Wednesday, September 30, 2009

कुछ खुशनुमा यादें !!

पिछले पोस्ट की चर्चाएं कुछ संजीदा और बोझिल सी हो चली थी.और हवा में से नवरात्र की खुशबू भी अभी पूरी तरह नहीं धुली है.लिहाज़ा सोचा नवरात्र की कुछ रोचक यादों का जिक्र बेहतर रहेगा.

वह मुंबई में मेरा पहला नवरात्र था. चारों तरफ गरबा और डांडिया की धूम थी.मैंने भी इसका जायका लेने की सोची और 'खार जिमखाना' द्वारा आयोजित समारोह में पति और बच्चों के साथ पहुँच गयी.चारो तरफ चटख रंगों की बहार थी.शोख रंगों वाले पारंपरिक परिधानों में सजे लोग बहुत ही ख़ूबसूरत दिख रहें थे.दिन में जो लडकियां जींस में घूमती थीं,यहाँ घेरदार लहंगे में ,दोनों हाथों में ऊपर तक मोटे मोटे कड़े पहने और सर से पाँव तक चांदी के जेवरों से लदी, गुजरात की किसी गाँव की गोरीयाँ लग रही थीं. चमकदार पोशाक और सितारों जड़ा साफा लगाए लड़के भी गुजरात के गबरू जवान लग रहें थे..स्टेज के पास कुछ जगह घेरकर प्रतियोगिता में भाग लेने वालों के लिए जगह सुरक्षित कर दी गयी थी.इसमें अलग अलग गोल घेरा बनाकर लड़के लड़कियां बिजली की सी तेजी से गरबा करने में मशगूल थे.इतनी तेजी से नृत्य करते हुए भी उनके लय और ताल में गज़ब का सामंजस्य था. पता चला ये लोग नवरात्रि के ३ महीने पहले से ही ३-४ घंटे तक रोज अभ्यास करते हैं. और क्यूँ न करें,ईनाम भी तो इतने आकर्षक होते हैं.प्रथम पुरस्कार यू.के.की १० दिनों की ट्रिप. द्वीतीय पुरस्कार सिंगापूर के १० दिनों की ट्रिप,बाकी पुरस्कारों में टी.वी.,वाशिंग मशीन, मोबाइल फोन्स की भरमार रहती है.

मेरा कोई ग्रुप तो था नहीं और बच्चे भी छोटे थे लिहाज़ा मैं घूम घूम कर बस जायजा ले रही थी.सुरक्षित घेरे के बाहर अपने छोटे छोटे गोल बनाकर लोग परिवार के साथ, दोस्तों के साथ कभी गरबा तो कभी डांडिया में मशगूल थे.यहीं पर मुझे डांडिया और गरबा में अंतर पता चला. गरबा सिर्फ हाथ और पैर की लय और ताल पर करते हैं और डांडिया छोटे छोटे डांडिया स्टिक को आपस में टकराते हुए की जाती है.स्टेज पर से मधुर स्वर में गायक,गायीकाएं एक के बाद एक मधुर गीतों की झडी लगा देते हैं.यह भी उनकी एक परीक्षा ही होती है.जैसे ही उन्हें लगता है लोग थकने लगे हैं,वे कोई धीमा गीत शुरू कर देते हैं.सैकडों लोगों का एक साथ धीमे धीमे इन गीतों पर लहराना बताने वाली नहीं बस देखने वाली बात है.

एक जगह मैंने देखा,एक अधेड़ पुरुष अपनी दो किशोर बेटियों और पत्नी के साथ एक छोटा सा अपना घेरा बना डांडिया खेल रहें थे.बहुत ही अच्छा लगा ये देखकर .हम उत्तरभारतीय तो अदब और लिहाज़ का लबादा ओढे ज़िन्दगी के कई ख़ूबसूरत क्षण यूँ ही गँवा देते हैं..हम इसी में बड़प्पन महसूस करते हैं कि हम तो पिताजी के सामने बैठते तक नहीं,उनसे आँख मिलाकर बात तक नहीं करते.सम्मान जरूरी है पर कभी कभी साथ मिलकर खुशियों को एन्जॉय भी करना चाहिए.खैर अगली पीढी से ये तस्वीर कुछ बदलती हुई नज़र आ रही है.

