Monday, December 27, 2010

कच्चे बखिए से रिश्ते (समापन किस्त )

(सरिता,अपनी सहेली के पति को अपने कॉलेज में ही लेक्चरर के पद पर नियुक्त करवाने में सहायता करती है. कुछ ही दिनों बाद उसकी सहेली की मृत्यु हो जाती है और उसके पति वीरेंद्र, कॉलेज में ज्यादातर समय ,सरिता के डिपार्टमेंट में बिताने लगते  हैं. पर सरिता को वीरेंद्र की कम्पनी रास नहीं आती फिर भी वह सहानुभूतिवश , उन्हें यह अहसास नहीं होने देती.)


गतांक से आगे

मुश्किल ये थी कि वीरेंद्र फिजिक्स  के प्रोफ़ेसर थे .और साइंस के अधिकतम छात्र, कोचिंग क्लास जाया करते लिहाजा..बहुत कम छात्र ही नियमित क्लास अटेंड किया करते.वीरेंद्र  भी  क्लास  में बीस मिनट बाद जाते और दस मिनट पहले निकल आते. कोई जिम्मेवारी  भी नहीं थी. वो कहती भी, "जो बच्चे..क्लास में ,बैठते हैं..शायद वे क्लोचिंग क्लास नहीं अफोर्ड कर पाते हैं..उन्हें ही मन से पढाया करिये .पर वे  गुस्से में बोल उठते,
"वे लोग  ऐसे भी नहीं पढने वाले...बहुत कमजोर हैं,पढने में ....साइंस  उनसे चलेगी नहीं..फेल होने वालो के उपर क्यूँ  मेहनत करूँ.." वह सोचती, तब तो दुगुनी मेहनत करनी चाहिए. पर सहेली के पति का ख्याल कर कुछ बोलती नहीं.
वीरेंद्र की निराशावादी बातें उसे परेशान कर देतीं...पर लिहाजवश वो कुछ भी ,रूडली नहीं बोल पाती. यूँ भी साइंस में नोट्स बनाने की जरूरत नहीं पड़ती. समय ही समय होता उनके पास. जबकि उसे सैकड़ो काम होते...नोट्स बनाने होते. लाइब्रेरी जाना होता..अपने साथी प्रोफेसर्स के साथ विचार-विमर्श..बहस भी नहीं हो पाती. सबसे जैसे वो कटती जा रही थी. वीरेंद्र की उपस्थिति से सब कन्नी काटने लगते और किसी बहाने उठ कर चले जाते.वीरेंद्र  को यूँ भी जिस से भी उसकी दो बातें हो जाती ...थोड़ी मित्रता होती....वे लोग  पसंद नहीं आते. मिस्टर जुनेजा को फोटोग्राफी का बेतरह शौक था...वे हमेशा कैमरा अपने पास रखते. उसकी भी फोटोग्राफी और पेंटिंग सीखने की दिली तमन्ना थी पर अवसर नहीं मिल पाया..नहीं सीख पायी..और अब तो जी के सौ जंजाल थे . उसका वह शौक अनुकूल,हवा,पानी खाद के अभाव में मृतप्राय हो गया था . जुनेजा  जी के खींचे चित्र देख जैसे  उसमे नव-जीवन संचार हो उठता . वे भी नई  तस्वीरें अपलोड करते ही उसे कंप्यूटर लैब में बुला ले जाते. कर्टसीवश वीरेंद्र को भी  बुला ले गए वे. पर वीरेंद्र ने इतनी आलोचना की "ये भी कोई तस्वीरें है..कीड़े-मकोड़ों की...टूटी झोपडी...गन्दी बस्ती की..फोटो तो सुन्दर दृश्यों के लेने चाहिए. " ढलते-सूरज, नदी-झरने झील की. " वो उनसे बहस नहीं करती .बात बदल देती.

अंग्रेजी के एक युवा प्रोफ़ेसर मिस्टर कुमार से उसका किताबो का आदान-प्रदान खूब होता. कई बार खड़े-खड़े ही किसी पुस्तक के किसी कैरेक्टर पर घंटो चर्चा हो जाती. पर मिस्टर कुमार एक विशेष विचारधारा को मानेवाले थे. वीरेंद्र, इस बात को मुद्दा बना उस से बहस कर बैठते .वह कितना भी कहती.."वो उनके विचार है...उसे उस से क्या लेना-देना...वो तो इतर विषय पर बात करती है." उस वक्त कुछ नहीं कहते,पर मौका ढूंढ अक्सर कह बैठते.."वो ये कह रहा था...उसे ऐसा कहते सुना मैने...मुझे बिलकुल नहीं पसंद " परेशान हो गयी थी वह. कॉलेज का कोई भी प्रोफ़ेसर उन्हें अच्छा नहीं लगता...खासकर अगर उनसे उसकी  अच्छी पहचान हो. वह उनकी मनःस्थिति समझती थी...वे परेशान थे, और इस तरीके ही अपनी खीझ ,फ्रस्ट्रेशन निकालना चाहते थे.  पर वो क्या करे. अपनी परिस्थिति से समझौते की कोशिश उन्हें खुद ही करनी थी. वे एक परिपक्व उम्र के इंसान थे. वो बस उनका साथ दे सकती थी,जिसकी वह भरसक कोशिश कर रही थी. पर इसके एवज में उसे अपना मानसिक संतुलन बनाये रखना कठिन हो जाता. घर, पति,बच्चे ,कॉलेज की हज़ारो जिम्मेदारियां और उस पर से वीरेंद्र का यह अनर्गल प्रलाप. वह एकदम से किनारा भी नहीं कर सकती थी. इस शहर में वही एकमात्र वीरेंद्र की परिचित थी और वीरेंद्र दूसरे लोगो से मिलने-जुलने, दोस्त बनाने को उत्सुक भी नहीं दिखते. उसने समय के सहारे खुद को छोड़ दिया था.

इन सबका कोई हल नज़र नहीं आ रहा था और ऐसे में टाइम-टेबल में बदलाव, उसके लिए एक सुखद बयार लेकर  आया. अब टाइम-टेबल कुछ ऐसा बना था जिसमे उसकी सहेली, कृष्णा और उसे एक साथ ऑफ पीरियड मिलते. उसे सुकून मिल गया.  वीरेंद्र तो उसे खाली  देखते आ ही जाएंगे ,इतना उसे पता था पर कम से कम कृष्णा  का साथ तो रहेगा. अब सब, इतना बोझिल तो नहीं होगा. उसने कृष्णा  से परिचय  करवाया और आश्चर्य...किसी से दोस्ती नहीं करनेवाले वीरेंद्र ने लपक कर उस से दोस्ती का हाथ बढाया. उसे सुकून मिला..चलो कुछ बोझ तो बँटा. शुरू में तो कृष्णा  भी उसपर  झल्लाई रहती..."कहाँ से उसके सर पर बिठा दिया..कितना अच्छा वे दोनों हंसी-मजाक दुनिया भर की बातें किया करते थे.' वीरेंद्र की  उपस्थिति थोड़ी असहज बना देती.  पर धीरे-धीरे उसने नोटिस किया.....वीरेंद्र, कृष्णा से काफी बातें करने लगे.

वैसे भी  कॉलेज फेस्टिवल्स अब नजदीक आ रहें थे और तमाम तरह के कम्पीटीशन होने वाले थे. हमेशा की तरह प्रिंसिपल ने उसे बुलाकर कई चीज़ों का इंचार्ज बना दिया था. डिबेट का पूरा कार्यक्रम उसे देखना था. फेस्टिवल के अलग-अलग डिपार्टमेंट्स के हेड भी स्टूडेंट्स  में से उसे ही नियुक्त करने थे . उसे काफी काम होता. डिपार्टमेंट में भी वो आती तो ढेर सारे पेपर वर्क करती  रहती. वीरेंद्र पहले की तरह कुर्सी खींच ...बैठ जाते और कोई ना कोई टॉपिक  शुरू  करने की कोशिश करते. वह भरसक प्रयास करती की उनकी बातो को ध्यान से सुने पर अब उसे  समय ही नहीं मिलता  और ये भी सोचती अब वे नितांत अकेले भी नहीं...कृष्णा से तो उनकी बात-चीत होती ही रहती है. हाँ-हूँ में जबाब देती तो वे चिढ कर उठ जाते. कभी उनके  यूँ अचानक उठ कर चले जाने पर बुरा भी लगता पर वो मजबूर थी.

