Saturday, January 30, 2010

और वो चला गया,बिना मुड़े....(लघु उपन्यास )--समापन किस्त

(नेहा स्कूल की प्रिंसिपल है.अपने केबिन में अचानक शरद को आते देख चौंक जाती है.और उसे शरद से अपनी पहली मुलाकात याद आने लगती हैं.यह भी कि किशोरावस्था में वह कितनी शैतान थी.सबको कैसे तंग करती रहती थी.शरद ने जब उसके साथ एक छोटी बच्ची की तरह बर्ताव किया तो बहुत नाराज़ हुई थी वह.पर धीरे धीरे शरद से दोस्ती हो गयी और शरद ने घर का बोझिल वातावरण बदलने में बहुत मदद की.धीरे धीरे दोनों के मन में प्यार के अंकुर ने जन्म लिया और बात एंगेजमेंट तक पहुँच गयी.पर एंगेजमेंट के तुरंत पहले लड़ाई शुरू हो गयी और शरद को जाना पड़ा पर उसके पहले उसने नेहा से मिलकर उसे आश्वस्त कर दिया था.)
गतांक से आगे


जैसी की आशा थी (और प्रार्थना भी).... युद्ध बंद हो गया। दोनों पक्षों को जान-माल की भारी हानि उठानी पड़ी। पूरे युद्ध में भारत हावी रहा और इसके जवानों ने अपूर्व वीरता का प्रदर्शन किया था। सारे देश में उत्साह-उछाह की लहर दौड़ गई थी। युद्धस्थल से लौटते जवानों का हर स्टेशन पर भव्य स्वागत होता। उपहार और मिठाइयों के अंबार लग जाते, तिलक लगाया जाता, आरती उतारी जाती।

इस बार उसने भी सक्रिय भाग लिया था, इन सब में। 'लायंस क्लब' में एक कमिटी बनी थी... जिसकी जेनरल सेक्रेट्री का पद संभाला था, उसने। पूरे मनोयोग से जुटी थी इसके कार्यक्रम को कार्यानिवत करने में। खाने-पीने की भी सुध नहीं रहती।

शरद के जौहर के किस्से भी अखबारों में खूब छपे थे.यह सब पढ़ फूली नहीं समाती वह. शहर भर में चर्चा थी। सबकी प्रशंसात्मक नजरों का केन्द्र बन गई थी वह... अब बस इंतजार था उस दिन का, जब शरद के कदम पड़ेंगे, इस जमीन पर। स्वागत का ऐसा सरंजाम करेगी कि ‘शरद‘ भी आवाक् रह जाएगा। बंगले को भी नए ढंग से सजाया-सँवारा जा रहा था।

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इधर बहुत दिनों से शरद का कोई पत्र नहीं आया था। इंतजार भी नहीं था... अब तो रू-ब-रू मुलाकात होगी। इतना पता था कि वह अपने घायल साथियों की देख-भाल में लगा है। दोपहर में अलसायी सी लेटी थी कि कॉलबेल बज उठी... पोस्टमैन था... लिफाफा ले लिया।

‘टू नेहा‘ - यह आश्चर्य कैसे? दुबारा पढ़ा, उसी के नाम यह खत था... अब अक्कल आई है, शरद महाराज को। खुशी से दमकता चेहरा लिए, अपने कमरे में आ लिफाफा खोला। ‘ओह! चार पन्नों का खत? और चारों पन्ने बिल्कुल भरे हुए‘ ‘आखिर बात कया है‘...मन ही मन मुस्कराई वह - ‘सारी कसर एक ही पत्र में पूरी कर दी है... थोड़ा सा सब्र नहीं हो सका... दिन ही कितने रह गए हैं, मुलाकात होने में‘ - चलो आराम से पढ़ेगी और पलंग पर लेट... पत्र खोला।

‘नेही... नेही... नेही... नेही...‘

पत्र रख आँखें मूँद ली। लगा ये शब्द कागज पर नहीं उभरे... वरन् उसके कानों में प्रतिध्वनित हो रहे हैं, लगातार। आगे था...