मैं सबका नृत्य देखने में खो सी गयी थी कि अचानक संगीत बंद हो गया.स्टेज से घोषणा हुई 'महिमा चौधरी' तशरीफ़ लाईं हैं.उन दिनों वे बड़ी स्टार थीं.उन्होंने सबको नवरात्रि की शुभकामनाएं दीं और कहा कि 'मैं दिल्ली से हूँ इसलिए मुझे डांडिया नहीं आती,आपलोगों में से कोई दो लोग स्टेज पर आएं और मुझे डांडिया सिखाएं'...मैं यह देखकर हैरान रह गयी पूरे १० मिनट तक कोई अपनी जगह से हिला तक नहीं बल्कि म्यूजिक बंद होने पर सब अपनी नापसंदगी ज़ाहिर कर भुनभुना रहें थे.बाद में शायद आयोजकों को ही शर्म आयी और वे लोग दो छोटी लड़कियों को पकड़कर स्टेज पर ले गए.मैं सोचने लगी,अगर यही बिहार या यू.पी.का कोई शहर होता तो इतने लोग दौड़ पड़ते, 'महिमा चौधरी' को डांडिया सीखाने कि स्टेज ही टूट गयी होती.

धीरे धीरे मुंबई में मेरी पहचान बढ़ी और हमारा भी एक ग्रुप बन गया जिसमे २ बंगाली परिवार और एक-एक राजस्थान ,पंजाब .महाराष्ट्र ,यू.पी.और बिहार के हैं.आज भी हम हमेशा होली और नव वर्ष वगैरह साथ में मनाते हैं. हमलोगों ने मिलकर फाल्गुनी पाठक के शो में जाने की सोची,फाल्गुनी पाठक डांडिया क्वीन कही जाती हैं.यहाँ भी वही माहौल था,संगीत की लय पर थिरकते सजे धजे लोग.मैंने कॉलेज में एक बार डांडिया नृत्य में भाग लिया था,लिहाजा मुझे कुछ स्टेप्स आते थे और मुंबई के होने के कारण महाराष्ट्रियन कपल्स भी थोडा बहुत जानते थे. बाकी लोगों को भी हमने सादे से कुछ स्टेप्स सिखाये और अपना एक गोल घेरा बनाकर डांडिया खेलना शुरू किया. इसमें पुरुष और महिलायें विपरीत दिशा घुमते हुए डांडिया टकराते हुए आगे बढ़ते रहते हैं.थोडी देर में दो लड़कियों ने मुझसे आकर पूछा,क्या वे हमारे ग्रुप में शामिल हो सकती हैं.मेरे हाँ कहने पर वे लोग भी शामिल हो गयीं.जब घूमते हुए वे मि० सिंह के सामने पहुंची तो उन्होंने घबराकर अपना डांडिया नीचे कर लिया और विस्फारित नेत्रों से चारो तरफ घूरने लगे.अपने सामने एक अजनबी चेहरा देखकर उन्हें लगा वे गलती से किसी और ग्रुप में आ गए हैं. बाद में देर तक इस बात पर उनकी खिंचाई होती रही.

इसके बाद भी कई बार डांडिया समारोह में जाना हुआ.पर दो साल पूर्व की डांडिया तो शायद आजीवन नहीं भूलेगी.मेरे पास की बिल्डिंग में ३ दिनों के लिए डांडिया आयोजित की गयी.संयोग से उस बिल्डिंग में मेरी कोई ख़ास सहेली नहीं है.बस आते जाते ,हेल्लो हाय हो जाती है.अलबत्ता बच्चे जरूर आपस में मिलकर खेलते हैं.उनलोगों ने मुझे भी आमंत्रित किया.दो दिन तो मैं नहीं गयी पर अंतिम दिन उनलोगों ने बहुत आग्रह किया तो जाना पड़ा.फिर भी मैं काफी असहज महसूस कर रही थी,लिहाज़ा एक सिंपल सा सूट पहना और चली गयी.

मैं कुर्सी पर बैठकर इनलोगों के गरबा का आनंद ले रही थी पर कुछ ही देर में इनलोगों ने मुझे भी खींच कर शामिल कर लिया.और थोडी ही देर बाद,बारिश शुरू हो गयी.कुछ लोगों ने अपने कीमती कपड़े बचाने के ध्येय से और कुछ लोग भीगने से डरते थे...लिहाजा कई लोग शेड में चले गए.पर हम जैसे कुछ बारिश पसंद करने वाले लोग बच्चों के साथ,बारिश में भीगते हुए गोल गोल घूमते दुगुने उत्साह से गरबा करते रहें.थोडी देर बाद आंधी भी शुरू हो गयी और जोरों की बारिश होने लगी...बच्चों को जैसे और भी जोश आ गया,उनलोगों ने पैरों की गति और तेज कर दी. आस पास के पेडों से सूखी डालियाँ गिरने लगीं.अब गरबा की जगह डांडिया शुरू हो गया. डांडिया स्टिक कम पड़ गए तो लड़कियों और बच्चों ने सूखी डालियों को ही तोड़कर डांडिया स्टिक बना लिया और नृत्य जारी रखा.इस आंधी पानी में पुलिस भी अपनी गश्त लगाना भूल गयी और समय सीमा पार कर कब घडी के कांटे साढ़े बारह पर पहुँच गए पता ही नहीं चला.किसी ने पुलिस को फ़ोन करने की ज़हमत भी नहीं उठायी. वरना एक दूसरी बिल्डिंग के स्पीकर्स कई बार पुलिस उठा कर ले जा चुकी थी.किसी को सचमुच परेशानी होती थी या लोग सिर्फ मजा लेने के लिए १० बजे की समय सीमा पार हुई नहीं कि पुलिस को फ़ोन कर देते थे.और पुलिस भी मुस्तैदी से अपना कर्त्तव्य निभाने आ जाती थी.

