Wednesday, December 30, 2009

वे क्षण जो जीने का सबब बन जाते हैं (२)



हर साल की तरह इस बार भी २५ दिसम्बर की रात, हाथो मे एक किताब लिये एफ़.एम.पर 'पुरानी जींस' प्रोग्राम में बेहतरीन गाने सुन रही थी.और निगाहे बार बार घडी की तरफ़ चली जाती...मन ये भी सोच रहा था,इस बार का सर्प्राइज़ तो पहले से पता है,वही बारह बजते ही केक लेकर आयेगे सब...बारह बजते ही सबसे पहला मैसेज़ एक ऐसे फ्रेंड का आया जिससे पिछले चार पांच महिने से सम्पर्क टूट सा गया था.मुझे चिढाने को,उसके हर मैसेज़ के अन्त मे होता है (वो महाराष्ट्रियन है) ’जय महाराष्ट्र" आज था "जय महाराष्ट्र" "जय बिहार" .मै मैसेज पढने और कॉल अटेंड करने में ही लगी थी कि किंजल्क ने पीछे से एक बड़ी फ़ाइल जैसी चीज़ सामने रख दी.हैरान रह गयी देखकर अलग अलग अवसरों पर ली गयी मेरी तस्वीरों से सजा एक स्क्रेपबुक था...और सबसे सुखद आश्चर्य हुआ सहेलियों द्वारा मेरे ऊपर लिखे आलेख देख..किंजल्क ने बताया पिछले एक हफ्ते से इसकी तैयारी चल रही थी.उसने मेरी सहेलियों से संपर्क किया और उन सबने भी बड़े उत्साह से उसका साथ दिया,और बड़े प्यारे testimonials लिख डाले.राज़ी ने सबके आलेख एक जगह इकट्ठे कर किंजल्क को मेल कर दिए.पर तस्वीरों के लिए किंजल्क परेशान था,क्यूंकि मेरा नया वाला लैपटॉप अभी तक ठीक होकर नहीं आया है.वैशाली ने तस्वीरें चुन चुन कर 'पेन ड्राइव' में डाल किंजल्क को दिए क्यूंकि मेरा नया वाला लैपटॉप अभी तक ठीक होकर नहीं आया और सारी तस्वीरें उसी में हैं. (इस पुराने वाले में कई ब्लोग्स नहीं खुलते.जाने कितने मित्र नाराज़ होंगे कि मैं उनकी पोस्ट नहीं पढ़ती) पर मेरे आस पास इतना कुछ होता रहा और मुझे खबर तक नहीं हुई.किंजल्क ने टेस्ट का बहाना बनाया था और देर रात तक जगा रहता.उसकी हमेशा से देर रात में पढने की आदत है,इसलिए मुझे शक भी नहीं हुआ.और वो छुप छुप कर ये स्क्रेपबुक डेकोरेट करता रहा.दिन में भी उसने अपने छोटे भाई से झूठ मूठ का झगडा कर लिया और जब मैंने डांटा तो मुहँ फुला कर अपने कमरे में चला गया ताकि मैं उस से नाराज़ रहूँ.और बार बार ना बुलाऊं और वो शांति से इसे फिनिशिंग टच दे सके..बहुत ही खूबसूरती से स्केच पेन,क्रेयोन्स,लेस की सहायता से सजाया था.सबके आलेख भी रंग बिरंगे अक्षरों में लिखे थे.इसके बर्थडे में बारिश में भीग भीग कर जो शौपिंग करती थी ( बर्थडे ५ जुलाई होने के कारण)अब सब सूद समेत वापस हो रहें थे. कनिष्क का लिखा पढ़,हम देर तक हँसते रहें.उसने मेरी डांट और मार का भी जिक्र किया था और ये भी लिखा था कि कैसे मैं हर वक़्त उसकी बम्बईया हिंदी सुधारने की कोशिश करती रहती हूँ.पतिदेव ने भी थोडा जेलस होकर शिकायत की ,'ठीक ठीक है,सिर्फ ममी के लिए ही बनाओ"

सोने में रात के दो बज गए और सुबह सुबह ही फोन बज उठा.कैनेडा से फोन था...एक बार लगा,'अदा' का है क्या...पर नहीं अदा से बात हुई है,उसकी आवाज़ नहीं थी ये...ये फ़ोन मेरी पुरानी सहेली रूपी का था,जो अपने 'ब्यूटीशियन' और हेयर स्टाइलिस्ट के काम में इतनी व्यस्त हो गयी थी कि पिछले ६ महीने से ना तो फ़ोन किया था ,ना ही नेट पर दर्शन दिए थे....और आज जैसे फ़ोन रखने को तैयार ही नहीं.

मैंने बच्चों को बोला,चलो 'लंच' और 'मूवी' के लिए चलते हैं.(अब मुझे भी तो एवज में कुछ करना था)बच्चे लंच के लिए तो मान गए,पर मूवी के लिया मना कर दिया.कनिष्क ने बताया,उसके सर का फोन आया था,वे ६ बजे आ रहें हैं,पढ़ाने.लंच से आने के बाद मैंने सोचा,चलो गुलाबजामुन बना दूँ,कब से ड्यू है और बच्चों ने भी इतना किया है.एक दिन अदा से चैट पर बात भी हो रही थी कि ब्लॉग्गिंग के चक्कर में कैसे गुलाबजामुन,केक,नमकीन,खजूर सबने बैकसीट ले लिया है.अदा ने मजाक भी किया था,'जबतक बच्चे और पति बैकसीट नहीं ले लेते तबतक सब ठीक है" किचेन में ही थी कि किंजल्क ने आवाज दी," ममी अमृत(उसका फ्रेंड) तुमसे बात करेगा"और अपना फोन मुझे थमा दिया.मैंने हेल्लो बोला और दूसरी तरफ से सात-आठ लड़के लड़कियां एक सुर में गाने लगे,"हैप्पी बर्थडे..." फिर मैंने सबका एक एक कर परिचय पूछा,सब शिकायत करने लगे..."आंटी,किंजल्क ने हमें घर नहीं बुलाया,खुद अकेले आपके साथ सेलिब्रेट कर रहा है."..मिशिका ने तो एक कदम बढ़ कर शिकायत की, "आंटी मैं होस्टल में रहती हूँ,घर के खाने के लिए तरसती हूँ,फिर भी घर पे नहीं बुलाता"..खैर सबको मैंने इनवाईट किया..(यह भी सोचने लगी..लो,अब कुछ ना कुछ बना कर भेजना पड़ेगा)
किचेन से निकल थोडा सुस्ता ही रही थी कि कॉलबेल बजी.हमेशा की तरह दोनों बच्चे 'तुम देखो'...'तुम क्यूँ नहीं'..करते रहें...मुझे ही खोलना पड़ा...और सामने थीं वैशाली,तंगम राजी(मेनन),नेहा,,इंदिरा और राजी
(अय्यर)...एक सुन्दर सा बुके और केक पर जलती हुई कैंडल लिए.वैशाली ने कैमरा ऑन रखा था और खटाखट मेरे खुले मुहँ और विस्फारित नेत्रों का फोटो लिए जा रही थी.बच्चे पीछे खड़े हंस रहें थे.पता चला, ये सब इनलोगों की मिलीभगत थी.सहेलियों ने किंजल्क को फोन कर बता दिया था ,तभी इन दोनों ने मूवी के लिए मना कर दिया था..और कनिष्क ने ट्यूशन का बहाना बनाया था.वरना फिल्म के लिए और कनिष्क मना कर दे?...असंभव. अभी भी दोनों इसीलिए दरवाजा भी नहीं खोल रहें थे.इनलोगों ने बुके थमाया..फिर मुझे आदेश दिया...अब कपड़े बदल कर आओ...गाउन में केक नहीं कटेगा..मैंने ना नुकुर की तो...कहने लगीं ये 'तंगम' के केक की इन्सल्ट होगी...तंगम प्रोफेशनल बेकर है और अद्भुत केक बनाती है.क्रिसमस के एक महीने पहले से उसके केक की बुकिंग शुरू हो जाती है और इतनी व्यस्तता में उसने मेरे लिए केक बनाया.पर वो है ही ऐसी..आए दिन किसी ना किसी बहाने हमें केक,पेस्ट्री खिलाती रहती है. और घर मे तो बिस्किट के सिवा कुछ था ही नहीं उन्हें पेश करने को. मैंने बच्चों को ही दौड़ाया ,समोसे ,आइसक्रीम लाने .और मन ही मन शुक्र मनाया ..अच्छा हुआ,गुलाबजामुन बनाए...कुछ तो घर का बना है...काफी धमाल रहा..और इतने हंगामे के बाद रात में फॅमिली के साथ quite dinner अच्छा लगा.

कुछ ऐसे लोगों की शुभकामनाएं मिलीं जो अनापेक्षित थीं...बेचारे मिथिलेश की हर पोस्ट की मैं पोस्टमार्टम कर डालती हूँ...और बड़े तीखे कमेंट्स देती हूँ ..पर उसने केक और समोसे से सजा प्यारा सा मेल भेजा.हिमांशु से मेरी, अपनी दूसरी पोस्ट पर ही थोड़ी सी बहस हो गयी थी...तब से वो मुहँ फुला कर बैठा है...पर विश करना नहीं भूला. डा.अनुराग ने २,३, महीने बाद कमेन्ट लिखे थे मेरी 'मोनालिसा' वाली पोस्ट पर फिर अगले दिन ही डिलीट कर दिए (वजह नहीं पता,..यहाँ तो कोई वैमनस्य कोई बहस भी नहीं हुई थी और ये लिखने मिटाने का दौर तो शायद टीन एज के बाद ही ख़तम हो जाता है :) ) ....पर फेसबुक पर अपनी शुभकामनाएं दीं..एक मनोवैज्ञानिक मित्र हैं डा. कौसर..हमेशा शिकायत करती हूँ कि आप हमेशा 'पोलिटिकली करेक्ट' बात करते हैं,कभी तो डाक्टरी लबादा उतार कर बोलिए,एक बार उन्होंने आम इंसान की तरह कोई बात कही .और मुझे बुरा लग गया.....पर मेरे बुरा मानने का उन्होंने बुरा नहीं माना और अच्छा सा मैसेज भेजा .बाकी सारे तो दोस्त ही हैं..विश ना किया तो कहाँ जायेंगे :)

वैसे सबका तहे दिल से शुक्रिया, मेरा एक मामूली सा दिन इतना ख़ास बनाने के लिए.

Monday, December 28, 2009

वे क्षण, जो जीने का सबब बन जाते हैं

इस बार जन्मदिन पर कई सरप्राइज़ मिले...मैंने अपने प्रोफाइल पर जन्मदिन नहीं लिखा है,लिहाज़ा मुझे लगा यहाँ तो किसी को पता नहीं होगा...पर किसी नेक दिल मित्र ने लगता है पाबला जी को खबर कर दी...और उन्होंने 'ब्लॉगर्स जन्मदिन' वाले ब्लॉग पर यह खबर डाल दी और शुरू हो गया बधाइयों का तांता...कुछ लोगों ने ई.मेल का माध्यम चुना,शुभकामनाएं भेजने का...सबलोगों को कोटिशः धन्यवाद..

ख़ुशी हुई देख...बरसों पहले शुरू हुआ यह सरप्राइज़ का सिलसिला अबतक जारी है...बचपन में जन्मदिन के दिन हम सुबह सुबह नए कपड़े पहन, मंदिर जाते थे और हमारी पसंद का खाना बनता था. शायद नौ-दस बरस की थी, तब की बात है..जन्मदिन वाले दिन,शाम को बाहर खेल रही थी..नौकर ने आकर बोला,ममी ने सारे बच्चों के साथ बुलाया है...अबूझ से सब अन्दर गए तो नमकीन और मिठाइयां मिलीं. लेकिन हमारे साथ खेलने वाली 'नईमा' घर के अन्दर आने को तैयार नहीं थी...जबरदस्ती अन्दर लेकर आई पर वह कुछ खाने को तैयार नहीं...बड़ी मुश्किल से मनाया था,उसे खाने को. पर उस कच्ची उम्र में ही मुझे आभास हो गया था कि 'नईमा' का हर घर में यूँ खुले दिल से स्वागत नहीं होता.

एक बार अपने मामा की शादी में हम सब इकट्ठे हुए थे..मेरा जन्मदिन भी उन्ही दिनों पड़ा और सारे छोटे भाई-बहनों ने मिलकर डांस-म्युज़िक-ड्रामा का एक सुन्दर प्रोग्राम पेश किया था...बस मैं थोड़ी अकेली पड़ गयी थी, उस दिन...जहाँ भी जाती, मुझे भगा दिया जाता.."हमलोग रिहर्सल कर रहें हैं,तुम यहाँ से जाओ .तुम्हारे लिए सरप्राइज़ है"..(उस प्रोग्राम की तस्वीर एक कजिन के औरकुट प्रोफाइल से चुरा ली है,उसके लिए भी सरप्राइज़ होगा,ये:))..आज उन भाई-बहनों में से कुछ की शादी हो गयी है..कुछ जिम्मेवारी वाले पद पर आसीन हैं....पर कितने मासूम लग रहें हैं....इन तस्वीरों में.


अपनी कॉलेज की सहेली सीमा को मैं अपने हर जन्मदिन पर याद कर लेती हूँ... ठंढ के दिनों में वह हमेशा खांसी-जुकाम से परेशान रहती पर इतनी ठंढ में भी इस दिन दो मोज़े,स्वेटर जैकेट,स्कार्फ पहने सी सी करती हुई...अमृता प्रीतम,निर्मल वर्मा या मोहन राकेश की किताबें लिए मुझे विश करने , दरवाजे पर सुबह सुबह हाज़िर हो जाती.

अभी कुछ साल पहले मेरे workaholic पति थोडा जल्दी आ गए थे.हम सब एक रेस्तरां में डिनर के लिए गए..वहाँ मॉकटेल में 'बर्थडे बैश' नामक एक पेय था.बच्चों ने तो 'मिकी माउस' ड्रिंक लिया..मेरे लिए 'बर्थडे बैश' ऑर्डर कर दिया.हम खाना ख़त्म कर डेज़र्ट का इंतज़ार कर रहें थे कि अचानक पूरा रेस्तरां.."हैप्पी बर्थडे सॉंग" से गूंजने लगा.और वेटर एक केक पर जलती हुई मोमबत्ती लेकर हमारी तरफ आया.मुझे पता ही नहीं चला कब उसने चुपके से आकर पूछ लिया था कि किसका बर्थडे है.सारे लोग हमारी मेज़ की तरफ देख रहें थे..मुझे तो बहुत ही एम्बैरेसिंग लगा.उसपर से पास वाली टेबल पर एक छोटी सी दो साल की लड़की ने शायद अभी अभी ;हैप्पी बर्थडे' कहना सीखा था...हर दो मिनट पर दौड़ कर आती और मुझे 'एपी बड्डे' कहकर चली जाती.अब जब कभी डिनर के लिए जाती हूँ..सबको पहले ताकीद कर देती हूँ...प्लीज़ डिस्क्लोज मत करना किसका बर्थडे है.

जाड़ा,गर्मी, बरसात हो या जन्मदिन , हमारी मॉर्निंग वाक कभी नहीं छूटती.सुबह की शुरुआत सहेलियों के साथ हँसते-बतियाते हुए करने से बेहतर और क्या होगा?...और उसपर से स्वास्थ्य भी सुधर जाए तो सोने पे सुहागा..३ साल पहले मैं मोर्निंग वाक से लौटी तो देखा,मेरा छोटा बेटा 'कनिष्क' कंप्यूटर पर बैठा है.मैंने जोरदार डांट लगाई,"ममी नहीं है तो सुबह सुबह गेम खेलना शुरू" वह चुपचाप उठकर चला गया.जब काम से निश्चिन्त हो,मैंने कम्प्यूटर खोला तो देखा,वाल पेपर पर रंग बिरंगे अक्षरों में लिखा है.."HAPPY BIRTHDAY MOM"

पिछले साल बड़े बेटे किंजल्क ने बिलकुल ही सरप्राइज़ कर दिया.25 दिसंबर की रात मैं थकी मांदी,सोफे पर, हाथ में एक किताब लिए ,घडी की सुईओं के 12 पर जाने का इंतज़ार कर रही थी.क्यूंकि मुझे पता था,मेरे साथ सुदूर शहरों में रजाइयों में दुबके कई लोग
भी उतनी ही बेसब्री से आधी रात का इंतज़ार कर रहें हैं...पता नहीं कब आँख लग गयी और अचानक तेज़ रौशनी और फुलझड़ी जैसी आवाज़ सुन मैं चौंक कर उठ बैठी(आजकल केक पर कैंडल की जगह उसके ही आकार की अनार जैसी फुलझड़ी लगाने का रिवाज चल पड़ा है)..डर कर इधर उधर देख ही रही थी कि देखा Three men in my life मुस्कुराते हुए 'हैप्पी बर्थडे बोल रहें हैं.किंजल्क की कोचिंग क्लास शाम सात बजे से रात दस बजे तक होती थी.लौटते वक़्त उसने केक लाया था और जितने कौशल से मैं इनके 'सैंटा क्लॉस' वाले गिफ्ट छुपाती थी वही सारे ट्रिक उसने मुझसे ये केक छुपाने में आजमा लिए थे...और तीनो जन सोने का बहाना कर जल्दी बिस्तर पर चले गए थे.

कभी कभी लगता है,ज़िन्दगी गोल गोल घूमती है और जहाँ से हमने शुरुआत की थी,वापस वहीँ पहुँच जाती है..हमारे मोर्निंग वाक के रास्ते में अयप्पा स्वामी का मंदिर है हर साल वहाँ २० से ३० दिसंबर तक भव्य पूजा समारोह होता है.सुन्दर फूलों से पंडाल सजाया जाता है.पूरे दिन पूजा,अर्चना चलती रहती है..सुबह सुबह ही कई महिलायें नहा धोकर गीले बाल पीठ पर छितराए मलयालम में रामायण पढ़ती रहती हैं.मेरी सहेली राज़ी (जो मुंबई में पली बढ़ी है, पर मूलतः केरल की है.).ने कहा 'क्यूँ ना हमलोग भी सुबह सुबह नहा कर वाक करते हुए मंदिर में दर्शन को जाएँ,' मैंने और वैशाली (ये कर्नाटक की है) ने अनुमोदन किया और तीनो सहेलियों का
प्रातः भ्रमण के साथ मंदिर गमन भी शुरू हो गया ..मेरा जन्मदिन बीच में पड़ता है,सो अब बचपन में जन्मदिन वाले दिन सुबह सुबह मंदिर जाने के दिन फिर से लौट आए हैं. वैसे मुझे और वैशाली को दर्शन के साथ साथ ,प्रसाद के रूप में मिलने वाले गरम गरम स्वादिष्ट पायसम का कम आकर्षण नहीं रहता.

