Monday, January 25, 2010

और वो चला गया,बिना मुड़े....(लघु उपन्यास )--7


(नेहा स्कूल की प्रिंसिपल है.अपने केबिन में अचानक शरद को आते देख चौंक जाती है.और उसे शरद से अपनी पहली मुलाकात याद आने लगती हैं.यह भी कि किशोरावस्था में वह कितनी शैतान थी.सबको कैसे तंग करती रहती थी.शरद ने जब उसके साथ एक छोटी बच्ची की तरह बर्ताव किया तो बहुत नाराज़ हुई थी वह.पर धीरे धीरे शरद से दोस्ती हो गयी और शरद ने घर का बोझिल वातावरण बदलने में बहुत मदद की.धीरे धीरे दोनों के मन में प्यार के अंकुर ने जन्म लिया और बात एंगेजमेंट तक पहुँच गयी.)

गतांक से आगे

सुबह काफी देर से आँखें खुली। नींद जो रात भर नहीं आती....पहले तो पता ही नहीं था कि नींद क्यूँ रात भर नहीं आती और आज जब पता है तब भी दगा दे जाती है.
फ्रेश हो, लिविंग रूम में आकर न्यूजपेपर खोला और जो हेडलाईन पर नजर पड़ी तो चौंक गई। पेपर हाथ में लिए ही लॉन की ओर दौड़ी... डैडी को बताने। बचपन की आदत है उसकी कोई भी नई खबर पढ़ी और डैडी को बताने दौड़ पड़ी।

‘डैडी... डैडी... न्यूजपेपर देखा आपने... लड़ाई शुरू हो गई है...‘ और फिर पेपर उनके सामने कर दिया...

डैडी ने पेपर एक ओर हटा दिया और भारी स्वर में बोल -‘मैंने सुबह ही पढ़ लिया है‘ - बिना ध्यान दिए ही अपने उत्साह में उसने जोर-जोर से पढ़ना शुरू कर दिया तो रूखे स्वर में बोले डैडी -‘अपने कमरे में जाकर पढ़ो, यहाँ शोर मत करो।‘

गुस्से से पैर पटकती चली आई, वह एकदम पहले वाले डैडी होते जा रहे हैं - अपने कमरे में पैर रखा ही था कि शेल्फ पर रखे, शरद की तस्वीर पर जो नजर गई तो एक पल में ही डैडी के रूखेपन का कारण समझ में आ गया। पेपर हाथों से चू पड़ा, आँखों के समक्ष अँधेरा छा गया - ओह! इस युद्ध का सम्बंध शरद से भी तो है - पसीने से सारा जिस्म नहा उठा। अगर लड़खड़ा कर कुर्सी न थाम लेती तो सीधी जमीन की शोभा बढ़ा रही होती। फिर भी खड़खड़ाहट की आवाज सुन बुआ दौड़ी हुई आई (तो, बुआ भी सुबह-सुबह खबर पढ़ते ही आ गई) जमीन पर पड़े अखबार और उसके पीले चेहरे ने सारा माजरा समझा दिया, उन्हें। बुआ ने उसे संभाल कर लिटा दिया और सर सहलाती देर तक समझाती रहीं -‘तू तो इतनी समझदार है, नेहा। ऐसे धीरज नहीं खोते... तुझे ऐसे देख, भैय्या-भाभी पर क्या बीतेगी...‘ - बुआ बोलती चली जा रही थीं। वह सुन तो रही थी लेकिन एक शब्द भी दिमाग तक नहीं जा रहा था। सोचने-समझने की शक्ति जाने कहांँ चली गई थी। शरीर शिथिल पड़ता जा रहा था और मस्तिष्क निस्पंद। बस ऐसा लग रहा था, जैसे बहुत थक गई है, वह। आँखें खोलने में भी कष्ट होता, जैसे मन-मन भर के बोझ रखे हो, दोनों पलकों पर।

