(नाव्या का एक्सीडेंट हो जाता है...रितेश उसे हॉस्पिटल लेकर आता है...हॉस्पिटल में जिंदादिल डा. समीर से उसकी मुलाक़ात होती है)
सीनियर डॉक्टर राउंड पर आते और वो आस लगाए बैठी होती..शायद उसे छुट्टी दे दें....लेकिन उसका डिस्चार्ज होना टलता जा रहा था...कुछ इसमें डैडी का भी योगदान था...सुबह वे डॉक्टर के राउंड के समय जरूर उपस्थित होते और कहते..."जितने नियम से हॉस्पिटल में खाना -पीना, रेस्ट, दवाएं...सब समय पर हो जाता है.. घर में संभव ही नहीं....यहाँ सुबह सात बजे ब्रेकफास्ट के साथ दवाइयां भी दे दी जाती हैं...घर में ये दस के पहले तो उठेंगी नहीं...और फिर देर रात तक टी.वी. देखना...अपनी मनमानी करना...ना डॉक्टर, आप जब तक बिलकुल इत्मीनान ना हो जाएँ...इसे डिस्चार्ज करने की जल्दी ना करें..."
"पर माँ को कितनी तकलीफ होती है...वे तो घर पे आराम कर सकती हैं..." उसे सच में माँ के लिए बहुत बुरा लगता था..बिचारी एक पतले से कॉट पर सोती थीं...करवट लेने में भी डर लगे.
पर माँ तुरंत बोल पड़ीं.."ना ना मुझे कोई तकलीफ नहीं..."
डॉक्टर हंस पड़े..."डोंट वरी बेटा...हम तुम्हे जरूरत से ज्यादा यहाँ नहीं रखेंगे....बस जल्दी ही छुट्टी दे देंगे..."
रुआंसी हो गयी वो....अपना कमरा अपना बिस्तर बहुत मिस कर रही थी....वैसे मन नहीं लग रहा था ऐसा नहीं था...बल्कि एक उपलब्धि सा ही लग रहा था...ये एक्सीडेंट....माँ-डैडी का इतना प्यार...रितेश और समीर का इतना सुखदाई साथ. जिंदगी का रूप हमेशा ऐसा ही रहे तो कितना अच्छा हो. यूँ ही...डैडी दिन में कुछ घंटे जरूर उसके साथ बिताएं...माँ खाने के साथ-साथ उसकी हर चीज़ का ख्याल रखे. रितेश ऐसे ही उसके लिए फूल लाता रहे और डा. समीर उन फूलों पर हाथ फेर..'क्वाईट लवली...' कहते हुए दुनिया जहान की बातें करते रहें.
पर दुनिया में हर ख़ुशी के साथ एक 'प्राइस टैग' लगा होता है...इन सारे सुखद पलों की कीमत उसे हॉस्पिटल के बेड पर पड़े रहकर चुकानी पड़ रही थी.
रितेश के मितभाषी होने और कुछ खोये-खोये सा अपने में ही गुम रहने से, उसे सपनो में जीने वाला बिलकुल सीधा-सादा लड़का समझती थी...पर जमाने की नब्ज़ पर उसकी पकड़ ढीली नहीं थी...जब माँ ने कहा..." मुझे फूल बेहद पसंद है....पहले तो माली को हिदायत दे रखी थी....रोज ताजे फूल ही ड्राइंगरूम में रखा करे...पर अब तो इधर-उधर के कामो से फुरसत ही नहीं मिलती...कि इन सबकी तरफ नज़र भी करूँ."(माँ हमेशा..अपनी समाज-सेवा को इधर-उधर के काम कहकर गौण कर देतीं...उसके टोकने पर माँ का कहना था,लोग कहीं ये ना समझें की उन्होंने पैसे और समय होने की वजह से एक फैशन की तरह समाज-सेवा अपनाया हो...शुरुआत भले ही माँ ने समय काटने के लिए किया हो..पर अब वे पूरी तरह इसमें रम गयीं थीं.)
और रितेश सीधा फूल लाकर माँ के हाथों में ही थमा देता.
"अरे रोज़ क्यूँ लाते हो...ये कैसी फोर्मलिटी है?'
"नहीं आंटी... हमारे पिछवाड़े बहुत ही सुन्दर बाग़ है फूलों का..अपने बगीचे के ही फूल हैं..."
उसने हंसी छुपा ली...."हूँssss खूब!! ...जाने कितने पैसे खर्च कर चुके होगे फूलों पर...अपने घर के गुलाब, रोज़ रोज़ कोई यूँ लम्बे डंठल के साथ तोड़ता है??....माँ ने ध्यान नहीं दिया..वर्ना वे भी समझ जातीं .