‘नेही, जाने क्यों आज जी कर रहा है, यही नाम लिखता रहूँ, ताजिंदगी। आज लग रहा है, यह मात्र दो अक्षरों से बना शब्द नहीं, धड़कता हुआ एक अहसास है... मेरे पूरे वजूद को थामे रखनेवाली एक सुदृढ़ शक्ति है। क्यों होता है, नेहा ऐसा? आज जब बिछड़ने का समय आया, तब ये अहसास गहरा रहा है कि दुनिया का कोई भी बंधन... इस स्नेह बंधन से मजबूत नहीं... कितना मुश्किल, सच कितना मुश्किल है, इसकी जकड़न से छुटकारा पाना।‘

एकबारगी ही दिल की धड़कन गई गुना बढ़ गई। पत्र काँप गया... ‘बिछड़ने का समय‘ ‘छुटकारा पाना‘ ये सब क्या है। झटके से उठ बैठी और एक साँस में ही, धड़कते हृदय से पूरा पत्र पढ़ गई।

पत्र क्या था... व्यक्ति के कर्त्तव्य और आकांक्षा के द्वन्द्व का दर्पण था। दिल की गहराई से निकले शब्दों में, शरद ने स्थिति बयान की थी। शरद का एक सीनियर था ,"जावेद" जो दरअसल भैया का दोस्त था.स्कूल में भैया और 'जावेद',शरद को अपने छोटे भाई से भी बढ़कर मानते थे. शरद की तरह ही, हँसमुख, खुशमिजाज, साथ ही एक सीमा तक मजाकिया। दोनों की जोड़ी ‘लारेल-हार्डी‘ के नाम से मशहूर थी हॉस्टल में। 'जावेद' को देखकर ही शायद शरद को भी 'आर्मी' ज्वाइन करने का शौक चढ़ा और जब जावेद की बटालियन में ही उसे भी शामिल किया गया तब तो जावेद ने जैसे उसे अपनी छत्र छाया में ही ले लिया.'जावेद' भैया के साथ कई बार घर भी आ चुका था भैय्या से भी अच्छी घुटती थी उसकी .

उसके इतिहास से वाकिफ थी वह। उसने घरवालों के कड़े विरोध के बावजूद गाँव में साथ-साथ बगीचे से आम चुराने वाली, पोखर में तैरने वाली... कबड्डी खेलने वाली अपनी बचपन की संगिनी उर्मिला को अपनी जीवन-संगिनी बनाया था, जबकि उर्मिला ने सिर्फ स्कूली शिक्षा ही पा रखी थी... उर्मिला का घर-बार भी छूट गया था और अब दोस्त ही उनके सब-कुछ थे। दोस्तों का घर ही अब उनका घर था।

और अब वही जावेद जिसने पूरे समाज से लोहा लेकर उसे सुरक्षा प्रदान की थी... अब समाज की बेरहम व्यंगबाणों से बींधने को उसे अकेला, निस्सहाय... निहत्था छोड़ गया था। साथ में दो वर्ष की नन्ही मुन्नी और छः महीने के दूधमुहें बच्चे की जिम्मेवारी भी सौंप गया था।

जावेद ने बड़ी बहादुरी से अपने जख्मों की परवाह किए बिना दुश्मनों से लोहा लिया था। देश को तो उस चौकी पर विजय दिला दी... उसने जबकि अपनी जिंदगी हार बैठा। हॉस्पिटल में एक-एक साँस के लिए संघर्ष करते, जावेद की कोशिशों का साक्षी था, शरद। तन-मन की सुध भूल अपने जिगरी-दोस्त को काल के क्रूर हाथों से बचाने की पुरजोर कोशिश की थी, शरद ने। पर नियति ने अपने जौहर दिखा दिए। बड़ी निर्ममता से नियति के हाथों छला गया वह। शरद ने जैसे लहू की स्याही में कलम डुबो कर लिखा था... अक्षर कई जगह बिगड़ गए थे।