(इस बार के जन्मदिन पर इतने सारे सरप्राइज़ मिले
की उसकी चर्चा अगले पोस्ट में)

Wednesday, December 23, 2009

मुस्कुराते चेहरों के पीछे का दर्द


(यूँ तो कई विषयों को अपनी पोस्ट्स में समेटने की कोशिश की है पर अपनी बिरादरी पर आजतक कुछ नहीं लिखा...कुछ दिनों पहले'नारी' ब्लॉग पर एक फिल्म के बहाने अपने देश में स्त्रियों की स्थिति पर कुछ मनन करने की कोशिश की थी.,..आज वो पोस्ट यहाँ है )

यूँ ही चैनल फ्लिप कर रही थी कि देखा एक फिल्म आ रही है,"मोनालिसा स्माईल'...अपनी सहेलियों को SMS करने लगी तो ध्यान आया ब्लॉगजगत पर भी बहुत सारे दोस्त हैं,पता नहीं उन्होंने यह फिल्म देखी है कि नहीं,उन्हें भी इस फिल्म से रु-ब-रु करवाया जाए.यह प्रासंगिक भी है क्यूंकि आजकल ब्लॉगजगत में 'चर्चा-ए-नारी' ने कलमकारों को उलझा कर रखा हुआ है.

यह फिल्म, दायरे में सीमित ,महिलाओं की सोच बदलने की है...अपनी अस्मिता तलाश करने की है....अपना अस्तित्व स्थापित करने की है.

अमेरिका के 1950 के दौर की कहानी है और बिलकुल हम से मिलती जुलती.(दुःख होता है,हम 60 साल पीछे चल रहें हैं)मिस वाटसन(जूलिया रॉबर्ट्स) की नियुक्ति लड़कियों के एक कॉलेज में होती हैं.वे पाती हैं,लडकियां बहुत मेधावी हैं,स्मार्ट हैं पर उनकी सोच एक परंपरा की शिकार है.जो कुछ सिलेबस में है,वे उसे तोते की तरह रट जाती हैं.उनकी अपनी कोई सोच नहीं है.लडकियां कॉलेज को टाईम पास की तरह लेती हैं, जबतक उनकी शादी नहीं हो जाती.(कुछ अपने यहाँ की कहानी जैसी नहीं लगती?)

मिस वाटसन उन्हें अपना विचार खुद बनाने के लिए प्रेरित करती हैं.उनमे इतना आत्मविश्वास जगाने की कोशिश करती हैं कि वे अपना निर्णय खुद ले सकें.एक बहुत ही मेधावी छात्र है,जिसे लॉयर बनने की इच्छा है. पर जब मिस वाटसन उस से पूछती हैं कि वो ग्रैजुएशन के बाद क्या करेगी वो कहती है 'I am getting married "
"then ?"
"Then I will b remain married"
लड़कियों का गोल सिर्फ शादी है,वाटसन शादी के खिलाफ नहीं हैं पर वे चाहती हैं कि लड़कियां अपना अस्तित्व तलाशें और पत्नी के अलावा भी उनकी कोई पहचान है,उसे समझें.

वे उस लड़की को law school का फार्म लाकर देती हैं.पर उसका मंगेतर कहता है कि ये कॉलेज घर से काफी दूर है और वह समय पर टेबल पर खाना लगाने नहीं पहुँच पायेगी.जूलिया उसे सात और कॉलेज के फ़ार्म लाकर देती हैं,जो घर के पास है.और कहती हैं कि अब वो दोनों काम एक साथ कर सकती है. पर परंपरा में बंधी लड़कीअपने मगेटर की नाराज़गी का ख़याल कर , खुद इनकार कर देती है.

दूसरी एक बेट्टी नाम की छात्रा,मिस वाटसन का बहुत विरोध करती है.क्यूंकि उसे लगता है वह लड़कियों को बहका रही हैं.इस लड़की की शादी हो जाती है.वह घर और पति के प्रति पूर्ण समर्पित है.घर और पति ही उसकी दुनिया है.पर पति का कहीं और अफेयर है और वह बहाने बनाकर ज्यादातर घर से बाहर रहता है.जब इसे पता चलता है तो वह अपने माता-पिता के घर जाती है पर उसकी माँ उसे वहां रुकने नहीं देती और कहती है"अब पति का घर ही उसका घर है. माँ उसे समझाती है कि सब ठीक हो जाएगा,बस किसी को कानोकान खबर ना हो "( पता नहीं कितनी भारतीय लड़कियों ने भी ये सब सुना होगा)

फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण दृश्य है जब बेट्टी अपनी माँ को मोनालिसा की तस्वीर दिखाती है.उसकी माँ कहती है " She is smiling "
बेट्टी पूछती है " I know but is she HAPPY ??बेट्टी आगे कहती है ,"She looks happy. It dsnt matter.if she is really happy or
not "

बेट्टी डाइवोर्स फाईल करती है और घर छोड़ देती है.कॉलेज की सबसे बदनाम लड़की उसे सहारा देती है.माँ बहुत नाराज़ होती है और तब बेट्टी कहती है ," When You closed the door of my own house where can i go ? "
मिस वाटसन एक प्रोफ़ेसर के करीब आ जाती है,तभी उनका पुराना प्रेमी जिसे वाटसन का यूँ इस शहर में कॉलेज में पढ़ाना बिलकुल पसंद नहीं था,अचानक आ जाता है.और प्रपोज़ कर अंगूठी पहना देता है.पर वाटसन कहती है,"एक अरसे से हमारा कोई contact नहीं और तुम्हारा जब चाहे मेरी ज़िन्दगी में चले आना और जब चाहे चले जाना मुझे मंजूर नहीं..वो शादी से इनकार कर देती है.कुछ दिन बाद प्रोफ़ेसर की असलियत भी खुल जाती है.वह युद्ध के झूठे किस्से सुना war hero बना रहता था.

जाहिर है कॉलेज मनेजमेंट मिस वाटसन के स्वतंत्र विचारों को पचा नहीं पाता.और उनका contract रीन्यू नहीं करना चाहता.पर उनके सब्जेक्ट में ही सबसे ज्यादा छात्रों ने दाखिला लिया है इसलिए वह उनपर कई शर्तें लगाता है.कि वे सिलेबस से अलग कुछ नहीं पढ़ाएंगी."....लेसन प्लान पहले से अप्रूव करवायेंगी ...'छात्राओं को कॉलेज के बाहर कोई सलाह नहीं देंगी'.

मिस वाटसन त्यागपत्र दे देती हैं और चल देती हैं ,किसी और कॉलेज की लड़कियों को जकड़न से मुक्त कराने,रस्मो रिवाजों की कुछ और झूठी दीवार गिराने .
सबसे सुन्दर अंतिम दृश्य है जब मिस वाटसन कार में जा रही हैं और सारी लड़कियां ग्रैजुएशन गाउन पहने,कार के आस पास
सायकिल चलाती उन्हें उन्हें विदा दे रही हैं.

हमें भी कुछ ऐसे ही 'मिस वाटसन' की सख्त जरूरत है.

Thursday, December 17, 2009

पीक आवर्स" में मुंबई लोकल ट्रेन में यात्रा



कोई मुंबई में हो और उसका कभी,लोकल ट्रेन से साबका ना पड़े ,ऐसा तो हो ही नहीं सकता.मुझे वैसे भी लोकल ट्रेन बहुत पसंद हैं.कार की यात्रा बहुत बोरिंग होती है,अनगिनत ट्रैफिक जैम...सौ दिन चले ढाई कोस वाला किस्सा.इसलिए जब भी अकेले जाना हो या सिर्फ बच्चों के साथ,ट्रेन ही अच्छी लगती है. और वैसे समय पर जाती हूँ जब ट्रेन में आराम से जगह मिल जाती है चढ़ने उतरने में परेशानी नहीं होती.
वैसे जब बच्चे छोटे थे तो अक्सर काफी एम्बैरेसिंग भी हो जाता था.एक बार अकेले ही बच्चों के साथ जा रही थी.बच्चे अति उत्साहित.हर स्टेशन का नाम जोर जोर से बोल रहें थे..शरारते वैसे हीं और सौ सवाल, अलग.छोटे बेटे कनिष्क ने बगल वाली कम्पार्टमेंट करीब करीब खाली देख पूछा "वो कौन सी क्लास है?".
मैंने कहा,"फर्स्ट क्लास".
"हमलोग उसमे क्यूँ नहीं बैठे"
"उसका किराया,ग्यारह गुना ज्यादा है. और यहाँ आराम से जगह मिल गयी है"(सेकेण्ड क्लास का अगर ७ रुपये होता है तो फर्स्ट क्लास का ७७ रुपये ,पास बनवाने पर बहुत सस्ता पड़ता है और ऑफिस ,कॉलेज जाने वाले,पास लेकर फर्स्ट क्लास में ही सफ़र करते है)
फिर उसने पूछा,'ये कौन सी क्लास है.?"
मैंने कहा "सेकेण्ड"
"थर्ड क्लास कहाँ है?"
"थर्ड क्लास नहीं होता"
कुछ देर सोचता रहा फिर चिल्ला कर बोला,"ओह्हो! थर्ड क्लास में तो हमलोग पटना जाते हैं",(उसका मतलब थ्री टीयर ए.सी.से था )पर मैंने कुछ नहीं कहा,सोचने दो लोगों को कि मैं थर्ड क्लास में ही जाती हूँ.अगर एक्सप्लेन करने बैठती तो ४ सवाल उसमे से और निकल आते.

जब मैंने 'रेडियो स्टेशन' जाना शुरू किया तो नियमित ट्रेन सफ़र शुरू हुआ..मेरी रेकॉर्डिंग
हमेशा दोपहर को होती,मैं आराम से घर का काम ख़त्म कर के जाती और ४ बजे तक वापसी की ट्रेन पकडती.स्टेशन से एक सैंडविच लेती,एक कॉफ़ी और आराम से हेडफोन पे गाना सुनते,कोई किताब पढ़ते.एक घंटे का सफ़र कट जाता.
एक दिन मेरी दो रेकॉर्डिंग थी.अक्सर जैसा होता है..लेट हो रही थी,मैं...आलमीरा खोला तो एक 'फुल स्लीव' की ड्रेस सामने दिख गयी.सोचा,चलो वहां का ए.सी.तो इतना चिल्ड होता है कोई बात नहीं.'शू रैक' खोला और सामने जो सैंडल पड़ी थी,पहन कर निकल गयी.ऑटो में बैठने के बाद गौर किया कि ये तो पेन्सिल हिल की सैंडल है.पर फिर लगा..स्टेशन से १० मिनट का वाक ही तो है.और मुझे कभी ऊँची एडी की सैंडल में परशानी नहीं होती.इसलिए चिंता नहीं की.

एक रेकॉर्डिंग के बाद.रेडियो ऑफिसर ने यूँ ही पूछा, "आप कुछ ज्यादा वक़्त निकाल सकती हैं,रेडियो स्टेशन के लिए?"मैंने कहा..."हाँ..अब बच्चे बड़े हो गए हैं तो काफी वक़्त है मेरे पास".मुझे लगा कुछ और असाईनमेंट देंगे.उन्होंने कहा,"फिर प्रोडक्शन असिस्टेंट के रूप में ज्वाइन कर लीजिये.क्यूंकि हमारे प्रोडक्शन असिस्टेंट ने किसी वजह से रिजाइन कर दिया है.आप अब यहाँ के सारे काम समझ गयी हैं".मैं कुछ सोचने लगी.ये मौका तो बडा अच्छा था.मुझे यहाँ के लोग और माहौल भी अच्छा लगता था. समय भी था.पर एक समस्या थी मेरा बेटा दसवीं में आ गया था.बोर्ड के एक्जाम के वक़्त यूँ घर से दूर रहना ठीक होगा?...यही सब सोच रही थी कि उन्होंने मेरी ख़ामोशी को 'हाँ' समझ लिया (मेरे बेटे का फेवरेट डायलौग ,जब भी उसकी किसी अन्रिज़नेबल डिमांड पर गुस्से में चुप रहती हूँ तो कहता है.'आपकी ख़ामोशी को मैं हाँ समझूं ?")..यहाँ भी मेरी चुप्पी को हाँ समझ लिया गया.श्रुति नाम की एक अनाउंसर से उन्होंने रिक्वेस्ट किया,इन्हें जरा 'लाइब्रेरी','ट्रांसमिशन रूम'.'ड्यूटी रूम' सब दिखा दो.मुंबई का आकाशवाणी भवन काफी बडा है.दो बिल्डिंग्स हैं.स्टूडियो और ऑफिस अलग अलग.एक तिलस्म सा लगता है.श्रुति ने भी बताया कि जब वे लोग ट्रेनिंग के लिए आए थे तो एक लड़के ने आग्रह किया था,"प्लीज, हमें सबसे पहले ऑफिस का एक नक्शा दे दीजिये.पता ही नहीं चलता कौन सा दरवाजा खोलो और सामने क्या आ जायेगा.लिफ्ट,स्टूडियो,या ऑफिस."
श्रुति के साथ घूमते हुए अब मेरे पेन्सिल हिल ने तकलीफ देनी शुरू कर दी थी.और स्टूडियो भ्रमण जारी ही था.ट्रांसमिशन रूम में देखा,ऍफ़,एम् की एक 'आर. जे.'एक गाना लगा,सर पे हाथ रखे किसी सोच में डूबी बैठी है.मैंने सोचा ,अभी गाना ख़त्म होगा और ये चहकना शुरू कर देगी.सुनने वालों को इल्हाम भी नहीं होगा,अभी दो पल पहले की इसकी गंभीर मुखमुद्रा का.

राम राम करके स्टूडियो भ्रमण ख़त्म हुआ, तो मेरी जान छूटी. मेरी रेकॉर्डिंग रह ही गयी.अब तो मन हो रहा था.सैंडल उतार कर हाथ में ही ले लूँ..नज़र दौड़ाने लगी कहीं कोई 'शू इम्पोरियम' दिख जाए तो एक सादी सी चप्पल खरीद लूँ.पर ये 'ताज' और 'लिओपोल्ड कैफे' का इलाका था.यहाँ बस बड़े बड़े प्रतिष्ठान ही थे.कोई टैक्सी वाला भी इतनी कम दूरी के लिए तैयार नहीं होता.(इस इलाके में ऑटो नहीं चलते)खैर ,दुखते पैर लिए किसी तरह स्टेशन पहुंची और आदतन एक सैंडविच और कॉफ़ी ले ट्रेन में चढ़ गयी.सारी सीट भर गयीं थी.सोचा चलो कुछ देर में कोई उतरेगा तो सीट मिल ही जाएगी..मैं आराम से पैसेज में एक सीट से पीठ टिका खड़ी हो गयी.यह ध्यान ही नहीं रहा कि ये ऑफिस से छूटने का समय है,भीड़ का रेला आता ही होगा.क्षण भर में ही कॉलेज और ऑफिस की लड़कियों से एक एक इंच जगह भर गयी.मैं तो बीच में पिस सी गयी..हाथ की सैंडविच तो धीरे से बैग में डाल दिया.पर कॉफ़ी का क्या करूँ?चींटी के सरकने की भी जगह नहीं थी कि दरवाजे तक जाकर फेंक सकूँ.उस पर से डर की कहीं गरम कॉफ़ी किसी के ऊपर एक बूँद,छलक ना जाए.फुल स्लीव में गर्मी से बेहाल.पसीने से तर बतर मैंने गरम गरम कॉफ़ी गटकना शुरू कर दिया.मुंबई के लोग कभी भी किसी को नहीं टोकते.वरना देखने वालों के मन में आ ही रहा होगा,'ये क्या पागलपन कर रही है'.पर सबने देख कर भी अनदेखा कर दिया.अब ग्लास का क्या करूँ.?धीरे से बैग में ही डाल लिया.बैग में दूसरी स्क्रिप्ट पड़ी थी.पर होने दो सत्यानाश.कोई उपाय ही नहीं था.

.ट्रेन अपनी रफ़्तार से दौड़ी जा रही थी.हर स्टेशन पर उतरने वालों से दुगुने लोग चढ़ जाते,मैं थोड़ी और दब जाती.और सीटों पर बैठे लोग तो सब अंतिम स्टॉप वाले थे.मेरी स्टाईलिश सैंडल के तो क्या कहने.जब असह्य हो गया तो मैंने धीरे से सैंडल उतार दी.पर मुंबई कि महिलायें अचानक मेरी हाईट डेढ़ इंच कम होते देख भी नहीं चौंकीं.पता नहीं नोटिस किया या नहीं.पर चेहरा सबका निर्विकार ही था.तभी मेरे बेटे का फोन आया.और हमारी बातचीत में दो तीन बार रेकॉर्डिंग शब्द सुन,पता नहीं पास बैठी लड़की ने क्या सोचा.झट खड़ी होकर मुझे बैठने की जगह दे दी.(शायद मुझे कोई गायिका समझ बैठी:)..मैं थोडा सा ना नुकुर कर बैठ गयी.और सैंडल धीरे से सीट के अन्दर खिसका दिया.मेरा भी अंतिम स्टॉप ही था.सब लोग उतरने लगे पर मुझे बैठा देख,चौंके तो जरूर होंगे,पर आदतन कुछ कहा नहीं.सबके उतरते ही मैंने झट से सैंडल निकाले और पहन कर उतर गयी.

पर मेरा ordeal यहीं ख़त्म नहीं हुआ था.स्टेशन से बाहर एक ऑटो नहीं.बस स्टॉप की तरफ नज़र डाली तो सांप सी क्यू का कोई अंत ही नज़र नहीं आया.मेरे साथ एक एयर होस्टेस भी खड़ी थी.उसे भी मेरी तरफ ही जाना था.संयोग से किसी कार्यवश कार की जगह 'पीक आवर्स' में लोकल से आना पड़ा था,उसे..बेजार से हम खड़े थे सारे ऑटो तेजी से निकल जा रहें थे. एक पुलिसमैन पर नज़र पड़ते ही,उस एयर होस्टेस ने शिकायत की.पर उसने एक शब्द कुछ नहीं कहा.मुझे बडा गुस्सा आया,ये लोग तो हमारी सहायता के लिए हैं.और इनकी बेरुखी देखो.पर जैसे ही 'ग्रीन सिग्नल' हुआ.उस पुलिसमैन ने बड़ी फ़िल्मी स्टाईल में चश्मा उतार जेब में रखा और एक रिक्शे को हाथ दिखा रोका,और आँखों से ही हमें बैठने का इशारा किया.बोला फिर भी एक शब्द नहीं.