कृष्णा भी जब भी अकेले में मिलती, कहती "क्या मुसीबत है,जैसे वे घड़ी देखते होते हैं...क्लास ख़त्म कर ,जैसे ही रजिस्टर रख कर जरा सा दम लो और पहुँच जाते हैं, ' नमस्ते कृष्णा  जी..कैसी हैं आप?' अब रोज भला कैसी होउंगी मैं...अच्छी मुसीबत, गले  डाल दी है तुमने "

"अरे,बेचारे अकेले हैं...थोड़ा झेल लो..मैने क्या कम झेला है इतने दिनों...फिर मिलकर उनकी शादी करवा देते हैं...अपनी नई पत्नी के साथ फोन पे चिपके रहेंगे ..हमें छुटकारा मिल जायेगा.."..हंस पड़तीं दोनों

"हाँ, ये ठीक रहेगा..जल्दी करो कुछ...वरना हम अपनी  बातें तो कर ही नहीं पाते.".... ये सच था कृष्णा और उसकी कितनी सारी गर्लिश टॉक अब  वीरेंद्र की  उपस्थिति के चलते गए दिनों की बात हो गयीं  थीं. कितने ही दिन हो गए और उन दोनों ने स्टुडेंट्स की बातें भी नहीं शेयर कीं. आजकल के स्टुडेंट्स,में गुरु-शिष्य वाली  भावना का लेशमात्र नहीं था. एक तो उनकी कच्ची  उम्र और उसपर अनुशासन का अभाव और फिल्मो,टी.वी. के प्रभाव ने काफी उच्छृंखल बना दिया था, छात्रों को.  महिला लेक्चरर्स की तो मुसीबत ही थी. कभी कोई लड़का लेक्चर के दौरान एकटक चेहरे पर देखता रहता. कुछ उसे कहा भी नहीं जा सकता. कह देता,"मैं तो ध्यान से सुन रहा हूँ" कभी कॉपी करेक्शन को दें तो उसमे हीरो हिरोइन की तस्वीरें या फिर कोई मनचला सा गीत लिखा होता. एकाध बार तो क्लास से बाहर निकलते  ही लड़कों  ने मोबाइल से तस्वीर भी खींच ली. डांटने पर बेशर्मी से कह देते ,"मैडम आप अच्छी लगती  हैं" एकाध बार उनके मोबाइल भी सीज किए पर कुछ दिन बाद खुद ही जाकर लौटाना पड़ा, महंगे मोबाइल्स थे..पता नहीं पैरेंट्स ने कितने खून पसीने की कमाई लगा दी होगी और ये आज के ढीठ बच्चे ,वापस मांगने भी नहीं आते. पर ये सब सत्र की शुरुआत में ही होता..धीरे- धीरे  जैसे टीचर-स्टुडेंट्स एक दूसरे को समझने लगते और एक रिश्ता सा बन जाता...फिर तो अपनी कितनी सारी समस्याएं  भी लेकर आते, जिसे वो और कृष्णा आपस में डिस्कस कर सुलझाने की कोशिश करते. पर अब  वीरेंद्र के सामने ये सब बातें करना मुश्किल हो गया था.

उसकी व्यस्तता बढती ही जा रही थी. अभी भी वीरेंद्र नियमित उसके डिपार्टमेंट में आते उसे नमस्ते जरूर कहते..दो मिनट बैठते..पर फिर विषय के अभाव में बात आगे नहीं बढती...'आज गर्मी है... 'लगता है बारिश होगी'...' आज तो मौसम अच्छा लग रहा  है..' बस..इसके आगे कुछ सूझता ही नहीं...
उस दिन भी सोच ही रही थी कि अगला वाक्य क्या कहे कि वीरेंद्र बोले..."कृष्णा जी नज़र नहीं आ रहीं....ये पत्रिका उनके यहाँ से लाई थी...लौटानी थी"

"कृष्णा के यहाँ से ?? " वो कुछ समझी नहीं.

"हाँ, वो बताया था ना आपको, एक मामा भी इसी शहर में हैं...वे कृष्णा जी के घर के पास ही रहते हैं...जब उनसे मिलने जाता हूँ...तो कृष्णा जी के यहाँ भी चला जाता हूँ."

"अच्छा....हाँ,मामाजी की बात तो आपने बतायी थी...कृष्णा के यहाँ की नही..."
"बस पांच-दस मिनट तो बैठता हूँ...क्या बताना  इसमें.."

"ओके .." कहने को तो उसने कह दिया...पर सोचती रही...एक-एक बात बताते हैं...और ये बात गोल कर गए...और कृष्णा ने भी नहीं बताया कुछ...जबकि  वीरेंद्रसे सम्बंधित तो हर बात बताती है...शिकायत ही सही...जिक्र तो रोज उनका  हो ही जाता है.
और करीब दो महीने बाद  जाकर, कृष्णा ने  एकदम कैजुअली कहा.." उस दिन वीरेंद्र घर आए तो बता रहे थे उनका कुक अब तक नहीं लौटा  गाँव से""
"वो तुम्हारे घर भी  जाते हैं?"
"अरे..कभी कभार...वो भी दस- पंद्रह  मिनट के लिए.."
"पर तुमने कभी बताया नहीं..."
"इसमें बताने जैसा क्या..था..."
"हाँ ये भी है......." कह तो दिया उसने पर सोचती रह गयी...वे दोनों   तो कॉलेज से सम्बंधित हर घटना का जिक्र एक दूसरे से जरूर करते थे. किसी प्रोफ़ेसर ने उसे लिफ्ट देने की  पेशकश की...या पहली बार हलो कहा...या किसी ने काम्प्लीमेंट  दिए....छोटी से छोटी कोई बात बताना नहीं भूलती पर वीरेंद्र  के घर पर आने वाली  बात, बतानी  उसने जरूरी नहीं समझी.

उसकी व्यस्तता बढती जा रही थी...और वीरेंद्र की नाराज़गी  भी. सारे खाली पीरियड्स ...स्टुडेंट्स के साथ मीटिंग्स...फेस्टिवल की तैयारियों  में निकल  जाते. डिपार्टमेंट में बैठना भी बहुत कम हो गया था उसका. कभी जाती तो देखती....वीरेंद्र, कृष्णा के पास की कुर्सी पर बैठे हैं. कभी कभी तो उसके हलो को भी नज़रअंदाज़  कर जाते. कृष्णा जरूर पूछती..."कितना बिजी रहने लगी हो.."
"अरे... पूछो मत...बस ये फेस्टिवल निकल जाए...तो चैन मिले."
"नहीं पसन्द, तो करती क्यूँ हैं... इतना काम..." अब वीरेंद्र फूटते
"करना पड़ता है...किसी को तो करना पड़ेगा ही ना...एंड आइ  एन्जॉय डूइंग इट "
"फिर शिकायत मत किया कीजिये...जरा विद्रूपता से कहा उन्होंने....उसे बुरा तो बहुत लगा...पर कुछ कह नहीं पायी "
ऐसा अक्सर लोग  कह जाते हैं...मनपसंद काम करने से भी थकान तो होती है...लेकिन लोग  उसके विषय में एक शब्द सुनना नहीं पसंद करते...अगर अपनी इच्छानुसार कोई काम करो तो फिर होठ  सी लो..दर्द पी लो...जुबान पे कुछ ना लाओ..वरना सुनने को मिलेगा..." किसने कहा ,करने को .

मन खिन्न हो आया. आजकल वीरेंद्र सिर्फ उसे इरिटेट करनेवाली  बाते ही किया करते थे. अक्सर सोचती..ये कृष्णा से उनकी इतनी कैसे बनने लगी?.आखिर किन विषयो पर बात करते हैं.?.क्यूंकि वीरेंद्र के पास तो कोई विषय ही नहीं थे और उसे लगता था ,कृष्णा बिलकुल उस जैसी थी......पर शायद दोनों की वेवलेंथ मिलती हो...एक जैसी पसंद नापसंद हो...

वीरेंद्र जरा थे भी भोंदू किस्म के  ..छोटे से कस्बे से ,कभी महिलाओं से ज़िन्दगी में बात की नहीं...और यहाँ पत्नी की सहेली की वजह से मिले अवसर का खूब  फायदा उठा रहे थे. प्रैक्टिकल क्लासेज़ में उनकी उपस्थिति अनिवार्य थी. पर वो भी लैब असिस्टेंट के भरोसे छोड़, यहाँ जमे रहते. उनसे सहानुभूति वश कोई सवाल नहीं करता. पर साइंस फैकल्टी के लोग उसे  ही सुना जाते, "अपने काम को तो सीरियसली लेना चाहिए ..आखिर रोटी वहीँ से मिलती है." उन्हें लगता,उसकी सिफारिश पर वीरेंद्र को यह लेक्चररशिप मिली है,तो कुछ जिम्मेवारी उसकी भी बनती है.
  वह क्या कह  सकती थी ? अब वीरेंद्र के बैठने की जगह भी बदल  गयी थी. पहले वे उसकी दायीं तरफ बैठते थे...कृष्णा से परिचय करवाया तो दोनों के बीच की कुर्सी पर बैठने लगे..अब देखती , कृष्णा की बायीं  तरफ  बैठते हैं...वो डिपार्टमेंट में आती ही कम...और जब आती भी तो देखती...साइकोलोजी वाली नीलिमा और संस्कृत पढ़ाने वाली शकुंतला जी भी बैठी हैं...और गप्पो के दौर चल रहें हैं...मुस्कराहट आ जाती,उसके  चेहरे पर...दोस्त बनाने से अरुचि रखनेवाले वीरेंद्र को महिला दोस्त बनाने से कोई परहेज नहीं था.

अब पता नहीं क्यूँ ,अपने डिपार्टमेंट में जा कर बैठना ,उसे अच्छा नहीं लगता. उनकी गप्पे चलती रहतीं... इंट्रूडर जैसा लगता. उसने स्टाफरूम में बैठना शुरू कर दिया. यहाँ ज्यादातर..इंग्लिश,हिंदी,, जोग्रोफी वाले प्रोफ़ेसर बैठते थे. पर सुखद आश्चर्य हुआ उसे ,पहले क्यूँ नहीं आई, इनके सान्निध्य में. बड़े नौलेजेबल लोंग थे. किसी किताब की यूँ मीमांसा करते कि वो मुग्ध सुनती रह जाती. बात-बात पे कोटेशन्स..गीता, रामायण..उपनिषदों से उद्धरण ...रोज ही कुछ नया सीखने को मिलता. स्वस्थ बहस भी होती..कभी-कभी तीखी भी पर एक दूसरे के विचारों का सम्मान करते सब. अपने विचार दूसरे पर थोपने की कोशिश नहीं करते.