‘... ईश्वर न करे कभी किसी का ऐसे दृश्य से साक्षात्कार हो। नेहा, यदि तुम सामने होती तो सच कहता हूँ जावेद की स्थिति देख, गश आ जाता तुम्हें। जावेद का शरीर गले तक सुन्न हो गया था। मस्तिष्क ने काम करना बंद कर दिया था, आवाज आनी भी बंद हो गई थी। सिर्फ उसकी बड़ी-बड़ी आँखें खुली थीं जो सारा वक्त छत घूरती रहतीं। डॉक्टर भी आश्चर्यचकित थे कि कैसे सर्वाइव कर रहा है, वह। लेकिन मैं जानता था, दो नन्हें-मुन्नों और एक बेसहारा नारी की चिंता ने ही उसकी साँसों का आना-जाना जारी रखा है। असहनीय पीड़ा झेलते हुए भी उसने अपनी जीजिविषा बनाए रखी थी। लाल-लाल आँखें, बेचैनी से सारे कमरे में घूमती और मुझपर टिक जातीं। सच, नेहा उन आँखों का अनकहा संदेश... बेचैनी देख पत्थर दिल भी मोम हो जाता। शायद ऐसे ही वे क्षण होते हैं, नेही, जब आदमी अपना सर्वस्व अर्पण करने को उद्धत हो जाता है। ... कब सोचा था? जिंदगी, ऐसे मोड़ पर भी ला खड़ा करेगी... जिस दोस्त के संग जीवन के सबसे हसीन लम्हे गुजारे थे... उसी के लिए मौत की दुआ मांग रहा था मैं। और वह भी उस दोस्त के लिए नेहा,जिसने अपनी ज़िन्दगी मेरे नाम लिख दी. हाँ, नेहा....उस चट्टान की ओट में हम दोनों ही थे..मैं जैसे ही आगे बढ़ने को हुआ,जावेद सर ने मुझे पीछे धकेल दिया.और खुद आगे बढ़ कर जायजा लेने लगे....और एक गोली उन्हें चीरती हुई निकल गयी.उस गोली पर मेरा नाम लिखा था, नेहा....मेरा...तुम्हारे शरद का (आगे स्याही बदली हुई थी ... लग रहा था इस मोड़ पर आकर शरद की लेखनी आगे बढ़ने से इंकार करने लगी... अक्षर भी अजीब टेढ़े-मेढ़े थे, जो थरथराते हाथ की गवाही दे रहे थे।)

‘... और जावेद को शांति से इस लोक से विदा करने की खातिर, मैंने उसके समक्ष प्रतिज्ञा की, बार-बार कसम खायी कि आज से उसके परिवार का बोझ मेरे कंधे पर आ गया। प्राण-पण से उनके सुख-दुख का ख्याल रखूंगा मैं... उसके बच्चों की सारी जिम्मेवारी अब मुझ पर है... पहली बार उन आँखों की लाली कुछ कम हुई... आश्चर्य!! उसके सुन्न पड़े शरीर में एक हरकत हुई। उसके हाथ उठे, शायद मेरा हाथ थामने को लेकिन बीच में ही गिर गए... बस आँखें मुझ पर टिकी रहीं... उनमें प्रगाढ़ स्नेह से आवेष्टित कृतज्ञता का भाव तैरते-तैरते जम गया था।... चेहरे पर अपूर्व शांति फैली थी... और नेहा... मेरा मित्र सदा-सदा के लिए सो गया।‘

मुझे कोई अफसोस नहीं नेहा, झूठ नहीं कहूँगा... अफसोस था जरूर। उस सारी रात मेरी पलकें नहीं झपकीं। यह क्या कर डाला, मैंने। लेकिन जब वह दृश्य देखा, मेरी रूह काँप उठी। उर्मिला के मायके और जावेद के पिता... दोनों जगह यह मनहूस खबर देने को मैंने ही फोन किया।

अगली सुबह ही, जावेद के पिता तो आ गए पर उर्मिला के घरवालों ने आजतक कोई खोज-खबर नहीं ली। शादी के वक्त जैसा उन्होंने कहा था... उर्मिला सचमुच उस दिन से ही मर गई थी उनके लिए। फिर भी... मैं कहूँगा... उस ताड़ना से जो जावेद के पिता ने उर्मिला को दिए, उनकी बेरूखी लाख दर्जे बेहतर थी। वे जावेद की कब्र पर तो फातिहा पढ़ते रहे लेकिन इन बिलखते बच्चों और उस उजड़ी-बिखरी नारी की ओर आँख उठा कर भी न देखा।

