहीं होता तब शायद वो रिजाइन ही कर देती. अब किसी के करीब जाने या किसी को अपने करीब आने देने की हिम्मत नहीं बची थी उसमे. दो दो बार धोखा खा कर उसका दिल छलनी हो चुका था.

*** 

सिड तन्वी की बिल्डिंग में रहता था और उसके ही स्कूल में था . कब साथ खेलते पढ़ते उनके बीच प्रेम का अंकुर फूटा, अहसास भी नहीं हुआ. पर धीरे धीरे वो अंकुर एक पौधे का रूप ले चुका था और उसमे फूल खिल आये थे, जिसकी खुशबु पूरी बिल्डिंग में फ़ैल गयी थी . सबको पता चल गया था , बात तन्वी के माता-पिता तक भी पहुंची .लेकिन तन्वी की शादी को लेकर उसके माता- पिता ने बड़े बड़े ख्वाब बुन रखे . लम्बे बालों वाला, कलाई में ब्रेसलेट पहने ,हाथों पर टैटू बनवाये ,म्युज़िक को ही अपनी ज़िन्दगी समझने वाला सिड कहीं से भी उन सपनों पर खरा नहीं उतरता था .तन्वी ने हिम्मत दिखाई , ‘सिड के साथ भाग जाने को भी तैयार थी .पर सिड ने ही कदम खींच लिए .उलटा उसे समझाने लगा , ‘हम कहाँ रहेंगे ,कैसे घर चालायेंगे ,मेरे कैरियर  का क्या होगा?’ तन्वी ने कहा भी, ‘वो नौकरी कर लेगी, सिड आराम से अपना कैरियर बना सकता हैलेकिन सिड उलटा उसे समझाने लगा , “तुम कितना कमा लोगी कि हम अलग रह कर घर भी चला सकें और मैं अपने शौक भी पूरे कर सकूँ. एक गिटार की कीमत पता है?? और उसकी क्लासेज़ की फीस ?? मुझे अभी बहुत कुछ सीखना है तन्वी...कितनी मिन्नतें करनी पड़ती हैं ,तब जाकर पापा पैसे देते हैं. अगर तुम्हारे पैरेंट्स नहीं मान रहे तो फिर हमें एक दुसरे को गुडबाय कह देना चाहिए

सिड की ये बातें सुनकर तन्वी ने फिर कुछ नहीं कहा, ‘उसे भीख में प्रेम नहीं चाहिए था ‘ .पर इस घटना ने पता नहीं उसके पैरेंट्स पर क्या असर डाला कि वे तन्वी की शादी के लिए जल्दबाजी मचाने लगे. चुपचाप रिश्तेदारों से मिलकर एक लड़का ढूंढा गया और मुम्बई से बहुत दूर वह इस शहर में ब्याह दी गयी. तन्वी के एतराज जताने पर माँ से सुनने को मिला, “पहले ही बहुत गुल खिला चुकी हो...इसके पहले कि हमारे मुहं पर कालिख पुते, अपना घर –बार संभालो “.

तन्वी को भी अपने पैरेंट्स पर बहुत गुस्सा आया और उसने भी सोच लिया..ठीक है वह ,अब अपना घर बार ही संभालेगी ,पलट कर उन्हें नहीं देखेगी उसने पूरे तन-मन से अपने पति को अपनाया . पर उसकी किस्मत ने यहाँ भी धोखा दिया. उसके पति को एक साथी नहीं एक केयर टेकर चाहिए थी. उनकी ज़िन्दगी शादी से पहले जैसी चल रही थी, उसमे शादी के बाद भी कोई बदलाव नहीं आया . वही ऑफिस के बाद दोस्तों के साथ समय बिताना . शनिवार की रात जमकर शराब पीना और फिर सारा सन्डे सो कर निकालना . अगर तन्वी कुछ कहती तो गालियाँ मिलतीं . एक बार तन्वी ने तेज आवाज़ में एतराज जताया तो पति ने हाथ भी उठा दिया . इसके बाद तन्वी सहम सी गयी , अपने माता-पिता से शिकायत की तो उन्होंने कहा , “वक़्त के साथ सब ठीक हो जाएगा थोड़ा बर्दाश्त करो पर वक़्त के साथ ठीक कुछ भी नहीं हुआ बल्कि पति और भी ढीठ हो गया . तन्वी के पति को खुद के एक छोटे शहर से होने का बहुत कॉम्प्लेक्स था .वे अक्सर तन्वी को बड़े शहर वाली , बॉम्बे वाली कहकर ताना दे जाते. फिर भी तन्वी इस शादी को कामयाब बनाने की कोशिश में जुटी रही. पर जब उसका मिसकैरेज हुआ और उसके बाद भी पति ने एक दिन भी छुट्टी नहीं ली, उसे हॉस्पिटल में छोड़ वैसे ही ऑफिस चला गया तब तन्वी बुरी तरह टूट गयी. उसे इस शादी से कोई उम्मीद नहीं बची.

दो तीन महीने तो वो डिप्रेशन में ही रही. फिर उसके बाद खुद को ही धीरे धीरे समेट कर ज़िन्दगी पटरी पर लाने की कोशिश करने लगी. रोज अखबार में नौकरी वाले कॉलम देखती,लाल निशान लगाती और बिना पति को बताये इंटरव्यू दे आती. पर कहीं उसे नौकरी पसंद नहीं आती कहीं क्वालिफिकेशन के अभाव में वो रिजेक्ट कर दी जाती. कहीं दोनों पसंद आते तो सैलरी इतनी कम होती कि इतना मर खप कर नौकरी करना उसे नहीं जमता. फिर उसे इस कंपनी में मनलायक नौकरी मिली.

पति से पूछा नहीं बस उन्हें बताया . सुनने को मिला, “हमारे खानदान की औरतें नौकरी नहीं करतीं

उसने पलट कर तुरंत ही कहा और हमारे खानदान के पुरुष शराब पीकर औरतों को नहीं पीटते
शायद नयी जॉब ने ही उसे इतना कहने की हिम्मत दे दी थी . पर पति का इगो बहुत हर्ट हुआ और वे रोज सुबह शाम ताने कस कर बदला लेने लगे , तैयार होते देख व्यंग्य करते ,”इतना सजा धजा किसके लिए जा रहा है ,बॉस  बहुत हैंडसम है क्या ?”
रोज देर से आने वाले पति अब जल्दी आने लगे थे . जिस दिन उसे देर हो जाती सुनने को मिलता, “ ऑफिस के बाद कॉफ़ी-शॉफी पीने चली गयी होंगी , नौकरी बचाए रखने को ये सब करना पड़ता है...रोज देखता हूँ मैं, यह सब  “

अपने होंठ सिल कर वो सारे काम किये जाती. अपने माँ-बाप के मन का हाल जानती थी . उन्हें अगर पता चल जाता कि उसके पति को उसका जॉब करना पसंद नहीं तो शायद जबरदस्ती छुड़वा देते. इसलिए बिना पति के किसी ताने  का जबाब दिए वह सारे काम करती और ज्यादा से ज्यादा उनसे दूर रहती. बस ऑफिस का काम ही उसके लिए जीने का सहारा था. उसने बहुत मन लगाकर काम सीखा. ऑफिस के पौलिटिक्स, गॉसिप से भी दूर रहती, मेहनत से काम करती. इस वजह से ऑफिस में उसकी बहुत इज्जत भी थी .

कभी कभी तलाक लेने के विषय में सोचती भी पर फिर खुद को ही समझा देती, “क्या फर्क पड़ जाएगा तलाक लेने से ,आज भी एक छत के नीचे अजनबी की तरह ही रह रहे हैं, आगे भी अजनबी ही रहेंगे पर एक दिन वो घर की चाबी ले जाना भूल गयी थी. ऑफिस में ऑडिट चल रहा था, उसे घर आने में देर हो गयी. कई बार घंटी बजायी पर उसके पति ने दरवाजा नहीं खोला. पूरी रात उसने सीढियों पर बैठ कर बिताई . और वहीँ बैठे बैठे एक निर्णय ले लिया. सुबह दूध वाले, पेपर वाले न देख लें इस डर से पति ने दरवाजा खोल दिया . वह अपने कमरे में जाकर सो गयी . उस दिन ऑफिस से छुट्टी ले ली. और सारा दिन घर ढूँढने में बिताया . शाम को सामान बाँधा पति के आने का इंतज़ार किया पति का रिएक्शन था ,“ हाँ ,ठीक है..जाइए जाइए..मैं भी डिवोर्स दे दूंगा..दूसरी शादी करूंगा

आप शौक से दूसरी तीसरी जीतनी मर्जी हो शादी कीजिये मुझे आपके डिवोर्स पेपर का इंतज़ार रहेगा “  कह वह बाहर निकल आयी.

उसके बाद से ही उसकी ज़िन्दगी एक शांत झील की तरह हो गयी है. सीमित दायरे में कैद...न उसमें कोई तरंग उठती है न किनारे  टूटने का कोई डर होता है. ऑफिस से आना देर रात किताबें पढना , गज़लें सुनना .इतना सुकून शायद उसकी ज़िन्दगी में कभी रहा भी नहीं. पर जब से सचिन ने ऑफिस ज्वाइन किया है वो लगातार इस शांत झील में कंकड़ फेंकता जा रहा  है. थोड़ी देर को तरंगें उठती हैं पर फिर झील की सतह वैसे ही शांत हो जाती है. पर अब झील के तल में इतने कंकड़ जमा हो गए थे कि उनकी चुभन , झील को तकलीफ दे रही थी .