दूसरे दिन का किस्सा भी कम रोचक नहीं.मैंने घर आकर हर पहलू से विचार किया और सोचा,इस ऑफर को स्वीकार नहीं कर सकती.यहाँ कामकाजी महिलायें बच्चों के बोर्ड एक्जाम आते ही एक महीने की छुट्टी ले,घर बैठ जाती हैं.और मैं अब ज्वाइन करूँ? रेडियो में इतनी छुट्टी तो मिल नहीं सकती.लिहाज़ा ये अवसर भी खो देना पड़ा..दूसरे दिन बिलुक सादी सी चप्पल और आरामदायक कपड़े पहन,कर ना कहने को गयी.एक 'एलीट' स्कूल के बच्चे आए हुए थे और एक नाटक की रेकॉर्डिंग चल रही थी.मुझे देखते ही उस ऑफिसर ने थोडा बहुत समझाया और मुझ पर सारी जिम्मेवारी सौंप चलता बना. मुझे मुहँ खोलने का मौका ही नहीं दिया.इन टीनेजर्स बच्चों ने २५ मिनट के प्ले की रेकॉर्डिंग में ३ घंटे लगा दिए.एक गलती करता सब हंस पड़ते.दस मिनट लग जाते,शांत कराने में..फिर बीच में किसी को खांसी आती,छींक आती,प्यास लगती तो कभी बाथरूम जाना होता.जब अपनी रेकॉर्डिंग ख़त्म करके, मैंने इस ऑफर को स्वीकार करने में अपनी असमर्थता जताई तो वे हैरान रह गए,'पहले क्यूँ नहीं बताया.?'क्या कहती,आपने मौका कब दिया.?'कोई बात नहीं' कह कर मन ही मन कुढ़ते अपनी दरियादिली दिखा दी.

आज फिर पीक आवर्स था.पर इस बार अपनी ड्यूटी ख़त्म कर श्रुति भी साथ थी.मैं स्टेशन पर उसे बता ही रही थी कि महिलायें भी चलती ट्रेन में दौड़कर चढ़ती हैं.श्रुति ने कहा,',हाँ चढ़ना ही पड़ता है,वरना सीट नहीं मिलती' तभी ट्रेन आ गयी...और श्रुति भी दौड़ती हुई चलती ट्रेन में चढ़ गयी.मेरी हिम्मत तो नहीं थी,पर ईश्वर को कुछ दया आ गयी.और ट्रेन रुकने पर चढ़ने के बावजूद मुझे बैठने कि जगह मिल गयी.पर श्रुति से मैं बिछड़ गयी थी और हमने नंबर भी एक्सचेंज नहीं किया था.दरअसल, मैं अक्सर अपना प्रोग्राम ही सुनना भूल जाती हूँ.श्रुति ने कहा था.अनाउंस करने से पहले वो sms कर याद दिला देगी.पर मुझे इतना पता था कि स्टेशन आने से एक स्टेशन पहले ही गेट के पास खड़ा होना पड़ता है क्यूंकि ट्रेन सिर्फ १/२ मिनट के लिए रूकती है.अगर आप गेट के पास ना खड़े हों तो नहीं उतर पाएंगे.एक स्टेशन पहले मैं भी गेट के पास पहुँच गयी और नंबर एक्सचेंज किया.श्रुति ने जोर से जरा आस पास वालों को सुनाते हुए ही कहा...'हाँ आपके प्रोग्राम की अनाउन्समेंट से पहले,फ़ोन करती हूँ आपको'.मैं मन ही मन मुस्कुरा पड़ी.चाहे कितने भी मैच्योर हो जाएँ हम.आस पास वालों की आँखों में अपनी पहचान देखने की ललक ख़त्म नहीं होती.

Monday, December 14, 2009

उम्र की सांझ का, बीहड़ अकेलापन


पिछले पोस्ट्स में बच्चों की ही बाते होती रहीं...महानगरों में वृद्धों की कारुणिक अवस्था भी ,कम हलचल नहीं मचाती मन में. अपने पीछे इन्होने एक भरपूर जीवन जिया होता है.पर महानगर में ये किसी अबोध बालक से अनजान दीखते हैं.यहाँ का रहन सहन,भाषाएँ सब अलग होती हैं.इनका कोई मित्र नहीं होता.बच्चों की भी मजबूरी होती है.बूढे माता-पिता को अकेले गाँव में कैसे छोड़ें?..और यहाँ वे अपेक्षित समय चाह कर भी नहीं दे पाते.
दिल्ली में मेरे घर के सामने ही एक पार्क था.देखती गर्मियों में शाम से देर रात तक और सर्दियों में करीब करीब सारा दिन ही,वृद्ध उन बेंचों पर बैठे शून्य निहारा करते.मुंबई में तो उनकी स्थिति और भी सोचनीय है.ये पार्क में होती तमाम हलचल के बीच,गुमनाम से बैठे होते हैं.कितनी बार बेंचों पर पास आकर दो लोग बैठ भी जाते हैं,पर उनकी उपस्थिति से अनजान अपनी बातों में ही मशगूल होते हैं.
रोज शाम को योगा क्लास से लौटते हुए देखती हूँ , पांचवी मंजिल पर एक जोड़ी उदास आँखें खिड़की पर टंगी होती हैं...और मैं नज़रें नीचे कर लेती हूँ.वृधावस्था अमीरी और गरीबी नहीं देखती.सबको एक सा ही सताती है.एक बार मरीन ड्राईव पर देखा.एक शानदार कार आई.ड्राईवर ने डिक्की में से व्हील चेयर निकाली और एक वृद्ध को सहारा देकर कार से उतारा.समुद्र तट के किनारे वे वृद्ध घंटों तक सूर्यास्त निहारते रहें.

यही सब देखकर एक कविता उपजी थी,यह भी डायरी के पीले पन्नों में ही
क़ैद पड़ी थी अबतक.आज यहाँ शेयर कर रही हूँ.



जाने क्यूँ ,सबके बीच भी अकेला सा लगता है.
रही हैं घूर,सभी नज़रें मुझे
ऐसा अंदेशा बना रहता है.
यदि वे सचमुच घूरतीं.
तो संतोष होता
अपने अस्तित्व का बोध होता.
ठोकर खा, एक क्षण देखते तो सही
यदि मैं एक टुकड़ा ,पत्थर भी होता.

लोगों की हलचल के बीच भी,
रहता हूँ,वीराने में
दहशत सी होती है,
अकेले में भी,मुस्कुराने में
देख भी ले कोई शख्स ,तो चौंकेगा पल भर
फिर मशगूल हो जायेगा,निरपेक्ष होकर
यह निर्लिप्तता सही नहीं जायेगी.
भीतर ही भीतर टीसेगी,तिलामिलाएगी

काश ,होता मैं सिर्फ एक तिनका
चुभकर ,कभी खींचता तो ध्यान,इनका
या रह जाता, रास्ते का धूल ,बनकर
करा तो पाता,अपना भान,कभी आँखों में पड़कर

ये सब कुछ नहीं,एक इंसान हूँ,मैं
सबका होना है हश्र,यही,
सोच ,बस परेशान हूँ,मैं.

Thursday, December 10, 2009

गावस्कर के 'स्ट्रेट ड्राईव' का राज़ !!



हमारे देश को सुष्मिता सेन के रूप में पहली विश्व सुंदरी मिलीं.पर विश्व सुंदरी का खिताब एक भारतीय बाला को बहुत पहले ही मिल गया होता अगर उन्होंने अपने दिल की नहीं सुन...पोलिटिकली करेक्ट जबाब दिया होता.मशहूर मॉडल 'मधु सप्रे' फाईनल राउंड में पहुँच गयी थीं. फाईनल राउंड में 3 सुंदरियाँ होती हैं और एक ही प्रश्न तीनो से पूछे जाते हैं.जिसका जबाब सबसे अच्छा होता है,उसे मिस यूनिवर्स घोषित कर दिया जाता है.सवाल था 'अगर एक दिन के लिए आपको अपने देश का राजाध्यक्ष बना दिया गया तो आप क्या करेंगी?" बाकी दोनों ने भूख,गरीबी दूर करने की बात कही....हमारी मधु सप्रे ने कहा,"वे पूरे देश में अच्छे खेल के मैदान बनवा देंगी"...जाहिर है उन्हें खिताब नहीं मिला....बहुत पहले की बात है,पर मुझे भी सुनकर बहुत गुस्सा आया था की ये कैसा जबाब है.हमारे देश को एक विश्व सुंदरी मिलने से रह गयी.पर आज जब मैं खुद मुंबई में हूँ तो मुझे उनकी बात का मर्म पता चल रहा है.मधु सप्रे मुंबई की ही हैं और एक अच्छी एथलीट थीं

इस कंक्रीट जंगल में बच्चे खेलने को तरस कर रह जाते हैं.बिल्डिंग के सामने थोड़ी सी जगह में खेलते हैं पर हमेशा अपराधी से कभी इस अंकल के सामने कभी उस आंटी के सामने हाथ बांधे,सर झुकाए खड़े होते हैं.क्यूंकि यहाँ घर के शीशे नहीं कार का साईड मिरर ज्यादा टूटता है.कई बार दो सोसाईटी के बीच झगडा इतना बढ़ जाता है (तुम्हारी बिल्डिंग के बच्चे ने मेरी बिल्डिंग के कार के शीशे तोड़े) की नौबत पुलिस तक पहुँच जाती है.फूटबाल खेलने जितनी जगह तो होती नहीं,क्रिकेट ही ज्यादातर खेलते हैं.मै खिड़की से अक्सर देखती हूँ....इनके अपने नियम हैं खेल के...अगर बॉल ऊँची गयी...'आउट'...दूर गयी...'आउट'.....पार्किंग स्पेस में गयी ..'आउट' सिर्फ स्ट्रेट ड्राईव की इजाज़त होती है.बच्चे जमीन से लगती हुई सीधी बॉल सामने वाली विकेट की तरफ मारते हैं और रन लेने भागते हैं.एक ख्याल आया, 'सुनील गावसकर' का पसंदीदा शॉट था 'स्ट्रेट ड्राईव' और उन्हें बाकी शॉट्स की तरह इसमें भी महारत हासिल थी.कहीं यही राज़ तो नहीं??.क्यूंकि अपनी आत्म कथा 'सनी डेज़' में उन्होंने जिक्र किया था कि वे बिल्डिंग में ही क्रिकेट खेला करते थे...और कोई आउट करे तो अपनी बैट उठा, घर चल देते थे (सिर्फ गावस्कर के पास ही बैट थी).. इसी से उन्हें विकेट पर देर तक टिके रहने की आदत पड़ गयी.क्या पता स्ट्रेट ड्राईव में महारत भी यहीं से हासिल हुई हो.....सचिन और रोहित शर्मा भी मुंबई के हैं और आक्रामक खिलाड़ी हैं पर सचिन शिवाजी पार्क के सामने रहते थे और रोहित.MHB ग्राउंड के सामने...उन्हें जोरदार शॉट लगाने में कभी परेशानी नहीं महसूस हुई होगी.


मुंबई में कई सारे खुले मैदान हैं पर उनपर किसी ना किसी क्लब का कब्ज़ा है.मेरे घर के पास ही एक म्युनिस्पलिटी का मैदान था...सारे बच्चे खेला करते थे...कुछ ही दिनों बाद एक क्लब ने खरीद लिया...मिटटी भरवा कर उसे समतल किया.और ऊँची बाउंड्री बना एक मोटा सा ताला जड़ दिया गेट पर.सुबह सुबह कुछ स्थूलकाय लोग,अपनी कार में आते हैं.एक घंटे फूटबाल खेल चले जाते हैं.बच्चे सारा दिन हसरत भरी निगाह से उस ताले को तकते रहते हैं.कई बार सुनती हूँ...अरे फलां जगह बड़ी अच्छी गार्डेन बनी है...देखती हूँ,मखमली घास बिछी है,फूलों की क्यारियाँ बनी हुई हैं...सुन्दर झूले लगे हुए हैं....चारो तरफ जॉगिंग ट्रैक बने हुए हैं.पर मुझे कोई ख़ुशी नहीं होती...यही खुला मैदान छोड़ दिया होता तो बच्चे खेल तो सकते थे.एकाध खुले मैदान हैं भी तो पास वाले लोग टहलने के लिए चले आते हैं और बच्चों को खेलने से मना कर देते हैं .एक बार एक महिला ने बड़ी होशियारी से बताया कि 'मैंने तो उनकी बॉल ही लेकर रख ली,हमें चोट लगती है' .मैंने समझाने की कोशिश भी की..'थोड़ी दूर पर जो गार्डेन सिर्फ वाक के लिए बनी है...वहां चल जाइए'...उनका जबाब था..";अरे, ये घर के पास है,हम वहां क्यूँ जाएँ?"...हाँ,..वे क्यूँ जाएँ? इनलोगों के बच्चे बड़े हो गए हैं,अब इन्हें क्या फिकर.जब बच्चे छोटे होंगे तब भी उनकी खेलने की जरूरत को कितना समझा होगा,पता नहीं.

कभी कभी इतवार को बिल्डिंग के बच्चे स्टड्स,स्टॉकिंग पहन पूरी तैयारी से फूटबाल खेलने जाते हैं और थके मांदे लौटते हैं...बताते हैं तीन मैदान पार कर, जाकर उन्हें एक मैदान में खेलने की जगह मिली.कभी कभी ये लोग शैतानी से गेट के ऊपर चढ़कर जबरदस्ती किसी कल्ब के ग्राउंड में खेलकर चले आते हैं.मेरे बच्चे भी शामिल रहते हैं...पर मैं नहीं डांटती....एक तो सामूहिक रूप से ये जाते हैं और फाईन करेंगे तो पैसे तो दे ही दिए जायेंगे...दो बातें सुनाने का मौका भी मिलेगा...कि अपना शौक पूरा करने के लिए वे बच्चों से उनका बचपन छीन रहें हैं.


एक बार राहुल द्रविड़ से जब एक इंटरव्यू में पूछा गया कि" क्या बात है,आजकल छोटे शहरों से ज्यादा खिलाड़ी आ रहें हैं"..इस पर द्रविड़ का भी यही जबाब था कि महानगरों में खेलने की जगह बची ही नहीं है.खेलना हो तो कोई स्पोर्ट्स क्लब ज्वाइन करना होता है.उन्होंने अपने भाई का उदाहरण दिया कि वो 8 बजे रात को घर आते हैं. इसके बाद कहाँ समय बचता है कि बच्चे को लेकर क्लब जाएँ.हर घर की यही कहानी है.मेरा बेटा खुद छुट्टियों में दो बस बदल कर फूटबाल खेलने जाता है.मैं कहती भी हूँ कि ऑटो से चले जाओ तो कहता है...120 रुपये सिर्फ एक घंटे के खेल के लिए खर्च करना ठीक नहीं.

कमोबेश हर शहर की यही कहानी है और फिर हम शिकायत करते हैं कि बच्चे आलसी होते जा रहें हैं.उनमे मोटापा बढ़ रहा है. उन्हें सिर्फ टी.वी.और कंप्यूटर गेम्स में ही दिलचस्पी है.

Monday, December 7, 2009

घनी अमराइयों के बीच मुंबई ब्लॉगर्स की आत्मीय बैठक




मुंबई ब्लॉगर्स मीट में शामिल होने के लिए मैं काफी उत्सुक थी क्यूंकि इस ब्लॉग जगत की वजह से ही फिर से हिंदी से नाता जुड़ा है और मेरे नाम 'रश्मि रविजा' का पुनर्जन्म हुआ.हम स्त्रियों को पहले पिता का और फिर पति का सरनेम धारण करना पड़ता है.बरसों बाद अपने कॉलेज जीवन के लेखन के बाद फिर से लोग मुझे इस नाम से जानने लगे हैं.और जब शमा जी की डायरी में पहली बार 'रश्मि रविजा' लिखकर फ़ोन नंबर दिया तो सचमुच बहुत अच्छा लगा
.
यूँ तो अपने ढाई महीने के ब्लॉग काल में कई लोगों से मेल के द्वारा संवाद स्थापित हो चुका है पर 'युनुस खान' को छोड़कर मुंबई के किसी ब्लॉगर से मेरा परिचय नहीं था.पर दो बार कार्यवश 'विविध भारती' जाने के बावजूद भी उनसे मुलाक़ात नहीं हो सकी थी ,और पूना जाने की वजह से वे इस मीट में भी शामिल नहीं हो पा रहें थे.मैंने लिस्ट में नाम देख आभा मिश्रा जी(अपनाघर ब्लॉग) से संपर्क किया और जब उन्होंने बताया कि वे आ रही हैं तो बहुत ख़ुशी हुई.पर एक दिन पहले उन्होंने सूचना दी कि उनके बेटे मानस का पैर फ्रैक्चर हो गया है,इसलिए उनका आना मुमकिन नहीं.(मानस के जल्दी स्वस्थ होने की अनेक शुभकामनाएं ) मैं बहुत मायूस हो गयी तो आभा जी ने ममता जी(बतकही,रेडियो सखी ममता,ब्लॉग ) का नंबर दिया कि उनसे बात करो...वे शायद आ रही हैं.ममता जी कुछ असमंजस में थीं.उन्होंने कहा कि उनका छोटा बच्चा है और पति बाहर जा रहें हैं. फिर उन्होंने कहा कि उनके पति भी ब्लॉगर हैं.जब मैंने नाम पूछा तो उन्होंने बताया ,'युनुस खान' ये भी बताया कि ये उन्ही का नंबर है ,मैंने झट मोबाईल चेक किया तो पाया मैंने युनुस जी का नंबर ही लगाया था.बाद में ममता जी का भी पूना जाने का कार्यक्रम बन गया.

विवेक जी ने बताया, शमा जी आ रही हैं.पहली बार फोन पर ही शमा जी ने इतने अपनत्व और प्यार से बात की कि मैं अभिभूत हो गयी.रु-ब-रु मिलने पर तो उनकी शख्सियत के सब कायल हो गए होंगे.एक साथ विभिन विषयों पर वे करीब २० ब्लॉग मैनेज करती हैं.मानो उनके लिए दिन में ४८ घंटे होते हों.कई लोगों की तरह उन्होंने भी फोन पर ही पूछा,आप 'रश्मि प्रभा' तो नहीं....ये संयोग ही है कि 'रश्मि प्रभा' जी ने पहली पोस्ट से ही मेरा हमेशा उत्साह बढाया है. उनकी प्रभा में पल भर को मेरा नाम भी आलोकित हो उठा.शमा जी ने 'रश्मि प्रभा' से मिलने का रोचक किस्सा सुनाया,शमा जी के किसी ब्लॉग पर 'कलात्मक बैग' देखकर रश्मि जी ने करीब २० बैग का ऑर्डर दिया.जब शमा जी कोरियर करने लगीं तब ध्यान से नाम पढ़ा और पाया कि वे तो साथी ब्लॉगर हैं.फिर उन्होंने फोन पर बात की और पता चला वे लोग आस पास ही रहती हैं.