जब जावेद के पिता जाने लगे तो आँसुओं में डूबी उर्मिला ने उनके पैरों पर माथा टेक दिया -‘अब्बा! अब आपके सिवा मेरा कौन सहारा है। इन जावेद के जिगर के टुकड़ों का ख्याल कीजिए... इतने नौकर-चाकर पलते हैं, आपके साए में, ये भी दो सूखी रोटी पर पल जाएंगे-‘ लेकिन हैदर साहब ने जोरों से पैर झटक दिया... उर्मिला का माथा दीवार से जा टकराया। जोरों से गरजे वह -‘काफिर! अपनी मनहूस सूरत न दिखा, मुझे। पहले तो जावेद को हमलोगों से दूर किया और अब इस जहान से भी दूर कर दिया... तेरा साया भी न पड़ने दूँगा, अपने खानदान पर... दूर हो जा मेरी नजरों से अपने इन पिल्लों को लेकर।‘

लेकिन उर्मिला ने फिर उनके पैर पकड़ लिए। वे बार-बार पैर झटक देते और अनाप-शनाप बोलते रहते। लेकिन उर्मिला जैसे ‘उन्माद-ग्रस्त‘ हो बार-बार अपना सर उनके पैरों पर पटक देती। आखिर मैं जबरन हाथ-पैर झटकती उर्मिला को अंदर ले गया। हैदर साहब ने पलट कर भी नहीं देखा और चले गए.
बार-बार ये दृश्य कौंध जाता है, आँखों के समक्ष और मैं सर्वांग सिहर जाता हूँ।

नेहा, अब तुम शायद मुझे ‘जज‘ कर सको। जानता हूँ नेही... ये तुम्हारे प्रति अन्याय है। लेकिन मैं तुम पर छोड़ता हँू ... ‘बोलो क्या यह अन्याय है?‘

कौन है अब, उर्मिला भाभी का इस दुनिया में। कौन उन मासूमों की देख-भाल करेगा। गाँव के स्कूल से दसवीं पास उर्मिला भाभी.... क्या कर पाएंगी जावेद के सपनों को पूरा... जो उसने इन बच्चों के लिए देखे थे। नेही... ये जीवन तो अब इन बच्चों के लिए समर्पित है। यह जावेद सर की दी हुई ज़िन्दगी है,और अब इसपर सिर्फ उनके बच्चों का हक़ है.

मुझे पता है,नेहा तुम बहुत समझदार हो.सब संभाल लोगी पर मुझे खुद पर भरोसा नहीं.और नेहा, मैं किसी मल्टी नेशनल में काम करने वाला एक्जक्यूटिव नहीं हूँ.कि देश विदेश घूमूं और मोटा सा लिफाफा हर महीने घर आ जाए.मैं कभी तपती रेगिस्तान में और कभी सियाचिन की बर्फीली हवाओं से जूझने वाला अदना सा सैनिक हूँ.बस अपनी कमाई से जावेद सर के इन दोनों बच्चों को अच्छी ज़िन्दगी दे सकूँ तो अपनी ज़िन्दगी सफल मानूंगा.

‘क्षमा? .. ना ... क्षमा नहीं माँगूंगा... यह एक शहीद की आत्मा का अपमान होगा... नेहा... मुझे प्रेरणा दो... मेरी शक्ति बनो ताकि मैं एक शहीद के सम्मान की रक्षा कर सकूँ।‘

भूल जाओ... यह भी नहीं कहूँगा... जानता हूँ भूलना इतना आसान नहीं...तुम्हारा अपराधी हूँ.वो सारी भावनाएं तुम में जगाईं , जिनसे अछूती थी तुम.पर क्या करूँ,नेहा...कोई रास्ता नज़र नहीं आता,एक दूसरे को भूलने के सिवा...इसलिए कोशिश करने में क्या हर्ज है? यह मुझे भी सुकून देगा, तुम्हें भी।

अच्छा अब विदा... विदा नेही मेरी, अलविदा (विदा कहते शब्द भी कराह रहे हैं,नेही... नहीं?)