मन सिर्फ आशंकित था कि इतनी देर भीगने के बाद कहीं कोई बीमार न पड़े.पर कुदरत की मेहरबानी,बुखार तो क्या किसी को जुकाम तक नहीं हुआ.

Tuesday, September 29, 2009

विसंगतियां ज़माने की

खुशियाँ बिखेरता,प्यार लुटाता नवरात्र चला गया. अगले वर्ष इसके आगमन का सबको बेसब्री से इंतज़ार रहेगा और इस इंतज़ार में शामिल रहेंगी कुछ 'डिटेक्टिव एजेंसियां' भी. क्यूंकि नवरात्र में उनका बिजनेस चरम सीमा पे होता है.पहले पहल यह खबर पढ़कर मैं हैरान रह गयी थी कि गुजरात में संपन्न माता-पिता अपने बच्चों की गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए गुप्तचर संस्थाओं का सहारा लेते हैं.मुंबई और गुजरात में नवरात्र में गरबा और डांडिया की धूम रहती है. देर रात तक किशोर,किशोरियां अपने दोस्तों के साथ डांडिया खेलने जाते हैं.मुंबई में तीन साल पहले सार्वजनिक रूप से रात १० बजे के बाद तेज़ संगीत बजाने पर पाबंदी लगा दी गयी है.इस से नवरात्रि कि रौनक तो फीकी पड़ गयी है पर मुंबई के अभिभावक चैन की नींद सोने लगे हैं.

लेकिन गुजरात में चैन की नींद सोने के लिए अभिभावक हजारों रुपये खर्च कर गुप्तचर नियुक्त करते हैं जो उनके बच्चों के कार्यकलापों पे नज़र रखते हैं और सारी जानकारी माँ-बाप को मुहैया करवाते हैं.इस वर्ष तो एक नए सॉफ्टवेर के ईजाद ने इनकी मुश्किल कुछ और आसान कर दी है.इस सॉफ्टवेर को मोबाइल में इंस्टाल करने पर,किस नंबर पे फ़ोन किया गया,किस नंबर से रिसीव किया गया,फोन की लोकेशन क्या है....सब पता चल जाता है.यह अभिभावकों में बहुत ही लोकप्रिय हो गया क्यूंकि इस सॉफ्टवेर की कीमत ५००रुपये और इंस्टाल करने की १००० रुपये है जबकि गुप्तचरों की फीस ५०००रुपये से १०.०००० तक होती है.

पर मन यह सोचने पर मजबूर हो गया कि आखिर ऐसी नौबत आयी ही क्यूँ? माँ-बाप को इतना भी भरोसा नहीं, अपने बच्चों पर ?और अगर भरोसा नहीं है तो फिर उन्हें देर रात तक बाहर भेजते ही क्यूँ हैं? बच्चों को वो जाने से नहीं रोक पाते यानि कि बच्चों पर उनका वश भी नहीं.
जाहिर है उनकी परवरिश में कोई कमी रह गयी.अच्छे संस्कार नहीं दे पाए.अच्छे बुरे को पहचानने कि समझ नहीं विकसित नहीं कर पाए. वे अपने काम में इतने मुब्तिला रहें कि बच्चे नौकरों और ट्यूशन टीचरों के सहारे ही पलते रहें.उन्हें अच्छी बातें बताने,उनकी परेशानियां सुनने, उनकी उलझने सुलझाने का वक़्त ही नहीं रहा उनके पास.और जब आज बच्चे पहुँच से बाहर हो गए हैं ,तो वे गुप्तचरों का सहयोग लेने पर मजबूर हो गए हैं.यह कहीं उनकी बड़ी हार है.

