Monday, May 24, 2010

राम राम करके उपन्यास पूरा हुआ ,अब शुक्रिया कहने की बारी



यह उपन्यास या लम्बी कहानी(   आयम स्टिल वेटिंग फॉर यू, शची) जो भी कहें...ख़त्म होने के बाद ही सबका शुक्रिया अदा करने का विचार था ,पर कई अडचनें आ गयीं..और टलता रहा शायद ये टल ही जाता हमेशा के लिए अगर सारिका सक्सेना ने 'मेकिंग ऑफ द नॉवेल ' की डिमांड नहीं की होती और मुझपर इल्जाम भी है कि मैं mukti और सारिका को लेकर थोड़ा पक्षपात करती हूँ,अब दोनों दीदी कहती हैं तो इतना हक़ तो है ही उनका.(.हाँ, दीपक,पी.डी., सौरभ  तुम्हारा भी है...dnt b jealous :))

उन दोस्तों का  तहेदिल से शुक्रिया  जिन्होंने  बड़े धैर्य से यह लम्बा नॉवेल  पढ़ा जो 5 मार्च को शुरू होकर 13 मई को ख़त्म हुआ. नॉवेल के सफ़र की शुरुआत में ही मेरे लेखन के  कुछ नियमित पाठक साथ हो लिये. पहली किस्त पर तो बस शुरुआत  थी,सबने 'रोचक है' कह कर उत्साह बढाया.

दूसरी किस्त से कहानी ने थोड़ा जोर पकड़ा, दूसरी किस्त का ये डायलॉग "हर पढ़ी-लिखी लड़की थोड़ी फेमिनिस्ट तो ही जाती है हमेशा अपनी जाति के लिए सतर्क. कहीं कोई उनके अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण ना कर दे." सबको खूब भाया.  Pankaj Upadhyay  ने अभी अभी ये उपन्यास पढना बस शुरू ही किया है. इतवार की सुबह की चाय वे शची,अभिषेक के साथ लेते हैं,उनका कहना था कि उनके शहर  का शॉर्ट फॉर्म LMP है ,यानि लखीमपुर खीरी जबकि नॉवेल में LMP का अर्थ है,लव,मुहब्बत,प्यार.(उनका शहर  भी बिना शर्त यही बांटता होगा शायद)

तीसरी किस्त में दीपक 'मशाल' को अपने कॉलेज की बातें याद आ गयीं और जैसे वे फ्लैशबैक में जीने लगे उनका कहना था "आज से १०-११ साल पहले के अपने माज़ी की परते खोलने को भेज दिया.".  (दीपक हमें भी ले चलये कभी वहाँ :) .अभिषेक ओझा ने कहा ... 'खोकर पढता हूँ मैं तो, कैरेक्टर का नाम भी तो अपना ही है'.PD ने तीनो  किस्त एक साथ पढ़ी  और बाकी के सारे किस्त उन्हें मेल में चाहिए थी.उन्होंने धमकी भी दे डाली,'भेजिए वरना घर आ जाऊंगा और बैगनभी नहीं खाऊंगा ."

चौथी  किस्त में HARI SHARMA  जी ने इस डायलौग को उद्धृत  कर सारे युवा जगत से एक अपील कर डाली,कि ध्यान रहें , "व्हेन अ गर्ल इज इन लव,शी बिकम्सा क्लेवर बट व्हेन अ बॉय इज इन लव,ही बिकम्स अ फूल".shikha varshney ने सलाह दे डाली कि 'आपको युवा मनोविज्ञान पर एक किताब लिखनी चाहिए' सारिका सक्सेना ने भी इसका अनुमोदन किया कि आप युवा मनोविज्ञान को बहुत अच्छी तरह समझती हैं. दरअसल हर कोई ही इस दौर से गुजरता है.बस जरूरत है रुक कर एक बार उनके जैसा सोच कर देखने की'