पर रितेश था बहुत ही शांत किस्म का....आते ही एक हलके से स्मित के साथ पूछता..."कैसी हैं?"...और इन दो शब्दों के कहने के ढंग में ही सारे उद्गार सिमट आते. फिर कुर्सी खींच कर साथ लाई किताबें-पत्रिकाएं दिखाने लगता .उसे पढ़ने से सबलोग मना करते कि आँखों पर जोर पड़ेगा...ये जिम्मा रितेश ने ले लिया था..कहता, दोपहर वो बिलकुल खाली रहता है...वो जबतक बैठता...माँ एक चक्कर बाज़ार का या घर का लगा आतीं.
उसने एक दिन पूछ लिया.."आपकी कविताओं में रूचि है?'
"हाँ.. हाँ..बिलकुल.. बहुत पढ़ती हूँ..." उसने कहने को कह दिया.
"अरे वाह...बच्चों सा खिल उठा उसका चेहरा..."मैं आपको बहुत ही अच्छी-अच्छी कविताएँ पढ़ कर सुनाऊंगा..." वो तो बाद में जाना उसने... कविताओं में तो उसकी जान बसती थी.
भाव-भरी आवाज़ में वो कविता दर कविता पढता चला जाता...बिलकुल कविता में डूब ही जाता...अंदर से महसूस करते हुए पढता वह...और अब उसे रितेश की उदास आँखों का रहस्य पता चला...कविता पढ़ते वक़्त..कविता के अंदर का सारा दर्द वो जैसे सोख लेता...और वही दर्द उसकी आँखों में तैरते तैरते जम जाता,जैसे.
वह तो कविता से ज्यादा...उसके स्वर के चढ़ते उतार-चढ़ाव ..आवाजों का कम्पन...चेहरे पर आते-जाते भाव ही देखती रहती. आँखों में कभी स्निग्ध तरलता छाती...कभी गहरी उदासी...कभी व्यंग्य भरी तिलमिलाहट तो कभी अनचीन्ही सी छटपटाहट.कभी-कभी वो कविता पर ध्यान नहीं भी देती..पर रितेश की धारदार एकाग्रता वैसी ही बनी रहती.
एक दिन कुछ कविताएँ सुना रहा था...हठात नज़रें उठाईं और मुस्कुरा कर पूछा...."कैसी लगीं..?" सकपका गयी वह..वो ख़ास ध्यान से सुन तो रही थी नहीं...वो तो रितेश की नुकीली ठुड्ढी...तीखी नाक...जुड़ी भवें..और लम्बी घुंघराली पलकें ही निरख रही थी...क्या था कविता में...ध्यान ही नहीं दिया..चुप रही तो रितेश ने कुछ रस्यमय ढंग से मुस्कुरा कर पूछा..."बताइए तो सही...कैसी थीं कविताएँ?" तो चौंक गयी वो.
उसने हाथ बढ़ा दिए..."दीजिये, एक बार खुद से पढूंगी..."
उसने एकदम से दूर हटा ली किताब..."अँs हाँs...इतना बेवकूफ नहीं मैं..." बेतरह नटखटपन कस गया चेहरे पर और उसने किताबों के बीच से कुछ कागज़ निकाल एहतियात से अपनी जेब में रख लिए..."
अच्छाss तो ये उसकी खुद की लिखी हुईं थीं....तभी इतना मुस्कुरा कर पूछ रहा था...ओह! क्या मूर्खता की उसने , जरा भी ध्यान नहीं...क्या था कविता में...बड़े आग्रह से बोली.."प्लीज़ एक बार दो ना....सिर्फ एक बार पढ़ कर दे दूंगी..." ध्यान भी नहीं रहा...कैसे 'आप' से 'तुम' पर आ गयी.
"जीssss नहीं...ऐसा खतरा नहीं मोल ले सकता....जब तक पढ़ रहा था...तभी डर लग रहा था..पता नहीं क्या सोचो तुम...ये काफी पहले लिखी थी मैने, हाँs..." वो भी सहजता से बिना ध्यान दिए तुम पर आ गया...पर इसका मतलब...जरूर कविता में कुछ बात थी...वर्ना बहुत पहले लिखी थी की सफाई क्यूँ देता? हाथ बढ़ा कर उसने कुर्सी की बाहँ पर रख दिया.."प्लीज़ रितेश...दे दो ना..एक बार देने में क्या जाता है...बस एक नज़र देख कर...वापस कर दूंगी.."
"नोss वेss...अच्छा ये सुनो...क्या कविता है...एकदम अलग सी...और इतनी वास्तविक कि लगेगा कवि की आँखे कैसे देख लेती हैं ये सब.." कहता कुर्सी की दूसरी बाहँ से सट सा गया.