फिर भी उसे अपने डिपार्टमेंट में तो जाना ही पड़ता. कृष्णा एक औपचारिक 'हलो' कहती.वीरेंद्र, अगर होते तो वो भी नहीं कहते. दूसरी तरफ देखते रहते. कभी सामने पड़ गए...तो वो 'नमस्ते' कह देती..और वे सिर्फ सर हिला कर चले जाते. अजीब लगता उसे. पर सोचने की फुरसत कहाँ थी..अब डिबेट्स के इनिशियल राउंड शुरू हो गए थे. उसमे पूरी तरह मुब्तिला थी वो. कभी- कभी उसकी क्लास भी छूट जाती. पर ऐसा तो हर वर्ष होता...वो बाद में एक्स्ट्रा क्लास ले सिलेबस पूरा कर देती.पर उसके कानो में कुछ  अजीब सी बात पड़ी...जब केमिस्ट्री  की रीमा कपूर ने कहा, ' "वीरेंद्र जी  आपके मित्र हैं ना..."
"हाँ..क्यूँ.."
"कुछ नाराज़ हैं क्या आपसे...?"
"नहीं तो..क्या हुआ.." उसे लग तो रहा  था,पर वो दुसरो के सामने क्यूँ स्वीकारे ये सब. 
"पता नहीं...कल आपको बहुत क्रिटीसाईज  कर रहें थे...कह रहें थे...'ये क्या बात हुई..क्लास में इतना शोर हो रहा है..कॉलेज में तो पढाना पहला धर्म होना चाहिए...ये डिबेट्स वगैरह ,सब तो ऑफ टाइम में होना चाहिए....आपकी सहेली  भी वहीँ थीं..."

"हम्म...होगा कुछ...मैं बात कर लूंगी ..चलूँ अभी...कुछ काम है " वो ज्यादा बढ़ावा  नहीं देना चाहती थी.

फिर तो अक्सर ही कोई ना कोई कह जाता...' वीरेंद्र जी इतना नाराज़ क्यूँ हैं,आपसे...आपके पढ़ाने के तरीके की बड़ी बुराई कर रहें थे कि उनकी क्लास में कितना शोर होता है..स्टुडेंट-टीचर का रिलेशन पता ही नहीं चलता...वे बहुत फ्रेंडली हो जाती हैं...स्टुडेंट के मन में हमेशा टीचर का डर होना चाहिए...और कृष्णा जी की बड़ी तारीफ़ कर रहें थे कि कितनी शान्ति होती है क्लास में...कोई शोर-शराबा नहीं...टीचर तो ऐसी होनी चाहिए"

" अब इसमें क्या कहा जाए...उन्हें कृष्णा का पढ़ाना अच्छा लगता होगा.." कह कर वो बात ख़त्म कर देती.

कृष्णा और उसका पढ़ाने का ढंग अलग  था . कृष्णा नोट्स बना कर ले जाती. क्लास में पढ़कर थोड़ा एक्सप्लेन कर चली आती.  स्टुडेंट्स खुश होते,बना बनाया नोट्स मिल जाता. जिसे रटकर वे परीक्षा में अच्छे नंबर ले आएँ. जबकि वो कोशिश करती कि बिना किसी नोट्स के पढाये...और विषय समझाने की कोशिश करे कि क्लास में ही कुछ तो उनके दिमाग में रह जाए. इस चक्कर में काफी सवाल जबाब होते और बाहर वालो  को लगता शोर हो रहा है.पर और किसी ने तो कभी शिकायत नहीं की.पता नहीं वीरेंद्र को उस से क्या प्रॉब्लम  हो गयी है. शायद उन्हें लगा वो जान-बूझकर इग्नोर कर रही है. पर सबकुछ तो सामने ही था .वो वीरेंद्र से तो  कुछ भी नहीं पूछ्नेवाली ..इतना कुछ किया है उनके  लिए ,उसका सिला जब वे ,ये दे रहें हैं ,तो क्या बच जाता है पूछने को. उनकी मर्जी.

पर उसने  कृष्णा से इसकी चर्चा करने की सोची.

कृष्णा ने छूटते  ही कहा.."क्या पता तुमलोगों के बीच क्या मिसअंडरस्टैंडिंग है . वीरेंद्र जी बहुत हर्ट हैं"

"अच्छा इसीलिए सब जगह मेरी बुराई करते चल  रहें हैं....और सब तो तुम्हारे सामने ही है ना...कैसी मिसअंडरस्टैंडिंग??...तुम्हे तो सब पता है, मैं बिजी रहने लगीहूँ.....उनसे ज्यादा बात नहीं कर पाती, अब " मन कसैला हो आया उसका. उसकी  इतने दिनों की सहेली भी बात समझने की कोशिश नहीं कर रही .

"अब मुझे क्या पता....तुम दोनों के बीच क्या हुआ है...कह रहे थे, सरिता जी अब बात नहीं करतीं...."

"अरे, तुम्हारे सामने तो कितनी बार हलो कहा है...और उन्होंने जबाब भी नहीं दिया...अजीब बात है...हाँ,बाद में मैने भी छोड़ दिया...मैं भी इतनी फालतू नहीं"

"अब मुझे क्या पता....और मुझे क्या मतलब इन सब बातों से....ये तुम दोनों के बीच की बात है....पर वे बहुत हर्ट हैं  "

"हम्म..ठीक  है जाने दो.." वो समझ गयी, जब वीरेंद्र उसकी प्रशंसा के पुल बांधते फिर रहें हैं तो उसे उनका कोई दोष कैसे नज़र आएगा. चाशनी का ड्रम ही सामने उंडेल दिया गया हो तो पैर तो वहीँ चिपक जाएंगे ना.

एक दिन क्लास लेकर निकली ही थी कि प्यून बुलाने आया..."प्रिंसिपल साहब ने आपको अपने ऑफिस में बुलाया है"

चौंक गयी वो.."अब तो फेस्टिवल ख़तम हो गए...अब कौन सा काम आ पड़ा"

प्रिंसिपल बड़े इत्मीनान में दिखे ,उसे बिठाया ,इधर-उधर की बातें करने लगे ....वो समझ नहीं पा रही थी उनके बुलाने का प्रयोजन क्या है...फिर अचानक उन्होंने पूछा, "आपकी किसी से कोई नाराज़गी कोई बहस हुई है क्या...?"

हम्म तो ये बात है..पर इन तक वीरेंद्र की बात किसने पहुंचाई होगी ?

उसे नकारात्मक सर हिलाते देख उन्होंने कहा.."ऐसी कोई सीरियस बात नहीं... एक इमेल आया है...उसमे आपके खिलाफ काफी बातें कही गयीं है...मैं  सोचने लगा, आप तो इतनी डेडिकेटेड हैं अपने काम के प्रति...किसे शिकायत होगी...कोई पारिवारिक दुश्मनी  तो नहीं...किसी से?"

पर मन काँप गया ,उसका.."कैसी बुराई...क्या कहा गया है?"

" खुद देख लीजिये....आइ डी  भी फेक सा ही लगता है कुछ 'वी' से है ."...कहते उन्होंने लैपटॉप उसकी तरफ कर दिया....एक नज़र देखा उसने, बचकानी बातें थीं..." सरिता तो प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने लायक भी नहीं....उन्हें कॉलेज में कैसे रख लिया आपने..पढ़ाने से ज्यादा उनका मन दूसरी चीज़ों में लगता है...वगैरह..वगैरह..." इतनी गलत अंग्रेजी लिखी थी कि उसे पढने में भी वितृष्णा सी हो रही थी. इस गलत अंग्रेजी और 'वी'  के इनिशियल ने उसका शक यकीन में बदल  दिया..ये वीरेंद्र ही थे..पर उसने कुछ कहा नहीं.

उसे विचार मग्न देख, प्रिंसिपल ने आश्वस्त किया.."इतनी चिंता की बात नहीं..मैने सिर्फ इसलिए बता दिया कि आप  सावधान हो जाएँ....क्या पता, आप जिन्हें दोस्त समझ रही हों...उनमे से ही कोई हो"..उनका अनुभव बोल रहा था.

"थैंक्यू सो मच सर...अगर और इमेल्स आएँ तो बताएं...फिर कोई एक्शन लेना पड़ेगा.."

"हाँ वो तो मैं खुद ही पता लगा लूँगा...बस आपको सावधान करने को यह बताया..."

फिर से  थैंक्स कहती वो बाहर चली आई....मन हो रहा था 'कंप्यूटर लैब में जाकर एकबार अपना मेल भी चेक कर ले...क्या पता उसे भी कुछ भला-बुरा कहा हो. पर वो लास्ट पीरियड था. क्लास रूम्स बंद होने शुरू हो गए थे. शैलेश टूर पर गए हुए थे ,वरना रात में उनके लैप टॉप पर ही चेक कर लेती...

अगर ये वीरेंद्र ही हैं..पर उनके सिवा और कौन होगा...तो कितनी बड़ी गलती की  उसने, उनसे  लैपटॉप खरीदने की सलाह देकर.....वीरेंद्र बिलकुल तैयार नहीं थे..."मुझे क्या काम...मुझे इसकी क्या जरूरत"
उसने समझाया था.."अकेलेपन का बढ़िया साथी है"...कहकर  इंटरनेट के सारे गुण उनके सामने गा डाले थे.