तुम्हारा

....(अब भी लिखने की जरूरत है :))



लगा, जैसे किसी ने आसमान में उछाल कर धरती पर पटक दिया हो... अभी... अभी कहाँ थी वह, और अब कहाँ है? क्यों दुनिया की सारी कड़वाहटें उसी के हिस्से लिखी है... पत्र हाथों से गिर पड़ा और सारी चीजें घूमती नजर आने लगीं... ‘ओऽऽह! शऽऽरऽऽद‘

धीरे-धीरे मुंदती पलकों वाले शरीर को बेहोशी ने अपने आगोश में ले लिया। पत्र से फिसल कर एक सूखे घास का छल्ला सा गिर पड़ा था...जिस पर उसका ध्यान ही नहीं गया।

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मिनटों में ही जैसे सारा पिछला जीवन जी गई -- व्यस्त होने का बहाना अब बिखरने लगा था। फाइल में गड़ी नजरें धुँधली पड़ने लगी थीं, अक्षरों की पहुँच तो पहले भी दिमाग तक नहीं थी। किसी तरह खुद को साध... शर्मा को आवाज दी...

‘येस मैडम‘ - सुन भी बिना नजरें उठाए कहा -‘एडमिशन रजिस्टर ले आइए‘ - (शर्मा थोड़ा चौंक गया... क्योंकि ‘मिड-सेशन‘ में वह कभी भी एडमिशन की इजाजत नहीं देतीं।)

शरद इतनी देर तक कुर्सी से पीठ टिकाए, एक प्रिंसिपल की व्यस्तता टॉलरेट कर रहा था। अभी भी नजरें तो फाइल पर ही जमीं थीं लेकिन कान शर्मा और शरद के बीच होते प्रश्नोत्तर पर ही लगे थे - फादर्स नेम की जगह सुना - ‘जावेद खान‘ और नजरें हठात् ही चौंक कर उठ गईं। जाने किस अदृश्य शक्ति से प्रेरित हो, शरद ने भी उसकी ओर देखा। और पल भर के आँखों के क्षणिक मिलन में वर्षों का अंतराल ढह गया।

आखिरकार... उसे फाइल गिराना ही पड़ा और बिखरे कागजों को समेटने के बहाने... अंदर का सारा कल्मष बह जाने दिया। व्यवस्थित होकर जब सर उठाया तो ये दूसरी ही नेहा थी। इतनी जल्दी संभाल लेगी, खुद को...यकीन नहीं था और अभी क्षण भर पहले की बेचैनी पर मन ही मन हँसी आ रही थी। ओह! आज इतने सारे काम निबटाने हैं उसे और वह यों निष्क्रिय बैठी अतीत के समंदर में गोते लगा रही है। बरसो पहले उसने एक पतिज्ञा की थी कि खुद भले ही 'दीपशिखा' की तरह जलती रहेगी पर जितना हो सके प्रकाश फैलाने की कोशिश करेगी ।

फुर्ती से फाइल पर कलम चलानी शुरू कर दी।इस रफ्तार से काम करने पर अपने स्कूल को इस शहर के ही नहीं, पूरे राज्य के और हो सके तो पूरे दशे के शीर्षस्र्थ विद्यालयों के बीच देखने का सपना कैसे पूरा हो सकेगा ?? आज ही किस कदर व्यस्तता है, स्टाफ की मीटिंग है, डी. एम. से भी अप्वाइंटमेंट है। और प्यून की पोस्ट के लिए कुछ इंटरव्यूज भी तो लेने हैं... और... और अभी राउंड पर भी तो जाना है... लेकिन ये शरद... ना शरद कौन... मि. मेहरोत्रा क्यों अभी तक बैठे हैं जबकि इनके वार्ड को ‘मिसेज जोशी‘ लेकर जा चुकी है... ये बच्चे से विदा भी ले चुके हैं... फिर? एक-दो बार उसने सवालिया निगाहों से उसे देखा भी पर... शरद तो... ओह! नो... मित्र मेहरोत्रा की आँखें तो खिड़की से भीतर आ गए बोगनवेलियां की कुछ लतरों पर जमी थीं।

जोर की आवाज से उसने फाइल बंद की तो शरद ने चौंक कर उसकी तरफ देखा। उसने एक प्रोफेशनल मुस्कान चिपका ली - ‘आइए, मि. मेहरोत्रा मैं, स्कूल के राउंड पर जा रही हूं... आप भी चलना चाहें तो चलें... हमारा स्कूल भी देख लेंगे‘ ... और वह उठा खड़ी हुईं।