और ये गुप्तचर या नया सॉफ्टवेर भी उनकी कितनी मदद कर पाएंगे??अगर बच्चे समारोह में न जाकर किसी दोस्त के यहाँ या कहीं और चले जाते हैं तो गुप्तचर इसकी सूचना उनके माता पिता को दे देते हैं.नया सॉफ्टवेर भी सिर्फ कॉल डीटेल्स और लोकेशन ही बता सकता है.कुछ अघटित घटने में समय ही कितना लगता है.?उसे रोका तो नहीं जा सकता.हाँ, पूरा ब्यौरा पाकर माँ बाप बच्चों से जबाब तलब जरूर कर सकते हैं.बच्चों ने भी 'तू डाल डाल ,मैं पात पात' के अंदाज़ में नयी तरकीबें खोज निकाली. एक लड़की ने कहा,वो घर से बाहर जाते ही अपना इंस्ट्रूमेंट ही बदल देती थी .एक लड़का बहाने से अपना फोन घर पे ही छोड़ देता था.

इन सबसे तो बेहतर है कि माता पिता चाहे कितने भी व्यस्त हों,कुछ क्वालिटी टाइम निकालें.उनके साथ कुछ समय बिताएं,उन्हें अच्छे,बुरे की पहचान करने में मदद करें.उनमे इतना आत्मविश्वास जगाये,उनके चरित्र को सुदृढ़ बनाने की कोशिश करे ताकि वे किसी भी स्थिति का सामना कर सकें और किसी भी स्थिति में खुद पर संयम रख सकें.

मुंबई में जन्मी,पली,बढ़ी मेरी कई सहेलियां बताती हैं कि वे लोग नवरात्रि के दिनों में डांडिया खेलकर सुबह ४ बजे घर आया करती थीं.साथ में होता था कालोनी के लड़के ,लड़कियों का झुण्ड. उन सबके माता पिता ने उनपर कैसे विश्वास किया?...लोग कहेंगे अब ज़माना खराब है.पर ज़माना हमसे ही तो है. इस ज़माने में रहकर ही,खुद को कैसे महफूज़ रखें, अपना चरित्र कैसे सुदृढ़ रखें,अपने संस्कारों को न भूलें.यह जरूरी है न कि किसी गुप्तचर के साए की दरकार है.

मेरे पड़ोस की मध्यम वर्ग की दो लड़कियां २० साल की कच्ची उम्र में उच्च शिक्षा के लिए विदेश गयी हैं.कभी लिफ्ट में मिल जातीं तो हलके से मुस्करा कर हेल्लो कहतीं.स्मार्ट हैं, पर कभी उन्हें उल्टे सीधे फैशन करते या बढ़ चढ़कर बांते करते नहीं सुना.मैं सुनकर चिंता में पड़ गयी थी,वे लोग वहां अकेले कैसे रहेंगी? पर उनके माता पिता को अपनी परवरिश पर पूरा भरोसा है.

एक बार टी.वी.पर यह खबर देखी कि आजकल बच्चे भी अपने माता पिता की गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए गुप्तचरों का सहारा लेने लगे हैं.गुप्तचर संस्था के संचालक बता रहें थे कि बेचारे बड़े दुखी मन से कभी माँ के तो कभी अपने पिता क अफेएर का पता लगाने आते हैं.यह स्थिति तो और भी शर्मनाक है.

शायद यही सब देख किसी शायर मन ने कहा...."ये पत्थरों का है जंगल,चलो यहाँ से चलें
हमारे पास तो, गीली जमीन के पौधे हैं"

Friday, September 25, 2009

सच से कैसे आँखें चुराएं ??

मेरे कुछ दोस्तों को मेरी लिखी कहानी तो अच्छी लगी ,पर उनका कहना है, यह इतनी दुखभरी क्यूँ है?...एक शायर की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं.उन्हें यहाँ कहना इसलिए भी जरूरी है,क्यूंकि मेरी दूसरी पोस्ट देखकर भी मेरे दोस्त यही सवाल दुहारायेंगे.....

गुल की, खुशबु की, फिजा की बात करते हो
अमां तुम किस वतन के हो,कहाँ की बात करते हो
भूले से भी न करना चर्चा, कभी इन सिसकती हवाओं का
अगरचे लौट भी जाओ ,जहाँ की बात करते हो

खैर, तस्वीर इतनी भी बुरी नहीं. चाहे परिस्थिति कैसी भी हो, हम सबको ख़ुशी के दो पल चुरा लेना बखूबी आता है और यही जीवन है.जबतक दुःख का स्वाद न चखें, ख़ुशी कितनी लजीज है ,इसका पता कैसे लगेगा?? दुःख किसी न किसी रूप में हर एक के जीवन में आता ही है,इस से आँखें तो नहीं चुरा सकते हम. इसे दवा की कड़वी घूँट की तरह निगलना ही पड़ता है.