प्रसिद्द कथाकार 'सूरज प्रकाश जी ने भी अपने अनुभव बताये कि कैसे उनके किसी पोस्ट की चर्चा,युनुस जी ने अपने
कार्यक्रम युवावाणी' में की और १९९२ से बिछड़े किसी मित्र ने उनका कार्यक्रम सुन,कई जगह फोन करेक आखिर उन्हें ढूंढ निकाला. सूरज प्रकाश जी और राज सिंह जी भी इस मुंबई मीट में २६ साल बाद मिले.जब मैंने अविश्वास से पूछा कि आपलोगों ने एक दूसरे को पहचाना कैसे तो दोनों ने स्वीकार किया कि सचमुच चेहरे से नहीं,नाम से पहचाना.
दो साल पहले सूरज जी दुर्घटना ग्रस्त हो गए थे .किसी ने अपने ब्लॉग पर यह खबर डाल दी और एक दिन में ही सौ से अधिक शुभकामना सन्देश आ गए और करीब २८ लोगों की लिस्ट तैयार हो गयी रक्त दान करने के लिए..


अविनाश जी ने बताया कि एक बार,उन्होंने ब्लॉग में यह सूचना डाल दी कि उन्हें एक मोबाईल खरीदना है और तुरंत ही कई लोगों ने उन्हें अच्छे मोबाईल्स की सूचना उपलब्ध करा दी,इतना ही नहीं ३० किलोमीटर दूर बैठे एक पाठक ने उनसे संपर्क किया,जानकारी दी और अविनाश जी के कहने पर वह मोबाईल उनके लिए खरीद भी लिया.आज भी वे वही मोबाईल इस्तेमाल कर रहें हैं.ब्लोगिंग के जरिये घर बैठे ही उनका यह काम हो गया.

महावीर जी(मुंबई टाईगर) ने बताया कि उनकी दस वर्षीया बेटी ने उन्हें हमेशा डायरी में कुछ लिखते देख ब्लॉग शुरू करने का सुझाव दे डाला.और आज हम सब लाभान्वित हो रहें हैं.

सतीश पंचम(सफ़ेद घर ) जी का कहना था कि उन्होंने 'मैला आँचल' किताब पढ़ी और इतने प्रभावित हुए कि कई किताबें पढ़ डालीं फिर लिखना भी शुरू कर दिया.

आज प्रिंट मीडिया पर ब्लॉग चर्चा देख हम सब खुश होते हैं पर अलोक नन्दन जी ने प्रिंट मीडिया को अलविदा कह कर ब्लॉग्गिंग में कदम रखा.इतनी मेहनत से लिखे आलेख की एडिटिंग देख वे व्यथित हो जाते थे.काफी दिन कई अखबारों में काम करने के बाद उन्होंने ब्लॉग जगत का रुख कर लिया.

विवेक रस्तोगी जी(कल्पतरु) ने बैंकों की कार्यवाही की जानकारी देने हेतु एक ब्लॉग बनाया था.पर रीडरशिप ना होने के कारण उसे बंद कर दिया.अविनाश जी ने सलाह दी कि 'नुक्कड़' में पोस्ट करें फिर सबकी नज़रों से गुजरेगी.आशा है हमें जल्द ही महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिलेंगी.

शशि सिंह ने भी २००७ में ही अपना ब्लॉग बनाया था पर उनकी व्यस्तता की वजह से उनका ब्लॉग सुसुप्तावस्था में चला गया है.अविनाश जी ने उन्हें भी सलाह दी कि कम से कम महीने में एक पोस्ट जरूर डालें.
विमल जी(ठुमरी ब्लॉग)...ने अजय जी (गठरी ब्लॉग) को ब्लॉग की दुनिया से परिचित कराया और अजय जी उन्हें इस ब्लॉगर मीट में लेकर आये.


'एन डी एडम' जी पहले तो चुपचाप सबके स्केच बनाते रहें.बाद में उन्होंने बताया कि उनके परिचय का दौर 'पृथ्वीराज कपूर' से शुरू होता है,कई महत्वपूर्ण हस्तियों से उनका परिचय है और उनका स्केच वे बना चुके हैं.करीब तीन हज़ार स्केच वे अब तक बना चुके हैं.

डा रुपेश श्रीवास्तव जी और राज सिंह जी काफी देर से इस ब्लॉग मीट में आये पर अपनी जिंदादिली से इस सम्मलेन की रौनक कई गुना बढा दी.

नन्ही प्यारी सी फरहीन सबसे छोटी ब्लॉगर थीं वहां...अपनी मुस्कराहट से उन्होंने इसकी जीवन्तता कायम रखी थी.

यह ब्लॉग परिवार ऐसे ही फलता फूलता रहें और नए नए सदस्य जुड़ते रहें यही सबकी कामना है.

Wednesday, December 2, 2009

कैसा है, हमारे खिलाड़ियों का खान पान ??


एक बार लगातार चार दिन,मुझे एक ऑफिस में जाना पड़ा.वहां मैंने गौर किया कि एक लड़का 'लंच टाईम' में भी अपने कंप्यूटर पर बैठा काम करता रहता है, लंच के लिए नहीं जाता.तीसरे दिन मैंने उस से वजह पूछ ही ली.उसने बताया कि उसे कभी लंच की आदत, रही ही नहीं क्यूंकि वह दस साल की उम्र से अपने स्कूल के लिए क्रिकेट खेलता था.मुंबई की रणजी टीम में वह ज़हीर खान और अजित अगरकर के साथ खेल चुका है.(उनके साथ अपने कई फोटो भी दिखाए, उसने)क्रिकेट की प्रैक्टिस और मैच खेलने के दौरान वह नाश्ता करके घर से निकलता और रात में ही फिर खाना खाता.
उसने एक बार का वाकया बताया कि किसी क्लब की तरफ से खेल रहें थे वे.वहां खाने का बहुत अच्छा इंतजाम था. लंच टाईम में सारे खिलाड़ियों ने पेट भर कर खाना खा लिया और फिर कैच छूटते रहें,चौके,छक्के लगते रहें.कोच से बहुत डांट पड़ी और फिर से इन लोगों का पुराना रूटीन शुरू हो गया बस ब्रेकफास्ट और डिनर.
भारतीय भोजन गरिष्ठ होता है...पर उसकी जगह सलाद,फल,सूप,दूध,जूस का इंतज़ाम तो हो ही सकता है.पर नहीं ये सब उनके 'फौर्मेटिव ईअर' में नहीं होता,तब होता है जब ये भारतीय टीम में शामिल हो जाते हैं.

मैं यह सोचने पर मजबूर हो गयी कि सारे खिलाड़ियों का यही हाल होगा.क्रिकेट मैच तो पूरे पूरे दिन चलते हैं.अधिकाँश खिलाड़ी,मध्यम वर्ग से ही आते हैं.साधारण भारतीय भोजन,दाल चावल,रोटी,सब्जी ही खाते होंगे.दूध,जूस,फल,'प्रोटीन शेक' कितने खिलाड़ी अफोर्ड कर पाते होंगे.? हॉकी और फुटबौल खिलाड़ियों का हाल तो इन क्रिकेट खिलाड़ियों से भी बुरा होगा.हमारे इरफ़ान युसूफ,प्रवीण कुमार,गगन अजीत सिंह सब इन्ही पायदानों पर चढ़कर आये हैं.भारतीय टीम में चयन के पहले इन लोगों ने भी ना जाने कितने मैच खेले होंगे...और इन्ही हालातों में खेले होंगे.


क्या यही वजह है कि हमारे खिलाड़ियों में वह दम ख़म नहीं है?वे बहुत जल्दी थक जाते हैं...जल्दी इंजर्ड हो जाते हैं...मोच..स्प्रेन के शिकार हो जाते हैं क्यूंकि मांसपेशियां उतनी शक्तिशाली ही नहीं.विदेशी फुटबौल खिलाड़ियों के खेल की गति देखते ही बनती है.हमारा देश FIFA में क्वालीफाई करने का ही सपना नहीं देख सकता.टूर्नामेंट में खेलने की बात तो दीगर रही.हॉकी में भी जबतक कलाई की कलात्मकता के खेल का बोलबाला था,हमारा देश अग्रणी था पर जब से 'एस्ट्रो टर्फ'पर खेलना शुरू हुआ.हम पिछड़ने लगे क्यूंकि अब खेल कलात्मकता से ज्यादा गति पर निर्भर हो गया था.ओलम्पिक में हमारा दयनीय प्रदर्शन जारी ही है.

इन सबके पीछे.खेल सुविधाओं की अनुपस्थिति के साथ साथ क्या हमारे खिलाड़ियों का साधारण खान पान भी जिम्मेवार नहीं.??ज्यादातर भारतीय शाकाहारी होते हैं.जो लोग नौनवेज़ खाते भी हैं, वे लोग भी हफ्ते में एक या दो बार ही खाते हैं.जबकि विदेशों में ब्रेकफास्ट,लंच,डिनर में अंडा,चिकन,मटन ही होता है.शाकाहारी भोजन भी उतना ही पौष्टिक हो सकता है, अगर उसमे पनीर,सोयाबीन,दूध,दही,सलाद का समावेश किया जाए.पर हमारे गरीब देश के वासी रोज रोज,पनीर,मक्खन मलाई अफोर्ड नहीं कर सकते.हमारे आलू,बैंगन,लौकी,करेला विदेशी खिलाड़ियों के भोजन के आगे कहीं नहीं ठहरते.उसपर से कहा जाता है कि हमारा भोजन over cooked होने की वजह से अपने पोषक तत्व खो देता है. केवल दाल,राजमा,चना से कितनी शक्ति मिल पाएगी?

हमारे पडोसी देश पाकिस्तान में भी तेज़ गेंदबाजों की कभी, कमी नहीं रही.हॉकी में भी वे अच्छा करते हैं.खिलाड़ियों की मजबूत कद काठी और स्टेमिना के पीछे उनकी फ़ूड हैबिट ही है.
प्रसिद्द कॉलमिस्ट 'शोभा डे' ने भी अपने कॉलम में लिखा था कि एक बार उन्होंने देखा था ३ घंटे कि सख्त फिजिकल ट्रेनिंग के बाद खिलाड़ी.,फ़ूड स्टॉल पर 'बड़ा पाव' ( डबल रोटी के बीच में दबा आलू का बडा,मुंबई वासियों का प्रिय आहार) खा रहें हैं.इन
सबका ध्यान खेल आयोजकों को रखना चाहिए...अन्य सुविधाएं ना सही पर खिलाड़ियों को कम से कम पौष्टिक आहार तो मिले.

स्कूल के बच्चे 'कप' और 'शील्ड' जीत कर लाते हैं.स्कूल के डाइरेक्टर,प्रिंसिपल बड़े शान से उनके साथ फोटो खिंचवा..ऑफिस में डिस्प्ले के लिए रखते हैं.पर वे अपने नन्हे खिलाड़ियों का कितना ख़याल रखते हैं??बच्चे सुबह ६ बजे घर से निकलते हैं..लम्बी यात्रा कर मैच खेलने जाते हैं..घर लौटते शाम हो जाती है.स्कूल की तरफ से एक एक सैंडविच या बड़ा पाव खिला दिया और छुट्टी.मैंने देखा है,मैच के हाफ टाईम में बच्चों को एक एक चम्मच ग्लूकोज़ दिया जाता है, बस. बच्चे मिटटी सनी हथेली पर लेते हैं और ग्लूकोज़ के साथ साथ थोड़ी सी मिटटी भी उदरस्थ कर लेते हैं.बच्चों के अभिभावक टिफिन में बहुत कुछ देते हैं अगर कोच इतना भी ख्याल रखे कि सारे बच्चे अपना टिफिन खा लें तो बहुत है.पर इसकी तरफ किसी का ध्यान ही नहीं जाता.बच्चे अपनी शरारतों में मगन रहते हैं.और भोजन नज़रंदाज़ करने की नींव यहीं से पड़ जाती है.यही सिलसिला आगे तक चलता रहता है.

Friday, November 27, 2009

सचिन के गीले पौकेट और तीस हज़ार रन


'जीवन में खेल का महत्व' इस विषय पर हम सबने अपने स्कूली जीवन में कभी ना कभी एक लेख लिखा ही होगा.पर बड़े होने पर हम क्या इस पर अमल कर पाते हैं?अपने बच्चों को 'खेल' एक कैरियर के रूप में अपनाने की इजाज़त दे सकते हैं?हम चाह कर भी ऐसा नहीं कर पाते.कई मजबूरियाँ आड़े आ जाती हैं.हमारे देश में खेल का क्या भविष्य है और खिलाड़ियों की क्या स्थिति है, किसी से छुपी नहीं है.पर अगर आपके बच्चे की खेल में रूचि हो,स्कूल की टीम में हो, और वह अच्छा भी कर रहा हो तो माता-पिता के सामने एक बड़ी दुविधा आ खड़ी होती है.
स्कूल का नया सेशन शुरू होता है और हमारे घर में एक बहस छिड़ जाती है.क्यूंकि हर खेल की टीम का पुनर्गठन होता है.और मैं अपने बेटे को शामिल होने से मना करती हूँ. जब तक वे छोटी कक्षाओं में थे,मैं खुद प्रोत्साहित करती थी,हर तरह से सहयोग देती थी.इनका मैच देखने भी जाती थी.कई बार मैं अकेली दर्शक होती थी.दोनों स्कूलों के टीम के बच्चे,कोच,कुछ स्टाफ और मैं. छोटे छोटे रणबांकुरे,जब ग्राउंड की मिटटी माथे पे लगा,मैच खेलने मैदान में उतरते तो उनके चेहरे की चमक देख, ऐसा लगता जैसे युद्ध के लिए जा रहें हों .मैंने,मैच
के पहले कोच को 'पेप टॉक' देते सुना था और बढा चढ़ा कर नहीं कह रही पर सच में 'चक दे' के शाहरुख़ खान का 'पेप टॉक' बिलकुल फीका लगा था, उसके सामने फिल्म डाइरेक्टर के साथ में 'नेगी' थे,अच्छे इनपुट्स तो दिए ही होंगे.फिर भी मुझे नहीं जमा था.

पर जब बच्चे ऊँची कक्षाओं में आ जाते हैं,तब पढाई ज्यादा महत्वपूर्ण लगने लगती है. .क्यूंकि पढाई पर असर तो पड़ता ही है.जिन दिनों टूर्नामेंट्स चलते हैं.२ महीने तक बच्चे किताबों से करीब करीब दूर ही रहते हैं.और एक्जाम में 90% से सीधा 70 % पर आ जाते हैं.ऐसे में
बड़ी समस्या आती है.क्यूंकि भविष्य तो किताबों में ही है.(ऐसा सोचना हमारी मजबूरी है).एक लड़के को जानती हूँ.जो ज़हीर और अगरकर के साथ खेला करता था.रणजी में मुंबई की टीम में था. १२वीं भी नहीं कर पाया.आज ढाई हज़ार की नौकरी पर खट रहा है...और यह कोई आइसोलेटेड केस नहीं है.ज्यादातर खिलाड़ियों की यही दास्तान है.यह भी डर रहता है,अगर खेल में बच्चों का भविष्य नहीं बन पाया तो कल को वे माता-पिता को भी दोष दे सकते हैं कि हम तो बच्चे थे,आपको समझाना था.और कोई भी माता पिता ऐसा रिस्क लेंगे ही क्यूँ??बुरा
तो बहुत लगता है एक समय इनके मन में खेल प्रेम के बीज डालो और जब वह बीज जड़ पकड़ लेता है तो उसे उखाड़ने की कोशिश शुरू हो जाती है.इस प्रक्रिया में बच्चों के हृदयरूपी जमीन पर क्या गुजरती है,इसकी कल्पना भी बेकार है.

अगर उन्हें किसी खेल के विधिवत प्रशिक्षण देने की सोंचे भी तो मध्यम वर्ग के पर्स पर यह अच्छी खासी चपत होती है. coaching.traveling bat, football ,studs,stockings,pads .... . लिस्ट काफी लम्बी है.पता नहीं सचिन तेंदुलकर के गीले पौकेट्स की कहानी कितने लोगों को मालूम है? सचिन के पास एक ही सफ़ेद शर्ट पेंट थी.सुबह ५.३० बजे वे उसे पहन क्रिकेट प्रैक्टिस के लिए जाते.फिर साफ़ करके सूखने डाल देते और स्कूल चले जाते,स्कूल से आने के बाद फिर से ४ बजे प्रैक्टिस के लिए जाना होता.तबतक शर्ट पेंट सूख तो जाते पर पेंट की पौकेट्स गीली ही रहतीं.(मुंबई में कपड़े फैलाने की बहुत दिक्कत है,फ्लैट्स में खिड़की के बाहर थोड़ी सी जगह में ही पूरे घर के कपड़े सुखाने पड़ते हैं,यहाँ छत या घर के बाहर खुली जगह नहीं होती..उन दिनों उनके पास वाशिंग मशीन नहीं थी,और सचिन खुद अपने हाथों से कपड़े धोते थे,क्यूंकि उनकी माँ भी नौकरी करती थीं.वैसे भी सचिन अपने चाचा,चाची के यहाँ रहते थे,क्यूंकि उनका स्कूल पास था. चाचा-चाची ने उन्हें अपने बेटे से रत्ती भर कम प्यार नहीं दिया)इंटरव्यू लेने वाले ने मजाक में यह भी लिखा था, क्या पता सचिन के इतने रनों के अम्बार के पीछे ये गीले पौकेट्स ही हों,इस से एकाग्रता में ज्यादा मदद मिलती हो.