***

सचिन भला लड़का था, तन्वी को उसका अटेंशन पाकर अच्छा लगता था.पर प्यार और शादी में दो बार धोखा खा चुकी तन्वी, सचिन को करीब आने देने से डर रही थी. उसे यह भी लगता, सचिन को उसके पास्ट के बारे में मालूम नहीं है, इसीलिए वह उसकी तरफ आकर्षित है. जैसे ही सचिन को सच्चाई पता चलेगी ,वह उस से खुद ब खुद दूर हो जाएगा ,इसीलिए वह सचिन से दूर दूर ही रहती पर सचिन के बार बार आते sms ने उसे उलझन में डाल दिया था. और उसने सचिन से मिलकर उसे सबकुछ साफ़ साफ़ बता देने का फैसला किया. उसे विश्वास था सचिन को उसके बारे में कुछ भी पता नहीं अगर वो अपना सारा पास्ट उसे बता देगी तो वो बात समझ जाएगा और फिर उस से दूर हो जाएगा . कुल जमा अपनी चौबीस साल की ज़िन्दगी में तन्वी ने इतना कुछ देख लिया था कि उसे अब अपनी ज़िन्दगी में और उथल-पुथल गवारा नहीं थे.

उसने सचिन को मैसेज किया , “कब वापस आ रहे हो टूर से ?”

वाsssऊ... कांट बीलीव, तुम पूछ रही हो...बस अभी एयरपोर्ट की तरफ निकलता हूँ , सुबह तक कोई न कोई फ्लाईट मिल ही जायेगी और फिर डेढ़ घंटे में आपके सामने हाज़िर
मजाक छोडो ..सच बताओ...तन्वी ने फिर से मैसेज किया .
आई शपथ...सच कह रहा हूँ
ठीक है मैं कल ऑफिस में पता कर लूंगी...
और इस बार सचिन ने मैसेज की जगह कॉल ही किया. थोड़ी देर फोन घूरती रही तन्वी फिर उठा कर जैसे ही हलोकहा, सचिन का चिंता भरा स्वर सुनायी दिया, “क्या बात है तन्वी...कुछ परेशानी है...मैं मजाक नहीं कर रहा ,सच में कल आ सकता हूँ “ 
दिल भर आया तन्वी का थोडा रुक कर बोली , कि कहीं आवाज़ का कम्पन पता न चल जाए . कोई परेशानी नहीं बाबा....बस ऐसे ही कुछ बात करनी है
आज तो मेरे सितारे खुल गए ...तुम्हे मुझसे बात करनी है ?? जो सामने देख कर भी मुहं घुमा लेती है आज उसे मुझसे बात करनी है...ओह!! सचमुच यकीन हुआ, खुदा है इस जहां में वरना मेरी दुआ कैसे क़ुबूल हो जाती...
अब ये डायलॉगबाज़ी बंद करो...तुम्हारे आने के बाद कॉफ़ी पर मिलते हैं..चलो गुडनाईट
अरे !! इतनी जल्दी क्या गुडनाईट...अभी तो बात की शुरुआत है..फिर मुलाक़ात होगी और फिर...
मैं सोने जा रही हूँ..गुडनाईट
मैं परसों आ रहा हूँ तन्वी...सीधा ऑफिस ही आउंगा उसके बाद मिलते हैं...गुडनाईट एन यू प्लीज़ टेक केयर...बाय इस बार सचिन का स्वर गंभीर था .
यू टू...बाय तन्वी ने फोन रख दिया पर अब आँखों में नींद कहाँ थी. पहली बार सचिन से इस  तरह खुलकर बात हुई थी और दोनों ही अपनेआप तुम पर आ गए थे . शायद उसके लगातार आते मैसेज ने आप वाली अजनबियत हटा दी थी .देर रात तक ताने बाने बुनती रही कि कैसे बात की शुरुआत करेगी क्या क्या बताएगी, सचिन का क्या रिएक्शन होगा.

सचिन दोपहर बाद ऑफिस में आया . बाल बिखरे हुए थे . चेहरे पर थोड़ी परेशानी की लकीरें दिख रही थीं अब वे सचमुच थीं या तन्वी की कल्पना कहना मुश्किल था. दूर से ही उसकी तरफ बड़ी गहरी नज़रों से देखते हुए बहुत ही अपनेपन से मुस्कुरा दिया .लेकिन उसकी डेस्क के पास नहीं आया ,शायद उसकी असहजता भांप रहा था . छः बजे के करीब उसके पास आकर धीरे से बोला, “कहीं इरादा बदल तो नहीं दिया ?”
उसने भी मुस्करा कर सर हिला कर कह दिया .
फिर कहाँ चले कॉफ़ी के लिए
वो बीन्स एंड बियोंड ‘ है न ..ऑफिस से ज्यादा दूर भी नहीं.
दूर के लिए कोई बात नहीं, कार लेकर आया हूँ...अब इतनी मुश्किल से मौक़ा मिला है ,जितनी देर का साथ मिल जाए ,घर भी  छोड़ दूंगा ..इसी बहाने घर भी देख लूंगा...फिर तो जब मन हुआ डोरबेल बजायी जा सकती है शरारत से मुस्कराया सचिन .
तन्वी ने त्योरियां चढ़ाईं तो हंस दिया  ,”मजाक था बाबा ..समझा करो .अब सब समेटो मैं बाहर इंतज़ार कर रहा हूँ .
सचिन के जाने के बाद तन्वी सोचती रह गयी, पहली बार ऐसे भरपूर नज़र डाली थी सचिन के चेहरे पर सचमुच दिलकश है मुस्कान उसकी..इसीलिए लडकियां मरी जाती हैं..फिर कंधे उचका दिए..उसे क्या , आज तो उसे सब बता देगी फिर सच जानकार सचिन खुद ही उस से सौ फीट की दूरी रखेगा

सचिन कार में वेट कर रहा था .जगजीत सिंह की नज़्म बज रही थी, “बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी...”तन्वी कहने वाली थी ,’मेरी फेवरेट नज़्म है यह ‘ फिर खुद को ही झिड़क दिया, “वह दोस्ती बढाने नहीं, ख़त्म करने आयी थी. फिर एक ठंढी सांस भी ली, “अब बात दूर तलक क्या जायेगी...हमेशा हमेशा के लिए ख़त्म हो जायेगी .सचिन ड्राइव करते हुए चुप सा था. शायद उसके भी मन में चल रहा था, क्या कहने वाली है वह रास्ते में बस ट्रैफिक मौसम की बाते होती रहीं. जब बीन्स एंड बियोंडनिकल गया तो तन्वी ने उसकी तरफ देखा .सचिन ने सड़क पर नज़रें जमाये हुए ही कहा, ‘यहाँ बहुत भीड़ होती है...आगे चलते हैं न सुकून से दो पल बैठेंगे