शरद ने बिना कुछ कहे, धीरे से कुर्सी खिसकायी और उसके साथ हो लिया। पूरी बिल्डिंग की परिक्रमा कर आई... कहीं... बच्चों से कुछ पूछा... कहीं टीचर्स से कुछ बात की... शरद बस साथ बना रहा।

आखिरकार अब उस बरामदे पर पहुँच गई, जिससे सीढ़ियाँ उतर कर बस दस कदम के फासले पर लोहे का बड़ा गेट था। फिर मुस्करा कर... ‘अच्छा तो‘ के अंदाज में शरद की तरफ देखा। पर शरद तो जैसे पाकेट में हाथ डाले किसी गहन विचार में मग्न था... ‘अब क्या ऽऽशरद... बरसों पहले जो फैसला लिया... अटल रहो न उस पर... इतने दिनों बाद पीछे मुड़ कर क्यों देखना चाहते हो ‘ तुम तेज रफ़्तार से अपनी ज़िन्दगी की राह पे कदम बढा रहें हो,(उसकी कामयाबी के किस्से अक्सर अखबारों में पढ़ती रहती थी)...और उसने भी खुद को समेट कर अपने लिए यह राह चुन ली है दोनों राहें कितनी जुदा हैं एक दूसरे से.

असमंजस में दो पल खड़ी रहीं, फिर निश्चित कदमों से सीढ़ियों पर पैर रखा और बिना मुड़े गेट तक पहुँच गई... शरद ने भी अनुकरण किया... बाहर उसकी जीप खड़ी थी। शरद अब भी चुप खड़ा था। चाहता क्या है आखिर, शायद उसे भी नहीं पता... क्या चाहता है, वह? क्यों खड़ा है? दोनों पाकेट में हाथ डाले, उसने खोयी-खोयी निगाहें उसके चेहरे पर टिका दीं। नजरें जरूर उसके चेहरे पर थीं। पर वह जैसे उसे देख कर भी नहीं देख रहा था। क्षण भर को वह भी, जैसे वहाँ होकर भी नहीं थी।

एकाएक... खन्न की आवाज आई। दोनों ने चौंक कर देखा, एक बच्चा कंकड़ों से पेड़ पर निशानेबाजी का अभ्यास कर रहा था। वहीं से एक नया संदर्भ मिल गया। अब इस मुलाकात पर ‘द एण्ड‘ लगाना ही होगा। शरद की ओर देखा और पाया की इस आवाज ने शरद को भी धरा पर ला खड़ा किया है।

पूरी चुस्त-दुरूस्त मुद्रा में बड़ी गर्मजोशी से उससे हाथ मिलाया... थैंक्यू कहा और एक ही छलाँग में जीप पर सवार हो गाड़ी स्टार्ट कर दी पूरे वेग से काली सड़क पर जीप दौड़ पड़ी....और वह चला गया ,बिना मुड़े।

शिथिल कदमों से लौट पड़ी वह और बैग से काला चश्मा निकाल, लगा लिया आँखों पर... जबकि आकाश में फिर से काले-काले बादल घिर आए थे।


(इति - शुभम्)

Monday, January 25, 2010

और वो चला गया,बिना मुड़े....(लघु उपन्यास )--7


(नेहा स्कूल की प्रिंसिपल है.अपने केबिन में अचानक शरद को आते देख चौंक जाती है.और उसे शरद से अपनी पहली मुलाकात याद आने लगती हैं.यह भी कि किशोरावस्था में वह कितनी शैतान थी.सबको कैसे तंग करती रहती थी.शरद ने जब उसके साथ एक छोटी बच्ची की तरह बर्ताव किया तो बहुत नाराज़ हुई थी वह.पर धीरे धीरे शरद से दोस्ती हो गयी और शरद ने घर का बोझिल वातावरण बदलने में बहुत मदद की.धीरे धीरे दोनों के मन में प्यार के अंकुर ने जन्म लिया और बात एंगेजमेंट तक पहुँच गयी.)