रोष हो आया उसे...एकदम से हाथ खींच लिया...अगर उंगलियाँ भूले से,उसे छू भी जातीं तो जाने क़यामत आ जाती....अछूत है क्या वह?
"मुझे नहीं सुनना कविता-फविता.."..कह सीधा लेट आँखें बंद कर लीं.
"नाराज़ हो गयीं...?" शहद भरा स्वर उभरा
" नहीं, नाराज़ क्यूँ होने लगी...इसका हक़ तो सिर्फ आपलोगों को है..." विद्रूपता से कह.. दूसरी तरफ करवट बदल ली उसने..जाने क्यूँ आँखें भर आयीं.
"नाव्याss... " रितेश ने एकदम से कुर्सी छोड़ दी...और पलंग के किनारे हाथ रख झुका ही था कि कमरे के बाहर माँ और डा. समीर का सम्मिलित स्वर सुनायी दिया...एकदम से सीधा खड़ा हो...सीने पर हाथ बाँध लिए उसने.
"सोयी है क्या...." माँ ने पूछा..
"पता नहीं..शायद"
"कुछ तकलीफ तो नहीं थी,उसे??..ऐसे कैसे सो गयी ??" माँ के स्वर में चिंता थी.
"वो मैं...कुछ पढ़ कर सुना रहा था..शायद सुनते-सुनते सो गयी..."
"ओहो!!..अब कविताएँ सुनाओगे तो कोई सो ही जाएगा ना...." समीर ने हँसते हुए कहा...."और आपने देखा भी नहीं कि सुनने वाला सुन रहा है या नहीं...क्या यार....इतना डूबे रहते हो किताबो में...ये किताबें बस सपनीली दुनिया में ले जाने का काम करती हैं...तभी तो लोग सुनते-सुनते सो जाते हैं....सच्चाई का अंश भी नहीं होता, इनमे.."
"ऐसा नहीं है डॉक्टर...."
"अरे बस ऐसा ही है...अब देखो..ये कविताएँ...कुछ भी कल्पना कर लेते हैं कवि..."
"अच्छा आंटी अब तो आप आ गयी हैं..चलूँ...मैं?" रितेश था.
उसने गौर किया था...रितेश कभी बहस में नहीं पड़ता...बात बदल कर निकल जाता है या फिर चुपचाप सुन लेता है. रितेश की जगह वो होती..तो अभी डा. समीर से इतनी बहस करती कि वे राउंड पर जाना भी भूल जाते..और फिर कभी किताबों को कल्पना की उड़ान कहने की हिम्मत ना करते.
पर उसने तो सोने का बहाना किया हुआ था...सो उसे मन मसोस कर रह जाना पड़ा.
अचानक माँ को कुछ याद आया..."हे भगवान...मैने फल लिए और थैला तो वहीँ छोड़ दिया....अब फिर से जाना पड़ेगा...पर नाव्या पीछे से जाग गयी तो...कहीं उसे कोई जरूरत ना पड़ जाए.."वे असमंजस में थीं.
"कोई बात नहीं आंटी...अभी तो मैं थोड़ी देर खाली हूँ....मैं यहीं बैठता हूँ...आप आराम से हो आइये....मैं भी जरा देखूं तो दोस्त तुम्हारी किताबो में है क्या...पलटता हूँ थोड़ी देर.."
"बस मुश्किल से पंद्रह मिनट लगेंगे...आओ रितेश..तुम्हे भी रास्ते में छोड़ दूंगी.." कहती माँ..रितेश के साथ ही निकल गयीं. शायद जाते हुए रितेश ने पलट कर देखा हो...कि वो उठ कर उसे बाय कहती है या नहीं...पर वो सोने का बहाना कर पड़ी रही...थोड़ी डोज़ दे देनी चाहिए इन लोगों को..समझते हैं कदमो में ही बिछे जा रहे हैं.
उनके जाते ही...समीर ने कुर्सी खिसकाई बैठने को...और वो चौंक कर जगने का अभिनय करती उठ बैठी.
"ओह! जगा दिया ना आपको...सो सॉरी..." डा. समीर सचमुच अफ़सोस से भर उठे.
"नहीं..नहीं...कोई बात नहीं...माँ आयीं नहीं अभी तक ?"
"आयीं तो थीं..पर फल उन्होंने दुकान पर ही छोड़ दिए थे सो वापस लेने गयी हैं...और वो कवि साहब भी चले गए उनके साथ...जिनकी कविता सुनते-सुनते आप सो गयी थीं....हा हा.."समीर ने जोर का ठहाका लगाया.