उन्हें कुछ नहीं आता था..उसे भी ज्यादा कहाँ पता था...पर उसने कम्प्यूटर टीचर ' करण दोषी ' से अपनी पहचान  का फायदा उठाया. कॉलेज फेस्टिवल के समय, स्पौन्सर्स से इमेल के  आदान-प्रदान का भार,उसने करण दोषी  पर ही डाल रखा था. हंसमुख और कर्मठ लड़का था, अपने ऑफिशियल काम से कितने ही इतर काम करने को हमेशा तैयार रहता था. वीरेंद्र  ने लैप टॉप  के उपयोग  की सारी जटिलताएं उस से सीख लीं, थीं.
दूसरे दिन पहला क्लास लेकर आई ही थी कि मिस्टर जुनेजा...भागते हुए उसके पास आए..."चलिए जरा आपको कुछ दिखाना है.."

उसने सोचा..."तस्वीरें होंगी...पर उन्होंने अपना मेल बॉक्स खोला...और वही मेल उनके इन्बौक्स में भी पड़ा था "
उसने बताया , कि प्रिंसिपल को भी ऐसा मेल भेजा जा चुका है...."कौन हो सकता है?"...उन्होंने पूछा...
"क्या पता..."
उसके जबाब पर वो खुद ही बोले..."मुझे तो वीरेंद्र साहब ही लगते हैं...आजकल नाराज़ चल रहे हैं आपसे..जिधर देखो..आपके गुण गाते चलते हैं.."
"अच्छा...आपको भी  पता चल गया..".हंस पड़ी वो..
"हम अपनी तस्वीरों की दुनिया में रहते हैं..पर यहाँ की खबर  हमें भी होती है..आपकी शान में कसीदे तो पढ़ते ही रहते हैं...और दूसरी महिला लेक्चरर्स के सामने तो जैसे अगरबत्ती, धूप जला,बस दंडवत को तैयार."
"ह्म्म्म..." 
"वो ठीक है...उनकी अपनी मर्जी...पर जरूरी है कि एक की  बुराई करके ही दूसरे की तारीफ़ की जाए?"
"यही तो मैं सोचती हूँ.....ठीक है...मेरे सारे काम में त्रुटियाँ हैं...पर उन्हें  क्या फर्क पड़ रहा है...मुझे मेरे हाल पर छोड़ दें,ना "
"तब मजा नहीं ना...जबतक दूसरों के लिए गाए  आरती -भजन आपके कानो में ना पड़ें..क्या मजा उनका...घंटी की टुनटुनाहट तेज करनी ही पड़ती  है..." मुस्कुराते हुए कहा मिस्टर जुनेजा ने.

उसे जोर की हंसी आ गयी...मिस्टर जुनेजा आगे बोले, "फ़िक्र ना करें....अगर ये फेक मेल भेजने वाली, हरकत जारी रही तो कुछ किया जाएगा."
"फ़िक्र कैसी....अगर वे नहीं संभले तो  तो असलियत तो सामने आ ही जायेगी "

और यही हुआ..धीरे-धीरे जो भी नेट पर सक्रिय थे ..सबके पास वो इमेल और उसके साथ ही उस जैसे कई इमेल्स पहुँचने लगे. पता नहीं कहाँ से सबके इमेल आइ.डी. भी पता कर लिए थे...उसने सोचा, 'दूसरा कोई काम तो है नहीं. खाली  दिमाग शैतान का घर...करे भी क्या. कोई जुगत लगाई होगी '

उसे भी इमेल्स  मिलते .पर वो तो डर कर घर पर चेक भी नहीं करती अगर शैलेश ने देख लिया तो फिर तूफ़ान मचा देंगे. वे चुप नहीं बैठने वाले. तुरंत ही आइ.पी. एड्रेस पता कर एक्शन ले डालते..और बेकार का कॉलेज में एक चर्चा का विषय बन जाता. सोच में पड़ गयी वह....घर से बाहर निकल कर काम करने वाली औरतों को कितना कुछ सहना पड़ता है..कैसी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है...और उसे वे  'मजबूर' घर में भी शेयर नहीं कर पातीं.

शायद उसकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया ना देख . वीरेंद्र की हताशा बढती गयी और उन्होंने करण दोषी को भी ऐसे मेल भेज दिए .करण तुरंत हरकत में आ गया... पच्चीस  साल का लड़का...जोश से भरा...कुछ नया करने को मिला. सीधा उसके पास आया...किसकी हरकत हो सकती है??...और उसने अपना शक बता दिया...वो तुरंत काम में लग गया.
क्लास लेकर निकल ही रही थी कि शकुंतला जी मिल गयीं....उनका फिर से वही प्रश्न.." वीरेंद्र जी  इतने  नाराज़ क्यूँ है आपसे..."

अब कहाँ से लाए वो कोई वजह...जो थी फिर से दुहरा दी. तभी पीछे से करण ने जोर से आवाज़ दी...."सरिता मैडम"

उसके कदम रूक गए.....शकुंतला जी को देख  कर थोड़ा हिचकिचाया..पर उसने कहा.."ये सब जानती हैं...बोलो क्या पता चला?"

"मैडम ये वही वीरेंद्र जोशी हैं ना ...उन्होंने अपनी  आइ.डी. मेरे सामने ही तो  बनाई थी...आप ही तो लेकर आयीं थीं...उन्हें.....दोनों आइ. डी . का आइ.पी.एड्रेस एक ही है..."
"ओह्ह.." बस इतना ही बोल पायी...शक तो उसे था ही...पर प्रमाण मिल जाने पर सच में एक बार चौंक गयी..शकुंतला जी के चेहरे पर भी आश्चर्य के भाव थे.

उसे चुप देख..करण बोल  पड़ा.
"ये क्या तरीका है...अगर नाराज़ हैं....कोई शिकायत है  तो सामने से बोलो ना.... यूँ फेक आइ.डी. बना कर पीछे से वार क्यूँ....मुझे तो बहुत गुस्सा आ रहा है.."

"बस बस...काबू  रखो गुस्से पर ...ये सब चलता रहता है....और थैंक्यू सो मच...इतना बड़ा काम किया आपने....चलो अपनी क्लास देखो..बाद में बात करते हैं.

शकुंतला जी ने सब सुना....पर बोला कुछ नहीं....उसने ही कहा..." देखिए बिना किसी बात के ...कितनी बात बढ़ गयी "

"अब क्या कहा जाए...गलत तो है ही ये सब "  बस इतना ही कहा उन्होंने. पर उसे संतोष था उनके सामने करण ने यह बात बतायी...अब तो कृष्णा,नीलिमा सबको पता चल जायेगा और उन्हें विश्वास भी करना पड़ेगा.

पर सबके ठंढे रिस्पौंस पर उसे बड़ा दुख हुआ. कृष्णा से भी उसे खुद  ही कहना पड़ा..." सुना ना तुमने....वो फेक इमेल वाले वीरेंद्र ही थे..."

"हाँ....जो भी हुआ बहुत गलत हुआ..." बस इतना ही कहा उसने.

वीरेंद्र  का उसके डिपार्टमेंट में आना बदस्तूर जारी था. अब सबको इमेल वाली  बात मालूम हो गयी थी..अकेले में सब इसकी निंदा कर गए थे पर वीरेंद्र से उसी गर्मजोशी से मिलते. हर्षल को भी देखती...बड़े प्यार से दूर से पुकारता..' कैसे हैं.. वीरेंद्र  स्साब" ऐसा लगता जैसे सब विशेष चेष्टा कर यह दिखाने को आमादा हैं कि उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता...