किसी तरह खुद को समेट कर लिविंग रूम में टीवी के सामने आ बैठी। भैया ने जिस तत्परता से उठ कर सोफे पर न्यूजपेपर समेटे और कंधे पर हाथ रख पास बिठा लिया कि आँखें भर आईं उसकी। कुछ ही घंटों में क्या-क्या न बदल गया। सारा घर पास-पास बैठा टीवी पर नजरें जमाए था... पर सब एक-दूसरे से निगाहें, कतरा रहे थे। दो-चार बातें होतीं... वो भी इतनी धीरे कि विश्वास करना कठिन हो जाता कि सचमुच वे जुमले हवा में तैरे भी हैं; लगा जैसे एक झंझावात गुजर गया था और छोड़ गया था अपने पीछे छूटे अवशेष... जिनमें जीवन का कोई चिन्ह शेष नहीं बचा था।

‘एंगेज्मेंट‘ के लिए शरद एक हफ्ते की छुट्टी लेकर आया था। फोन किया कि ‘एंग्जेमेंट‘ तो नहीं होगा, पर फ्रंट पर जाने से पहले वह मिलते हुए इधर से ही जाएगा। डैडी ने कहा भी अब आ ही गए हो तो... ये सेरेमनी भी अब हो ही जाने दो, पर उसने सख्ती से मना कर दिया।

वादे के अनुसार, शरद आया भी लेकिन इस बार कोई दौड़कर रिसीव करने नहीं गया। सब उसे खरामा-खरामा भीतर आते देखते रहे। भैय्या ने जरूर दो कदम आगे बढ़ बाहों में भर लिया था। शरद के धूपखिले मुस्कान वाले चेहरे पर भी कुछ तैर आया था। डैडी के पैरों की ओर झुका तो उन्होंने आधे में ही रोक उसे सीने से लगा लिया था। आँखों के गीलेपन को छुपा गए थे; वह सबों से दो कदम पीछे खड़ी थी... शरद की खोजती निगाहें उस पर टिकी और आंखों मे ही मुस्करा दिया पर आंखों की उदासी उससे छुप नहीं सकी थी।

फिर भी उसने अपनी पुरानी जिंदादीली वैसे ही बरकरार रखी थी -‘अंकल देखिए तो कितना भाग्यशाली हूँ मैं? कहाँ तो लोग ट्रेनिंग ले-ले कर बरसों पड़े रहते हैं और अपने जौहर दिखाने का कोई अवसर नहीं मिलता और एक मैं हूँ, इधर ट्रेनिंग पूरी की और शौर्य-प्रदर्शन का इतना नायाब मौका मिल गया। बोलिए हूँ न, भाग्यवान।‘

और माली काका पर नजर पड़ते ही बोला - ‘हल्लो! माली काका -‘ फिर दूसरे ही क्षण - ‘अरे, अरे हिलो नहीं, मैं तुम्हें हिलने को थोड़े ही कह रहा हूं...‘ साथ ही पूरे दिल की गहराई से लगाया गया ठहाका।

ऐसे ही, नाश्ते के वक्त -‘हेलोऽऽ काकी, कैसी हो?‘ - काकी अबूझ सी मुंह देखती रही तो हँस पड़ा -‘अरे, बाबा ये थोड़े ही पूछ रहा हूँ कि ‘हलवा‘ कैसा है? पूछ रहा हूँ... तुम कैसी हो।‘

पापा ने दो-चार बेहद करीबी दोस्तों को चाय पर बुला लिया था... (शर्मा अंकल तो, खैर सुबह से यहाँ ही थे) सब शरद को शुभकामनाएँ देना चाहते थे।

सबके बीच भी शरद की जिंदादीली वैसे ही, बरकरार थी - खन्ना आंटी को सफेद बैकग्राउंड वाली साड़ी में देखकर बोला -‘क्या आंटी, आपने ऐसी साड़ी पहन रखी है अरे! ये तो सुलह का प्रतीक है। इस बार हम लोग कोई समझौता-वमझौता नहीं करेंगे। इस्लामाबाद तक खदेड़ कर न रख दिया तो कहना‘ -‘वही बेमतलब सी बातें जो कोई अर्थ नहीं रखतीं पर जड़ता तोड़ने में बड़ी सहायक होती है।

जब रघु चाय लेकर आया तो फिर शुरू हो गया -‘यार रघु! क्या चाय बनाते हो तुम, चाय तो तुम्हारी नेहा दीदी, बनाती हैं। आह! एक बार पी ले आदमी तो स्वाद जबान से नहीं छूटे। जीवन भर दूसरा कप पीने की जरूरत नहीं। क्यों नेहा? आइडिया... उन पाकिस्तानियों पर गोलियाँ बरबाद करने से क्या फायदा... बस एक-एक कप चाय पिला दी जाए उन्हें... उनके सात पुश्त भी न रूख करने की हिम्मत करेंगे, भारत का... अऽऽ नेहा, जरा नोट करवा दो तो विधि...‘