20/20 वर्ल्ड कप के स्टार रोहित शर्मा की कहानी भी कम रोचक नहीं.रोहित शर्मा मेरे बच्चों के स्कूल SVIS से ही पढ़े हुए हैं.ये पहले किसी छोटे से स्कूल में थे.एक बार समर कैम्प में SVIS के कोच की नज़र पड़ी और उनकी प्रतिभा देख,कोच ने रोहित शर्मा को SVIS ज्वाइन करने को कहा.पर उनके माता-पिता इस स्कूल की फीस अफोर्ड नहीं कर सकते थे.कोच डाइरेक्टर से मिले और उनकी विलक्षण प्रतिभा देख डाइरेक्टर ने सिर्फ पूरी फीस माफ़ ही नहीं की बलिक क्रिकेट का पूरा किट भी खरीद कर दिया,रोहित शर्मा ने भी निराश नहीं किया. 'गाइल्स शील्ड' जिस पर 104 वर्षों तक सिर्फ कुछ स्कूल्स का ही वर्चस्व था.SVISके लिए जीत कर लाया.मिस्टर लाड को कोचिंग के अनगिनत ऑफर मिलने लगे.बाद में तो एक
कमरे में रहने वाले रोहति शर्मा ने मनपसंद कार की नंबर प्लेट 4500 के लिए 95,000Rs. RTO को दिए.(एक ख्याल
आया,राज ठाकरे ,इन्हें मुम्बईकर मानते हैं या नहीं क्यूंकि रोहित शर्मा के पिता भी कुछ बरस पहले कानपुर से आये थे)

सचिन और रोहित शर्मा हर कोई तो नहीं बन सकता.पर जबतक हम बच्चों को मौका देंगे ही नहीं खेलने का,उनकी प्रतिभा का पता कैसा चलेगा?..जब कभी मैं बोलती हूँ,सचिन ढाई घंटे तक एक स्टंप से दीवार पर बॉल मारकर प्रैक्टिस करते थे.बच्चे तुरंत पलट कर बोलते हैं हमें तो दस मिनट में ही डांट पड़ने लगती है.
खेल के मैदान से बड़ी ज़िन्दगी की कोई पाठशाला नहीं है.मैंने देखा है, कैसे इन्हें ज़िन्दगी की बड़ी सीख जो मोटे मोटे ग्रन्थ नहीं दे सकते. खेल का मैदान देता है.एक मैच हारकर आते हैं,मुहँ लटकाए,उदास....पर कुछ ही देर बाद एक नए जोश से भर जाते हैं,चाहे कुछ भी हो,हमें अगला मैच तो जीतना ही है.यही ज़ज्बा मैंने खेल से इतर चीज़ों के लिए भी नोटिस किया है.


दूसरों के लिए कैसे त्याग किया जाए,और उस त्याग में ख़ुशी ढूंढी जाए,बच्चे बखूबी सीख जाते हैं.गोल के पास सामने बॉल रहती है,पर इन्हें जरा सी भी शंका होती है,अपने साथी को बॉल पास कर देते हैं,वो गोल कर देता है,उसे शाब्बाशी मिलती है,कंधे पर उठाकर घूमते हैं,अखबार में नाम आता है.और उसकी ख़ुशी में ही ये खुश हो जाते हैं.
आज टीनेजर बच्चों को टीचर तो दूर माता-पिता भी हाथ लगाने की नहीं सोच सकते.पर गोल मिस करने पर,या कैच छोड़ देने पर कोच थप्पड़ लगा देता है,और ये बच्चे चुपचाप सर झुकाए सह लेते हैं.एक बार भी विरोध नहीं करते.
समानता का पाठ भी खेल से बढ़कर कौन सीखा सकता है? अभी कुछ दिनों पहले पास के मैंदान में ही अंडर 14 का मैच था.आमने सामने थे,धीरुभाई अम्बानी स्कूल,(जिसमे शाहरुख़,सचिन,सैफ,अनिल,मुकेश अम्बानी के बच्चे पढ़ते हैं) और सेंट फ्रांसिस (जिसमे माध्यम वर्ग के घर के बच्चों के साथ साथ,ऑटो वाले और कामवालियों के बच्चे भी पढ़ते हैं...स्कूल अच्छा है,और fully aided होने की वजह से फीस बहुत कम है.)धीरुभाई स्कूल का कैप्टन था शाहरुख़ का बेटा और सेंट फ्रांसिस का कैप्टन था एक ऑटो वाले का बेटा.जिसकी माँ,मोर्निंग वाल्क करने वालों को एक छोटी से फोल्डिंग टेबल लगा,करेले,आंवले,नीम वगैरह का जूस बेचती है.हम भी, कभी कभी सुबह सुबह मुहँ कड़वा करने चले जाते हैं.उसने उस दिन लड्डू भी खिलाये,बेटे की टीम जीत गयी थी.निजी ज़िन्दगी में ये बच्चे एक साथ कभी बैठेंगे भी नहीं पर मैंदान में धक्के भी मारे होंगे,गिराया भी होगा,एक दूसरे को..
अफ़सोस होता है...यह सबकुछ जानते समझते हुए भी हम मजबूर हो जाते हैं...क्यूंकि दसवीं में जमकर पढाई नहीं की तो अच्छे कॉलेज में एडमिशन नहीं मिलेगा.और फिर किसी वाईट कॉलर जॉब हंटिंग की भेड़ चाल में शामिल कैसे हो पायेंगे ,ये नन्हे खिलाड़ी.

Saturday, November 21, 2009

जब आसमान कुछ ज्यादा करीब लगता था !!

पिछली पोस्ट में की पत्रिकाओं,आलेखों और पत्रों के जिक्र ने जैसे मुझे यादों की वादियों में धकेल दिया और अभी तक मैं उनमे ही भटक रही हूँ.कई लोगों ने मेरे छपे आलेखों के बारे में भी पूछा,सोचा आपलोगों को भी उन वादियों की थोड़ी सैर करा दूँ.

दसवीं उत्तीर्ण कर कॉलेज में कदम रखा ही था.स्कूल हॉस्टल के जेलनुमा माहौल के बाद,कॉलेज में आसमान कुछ ज्यादा करीब लगता,धूप सहलाती हुई सी और हवा गुनगुनाती हुई सी लगती. मौलिश्री के पेड़ के नीचे बैठ गप्पें मारना,किताबें पढना,कमेंट्री सुनना हम सहेलियों का प्रिय शगल था.उसी दौरान एक पत्रिका 'क्रिकेट सम्राट' के सम्पादकीय पर नज़र पड़ी.पूरे सम्पादकीय में अलग अलग तरह से सिर्फ यही लिखा था कि 'लड़कियों को खेल के बारे में कुछ नहीं मालूम, उन्हें सिर्फ खिलाड़ियों से मतलब होता है'.मुझे बहुत गुस्सा आया क्यूंकि मुझे खेल में बहुत रूचि थी.क्रिकेट,हॉकी,टेनिस कभी खेलने का मौका तो नहीं मिलता पर इन खेलों के बारे में छपी ख़बरों पर मेरी पूरी नज़र रहती.मुझे सब चलती फिरती 'रेकॉर्ड बुक' ही कहा करते थे.यूँ छोटे भाइयों को क्रिकेट खेलते देख,मन तो मेरा भी होता खेलने को.पर मैं बड़ी थी. छोटी बहन होती तो शायद जिद भी कर लेती,"भैया मुझे भी खिलाओ" पर मैं बड़ी बहन की गरिमा ओढ़े कुछ नहीं कहती.एक बार मेरे भाई की शाम में कोई मैच थी और उसे बॉलिंग की प्रैक्टिस करनी थी.उसने मुझसे बैटिंग करने का अनुरोध किया.मैंने अहसान जताते हुए,बल्ला थामा .भाई ने बॉल फेंकी,मैंने बल्ला घुमाया और बॉल बगल वाले घर को पार करती हुई जाने कहाँ गुम हो गयी.भाई बहुत नाराज़ हुआ,मुझे भी बुरा लगा,ये लोग कंट्रीब्यूट करके बॉल खरीदते थे. ममी पैसे देने को तैयार थीं पर भाई ने जिद की कि बॉल मैंने गुम की है,मुझे अपनी गुल्लक से पैसे निकाल कर देने पड़ेंगे.शायद बॉल गुम हो जाने से ज्यादा खुन्नस उसे अपनी बॉल पर सिक्सर लग जाने का था. वो मेरी ज़िन्दगी का पहला और आखिरी शॉट था.

अखबार भी मैं हमेशा पीछे से पढना शुरू करती थी.क्यूंकि अंतिम पेज पर ही खेल की ख़बरें छपती थीं.इस चक्कर में एक बार अपने चाचा जी से डांट भी पड़ गयी.उन्होंने किसी खबर के बारे में पूछा और मेरे ये कहने पर कि अभी नहीं पढ़ा है. डांटने लगे,"लास्ट पेज पढ़ रही हो और अभी तक पढ़ा ही नहीं है." इस पर जब मैंने 'क्रिकेट सम्राट' में लड़कियों पर ये आरोप देखा तो मेरा खून जलना स्वाभाविक ही था.मैंने एक कड़ा विरोध पत्र लिखा और उसमे संपादक की भी खूब खिल्ली उडाई क्यूंकि हमेशा अंतिम पेज पर किसी खिलाडी के साथ, उनकी खुद की तस्वीर छपती थी.सहेलियों ने जब कहा ,'वो नहीं छापेगा' तो मैंने दो और पत्र,एक नम्र स्वर में और एक मजाकिया लहजे में लिखा और 'रेशु' और अपने निक नेम 'रीना' के नाम से भेज दिया.सारी 'डे स्कॉलर' सहेलियों को नए अंक चेक करते रहने के लिए कह रखा था.हमारी केमिस्ट्री की क्लास चल रही थी और शर्मीला कुछ देर से आई. उसने 'में आई कम इन' जरा जोर से कहा तो हम सब दरवाजे की तरफ देखने लगे.शर्मीला ने मुझे 'क्रिकेट सम्राट' का नया अंक दिखाया और इशारे से बताया 'छप गयी है'.अब मैं कैसे देखूं?..मैं सबसे आगे बैठी थी और शर्मीला सबसे पीछे और 45 मिनट का पीरियड अभी बाकी था.नीचे नीचे ही पास होती पत्रिका मुझ तक पहुंची.देखा,एक अलग पेज पर मेरे तीनो पत्र छपे हैं,और एक कोने में संपादक की क्षमा याचना भी छपी है.फिर तो नीचे नीचे ही पूरा क्लास वो पेज पढता रहा और मैडम chemical equations सिखाती रहीं.

छुट्टियों में घर जा रही थी.ट्रेन में सामने बैठे एक लड़के को 'क्रिकेट सम्राट' पढ़ते हुए देखा. जैसे ही उसने पढ़ कर रखी,मैंने अपने हाथ की मैगज़ीन उसे थमा,उसकी पत्रिका ले ली.(आज भी मुझे किताबें या पत्रिका मांगने में कोई संकोच नहीं होता.फ्रेंड्स के घर में कोई किताब देख निस्संकोच कह देती हूँ,पढ़ कर मुझे देना,इतना ही नहीं,रौब भी जमाती हूँ,इतना स्लो क्यूँ पढ़ती हो, जल्दी खत्म करो).मिडल पेज पर देखा संपादक ने बाकायदा एक परिचर्चा आयोजित कर रखी थी."क्या लड़कियों का क्रिकेट से कोई वास्ता है" पक्ष और विपक्ष के कई लोगों ने मेरे लिखे पत्र का उल्लेख किया था.अब मैं किसे बताऊँ?पापा,बगल में बैठे एक अंकल से बात करने में मशगूल थे, बीच में टोकना अच्छा नहीं लगा.यूँ भी पापा ने ज्यादा ख़ुशी नहीं दिखाई थी. गंभीर स्वर में बस इतना कहा था 'ये सब ठीक है,पर अपनी पढाई पर ध्यान दो"उन्हें डर था कहीं मैं साइंस छोड़कर हिंदी ना पढने लगूँ.मैंने चुपचाप उसे पत्रिका वापस कर दी,ये भी नहीं बताया की इसमें जिस ;रश्मि' की चर्चा है,वो मैं ही हूँ.जान पहचान वाले लड़कों से ही हमलोग ज्यादा बांते नहीं करते थे,अनजान लड़के से तो नामुमकिन था.ये बात, मुंबई की मेरी सहेलियां बिलकुल नहीं समझ पातीं.

वह पत्रिका फिर मुझे नहीं मिली पर इससे मेरे आत्मविश्वास को बड़ा बल मिला.मेरा लिखा, छपता ही नहीं लोग पढ़ते भी हैं और याद भी रखते हैं.फिर तो मैं काफी लिखने लगी.खासकर 'धर्मयुग','साप्ताहिक हिन्दुस्तान' के युवा जगत में मेरी रचनाएं अक्सर छपती थीं.जब पहली बार 100 रुपये का चेक आया तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ.छप जाना ही एक रिवार्ड सा लगता,इसके पैसे भी मिलेंगे, ये तो सोचा ही नहीं था.पर मुझे ख़ास ख़ुशी नहीं होती.चेक तो बैंक में जमा हो जाते.कैश होता तो कोई बात भी थी.
लोगों के पत्र आने भी शुरू हो गए.एक बार जयपुर से एक पोस्टकार्ड मिला.लिखा था,"मैं 45 वर्षीय पुरुष हूँ,मेरे दो पुत्र और तीन पुत्रियाँ हैं,आपका साप्ताहिक हिदुस्तान में छपा लेख पढ़ा,अच्छा लगा,वगैरह वगैरह.हमलोग सिर्फ 'धर्मयुग', 'सारिका' और 'इंडिया टूडे' लेते थे.अबतक तो वह अंक bookstall पर भी नहीं मिलता.मैंने छत पर से, एक बार दो घर छोड़कर एक लड़के को 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' पढ़ते देखा था.(कॉलेज में मेरी सहेलियां कहा करती थीं,'रश्मि को किताबों की खुशबू आती है...किसी ने कितनी भी छुपा कर कोई किताब रखी हो,मेरी नज़र पड़ ही जाती.)वे लोग नए आये थे,हमारी जान पहचान भी नहीं थी.मैंने नौकर को कई बार रिहर्सल कराया कि कैसे क्या कहना है.और उनके यहाँ भेजा .आज तक नहीं पता उसने क्या कहा,पर उस लड़के ने 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान के 3 , 4 अंक भेज दिए.कई दिन तक सब मुझे चिढाते रहें,'और तुम्हारा 45 वर्षीय मित्र कैसा है?"

पूरे भारत से ही पत्र आते थे पर अल्मोड़ा, इंदौर और नागपुर के पत्र कुछ ख़ास लगते क्यूंकि मेरी प्रिय लेखिका,शिवानी,मालती जोशी और सूर्यबाला के शहर से होते. .जबाब तो मैं खैर उन पत्रों का भी नहीं देती.सुदूर नाइजीरिया से जब किसी ने लिखा था,'पापी पेट के वास्ते यहाँ पड़ा हूँ'तो उसपर बड़ी दया आई थी. इनमे से कुछ पत्र जेनुइन भी होते.एक बार 'धर्मयुग' में मेरा एक संस्मरण छपा था.मैंने लिखा था,'घर में बहुत मेहमान होने की वजह से मैं एक छोटे से कमरे में सो रही थी जो पुरानी किताबों,अखबारों से भरा हुआ था.एक टेबल फैन लगाया था.आधी रात को अचानक नींद
खुली तो देखा टेबल फैन के पीछे से छोटी छोटी आग की लपटें उठ रही थीं.भगवान ने वक़्त पर नींद खोल दी वरना कमरे में आग लग जाती " इस पर चंडीगढ़ से एक लड़के ने अपने पत्र में बाकायदा उस कमरे का स्केच बनाया था और लिखा था कि कमरा छोटा होने की वजह से प्रॉपर वेंटिलेशन नहीं होगा.और आग की लपटों के साथ धुआं भी निकला होगा.जिससे आपका गला चोक हो गया होगा और नींद खुल गयी.इसमें भगवान का कोई चमत्कार नहीं है.'धर्मयुग' वालों ने भी यह नहीं सोचा था.पर इन फैनमेल्स ने मेर अहित भी कम नहीं किया. पता नहीं मेरी कहानियाँ छपती या नहीं.पर मैंने डर के मारे कभी भेजी ही नहीं.सोचा,इतने रूखे-सूखे सब्जेक्ट पर लिखती हूँ तब तो इतने पत्र आते हैं.पता नहीं कहानी छपने पर लोग क्या सोचें और क्या लिख डालें.

हमलोग गिरिडीह में थे,वहां जन्माष्टमी में हर घर में बड़ी सुन्दर झांकी सजाई जाती.मेरे पड़ोस में छोटे छोटे बच्चों ने एक शहर का दृश्य बनाया था.सड़कों का जाल सा बिछाया था.पर हर सडक पर छोटे छोटे खिलौनों की सहायता से कहीं जीप और ट्रक का एक्सीडेंट,कहीं पलटी हुई बस तो कहीं गोला बारी का दृश्य भी दर्शाया था.यह सब देख मैंने एक लेख लिखा,'बच्चों में बढती हिंसा प्रवृति' और मनोरमा में भेज दिया.काफी दिनों बाद एक आंटी घर आई थीं,जन्माष्टमी की चर्चा चलने पर मैं उन्हें ये सब बताने लगी.उन्होंने कहा, 'अरे ऐसा ही एक लेख मैंने मनोरमा में पढ़ा है'और मैं ख़ुशी से चीख पड़ी, 'अरे वो छप भी गया'.आस पास सब मुझे 'रीना' नाम से जानते थे.'रश्मि' नाम किसी को पता ही नही था.

दहेज़ मेरा प्रिय विषय था.और कहीं भी मौका मिले मैं उसपर जरूर लिखती थी.एक बार शायद 'रविवार' में एक लेख लिखा था.'लडकियां आखिर किस चीज़ में कम हैं कि उसकी कीमत चुकाएं'. लेख का स्वर भी बहुत रोष भरा था.पापा व्यस्त रहते थे,उन्हें पत्रिका पढने की फुर्सत कम ही मिलती थी.हाँ अखबार का वे एक एक अक्षर पढ़ जाते थे (आज भी).एक बार वे बीमार थे और समय काटने के लिए सारी पत्रिकाएं पढ़ रहें थे.उनकी नज़र इस लेख पर पड़ी और उन्होंने ममी को आवाज़ दी, 'देखो तो जरा, आजकल लड़कियां क्या क्या लिखती हैं' ममी ने बताया ,'ये तो रीना ने लिखा है' मैं जल्दी से छत पर भाग गयी,कहीं बुला कर जबाब तलब ना शुरू कर दें.पर पापा ने कोई जिक्र नहीं किया.एक बार उन्होंने मेरा लेखन acknowledge किया था जब किसी स्थानीय पत्रकार ने उन्हें धमकी दी थी कि लोकल अखबार में उनके खिलाफ लिखेगा. उन्होंने जबाब में कहा था ,'मुझे क्या धमकी दोगे,मेरी बेटी नेशनल मैगजींस में लिखती है' ये बात भी पापा ने नहीं ,प्यून ने बतायी थी.