गतांक से आगे

सुबह काफी देर से आँखें खुली। नींद जो रात भर नहीं आती....पहले तो पता ही नहीं था कि नींद क्यूँ रात भर नहीं आती और आज जब पता है तब भी दगा दे जाती है.
फ्रेश हो, लिविंग रूम में आकर न्यूजपेपर खोला और जो हेडलाईन पर नजर पड़ी तो चौंक गई। पेपर हाथ में लिए ही लॉन की ओर दौड़ी... डैडी को बताने। बचपन की आदत है उसकी कोई भी नई खबर पढ़ी और डैडी को बताने दौड़ पड़ी।

‘डैडी... डैडी... न्यूजपेपर देखा आपने... लड़ाई शुरू हो गई है...‘ और फिर पेपर उनके सामने कर दिया...

डैडी ने पेपर एक ओर हटा दिया और भारी स्वर में बोल -‘मैंने सुबह ही पढ़ लिया है‘ - बिना ध्यान दिए ही अपने उत्साह में उसने जोर-जोर से पढ़ना शुरू कर दिया तो रूखे स्वर में बोले डैडी -‘अपने कमरे में जाकर पढ़ो, यहाँ शोर मत करो।‘

गुस्से से पैर पटकती चली आई, वह एकदम पहले वाले डैडी होते जा रहे हैं - अपने कमरे में पैर रखा ही था कि शेल्फ पर रखे, शरद की तस्वीर पर जो नजर गई तो एक पल में ही डैडी के रूखेपन का कारण समझ में आ गया। पेपर हाथों से चू पड़ा, आँखों के समक्ष अँधेरा छा गया - ओह! इस युद्ध का सम्बंध शरद से भी तो है - पसीने से सारा जिस्म नहा उठा। अगर लड़खड़ा कर कुर्सी न थाम लेती तो सीधी जमीन की शोभा बढ़ा रही होती। फिर भी खड़खड़ाहट की आवाज सुन बुआ दौड़ी हुई आई (तो, बुआ भी सुबह-सुबह खबर पढ़ते ही आ गई) जमीन पर पड़े अखबार और उसके पीले चेहरे ने सारा माजरा समझा दिया, उन्हें। बुआ ने उसे संभाल कर लिटा दिया और सर सहलाती देर तक समझाती रहीं -‘तू तो इतनी समझदार है, नेहा। ऐसे धीरज नहीं खोते... तुझे ऐसे देख, भैय्या-भाभी पर क्या बीतेगी...‘ - बुआ बोलती चली जा रही थीं। वह सुन तो रही थी लेकिन एक शब्द भी दिमाग तक नहीं जा रहा था। सोचने-समझने की शक्ति जाने कहांँ चली गई थी। शरीर शिथिल पड़ता जा रहा था और मस्तिष्क निस्पंद। बस ऐसा लग रहा था, जैसे बहुत थक गई है, वह। आँखें खोलने में भी कष्ट होता, जैसे मन-मन भर के बोझ रखे हो, दोनों पलकों पर।

किसी तरह खुद को समेट कर लिविंग रूम में टीवी के सामने आ बैठी। भैया ने जिस तत्परता से उठ कर सोफे पर न्यूजपेपर समेटे और कंधे पर हाथ रख पास बिठा लिया कि आँखें भर आईं उसकी। कुछ ही घंटों में क्या-क्या न बदल गया। सारा घर पास-पास बैठा टीवी पर नजरें जमाए था... पर सब एक-दूसरे से निगाहें, कतरा रहे थे। दो-चार बातें होतीं... वो भी इतनी धीरे कि विश्वास करना कठिन हो जाता कि सचमुच वे जुमले हवा में तैरे भी हैं; लगा जैसे एक झंझावात गुजर गया था और छोड़ गया था अपने पीछे छूटे अवशेष... जिनमें जीवन का कोई चिन्ह शेष नहीं बचा था।

‘एंगेज्मेंट‘ के लिए शरद एक हफ्ते की छुट्टी लेकर आया था। फोन किया कि ‘एंग्जेमेंट‘ तो नहीं होगा, पर फ्रंट पर जाने से पहले वह मिलते हुए इधर से ही जाएगा। डैडी ने कहा भी अब आ ही गए हो तो... ये सेरेमनी भी अब हो ही जाने दो, पर उसने सख्ती से मना कर दिया।