इस बात को गुजरे दो साल से ऊपर हो चले थे। पर शरद एक भी मौका नहीं छोड़ता - इसका जिक्र करने का। अभी भी बड़ी तफसील से सबको बता रहा था - ‘कैसे वह पहले दिन पेश आई थीं... और कोई रिएक्शन न देख, बड़ी निराश हो चली गई थी।‘

वह फिर से उठकर जाने लगी तो बोला -‘अरे, अपनी तारीफ सुन कोई यूँ भागता है... बैठो, बैठो... और नेहा उस दिन शास्त्रीय संगीत का कौन सा रेकॉर्ड लगाया था, तुमने?‘

‘मुझे याद नहीं‘ - उसने नजरें झुकाए धीरे से कहा तो एकदम झुंझला गया, वह - ‘ओह! गाॅड! दुश्मन की गोली खत्म करे, इससे पहले तुम लोगों की ये मनहूस चुप्पी, मार देगी, मुझे... वहाँ के रोने-धोने से घबराकर भागा तो यहाँ ये आलम है। ... सबके चेहरे ऐसे गमगीन है, जैसे मेरी मय्यत का सरंजाम हो रहा है... बाबा अभी बहुत दिनों तक रहना है, मुझे इस संसार में, क्यों तुमलोग अंतिम विदा कहने पर तुले हो?‘

भैय्या ने तेजी से आकर उसे कंधों से थाम लिया, और सीधा आँखों में देखता हुआ जोर से बोला - ‘डोऽऽन्ट... एवर से दैट, ओक्के?‘

मम्मी भी उठकर उसके पास चली गईं और हल्के से उसके बाल बिखेरते हुए बड़े अधिकारपूर्ण स्वर में लाड़ भरा उलाहना दिया -

‘ऐसा नहीं कहते, बेटे‘

‘तो क्या करूँ आंटी... आप देख रही हैं न घंटे भर से अकेले ही हँस-बोल रहा हूँ और किसी के चेहरे पर हँसी की एक रेखा तक नहीं।‘

‘अब कोई शिकायत नहीं होगी बेटे...‘ और मम्मी खुलकर मुस्करा दी।

‘वाउ! वंडरफुल... ऐसा ही माहौल रहा तब तो मेरी भी हिम्मत बनी रहेगी... वरना कभी-कभी तो लगता है - क्या सचमुच लौट कर नहीं देखूंगा ये सब -‘

‘अरे , तूने फिर बोला ये... और भैया के हाथ में कोई पेपर था, उसे ही गोल कर... दो-चार जमा दिया शरद को।

‘अरे... इतनी जोर से लगी... अभी बताता हूं तुझे...‘ और वह भैय्या के पीछे दौड़ा... दोनों की इस धींगामुश्ती ने घर का माहौल हल्का करने में काफी मदद की।

लेकिन शरद खुद भीतर से कितना अशांत है... उसके ठहाके कितने बेजान हैं, हँसी कितनी खोखली है... ये तो बाद में पता चला।

जाने क्यों... सबके बीच उसका मन नहीं लग रहा था... छत पर चली आई और यूं ही शून्य में जाने क्या देख रही थी कि किसी की उपस्थिति का अहसास हुआ। पलट कर देखा, तो शरद था... जाने कब से खड़ा था... एक हूक सी उठी लेकिन जब्त कर गई। स्नेहसिक्त मुस्कान से नहलाते हुए बोला... ‘चलो, जरा टहल आएं... थोड़ी दूर‘। उसने असमंजस में दरवाजे की तरफ देख तो आश्वस्त कर दिया -‘मैंने मम्मी से पूछ लिया है।‘