एक दिन स्टाफरूम में कोई नहीं था .... यही सब सोचते ,यूँ ही चुप सी बैठी थी. नज़र खिड़की के अंदर आ गए बोगनवेलिया के लतरों पर जमी थीं. मिस्टर कुमार के आने का  उसे पता ही नहीं चला...
"क्या हुआ भाई..यहाँ यूँ खामोशी से क्यूँ  बैठी हैं...आज ब्रश-वर्श  नहीं किया क्या.."
"मतलब.." वो अबूझ सा देखती रही
तो फिर बोले,"ओह! लगता है ब्रश करने गयी तो दाँत सिंक में ही गिरा आयीं...इसीलिए नहीं दिख रहें "
हंस पड़ी वो..."ओह, अब समझी...कैसी भूलभुलैया भरी बातें करते हैं..आप भी"
"हाँ... आप ऐसी ही हंसती हुई अच्छी लगती हैं..पर हुआ क्या..ऐसा मूड क्यूँ है आज.."
"कुछ ख़ास नहीं"
"अब बता भी दीजिये "
"आपने मेरी तारीफ़ में कसीदे नहीं सुने क्या...कोई मेरी तारीफ़ में पुलिंदे लिखे जा रहा है.."
"ना..वरना मैं भी कुछ अपनी तरफ से जोड़ देता...कौन हैं ये भलामानुष"
अब वो चुप नहीं रह सकी...और सब बता दिया कि कैसे वीरेंद्र हर जगह उसकी बुराई करते फिर रहें हैं..कैसे फेक इमेल भेज रहे हैं..सबको"
"पर वे तो आपके मित्र थे,ना..हुआ क्या "
"बताया ना...कहने को तो कुछ  भी नहीं हुआ"
"ओके... मैं बात करता हूँ "
"नोsssss    वेsss "..वो जैसे चिल्ला ही पड़ी.
"अरे..मैं अपने तरीके  से बात करूँगा..."
"नहीं प्लीज़.. कुमार....आप रहने दीजिये.." वो घबरा गयी थी..."क्यूँ जिक्र किया आपसे "
"मैं इधर आ रहा था तो उन्हें साइंस डिपार्टमेंट की तरफ जाते देखा है....बीच रास्ते में ही पकड़ता हूँ..वरना वे अकेले नहीं मिलेंगे...डोंट वरी....मैं  बड़े तरीके से बात करूँगा"
और  कुमार तो यह जा वह जा...वे थे ही इतने जल्दबाज .
वह मायूस सी बैठी रह गयी....यह क्या कर दिया उसने ...पता नहीं कुमार क्या बात करें और वीरेंद्र  क्या समझे कि उसने भेजा है...अब क्या कर सकती थी.एकदम उदास सी बैठी थी कि दस मिनट बाद ही कुमार वापस आ गए. वो गुस्से में भरी बैठी थी. पर कुमार तो हँसते हुए बगल की कुर्सी पर जैसे ढह से गए  और पेट पकड़ कर हंसने लगे.
उसने घूर कर देखा तो बोले, "बताता हूँ...."और फिर हंसने लगे .
उसका घूरना जारी रहा तो किसी तरह हंसी रोक बोले, "शांत देवी..शांत ..पर आप ये बताइये इन जनाब से आपकी दोस्ती कैसे हो गयी."
"कहाँ की दोस्ती...आपने ना कुछ सुना ना कुछ जाना और चल दिए...महान बनने..कहा क्या आपने उनसे?"
"मैने इतना ही पूछा कि आपको सरिता जी से क्या प्रॉब्लम है...आप उनको यूँ क्रिटीसाईज  क्यूँ करते फिर रहें हैं...तो वे तो ..वे तो..".कुमार फिर हंसने लगे....फिर हंसी थाम कर बोले ..."सॉरी टू से ..पर वे तो बिलकुल औरतों की तरह बात करते हैं...नाक फुला कर कहने लगे, 'सरिता जी ने मेरा अपमान किया है...मैने कहा ..'तो उनसे जाकर  क्लियर कीजिये...यूँ दुसरो से उनकी बुराई करने का और ये फेक मेल भेजने का क्या मतलब ...तो बोले 'मैंने किसी से कोई बुराई नहीं की ..बल्कि उन्होंने मेरी इन्सल्ट की है...मैं बहुत हर्ट हूँ...हा...हा.. ही इज नॉट वर्थ इट...यु आर बेटर ऑफ हिम...शुक्र मनाइए  जान छूटी..

"मैने हर्ट किया है.....कैसे भला....पूछा नहीं,आपने??"..आवाज़ तेज हो गयी थी,उसकी.

"अरे पूछना क्या...वे खुद ही भरे बैठे थे...कहने लगे...मुझे इग्नोर करती हैं....मुझे एवोयेड करती है...ये बहुत अपमानजनक है मेरे लिए...यही सब कह रहें थे....बाप रे..कैसे गाँव की औरतों की तरह नखरे के साथ बोलते हैं....मैं तो पांच मिनट ना झेल पाऊं ऐसे आदमी को...आपकी इनसे दोस्ती कैसे हो गयी...कई बार आपके डिपार्टमेंट में बैठे देखा है ,इन्हें .."

" इसीलिए तो कह रही थी..आपको कुछ पता नहीं...वे मेरे दोस्त नहीं उनकी पत्नी मेरी सहेली थी.." फिर उसने सारी कहानी बतायी.

तो कुमार हाथ झटक कर बोले ..."बस आपका काम ख़त्म हुआ...आपने अपना कर्तव्य निभाया.इसे यहीं  छोड़ दीजिये और जरा भी चिंता मत कीजिये...आपको पूरा कॉलेज  ज्यादा अच्छी तरह जानता है..वो भोंपू लेकर भी चिल्लाये ना..कोई असर नहीं होने वाला...चाय पीनी है..खूब मीठी सी ...यू विल फील बेटर "

"ना एम आलरेडी फिलिंग बेटर आफ्टर टाकिंग टु यू ..थैंक्स.अ मिलियन ."
'एनिटायीम..बस आप ब्रश करने जाएँ तो ध्यान रखें ..दाँत सिंक में ना गिरा दें..." और दोनों जोर से  हंस पड़े.
***
कुमार से बात करके सचमुच बड़ा हल्का हो आया मन. सच में इतनी तरजीह देने की क्या जरूरत...कितने दिन बोलेंगे. ये बस एक अटेंशन सीकर बेहवियर है. निगेटिव तरीके से ध्यान खींचने की कोशिश . वो कुछ रेस्पौंड ही नहीं करेगी तो खुद ही चुप हो जाएंगे और दोस्ती का क्या..शायद उसकी भूमिका यहीं तक थी...कृष्णा और वीरेंद्र की दोस्ती करवाने के लिए ही ईश्वर ने उसे चुना था. वीरेंद्र को यहाँ स्थापित करवाने और सबसे परिचय करवाने तक की जिम्मेवारी ही उसकी थी. . और अब उसकी जिम्मेवारी पूरी हुई,बस....कैसा गम.

फेस्टिवल  भी अब समाप्ति की ओर  था. सारे इवेंट्स अच्छी तरह संपन्न हो रहें थे. बीच-बीच में हल्की-फुलकी  गड़बड़ियां भी होती  रहीं . डिबेट्स में दूसरे कॉलेज के आए स्टुडेंट्स ने बड़ा हंगामा किया . उसके कॉलेज के सारे डिबेटर्स  को हूट कर दिया. फोर्थ इयर की ज्योति को इतनी अच्छी तरह तैयार किया था . गोल्ड मेडल कहीं जानेवाला नहीं था.पर उन लडको को देखते  ही वह घबरा गयी. काफी कुछ तो भूल ही गयी...जो बोला वो भी डर-डर के. सबको अच्छा नहीं लगा, उसके कॉलेज में आकर दूसरे कॉलेज के बच्चे मेडल  ले गए.पर अब क्या किया जा सकता है.

ऐसे ही  फैन्सी ड्रेस कम्पीटीशन का उसने और फिलौसोफी की मंजुला ने नया कांसेप्ट सोचा था. कोई स्टेज नहीं बनाया...कॉलेज कैम्पस में ही तरह-तरह के वेश धरे स्टुडेंट्स आते रहें. प्रिंसिपल ने दो पीरियड ऑफ देकर इस इवेंट को और्गनाइज़ करने की अनुमति दी थी.पर बच्चो  ने इतना एन्जॉय किया कि दो पीरियड की अवधि समाप्त हो जाने के बाद भी क्लास में नहीं गए. कैम्पस  में ही ही हाहा  करते रहें. जिन प्रोफेसर्स  की क्लास थी..उनलोगों ने थोड़ी नाराज़गी जताई...हालांकि एन्जॉय उनलोगों  ने भी कम नहीं किया.

आज अंतिम दिन था और प्राइज़ डिस्ट्रीब्यूशन  भी था. प्रिंसिपल ने प्रोग्राम की समाप्ति पर उसका अलग से उल्लेख कर उसे धन्यवाद कहा और भूरी-भूरी  प्रशंसा  की. वो तो इतना असहज महसूस कर रही थी कि सर भी नहीं उठा पायी.

सब अच्छी तरह संपन्न हो जाने के बाद अब जी-जान से छूटी पढ़ाई में जुटी थी. पूरे दिन लाइब्रेरी में या स्टाफ-रूम में बैठे नोट्स तैयार करती रहती. उस दिन क्लास ख़त्म हो जाने के बाद मंजुला ने मार्केट चलने का इसरार किया. उसे कुछ शॉपिंग करनी थी. वो बोली, "ठीक है चलो..जरा ये नोट्स और किताबें मैं डिपार्टमेंट में अपने लॉकर  में रख आऊं. "

डिपार्टमेंट तक पहुंची कि उसे ख्याल  आया, "अरे मोबाइल तो ..मेज पर ही छूट गया "
उसने मंजुला को अपना बैग ,,किताबे थमायी  और तेज कदमो से वापस लौट पड़ी. जब मोबाइल लेकर आई तो देखा, मंजुला दरवाजे के पास ही गंभीर मुद्रा में खड़ी है , उसने पूछा..तो उसे होठो पे अंगुली रख चुप हो सुनने का इशारा किया .

अंदर वीरेंद्र  की आवाज गूँज रही थी.."पता नहीं लोगो ने सरिता जी को इतना सर क्यूँ चढ़ा रखा है...किस बात की तारीफ़ कर रहें थे प्रिंसिपल...बटरिंग करती होंगी प्रिंसिपल की...पहले तो सारी जिम्मेवारी दे दी उन्हें...उन्हें ही क्यूँ??..और लोग  नहीं हैं, कॉलेज में...कृष्णा जी हैं...नीलिमा जी हैं..इतने एफिशिएंट लोंग हैं...कितना हंगामा मचा रहा..पूरे प्रोग्राम के दौरान...डिबेट का मेडल दूसरे कॉलेज वाले ले गए...फैन्सी ड्रेस वाले दिन देखा...कोई डिसिप्लीन  ही नहीं..कृष्णा जी एकदम शान्ति से सुचारू रूप से सब करवातीं. सरिता जी को ना तो पढ़ाने का ढंग है..ना क्लास में शान्ति रखने का.....एक काम भी उनका सही नहीं होता..फिर भी लोगो  को देखिए बिना वजह की तारीफ़ करते रहते हैं..."