ख़ास उसे भी नहीं समझ नहीं आती कविताएँ..पर समीर का यूँ उपहास उड़ाना उसे अखर गया,बोली ..."वो मैं थक गयी थी,इसलिए सो गयी थी...कविताएँ तो मुझे भी पसंद हैं..."
"अब आप, बना लो बहाने...." वो फिर हंसा.
"नहीं सच में...मुझे गीत संगीत सब बहुत पसंद है....अच्छा कल रात कोई बड़ी अच्छी गिटार बजा रहा था...काफी देर तक सुनती रही मैं..."
"सपने में?..." समीर ने चिढाया तो सचमुच चिढ उठी वह.
जी ss नहींss..कल रात के ग्यारह बजे के करीब..मैने समय भी देखा...मुझे नींद ही नहीं आई देर तक.."
"होगा कोइ सिरफिरा...चले आते हैं लोगों की नींद खराब करने..."
"अच्छा तो फिर कोई रियाज़ ही ना करे...म्युज़िक के नाम पर शोर मचाना बुरा है..पर इसमें क्या बुराई है....अच्छा संगीत सुकून ही देता है.."
"शरीफ लोगों के ये सब शौक नहीं होते..जो जिंदगी में कुछ नहीं करता वो गिटार टुनटुनाता रहता है...ऐसा मैं नहीं बड़े-बुजुर्ग कहते हैं.."समीर उसे चिढाने पर आमादा था.
"पर मानते तो आप भी हैं,ना...मशीनी इंसान हैं आपलोग...गीत-संगीत...कहानियाँ किताबें...सब बेकार हैं आपकी नज़रों में...आपलोगों की दुनिया बस इस हॉस्पिटल तक ही सीमित है...माना कि आपलोग....जीवनदान देते हैं...लोगो को राहत पहुंचाते हैं पर इसके बाहर भी कभी-कभार देख लेना चाहिए...इन इंजेक्शन-दवाइयों से परे भी एक दुनिया है..."..कहते उसने आँखें बंद कर लीं...कानों में गिटार टुनटुना उठा.
"अच्छा लगा आपको "...स्वर बदला हुआ लगा, आँखें खोल देखा तो समीर दूसरी तरफ देखने लगा.
"और क्या..पर आपको क्या..आपके लिए तो सब समय की बर्बादी ही है ना..." पता नहीं क्यूँ उसे बहुत खीझ हो रही थी.
समीर ने बड़ी आहत नज़रों से देखा,उसे. चेहरा संजीदा हो गया था....अब अपने में लौटी वह...ये क्या हो गया है उसे...रितेश का गुस्सा वो समीर पर क्यूँ निकाल रही है. माँ -डैडी आभार से दबे रहते हैं..इतनी केयर करता है उसकी और वो है कि बिना किसी वजह के झल्लाए जा रही है. स्वर में यथासाध्य मुलायमियत लाकर बोली, : "पास से ही आवाज़ आ रही थी.....लग रहा था ,हॉस्पिटल कैम्पस में ही कोई बजा रहा था......आपको अंदाज़ा है..कौन बजा रहा होगा.."
"नाss..नहीं पता...." और समीर तड़ाक से उठ गया...शायद वो बुरा मान गया था...." मुझे एक पेशेंट को देखने जाना है..चलता हूँ.." और बिना उस पर नज़र डाले लम्बे-लम्बे डग भरता बाहर निकल गया. 'ओह!!! दीज़ बॉयज़...'सर पकड़ लिया उसने...
ये तो बाद में पता चला, वह सिरफिरा और कोई नहीं समीर ही था.
***
सुबह डा. राउंड पर आए और बोले अब वो घर जा सकती है....ख़ुशी से मन खिल उठा पर दूसरे ही पल बुझ भी गया...घर तो जा रही है पर वहाँ रितेश,समीर से मुलाकात नहीं हो पाएगी...इन आठ दिनों में उनके साथ की इतनी आदत पड़ गयी थी कि अभी से उनकी कमी खलने लगी थी. माँ को याद दिलाया..'माँ रितेश शायद मिलने आए... उसे फोन करके बता दो..."
रितेश ने माँ को अपना नंबर दिया था कि जब भी जरूरत पड़े फोन कर लें. माँ ने कहा...'अच्छा याद दिलाया...अभी उसे फोन कर बता देती हूँ.."
वो निराश हो गयी...उसे लगा था,माँ कहेंगी..."लो ,तुम ही कह दो...और उसे दो बातें करने का मौका मिल जाएगा...पर सामान सहेजती माँ ने इस तरह से सोचा ही नहीं. वो रुआंसी हो खिड़की के बाहर देखने लगी...जहां पेडों की पत्तियाँ हवा से हलके-हलके डोल रही थीं...मानो उसे बाय कह रही हों.