छोटे वाले गेट से निकल कर वे पगडंडी पर आ गए - थोड़ी दूर पर ही एक पतली सी पहाड़ी नदी बहती थी... कोई भी बात शुरू नहीं कर पा रहा था... दोनों ही खोए-खोए से अपने विचारों में गुम कदम बढ़ा रहे थे... थोड़ी देर बाद शरद ने धीरे से उसका हाथ, अपने हाथों में ले लिया... बस अंतर उमड़ पड़ा उसका... आँखों से वर्षा की झड़ी की तरह बूंदे चेहरा भिगोने लगीं। उसने निगाह नीची कर ली, सिसकी अंदर ही घोंट ली। शरद खुद में ही खोया सा चल रहा था। नदी के कगार पर पहुंच इधर-उधर देखते हुए बोला -‘कहाँ बैठा, जाए?‘

और इस क्रम में जो उसपर नजर पड़ी तो चैंक पड़ा - ‘अरे, नेहा! ये क्या;बेवकूफ लड़की...‘ लेकिन वह अब और नहीं जब्त का सकी - अपना हाथ खींच, पास ही एक पत्थर पर बैठ, घुटनों में सर छुपा, बेसंभाल हो फफक पड़ी। शरद उसके पैरों के पास बैठ गया। दोनों हाथों से उसका सर उठाने की कोशिश करता हुआ बोला - ‘नेही, प्लीज, ये क्या लगा रखा है?‘

पर जाने कहाँ से आँसू उमड़े चले आ रहे थे। भीतर मानो कोई ग्लैशियर पिघल गया था, जो आंखों के रास्ते अपनी राह बना रहा था।

उसकी ये हालत देख, शरद भी घबड़ा उठा। बड़ी आजीजी से गीली आवाज में बोला- ‘नेही... नेही.. प्लीज ऐसे मत रो पगली... बोल कैसे जा पाऊँगा मैं? ...तुझे ऐसी हालत में छोड़कर कदम उठेंगे, मेरे?... बोलो... नेहा प्लीज... मेरे सर की कसम जो और ... जरा भी रोई...‘

बड़ी मुश्किल से काबू कर पाई, खुद पर। उसका चेहरा हथेलियों में भर शिकायती स्वर में बोला -

‘यों कमजोर न बनाओ मुझे‘; आवाज की कम्पन ने ही उसे आँखें उठाकर देखने पर मजबूर कर दिया। बिना आँसुओं के ही वे आँखें, इस कदर लाल थीं कि... उनका दर्द देख अंदर से हिल गई। और दिल चीर कर रख देने वाली आवाज में फूट पड़ी - ‘शऽरऽद‘ और उन्हीं हथेलियों में सर छुपा सिसक पड़ी।

‘नेहा... तू इस कदर परेशान क्यों है? क्या लगता है, तुझे... और शरद ने हथेली खींच, उसके सामने फैला दी - ‘ये... ये... देख... कितनी लम्बी आयु रेखा है मेरी... कुछ नहीं होगा, मुझे... नेहा, सच... तेरी आस्था... तेरा विश्वास और तेरा प्यार मेरे साथ है... क्यों है न?‘ और फिर मुस्करा कर जोड़ा - ‘कहीं, ऐसा तो नहीं कि ये बस एकतरफा प्यार ही है, तुमने कभी कुछ कहा ही नहीं।‘

बच्चों की तरह हथेलियों से आँखें पोछते... बिना सोचे-समझे वह बोल पड़ी -‘तुमने ऐंगेज्मेंट-’सेरेमनी‘ क्यों नहीं होने दी?‘

‘ओफ्फोह!! तो इसीलिए सारा पागलपन है, तुम्हारा‘ - हँस पड़ा था शरद (इस स्थिति में भी संभालना जानता है, खुद को... आखिर मिलीट्री मैन है) -‘सच्ची... बेवकूफ की बेवकूफ रही तू... इसमें क्या मुश्किल है, लो अभी हुआ जाता है... ये तो मन के रिश्ते है न... लोगों की भीड़ की क्या जरूरत? - और शरद ने अपनी अंगुली में पहनी अंगूठी डाल दी थी उसकी ऊँगली में, फिर बोला -‘अब तुम्हारी अंगूठी तो मुझे आएगी नहीं‘ - पास से ही एक लम्बी सी घास तोड़, उसे गोल-गोल घुमा एक छल्ले सा बना दे दिया, उसे - ‘लो अब जरा अपनी अँगुलियों को भी कष्ट दो।‘