अच्छी जगह चुनी थी सचिन ने, बड़े बड़े आरामदायक चेयर्स थे . हलकी सी रौशनी थी और लोग भी बहुत ज्यादा नहीं. वो भी पैर फैलाकर रिलैक्स होकर बैठी थी . बस बात कैसे शुरू करे यही सोच रही थी . 
सचिन ने मेन्यु कार्ड पर नज़र घुमाते हुए पूछा , “क्या लोगी...
बस कॉफ़ी...
चिली टोस्ट ट्राई करो बड़ी अच्छी होती है यहाँ की" कहते उसने चिली टोस्ट और और कॉफ़ी ऑर्डर कर दिया था .तन्वी ने बात जारी रखने को कहा, ‘अक्सर आते हो यहाँ ?”
अब कहाँ वक़्त मिलता है..महीनों बाद आया हूँ, कॉलेज के दिनों में अक्सर आता था
गर्ल फ्रेंड्स के साथ ?” उसने छेड़ा
हाँ, गर्लफ्रेंड्स के साथ...जलन हो रही है ? “ सचिन ने भी हंस कर उसी सुर में जबाब दिया .
मुझे क्यूँ जलन होगी ? “,उसने तेजी से कहा .
हाँ, तुम्हे क्यूँ जलन होगी...ऐसा है ही क्या हमारे बीच सचिन कुछ गंभीर हो गया था .
तन्वी को सूझा नहीं क्या जबाब दे ..अच्छा हुआ उसी वक़्त कॉफ़ी आ गयी.
टोस्ट कुतरते कॉफ़ी के घूँट भरते दोनों ही चुप थे सचिन शायद इंतज़ार कर रहा था ,वो अपनी बात शुरू करे
आखिर तन्वी ने बात शुरू की , “सचिन तुम्हारे एस.एम.एस आते हैं..मैं रिप्लाई नहीं करती...मुझे अच्छा नहीं लगता
मुझे भी ये अच्छा नहीं लगता ...सचिन ने कप रखते हुए उसकी आँखों में सीधा देख मुस्कराते हुए कहा. 
वो थोड़ी असहज हो गयी लेकिन फिर संभाल लिया खुद को , “ देखो इसकी एक वजह है ...मैं सिंगल नहीं हूँ
ओह! आई सी...
नहीं मेरा मतलब सिंगल तो हूँ..पर वैसी सिंगल नहीं ...एक्चुअली आयम अ डीवोर्सी
सो ??”..सचिन ने कंधे उचका दिए
तुम्हे कोई फर्क नहीं पड़ता ???” उसे अचरज हुआ
क्या फर्क पड़ना चाहिए ...और ये बात मुझे पता है “ सचिन ने कंधे उचका दिए .
क्याsss ??..वो जैसे आसमान से गिरी . तुम्हे कैसे पता ??”
मैडम हमलोग इन्डियन हैं और हमारा फेवरेट टाईमपास है गॉसिप...याद नहीं पर किसी ने बहुत पहले ही बताया था
और तुम्हे लगा ये तो अवेलेबल है ,इसपर चांस मारा जा सकता है ?“ ये जानकार कि सचिन को ये बात पहले से पता है तन्वी को बहुत गुस्सा आ रहा था
व्हाssट ??..सचिन इतने जोर से चौंका कि थोड़ी कॉफ़ी उसके पैंट पर छलक ही गयी .
हाँ !! तुमने यही सोचा ये तो डीवोर्सी है...अकेली रहती है....इसके साथ टाईमपास किया जा सकता है ...रात बिरात मैसेज भेजा जा सकता है ऑफिस में उसके पीठ पीछे लोग उसकी बातें करते हैं ये जान उसे बहुत गुस्सा आ रहा था और वो इसका बदला सचिन से ले रही थी.
तन्वी..आयम सॉरी... आयम रियली रियली सॉरी...मैं तुम्हें कैसे यकीन दिलाऊं मैंने ऐसा कभी नहीं सोचा...और मुझे भी नहीं पता तुम मुझे इतना अवॉयड करती थी फिर भी मुझे तुमसे बात करना ,अच्छा लगता था. पता नहीं तुम्हे देख कर क्यूँ लगता कि तुम एक शांत झील सी हो, एक सीमित दायरे में कैद जबकि तुम्हे एक चंचल नदी बनकर बहना चाहिए. मैसेज इसलिए भेजता कि कहीं भी कुछ अच्छा  देखता तो मुझे तुम्हारा ख्याल आ जाता. मन होता ,वो जगह तुम्हारे साथ देखूं, बस इतनी सी बात है तन्वी और कुछ नहीं
यही होता है... डीवोर्सी के साथ अवेलेबल का टैग अपने आप लग जाता है....इसीलिए मैं सबसे इतनी दूरी बना कर रखती हूँ और देखो तुम्हें भी मालूम था फिर भी तुम मेरे करीब आने की कोशिश करते रहे, मुझसे दोस्ती बढाते रहे तन्वी की आँखें छलछला आयीं .
सचिन कुछ कहने जा रहा था पर उसकी भीगी आँखें देख चुप हो गया , कुर्सी से पीठ टिका दी ...एक गहरी सांस ली...फिर पूछा , “तो तुम क्या चाहती हो...मैं तुमसे दूर रहूँ ??”
हाँ ..आँखों में जलते हुए आंसू लिए हुए जैसे बच्चों की तरह एक जिद से कहा .
ठीक है डन.... अब नो मैसेजेस...नो बातचीत.. दूर रहूँगा, तुमसे ..इतनी बड़ी बात कह दी...बहुत हर्ट किया है मुझे...ऐसा कैसे सोच लिया तुमने...सचिन ने हैरानी से सर हिलाया
क्यूंकि यही सच है ...वो कड़वी होती जा रही थी .
फिर सचिन ने वेटर के बिल लाने का भी इंतज़ार नहीं किया काउंटर पर जाकर बिल चुकाया . वो भी साथ ही उठ आयी.
 बाहर निकल कर तन्वी ने कहा ,”मैं ऑटो ले लूंगी..
ओके.. कहता सचिन आगे बढ़ कर ऑटो रोकने लगा . ऑटो में बैठते हुए , सचिन की तरफ देखने की हिम्मत नहीं हुई तन्वी की ..बाय भी नहीं कहा...उसकी आँखें तो गंगा जमुना बनी हुई थीं.
घर आकर भी देर तक रोती रही . पर समझ नहीं पा रही थी ,वो तो सचिन को खुद से दूर रहने के लिए कहने गयी थी. सचिन ने उसकी बात मान भी ली ,फिर भी क्यूँ उसके आंसू यूँ उमड़े चले आ रहे थे .
***

सचिन ने अपना वायदा निभाया भी. उसकी तरफ कभी देखता भी नहीं , ऑफिस में भी थोडा बुझा बुझा सा रहता, लोगो ने भी नोटिस किया तो उसने टाल दिया..अरे, इतना टूर रहता है,यार ...आज यहाँ, कल वहाँ थक जाता हूँ पर अब तन्वी की नज़रें हर वक़्त सचिन पर रहतीं. वो कब टूर पर जा रहा है, कब वापस आ रहा है, सारी  खबर रहती उसे. मोबाइल कंपनी वालों का भी कोई मेसेज आता तो चौंक जाती , और फिर सचिन के पुराने मैसेज कई कई बार पढ़ती. अपने उस दिन के व्यवहार का गिल्ट उसके मन में घर कर गया था . वो सचिन को कुछ और कहना चाहती थी पर कुछ और ही कह गयी. उसने सारा दोष सचिन पर डाल दिया ,जबकि इतना वो भी जानती थी ,सचिन के मन में ऐसा ख्याल नहीं रहा होगा. पर तन्वी को समझ नहीं आ रहा था, यह जानते हुए भी कि वह एक डीवोर्सी है सचिन उस से प्यार कैसे कर सकता है? जबकि वो हैंडसम है, काबिल है, उसे कितनी ही सिंगल लडकियां मिल जायेंगी. फिर ये भी सोचती ,अगर सचिन सचमुच सिर्फ उसके साथ टाइम पास करना चाहता था तो फिर उसके बात करने से मना करने पर इतना उदास क्यूँ रहने लगा है?और तन्वी ने सोचा, उस से मिलकर ,अपने उस दिन के व्यवहार के लिए माफ़ी तो मांग ही लेनी चाहिए. उसे अपनी बीती ज़िंदगी की सारी बातें बता देगी कि क्यूँ वह इतनी कड़वी हो गयी थी.
और उसने सचिन को मैसेज कर दिया..क्या बहुत नाराज़ हो ?“
मैं तुमसे कभी नाराज़ नहीं हो सकता...इस जनम में तो नहीं सचिन का जबाब पढ़ फिर से उसकी आँखें भर आयीं .
कल, चलें कॉफ़ी पीने ?“
ठीक है एक स्माइली के साथ सचिन का सादा सा जबाब आया ,फिर से कोई मजाक कर के वो रिस्क नहीं लेना चाहता था .

ऑफिस के बाद सचिन उस दिन की तरह ही कार में उसका वेट कर रहा था . पर आज गाड़ी में कोई ग़ज़ल या गाना नहीं बज रहा था हलके से मुस्कुरा कर उसने उसके लिए दरवाजा खोल दिया .
बैठते ही तन्वी ने कहा.. सॉरी मुझे वो सब नहीं कहना चाहिए था...मैं कुछ ज्यादा ही बोल गयी ..
कोई बात नहीं...मैं समझता हूँ ..
सचिन मुझे तुमसे ढेर सारी बातें करनी है...
बोलो..आयम ऑल इयर्स जरा सा मुस्कुरा कर उसकी तरफ देख फिर नज़रें सड़क पर जमा दीं.
छोडो कहीं नहीं जाते हैं ...लॉन्ग ड्राइव पर चलो..यहीं प्राइवेसी है ..मैं सब बताती हूँ
ठीक है..”..इतना बोलने वाले सचिन के दो दो शब्द के जबाब तन्वी को बड़े अजीब लग रहे थे पर वो समझ रही थी..वो बहुत हर्ट है और अब कुछ भी बोलकर मुसीबत में नहीं पड़ना चाहता .

वो चुन चुन कर सुनसान रास्ते पर धीरे धीरे गाड़ी घुमाता रहा और तन्वी परत दर परत अपनी ज़िन्दगी के गुजरे लम्हे उसके सामने खोलती गयी . सचिन ध्यान से सुन रहा था जब कभी उसकी तकलीफ से बहुत आहत होकर उसकी तरफ देखता तो तन्वी सामने नज़रें टिका देती. पति से अलग होकर अकेले रहने की बात तक पहुँचते पहुँचते तन्वी की आवाज़ आंसुओं में डूब चुकी थी . सचिन ने एक किनारे गाड़ी लगाकर, तन्वी का सर अपने कंधे से टिका लिया. आंसुओं से चिपके उसके बाल समेट कर पीछे कर दिए और उसका सर सहलाते हुए बस इतना कहा, “भरोसा कर सकती हो तो इतना भरोसा करो मुझपर, अब इसके बाद एक आंसू नहीं आने दूंगा तुम्हारी आँखों में ..बहुत झेल लिया तुमने, अब और नहीं, मेरे होते अब और नहीं ..तन्वी थोड़ी और पास सिमट आयी , आज तक सब कुछ उसने अकेले झेला था ,सारी लड़ाई अकेले लड़ी थी ,अब तक कोई उसकी तकलीफ को यूँ अपनी तकलीफ समझ दुखी नहीं हुआ था. और तन्वी ने अपनी आँखें मूँद लीं . सब कुछ कह कर उसका मन हल्का हो गया था .साड़ी कडवाहट आंसुओं में धुल चुकी थी और अब उसका मन बीते दिनों के गहरे अँधेरे से निकल कर ,इस निश्छल प्रेम की नर्म रौशनी के स्वागत के लिए तैयार था .
(समाप्त )

Sunday, September 25, 2011

दो वर्ष पूरा होने की ख़ुशी ज्यादा या गम....