हिमांशु एवं ममता इतना निराश होने की जरूरत नहीं ..क्या पता कथानायक को इस से भी अच्छी नौकरी मिल जाए और उसके जीवन में रूपा जैसी किसी लड़की का आगमन भी हो जाए. दुःख या सुख कुछ भी चिरस्थायी नहीं पर हाँ अवश्यम्भावी जरूर हैं. खुद के बारे में यही कह सकती हूँ,शायद मैं ख़ुशी एन्जॉय करती हूँ और दुःख गहराई से महसूस करती हूँ.इसीलिए रचनाओं में वह झलक जाता है.सायास कभी कुछ नहीं लिखा.दिल ने जो कहा कलम ने बात मानी,दिमाग को बीच में आने ही नहीं दिया.
प्रस्तुत है इस बार मेरी लिखी कुछ पंक्तियाँ

"लावारिस पड़ी उस लाश और रोती बच्ची का क्या हुआ,
मत पूछ यार इस देश में क्या क्या न हुआ

जल गयीं दहेज़ के दावानल में, कई मासूम बहनें
उन विवश भाइयों की सूनी कलाइयों का क्या हुआ

खाकी वर्दी देख क्यूँ भर आयीं, आँखें माँ की
कॉलेज गए बेटे और इसमें भला क्या ताल्लुक हुआ

तूफ़ान तो आया बड़े जोरों का लगा बदलेगा ढांचा
मगर चाँद पोस्टर,जुलूस और नारों के सिवा क्या हुआ

हर मुहँ को रोटी,हर तन को कपडे,वादा तो यही था
दिल्ली जाकर जाने उनकी याददाश्त को क्या हुआ

जब जब झलका आँखों में व्यर्थ सा पानी 'रविजा'
कलम की राह बस एक किस्सा बयाँ हुआ

Wednesday, September 23, 2009

कशमकश

आँखें खुलीं तो पाया आँगन में चटकीली धूप फैली है. हडबडाकर खाट से तकरीबन कूद ही पड़ा. लेकिन दूसरे  ही क्षण लस्त हो फिर बैठ गया.कहाँ जाना है उसे? किस चीज़ की जल्दबाजी है भला? आठ के बदले ग्यारह बजे भी बिस्तर छोडे तो क्या फर्क पड़ जायेगा? पूरे तीन वर्षों से बेकार बैठा नकारा आदमी. अपने प्रति मन वितृष्णा से भर उठा. डर कर माँ की ओर देखा,शायद कुछ कहें, लेकिन माँ पूर्ववत चूल्हे में फूँक मारती जा रहीं थीं और आंसू तथा पसीने से तरबतर चेहरा पोंछती जा रहीं थीं .यही पहले वाली माँ होती तो उसे उठाने की हरचंद कोशिश कर गयीं होतीं और वह अनसुना कर करवटें बदलता रहता. लेकिन अब माँ भी जानती है कौन सी पढाई करनी है उसे और पढ़कर ही कौन सा तीर मार लिया उसने? शायद इसीलिए छोटे भाइयों को डांटती तो जरूर हैं पर वैसी बेचैनी नहीं रहती उनके शब्दों में.

थोडी देर तक घर का जायजा लेता रहा. आँगन में नीलू जूठे बर्तन धो रही थी. जब जब नीलू को यों घर के कामो में उलझे देखता है एक अपराधबोध से भर उठता है. आज जो नीलू की उंगलियाँ स्याही के बदले राख से सनी थीं और हाथों में कलम की जगह जूठे बर्तन थमे थे उसकी वजह वह ही था.. एक ही समय उसे भी फीस के लिए पैसे चाहिए थे और नीलू को भी.(वरना उसका नाम कट जाता) उसी महीने लोकमर्यादा निभाते दो दो शादियाँ भी निपटानी पड़ी थीं. एक ही साथ इतने सारे खर्चों का बोझ ,पिता के दुर्बल कंधे सँभालने में असमर्थ थे. और नीलू की पढाई छुडा दी गयी. प्राइवेट परीक्षाएं दो. बुरा तो उसे बहुत लगा था पर सबके साथ साथ उसके मन में भी आशा की एक किरण थी कि उसका तो यह अंतिम वर्ष है. अगले वर्ष वह खुद अपने पैरों पे खडा हो सकेगा और नीलू की छूटी पढाई दुबारा जारी करवा सकेगा. किन्तु उस दिन को आज तीन साल बीत गए और ना तो वह ऑफिस जा सका ना नीलू स्कूल.