उसने काँपते हाथों से पहना दी तो बड़े आग्रह से बोला -

‘अब एक बार तो मुस्करा दो‘ - और उसकी मुस्कराहट देख दर्द से आँखें फेर लीं, उसने -‘तुम्हारे मुस्कराने से तो तुम्हारा रोना लाख दर्जे बेहतर था।‘

जाने कितनी देर तक चुपचाप बैठे रहे दोनों। गहन चिंता में डूबा चेहरा लग रहा था, उसका। जब थोड़ा अंधियारा घिरने लगा तो, वह उठ खड़ी हुई। लेकिन शरद ने फिर खींचकर बिठा दिया, उसे और थरथराती आवाज में बोला -‘नेहा, पहले एक वादा करो, अब और नहीं रोओगी, तुम।‘ तुम इस कदर भावुक हो, ऐसा तो मैं कभी सोच भी नहीं सकता था। तुम्हें तो एक चंचल, शरारती लड़की ही समझता था और वही रूप पसंद है, मुझे। जानती हो, कितना अशांत कर दिया तुम्हारे इस रूप ने? वहाँ मन लगेगा मेरा... बार-बार तुम्हारे इसी रूप का खयाल आता रहेगा। और बोलो... चाहती हो कि कुछ का कुछ कर बैठूं - नहीं नेहा, यहाँ सिर्फ मेरा-तुम्हारा नहीं... पूरे देश का सवाल है। बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, मुझपर। जिस निभाने के लिए शांत-निरूद्वेग दिमाग चाहिए। और इसके लिए मुझे तुम्हारा सहयोग चाहिए - बोलो करती हो वादा‘ - उसके हँसते-खिलखिलाते चेहरे के बीच, उसका यह रूप, शरद का मन स्वीकार नहीं कर पा रहा था।

आँसू पीती बोली थी वह - ‘वादा करती हूँ, शरद।‘

‘ना, ऐसे नहीं... खाओ मेरी कसम‘ और अपना हाथ आगे बढ़ा दिया। हाथ थाम वह फिर सिसक उठी थी... पर तुरंत संभाल लिया खुद को।

‘तुम्हारी, कसम, शरद... शिकायत का कोई मौका नहीं मिलेगा, तुम्हें।‘

‘कब्भी नहीं‘’- शरद ने शरारत से मुस्करा कर पूछा था (ये शरद भी सचमुच एक पहेली है)

‘कभी-नहीं‘’ - आँसू पोंछ दृढ़ स्वर में बोली थी वह। ‘अरे, नहीं यार! मेरी मौत की खबर सुन तो दो-चार अश्रु-बूँद टपका ही देना, वरना आत्मा भटकती रहेगी...‘ -- हँस कर बोला तो उसने‘-

‘तुम बहुत बुरे हो, बहुत बुरे... सच्ची बहुत बुरे हो...‘ कहती मुट्ठियों की बौछार सी कर दी उस पर।

उसके हमले से खुद को बचाता, शरद बोला -‘अरे! तुम दोनों भाई-बहन किस जनम की दुश्मनी निकाल रहे हो‘ - और एकदम से उसे खींच कर बाहों में भर लिया।

एक पल को लगा, जैसे सृष्टि थम सी गई है। अभी उसके सीने की धधकती आंच ठीक से महसूस भी न कर पाई थी कि झटके से अलग करता हुआ बोला -‘चलो, चलो सब ढूँढ़ रहे होंगे, हमें... बहुत देर हो गई है।‘(स्टुपिड! डर है, कहीं कमजोर न पड़ जाए, मन ही मन हँस पड़ी वह)

वापसी का रास्ता बहुत ही आसान लगा। शरद ने एक बांह से घेर, उसे कंधे से लगा लिया था... और मन का सारा बोझ, सारा गम जाने कहाँ विलीन हो गया।

जाने कैसी शक्ति सी आ गई थी... एक विश्वास सा जम गया था... अब कुछ अघटित नहीं होगा... बिल्कुल शांत हो आया था उसका मन। अब ये बदलाव शरद के दो पल के साथ ने दिया था या... अँगुली में पड़ी इस अँगूठी ने... कहना मुश्किल था।

