'जीवन में खेल का महत्व' इस विषय पर हम सबने अपने स्कूली जीवन में कभी ना कभी एक लेख लिखा ही होगा.पर बड़े होने पर हम क्या इस पर अमल कर पाते हैं?अपने बच्चों को 'खेल' एक कैरियर के रूप में अपनाने की इजाज़त दे सकते हैं?हम चाह कर भी ऐसा नहीं कर पाते.कई मजबूरियाँ आड़े आ जाती हैं.हमारे देश में खेल का क्या भविष्य है और खिलाड़ियों की क्या स्थिति है, किसी से छुपी नहीं है.पर अगर आपके बच्चे की खेल में रूचि हो,स्कूल की टीम में हो, और वह अच्छा भी कर रहा हो तो माता-पिता के सामने एक बड़ी दुविधा आ खड़ी होती है.
स्कूल का नया सेशन शुरू होता है और हमारे घर में एक बहस छिड़ जाती है.क्यूंकि हर खेल की टीम का पुनर्गठन होता है.और मैं अपने बेटे को शामिल होने से मना करती हूँ. जब तक वे छोटी कक्षाओं में थे,मैं खुद प्रोत्साहित करती थी,हर तरह से सहयोग देती थी.इनका मैच देखने भी जाती थी.कई बार मैं अकेली दर्शक होती थी.दोनों स्कूलों के टीम के बच्चे,कोच,कुछ स्टाफ और मैं. छोटे छोटे रणबांकुरे,जब ग्राउंड की मिटटी माथे पे लगा,मैच खेलने मैदान में उतरते तो उनके चेहरे की चमक देख, ऐसा लगता जैसे युद्ध के लिए जा रहें हों .मैंने,मैच
के पहले कोच को 'पेप टॉक' देते सुना था और बढा चढ़ा कर नहीं कह रही पर सच में 'चक दे' के शाहरुख़ खान का 'पेप टॉक' बिलकुल फीका लगा था, उसके सामने फिल्म डाइरेक्टर के साथ में 'नेगी' थे,अच्छे इनपुट्स तो दिए ही होंगे.फिर भी मुझे नहीं जमा था.
पर जब बच्चे ऊँची कक्षाओं में आ जाते हैं,तब पढाई ज्यादा महत्वपूर्ण लगने लगती है. .क्यूंकि पढाई पर असर तो पड़ता ही है.जिन दिनों टूर्नामेंट्स चलते हैं.२ महीने तक बच्चे किताबों से करीब करीब दूर ही रहते हैं.और एक्जाम में 90% से सीधा 70 % पर आ जाते हैं.ऐसे में
बड़ी समस्या आती है.क्यूंकि भविष्य तो किताबों में ही है.(ऐसा सोचना हमारी मजबूरी है).एक लड़के को जानती हूँ.जो ज़हीर और अगरकर के साथ खेला करता था.रणजी में मुंबई की टीम में था. १२वीं भी नहीं कर पाया.आज ढाई हज़ार की नौकरी पर खट रहा है...और यह कोई आइसोलेटेड केस नहीं है.ज्यादातर खिलाड़ियों की यही दास्तान है.यह भी डर रहता है,अगर खेल में बच्चों का भविष्य नहीं बन पाया तो कल को वे माता-पिता को भी दोष दे सकते हैं कि हम तो बच्चे थे,आपको समझाना था.और कोई भी माता पिता ऐसा रिस्क लेंगे ही क्यूँ??बुरा
तो बहुत लगता है एक समय इनके मन में खेल प्रेम के बीज डालो और जब वह बीज जड़ पकड़ लेता है तो उसे उखाड़ने की कोशिश शुरू हो जाती है.इस प्रक्रिया में बच्चों के हृदयरूपी जमीन पर क्या गुजरती है,इसकी कल्पना भी बेकार है.
अगर उन्हें किसी खेल के विधिवत प्रशिक्षण देने की सोंचे भी तो मध्यम वर्ग के पर्स पर यह अच्छी खासी चपत होती है. coaching.traveling bat, football ,studs,stockings,pads .... . लिस्ट काफी लम्बी है.पता नहीं सचिन तेंदुलकर के गीले पौकेट्स की कहानी कितने लोगों को मालूम है? सचिन के पास एक ही सफ़ेद शर्ट पेंट थी.सुबह ५.३० बजे वे उसे पहन क्रिकेट प्रैक्टिस के लिए जाते.फिर साफ़ करके सूखने डाल देते और स्कूल चले जाते,स्कूल से आने के बाद फिर से ४ बजे प्रैक्टिस के लिए जाना होता.तबतक शर्ट पेंट सूख तो जाते पर पेंट की पौकेट्स गीली ही रहतीं.(मुंबई में कपड़े फैलाने की बहुत दिक्कत है,फ्लैट्स में खिड़की के बाहर थोड़ी सी जगह में ही पूरे घर के कपड़े सुखाने पड़ते हैं,यहाँ छत या घर के बाहर खुली जगह नहीं होती..उन दिनों उनके पास वाशिंग मशीन नहीं थी,और सचिन खुद अपने हाथों से कपड़े धोते थे,क्यूंकि उनकी माँ भी नौकरी करती थीं.वैसे भी सचिन अपने चाचा,चाची के यहाँ रहते थे,क्यूंकि उनका स्कूल पास था. चाचा-चाची ने उन्हें अपने बेटे से रत्ती भर कम प्यार नहीं दिया)इंटरव्यू लेने वाले ने मजाक में यह भी लिखा था, क्या पता सचिन के इतने रनों के अम्बार के पीछे ये गीले पौकेट्स ही हों,इस से एकाग्रता में ज्यादा मदद मिलती हो.