शरद कोकास जी ने पांचवी किस्त तक एक बैठक में ही पढ़ी,और कहा,"साहित्यिक भाषा की कमी ज़रूर लग रही है लेकिन अब लिख ही लिया है तो क्या किया जा सकता है । बाकी प्रवाह बहुत बढ़िया है और रोचकता भी बरकरार है ।  उनकी शिकायत बिलकुल जायज है.एक तो मैं पूरी कोशिश करती हूँ कि नॉवेल के चरित्र बिलकुल बोलचाल की भाषा में ही संवाद करें.कोई क्लिष्ट शब्द आए भी तो उसे आसान से शब्द में बदल देती हूँ. पर सबकी अपनी पसंद होती है,उन्हें शायद इसकी कमी इतनी खली कि आगे की किस्तें उन्होंने पढ़ी ही नहीं :) (व्यस्तता भी एक वजह हो सकती है ). इसी किस्त में अभिषेक का ये कहना' आश्चर्यचकित तो वह भी था कि इतनी आसानी से फ्लर्ट कर सकता है वो. परन्तु शायद हर पुरुष में इस किस्म का चरित्र मौजूद रहता है. और मौका पाते ही अपनी झलक दिखा जाता है' दीपक मशाल और दीपक शुक्ल ने इस कथन पर गहरी आपत्ति की.:) (जैसे ये झूठ हो, हा हा )

छठी किस्त में sangeeta swarup ने कहा ... कहानी के सारे पत्रों के मनोभावों को बहुत मनोवैज्ञानिक तरीके से उजागर किया है....नायक के मन में कुछ और लेकिन अपनी इगो को सर्वोपरि रखते  हुए जिस तरह का आचरण दिखाया है बहुत सटीक है..' 
सातवीं किस्त में  वन्दना अवस्थी दुबे का कहना था  ... ' अपने स्वभाव के विरुद्ध जब हम कोई काम करते हैं, तो अभिषेक जैसी ही दशा होती है.' ,मुक्ति की मनपसंद पंक्ति लाईन थी
"किन्तु कॉमन रूम ही शायद सबसे निरापद जगह है. एक ही साथ कोलाहल और एकांत दोनों अस्श्चार्य्जनक रूप से रहते हैं यहाँ."
आठवीं किस्त खुशदीप सहगल ने ये शंका जता  डाली ... " रश्मि बहना, उपन्यास का क्लाईमेक्स क्या होगा, कहीं इस पर सट्टा ही लगना शुरू न हो जाए...'
नंवी किस्त में ज्ञानदत्त पाण्डेय जी के धीर गंभीर व्यक्तित्व से अलग  एक सुकोमल पक्ष भी नज़र आया जब उन्होंने कहा,नायक की जगह मैं होता तो शची का इन्तजार करता और वह इन्तजार पुनर्जन्म के आगे भी जाता, अगर आवश्यकता होती तो! '

दसवीं किस्त के लम्बे लम्बे डायलॉग सबको ज्यादा पसंद नहीं आए, Sanjeet Tripathi ने बेबाकी से कहा.." hmmm, sach kahu to aaj lambe dilogs ne thoda bore kiya..."  अनूप शुक्ल   जी ने भी चुटकी ले डाली कि
"नायिका को अपनी सेहत का ख्याल रखना चाहिये। छोटे-छोटे डायलाग बोलने चाहिये!" उनकी टिप्पणी बस इसी किस्त में उदय हुई और वहीँ अस्त भी हो गयी. ज़माने  में गम और भी हैं,ये नॉवेल पूरा करने के सिवा.
संजीत जी की ये भी डिमांड थी..."happy ending mangta hai, tipical indian ishtyle me...;) "
ग्यारहवीं  किस्त में दीपक मशाल,दीपक शुक्ल और  हरि शर्मा 'शची को कहे गए अभिषेक के  क्रूरतापूर्ण शब्दों से  काफी नाराज़ हो गए... जबकि महिलायें इसे प्रेम का ही एक रूप मान रही थीं.वाणी गीत तो इतनी भावुक हो गयी कि कह डाला, "आंसू भरी धुंधलाती आँखों से पढ़ यह सब कुछ ..कितने दिलों की ख़ामोशी को तुम कितनी आसानी से बयान कर देती हो .मन बहुत भर आया है ...आज तो जी कर रहा है कि फूट -फूट कर रो लूं ..." मुझे उसे समझाना पड़ा कि यह एक कहानी है..शची-अभिषेक एक काल्पनिक पात्र हैं.वह इन पात्रों से इतना जुड़ गयी थी गयी थी कि एक कविता भी लिख डाली..