फिर धीरे धीरे एक एक कर धर्मयुग,साप्ताहिक हिन्दुस्तान,सारिका सब बंद होने लगे.मैं भी घर गृहस्थी में उलझ गयी.मुंबई में यूँ भी हिंदी अखबार ,पत्रिकाएं बड़ी मुश्किल से मिलते हैं. हिंदी से रिश्ता ख़तम सा हो गया था.अब ब्लॉग जगत की वजह से वर्षों बाद हिंदी पढने ,लिखने का अवसर मिल रहा है.AND I AM LOVING IT

Sunday, November 15, 2009

खाली नहीं रहा कभी, यादों का ये मकान

चुनाव के दौरान हुए अनुभवों वाली पोस्ट के बाद ही यह पोस्ट लिखने वाली थी पर कुछ समसामयिक विषय सामने आ गए और लिखना टलता गया.मेरे पिताजी, अगर अपने कार्यकाल के दौरान हुए अपने अनुभवों को लिखें तो शायद एक ग्रन्थ तैयार हो जाए.किस्से तो मैंने भी कई सुने कि कैसे दंगों के दौरान पापा ने एक अलग सम्प्रदाय के लोगों को दो दिन तक घर में पनाह दी थी.वे लोग दो दिन तक पलंग के नीचे छुपे रहें.पलंग पर जमीन छूती चादर बिछी रहती.घर में आने जाने वाले लोगों को पता भी नहीं चलता कि कोई छुपा हुआ है.पापा घर में ताला बंद कर ऑफिस जाते.उनमे से एक को सिगरेट पीने कि आदत थी,उन्होंने रिस्क लेकर एक सिगरेट सुलगाई और बंद खिड़की की दरार से निकलती धुँए की लकीर देख, दंगाइयों ने पूरा घर घेर लिया था.शक तो उन्हें पहले से था ही.संयोग से पुलिस ने वक़्त पर आकर स्थिति संभाल ली.ऐसे ही एक बार दंगे में पापा की पूरी शर्ट खून से रंग लाल हो गयी थी.भीड़ में से किसी ने घर पर खबर कर दी और घर पर रोना,धोना मच गया.बाद में पापा की खैरियत देख सबको तसल्ली हुई.

हॉस्टल में रहने के कारण ,मैंने किस्से ही ज्यादा सुने पर एकाध बार मुझे भी ऐसी स्थितियों का सामना करना पड़ा.इस बार पापा की पोस्टिंग एक नक्सल बहुल क्षेत्र में थी.मेरे कॉलेज की छुट्टियाँ कुछ जल्दी हो गयी थीं,लिहाज़ा दोनों छोटे भाइयों के घर आने से पहले ही मैं घर आ गयी थी.फिर भी मैं बहुत खुश थी क्यूंकि इस बार,छुट्टियाँ बिताने,मेरे मामा की लड़की 'बबली' भी आई हुई थी. वी.सी.आर.पर कौन कौन सी फिल्मे देखनी हैं,किचेन में क्या क्या एक्सपेरिमेंट करने हैं...हमने सब प्लान कर लिया था.उसपर से हमारा मनोरंजन करने को एक नया नौकर ,जोगिन्दर भी था.जो फिल्मो और रामायण सीरियल का बहुत शौकीन था.जब भी हम बोर होते,कहते,"जोगिन्दर एक डायलॉग सुना." और वह पूरे रामलीला वाले स्टाईल में कहता--"और तब हनुमान ने रावण से कहा..."या फिर शोले के डायलॉग सुनाता.हम हंसते हंसते लोट पोट हो जाते पर वह अपने डायलॉग पूरा करके ही दम लेता.

दिन आशानुकूल बीत रहें थे,बस कभी कभी शाम को घर में कुछ बहस हो जाती.पास के शाहर के एक अधिकारी का मर्डर हो गया था.और पापा को उनका कार्यभार भी संभालने का निर्देश दिया गया था.घर वाले और सारे शुभेच्छु पापा को मना कर रहें थे पर पापा का कहना था, "ऐसे डर कर कैसे काम चलेगा.मुझे यहाँ के काम से फुरसत नहीं मिल रही वरना वहां का चार्ज तो लेना ही है."

एक दिन शाम को हमलोग 'चांदनी' फिल्म देख कर उठे.बबली किचेन में जोगिन्दर को 'स्पेशल चाय' बनाना सिखाने चली गयी.ममी भगवान को दीपक दिखा रही थीं.प्यून उस दिन की डाक दे गया था ,मैं वही देख रही थी (कभी हमारे भी ऐसे ठाठ थे). उन दिनों मेरी डाक ही ज्यादा आया करती थी.मैंने पत्र पत्रिकाओं में लिखना शुरू कर दिया था.'धर्मयुग','साप्ताहिक हिन्दुस्तान",'मनोरमा' 'रविवार' वगैरह में मेरी रचनाएं छपने लगी थी.लिहाजा ढेर सारे ख़त आते थे.मेरे ५ साल के लेखन काल में करीब ७५० ख़त मुझे मिले ,जबकि मैं नियमित नहीं लिखा करती थी.कभी कभी तो इन पत्रों से ही पता चलता कि मेरी कोई रचना छपी है.फिर पड़ोसियों के यहाँ ,पेपर वाले के यहाँ पत्रिका ढूंढनी शुरू होती.हालांकि ये इल्हाम मुझे था कि ये पत्र मेरे अच्छे लेखन की वजह से नहीं आ रहें.उन दिनों इंटरनेट की सुविधा तो थी नहीं.इसलिए लड़कियों से interact करने का सिर्फ एक तरीका था.किसी पत्रिका में तस्वीर और पता देख, ख़त लिख डालो.सारे पत्र शालीन हुआ करते थे,पर कुछ ख़त बड़े मजेदार होते थे.दो तीन ख़त तो सुदूर नाईजीरिया से भी आये थे..मैं किसी पत्र का जबाब नहीं देती थी पर हम सब मजे लेकर सारे ख़त पढ़ते थे.थोडा अपराधबोध भी रहता था क्यूंकि ममी पापा को लगता था मेरी पढाई पर असर पड़ेगा इसलिए वे मेरी लेखन को ज्यादा बढावा नहीं देते थे.

उन पत्रों में से एक पत्र था तो पापा के नाम पर मुझे लिखावट मेरे दादाजी की लगी,लिहाज़ा मैंने पत्र खोल लिया.पढ़कर तो मेरी चीख निकल गयी.ममी, बबली,जोगिन्दर सब भागते हुए आ गए.उस पूरे पत्र में पापा को अलग अलग तरह से धमकी दी गयी थी कि अगर उन्होंने 'अमुक' जगह का चार्ज लिया तो सर कलम कर दिया जायेगा..एक मर्डर वहां हो भी चुका था.हमारे तो प्राण कंठ में आ गए.पापा मीटिंग के लिए पटना गए हुए थे.जल्दी से जोगिन्दर को भेज 'प्यून' को बुलवाया गया.शायद वह कुछ बता सके.वो प्यून यूँ तो इतना तेज़ दिमाग था कि हमारे साथ यू.एस.ओपन देख देख कर लॉन टेनिस के सारे नियम जान गया था. बिलकुल सही जगह पर 'ओह' और 'वाह' कहता.पर अभी उस मूढ़मति ने बिना स्थिति की गंभीरता समझे कह डाला,"साहब तो कह रहें थे कि मीटिंग जल्दी ख़तम हो गयी तो वहां का चार्ज ले कर ही लौटेंगे." हम सबकी तो जैसे सांस रुक गयी. पर पापा का इंतज़ार करने के सिवा कोई और चारा नहीं था.सो चिंता से भरे हम सब सड़क पर टकटकी लगाए,बरामदे में ही बैठ गए.तभी जैसे सीन को कम्लीट करते हुए बारिश शुरू हो गयी.बारिश हमेशा से मुझे बहुत पसंद है पर आज तो लगा जैसे पट पट पड़ती बारिश कि बूँदें हमारी हालत देख ताली बजा रही हैं.बिजली की चमक भी मुहँ चिढाती हुई सी प्रतीत हुई. बारिश शुरू होते ही बिजली विभाग द्वारा बिजली काट दी जाती थी ताकि कहीं कोई तार टूटने से कोई दुर्घटना ना हो जाए.बिलकुल किसी हॉरर फिल्म से लिया गया दृश्य लग रहा था.....कमरे में हवा के थपेडों से लड़ता धीमा धीमा जलता लैंप,अँधेरे में बैठे डरे सहमे लोग और बाहर होती घनघोर बारिश.तभी दूर से एक तेज़ रौशनी दिखाई दी.पास आने पर देखा कोई ५ सेल की टॉर्च लिए सायकल पे सवार हमारे घर की तरफ ही आ रहा है.हमारी जान सूख गयी.पर जब वह हमारा गेट पारकर चला गया तो हमारी रुकी सांस लौटी.

दूर से पापा की जीप की हेडलाईट दिखी और हमने राहत की सांस ली.ममी ने कहा,"तुंरत कुछ मत कहना, हाथ पैर धोकर. खाना खा लें,तब बताएँगे" पर पापा ने जीप से उतरते ही ड्राइवर को हिदायत दी,"कल सुबह जरा जल्दी आना.पहले मैं वहां का चार्ज लेकर आऊंगा तभी अपने ऑफिस का काम शुरू करूँगा."ममी जैसे चिल्ला ही पड़ीं,"नहीं, वहां बिलकुल नहीं जाना है" फिर पापा को पत्र दिया गया.सबसे पहले हम लड़कियों पर नज़र पड़ी.इन्हें यहाँ से हटाना होगा.पटना में मेरे छोटे मामा का घर खाली पड़ा था.मामा छः महीने के लिए बाहर गए हुए थे और मामी अपने मायके में थीं.हमें आदेश मिला,"अपना अपना सामान संभाल लो,सुबह ड्राइवर मामा के घर छोड़ आएगा"
खाना वाना खाते, बातचीत करते रात के बारह बज गए,तब जाकर मैंने और बबली ने अपनी चीज़ें इकट्ठी करनी शुरू कीं.बिस्तर पर दोनों अटैचियाँ खोले हम अपना अपना सामान जमा रहें थे कि हमारी नज़र नेलपौलिश पर पड़ी.हमने तय किया नेलपौलिश लगाते हैं.रात के दो बज रहें थे तब.ममी हमारी खुसपुस सुन कमरे में हमें देखने आयीं.(ये ममी लोगों की एंट्री हमेशा गलत वक़्त पर ही क्यूँ होती है??) हमें नेलपौलिश लगाते देख जम कर डांट पड़ी.और हम बेचारे अपनी अपनी दसों उंगलियाँ फैलाए डांट सुनते रहें.क्यूंकि झट से किसी काम में उलझने का बहाना भी नहीं कर सकते थे.नेलपौलिश खराब हो जाती.

सुबह सुबह मैं और बबली,पटना के लिए रवाना हो गए.पता नहीं,स्थिति की गंभीरता हम पर तारी थी या अकेले सफ़र करने का हमारा ये पहला अनुभव था.ढाई घंटे के सफ़र में हम दोनों, ना तो एक शब्द बोले,ना ही हँसे.जबकि आज भी हम फ़ोन पर बात करते हैं तो दोनों के घरवालों को पूछने की जरूरत नहीं होती कि दूसरी तरफ कौन है?,ना तो हमारी हंसी ख़तम होती है,ना बातें.
ड्राईवर हमें घर के बाहर छोड़ कर ही चला गया,दोपहर तक ममी को भी आना था.पड़ोस से चाभी लेकर जब हमने घर खोला,तो हमारे आंसू आ गए.घर इतना गन्दा था कि हम अपनी अटैची भी कहाँ रखें,समझ नहीं पा रहें थे.मामी के मायके जाने के बाद कुछ दिनों तक मामा अकेले थे और लगता था अपनी चंद दिनों की आज़ादी को उन्होंने भरपूर जिया था.सारी चीज़ें बिखरी पड़ी थीं.बिस्तर पर आधी खुली मसहरी,टेबल पर पड़े सिगरेट के टुकड़े,किचेन प्लेटफार्म पर टूटे हुए अंडे,जाने कब से अपने उठाये जाने की बाट जोह रहें थे.'जीवाश्म' क्या होता है,पहली बार प्रैक्टिकली जाना.डब्बे में एक रोटी पड़ी थी.जैसे ही फेंकने को उठाया,पाया वह राख हो चुकी थी.

मैंने और बबली ने एक दूसरे को देखा और आँखों आँखों में ही समझ गए,सारी सफाई हमें ही करनी पड़ेगी.कपड़े बदल हम सफाई में जुट गए.बस बीच बीच में एक 'लाफ्टर ब्रेक' ले लेते.कभी बबली मुझे धूल धूसरित,सर पर कपडा बांधे, लम्बा सा झाडू लिए जाले साफ़ करते देख,हंसी से लोट पोट हो जाती तो कभी मैं उसे पसीने से लथपथ,टोकरी में ढेर सारा बर्तन जमा कर , मांजते देख हंस पड़ती.कभी हम,डांट सुनते हुए लगाई गयी अपनी लैक्मे की नेलपौलिश की दुर्गति देख समझ नहीं पाते,हँसे या रोएँ.
दो तीन घंटे में हमने घर को शीशे सा चमका दिया और नहा धोकर ममी की राह देखने लगे.अब हमें जबरदस्त भूख लग आई थी.किचेन में डब्बे टटोलने शुरू किये तो एक फ्रूट जूस का टिन मिला. टिनक़टर तो था नहीं,किसी तरह कील और हथौडी के सहारे उसे खोलने की कोशिश में लगे.मेरा हाथ भी कट गया पर डब्बा खोलने में कामयाबी मिल गयी.बबली ताजे धुले कांच के ग्लास ले आई.हमने इश्टाईल से चीयर्स कहा और एक एक घूँट लिया.फिर एक दूसरे की तरफ देखा और वॉश बेसिन की तरफ भागे.जूस खराब हो चुका था.वापस किचेन में एक एक डब्बे खोल कर देखने शुरू किये.एक डब्बे में मिल्क पाउडर मिला.डरते डरते एक चुटकी जुबान पर रखा,पर नहीं मिल्क पाउडर खराब नहीं हुआ था.फिर तो हम चम्मच भर भर कर मिल्क पाउडर खाते रहें,और बातों का खजाना तो हमारे पास था ही.सो वक़्त कटता रहा..
वहां का काम समेटते ममी को आने में शाम हो गयी.हमने उन्हें घर के अन्दर नहीं आने दिया.फरमाईश की,पहले हमारे लिए,समोसे,रसगुल्ले,कचौरियां लेकर आओ,फिर एंट्री मिलेगी.

Saturday, November 7, 2009

कौन जगायेगा अलख???

पिछले दिनों मेरी कामवाली बाई ने जल्दी जाने की छुट्टी मांगी क्यूंकि उसे बैंक जाना था,मैंने यूँ ही हंस कर पूछ लिया... और पैसे जमा करने है?कहने लगी,..ना..पैसे निकाल कर घर भेजने हैं, दस हज़ार का इन्तजाम और करना है...मैं आश्चर्य में डूब गयी...अभी कुछ ही दिन पहले उसने सात हज़ार रुपये मुझसे गिनवा कर बैंक में जमा किये थे,मुझसे अपना पास बुक भी चेक करवाया था.उसके खाते में पहले से पांच हज़ार की रकम देखकर मुझे बहुत ख़ुशी हुई थी...चलो दिन रात मेहनत करती है...कुछ पैसे तो जमा कर रखे हैं और आज वो सारे पैसे घर भेज रही थी ऊपर से क़र्ज़ लेने को भी तैयार....पता चला उसकी दादी गुजर गयीं हैं और उनके श्राद्ध के लिए पैसे चाहिए...इसके पिता की मृत्यु हो चुकी थी ..और कोई भाई भी नहीं इसलिए माँ को पैसे भेजने की जिम्मेवारी उसकी है.

मुझे श्राद्ध के धार्मिक कृत्यों के बारे में ज्यादा मालूम नहीं. लोगों को भोज खिलाने..दान पुण्य करने से सचमुच उनकी आत्मा को शांति मिलती है या नहीं,पता नहीं. पर इतना जरूर पता है कि धरती पर बचे लोगों की ज़िन्दगी में कई बार घोर अशांति आ जाती है...इन पैसों से वो मेरी बाई कितना कुछ कर सकती थी और कितना कुछ करने का सपना उसने देखा होगा. मैंने उसे कितना समझाया.....माँ को ही अगर ये पैसे देने हैं तो वह इन पैसों से...अपने घर की मरम्मत करवा सकती है,एक गाय खरीद सकती है लेकिन वो मुझे उल्टा समझाने लगी...आपको नहीं मालूम,अगर पूरे गाँव को भोज नहीं खिलाया तो गाँव वाले हमें जात बाहर कर देंगे,हमारा हुक्का पानी बंद कर देंगे...हमारे घर का पानी कोई नहीं पिएगा,हमें किसी शादी ब्याह,जन्मोत्सव में नहीं बुलाएँगे. एक बार तो मैंने खिन्न मन से ये भी कह दिया,क्या फर्क पड़ता है,बस पांच पंडित को खिला दो और माँ को यहीं बुला लो.लेकिन मुझे पता था मेरे लिए कहना आसान है.पर अपनी जड़ों से कटकर कौन रह पाया है? ये लोग इतने कष्ट में यहाँ रहते हैं पर कभी बताना नहीं भूलते, घर में हमारा अपना मकान है,खेती बाड़ी है,..यह बताते हुए इनकी आँखों में जो चमक आ जाती है.उस से कैसे महरूम किया जा सकता है...शायद एक एक पैसे जोड़ते हुए इनकी ज़िन्दगी चली जाए पर मन में ये सपना जरूर पलता रहता है कि बहुत सारे पैसे जमा कर लेंगे फिर गाँव जाकर आराम की ज़िन्दगी बसर करेंगे,इसी सपने के सहारे ये इस महानगर की कड़वी हकीकत रोज झेलते हैं.

लेकिन इन आडम्बरों में अगर ये अपनी पसीने की कमाई ऐसे बहाते रहेंगे तो कैसे जोड़ पायेंगे पैसे?बचपन में गाँव जाना होता था,तो ऐसी बाते सुनने को मिलती थीं. इतने दिनों बाद भी, कहीं कुछ नहीं बदला,वही जन्म जन्मान्तर का क़र्ज़ जिसे दादा लेता है और पोते,परपोते चुकाते रहते हैं...ब्याज चुकाते ही सारी ज़िन्दगी चली जाती है,मूल तो वैसे ही अनछुआ पड़ा रहता है.फिल्मो में कुछ ज्यादा बढा चढा कर दिखाते हैं पर स्थिति सचमुच ज्यादा अलग नहीं..पर इस स्थिति को बदलने का बीडा कौन उठाएगा?ज्यादातर पढ़े लिखे लोग नौकरी की तलाश में शहर का रुख कर लेते हैं और जो एकाध शिक्षित घर होते हैं वे इन गरीबों को क़र्ज़ देने का काम करते हैं.वे तो उन्हें इस से दूर रहने की सलाह देंगे नहीं.कौन इसके विरूद्व अलख जगायेगा,ये सचमुच चिंता का विषय है.
बरसों पहले गोदान पढ़ी थी और उसके बरसों पहले वह लिखी गयी थी पर आज भी हर गाँव में ना जाने कितने 'होरी' और कितने 'गोबर' ज़िन्दगी की उसी पुरानी जद्दोजहद
से जूझ रहें हैं.