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और शरद के प्रयासों ने घर का माहौल बदलने में पूरा सहयोग दिया। उदासी के बादल थोड़े ही सही, मगर छँटे जरूर थे। एक-दूसरे को संभालने के लिए जबरदस्ती ही हँसने-बोलने की कोशिश बोझिलता कम करने में बड़ी सहायक सिद्ध हुई थी। शरद तो उसी रात सीमा पर चला गया था पर वहाँ से भी उसने घर का वातावरण हल्का बनाए रखने की कोशिश जारी रखी थी। फोन तो कभी-कभार आते और इतनी डिस्टर्बेंस की कुशल-क्षेम भी ठीक से नहीं पूछ पाते एक-दूसरे का। पर उसके छोटे-छोटे खत बड़े मजेदार होते... बड़े ही मनोरंजकपूर्ण ढंग से वह युद्ध का वर्णन करता। घर में जीवंतता की लहर दौड़ जाती। उसके नाम अलग से कभी कोई खत नहीं होता... हाँ दो-चार लाइनें जरूर रहती उसके लिए। कभी तो बस इतना ही होता... ‘मैंने तुम्हें कुछ लिखने ही वाला था... पर ध्यान आया... तुमने तो रिप्लाय दिया ही नहीं... फिर क्यों लिखूँ मैं?‘
(क्रमशः)

23 comments:

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

मैं तो इस अधेड़ अवस्था में भी बहुत शैतान हूँ.... आज ही आपकी सारी किस्त मैंने इत्मीनान से बैठ कर पढ़ीं.... प्रिंट आउट निकल लिया था सबका.... और आज ही अगली कड़ी आ गई.... यह बहुत अच्छा रहा....शरद का प्रयास सचमुच सराहनीय है....

बहुत अच्छी लग रही है कहानी.... अब आगे का इंतज़ार है.... इसका भी प्रिंट आउट ले लिया है.....

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

अच्छा कलेक्शन बन रहा है मेरा.... आपकी लेखनी की यही ख़ास बात है कि ...लेखन बाँध कर रखता है अंत तक.... curiousity बनी रहती है.....

shikha varshney said...

हम्म्म्मम्म्म्म.....मुझे समझ नहीं आ रहा कि क्या कहूँ...कुछ दृश्य इतनी सुन्दरता से लिखे हैं आपने कि कंपकपाहट सी दौड़ जाती है मन में...एक तरफ पनपता प्यार और दूसरी तरफ फौजी जज्बा...वाकई बहुत ही खुबसूरत चित्र खींचा है आपने....पर आपने अगर इस कहानी को दुखांत बनाया न ..तो ठीक नहीं होगा हाँ...plzzzzzzzzzzzz...कोई नया मोड़ दे देना न ...कितने अच्छे लगते हैं नेहा और शरद साथ साथ.

चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345 said...

‘वही बेमतलब सी बातें जो कोई अर्थ नहीं रखतीं पर जड़ता तोड़ने में बड़ी सहायक होती हैं।
--- उत्सुकता बढ़ती जा रही है. जल्दी से बताइए...शरद का साथ क्या इतना ही है? उफ्फ! नेहा का इंतज़ार कब खत्म होगा? और अगली कड़ी के लिए हमारा?

arun pandey said...

जिसपर गुजरती है वही जनता है ,पढने वालो का क्या.......ये तो महशुस करने कि चीज है
दिल को छू गया , एक वीर ,धैर्यवान होते हुए हसीं दिलवाला है ,शरद इसका साक्षात् उदहारण है
लेखिका भी काबिले-तारीफ है जो उस पल को जीवंत बना दिया ,नेहा के ह्रदय ,जज्बातों को बहुत खूबसूरती से
प्रस्तुत किया गया है . सुन्दर अति सुन्दर

स्वप्न मञ्जूषा said...

सातवीं कड़ी आगई...
बहुत खूबसूरती से तुमने एक -एक दृश्य लिखा है...पाठक हर लफ्ज़ से खुद को जुदा हुआ पा रहे हैं और हर दृश्य जीता चला जा रहा है ...
तुम्हारी लेखनी सचमुच प्रखर है..
नेहा की प्रतीक्षा का कब अंत होगा ?
शरद के प्रेम की परिणति क्या होगी...?
इंतज़ार हैं...

अबयज़ ख़ान said...

बहुत लाजवाब उपन्यास है आपका... मैं लगाता पढ़ रहा हूं... बीच-बीच में कमेंट्स करने में कंजूसी हो जाती है..