जबकि पिता बदस्तूर राय क्लिनिक से सदर हॉस्पिटल और वहां से आशा नर्सिंग होम का चक्कर लगाते रहे. सोचा था, नौकरी लगने के बाद पहला काम अपने पिता की ओवरटाइम ड्यूटी छुड़वाने की करेगा. पर ऐसे ही जाने कितने सारे मनसूबे अकाल मृत्यु को प्राप्त होते चले गए और वह निरुपाए खडा देखते रहने के सिवा कुछ नहीं कर सका. क्या क्रूर मजाक है? स्वस्थ युवा बेटा तो दिन भर खाट तोड़ता रहे और गठिया से पीड़ित पिता अपने दुखते जोडों सहित सड़कें नापते रहें. जब जब रात के दस बजे पिता के थके क़दमों की आहट सुनता है, मन अपार ग्लानि से भर उठता है,  जी करता है --काश आज बस सोये तो सोया ही रह जाए. पर यहाँ तो मांगे मौत भी नहीं मिलती. कई बार आत्महत्या के विचार ने भी सर उठाया लेकिन फिर रुक जाता है. जी कर तो कोई सुख दे नहीं पा रहा. मर कर ही कौन सा अहसान कर जाएगा? बल्कि उल्टे समाज के सिपहसलारों के व्यंगवाणों से बींधते रहने को अकेला छोड़ जायेगा अपने निरीह माता पिता को.

सारी मुसीबत इनकी निरीहता को लेकर ही है. क्यूँ नहीं ये लोग भी उपेक्षा भरा व्यवहार अपनाते? क्यूँ इनकी निगाहें इतनी सहानुभूति भरी हैं? क्यूँ नहीं ये लोग भी औरों की तरह उसके यूँ निठल्ले बैठे रहने पर चीखते चिल्लाते..क्यूँ नहीं पिता कहते कि वह अब इस लायक हो गया है कि अपना पेट खुद पाल सके,कब तक उसका खर्च उठाते रहेंगे?..क्यूँ नहीं माँ कहती कि 'रमेश,विपुल,अभय सब अपनी अपनी नौकरी पर गए, वह कब तक बैठा रोटियां तोड़ता रहेगा?'...क्यूँ नहीं कोई काम बताने पर नीलू पलट कर कहती 'क्या इसलिए पढाई छुडा घर बैठा दिया था कि जब चाहो काम करवा सको.'..पर ये लोग ऐसा कुछ नहीं कहते बल्कि उसके दुःख को अपना दुःख समझ दुखी हो जाते हैं. पूरे समय सिर्फ यही कोशिश करते हैं कि भूले से भी उसे अपनी बेरोजगारी का भान न हो.हर बात संभाल संभाल आकर पूछी जाती है कि उसे अपनी बेचारगी का बोध न हो. पर उन्हें  इस बात का जरा भी इलहाम नहीं कि उसमें किस कदर आम्त्न्हीनता भर गयी है . बात बात में आत्महीनता से ग्रट्स हो उठता है, कहाँ चला गया ,उसका वो पुख्ता आत्मविश्वास .वह बेलौस व्यवहार .हर किसी से अनाखें चुराता फिरता है. आखिर क्यूँ, सारे दोष खुद में ही नज़र आते हैं. महसूस होता है , कोई गहरी कमी है ,उसके व्यक्तित्व में .लेकिन यह सच होता तो स्कूल से लेकर यूनिवर्सिटी तक उसका नाम कैसे रहता सबकी जुबान पर . आज भी पुराने प्रोफेसर्स मिलते हैं तो कितने प्यार से बातें करते हैं . लेकिन वह है कि ठीक ढंग से जबाब तक नहीं दे पाता .बातें करते हुए लगता है, कब तलें ये लोग. वरना रितेश से कतरायेगा ,ऐसा सपने में भी सोच सकता था भला ??

सामने से रितेश आ रहा था और उसकी अनाखें किसी शरणस्थल  की तलाश में भटकने लगीं . लेकिन सामने तो सीधी,सपाट,सूनी सड़क फैली थी .गली तो दूर , कोई दरख़्त भी नहीं, जिसके पीछे छुप पीछा छुड़ा सके. इसी उहापोह में था कि रितेश सामने आ गया और 'हेल्लोss अभिषेक ,कैसे हो ?" कहते गर्मजोशी से हाथ बढ़ाया .जबाब में वह बस दांत निपोर कर रह गया .

"इधर दिखते नहीं यार...कहीं बाहर थे क्या ?"
"अंss ..नहीं...यहीं तो था .."किसी तरह वो बोल पाया .
और अगला सवाल वही हुआ, जिससे बचने के लिए पैंतरे बदल रहा था .
क्या आकर रहे हो आजकल ? रितेश ने पूछा
क्या बताए  वह, बेरोजगार शब्द एक गाली सा लगता है.
जब चुप रहा तो रितेश ने कहा , "चलो कॉफ़ी पिलाते हैं ,तुम्हे ...फिर ऑफिस भी जाना है "
"हम्म..नहीं फिर कभी ...एक दोस्त को सी ऑफ करने जाना है ,उसके ट्रेन का टाइम हो चला है ..." झूठ सच जो मुहं  में आया ,कह पीछा छुडाया उसने .