"अरे जमाना ऐसा ही है....वीरेंद्र  जी" किसने कहा..ये देखने को कमरे के अंदर झाँका तो पाया, वहाँ  तो उसके सारे ही तथाकथित दोस्त भरे पड़े हैं..कृष्णा, शकुंतला जी, नीलिमा तो हमेशा की तरह थी हीं पर उसे आश्चर्य हुआ , मनीषा दी को देख. वे उसकी बड़ी दीदी की सहेली  थीं....उनसे घर जैसा रिश्ता था. हमेशा, उसे मेरी छोटी बहन कह लाड़ लगाती रहतीं. वे भी चुपचाप वीरेंद्र का ये अनर्गल  प्रलाप सुन रही थीं. एक शब्द नहीं कहा उन्होंने कुछ. भले ही ना कहतीं..पर कम से कम वहाँ से हट तो सकती थीं. यह सब सुनने की क्या मजबूरी थी,उनकी? उतना ही आश्चर्य हर्षल को देख भी हुआ. नया -नया उसके हिस्ट्री डिपार्टमेंट  आया था. उसे दीदी कहते उसकी जुबान नहीं थकती . उसका सबसे बड़ा खैरख्वाह बनता था .इतना एग्रेसिव था ,किसी से भी लड़ पड़ने को तैयार. कितनी बार रोका था उसे. और यहाँ, वह भी सब चुपचाप सुन रहा  था.

उसकी आँखे झलझला  आई थीं. मंजुला ने महसूस किया और उसका हाथ पकड़ कर बोली.."चलो..यहाँ से चलते हैं"
उसके लाख मना करने पर भी उसे शॉपिंग  के लिए ले गयी..."अरे मूड ठीक होगा..घर जाओगी तो यही सब सोचते बैठोगी. घर पर कोई है भी नहीं...कि ध्यान बंटेगा..चलो मेरे साथ."

  हँसते-बतियाते..ढेर सारी शॉपिंग की....उसे भी लगा ..अब वो नॉर्मल  है सब भूल गयी है. पर घर की तरफ आते ही जैसे बाँध  की पानी की मानिंद  उन बातों का सैलाब उमड़ पड़ा....और थके-बोझिल कदमो से उसने दरवाज़ा खोल अंदर कदम रखा.

खिड़की के पास खड़ी ...उन्ही बातों के बहाव के साथ मन हिचकोले ले रहा  था .बिजली अभी तक नहीं आई थी.लगता था कुछ मेजर ब्रेकडाउन हो गया है. बाहर फैला घना अँधेरा उसके अंदर भी फैलता जा रहा था. सामने शर्मा जी के बंगले का चौकीदार अपनी लाठी ठक-ठक करता हुआ गेट के पास बैठ गया था.अब पता था वो ऊँची वाल्यूम में अपना ट्रांजिस्टर ऑन करेगा. और अगले ही पल फिजा को गुंजाते हुए  स्वरलहरियां फ़ैल गयीं..गाना बज रहा था,

"कसमे वादे प्यार वफ़ा
सब बातें हैं बातों का क्या
कोई किसी का नहीं
ये रिश्ते नाते हैं, नातों का क्या"

वो ऐसे चौंक उठी जैसे उसकी  ही चोरी पकड़ ली हो किसी ने...उसके मनोभाव का इन गाना प्ले करने वालों  को कैसे चल गया? क्या सचमुच ऐसी ही है दुनिया...ये रिश्ते-नाते क्या कच्चे बखिए से हैं...बिन प्रयास के ही उधड़ जाते हैं. कैसे किसी पर विश्वास करे....हर चेहरे के अंदर एक चेहरा है...जबतक नकाब पड़ी रहें तभी तक दुनिया ख़ूबसूरत है...उसे लगता था ..सबकुछ देख -जान चुकी है...अब कुछ भी बाकी नहीं..दुनिया के हर पैंतरे से वाकिफ है वह... पर इतना  कुछ देखने के बाद भी कितन कुछ अनदेखा -असमझा बाकी रह जाता है...

अनायास ही उसकी नज़र आकाश की तरफ उठ गयी. सुदूर कोने में एक मध्यम सा तारा था . उसकी नज़र पड़ते ही झिलमिलाया ,लगा उसने आँखे झिपझिपा कर हामी भरी हो.

Friday, December 24, 2010

कच्चे बखिए से रिश्ते


ताला खोल,थके कदमो से...घर के अंदर प्रवेश किया...बत्ती  जलाने का भी मन नहीं हुआ..खिड़की के बाहर फैली उदास शाम, जैसे  उसके  मूड को रिफ्लेक्ट कर रही थी...या शायद उसके मन की उदासी ही खिड़की के बाहर फ़ैल कर पसर गयी थी...अच्छा था, आज घर में वो अकेली थी..जबरदस्ती मुस्कुराने का नाटक करने की जहमत पल्ले  नहीं थी....बच्चे अपनी बुआ  के पास गए थे और पति दौरे पर.  जबरदस्ती कोई बात नहीं करनी थी....दिखाना नहीं था कि सब नॉर्मल  है...आज वह जी भर कर अपनी उदासी को जी सकती थी...कब  मिलता है ज़िन्दगी में ऐसा मौका कि अपनी मनस्थिति को बिना कोई मुखौटा लगाए सच्चाई से जिया जा सके. अचानक मोबाइल का ध्यान आ गया...डर लगा, उसके अकेले रहने पर पति से लेकर बच्चे..ननदें...सब फोन करके अपनी उदासी को जीने के मुश्किल से मिले ये पल....कहीं छीन ना लें..और उसे वापस उसी चहकती आवाज में बतियाना पड़े...कि 'चिंता ना करो सब ठीक है'..मोबाइल साइलेंट पर रख,दराज़ में रख दिया. लैंडलाइन का रिसीवर भी उतार कर रख दिया...ख्याल आया कॉफी के साथ ये उदासी एन्जॉय  की जाए....कॉफी में दूध भी नहीं डाली...सारे कॉम्बिनेशन सही होने चाहिए...धूसर सी शाम...अँधेरा कमरा ...ये उदास मन और काली  कॉफी.

कॉफी का मग थामे खिड़की तक चली आई....शाम के उजास को अब अँधेरे का दैत्य जैसे लीलता जा रहा था...और दूर के दृश्य उसके पेट में समाते जा रहें थे. दैत्य ने उसकी खिड़की के नीचे भी झपट्टा मार थोड़ी सी बची उजास हड़प ली. और उसके इस कृत्य से नाराज़ हो जैसे सारे उजाले छुप गए..शहर  की बिजली चली गयी थी. घुप्प अँधेरा फैला था...उसकी नज़र आकाश की तरफ गयी..आकाश में तारों ...अभी कुछ ही देर में पूरी महफ़िल सज जाएगी और सारे तारे जग-मग करने लगेंगे. क्या ये तारे हमेशा ही इतनी ख़ुशी से चमकते रहते हैं या कभी उदास भी होते हैं. इन्ही तारों में से एक उसकी सहेली भी तो होगी...पर वो उसे उदास देख क्या कभी खुश हो सकती है?

रूपा से उसकी टेलीपैथी इतनी अच्छी थी कि उसके अंतर्मन के सात पर्दों में छुपी उदासी की हल्की सी रेखा भी उससे  नहीं  छुप पाती थी. वो कहती थी.."अरे नहीं....सब ठीक है..इट्स फाइन....मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता" तो रूपा गंभीर हो कहती.."अगर कहना पड़े ना..इट्स फाइन..मुझे फर्क नहीं पड़ता  इसका मतलब है...फर्क पड़ता है....बताओ ना ..क्या हुआ " और कितनी  भी कोशिश करती बात टालने की आखिर उसे रूपा को सब बताना ही पड़ता और फिर दोनों मिलकर उस वाकये  की शल्यचिकित्सा  कर डालतीं. उसका मन हल्का हो जाता . पर आज उसका दुख बांटना तो दूर समझनेवाला भी कोई नहीं था .

रूपा कोई उसकी बचपन की सहेली नहीं थी. रूपा के पिता और उसके पिता की पोस्टिंग एक ही जगह हुई थी और वे दोनों अपने-अपने मायके आई हुई थीं...उन्ही दिनों रूपा से मुलाकात हुई थी .जल्दी ही यह पहचान एक गहरी दोस्ती में बदल  गयी...जैसे कोई पूर्वजनम का नाता हो.  मुलाकात तो कम ही होती पर फोन से कॉन्टैक्ट बना रहता. दोनों बच्चों सा किलकती हमेशा एक दूसरे के शहर आ मिलने का जुगाड़ बनातीं पर वह कारगर नहीं हो पाता. रूपा शिकायत करती,कितना अच्छा होता तेरी जगह मेरे पति की तरह तेरे पति भी प्रोफ़ेसर होते और फिर हम गर्मी की  लम्बी छुट्टियां साथ बिताते. ईश्वर ने उसकी उनके एक ही शहर में रहने की पुकार सुनी तो सही पर गिने-चुने दिनों के लिए.