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत उत्सुकता बना दी है इस कहनी ने.....पढते- पढते मुझे हमराज़ पिक्चर याद आ गयी.....राजकुमार, सुनीलदत्त और विम्मी की ..

तुमने देखी है क्या? तुम्हारा कहनी लिखने का अंदाज़ बहुत अच्छा है...पाठक को बांधे रखता है.....

राज भाटिय़ा said...

गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं.

दीपक 'मशाल' said...

ji karta hai bas padhte hi.. padhte hi.. padhte hi rahen...
गणतंत्र दिवस की शुभकामनायें....
जय हिंद... जय बुंदेलखंड...

डॉ टी एस दराल said...

गणतंत्र दिवस की ६० वीं वर्षगाँठ पर आपको हार्दिक शुभकामनायें।

संजय भास्‍कर said...

बहुत सुंदर गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाऎं

अजय कुमार झा said...

क्या बात है जी , आप पिछली कडियों की लिंक्स क्यूं नहीं लगाती हैं जी । अजी कुछ सोच के ही तो ये कह रहा हूं । अरे भाई इससे पाठक फ़ट से किसी भी भाग को पढ सकेंगे बस एक क्लिक भर से । लघु उपन्यास ने सबको बांधा हुआ है आभार

अजय कुमार झा

rashmi ravija said...

@महफूज़ स्साब क्या बात है....आप भी ऐसी कहानियां पढ़ते हैं...gud gud लगे रहो अधेड़ शैतान (ये तुम्हारे ही शब्द हैं...मेरे नहीं :))
@शिखा...डियर ये मेरे वश में कहाँ है...कहानी तो एक बलखाती नदी जैसी होती है...खुद ही अपना मुकाम ढूंढ लेती है...हम तो बस साथ बने रहते हैं.
@चंडीदत्त जी,अपनी इतनी व्यस्तताओं के बावजूद बड़े धैर्य से पढ़ रहें हैं,शुक्रिया
@अदा,तुम तो हर किस्त में 'मोरल बूस्ट अप 'करके चली जाती हो...ऐसे ही हौसला बढ़ाती रहो...थैंक्स तो हम नहीं कहेंगे तुम्हे ... ये तुम्हारा फ़र्ज़ है बालिके :)
@अबयज़ जी,तो आप भी silent readers की जमात वाले ही निकले..पहली किस्त पे आपके कमेंट्स थे और अब 7th पे ...चलिए पढ़ तो रहें हैं,ना...और अच्छी भी लग रही है.शुक्रिया

rashmi ravija said...

@संगीता जी,हमराज़ फिल्म तो हमने नहीं देखी....अब लगता है देखनी पड़ेगी..शुक्रिया आपका,हमेशा हिम्मत बढ़ाती रहती हैं.

@दीपक...इससे बढ़िया compliment और क्या मिलेगा...थैंक्स

@अजय जी,लेखक एक तो लिखे...टाईप करे...प्रूफ रीडिंग करे..फोटो ढूंढें और पाठक blog archive में जाकर मनपसंद किस्त पे क्लिक तक नहीं कर सकते??...सब कुछ इतना instant क्यूँ चाहिए? ये क्या कोई maggie noodles है.

vandana gupta said...

rashmi ji

kahani itni gahanta se aur dharapravah chal rahi hai ki dil chahta hai ki ruke hi nhi aur bas hum aage padhte hi chale jayein ..........aisa kya hua jo dono alag ho gaye aur ek umra ke baad mile .....bas yahin par soch atki huyi hai kyunki jab dono ke parents taiyaar the shadi ke liye tab aisi kya baat huyi jo waqt ne unhein itna door kar diya abhi tak ye hi samajh nhi aa raha isliye agli kadi ka besabri se intzaar hai.

Anonymous said...

उफ्फ्फ... कहानी सातवीं किस्त तक पहुँच गयी, और मैं अब तक कहाँ था ?
.... कोई नहीं.... थोड़ी मेहनत करता हूँ और आर्काइव से सारी पुरानी किस्तें आज ही पढता हूँ.

Unknown said...

बहुत ही कसी हुई और गहरा असर छोडती ये किश्त कही रुला ना दे. ये नही कहुन्गा कि कैसी है ना ही बधाई दुन्गा क्योकि वो सब बचाके भी रखना है आगे के लिये. यही कहुन्गा कि अब तक की सबसे बेहतरीन है.

manu said...