पर रितेश के जाने के बाद जी भर कर गालियाँ दीं खुद को .(आजकल यही एक काम तो जोर शोर से हो रहा है ) इस तरह हीन भावना से ग्रस्त होने की क्या जरूरत थी. रितेश ही तो था वही पिद्दी सा रितेश जो कॉलेज में हर वक़्त उसके मजाक का निशाना बना रहता था ,फिर भी उसके आगे पीछे घूमा  करता था . दोस्त तो उसे उसका चमचा कह कर ही बुलाते थे . पर बड़े बाप का बेटा था .पिता की पहुँच थी .अह्छी कंपनी में नौकरी लग गयी है तो अब तो . कॉफ़ी की दावत देगा ही .पर कुर्सी मिल जाने से बुद्धि भी थोड एही आ गए एहोगी...सुनाता रहता वही बॉस और  उनकी सेक्रेटरी के घिसे पिटे किस्से पर रितेश स्मार्ट लग रहा था , आज उसके झुके कंधे चौड़े हो गए थे .नौकरी ने चेहरे पर आत्मविश्वास की चमक बिखेर दी थी .

और खुद पर ध्यान चला गया उसका, तो क्या वह देखने में भी अच्छा नहीं रहा ?? नहीं नहीं,,शारीरिक सौष्ठव में तो वह अभी भी किसी से कम नहीं .पर चेहरे का क्या करेगा , जिसपर हर वक़्त मनहूसियत की छाप लगी रहती है. और वही सारे भेद खोल देती है .

घर वाले सहानुभूति रखते हैं पर  दुनिया उसके घर वालों की तरह तो नहीं... नुक्कड़ के बनवारी चाचा हों या कलावती मौसी, नज़र पड़ते ही एक ही सवाल.."कहीं कुछ काम बना?" घर से निकलने का मन ही नहीं होता...और आजकल तो निकलना और भी दूभर क्यूंकि रूपा मायके आयी हुई थी वही रूपा जिसके साथ जीने मरने की कसमे खाई थीं. रूपा में तो बहुत हिम्मत थी....इंतज़ार करने... साथ भाग तक चलने को तैयार थी. पर वही पीछे हट गया ,कोई फिल्म के हीरो हिरोइन  तो नहीं थे दोनों कि जंगल में वह लकडियाँ काट कर लाता और सजी धजी रूपा उसके लिए खाना बनाती. रूपा की शादी हो गयी ,एक नन्हा मुन्ना भी गोद में आ गया, कई मौसम बदल गए पर नहीं बदला रूपा की आँखों का खूनी रंग...आज भी कभी उसपर  नज़र पड़ जाए तो रूपा की आँखे अंगारे उगलने लगती हैं.

शुक्र है, उसे हर तरफ से नकारा पाकर भी माँ पिता की आँखे प्यार से उतनी ही लबरेज रहती हैं. हर बार कोई नया फार्म या परीक्षा देने के लिए राह खर्च मांगते समय कट कर रह जाता है पर पिता उतने ही प्यार से पूछते हैं. "कितने चाहिए." और दस पांच ऊपर से पकडा देते हैं "रख लो जरूरत वक़्त काम आएंगे "..वह तो तंग आ चुका है इंटरव्यू देते देते. लेकिन इंटरव्यू का नाम सुनते ही परिवार में उछाह उमंग की एक लहर सी दौड़ जाती है. नीलू दरवाजे के पास पानी भरी बाल्टी रख देती है. नमन भागकर हलवाई के यहाँ से दही ले आता है. पिता बार बार दुहराते हैं. सामान का ध्यान रखना. चलती ट्रेन में भूलकर भी न चढ़ना. जैसे वह अब भी कोई छोटा सा बच्चा हो . माँ टीका करती हैं. वार के अनुसार राई , धनिया, गुड देती है . अगर वह पहले वाला अभिषेक  होता तो इन सारे कर्मकांडों की साफ़ साफ़ खिल्ली उड़ा चलता बनता . पर अब  सर झुकाए ,सब स्वीकार कर लेता है, शायद यही सब मिलकर उसके रूठे भाग्य को मना सकें . पर उसका भाग्य हठी बालक सा अपनी जगह पर अड़ा रहता है.  .