उसके कॉलेज में फिजिक्स  के प्रोफ़ेसर की जरूरत थी और उसने हिचकते हुए रूपा को फोन मिलाया क्या उसके पति इस शहर के कॉलेज में ज्वाइन करेंगे? रूपा तो खबर सुनते ही उछल पड़ी..."क्यूँ नहीं करेंगे....बड़े शहर का बड़ा कॉलेज है.इस कस्बे के कॉलेज से तो हर हाल में अच्छा. हमारी दोस्ती की बात तो जाने दे..पर इनके  कैरियर के लिए भी बहुत  अच्छा है."
वह अक्सर कॉलेज के डिबेट्स..एक्स्ट्रा करिकुलर  एक्टिविटीज़ कंडक्ट किया करती  थी,जिस से प्रिंसिपल से थोड़ी जान-पहचान हो गयी  थी और थोड़ी अनौपचारिकता भी. इसका ही फायदा उठाया और रूपा के पति वीरेंद्र  की सिफारिश कर डाली. प्रिंसिपल तुरंत मान गए. वीरेंद्र  का बायोडेटा भी इम्प्रेसिव ही था. बढ़िया कॉलेज. और बढ़िया पर्सेंटेज और वीरेंद्र   जोशी  ने उसका  कॉलेज ज्वाइन कर लिया.

उसने रूपा को नए शहर में गृहस्थी बसाने में पूरी सहायता की ..घर पर खाने  को भी बुलाया .उसके पति से भी मुलाकात हुई. उसे शरीफ से ही लगे. मितभाषी और थोड़े बोरिंग भी. पर उसने सोचा कौन सी मुलाकात होनी है...वो इतिहास पढ़ाती है...जबकि वे फिजिक्स ..अलग फैकल्टी अलग बिल्डिंग....कभी कुछ सन्देश देना भी हो तो सोच कर जाना पड़ेगा. पर वो यहीं गलत साबित हो गयी. वीरेंद्र  अक्सर उसके डिपार्टमेंट  में आ जाते. शुरू में तो उसे लगा ..अभी किसी और से परिचय नहीं है..दोस्त नहीं बने हैं..इसीलिए आ जाते हैं और शायद...अपनी पत्नी की सहेली को हलो कहना फ़र्ज़ भी समझते हों. पर धीरे धीरे उसे नागवार  गुजरने लगा. खासकर इसलिए कि कोई बात ही नहीं होती करने को. वो ज्यादातर रूपा और उसके बेटे अक्षय की ही बात करती. वे भी खुश खुश दोनों  विषय में कुछ ना कुछ बताते रहते. उसे लगता चलो कितने भी बोरिंग हों..उसकी सहेली का तो अच्छी तरह ख्याल रखते हैं. और उसकी सहेली खुश है तो अपनी सहेली के लिए उसके बोरिंग पति को झेल लेना उसका भी फ़र्ज़ है. वह रूपा को सरप्राइज़ देने के उन्हें नए नए गुर बताती.

रूपा का बर्थडे आ रहा था और उसने वीरेंद्र  को बताया क़ि आप उसे एक रेस्टोरेंट में ले जाइए और उसके मैनेजर से पहले ही बात कर लीजिये क़ि वो कुछ देर बाद उनकी टेबल पर जलती हुई मोमबत्ती के साथ एक केक भेजे और 'हैप्पी  बर्थडे" का म्यूजिक बजाए . और मैने ये आइडिया दिया है..ये बिलकुल मत बताइयेगा ".वीरेंद्र  ने ठीक ऐसा ही किया और दूसरे दिन सुबह सुबह रूपा का फोन आया. ख़ुशी उसकी आवाज़ से छलकी पड़ रही थी, 'ये मेरे लाइफ का सबसे यादगार  बर्थडे था. इसका थोड़ा श्रेय  तुम्हे भी जाता है..तुमने हमें इस बड़े शहर में आने का मौका दिया..उस छोटे से शहर में तो एक ढंग का रेस्टोरेंट भी नहीं था फिर वीरेंद्र  को ये सब पता भी नहीं था . यहीं किसी से सुना होगा उन्होंने.." वो मन ही मन मुस्कराती उसकी ख़ुशी में शामिल होती रही. रूपा खुश है...उसे और क्या चाहिए. इस बार तो वीरेंद्र  ने अच्छी एक्टिंग कर ली.रूपा को पता नहीं लगने दिया क़ि उसने बताया था सब. पर तीज  के वक्त वे भूल  कर बैठे .
उसने यूँ ही पूछ लिया.."कल तीज है..आप रूपा के लिए कुछ ले जा रहें हैं ?"

"मुझे तो ध्यान ही नहीं,  कल तीज है...और क्या ले जाऊं..."

"अरे! वो आपके लिए सारा दिन भूखी रहेगी और आप उसके लिए कुछ नहीं करेंगे??...उससे पूछिए,उसे क्या चाहिए उसे शॉपिंग के लिए लेकर जाइए...आपकी क्लास तो ख़त्म हो चुकी है...बस देर किस बात की...अभी ही घर की  तरफ निकल लीजिये"

वीरेंद्र के चले जाने के बाद उसने लम्बी सांस ली....आज तो एक ही पत्थर से दो शिकार किए , अपनी सहेली को भी खुश कर दिया और वीरेंद्र  से भी जान छुड़ा ली."

पर शायद वीरेंद्र , रूपा के दरवाज़ा खोलते ही उस से पूछ बैठे ..."कल तीज है ना..कुछ लेना है मार्केट से?..चलो इसीलिए जल्दी आ गया हूँ "

और रूपा समझ गयी क़ि उसने ही बताया है...बाद में उसने उस से पूछा..तो वो बिलकुल नकार गयी.

"नहीं मुझे क्या पता..बेचारे ने इतना ख्याल रखा तुम्हारा...और तू  शक कर रही है..नॉट फेयर..."

रूपा हंस पड़ी."नहीं बताना तो मत बता..पर एक गाना याद आ रहा है..'होठों पे सच्चाई रहती  है..जहाँ दिल में सफाई रहती है...."

आज भी वो गाना जब बजता है तो उस से सुना नहीं जाता वो टी.वी. बंद कर देती है...बच्चे भी आश्चर्य करते हैं...' इतना अच्छा गाना तो है.तुम्हारे जमाने का...तुम्हे तो ऐसे रोने वाले गाने ही पसंद है...क्यूँ बंद कर दिया.."

वो बहाने बना देती है..." आजकल कहाँ किसी के होठो पे सच्चाई और दिल में सफाई होती है..इतना झूठा गाना नहीं सुना जाता..." सच बता भी दे तो कोई भी उसके दुख को उस गहराई से महसूस नहीं कर पायेगा..क्या फायदा बोलने का .

वीरेंद्र  तो नियमित आते रहते पर रूपा से उसकी बात नहीं हो पा रही थी...रूपा  जब कॉल करती तो वो  क्लास में होती या कहीं और .... जब वो कॉल करती तो..रूपा नहीं उठाती..कभी किचन..बाथरूम या फिर कभी सब्जी लाने गयी होती तो कभी बेटे को स्कूल छोड़ने. वीरेंद्र  ने भी शिकायत की कि रूपा परेशान है, उस से बात नहीं हो पा रही . जब उसने कहा कि वो तो फोन करती है घर पर रूपा फोन ही नहीं उठाती..तो वीरेंद्र  तुरंत बोले, "मेरे मोबाइल पर कर लीजिये..मैं जाकर दे दूंगा.." उसे उन्हें नंबर देना गवारा नहीं हुआ...कॉलेज में उनकी कंपनी क्या कम झेलनी पड़ती है कि अब फोन पर भी झेले. उसने मुस्कुरा कर बहाने बना दिए.."रूपा को ही एक मोबाइल लाकर दे दीजिये ना...रूपा बाहर भी जाएगी तो उसका फोन उठा सकती है..या फिर उसका नंबर देख कॉल बैक तो करेगी.

दो दिन बाद ही वीरेंद्र  ने बताया कि रूपा के लिए मोबाइल ले दिया है..अब आप अपना नंबर दे दीजिये..उसने कहा.."ना आप रूपा का नंबर दीजिये..मैं उसे फोन करके सरप्राइज़ कर दूंगी..."
ओके  कह कर उन्होंने नंबर भी दे दिया उसने सेव तो कर लिया..पर घर गयी तो आदतन ,लैंड लाइन  ही खटका डाला. रूपा ने बताया वो दो दिन बाद ही हफ्ते भर के लिए सापरिवार कोई शादी अटेंड करने ससुराल  जा रही है.

वीरेंद्र  भी छुट्टी ले चले गए . कुछ दिन तक कोई खबर नहीं आई . वह समझ रही थी, रूपा रिश्तेदारों  में बिजी होगी...वापस शहर आते ही फोन करेगी. पर पता नहीं क्या इंट्यूशन हुआ ,एक शाम  यूँ ही कॉल कर बैठी..दो मिनट के लिए ही सही....बात कर लेगी. पर रूपा ने ना तो फोन उठाया ना ही कॉल बैक किया. उसे आश्चर्य हुआ,अगले दो दिन में उसने कई कॉल कर डाले पर रिंग होता रहा. फोन नहीं उठाया उसने. उसका कॉल भी नहीं आया तो उसे आश्चर्य हुआ.पता था, बिजी होगी..फिर भी एक बार भी फोन ना उठाये ऐसी क्या व्यस्तता..उसके बाद अक्सर ही वो कई कॉल कर डालती पर नतीजा वही..नो रिस्पौंस सोचा ,लगता है..रिश्तेदारों में ज्यादा ही व्यस्त है..पर कुछ दिन बाद जो खबर आई  वो तो सबका दिल दहला गयी. अब रूपा किसी भी व्यस्तता से छुट्टी पा चुकी थी..एक भीषण बस एक्सीडेंट में अपने बेटे के साथ इस लोक को विदा कह चुकी थी. वीरेंद्र  को कई फ्रैक्चर्स थे पर ज़िन्दगी को कोई खतरा  नहीं था. आखिर रूपा ने उनकी लम्बी ज़िन्दगी के लिए व्रत जो रखे थे और सफल हुई थी उसकी पूजा.