२३ सितम्बर को इस ब्लॉग के दो साल हो गए. पर इस बात की ख़ुशी नहीं बल्कि अपराधबोध से मन बोझिल है.  पिछले साल इस ब्लॉग पर सिर्फ दो लम्बी कहानियाँ और एक किस्त,वाली बस एक कहानी लिखी.

जबकि sept 2009 -sept 2010  के अंतराल में आठ-सोलह-चौदह किस्तों वाली तीन लम्बी कहानियाँ  और चार छोटी कहानियाँ लिखी थीं. मन दुखी इसलिए है कि  ऐसा नहीं कि  प्लॉट   नहीं सूझ रहा...कम से कम पांच-छः प्लॉट और दो लम्बी कहानियाँ अधूरी लिखी पड़ी हुई हैं. पर पता नहीं वक्त कैसे निकल जा रहा है...शायद दूसरे ब्लॉग की सक्रियता कहानियों की राह में रोड़े अटका रही है...एक मित्र से यही बात शेयर की तो उनका कहना था...."कहानियाँ तो खुद को लिखवा ही लेंगी...दूसरे ब्लॉग पर सक्रियता कायम रखें...वो ब्लॉग लोगो को ज्यादा पसंद है..".. ..हाँ, कहानियाँ शायद लिखवा ही लें खुद को...पर इस अपराधबोध का क्या करूँ...जो जब ना तब मन को सालता रहता है. 

खासकर तब,जब मेरी बहन शिल्पी ने कहा..., "आज भी पहले 'मन का पाखी' ही खोल कर देखती हूँ...नई कहानी आई है या नहीं"...और उसने एक बड़ी महत्वपूर्ण बात कही...कि "कहानियाँ, पाठकों की कल्पना को विस्तार देती हैं...वे अपनी दृष्टि  से किसी भी कहानी को देखते हैं.." . कुछ और पाठक हैं..जो यदा-कदा टोकते रहते हैं..'कहानी नहीं लिखी कब से आपने ' और मैने सोच लिया....लम्बी कहानियाँ तो जब पूरी होंगी तब होंगी...एक कहानी तो पोस्ट कर दूँ..

और मैने "
हाथों की लकीरों सी उलझी जिंदगी                          " लिख डाली.
 अब पाठकों को  बता दूँ कि ये कहानी ,जब मैं कॉलेज में थी,तभी लिखा था. दुबारा टाइप करते वक्त कुछ चीज़ें जुड़ गयीं...क्यूंकि हाल-फिलहाल की कहानी हो और टीनेजर्स से जुड़ी  हो तो फिर उसमे मोबाइल और एस.एम.एस. का जिक्र कैसे ना हो. 

मैने समीर जी से वादा भी किया था...कि डा. समीर के नाम के विषय में  पूरी कहानी पोस्ट करने के बाद लिखूंगी. जब मैने यह कहानी लिखी थी तो पात्रों के यही नाम थे. ब्लॉग में पोस्ट करते वक्त मुझे इस बात का ध्यान था कि समीर जी एक नामी ब्लोगर हैं और मेरी कहानियों के पाठक भी. फिर भी मैं यह नाम नहीं बदल पायी. दूसरे कहानी लेखकों का नहीं पता..पर मेरे साथ हमेशा ऐसा होता है कि कहानी के हर पात्र का नाम ही नहीं एक अस्पष्ट सी तस्वीर भी मेरे सामने बन जाती है. ऐसा लगता है..उसे कहीं देखूं तो पहचान लूंगी. और वो नाम...उनका व्यक्तित्व उस कहानी से कुछ ऐसे जुड़ जाते हैं कि फिर उन्हें बदलना मेरे लिए तो नामुमकिन है. आज भी शची-अभिषेक, नेहा-शरद, पराग-तन्वी, मानस-शालिनी .सब जैसे मेरे जाने-पहचाने हैं. प्रसंगवश ये भी बता दूँ कि ये 'नाव्या' नाम मैने कहाँ से लिया था??..अमिताभ बच्चन  के छोटे भाई की बेटी का नाम उनके पिता हरिवंश राय बच्चन ने रखा था, 'नाव्या नवेली'. मैने कहीं ये पढ़ा और ये नाव्या नाम तभी भा गया.

वैसे अब, जब कहानियाँ लिखती हूँ...तो सबसे बड़ी समस्या नामों की  होती है. परिचय का दायरा दिनोदिन विस्तृत होता जा रहा है...और कोई भी परिचित नाम रखने से बचती हूँ. ऐसे में बेटों को कहती हूँ...'जरा अपने सेल की कॉल लिस्ट पढो...वे नाम पढ़ते जाते हैं...और उनमे से ही नाम चुन लेती हूँ..'तन्वी'...मानस' ... 'पराग' नाम ऐसे ही चुना था :) 

हाथों की लकीरों सी उलझी जिंदगी से जुड़ी कुछ और बातों का जिक्र करने की इच्छा है...ये कहानी शायद मैने बीस साल पहले लिखी थी . {कोई सबूत चाहे तो पन्नो को स्कैन करके भी लगा सकती हूँ..पर एक वादा करना होगा...मेरी लिखावट पर कोई हंसेगा नहीं.,...वैसे इतनी बुरी भी नहीं है कि हँसे कोई ..पर हंसने वालो का क्या पता :( } 
ये साधारण सी कहानी है....मैं भी इसे अपनी प्रतिनिधि कहानियों में नहीं गिनती. कई  वर्षों बाद, 'विक्रम सेठ' ने  एक महा उपन्यास " Suitable  Boy  "  लिखा . इसे Booker's Prize के लिए भी नामांकित किया गया. कई सारे अवार्ड मिले. मैने भी इस उपन्यास की चर्चा अपनी एक पोस्ट में की थी...जिसमे नायिका बहुत ही कन्फ्यूज्ड है कि वो किस से शादी करे. एक उसका कॉलेज का पुराना प्रेमी है. एक बौद्धिकता के स्तर पर बिलकुल सामान, कवि-मित्र और एक उसकी माँ के द्वारा चुना गया, सामान्य सा युवक जो बुद्द्धिजिवी नहीं है परन्तु अपने काम के प्रति पूरी तरह समर्पित है. 

मैने यह पोस्ट लिखने एक बाद अपने एक मित्र से चर्चा की कि मैने भी बरसो पहले एक कहानी लिखी थी...जिसमे नायिका  समझ नहीं पाती कि वो किसे पसंद करती है. (हालांकि दोनों स्थितियों में बहुत अंतर है....मेरी कहानी में  तो प्यार का इजहार ही नहीं हुआ). संक्षेप में उस मित्र को कहानी सुनाई तो उन्होंने कहा कि " ये कहानी तो बहुत आगे तक बढ़ाई जा सकती है...जिसमे नायिका को तीनो युवक को जानने का अवसर मिलता है..उसके बाद उसे पता चलता है कि किसके लिए उसके दिल में जगह है. मैने उनसे कहा , "ठीक है....यहाँ तक ये कहानी मैने लिखी...अब इस से आगे की आप लिखिए ..एक नया प्रयोग होगा "

{वैसे भी ब्लॉगजगत में बहुत पहले 'बुनो कहानी ' लिखी जाती थी. जिसे दो लोग मिलकर लिखते थे. मैं जब अपनी पहली लम्बी कहानी पोस्ट कर रही थी,तभी किसी ने ये प्रस्ताव रखा था  कि "आप इस कहानी को पूरा कर लीजिये तो दुसरो के साथ मिलकर 'बुनो कहानी' ' के अंतर्गत एक कहानी लिखिए. उन्होंने कुछ नाम भी सुझाए कि  उनके साथ  मिलकर लिखिए ". तब उन्हें भी पता नहीं था और शायद मुझे भी कि  अभी तो मेरे झोले से ही नई नई कहानियाँ निकलती जा रही हैं..और कुछ निकलने को बेकरार हैं :)}

मेरे मित्र ने  बड़े उत्साह से 'हाँ' कहा. लेकिन वे युवा लोग...अभी जिंदगी शुरू ही हुई है...जिंदगी की सौ उलझनें....नौकरी बदल ली...नई नौकरी की डिमांड...और भी बहुत कुछ होगा...ये बात वहीँ रह गयी...वैसे आप सबो को खुला निमंत्रण है...जो भी चाहे इस कहानी को आगे बढ़ा सकता है...:)


सभी पाठकों का बहुत बहुत शुक्रिया ...जिन्होंने मेरी कहानियाँ पढ़ीं...और टिप्पणी देकर उत्साह बढाया ...मार्गदर्शन भी किया...आशा है आने वाले वर्ष में आप सबो को निराश नहीं करुँगी...और सारी अधूरी कहानियाँ लिख डालूंगी...शुक्रिया फिर से...लगातार दो वर्ष तक साथ बने रहने के लिए...:)

Tuesday, August 30, 2011

हाथों की लकीरों सी उलझी जिंदगी (समापन किस्त)


(नाव्या का एक्सीडेंट हो जाता है...रितेश उसे हॉस्पिटल लेकर आता है...हॉस्पिटल में जिंदादिल डा. समीर से उसकी मुलाक़ात होती है)

 सीनियर डॉक्टर राउंड पर आते और वो आस लगाए बैठी होती..शायद उसे       छुट्टी दे दें....लेकिन उसका डिस्चार्ज होना टलता जा रहा था...कुछ इसमें डैडी का भी योगदान था...सुबह वे डॉक्टर के राउंड के समय जरूर उपस्थित होते और कहते..."जितने नियम से हॉस्पिटल  में खाना -पीना, रेस्ट, दवाएं...सब समय  पर हो जाता है.. घर में संभव ही नहीं....यहाँ सुबह सात बजे ब्रेकफास्ट के साथ दवाइयां भी दे दी जाती हैं...घर में ये दस के पहले तो उठेंगी नहीं...और फिर देर रात तक टी.वी. देखना...अपनी मनमानी करना...ना डॉक्टर, आप जब तक बिलकुल इत्मीनान ना हो जाएँ...इसे डिस्चार्ज करने की जल्दी ना करें..."