बाई यह भी बता रही थी कि बहुत सारी चीज़ें दान करनी पड़ेंगी. कहीं सुनी एक कहावत याद आ गयी."जिंदे को ना पूछे बात...मरे को दूध और भात' चाहे फटे चिथडों में ज़िन्दगी गुजरी हो,,टूटी चारपाई भी नसीब ना हो.पर मरने के बाद,नए कपड़े,चारपाई,गद्दे सब दान किये जाते हैं .कुछ बदले हुए रूप में ही सही पर ऐसा संपन्न घरों में भी खूब होता है.बचपन की ही एक घटना है,मेरे पड़ोस में एक वृधा रहती थीं.घर वाले उनके साथ दुर्व्यवहार नहीं करते थे,खाने पीने,डॉक्टर दवा.सबका ख्याल रखते थे.पर इसके परे भी उन बूढे मन की भी कुछ ख्वाहिशें होती हैं,इससे निरपेक्ष थे. दादी की चप्पल टूट गयी थी,जिसे मोची से मरम्मत करवा दी गयी थी.उसने एक भद्दा सा कला रबर का टुकडा लगा दिया था.दादी को अपने भाई के पोते की शादी में जाना था.कई बार उन्होंने बेटे बहू से कहा,मुझे एक नयी चप्पल ला दो.पर किसी ने ध्यान नहीं दिया.अक्सर दादी कोने में पड़ी चारपाई पर लेटी रहतीं,हम बच्चे आस पास खेलते रहते थे,ना जाने दादी को कितनी बार खुद से कहते सुना,'लोग हसेंगे कि बेटा माँ का ख्याल नहीं रखता' यहाँ भी उन्हें अपने बेटे की इज्जत की ज्यादा फिकर थी..आखिर उन्हें एक दिन मय साजो समान के शादी में जाते देखा..पैरों में वही टूटी चप्पल थी.काफी दिनों बाद वे बीमार पड़ीं.मैं भी माँ के साथ,उन्हें देखने हॉस्पिटल गयी,देखा बेड के नीचे वही टूटी चप्पल रखी है.दादी गुजर गयीं,बड़ी धूमधाम से उनका श्राद्ध हुआ.पूरा खानदान जुटा,सारे शहर को न्योता था और दान में पलंग,बर्तन,कपडों के साथ थी,एक चमचमाती हुई नयी चप्पल...
किसी शायर की ये पंक्तियाँ याद आती हैं. "सारा शहर उसके जनाजे में था शरीक
तन्हाइयों के खौफ से, जो शख्स मर गया"

एक तरफ तो ये गरीब, अपनी सारी जमापूंजी खर्च करके,यहाँ तक कि क़र्ज़ लेकर भी सारे कर्मकांड निभाते हैं और दूसरी तरफ ये भी देखा कि लाखो कमाने वाले, साधारण औपचारिकता भी नहीं अपनाते.एक परिचित के पिता की मृत्यु हो गयी थी.जब वे बीमार थे पूरी सोसायटी के लोग उनका हालचाल पूछते रहते थे..पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने एक हवन रखा था.अपने कुछ रिश्तेदारों के अलावा सिर्फ हमें बुलाया था वो भी शायद इसलिए क्यूंकि मैं उन्हें दो बार हॉस्पिटल में देखने गयी थी.एक नौजवान पंडित हवन करवा रहा था.इतने लोगों को नतमस्तक, अपनी बाते सुनते देख शायद वह कुछ ज्यादा ही उत्साह में आ गया.बीच बीच में भजन गाने लगता और सबसे आग्रह करता कि 'एक पंक्ति मैं गाता हूँ,उसे आपलोग भी दुहरायें'.सबलोग तन्मयता से भजन गाते रहें.करीब ३ घंटे तक पूजा चली.फिर पंडित जी ने बोला सबलोग आकर प्रसाद ले लें.मैं बैठी रही,पहले घर वालों को लेना चाहिए.कुछ देर बाद पतिदेव ने इशारा किया...चलते हैं.हमने पति-पत्नी दोनों को दिलासा के दो शब्द कहे और इजाज़त मांगी...दोनों ने सर हिलाया.हाँ ठीक है.ये लोग मुंबई के नहीं हैं,इनके सारे नाते-रिश्तेदार अभी भी गाँव में ही हैं.पर यहाँ आकर,ये इतने बदल गए हैं.कैसी विडंबना है,कहीं तो कोई इसलिए परेशान है कि कोई मेरे घर का पानी नहीं पिएगा,और कहीं किसी को इतनी भी परवाह नहीं कि एक ग्लास पानी ही पूछ लें.

Wednesday, October 28, 2009

ऊसर भारतीय आत्माएं


एम्.ए. की परीक्षा की तैयारियों में व्यस्त थी.अंग्रेजी में कहें तो 'वाज़ बर्निंग मिड नाईट आयल' और उसी मिड नाईट में एक कोयल की कुहू सुनाई दी.बरबस ही माखनलाल चतुर्वेदी (जिनका उपनाम 'एक भारतीय आत्मा'था) की कविता "कैदी और कोकिला' याद हो आई....ऐसे ही उन्होंने भी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान,जेल के अन्दर एक कोयल की कुहू सुनी थी और उन्हें लगा था कोयल, क्रांति का आह्वान कर रही है.

कुछ अक्षर कागज़ पे बिखर गए जो अब तक डायरी के पीले पड़ते पन्नों में कैद थे.आज यहाँ हैं.

ऊसर भारतीय आत्माएं

रात्रि की इस नीरवता में
क्यूँ चीख रही कोयल तुम
क्यूँ भंग कर रही,निस्तब्ध निशा को
अपने अंतर्मन की सुन

सुनी थी,तेरी यही आवाज़
बहुत पहले
'एक भारतीय आत्मा' ने
और पहुंचा दिया था,तेरा सन्देश
जन जन तक
भरने को उनमे नयी उमंग,नया जोश.

पर आज किसे होश???

क्या भर सकेगी,कोई उत्साह तेरी वाणी?
खोखले ठहाके लगाते, मदालस कापुरुषों में
शतरंज की गोट बिठाते,स्वार्थलिप्त,राजनीतिज्ञ में

भूखे बच्चों को थपकी दे,सुलाती माँ में
माँ को दम तोड़ती देख विवश बेटे में
दहेज़ देने की चिंता से पीड़ित पिता
अथवा ना लाने की सजा भोगती पुत्री में

मौन हो जा कोकिल
मत कर व्यर्थ अपनी शक्ति,नष्ट
नहीं बो सकती, तू क्रांति का कोई बीज
ऊसर हो गयी है,'सारी भारतीय आत्मा' आज.

Monday, October 26, 2009

ब्लॉग जगत के दर्द को साझा करते,अमिताभ बच्चन


आजकल ब्लॉग जगत कई विवादों से घिरा हुआ है....इलाहाबाद में हुई संगोष्ठी पर भी कई लोगों ने लिखा है....एक जगह पढ़ा, स्वनामधन्य नामवर सिंह ने ब्लॉग जगत के अस्तित्व को ही नकार दिया था...और अब भी उन्हें काफी शिकायतें हैं....हिंदी,अंग्रेजी मीडिया के इस पक्षपातपूर्ण रवैये पर 'अमिताभ बच्चन' भी उतने ही व्यथित हैं....उन्होंने आज के अपने पोस्ट में इस दर्द से बखूबी परिचित कराया है...प्रस्तुत है, उनके ब्लॉग से उधृत अंश..

" The media dislikes the blog not because I write on it without their consent. The media dislikes the blog because we have created a family of devoted members in the shape of our FmXt, which believes me and not them.

My prayer therefore to all our extended family. Let us continue to grow so exponentially that we become a force to reckon with. A force that shall challenge those that challenge us. A force that shall question those that question us. A force that shall stand up and defend our right to express. A force that shall not be weak and vulnerable. A force that shall not bend before injustice and wrongful blame. A force that shall have its own voice.

A VOICE THAT SHALL BE HEARD AND FEARED … !!!

So help me God

Amitabh Bachchan

Saturday, October 24, 2009

DDLJ:अच्छा है कि 'राज' हमारी यादों में जिंदा एक फिल्म किरदार है

'चवन्नीचैप' हिंदी का मशहूर ब्लॉग है,जिसमे पहली बार मैंने 'हिंदी टाकिज' सिरीज़ के तहत हिंदी सिनेमा के अपने अनुभवों को लिखा....सबको बहुत पसंद आया और अजय जी ने मुझे अपना ब्लॉग शुरू करने की सलाह दे डाली....बहुत हिचकिचाते और डरते हुए मैंने अपना ब्लॉग बनाया....और आपलोगों के स्नेह और उत्साहवर्धन ने लिखते रहने के लिए प्रेरित किया.जब अजय जी ने 'दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे' के १४ साल पूरे होने पर इस फिल्म से जुड़े कुछ अपने अनुभव लिखने को कहा तो उनका आदेश सर माथे.....


डीडीएलजे से जुड़ी मेरी यादें कुछ अलग सी हैं. इनमे वह किशोरावस्था वाला अनुभव नहीं है,क्यूंकि मैं वह दहलीज़ पार कर गृहस्थ जीवन में कदम रख चुकी थी.शादी के बाद फिल्में देखना बंद सा हो गया था क्यूंकि पति को बिलकुल शौक नहीं था और दिल्ली में उन दिनों थियेटर जाने का रिवाज़ भी नहीं था.पर अब हम बॉम्बे(हाँ! उस वक़्त बॉम्बे,मुंबई नहीं बना था) में थे और यहाँ लोग बड़े शौक से थियेटर में फिल्में देखा करते थे.एक दिन पति ने ऑफिस से आने के बाद यूँ ही पूछ लिया--'फिल्म देखने चलना है?'(शायद उन्होंने भी ऑफिस में डीडीएलजे की गाथा सुन रखी थी.) मैं तो झट से तैयार हो गयी.पति ने डी.सी.का टिकट लिया क्यूंकि हमारी तरफ वही सबसे अच्छा माना जाता था.जब थियेटर के अन्दर टॉर्चमैन ने टिकट देख सबसे आगेवाली सीट की तरफ इशारा किया तो हम सकते में आ गए.चाहे,मैं कितने ही दिनों बाद थियेटर आई थी.पर आगे वाली सीट पर बैठना मुझे गवारा नहीं था.यहाँ शायद डी.सी.का मतलब स्टाल था.मुझे दरवाजे पर ही ठिठकी देख पति को भी लौटना पड़ा.पर हमारी किस्मत अच्छी थी,हमें बालकनी के टिकट ब्लैक में मिल गए.
फिल्म शुरू हुई तो काजोल की किस्मत से रश्क होने लगा...सिर्फ सहेलियों के साथ लम्बे टूर पर जाना. साथ-साथ मेरी कल्पना के घोडे भी दौड़ने लगे,काश!हमें भी ऐसा मौका मिला होता तो कितना मजा आता.शाहरुख़ खान के राज़ का किरदार तो जैसे दिल मानने को तैयार नहीं--'ऐसे लड़के भी होते हैं? एक अजनबी लड़की का इतना ख्याल रखना ...आरामदायक कमरा छोड़ इतनी ठंड में बाहर सोना..और उस पर से उसकी डांट....ना,ऐसा तो सिर्फ फिल्मों में ही हो सकता है'.पर जब उनका टूर ख़तम हो गया तो उनके बीच जन्म लेते नए कोमल अहसास बिलकुल सच से लगे. 'तुझे देखा तो ये जाना सनम...."इस गीत के पिक्चाराइजेशन ने भी इस अहसास को बड़ी खूबसूरती से उकेरा है.
फिल्म जब पंजाब में काजोल की शादी की तैयारियों तक पहुंची तो 'राज' का चेहरा किसी के चेहरे के साथ गडमड होने लगा.वह चेहरा था मेरे छोटे भाई 'विवेक' का.बिलकुल 'राज' की तरह ही वह उस शादी के घर में बिलकुल अजनबी था.लेकिन छोटे-बड़े, नौकर-चाकर, नाते-रिश्तेदार सबकी जुबान पर एक ही नाम होता था--'विवेक'
विवेक मेरे दूर का रिश्तेदार है,मेरी मौसी के देवर का बेटा...पर है बिलकुल मेरे सगे छोटे भाई सा. मैं छुट्टियों में अपनी मौसी के यहाँ गयी थी,वहीँ विवेक से मुलाक़ात हुई.हम दोनों में अच्छी जम गयी.वह दिन भर मुझे चिढाता रहता और मैं किसी से भी उसका परिचय यूँ करवाती--"ये विवेक हैं,जिनकी विवेक से कभी मुलाक़ात नहीं हुई"
मैं अपने चाचा की बेटी की शादी में गयी थी और वहां विवेक मुझसे मिलने आया.बिलकुल 'राज' की तरह वह बाकी लोगों से ऐसे घुल मिल गया जैसे बरसों की जान पहचान हो.मुझे याद नहीं कि किसी ने विवेक को शादी में फोर्मली इनवाइट किया हो पर जरूरत भी नहीं समझी,जैसे मान कर चल रहें हों,वह तो आएगा ही.और शादी के दिन सुबह से ही विवेक तैनात.आजकल तो स्टेज,मंडप की साज सज्जा,खाना पीना सब contract पर दे देते हैं पर उन दिनों हलवाई के सामने बैठकर खाना बनवाना,बाज़ार से राशन लाना,मंडप सजाना सब घर के लोग मिलकर ही करते थे.ऐसे में विवेक के दो अतिरिक्त उत्साही हाथ बहुत काम आ रहें थे.भैया का तो वह जैसे दाहिना हाथ ही हो गया था.
डी डी एल जे के राज की तरह वह किसी मकसद के तहत लोगों को खुश नहीं कर रहा था. बल्कि यह उसके स्वभाव में शामिल था.फिल्म की तरह गान बजाना तो उन दिनों नहीं होता था.पर 'राज' की तरह ही वह जब मौका मिलता बच्चों से घिरा रहता.और जहाँ कोई मामा,चाचा,दिख जाते कहता--"बच्चों, बोलो मामा की जय'.बच्चे भी गला फाड़ कर चिल्लाते.फिर वह मामा,चाचा से कहता,"पैसे निकालिए ,ये इतनी जयजयकार कर रहें हैं.".वे लोग भी हंसते-हंसते सौ पचास रुपये पकडा देते.और वह मुझे थमा देता,'जमा करो,सब मिलकर चाट खाने जायेंगे'
अमरीश पुरी की तर्ज़ में कई बड़े-बूढे उसे यूँ काम करता देख, ऐनक उठा,सीधे ही पूछ लेते."तुम किसके बेटे हो?"और वह मुझे इंगित कर कहता,"मैं इनका छोटा भाई हूँ"..क्या परिचय देता कि मैं लड़की की चाची की बहन के देवर का बेटा हूँ.
शादी की सुबह जब दूल्हा शेव कर तैयार होने लगा तो विवेक पहुच गया,"अरे आप दूल्हा हैं,खुद शेव करेंगे?..लाइए मैं शेव कर देता हूँ." और शेव करने के बाद बोला,"अब नेग निकालिए" लड़के ने भी मुस्कुराते हुए कुछ नोट पकडा दिए जो मेरे पास जमा हो गए.इस बार आइसक्रीम खाने के लिए
मेरे चाचा दिखने में तो अमरीश पुरी की तरह रौबदार नहीं थे.पर उनके बच्चों के साथ साथ हमलोग भी उनसे बहुत डरते थे.उस पर से जब बाराती छत पर पंगत में खाना खाने बैठे तो विवेक ने उनकी चप्पलें छुपा दीं.जब चप्पलें ढूंढी जाने लगी तो चाचा की क्रोधाग्नि में भस्म होने का हम सबको पूरा अंदेशा था.हमने विवेक को आगे कर दिया,तुम्हारा आइडिया था,तुम भुगतो.और वह चाचा से बहस करता रहा,'इनलोगों ने जनवासे में हमें कितना परेशान किया है,पहले सॉरी बोलें"पूरी शादी में पहली बार चाचा के चेहरे पर मुस्कान दिखी और उन्होंने विवेक को मनाया,चप्पलें वापस करने को.
विदा होते समय रूबी जोर-जोर से रो रही थी.भाई शायद पूरे साल बहन से झगड़ता हो,पर विदाई के समय बहन को रोते देख उसका दिल दो टूक हो जाता है,भैया ने विवेक को बोला,'तुम कार में साथ में बैठ जाओ,रास्ते में जरा उसे हंसाते हुए जाना."विवेक बोला..'अरे मेरे कपड़े नहीं हैं,कोई तैयारी नहीं है,ऐसे कैसे चला जाऊं?"...भैया ने बोला,'कोई बात नहीं,मैं कल लेता आऊंगा'और विवेक दुल्हन के साथ दूसरे शहर चला गया,जहाँ पहुँचने में कम से कम ८ घंटे लगते थे.


फिर बरसों बाद विवेक से मिलना हुआ.मेरे मन में उसकी वही शरारती छवि विद्यमान थी.पर १२वीं में पढने वाला वह लड़का, अब धीर गंभीर बैंक ऑफिसर बन चुका था,शादी भी हो गयी थी.मैंने पति से परिचय करवाया."ये विवेक है"(पर दूसरी पंक्ति कि 'जिसकी विवेक से कभी मुलाक़ात नहीं हुई' कहते कहते रुक गयी.) अच्छा है कि 'राज' एक फिल्म किरदार है और हमारी यादों में जिंदा है वरना १४ साल बाद उसके हाथ में भी होता 'माऊथ ओरगन' की जगह एक लैपटॉप और चेहरे पर सदाबहार खिली मुस्कान की जगह चिंताओं का रेखाजाल.

Tuesday, October 20, 2009

वक़्त की धूप में बेरंग होता ये मन...