उसके दुख का कोई ठिकाना नहीं था पर वीरेंद्र  के दुख के सामने उसका दुख नगण्य था. कॉलेज के काफी लोग   मिलकर  उनके शहर हॉस्पिटल में देखने गए थे. वीरेंद्र  ने एक भी बात नहीं की  बस शून्य आँखों से छत देखते रहें थे. उसका कलेजा मुहँ को आ गया था. वीरेंद्र  के स्वस्थ होने की प्रार्थना करती रहती पर साथ ही सोचती हॉस्पिटल से निकल वे वापस  कैसे सामन्य ज़िन्दगी जी पाएंगे. उसके दुख की सीमा नहीं थी.

इस हादसे के करीब दो महीने बाद.... कॉलेज से आ कपड़े समेट रही थी कि उसका मोबाइल बज उठा..देखा..'रूपा कॉलिंग' वो तो जड़ हो गयी...उसने नंबर डिलीट ही नहीं किया था. समझ गयी वीरेंद्र  होंगे दूसरे एंड पर .किसी तरह कांपते हाथो से फोन उठाया. वीरेंद्र  की आवाज़ आई..'इस नंबर से बहुत सारे मिस्ड कॉल थे इस सेल पर" उसका गला भर  आया...किसी तरह रुंधे हुए स्वर में बताया.."वीरेंद्र  जी....मैं हूँ ....सरिता  " और वीरेंद्र  दहाड़ मार रो पड़े..उसकी भी सिसकियाँ बंध गयीं. उस दिन तो कुछ भी बात नहीं हो पायी..."ये क्या हो गया सरिता जी.."..बस बार बार यही कहते रहें..."आपकी सहेली मुझे छोड़कर चली गयी.."

वीरेंद्र  हॉस्पिटल से डिस्चार्ज हो घर आ गए थे .पर अभी पूर्ण स्वस्थ होना बाकी था. अब अक्सर  वीरेंद्र  के फोन आने लगे....वो उन्हें अपनी शक्ति भर ढाढस   बताती रहती . हमेशा निराशावादी बातें करते .."अब क्या करूँगा जीकर...कैसी नौकरी...अब रिजायीन कर दूंगा ..किसके लिए पैसे कमाना है.." वो उन्हें समझाती रहती..वही सैकड़ों बार कही बातें दुहराती रहती.."जानेवाला तो चला गया...अब जीना तो पड़ेगा..वगैरह ..वगैरह "

उनके दुख से वह  भी दुखी हो जाती...समझ नहीं पाती..उन स्मृतियों से भरे  घर में अब वो किस तरह रह  सकेंगे...उसे लगता ,शायद वही अपने  माता-पिता के पास ही वे रह जाएँ...किसी ना किसी कॉलेज में नौकरी उन्हें मिल ही जायेगी. पर जब एक महीने बाद उन्होंने कहा कि वे उसी कॉलेज में ज्वाइन करने आ रहें हैं तो बहुत आश्चर्य हुआ उसे. पर फिर सोचा ,आखिर उन्हें नई ज़िन्दगी भी तो शुरू करनी होगी...इतनी बढ़िया नौकरी क्यूँ कुर्बान करें. शुरू में दसेक दिनों तक माता-पिता साथ आए थे पर फिर अपनी जगह छोड़ उनका मन नहीं लगा...और वे वापस चले गए...अब वीरेंद्र  नितांत अकेले थे अपने घर में..सोच कर उसकी रूह काँप जाती ,'हर तरफ यादें बिखरी पड़ी होंगी..कैसे रह पाते होंगे..

अब भी वीरेंद्र  खाली पीरियड होते ही उसके डिपार्टमेंट में चले आते. अब तो सबकी सहानुभूति थी उनके साथ. वह भी  पूरी कोशिश करती कि उनका दुख बांटने की कोशिश करे..पर मुश्किल थी, कैसे.??.'संवाद अब भी उनके बीच नहीं हो पाता और अब तो कुछ विषय भी प्रतिबंधित हो गए थे..पहले रूपा की... उनके बेटे की कितनी बातें कर लेती  थी..अब ध्यान रखती की गलती से भी उनका नाम ना आ जाए ,उसकी जुबान पर. अपने बच्चों की ही पढ़ाई की स्कूल की  बातें किया करती थी  ..पर अब अपने बच्चों  का भी नाम नहीं लेती कि कहीं उन्हें अपने बेटे की याद ना आ जाए.

वीरेंद्र  बताते रात भर वे सो नहीं पाते हैं...और उनकी स्थिति  वो समझ सकती थी. उसने सुझाया
"योगा किया कीजिये ..मन भी शांत होगा और नींद भी समय पर आ  जाएगी"

"पर सुबह उठूँ कैसे...चार-पांच बजे सुबह तो नींद आती है.."

"बस एकाध दिन कोशिश कर उठ  जाइए..फिर बॉडी क्लॉक सेट हो जायेगा और जल्दी नींद आ जाया करेगी."

"नहीं हो पाता कितना भी कोशिश करता हूँ..नींद नहीं खुलती "

"ठीक है..मैं उठा दिया करुँगी.." और वह सुबह बच्चों के लिए टिफिन  बनाने  उठती और किचन से उन्हें फोन करके उठाया करती कि कहीं पति ना जाग जाएँ. पति कितने भी उदार थे ..वीरेंद्र  से सहानुभूति भी थी...पर सुबह -सुबह अपनी  बीवी का किसी और को फोन करके जगाना भी नागवार ना गुजरे..ये अपेक्षा उनके मेल इगो से कुछ ज्यादा हो जाती.

चार-पांच दिनों बाद ही उनकी आदत बन गयी और वे अपने आप जल्दी उठने लगे और सोने भी लगे. उसने भी फिर ना तो पूछा ना ही फोन किया. सोचा,उसने तो अपना कर्तव्य निभाया अब आगे वे जाने.

परन्तु अब धीरे-धीरे उनकी कंपनी असह्य होने लगी थी क्यूंकि बात करते पता चलता उनके विचार किसी बिंदु पर नहीं मिलते. राजनीतिक,सामाजिक, किसी विषय पर वे एक तरह नहीं सोचते. किताबो की बात करने की कोशिश करती तो यहाँ भी पसंद बिलकुल अलग थी..उन्हें आधुनिक,नया लेखन बिलकुल पसंद नहीं था . फिल्मे, क्रिकेट, अखबारों की गॉसिप में उनकी कोई रूचि नहीं थी. बड़े शुष्क किस्म के इन्सान थे. और मुश्किल थी कि वे एक सीमा तक असहिष्णु थे. उन्हें लगता जो उन्हें पसंद वो दूसरे को कैसे पसंद  नहीं आ सकता??.वो मजाक में बात टाल भी देती पर बहस पर उतारू हो जाते. और मुश्किल ये कि वे नए दोस्त भी नहीं बनाते. उनके डिपार्टमेंट के लोगो ने दोस्ती का हाथ बढाया...क्लास के बाद कहीं चलने के लिए पूछ लेते. उस से जिक्र करते तो वह भी उत्साह  बढ़ाती ,"आपको जाना चाहिए था...ऐसे ही  तो लोगो से जान-पहचान होगी"

पर वे पुराना राग ले बैठ जाते.."नहीं मुझे क्या करना है..दोस्ती करके..मेरा जी उचट गया है, दुनिया से ..मैं तो बस कॉलेज आता हूँ..पढाता हूँ..घर चला जाता हूँ...मुझे नहीं दिलचस्पी,किसी से दोस्ती करने में ...कहीं आने-जाने में  " कुछ प्रोफेसर्स  इनके परिचितों के दोस्त, रिश्तेदार ही निकल आए...एक जनाब...उनके कजिन के क्लासमेट थे...एक उनके चाचा के पड़ोसी .उसे लगा अब तो कम से कम पुराने परिचितों के हवाले ही उनके करीब जाएंगे...उसने हुलस कर पूछा .."ये तो बड़ी अच्छी बात है...अब तो आप उनसे कितनी सारी पुरानी बातें शेयर कर सकते हैं"

लेकिन फिर.."ना मुझे कोई इंटरेस्ट नहीं....मुझे नहीं करनी कोई बात .." उनके ठंढे से जबाब ने उसके सारे उत्साह पर पानी फेर दिया.
(क्रमशः)

Friday, December 10, 2010

कहानी 'छोटी भाभी' की

इन  दिनों व्यस्तता कुछ ऐसी चल रही है कि कहानी के इतने प्लॉट्स दिमाग में होते हुए भी...उन्हें विस्तार देने का मौका नहीं  मिल पा रहा...और ख्याल आया...कहानी सुनवाई तो जा ही सकती है. ये कहानी भी आकशवाणी से प्रसारित हुई थी. इसे ब्लॉग पर भी पोस्ट कर  चुकी हूँ  "होठों से आँखों तक का सफ़र "..शीर्षक  से.....  दोनों कहानियों में थोड़ा बहुत अंतर ..रेडियो के समय सीमा के कारण नज़र  आ सकता है

तो मुलाहिजा फरमाएं :)