कभी लगता है के कहानी हो या ज़िन्दगी.....
अपनी म (इस स्थिति में भी संभालना जानता है, खुद को... आखिर मिलीट्री मैन है) -‘सच्ची... बेवकूफ की बेवकूफ रही तू... इसमें क्या मुश्किल है, लो अभी हुआ जाता है... ये तो मन के रिश्ते है न... लोगों की भीड़ की क्या जरूरत............



सोच रहे हैं ...आगे कि कड़ियों में जाने क्या पढ़ना पड़े...
फिर भी शायद पढने आना पड़े..




सोचा है कभी दास्ताँ हो या हो ज़िन्दगी..?
क्या लुत्फ़ हो जो ख़त्म हो दिलकश मकाम पे..


शायद इस पोस्ट पर एक और कमेन्ट दूं...

वाणी गीत said...

अब जल्दी से बता दो कि इस कहानी का अंजाम क्या होने वाला है ...वर्ना डेरा डाल कर यही बैठे रहेंगे ....!!

गौतम राजऋषि said...

हम्म्म..अंदाजा तो लगा लिया था हमने पहले ही कि युद्ध वाला एंगल आयेगा जरुर...

Sarika Saxena said...

अगली किस्त का इंतज़ार है।

Khushdeep Sehgal said...

‘ओह! गॉड! दुश्मन की गोली खत्म करे, इससे पहले तुम लोगों की ये मनहूस चुप्पी, मार देगी, मुझे... वहाँ के रोने-धोने से घबराकर भागा तो यहाँ ये आलम है। ... सबके चेहरे ऐसे गमगीन है, जैसे मेरी मय्यत का सरंजाम हो रहा है... बाबा अभी बहुत दिनों तक रहना है, मुझे इस संसार में, क्यों तुमलोग अंतिम विदा कहने पर तुले हो?‘

रश्मि बहना,
पहली बात देर से आने के लिए मुआफ़ी...शनिवार को अवकाश होता है तो सभी छूट गई पोस्ट को पढ़ने की कोशिश करता हूं...बाकी दिनों में मसरूफियत की वजह से चाह कर भी पसंदीदा पोस्ट पर कमेंट नहीं कर पाता...आज इस कहानी की पिछली दो पेंडिग किस्त भी पढ़ीं...ऊपर जो पैरा मैंने इस पोस्ट से निकाल कर दिया है...उसके पीछे
एक मकसद है...हो सके तो इस कहानी का अंत दुखान्त मत करना...ये मैं इसलिए कह रहा हूं कि हमारी फिल्मों में भी फौज का मतलब नायक का युद्ध में शहीद होना ही दिखाया जाता है...अगर एयरफोर्स मे है तो यही इंतज़ार किया जाता रहता है कि उसका प्लेन कब क्रेश होगा...ये फौजियों की ज़िंदादिली के बिल्कुल ख़िलाफ़ जाता है...उनकी ज़िंदगी में और भी बहुत कुछ होता है...ये सच है कि फौजी सर्वोच्च बलिदान से नहीं चूकते लेकिन ये उनके सामने आखिरी
विकल्प होता है...भारतीय जवान दुश्मन कितने भी सामने क्यों न हो, उन्हें ठिकाने लगाकर ही चैन लेता है...ये उसकी
ड्यूटी का हिस्सा है...लेकिन इससे उस फौजी की महत्ता कम नहीं हो जाती जो दुश्मन को मात देकर अपनी जान भी बचा लेता है और हीरो की तरह लौटता है...हमें फौज के बारे में हमेशा पॉजिटिव सोच रखनी चाहिए...नेगेटिव सोच से जनरल परसेप्शन ये बनता है कि फौजी के साथ लड़की की शादी करने में रिस्क बना रहेगा...अरे कोई जवान की
ज़िंदगी में झांक कर तो देखे...वो हर पल इतनी ज़िंदगी जीता है जो हम घिसट-घिसट कर ताउम्र नहीं जी पाते...

वैसे ये मेरी एक सलाह भर है...बाकी कहानी में जीवंतता बहुत है...शुरु से आखिर तक बांधे रखती है...

जय हिंद...