"पर माँ को कितनी तकलीफ होती है...वे तो घर पे आराम कर सकती हैं..." उसे सच में माँ के लिए बहुत बुरा लगता था..बिचारी एक पतले से कॉट पर सोती थीं...करवट लेने में भी डर लगे.

पर माँ तुरंत बोल पड़ीं.."ना ना मुझे कोई तकलीफ नहीं..."

डॉक्टर हंस पड़े..."डोंट वरी बेटा...हम तुम्हे जरूरत से ज्यादा यहाँ नहीं रखेंगे....बस जल्दी ही छुट्टी दे देंगे..."

रुआंसी हो गयी वो....अपना कमरा अपना बिस्तर बहुत मिस कर रही थी....वैसे मन नहीं  लग रहा था ऐसा नहीं था...बल्कि एक उपलब्धि सा ही लग रहा था...ये एक्सीडेंट....माँ-डैडी का इतना प्यार...रितेश और समीर का इतना सुखदाई साथ. जिंदगी का रूप हमेशा ऐसा ही रहे तो कितना अच्छा हो. यूँ ही...डैडी दिन में कुछ घंटे जरूर उसके साथ बिताएं...माँ खाने के साथ-साथ उसकी हर चीज़ का ख्याल रखे. रितेश ऐसे ही उसके लिए फूल लाता रहे और डा. समीर उन फूलों पर हाथ फेर..'क्वाईट लवली...' कहते हुए दुनिया जहान  की बातें करते रहें.

पर दुनिया में हर ख़ुशी के साथ एक 'प्राइस टैग' लगा होता है...इन सारे सुखद पलों की कीमत उसे हॉस्पिटल के बेड पर पड़े रहकर चुकानी पड़ रही थी.

रितेश के मितभाषी होने और कुछ खोये-खोये सा अपने में ही गुम रहने से, उसे सपनो में जीने वाला बिलकुल सीधा-सादा लड़का समझती थी...पर जमाने की नब्ज़ पर उसकी पकड़ ढीली नहीं थी...जब माँ ने कहा..." मुझे फूल बेहद पसंद है....पहले तो माली को हिदायत दे रखी थी....रोज ताजे फूल ही ड्राइंगरूम में रखा करे...पर अब तो इधर-उधर के कामो  से फुरसत ही नहीं मिलती...कि इन सबकी  तरफ नज़र भी करूँ."(माँ हमेशा..अपनी समाज-सेवा को इधर-उधर के काम कहकर गौण कर देतीं...उसके टोकने पर माँ का कहना था,लोग कहीं ये ना समझें की उन्होंने पैसे और समय होने की वजह से एक फैशन की तरह समाज-सेवा अपनाया हो...शुरुआत भले ही माँ ने समय काटने के लिए किया हो..पर अब वे पूरी तरह इसमें रम गयीं थीं.)

और रितेश सीधा फूल लाकर माँ के हाथों में ही थमा देता.

"अरे रोज़ क्यूँ लाते हो...ये कैसी फोर्मलिटी है?'

"नहीं आंटी... हमारे पिछवाड़े बहुत ही सुन्दर बाग़ है फूलों का..अपने बगीचे के ही फूल हैं..."

उसने हंसी छुपा ली...."हूँssss खूब!! ...जाने कितने पैसे खर्च कर चुके होगे फूलों पर...अपने घर के गुलाब, रोज़ रोज़  कोई यूँ लम्बे डंठल के साथ तोड़ता है??....माँ ने ध्यान नहीं दिया..वर्ना वे भी समझ जातीं .

पर रितेश था बहुत ही शांत किस्म का....आते ही एक हलके से स्मित के साथ पूछता..."कैसी हैं?"...और इन दो शब्दों के कहने के ढंग में ही सारे उद्गार सिमट आते. फिर कुर्सी खींच कर साथ लाई  किताबें-पत्रिकाएं  दिखाने लगता .उसे पढ़ने से सबलोग मना करते  कि आँखों पर जोर पड़ेगा...ये जिम्मा रितेश ने ले लिया था..कहता, दोपहर वो बिलकुल खाली रहता है...वो जबतक बैठता...माँ एक चक्कर बाज़ार का या घर का लगा आतीं. 

 उसने एक दिन पूछ लिया.."आपकी कविताओं में रूचि है?'

"हाँ.. हाँ..बिलकुल.. बहुत  पढ़ती हूँ..." उसने कहने को कह दिया.

"अरे वाह...बच्चों सा खिल उठा उसका चेहरा..."मैं आपको बहुत ही अच्छी-अच्छी कविताएँ पढ़ कर सुनाऊंगा..." वो तो बाद में जाना उसने... कविताओं में तो उसकी जान बसती थी.

भाव-भरी आवाज़ में वो कविता दर कविता पढता चला जाता...बिलकुल कविता में डूब ही जाता...अंदर से महसूस करते हुए पढता वह...और अब उसे रितेश की उदास आँखों का रहस्य पता चला...कविता पढ़ते वक़्त..कविता के अंदर का सारा दर्द वो जैसे सोख लेता...और वही दर्द उसकी आँखों में तैरते तैरते जम जाता,जैसे.

वह तो कविता से ज्यादा...उसके स्वर के चढ़ते उतार-चढ़ाव ..आवाजों का कम्पन...चेहरे पर आते-जाते भाव ही देखती रहती. आँखों में कभी स्निग्ध तरलता छाती...कभी गहरी उदासी...कभी व्यंग्य भरी तिलमिलाहट तो कभी अनचीन्ही सी छटपटाहट.कभी-कभी वो कविता पर ध्यान  नहीं भी देती..पर रितेश की धारदार एकाग्रता वैसी ही बनी रहती. 

एक दिन कुछ कविताएँ सुना रहा था...हठात नज़रें उठाईं और मुस्कुरा कर  पूछा...."कैसी लगीं..?" सकपका गयी वह..वो ख़ास ध्यान से सुन तो रही थी नहीं...वो तो रितेश की नुकीली  ठुड्ढी...तीखी नाक...जुड़ी भवें..और लम्बी घुंघराली पलकें ही निरख रही थी...क्या था कविता में...ध्यान ही नहीं दिया..चुप रही तो रितेश ने कुछ रस्यमय ढंग से मुस्कुरा कर पूछा..."बताइए तो सही...कैसी थीं कविताएँ?" तो चौंक गयी वो.

उसने हाथ बढ़ा दिए..."दीजिये,  एक बार खुद से पढूंगी..."

उसने एकदम से दूर हटा ली किताब..."अँs हाँs...इतना बेवकूफ नहीं मैं..." बेतरह नटखटपन कस गया चेहरे पर और उसने किताबों के बीच से कुछ कागज़ निकाल एहतियात से अपनी जेब में रख लिए..."

अच्छाss तो ये उसकी खुद की लिखी हुईं थीं....तभी इतना  मुस्कुरा कर पूछ रहा था...ओह! क्या मूर्खता की उसने , जरा  भी ध्यान नहीं...क्या था कविता में...बड़े आग्रह से बोली.."प्लीज़ एक बार दो ना....सिर्फ एक बार पढ़ कर दे दूंगी..." ध्यान भी नहीं रहा...कैसे 'आप' से 'तुम' पर आ गयी.

"जीssss   नहीं...ऐसा खतरा नहीं मोल ले सकता....जब तक पढ़ रहा था...तभी डर लग रहा था..पता नहीं क्या सोचो तुम...ये काफी पहले लिखी थी मैने, हाँs..." वो भी सहजता से बिना ध्यान दिए तुम पर आ गया...पर इसका मतलब...जरूर कविता में कुछ बात थी...वर्ना बहुत पहले लिखी थी की सफाई  क्यूँ देता? हाथ बढ़ा कर उसने कुर्सी की बाहँ पर रख दिया.."प्लीज़ रितेश...दे दो ना..एक बार देने में क्या जाता है...बस एक नज़र देख कर...वापस कर दूंगी.."

"नोss वेss...अच्छा ये सुनो...क्या कविता है...एकदम अलग सी...और इतनी वास्तविक कि लगेगा कवि की आँखे कैसे देख लेती हैं ये सब.." कहता कुर्सी की दूसरी बाहँ से सट सा गया.

रोष हो आया उसे...एकदम से हाथ खींच लिया...अगर उंगलियाँ भूले से,उसे  छू भी जातीं तो जाने क़यामत आ जाती....अछूत है क्या वह?