20/20 वर्ल्ड कप के स्टार रोहित शर्मा की कहानी भी कम रोचक नहीं.रोहित शर्मा मेरे बच्चों के स्कूल SVIS से ही पढ़े हुए हैं.ये पहले किसी छोटे से स्कूल में थे.एक बार समर कैम्प में SVIS के कोच की नज़र पड़ी और उनकी प्रतिभा देख,कोच ने रोहित शर्मा को SVIS ज्वाइन करने को कहा.पर उनके माता-पिता इस स्कूल की फीस अफोर्ड नहीं कर सकते थे.कोच डाइरेक्टर से मिले और उनकी विलक्षण प्रतिभा देख डाइरेक्टर ने सिर्फ पूरी फीस माफ़ ही नहीं की बलिक क्रिकेट का पूरा किट भी खरीद कर दिया,रोहित शर्मा ने भी निराश नहीं किया. 'गाइल्स शील्ड' जिस पर 104 वर्षों तक सिर्फ कुछ स्कूल्स का ही वर्चस्व था.SVISके लिए जीत कर लाया.मिस्टर लाड को कोचिंग के अनगिनत ऑफर मिलने लगे.बाद में तो एक
कमरे में रहने वाले रोहति शर्मा ने मनपसंद कार की नंबर प्लेट 4500 के लिए 95,000Rs. RTO को दिए.(एक ख्याल
आया,राज ठाकरे ,इन्हें मुम्बईकर मानते हैं या नहीं क्यूंकि रोहित शर्मा के पिता भी कुछ बरस पहले कानपुर से आये थे)
सचिन और रोहित शर्मा हर कोई तो नहीं बन सकता.पर जबतक हम बच्चों को मौका देंगे ही नहीं खेलने का,उनकी प्रतिभा का पता कैसा चलेगा?..जब कभी मैं बोलती हूँ,सचिन ढाई घंटे तक एक स्टंप से दीवार पर बॉल मारकर प्रैक्टिस करते थे.बच्चे तुरंत पलट कर बोलते हैं हमें तो दस मिनट में ही डांट पड़ने लगती है.
खेल के मैदान से बड़ी ज़िन्दगी की कोई पाठशाला नहीं है.मैंने देखा है, कैसे इन्हें ज़िन्दगी की बड़ी सीख जो मोटे मोटे ग्रन्थ नहीं दे सकते. खेल का मैदान देता है.एक मैच हारकर आते हैं,मुहँ लटकाए,उदास....पर कुछ ही देर बाद एक नए जोश से भर जाते हैं,चाहे कुछ भी हो,हमें अगला मैच तो जीतना ही है.यही ज़ज्बा मैंने खेल से इतर चीज़ों के लिए भी नोटिस किया है.
दूसरों के लिए कैसे त्याग किया जाए,और उस त्याग में ख़ुशी ढूंढी जाए,बच्चे बखूबी सीख जाते हैं.गोल के पास सामने बॉल रहती है,पर इन्हें जरा सी भी शंका होती है,अपने साथी को बॉल पास कर देते हैं,वो गोल कर देता है,उसे शाब्बाशी मिलती है,कंधे पर उठाकर घूमते हैं,अखबार में नाम आता है.और उसकी ख़ुशी में ही ये खुश हो जाते हैं.
आज टीनेजर बच्चों को टीचर तो दूर माता-पिता भी हाथ लगाने की नहीं सोच सकते.पर गोल मिस करने पर,या कैच छोड़ देने पर कोच थप्पड़ लगा देता है,और ये बच्चे चुपचाप सर झुकाए सह लेते हैं.एक बार भी विरोध नहीं करते.
समानता का पाठ भी खेल से बढ़कर कौन सीखा सकता है? अभी कुछ दिनों पहले पास के मैंदान में ही अंडर 14 का मैच था.आमने सामने थे,धीरुभाई अम्बानी स्कूल,(जिसमे शाहरुख़,सचिन,सैफ,अनिल,मुकेश अम्बानी के बच्चे पढ़ते हैं) और सेंट फ्रांसिस (जिसमे माध्यम वर्ग के घर के बच्चों के साथ साथ,ऑटो वाले और कामवालियों के बच्चे भी पढ़ते हैं...स्कूल अच्छा है,और fully aided होने की वजह से फीस बहुत कम है.)धीरुभाई स्कूल का कैप्टन था शाहरुख़ का बेटा और सेंट फ्रांसिस का कैप्टन था एक ऑटो वाले का बेटा.जिसकी माँ,मोर्निंग वाल्क करने वालों को एक छोटी से फोल्डिंग टेबल लगा,करेले,आंवले,नीम वगैरह का जूस बेचती है.हम भी, कभी कभी सुबह सुबह मुहँ कड़वा करने चले जाते हैं.उसने उस दिन लड्डू भी खिलाये,बेटे की टीम जीत गयी थी.निजी ज़िन्दगी में ये बच्चे एक साथ कभी बैठेंगे भी नहीं पर मैंदान में धक्के भी मारे होंगे,गिराया भी होगा,एक दूसरे को..
अफ़सोस होता है...यह सबकुछ जानते समझते हुए भी हम मजबूर हो जाते हैं...क्यूंकि दसवीं में जमकर पढाई नहीं की तो अच्छे कॉलेज में एडमिशन नहीं मिलेगा.और फिर किसी वाईट कॉलर जॉब हंटिंग की भेड़ चाल में शामिल कैसे हो पायेंगे ,ये नन्हे खिलाड़ी.