डा. समीर मिलने आए थे. हमेशा की तरह उसी जोश और जल्दबाजी में थे... सौ हिदायतें उसके लिए और माँ के लिए भी....आज उसे उनकी किसी बात पर गुस्सा नहीं आ रहा था...बस उनके चेहरे पर ही नज़रें जमाये चुपचाप सब सुन रही थी...समीर को भी आश्चर्य हुआ...टोक ही दिया..."अभी से घर की यादों में गुम हो गयीं...मैं क्या कह रहा हूँ...कुछ सुन भी रही हैं??...हाँ! भाई....सबलोग आते हैं चले जाते हैं...हमारा तो यही घर-बार है...हम कहाँ जा सकते हैं..."
वो प्रत्युत्तर में सिर्फ मुस्कुरा दी तो डा. समीर भी गंभीर हो आए और बहाने से बाहर चले गए.
रास्ते में ,माँ ने बताया एक रात पहले ही एक मेहमान भी घर पर आया हुआ है. डैडी के एक मित्र के सुपुत्र. नया-नया चार्ज लिया है किसी कंपनी में . जब तक उसके रहने का इंतजाम नहीं हो जाता .घर पर ही रहेगा. खीझ हो आई उसे. एक तो सर पर बंधे इस बड़े से बैन्डेज़ के साथ उसे किसी के सामने जाने में बहुत ही अजीब लग रहा था...दूसरे घर में किसी अजनबी की उपस्थिति भी असहज कर रही थी., अब ये बचपन से अकेले रहने की वजह से था या कुछ और पर अपने घर में ज्यादा भीड़-भाड़ उसे अच्छी नहीं लगती. रिश्ते के हम-उम्र भाई-बहन भी आते तो कुछ दिन तो उसे अच्छा लगता पर फिर अपनी आज़ादी में खलल लगने लगता...सुन कर अनमनी सी हो गयी थी , माँ ने इसे लक्ष्य किया और बोलीं, " बाबा वो ऊपर वाले कमरे में रहेगा...आना-जाना भी बाहर सीढियों से होगा तो तुम्हे क्या परेशानी है.."
" क्यूँ ..टेरेस पर जाने में उसका कमरा नहीं पड़ेगा?..मैं क्या सिर्फ नीचे ही कैद रहूंगी.."
"वो सब बाद में, देखेंगे.....अभी तो ज्यादा घूमना-फिरना है नहीं तुम्हे..." माँ ने आश्वस्त किया..फिर भी थोड़ा असहज तो थी ही वह.
लेकिन किशोर बहुत ही सहज था...शाम को ऑफिस से आने के बाद,उस से मिलने आया...और पहले वाक्य में ही मुस्कुरा कर पूछा , "वेकेशन की ऐसी प्लानिंग तो मैने कहीं नहीं देखी....एग्जामिनेशन हॉल से सीधा हॉस्पिटल."
वो भी मुस्कुरा कर रह गयी....उसकी किताबों की आलमारी देख बोला,.."इतना पढ़ती हैं आप..बाप रे.."
"हाँ समय अच्छा कट जाता है और शौक भी है..."
"बढ़िया है..पर आप से संभल कर बात करना पड़ेगा..पता नहीं..कहाँ से क्या कोट कर दें.."
"निश्चंत रहिए मैं पढ़ कर भूल जाती हूँ.."
"ताकि दुबारा पढ़ने का स्कोप बना रहे..."..और दोनों ही इतने जोर से हंस पड़े कि कमरे में आती माँ एक पल को ठिठक सी गयीं. और उसकी तरफ गौर से देखा...अभी तो उस एकीशोर कि उपस्थिति इतनी नागवार गुजर रही थी और अभी हंस रही है उसके साथ...जरूर मन में कहा होगा..."ये लड़की भी ना.."
किशोर ज्यादा नीचे नहीं आता. उसका खाना भी माँ ऊपर ही भिजवा देतीं....इतवार को भी वो देर तक सोता रहता...और ज्यादातर अपने कमरे में ही बना रहता...पर जब भी नीचे पापा से मिलने आता उससे मिलने भी जरूर आता और अपनी थोड़ी देर की उपस्थिति से ही एक खुशगवार...माहौल की छाप छोड़ जाता.
कितनी ही बार मोबाइल पर रितेश और समीर का नंबर निकाल घूरती रहती पर फोन करने की हिम्मत नहीं कर पाती. आने के बाद बस एक-एक बार दोनों को शुक्रिया कहने के लिए फोन किया था....रितेश का शर्मीला चेहरा उसे फोन के पार से दिख रहा था...'हाँ' - 'ना'...में ही जबाब देता.,..और उसे अपना ख्याल रखने की हिदायत देता रहता...अजनबी सा उसने कहा..."आइये कभी.."