 "मुझे नहीं सुनना कविता-फविता.."..कह सीधा लेट आँखें बंद कर लीं.

"नाराज़ हो गयीं...?" शहद  भरा स्वर उभरा 

" नहीं, नाराज़ क्यूँ होने लगी...इसका हक़ तो सिर्फ आपलोगों को है..." विद्रूपता से कह.. दूसरी तरफ करवट बदल ली उसने..जाने क्यूँ आँखें भर आयीं.

"नाव्याss... " रितेश ने एकदम से कुर्सी छोड़ दी...और पलंग के किनारे हाथ रख झुका ही था कि कमरे के बाहर माँ और डा. समीर का सम्मिलित स्वर सुनायी दिया...एकदम से सीधा खड़ा हो...सीने पर हाथ बाँध लिए उसने.

"सोयी है क्या...." माँ ने पूछा..

"पता नहीं..शायद"

"कुछ तकलीफ तो नहीं थी,उसे??..ऐसे कैसे सो गयी ??" माँ के स्वर में चिंता  थी.

"वो मैं...कुछ  पढ़ कर सुना रहा था..शायद सुनते-सुनते सो गयी..."

"ओहो!!..अब कविताएँ सुनाओगे तो कोई सो ही जाएगा ना...." समीर ने हँसते हुए कहा...."और आपने देखा भी नहीं कि सुनने वाला सुन रहा है या नहीं...क्या यार....इतना डूबे रहते हो किताबो में...ये किताबें बस सपनीली दुनिया में ले जाने का काम करती हैं...तभी तो लोग सुनते-सुनते सो जाते हैं....सच्चाई का अंश भी नहीं होता, इनमे.."

"ऐसा नहीं है डॉक्टर...."

"अरे बस ऐसा ही है...अब देखो..ये कविताएँ...कुछ भी कल्पना कर लेते हैं कवि..."

"अच्छा आंटी अब तो आप आ गयी हैं..चलूँ...मैं?" रितेश था. 

उसने गौर किया था...रितेश कभी बहस में नहीं पड़ता...बात बदल कर निकल जाता है या फिर चुपचाप सुन लेता है. रितेश की जगह वो होती..तो अभी डा. समीर से इतनी बहस करती कि वे राउंड पर जाना भी भूल जाते..और फिर कभी किताबों को कल्पना की उड़ान कहने की  हिम्मत ना करते.

पर उसने तो सोने का बहाना किया हुआ था...सो उसे मन मसोस कर रह जाना पड़ा.

अचानक माँ  को कुछ याद आया..."हे भगवान...मैने फल लिए और थैला तो वहीँ छोड़ दिया....अब फिर से जाना पड़ेगा...पर नाव्या पीछे से जाग गयी तो...कहीं उसे कोई जरूरत ना पड़ जाए.."वे असमंजस में थीं. 

"कोई बात नहीं आंटी...अभी तो मैं थोड़ी देर खाली हूँ....मैं यहीं बैठता हूँ...आप आराम से हो आइये....मैं भी जरा देखूं तो दोस्त तुम्हारी किताबो में है क्या...पलटता हूँ थोड़ी देर.."

"बस मुश्किल से पंद्रह मिनट लगेंगे...आओ रितेश..तुम्हे भी रास्ते में छोड़ दूंगी.." कहती माँ..रितेश के साथ ही निकल गयीं. शायद जाते हुए रितेश ने पलट कर देखा हो...कि वो उठ कर उसे बाय कहती है या नहीं...पर वो सोने का बहाना कर  पड़ी रही...थोड़ी डोज़ दे देनी चाहिए इन लोगों को..समझते हैं कदमो में ही बिछे जा रहे हैं. 

उनके जाते ही...समीर ने कुर्सी खिसकाई बैठने को...और वो चौंक कर जगने का अभिनय करती उठ बैठी.

"ओह! जगा दिया ना आपको...सो सॉरी..." डा. समीर सचमुच अफ़सोस से भर उठे.

"नहीं..नहीं...कोई बात नहीं...माँ आयीं नहीं अभी तक ?"

"आयीं तो थीं..पर फल उन्होंने दुकान पर ही छोड़ दिए थे सो वापस लेने गयी हैं...और वो कवि साहब भी चले गए उनके साथ...जिनकी कविता सुनते-सुनते आप सो गयी थीं....हा हा.."समीर ने जोर का ठहाका लगाया.

ख़ास उसे भी नहीं समझ नहीं आती कविताएँ..पर समीर का यूँ उपहास उड़ाना उसे अखर गया,बोली ..."वो मैं थक गयी थी,इसलिए  सो गयी थी...कविताएँ तो मुझे भी पसंद हैं..."

"अब आप, बना लो बहाने...." वो फिर हंसा.

"नहीं सच में...मुझे गीत संगीत सब बहुत पसंद है....अच्छा कल रात कोई बड़ी अच्छी गिटार बजा रहा था...काफी देर तक सुनती रही मैं..."

"सपने में?..." समीर ने चिढाया तो सचमुच चिढ उठी वह.

जी ss नहींss..कल रात के ग्यारह बजे के करीब..मैने समय भी देखा...मुझे नींद ही नहीं आई देर तक.."

"होगा कोइ  सिरफिरा...चले आते हैं लोगों की नींद खराब करने..."

"अच्छा तो फिर कोई रियाज़ ही ना करे...म्युज़िक के नाम पर शोर मचाना बुरा है..पर इसमें क्या बुराई है....अच्छा संगीत सुकून ही देता है.."

"शरीफ लोगों के ये सब शौक नहीं होते..जो जिंदगी में कुछ नहीं करता वो गिटार टुनटुनाता  रहता है...ऐसा मैं नहीं बड़े-बुजुर्ग कहते हैं.."समीर उसे चिढाने पर आमादा था.

"पर मानते तो आप भी हैं,ना...मशीनी इंसान हैं आपलोग...गीत-संगीत...कहानियाँ किताबें...सब बेकार हैं आपकी नज़रों में...आपलोगों की दुनिया बस इस हॉस्पिटल तक ही सीमित है...माना कि आपलोग....जीवनदान देते हैं...लोगो को राहत पहुंचाते हैं पर इसके बाहर  भी कभी-कभार देख लेना चाहिए...इन इंजेक्शन-दवाइयों से परे भी एक दुनिया है..."..कहते उसने आँखें  बंद कर लीं...कानों में गिटार  टुनटुना  उठा.

"अच्छा लगा आपको "...स्वर बदला हुआ लगा, आँखें खोल देखा तो समीर दूसरी तरफ देखने लगा.

"और क्या..पर आपको  क्या..आपके लिए तो सब समय की बर्बादी ही है ना..." पता नहीं क्यूँ उसे बहुत खीझ हो रही थी.

समीर ने बड़ी आहत नज़रों से देखा,उसे. चेहरा संजीदा हो गया था....अब अपने में लौटी वह...ये क्या हो गया है उसे...रितेश का गुस्सा वो समीर पर क्यूँ निकाल रही है. माँ -डैडी आभार से दबे रहते हैं..इतनी केयर करता है उसकी और वो है कि बिना किसी वजह के झल्लाए जा रही है. स्वर में यथासाध्य मुलायमियत लाकर बोली, : "पास से ही आवाज़ आ रही थी.....लग रहा था ,हॉस्पिटल कैम्पस  में ही कोई बजा रहा था......आपको अंदाज़ा है..कौन बजा रहा होगा.."

"नाss..नहीं पता...." और समीर तड़ाक से उठ गया...शायद वो बुरा मान   गया था...." मुझे एक पेशेंट को देखने जाना है..चलता हूँ.." और बिना उस पर नज़र डाले लम्बे-लम्बे डग भरता बाहर निकल गया. 'ओह!!! दीज़ बॉयज़...'सर पकड़ लिया उसने...

ये तो बाद में पता चला, वह सिरफिरा और कोई नहीं समीर ही था. 

***
सुबह डा. राउंड पर आए और बोले अब वो घर जा सकती है....ख़ुशी से मन खिल उठा पर दूसरे ही पल बुझ भी गया...घर तो जा रही है पर वहाँ  रितेश,समीर से मुलाकात नहीं हो पाएगी...इन आठ दिनों में उनके साथ की इतनी आदत पड़ गयी थी कि अभी से उनकी कमी खलने लगी थी. माँ को याद दिलाया..'माँ रितेश शायद मिलने आए... उसे फोन करके बता दो..."

रितेश ने माँ को अपना नंबर दिया था कि जब भी जरूरत पड़े फोन कर लें. माँ ने कहा...'अच्छा याद दिलाया...अभी उसे फोन कर बता  देती हूँ.."

वो निराश हो गयी...उसे लगा था,माँ कहेंगी..."लो ,तुम ही कह दो...और उसे दो बातें करने का मौका मिल जाएगा...पर सामान सहेजती माँ ने इस तरह से सोचा ही नहीं. वो रुआंसी हो खिड़की के बाहर देखने लगी...जहां पेडों की पत्तियाँ  हवा से हलके-हलके डोल रही थीं...मानो उसे बाय कह रही हों.