 वह इन सारे हथियारों से लैस होकर जाता है और हथियार डालकर चला आता है. पता चलता है ,चुनाव तो पहले ही कर लिया गया था. इंटरव्यू तो मात्र एक दिखावा था. लेकिन अब आजीज़ आ गया है. जब भी कोई नया इंटरव्यू कॉल आता है , सबके चेहरे पर आशा अकी चमक आ जाती है.  जब बुझा मन लिए लौटता है तो सामने से तो कोई नहीं पूछता , पर सब उसके चेहरे से भांपने  की कोशिश करते हैं . नीलू, नमन, माँ सब आस पास मंडराते रहते हैं . आखिर वह सच्चाई बताता है और परिवारजनों की आँखों में जलती आशा ,अपेक्षा की लौ दप से बुझ जाती है.

माँ के गहरा निश्वास लेती हैं , पिता दोनों हाथ उठा कर कहते हैं ,:होइहे वही जो राम रची राखा " नहीं अब और नहीं ..इन सारी स्थितियों का अंत करना ही होगा. किसी को कुछ नहीं बतायेगा .बार बार खुद को अपराधबोध से ग्रसित होने की मजबूरी से बचाना ही होगा. की अब घर में तभी बताएगा जब पहला वेतन लाकर माँ की हथेली  पर रख देगा.

ट्यूशन लेकर लौटा तो नीलू की जगह माँ ने खाना परोसा.और देर तक वहीँ बैठीं रहीं तो लगा कुछ कहना चाहती हैं.खुद ही पूछ लिया --"क्या बात है,माँ?..परेशान लग रही हो ?"

"नहीं ...बात क्या होगी "...माँ कुछ अटकती हुई सी बोल रही थीं..."अगले हफ्ते से नीलू के दसवीं के इम्तहान हैं. सेंटर दूसरे शहर पड़ा है.रहने की तो कोई समस्या नहीं,चाचाजी वहां हैं ही पर लेकर कौन जाए? यही मुसीबत है . पिताजी को छुट्टी मिलेगी नहीं...मैं साथ चली भी जाऊं पर वहां नीलू को एक्जाम सेंटर रोज लेकर कौन जायेगा...मेरे लिए वो शहर नया है...तेरा कोई इम्तिहान
तो नहीं ...तू जा सकता है?"

वह तो माँ के पूछने के पहले ही खुद को प्रस्तुत कर देना चाहता था ,पर एक समस्या थी ।एक .कम्पनी में वेकेंसी थी ।वह चुपचाप इंटरव्यू दे आया था ।घर पर कुछ नहीं बताया था ।इंटरव्यू काफी अच्छा हुआ था ।एक क्षीण सी आशा थी ...शायद यहाँ कुछ बात बन जाए . ...पर अब क्या करे...बता देगा तो फिर वही अपेक्षाएं ,आशाएं सर उठाने लगेंगी जिनसे बचना चाह रहा था..और नीलू के भी बोर्ड के इम्तहान हैं .पहले ही उसकी वजह से वह तीन साल से स्कूल छोड़ घर बैठी हुई थी. तय कर लिया कुछ नहीं बतायेगा माँ की आँखे उसपर टिकी थीं.बोला--"चिंता मत करो माँ, मैं लेकर जाऊंगा "
अटैची में कपड़े सम्भालते भी कई बार मन में आया जाकर बता दे ।एकाध बार दरवाजे तक गया भी पर फिर जी कडा कर लौट आया ।ना क्या फायदा , कुछ नहीं होने वाला ।इतने इंटरव्यू दे चूका है , कुछ हुआ क्या ।फिर वही होगा , नौकरी किसी सिफारिश वाले को मिल जायेगी। और गजर वाले नाहक परेशान होते रहेंगे ।और वह नीलू को इम्तहान दिलवाने चला गया ।
दस दिन बाद लौटा ।नीतू के एग्जाम अच्छे हुए थे ।वह बहुत खुश थी । माँ भी उसे खुश देख उत्साह से भर गईं ।उन दोनों को पानी देकर चाय बनाने चली गईं ।फिर बीच में ही भागती हुई आईं,' अरे ...तेरे कुछ कागज़ आये थे ' और कुछ लिफाफे उसके हाथों में थमा दिए ।उस कम्पनी का भी एक लिफाफा था ।कांपते हाथों से खोला,' कागज़ पर उभरे सतरों पर नज़र पड़ते ही उसका चेहरा सफेद पड़ गया ।कागज़ हाथों से गिर पड़ा ।वह पास पड़ी कुर्सी पर गिर पड़ा ।माँ घबराई हुई पूछ रही थीं ,' क्या हुआ बेटा...क्या लिखा था कागज़ में ?' कैसे बताये उन्हें,' नौकरी का कागज़ था पर ज्वाइन करने का डेट बीत गया उसका "