और अजनबी सा ही रितेश ने कहा .."हाँ जरूर..' और कह कर फोन रख दिया...थोड़ी देर वो घूरती रही फोन को...यही रितेश था जो पास बैठा घंटों उसे कविताएँ सुनाया करता था...पर फोन पर अभी आदत नहीं पड़ी थी...बस कभी कभी उसे कविता की सुन्दर पंक्तियाँ या शेर एस.एम.एस करता..और बदले में वो कुछ भारी भरकम से कोटेशंस भेज देती..उसे कुछ सूझता ही नहीं...पर रितेश के खुद से टाइप किए मेसेज का इंतज़ार बना रहता.
समीर के पास तो एस.एम.एस भेजने का वक़्त भी नहीं रहता....जब उसने फोन किया तब भी जाने कहाँ था और कितने लोगो से घिरा हुआ था...पर बात बड़े अपनेपन से किया बहुत ही सहजता से...'दवा ले रही है ना..खाना ठीक से खाती कि नहीं...समय पर सो जाती है ना...माँ कैसी हैं'..और फिर माँ से उसे घर के खाने ..चाय की याद आ गयी...उसके पास,तमाम बातें थीं करने को..पर समय ही नहीं था...बोला, "करता हूँ फिर फोन..अभी तो भागना पड़ेगा..."
अब समीर को समय नहीं मिलता या उसे भी एक हिचक होती....वो समझ नहीं पाती. पर फोन उसका भी नहीं आता. अच्छा हुआ माँ ने ही एक दिन,कहा....तुम थोड़ी और ठीक हो जाओ...पट्टी खुल जाए...सबकुछ खाने-पीने लगो तो समीर और रितेश को एक दिन खाने पर बुलाते हैं..दोनों ने बहुत ख्याल रखा...हम कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं."
और उस दिन से ही जैसे वो दिन गिनने लगी... कब उसके माथे का बैन्डेज़ खुले.
और वो दिन आ ही गया....माथे का बैन्डेज़ खुल गया था...और इतने दिनों बाद....माँ ने श्यामली की सहायता से कुर्सी पर बैठा पीछे कर उसके बाल धो दिए थे. दिनों बाद खुले बालों से घिरा अपना चेहरा देखा तो जैसे खुद को ही पहचान नहीं पायी. रितेश समीर भी उसे देख, चौंके तो जरूर लेकिन दोनों की प्रतिक्रिया बहुत ही अलग सी रही....पहले रितेश आया...रितेश ने उसे पहले भी देखा था पर जैसे इस बार एक नई नज़र से देखा....और कुछ इस तरह उसे देखा कि उसने ही शर्मा कर आँखें झुका लीं.
उसे देखते ही समीर के होंठ गोल हो गए...शुक्र है,उसने सीटी नहीं बजायी...पर हँसते हुए बोला.."क्या बात है..आप सचमुच नाव्या ही हैं...या नाव्या की सहेली...मैं तो सच में कहीं और देखता तो पहचान नहीं पाता..."
"इतनी बुरी लग रही हूँ मैं..."
"थोड़ी सी..."..उसने मुस्कुरा कर दोनों उँगलियों से इशारा किया...
"हाँ! आपको लोग पेशेंट के रूप में ही अच्छे लगते हैं...हैं ना.."
उनकी बहस और आगे बढती कि माँ ने टोक दिया...."अरे बैठने तो दो पहले..फिर इत्मीनान से कर लेना बहस...बहुत दिनों का कोटा बाकी है...बहुत अच्छा लग रहा है...बेटा..तुम दोनों को यहाँ देख'
माँ ने किशोर को भी बुला लिया था....डाइनिंग टेबल पर तो डैडी से ही सब ज्यादा बातें करते रहे और माँ खिलाने-पिलाने में लगी रहीं. पर खाने के बाद जब सब लिविंग रूम में लौटे तो डैडी अपने कमरे मे चले गए...माँ भी बस बीच-बीच में आती रहीं....ये तीनो भी एक दूसरे से अच्छी तरह घुल -मिल गए थे और तमाम विषयों पर बातें कर रहे थे...पर जब राजनीति पर बातें शुरू हुईं.. तो उसकी उपस्थिति जैसे भूल ही गए....आपस में ही उलझ गए...उसे गुस्सा आ गया....क्या वो नहीं पढ़ती अखबार?...वो नहीं देखती खबरे?...पर इन्हें लगता है..वो लड़की है तो उसकी क्या रूचि होगी...चर्चा कुछ और जोर पकड़ती कि समीर को एक कॉल आ गया...और रितेश भी उसके साथ ही उठ गया. बार-बार दोनों माँ का शुक्रिया अदा कर रहे थे और माँ उन्हें फिर से आने का न्योता दे रही थीं. उनके जाते ही किशोर भी विदा लेकर चला गया और वो देर तक खिड़की के पास खड़ी ठंढी हवा के झोंके के साथ इस ख़ूबसूरत शाम के एक एक पल को दुबारा जीती रही.