डा. समीर मिलने आए थे. हमेशा की तरह उसी जोश और जल्दबाजी में थे... सौ हिदायतें उसके लिए और माँ के लिए भी....आज उसे उनकी किसी बात पर गुस्सा नहीं आ रहा था...बस उनके चेहरे पर ही नज़रें जमाये चुपचाप सब सुन रही थी...समीर को भी आश्चर्य हुआ...टोक ही दिया..."अभी से घर की यादों में गुम हो गयीं...मैं क्या कह रहा हूँ...कुछ सुन भी रही हैं??...हाँ! भाई....सबलोग आते हैं चले जाते हैं...हमारा तो यही घर-बार है...हम कहाँ जा सकते हैं..."

वो प्रत्युत्तर में सिर्फ मुस्कुरा दी तो डा. समीर भी गंभीर हो आए और बहाने से बाहर चले गए.

रास्ते में ,माँ ने बताया एक रात पहले ही एक मेहमान भी घर पर आया हुआ है. डैडी के एक मित्र के सुपुत्र. नया-नया चार्ज लिया है किसी कंपनी में . जब तक उसके रहने का इंतजाम नहीं हो जाता .घर पर ही रहेगा. खीझ हो आई उसे. एक तो सर पर बंधे इस बड़े से बैन्डेज़ के साथ उसे किसी के सामने जाने में बहुत ही अजीब लग रहा था...दूसरे घर में किसी अजनबी की उपस्थिति भी असहज कर रही थी., अब ये बचपन से अकेले रहने की वजह से था या कुछ  और पर अपने घर में ज्यादा भीड़-भाड़ उसे अच्छी नहीं लगती. रिश्ते  के हम-उम्र भाई-बहन भी आते तो कुछ दिन  तो उसे अच्छा लगता पर फिर अपनी आज़ादी में खलल लगने लगता...सुन कर अनमनी सी हो गयी थी , माँ ने इसे लक्ष्य किया और बोलीं, " बाबा वो ऊपर वाले कमरे में रहेगा...आना-जाना भी बाहर सीढियों से होगा तो तुम्हे क्या परेशानी है.."

" क्यूँ ..टेरेस पर जाने में उसका कमरा नहीं पड़ेगा?..मैं क्या सिर्फ नीचे ही कैद रहूंगी.."

"वो सब बाद में, देखेंगे.....अभी तो ज्यादा घूमना-फिरना है नहीं तुम्हे..." माँ ने आश्वस्त किया..फिर भी थोड़ा असहज तो थी ही वह.

लेकिन किशोर बहुत ही सहज था...शाम को ऑफिस से आने के बाद,उस से मिलने आया...और पहले वाक्य में ही मुस्कुरा कर पूछा , "वेकेशन की ऐसी प्लानिंग तो मैने कहीं नहीं देखी....एग्जामिनेशन हॉल से सीधा हॉस्पिटल."

वो भी मुस्कुरा कर रह गयी....उसकी किताबों की आलमारी देख बोला,.."इतना पढ़ती हैं आप..बाप रे.."

"हाँ समय अच्छा कट जाता है और शौक भी है..."

"बढ़िया है..पर आप से संभल कर बात करना पड़ेगा..पता नहीं..कहाँ से क्या कोट कर दें.."

"निश्चंत रहिए मैं पढ़ कर भूल जाती हूँ.."
"ताकि दुबारा पढ़ने का स्कोप बना रहे..."..और दोनों ही इतने जोर से हंस पड़े कि कमरे में आती माँ एक पल को ठिठक सी गयीं. और उसकी तरफ गौर से देखा...अभी तो उस एकीशोर कि उपस्थिति इतनी नागवार गुजर रही थी और अभी हंस रही है उसके साथ...जरूर मन में कहा होगा..."ये लड़की भी ना.."

किशोर ज्यादा नीचे नहीं आता. उसका  खाना भी माँ ऊपर ही भिजवा देतीं....इतवार को भी वो देर तक सोता रहता...और ज्यादातर अपने कमरे में ही बना रहता...पर जब भी नीचे पापा से मिलने आता उससे मिलने भी जरूर आता और अपनी थोड़ी देर की उपस्थिति से ही एक खुशगवार...माहौल की छाप छोड़ जाता.

कितनी ही बार मोबाइल पर रितेश और समीर का नंबर निकाल घूरती रहती पर फोन करने की  हिम्मत नहीं कर पाती. आने के बाद बस एक-एक बार दोनों को शुक्रिया कहने के लिए फोन किया था....रितेश का शर्मीला चेहरा उसे फोन के पार से दिख रहा था...'हाँ' - 'ना'...में ही जबाब देता.,..और उसे अपना ख्याल रखने की हिदायत देता रहता...अजनबी सा उसने कहा..."आइये कभी.."
और अजनबी सा ही रितेश ने कहा .."हाँ जरूर..' और कह कर फोन रख दिया...थोड़ी देर वो घूरती रही फोन को...यही रितेश था जो पास बैठा घंटों उसे कविताएँ सुनाया करता था...पर फोन पर अभी आदत नहीं पड़ी थी...बस कभी कभी उसे कविता की सुन्दर पंक्तियाँ या शेर एस.एम.एस करता..और बदले में वो कुछ भारी भरकम से कोटेशंस  भेज देती..उसे कुछ सूझता ही नहीं...पर रितेश के खुद से टाइप किए मेसेज का इंतज़ार बना रहता. 

समीर के पास तो एस.एम.एस भेजने का वक़्त भी नहीं रहता....जब उसने फोन किया तब भी जाने कहाँ था और कितने लोगो से घिरा हुआ था...पर बात बड़े अपनेपन से किया बहुत ही सहजता से...'दवा ले रही है ना..खाना ठीक से खाती कि नहीं...समय पर सो जाती है ना...माँ कैसी हैं'..और फिर माँ से उसे घर के खाने ..चाय की याद आ गयी...उसके पास,तमाम बातें थीं करने को..पर  समय ही नहीं था...बोला, "करता हूँ फिर फोन..अभी तो भागना पड़ेगा..."

अब  समीर को  समय नहीं मिलता या उसे भी एक हिचक होती....वो समझ नहीं पाती. पर फोन उसका भी नहीं आता. अच्छा हुआ माँ ने ही एक दिन,कहा....तुम थोड़ी और ठीक हो जाओ...पट्टी  खुल जाए...सबकुछ खाने-पीने लगो तो समीर और रितेश को एक दिन खाने पर बुलाते हैं..दोनों ने बहुत ख्याल रखा...हम कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं."
और उस दिन से ही  जैसे वो दिन गिनने लगी... कब उसके माथे का बैन्डेज़ खुले.

और वो दिन आ ही गया....माथे का बैन्डेज़ खुल गया था...और इतने दिनों बाद....माँ ने श्यामली की सहायता से कुर्सी पर बैठा पीछे कर उसके बाल धो दिए थे. दिनों बाद खुले बालों से घिरा अपना चेहरा देखा तो जैसे खुद को ही पहचान नहीं पायी. रितेश समीर भी उसे देख, चौंके तो जरूर लेकिन दोनों की प्रतिक्रिया बहुत ही अलग सी रही....पहले रितेश आया...रितेश ने उसे पहले भी देखा था पर जैसे इस बार एक नई नज़र से देखा....और कुछ इस तरह उसे देखा कि उसने ही शर्मा कर आँखें झुका लीं.

उसे देखते  ही समीर के होंठ गोल हो गए...शुक्र है,उसने सीटी नहीं बजायी...पर हँसते हुए  बोला.."क्या बात है..आप सचमुच नाव्या ही हैं...या नाव्या की सहेली...मैं तो सच में कहीं और देखता तो पहचान नहीं पाता..."

"इतनी बुरी लग रही हूँ मैं..."

"थोड़ी सी..."..उसने मुस्कुरा कर दोनों उँगलियों से इशारा किया...

"हाँ! आपको लोग पेशेंट के रूप में ही अच्छे लगते हैं...हैं ना.."

उनकी बहस और आगे बढती कि माँ ने टोक दिया...."अरे बैठने तो दो पहले..फिर इत्मीनान से कर लेना  बहस...बहुत दिनों का कोटा बाकी है...बहुत अच्छा लग रहा है...बेटा..तुम दोनों को यहाँ  देख'

माँ ने किशोर को भी बुला लिया  था....डाइनिंग टेबल पर तो डैडी से ही सब ज्यादा बातें  करते रहे और माँ खिलाने-पिलाने में लगी रहीं. पर खाने के बाद जब सब लिविंग रूम में लौटे तो डैडी अपने  कमरे मे चले गए...माँ भी बस बीच-बीच में आती रहीं....ये तीनो भी एक दूसरे से अच्छी तरह घुल -मिल गए थे और तमाम विषयों पर बातें कर रहे थे...पर जब राजनीति पर बातें शुरू हुईं.. तो उसकी उपस्थिति जैसे भूल ही गए....आपस में ही उलझ गए...उसे गुस्सा आ गया....क्या वो नहीं पढ़ती अखबार?...वो नहीं देखती खबरे?...पर इन्हें लगता है..वो लड़की है तो उसकी क्या रूचि होगी...चर्चा कुछ और जोर पकड़ती कि समीर को एक कॉल आ गया...और रितेश भी उसके साथ ही उठ गया. बार-बार दोनों माँ  का शुक्रिया अदा कर रहे थे और माँ उन्हें फिर से आने का न्योता दे रही थीं. उनके जाते ही किशोर भी विदा लेकर चला गया और वो देर तक खिड़की के पास खड़ी ठंढी हवा के झोंके के साथ इस ख़ूबसूरत शाम के एक एक पल को दुबारा जीती रही.