जिनलोगों  ने हैरी पौटर फिल्म देखी हो उन्हें याद होगा, वहाँ बच्चों के नाम जब उनके पैरेंट्स के नाराज़गी भरे ख़त आते हैं तो वह ख़त डाइनिंग हॉल में चीखता हुआ आता है,जिसे howler कहते हैं ऐसा ही एक चीखता हुआ मेल आया Saurabh Hoonka का," cheating.... cheating.... this is cheating"  दरअसल उन्होंने उपन्यास शुरू किया और दो घन्टे तक पढने के बाद पता चला कि अभी तक क्रमशः ही  चल रहा है.फिर तो रोज उनका एक मेल आता और खीझ कर कहते, लगता है मेरे पोते भी इस नॉवेल को पढेंगे किस्त 102, किस्त 103   जब नॉवेल ख़त्म हो गया तो उनका कमेन्ट था
At last i just want to say one thing................ (Sorry Abhishek but...) I am in love with Shachi..........and I am still waiting for you Shachi...
अजय झा को टफ कम्पीटीशन है  क्यूंकि इस नॉवेल पर तो एक टिप्पणी नहीं की पर पर बाकी हर जगह वे शची के वेट कराने की ही चर्चा करते रहें.

आगे की किस्तों में वन्दना ने कहा ,".आखिर यथार्थ मे जीना सीख ही लिया अभिषेक ने……………उसके द्वंद का बखूबी चित्रण किया है "
रेखा श्रीवास्तव का भी कहना था ,... कहानी में मोड़ बहुत बढ़िया दिया है, अब आगे कि कल्पना कहाँ ले जने वाली है, वैसे उम्र के हिसाब से इंसान कि सोच बहुत बदल जाती  है. इसी को कहते हैं.
परिपक्वता और समय के साथ साथ चलना".खुशदीप भाई का कहना था,.. "बड़े गौर से पढ़ा इस कड़ी को...निष्कर्ष ये निकाला कि मेरे समेत हर पुरुष में एक अभिषेक है और हर नारी में एक शचि...कुछ समझौते को जीवन मान लेते हैं और कुछ जीवन को"
 हिमान्शु मोहन जी का कुछ अलग सा कमेन्ट था," लघु-उपन्यास देखा - सोचा निकल लेता हूँ चुपके से - लम्बी रचना - वो भी ब्लॉग पर - पढ़ ही नहीं पाऊँगा। फिर पढ़ गया पूरी किस्त। फिर पिछ्ली पढ़ी, फिर और  पिछली…"
.मुदिता ,(roohshine) बड़े ध्यान से पढ़ती थीं और एक बार बड़ी मुस्तैदी से याद दिलाया कि मैं क्रमशः लिखना भूल गयी हूँ...और पाठक समझेंगे यही अंत है नॉवेल का.