अब फोन पर बातचीत का सिलसिला बढ़ गया...बीच की वो असहजता नहीं रही. रितेश किताबों की बातें करता और समीर अपने पेशेंट्स की...हॉस्पिटल की. पर इस से अलग कुछ और जैसे लबों तक आते आते छूट जाता...और वो चैन की सांस लेती. बातचीत में वे जरा सा पॉज़ लेते और उसका दिल धड़क जाता... डर जाती...'आगे क्या कहने वाले हैं...वो कैसे रिएक्ट करेगी...क्या जबाब देगी...पर फिर दोनों ही जैसे खुद संभल कर बात किसी और तरफ मोड देते.
एक दिन माँ ने सलाइयों पर अंगुलियाँ चलाते हुए पूछा, "ये किशोर कैसा लड़का है?"
"क्यूँ कुछ हुआ क्या....उसके पड़ोसियों ने कुछ कहा क्या..." किशोर अब अपना मकान ले उसमे शिफ्ट हो चुका था.
"अरे नहीं...." माँ आगे कुछ कहतीं कि वो फिर से बोल पड़ी..."वही तो मैने सोचा तुमने ऐसा कैसे पूछा...इतना अच्छा सलीके वाला लड़का है...इतना कल्चर्ल्ड....ना बहुत गंभीर... ना ज्यादा बातूनी....और इतना क्वालिफाइड...कितनी कम उम्र में इतनी अच्छी पोस्ट कैसे मिल गयी उसे...बहुत ही अच्छा लड़का है,माँ..पर तुमने पूछा क्यूँ ऐसे??"
माँ जोरों से हंस पड़ी.."सच्ची आजकल तू कितना बोलने लगी है....मेरे पूछने का मतलब था..तुम्हे कैसा लगता है?"
"क्यूँ अच्छा है तो..अच्छा ही लगेगा ना...उसके यहाँ रहने की बात से थोड़ा मैं अनकम्फर्टेबल थी..पर फिर मिली तो बहुत ही सहज लगा मुझे...इतने अपनेपन से बात की"
"हम्म.....फिर तो ठीक है..."
"क्या ठीक है..." वो कुछ समझ नहीं पा रही थी.
"कुछ नहीं..." माँ ने हंस कर कहा...और एकदम से सब उसकी समझ में आ गया.
"माँsss ....साफ़-साफ़ बताओ...क्या बात है.." उसने गुस्से में भर कर कहा
और माँ ने सब साफ़-साफ़ बता दिया...कि पापा और उनके मित्र दोनों की इच्छा है कि वे दोनों अब सिर्फ दोस्त ना रहकर एक रिश्ते में बंध जाएँ...वो लाख सर पटक कर रह गयी कि..ग्रेजुएशन से क्या होता है....उसे आगे पढ़ाई करनी है...नौकरी करनी है..तब जाकर शादी के बारे में सोचेगी. पर माँ के पास अपने तर्क थे..'तुम्हे पढ़ने से कौन रोक रहा है...जितनी मर्ज़ी हो पढो..पर इतना अच्छा लड़का हाथ से निकलने नहीं देना चाहते...जाना -सुना घर है..तुम्हारी भलाई ही सोच रहे हैं...पता नहीं दूसरा घर कैसा मिले. डैडी और किशोर के पिता दोनों की ही यही इच्छा है....और सही समय भी है...कुछ ही दिनों में तुम्हारा रिजल्ट आ जायेगा,....ग्रैजुएट हो जाओगी.....लड़के की नौकरी लग गयी हैं...आखिर कितने दिन वे इंतज़ार करेंगे...उन्हें भी लड़कीवालों ने परेशान किया हुआ है...सुबह शाम लोगों का तांता लगा होता है....वे भी एक अच्छी जगह रिश्ता पक्का करके निश्चिन्त हो जाना चाहते हैं."
"तो उन्हें निश्चिन्त करने के लिए मैं बलि चढ़ जाऊं...??"
"कैसी बातें कर रही है...इसमें बलि जैसी क्या बात है...किशोर अच्छा लड़का है..तुमने खुद कहा है.."
"तो दुनिया में जितने अच्छे लड़के हैं..सब से शादी कर लूँ.." उसका गुस्सा सातवें आसमान पर था.