पिछली 'सिवकासी' वाली पोस्ट पर बड़ी इमोशनल प्रतिक्रियाएँ मिलीं. सुखद अनुभूति हुई,जानकर कि इतने लोग हमखयाल हैं. मेरे बेटे को सबने बहुत आर्शीवाद और शुभकामनाएं दीं....सबका शुक्रिया. पर सारे बच्चे ऐसे ही होते हैं--निश्छल,निष्पाप, दूसरों के दुःख में दुखी हो जानेवाले,अपनी धुन के पक्के. कई लोगों ने अपने अनुभव बांटे.ममता ने बताया,उनका बेटा भी वायु प्रदूषण,ध्वनि प्रदूषण का ख्याल कर पटाखे नहीं चलाता. राज़ी के बेटे ने इस बार,बिजली के रंगीन बल्ब और झालर लगाने से मना कर दिया और बोला--'इतनी बिजली बर्बाद करने से क्या फायदा,हम दिए जलाएंगे'. कई लोगों ने अपनी टिप्पणियों में भी बताया कि उनके बच्चों ने भी पटाखों का बहिष्कार किया है.ख़ुशी होती है ये देख कि आज के बच्चे इतने जागरूक हैं और देश का भविष्य सुरक्षित हाथों में है.ये बच्चे पाठ्य-पुस्तकों में पढ़कर सब भूल नहीं जाते बल्कि आत्मसात करते हैं और उसे व्यवहार में लाने की भी कोशिश करते हैं

मेरी एक डॉक्टर सहेली थकी मांदी क्लिनिक से आती है पर उसकी बेटी 'ग्लोबल वार्मिंग' की सोच उसे ए.सी. नहीं चलाने देती.मेरा छोटा बेटा भी,भीषण गर्मी में भी मुझे ए.सी.चलाने से रोकता है और मुझे समझाता है,"अगर हमने अभी से पर्यावरण की रक्षा का ख़याल नहीं किया तो तुम्हारी उम्र तक, जब मैं पहुंचूंगा तब तक टेम्परेचर ५० डिग्री तक पहुँच जायेगा.मैं ऑफिस से पसीने से लथपथ घर आऊंगा" जैसे भविष्य की भयावह तस्वीर उसके सामने खींच जाती है.

हम बच्चों में बढती अनुशासनहीनता,भौतिकपरस्तता और स्वार्थीपन की शिकायत करते हैं पर कभी कभी ये बच्चे सहजता से इतनी बड़ी बात कह जाते हैं कि हमें चकित कर देते है.एक बार मैं पड़ोस में रहने वाली अपनी सहेली से बात कर रही थी तभी उसका दस वर्षीय बेटा आया और बोला --'ममी,कमलेश खेलने के लिए बुला रहा है,मैं नीचे जाऊं??"(कमलेश पास की दुकान में डिलीवरी बॉय का काम करता है,जब कभी काम से फुरसत मिलती है,बिल्डिंग में बच्चों के साथ खेलने आ जाया करता है)
सहेली ने पूछा--"और भी कोई आया है खेलने?"
"ना, और कोई नहीं...बस मैं और कमलेश हैं"
"बाद में जाना, जब सब आ जाएँ"....सहेली का आभिजात्य मन अपने बेटे को एक डिलीवरी बॉय के साथ अकेले खेलने देना गवारा नहीं कर रहा था. बेटे ने आँखे चढाकर,संदेह से पूछा--"क्यूँ?..क्यूंकि वह एक दुकान में काम करता है,इसलिए??...तुमलोग इतना भेदभाव करती हो इसलिए,इंडिया इतना पिछड़ा हुआ है...मुझे जाने दो,ना."..सहेली ने उसकी बातों से बचने को, जाने की इजाज़त दे दी...और वह दस साल का बच्चा हमें भाईचारा का पाठ पढ़ा,चला गया. ऐसे ही एक बार मैं बाहर से लौटी तो पाया घर में बिल्डिंग के बच्चे जमा होकर 'पकिस्तान' और 'साउथ अफ्रीका' के बीच चल रहा मैच देख रहें हैं.मैंने यूँ ही पूछ लिया,"तुमलोग किसे सपोर्ट कर रहें हो?..और सबने समवेत स्वर में कहा--"ऑफ कोर्स! पाकिस्तान को...आखिर वो हमारा भाई है"....जब हम ना खेल रहें हो तो पाकिस्तान को कई लोग सपोर्ट करते हैं..पर भाई का दर्जा कितने लोग देते हैं? ये बच्चे कारगिल भूले नहीं हैं....आज भी लक्ष्य,बॉर्डर,LOC इनकी फेवरेट फिल्में हैं....लेकिन जंग और खेल में फर्क करना इन्हें आता हैं.
इसी दीवाली में सात साल की अपूर्वा अपनी मम्मी से घर के सामने रंगोली बनाने की जिद कर रही थी,उसकी मम्मी ने कहा, जाओ सीढियों पर कुछ फिगर्स बना कर उसमे रंग भर दो....आप आश्चर्य करेंगे जानकर,उस बच्ची ने हर स्टेप पर एक दीपक,एक स्वस्तिक और चाँद तारे बनाए...और खुश खुश हमें दिखाया,"मैंने पाकिस्तान के फ्लैग का मार्क भी बनाया".

इन बच्चों का मन इतना कोमल होता है,दूसरो का जरा सा दुःख देख व्याकुल हो जाते हैं,कोई भी त्याग करने से जरा भी नहीं हिचकिचाते.मेरी सहेली वैशाली की बेटी स्कूल की तरफ से एक अनाथालय में एक स्किट पेश करने गयी.घर आकर दो दिन उसने ठीक से खाना नहीं खाया और उदास रही कि वे बच्चे अपने मम्मी पापा के बिना कैसे रह पाते हैं? मैं भी जब बच्चों के छोटे कपड़े अनाथालय में देने जाती हूँ तो मेरा छोटा बेटा कहता है, "तुम्हे इसके साथ कुछ नए कपड़े भी देने चाहिए"...मैं तर्क देती हूँ," सिर्फ एक दो बार की पहनी हुई है,और छोटी हो गयी है,बिलकुल नयी जैसी है." वह कुछ रोष से कहता है ."पर नयी तो नहीं है"

२६ जुलाई के महाप्रलय में जब सारा मुंबई डूबा हुआ था... कुछ ऊँचाई पर होने की वजह से हमारे इलाके में पानी नहीं भरा और बिजली भी नहीं गयी....बिल्डिंग के बच्चों ने जब टी.वी.पर देखा, कई इलाकों में तीन दिन से बिजली नहीं है, तो जैसे अपराधबोध से भर गए. उन्हें आपस में बाते करते देखा--"ये लोग एक दिन के लिए हमारी बिजली काटकर उन्हें क्यूँ नहीं दे देते?"..उन्हें अँधेरे में रहना...टी.वी.नहीं देखना गवारा था पर दूसरो की तकलीफ वे नहीं देख पा रहें थे.

इन बच्चों कि बातें सुन ,मुझे लगा....क्या हम भी बचपन में ऐसे नहीं थे?...फिर ऐसा क्या हुआ कि हम संवेदनाशून्य होते चले गए.वक़्त ने ऐसा असर किया हमपर कि हम इतने बदल गए.बचपन का एक वाक़या याद आता है...मेरी माँ बाहर गयीं थी तभी एक भिखारी आया और बोला...वह बहुत भूखा है.मैंने उसे ढेर सारे कच्चे चावल दे दिए. मैं चावल दे ही रही थी कि मेरा छोटा भाई आ गया.मुझे डर लगा ,अब ये मेरी शिकायत करेगा कि दीदी ने इतने सारे चावल दे दिए.मैंने सफाई दी...दरअसल वह बहुत भूखा था.मेरे भाई ने तुंरत कहा, "तुमने उसे फिर थोड़े दाल और आलू भी क्यूँ नहीं दिए,केवल चावल वो कैसे खायेगा?"..... ऐसे होते हैं हम सब बचपन में......फिर धीरे धीरे आगे बढ़ने की जद्दोजहद, इस दुनिया में सर्वाइव करने की कशमकश हमारी सारी कोमल भावनाएं सोख लेती है.कर्तव्यों,जिम्मेवारियों के बोझ तले ये दूसरों के लिए सोचने का जज्बा दम तोड़ देता है.हम अपनी सुविधाएं,असुविधाएं देखने लगते हैं...अपना हित सर्वोपरि रखते हैं.

दो तीन साल पहले मैंने एक संस्था "हमारा फुटपाथ" ज्वाइन की थी. यह संस्था सड़क पर रहने वाले बच्चों के लिए काम करती है.पर जब मुझे पता चला कि बाकी सारे सदस्य शाम ७ बजे इकट्ठे होते हैं क्यूंकि बाकी सारे लोग ऑफिस वाले थे और बच्चे भी सिग्नल पर फूल,गुब्बारे,खिलौने,किताबें...बेचने के बाद ही आ सकते हैं.मैं नहीं जा सकी क्यूंकि ७ बजे मेरे बच्चे भी खेलकर घर वापस आते थे ,उनकी पढाई,उनका खाना पीना देखना था.फिर दूरी के कारण आने जाने में भी २ घंटे लग जाते. मैंने कहाँ सोचा कि मेरे बच्चों के पास तो सुख सुविधा से पूर्ण आरामदायक घर है,उन बच्चों के पास तो माँ..बाप..सर पे छत...किसी का सहारा नहीं.यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं कि हम कुछ अच्छे काम करना भी चाहते हैं तो अपने फालतू बचे समय में.

हर बच्चे के दिल में एक 'मदर टेरेसा' और 'बाबा आमटे' का ह्रदय होता है पर जैसे जैसे उम्र बढती है यह छवि धूमिल पड़ती जाती है और एक समय ऐसा आता है जब ये छवि बिलकुल गायब हो जाती है.तभी तो आज इनके बाद ऐसी निस्स्वार्थ सेवा करने वाला कोई तीसरा नाम नहीं सूझ रहा.

Tuesday, October 13, 2009

बारूद की ढेर में खोया बचपन


दीवाली बस दस्तक देने ही वाली है.सबकी तरह हमारी भी शौपिंग लिस्ट तैयार है.पर एक चीज़ कुछ बरस पहले हमारी लिस्ट से गायब हो चुकी है और वह है--'पटाखे'. मेरे बेटे को भी हर बच्चे की तरह पटाखे का बहुत शौक था.दस दिन पहले से उसकी लिस्ट बननी शुरू हो जाती.पटाखे ख़रीदे जाते.दो दिन पहले से उन्हें धूप दिखाना,गिनती करना,सहेजना...जैसा सारे बच्चे करते हैं.दिवाली के दिन वह शाम से ही बैग में सारे पटाखे डाले,एक कमर पर हाथ रखे मुझे एकटक घूरता रहता क्यूंकि मैं लक्ष्मी पूजा हुए बिना, उसे नीचे जाकर पटाखे चलाने की इजाज़त नहीं देती थी.जैसे ही पूजा ख़त्म हुई,वह बैग संभाले नीचे भागता.मुझे जबरदस्ती उसे पकड़, प्रसाद का एक टुकडा मुहँ में डालना पड़ता.लेकिन जब वह ९-१० साल का था, उसके स्कूल में एक डॉक्युमेंटरी दिखाई गयी,जिसमे दिखाया गया कि 'सिवकासी' में किस अमानवीय स्थिति में रहते हुए छोटे छोटे बच्चे, पटाखे तैयार करते हैं.इसका उसके कोमल मन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उसने और उसके कुछ दोस्तों ने कभी भी पटाखे न चलाने का प्रण ले लिया.इनलोगों ने छोटे छोटे बैच भी बनाये SAY NO TO CRACKERS वह दिन है और आज का दिन है इन बच्चों ने पटाखों को हाथ नहीं लगाया.

'सिवकासी' चेन्नई से करीब 650 km दूर स्थित है.भारत में जितने पटाखों की खपत होती है,उसका 90 % सिवकासी में तैयार किया जाता है.और इसे तैयार करने में सहयोग देते हैं, 100000 बाल मजदूर.करीब 1000 करोड़ का बिजनेस होता है,यहाँ.
8 साल की उम्र से ये बच्चे फैक्ट्रियों में काम करना शुरू कर देते हैं.दीवाली के समय काम बढ़ जाने पर पास के गाँवों से बच्चों को लाया जाता है.फैक्ट्री के एजेंट सुबह सुबह ही हर घर के दरवाजे को लाठी से ठकठकाते हैं और करीब सुबह ३ बजे ही इन बच्चों को बस में बिठा देते हैं.करीब २,३, घंटे की रोज यात्रा कर ये बच्चे रात के १० बजे घर लौटते हैं.और बस भरी होने की वजह से अक्सर इन्हें खड़े खड़े ही यात्रा करनी पड़ती है.
रोज के इन्हें १५-१८ रुपये मिलते हैं.सिवकासी की गलियों में कई फैक्ट्रियां बिना लाइसेंस के चलती हैं और वे लोग सिर्फ ८-१५ रुपये ही मजदूरी में देते हैं.ये बच्चे पेपर डाई करना,छोटे पटाखे बनाना,पटाखों में गन पाउडर भरना, पटाखों पर कागज़ चिपकाना,पैक करना जैसे काम करते हैं.
जब भरपेट दो जून रोटी नहीं मिलती तो पीने का पानी,बाथरूम की व्यवस्था की तो कल्पना ही बेकार है.बच्चे हमेशा सर दर्द और पीठ दर्द की शिकायत करते हैं.उनमे कुपोषण की वजह से टी.बी.और खतरनाक केमिकल्स के संपर्क में आने की वजह से त्वचा के रोग होना आम बात है.
गंभीर दुर्घटनाएं तो घटती ही रहती हैं.अक्सर खतरनाक केमिकल्स आस पास बिखरे होते हैं और बच्चों को उनके बीच बैठकर काम करना पड़ता है.कई बार ज्वलनशील पदार्थ आस पास बिखरे होने की वजह से आग लग जाती है.कोई घायल हुआ तो उसे ७० कम दूर मदुरै के अस्पताल में ले जाना पड़ता है.बाकी बच्चे आग बुझाकर वापस वहीँ काम में लग जाते हैं.

कुछ समाजसेवी इन बच्चों के लिए काम कर रहें हैं और इनके शोषण की कहानी ये दुनिया के सामने लाना चाहते थे.पर कोई भारतीय NGO या भारतीय फिल्मनिर्माता इन बच्चों की दशा शूट करने को तैयर नहीं हुए.मजबूरन उन्हें एक कोरियाई फिल्मनिर्माता की सहायता लेनी पड़ी.25 मिनट की डॉक्युमेंटरी 'Tragedy Buried in Happiness कोरियन भाषा में है जिसे अंग्रेजी और तमिल में डब किया गया है.इसमें कुछ बच्चों की जीवन-कथा दिखाई गयी है जो हजारों बच्चों का प्रतिनिधित्व करती है.
12 साल की चित्रा का चेहरा और पूरा शरीर जल गया है.वह चार साल से घर की चारदीवारी में क़ैद है,किसी के सामने नहीं आती.पूरा शरीर चादर से ढँक कर रखती है,पर उसकी दो बोलती आँखे ही सारी व्यथा कह देती हैं.
14 वर्षीया करप्पुस्वामी के भी हाथ और शरीर जल गए हैं.फैक्ट्री मालिक ने क्षतिपूर्ति के तौर पर कुछ पैसे दिए पर बदले में उसके पिता को इस कथन पर हस्ताक्षर करने पड़े कि यह हादसा उनकी फैक्ट्री में नहीं हुआ.
10 साल की मुनिस्वारी के हाथ बिलकुल पीले पड़ गए हैं पर मेहंदी रचने की वजह से नहीं बल्कि गोंद में मिले सायनाइड के कारण.भूख से बिलबिलाते ये बच्चे गोंद खा लिया करते थे इसलिए क्रूर फैक्ट्री मालिकों ने गोंद में सायनाइड मिलाना शुरू कर दिया.चिपकाने का काम करनेवाले सारे बच्चों के हाथ पीले पड़ गए हैं.
10 साल की कविता से जब पूछा गया कि वह स्कूल जाना मिस नहीं करती?? तो उसका जबाब था,"स्कूल जाउंगी तो खाना कहाँ से मिलेगा.?'"..यह पूछने पर कि उसे कौन सा खेल आता है.उसने मासूमियत से कहा--"दौड़ना" उसने कभी कोई खेल खेला ही नही.
जितने बाल मजदूर काम करते हैं उसमे 80 % लड़कियां होती हैं.लड़कों को फिर भी कभी कभी पिता स्कूल भेजते हैं और पार्ट टाइम मजदूरी करवाते हैं.पर सारी लड़कियां फुलटाईम काम करती हैं.13 वर्षीया सुहासिनी सुबह 8 बजे से 5 बजे तक 4000 माचिस बनाती है और उसे रोज के 40 रुपये मिलते हैं (अगली बार एक माचिस सुलगाते समय एक बार सुहासिनी के चेहरे की कल्पना जरूर कर लें)

सिवकासी के लोग कहते हैं साल में 300 दिन काम करके जो पटाखे वे बनाते हैं वे सब दीवाली के दिन 3 घंटे में राख हो जाते हैं.दीवाली के दिन इन बाल मजदूरों की छुट्टी होती है. पर उन्हें एक पटाखा भी मयस्सर नहीं होता क्यूंकि बाकी लोगों की तरह उन्हें भी पटाखे खरीदने पड़ते हैं.और जो वे अफोर्ड नहीं कर पाते.

हम बड़े लोग ऐसी खबरे रोजाना पढ़ते हैं और नज़रंदाज़ कर देते हैं.पर बच्चों के मस्तिष्क पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है.यही सब देखा होगा,उस डॉक्युमेंटरी में, अंकुर और उसके दोस्तों ने और पटाखे न चलाने की कसम खाई जिसे अभी तक निभा रहें हैं.सिवकासी के फैक्ट्रीमालिकों ने सिर्फ उन बच्चों का बचपन ही नहीं छीना बल्कि अंकुर और उसके दोस्तों से बचपन की एक खूबसूरत याद भी छीन ली.देखनेवाले बहुत प्रभावित होते हैं और तारीफ़ करते हैं पर जब मैं दीवाली के दिन अपने बेटे को पटाखे चलाते सारे बच्चों से दूर एक तरफ पीछे हाथ बांधे खड़े देखती हूँ तो देश की एक जागरूक नागरिक की जगह सिर्फ एक माँ रह जाती हूँ.कभी कभी यह भी कह देती हूँ"तुम्हारे अकेले के करने से क्या बदलेगा' और वह बड़े बूढों की तरह कहता है "किसी को तो शुरू करना पड़ेगा,न"

(आप सब को दीपावली की ढेर सारी शुभकामनाएं. मुझे आपकी दीपावली का मजा किरिकिरा करने का कोई इरादा नहीं था....पर सच से आँखें कैसे और कब तक चुराएं?