समीर जी(Udan Tashtari ) माफ़ करें पर उनकी टिप्पणी मैं हमेशा दो,तीन बार गौर से  से पढ़ती थी कि क्या वे सचमुच इतना लम्बा उपन्यास पढ़ रहें हैं  क्यूंकि औसतन १०० टिप्पणी तो वे रोज ही करते हैं..पर जब एक किस्त में उन्होंने कहा ,"शब्द  चित्रण बहुत प्रभावी होता जा रहा है."  तब मुझे यकीन हो गया कि वे सचमुच पढ़ते हैं.पर लिख तो मैं जाती लेकिन ये शब्द चित्र क्या बला है,मैने मुक्ति से पूछा,उसके बाद से तो मुक्ति ने जैसे हर किस्त में उनकी तरफ ध्यान दिलाने की जिम्मेवारी ही ले ली (वैसे मुक्ति पहली किस्त से ही चुनिन्दा पंक्तियाँ उद्धृत करती आई है.) शिखा,वाणी,वंदना भी यह बीड़ा उठाती थीं.
राज भाटिय़ा जी ने बहुत बड़ी बात कह दी  कि, 'उनके भी टीनेज़ बच्चे हैं, और यह उपन्यास पढ़ उन्हें उनकी मानसिकता समझने में मदद मिलती हैं.'
@ नेहा की बेसब्री उसके कमेन्ट में झलक जाती, वो बार बार ब्लॉग खोल के देखती...कि अगला किस्त आया या नहीं.Deepak Shukla ने  भी बड़े मनोयोग से हर किस्त पर उस अंश का सार समेटते हुए लम्बी टिप्पणियाँ कीं.

रवि धवन,ताऊ रामपुरिया,विनोद पांडे,अदा, पूनम, शाहिद मिर्ज़ा,भूतनाथ, शमा जी, ममता,जाकिर अली,रचना दीक्षित,आकांक्षा...  ये लोग भी बीच बीच में यह उपन्यास पढ़ते रहें.वंदना सिंह का आखिरी किस्त पे लम्बा woww हमेशा याद रहेगा :)
नॉवेल का सुखान्त होना सबको बहुत भाया ,रश्मि प्रभा... जी ने कहा, ab jake aaya mere bechain dil ko karar

कुछ टिप्पणियाँ ऐसी मिलीं जो आह्लादित तो कर गयीं,पर एक  बहुत बड़ी जिम्मेवारी भी सौंप गयीं, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी का ये कहना ".. बहुत दिनों बाद गद्य भी पद्य की तरह प्रवाहमय लगा. स्व. शिवानी जी को महारथ थी ऐसे लेखन में. आप कि कलम भी उसी दिशा में जा रही है" और  ज्ञानदत्त जी का ये कमेन्ट, . "स्तरीय किशोर/युवा वर्गीय साहित्य की हिन्दी में बहुत कमी है। उसे भरने का आपमें बहुत पोटेंशियल है." हिमांशु  मोहन जी ने कहा सूर्यबाला जी और शिवानी जी की कथाओं का मज़ा मिला। डा० अमर कुमार जी को ये   नॉवेल  उषा प्रियंवदा की 'रुकोगी नहीं राधिका' की  याद दिला गयी , और डा. तरु(Neeru) को 'गुनाहों का देवता' की.(ओह ,दोनों ही डॉक्टर हैं,पर साहित्य प्रेमी).  मैने तो कानों को हाथ लगा लिया...अगर उनलोगों  के लेखन के  शतांश क्या हजारवें अंश की  भी जरा सी झलक मिल जाये मेरे लेखन में तो धन्य समझूँ खुद को.

सभी पाठको का बहुत बहुत  से शुक्रिया,अपना किमती वक़्त जाया कर इस लघु उपन्यास को इतने मन से पढ़ा. और यही स्नेह बनाए रखियेगा...अभी बहुत कुछ लिखनेवाली हूँ.

(मुक्ति आजकल बहुत दुखी है,उसने अपनी प्यारी पप्पी  "कली" को हमेशा के लिए खो दिया है,मुक्ति हम सब तुम्हारे दुख में शामिल हैं ,आप सबसे भी आग्रह है दुआ कीजिये कि मुक्ति को ये अपूर्णीय क्षति सहन करने की हिम्मत मिले )
शुक्रिया सबका