"अब तुमसे डैडी ही बात करेंगे ..मेरे वश का नहीं तुम्हारी उलटी-सीधी बातों का जबाब देना..." माँ ने अपना ब्रह्मास्त्र चला दिया और ऊन सलाई समेट कर वहाँ से चली गयीं. उसे पता है..डैडी से वो बहस नहीं कर पाएगी...और सर झुका कर उनका हर निर्णय स्वीकार कर लेगी.
आँसू छलक आए...'ये सब क्या हो रहा है.....इतने दिनों बाद जिंदगी इतनी प्यारी लग रही थी....माँ ज्यादातर उसके आस-पास ही रहतीं...बहुत कम बाहर जातीं...पापा भी उसके साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताने की कोशिश करते...रितेश....समीर की दोस्ती....सब कुछ कितना सुहाना लग रहा था..पर किसकी नज़र लग गयी...और अब उसकी जिंदगी फिर कोई नया रुख लेने वाली थी.
पर वो इतनी परेशान क्यूँ है...शादी से इनकार की वजह क्या सिर्फ पढाई ही है...या कोई और बात है....क्या उसका मन कहीं और झुका हुआ है...पर वो क्या जाने...जितनी देर समीर से बातें होती है..लगता है,अनंत काल तक वो उस से बातें ही करती रहे...कभी ख़त्म ना हो उनकी बातें...पर फिर कब रितेश की छवि चुपके से पलकों पर आ कर बैठ जाती है..उसे पता भी नहीं चलता...लगता है रितेश के सिवा उसने और किसी को जाना ही नहीं....जानने की इच्छा भी नहीं.
और वो शादी से इनकार करे भी तो किस बिना पर. इन दोनों ने भी तो कभी अपनी भावनाओं को शब्द नहीं दिए. क्या पता समीर सिर्फ उसे एक अच्छी दोस्त मानता हो...क्या पता रितेश सिर्फ औपचारिकता या कर्तव्य निभाता हो...पर उसकी आँखें जो कभी-कभी देख लेती हैं..उसपर कैसे अविश्वास करे. समीर की आँखों में जो कभी-कभी कौंध जाता है...वो सिर्फ दोस्त के लिए नहीं होता...रितेश जिन खोयी-खोयी निगाहों से देखता है..वे ये जता देती हैं कि उसने और किसी को ऐसी निगाहों से नहीं देखा है. पर वो क्या करे??...ये मन की कैसी दुविधा है....रितेश की आँखों के मौन आमंत्रण को खूब पहचानती है वो..तो समीर के मुखर संदेश से भी बेखबर नहीं है. उसके कैशोर्य मन ने किसी के ह्रदय के समक्ष पूरी आस्था से आत्म समर्पण किया है तो वो रितेश का अंतर्मन ही है. लेकिन ये रितेश की छवि के आस-पास कैसी उद्दाम लहरें सी उठने लगती हैं और उसे परे धकेलता एक मुस्कुराता सा चेहरा सामने आ जाता है...जो निश्चय ही समीर का है और उसके होठों पर भी मुस्कराहट आ जाती है. ..ऐसा क्यूँ...रितेश का ख्याल आते ही ह्रदय में एक टीस सी उठती है और दिल में गहरी उदासी सी छा जाती है. वहीँ समीर का ख्याल मात्र होठों पर हंसी ला देती है...सुकून दोनों दे जाते हैं दिल को..वो उदासी भी और ये मुस्कराहट भी.
क्या करे वह.....इन दोनों ने भी तो कभी ऐसा कुछ नहीं कहा कि इनकी भावनाओं से भी साक्षात्कार हो...यदि सिर्फ आँखों से ही काम चल जाता तो फिर भाषा का आविष्कार ही क्यूँ हुआ...किसलिए शब्दों का सहारा लिया गया...या क्या पता उन्हें सही वक़्त की तलाश हो.
मेज पर सर पटक-पटक कर रह जाती...क्या करे वह??....और वो कुछ नहीं कर सकी....बस एक सूत्र में बंधी किशोर के संग सात फेरे घूम लिए. और आज उसकी शादी की पार्टी में चुटकुले सुनाता..कहकहे लगाता ..चहरे पर अचानक छा जाने वाले बादलों को अपनी जानदार हंसी से उडाता समीर भी था और उदास आँखों में थोड़ी और विरानगी लिए फूलों के गुलदस्ते थमाता रितेश भी था.
"कई बार यूँ भी देखा है...
ये जो मन की सीमा रेखा है..
मन तोड़ने लगता है
अनजानी प्यास के पीछे...
अनजानी आस के पीछे...
मन दौड़ने लगता है..
राहों में...राहों में....जीवन की राहों में..
(समाप्त)