अब फोन पर बातचीत का सिलसिला बढ़ गया...बीच की वो असहजता नहीं रही. रितेश किताबों की बातें करता और समीर अपने पेशेंट्स की...हॉस्पिटल की. पर इस से अलग कुछ और जैसे लबों तक आते आते छूट जाता...और वो चैन की सांस लेती. बातचीत में वे जरा सा पॉज़ लेते और उसका दिल धड़क जाता... डर जाती...'आगे क्या कहने वाले हैं...वो कैसे रिएक्ट करेगी...क्या जबाब देगी...पर फिर दोनों ही जैसे खुद संभल कर बात किसी और तरफ मोड देते.

एक दिन माँ ने सलाइयों पर अंगुलियाँ चलाते हुए पूछा, "ये किशोर कैसा लड़का है?"

"क्यूँ कुछ हुआ क्या....उसके पड़ोसियों  ने कुछ कहा क्या..." किशोर अब अपना मकान ले उसमे शिफ्ट हो चुका था. 

"अरे नहीं...." माँ आगे कुछ कहतीं कि  वो फिर से बोल पड़ी..."वही तो मैने सोचा तुमने ऐसा कैसे पूछा...इतना अच्छा सलीके वाला लड़का है...इतना कल्चर्ल्ड....ना बहुत गंभीर... ना ज्यादा बातूनी....और इतना क्वालिफाइड...कितनी कम उम्र में इतनी अच्छी पोस्ट कैसे मिल गयी उसे...बहुत ही अच्छा लड़का है,माँ..पर तुमने पूछा क्यूँ ऐसे??"

माँ जोरों से हंस पड़ी.."सच्ची आजकल तू कितना बोलने लगी है....मेरे पूछने का  मतलब  था..तुम्हे कैसा लगता है?"

"क्यूँ अच्छा है तो..अच्छा ही लगेगा ना...उसके यहाँ रहने की बात से थोड़ा मैं अनकम्फर्टेबल थी..पर फिर मिली तो बहुत ही सहज लगा मुझे...इतने अपनेपन से बात की"
"हम्म.....फिर तो ठीक है..."
"क्या ठीक है..." वो कुछ समझ नहीं पा रही थी.
"कुछ नहीं..." माँ ने हंस कर कहा...और एकदम से सब उसकी समझ में आ गया.
"माँsss ....साफ़-साफ़ बताओ...क्या बात है.." उसने गुस्से में भर कर कहा 

और माँ ने सब साफ़-साफ़ बता दिया...कि पापा और उनके मित्र दोनों की इच्छा है कि वे दोनों अब सिर्फ दोस्त ना रहकर एक रिश्ते में बंध जाएँ...वो लाख सर पटक कर रह गयी कि..ग्रेजुएशन से क्या  होता है....उसे आगे पढ़ाई करनी है...नौकरी करनी  है..तब जाकर शादी के बारे में सोचेगी. पर माँ के पास अपने तर्क थे..'तुम्हे पढ़ने से कौन रोक रहा है...जितनी मर्ज़ी हो पढो..पर इतना अच्छा लड़का हाथ से निकलने नहीं देना चाहते...जाना -सुना घर है..तुम्हारी भलाई ही सोच रहे हैं...पता नहीं दूसरा घर कैसा मिले.  डैडी और किशोर के पिता दोनों की ही यही इच्छा है....और सही समय भी है...कुछ ही दिनों में तुम्हारा रिजल्ट आ जायेगा,....ग्रैजुएट हो जाओगी.....लड़के की नौकरी लग गयी हैं...आखिर कितने दिन वे इंतज़ार करेंगे...उन्हें भी लड़कीवालों ने परेशान किया हुआ है...सुबह शाम लोगों का तांता लगा होता है....वे भी एक अच्छी जगह रिश्ता पक्का करके निश्चिन्त हो जाना चाहते हैं."

"तो उन्हें निश्चिन्त करने के लिए मैं बलि चढ़ जाऊं...??"

"कैसी बातें कर रही है...इसमें बलि जैसी क्या बात है...किशोर अच्छा लड़का है..तुमने खुद कहा है.."

"तो दुनिया में जितने अच्छे लड़के हैं..सब से शादी कर लूँ.." उसका गुस्सा सातवें आसमान पर था.

"अब तुमसे डैडी  ही बात करेंगे ..मेरे वश का नहीं तुम्हारी उलटी-सीधी बातों का जबाब देना..." माँ ने अपना ब्रह्मास्त्र चला दिया और ऊन सलाई समेट कर वहाँ से चली गयीं. उसे पता है..डैडी से वो बहस नहीं कर पाएगी...और सर झुका कर उनका हर निर्णय स्वीकार कर लेगी.

आँसू छलक आए...'ये सब क्या हो रहा है.....इतने दिनों बाद जिंदगी इतनी प्यारी लग रही थी....माँ ज्यादातर उसके आस-पास ही रहतीं...बहुत कम बाहर जातीं...पापा भी उसके साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताने की कोशिश करते...रितेश....समीर की दोस्ती....सब कुछ कितना सुहाना लग रहा था..पर किसकी नज़र लग गयी...और अब उसकी जिंदगी फिर कोई नया रुख लेने वाली थी. 

पर वो इतनी परेशान क्यूँ है...शादी से इनकार की वजह क्या सिर्फ  पढाई  ही  है...या कोई और बात है....क्या उसका मन कहीं और झुका हुआ है...पर वो क्या जाने...जितनी देर समीर से बातें होती है..लगता है,अनंत काल तक वो उस से बातें ही करती रहे...कभी ख़त्म ना हो उनकी बातें...पर फिर कब रितेश की छवि चुपके से पलकों पर आ कर बैठ जाती है..उसे पता भी नहीं चलता...लगता है रितेश के सिवा उसने और किसी को जाना ही नहीं....जानने की इच्छा भी नहीं.

और वो शादी से इनकार करे भी तो किस बिना पर. इन दोनों ने भी तो कभी अपनी भावनाओं  को शब्द नहीं दिए. क्या पता समीर सिर्फ उसे एक अच्छी दोस्त मानता हो...क्या पता रितेश सिर्फ औपचारिकता या कर्तव्य निभाता हो...पर उसकी आँखें जो कभी-कभी देख लेती हैं..उसपर कैसे अविश्वास करे. समीर की आँखों में जो कभी-कभी कौंध जाता है...वो सिर्फ दोस्त के लिए नहीं होता...रितेश जिन खोयी-खोयी निगाहों से देखता है..वे ये जता देती हैं कि  उसने और किसी को ऐसी निगाहों से नहीं देखा है. पर वो क्या करे??...ये मन की कैसी दुविधा है....रितेश की आँखों के मौन आमंत्रण को खूब पहचानती है वो..तो समीर के मुखर संदेश से भी बेखबर नहीं है. उसके कैशोर्य मन ने किसी के ह्रदय के समक्ष पूरी आस्था से आत्म समर्पण किया है तो वो रितेश का अंतर्मन ही है. लेकिन ये रितेश की छवि के आस-पास कैसी उद्दाम लहरें सी उठने लगती हैं और उसे परे धकेलता एक मुस्कुराता सा चेहरा सामने आ जाता है...जो निश्चय ही समीर का है और उसके होठों पर भी मुस्कराहट  आ जाती है. ..ऐसा क्यूँ...रितेश का ख्याल आते ही ह्रदय में एक टीस सी उठती है और दिल में गहरी उदासी सी छा जाती है. वहीँ समीर का ख्याल मात्र होठों पर हंसी ला देती है...सुकून दोनों दे जाते हैं दिल को..वो उदासी भी और ये मुस्कराहट भी.

क्या करे वह.....इन दोनों ने भी तो कभी ऐसा कुछ नहीं कहा कि इनकी भावनाओं से भी साक्षात्कार हो...यदि सिर्फ आँखों से ही काम चल जाता तो फिर भाषा का आविष्कार ही क्यूँ हुआ...किसलिए शब्दों का सहारा लिया गया...या क्या पता उन्हें सही वक़्त की तलाश हो.

मेज पर सर पटक-पटक कर रह जाती...क्या करे वह??....और वो कुछ नहीं कर सकी....बस एक सूत्र में बंधी किशोर के संग सात फेरे घूम लिए. और आज उसकी शादी की पार्टी में चुटकुले सुनाता..कहकहे लगाता ..चहरे पर अचानक छा जाने वाले बादलों को अपनी जानदार हंसी से उडाता समीर भी था और उदास आँखों में थोड़ी और विरानगी लिए फूलों के गुलदस्ते  थमाता रितेश भी था.

एक कोने में बने स्टेज पर औकेस्ट्रा    वाले तेज धुनें बजा-बजा कर थक गए थे....लड़के-लडकियाँ भी शायद नाच-नाच कर पस्त हो चुके थे और अब उसके  सिंगर ने शायद पार्टी में उपस्थित  बुजुर्गों का ख्याल कर तान छेड़ दी थी...


"कई बार यूँ भी  देखा है...
ये जो मन की सीमा रेखा है..
मन तोड़ने लगता है
अनजानी प्यास के पीछे...
अनजानी आस के पीछे...
मन दौड़ने लगता है..
राहों में...राहों में....जीवन की राहों में..

(समाप्त)