वादे के अनुसार, शरद आया भी लेकिन इस बार कोई दौड़कर रिसीव करने नहीं गया। सब उसे खरामा-खरामा भीतर आते देखते रहे। भैय्या ने जरूर दो कदम आगे बढ़ बाहों में भर लिया था। शरद के धूपखिले मुस्कान वाले चेहरे पर भी कुछ तैर आया था। डैडी के पैरों की ओर झुका तो उन्होंने आधे में ही रोक उसे सीने से लगा लिया था। आँखों के गीलेपन को छुपा गए थे; वह सबों से दो कदम पीछे खड़ी थी... शरद की खोजती निगाहें उस पर टिकी और आंखों मे ही मुस्करा दिया पर आंखों की उदासी उससे छुप नहीं सकी थी।

फिर भी उसने अपनी पुरानी जिंदादीली वैसे ही बरकरार रखी थी -‘अंकल देखिए तो कितना भाग्यशाली हूँ मैं? कहाँ तो लोग ट्रेनिंग ले-ले कर बरसों पड़े रहते हैं और अपने जौहर दिखाने का कोई अवसर नहीं मिलता और एक मैं हूँ, इधर ट्रेनिंग पूरी की और शौर्य-प्रदर्शन का इतना नायाब मौका मिल गया। बोलिए हूँ न, भाग्यवान।‘

और माली काका पर नजर पड़ते ही बोला - ‘हल्लो! माली काका -‘ फिर दूसरे ही क्षण - ‘अरे, अरे हिलो नहीं, मैं तुम्हें हिलने को थोड़े ही कह रहा हूं...‘ साथ ही पूरे दिल की गहराई से लगाया गया ठहाका।

ऐसे ही, नाश्ते के वक्त -‘हेलोऽऽ काकी, कैसी हो?‘ - काकी अबूझ सी मुंह देखती रही तो हँस पड़ा -‘अरे, बाबा ये थोड़े ही पूछ रहा हूँ कि ‘हलवा‘ कैसा है? पूछ रहा हूँ... तुम कैसी हो।‘

पापा ने दो-चार बेहद करीबी दोस्तों को चाय पर बुला लिया था... (शर्मा अंकल तो, खैर सुबह से यहाँ ही थे) सब शरद को शुभकामनाएँ देना चाहते थे।

सबके बीच भी शरद की जिंदादीली वैसे ही, बरकरार थी - खन्ना आंटी को सफेद बैकग्राउंड वाली साड़ी में देखकर बोला -‘क्या आंटी, आपने ऐसी साड़ी पहन रखी है अरे! ये तो सुलह का प्रतीक है। इस बार हम लोग कोई समझौता-वमझौता नहीं करेंगे। इस्लामाबाद तक खदेड़ कर न रख दिया तो कहना‘ -‘वही बेमतलब सी बातें जो कोई अर्थ नहीं रखतीं पर जड़ता तोड़ने में बड़ी सहायक होती है।

जब रघु चाय लेकर आया तो फिर शुरू हो गया -‘यार रघु! क्या चाय बनाते हो तुम, चाय तो तुम्हारी नेहा दीदी, बनाती हैं। आह! एक बार पी ले आदमी तो स्वाद जबान से नहीं छूटे। जीवन भर दूसरा कप पीने की जरूरत नहीं। क्यों नेहा? आइडिया... उन पाकिस्तानियों पर गोलियाँ बरबाद करने से क्या फायदा... बस एक-एक कप चाय पिला दी जाए उन्हें... उनके सात पुश्त भी न रूख करने की हिम्मत करेंगे, भारत का... अऽऽ नेहा, जरा नोट करवा दो तो विधि...‘

इस बात को गुजरे दो साल से ऊपर हो चले थे। पर शरद एक भी मौका नहीं छोड़ता - इसका जिक्र करने का। अभी भी बड़ी तफसील से सबको बता रहा था - ‘कैसे वह पहले दिन पेश आई थीं... और कोई रिएक्शन न देख, बड़ी निराश हो चली गई थी।‘

वह फिर से उठकर जाने लगी तो बोला -‘अरे, अपनी तारीफ सुन कोई यूँ भागता है... बैठो, बैठो... और नेहा उस दिन शास्त्रीय संगीत का कौन सा रेकॉर्ड लगाया था, तुमने?‘

‘मुझे याद नहीं‘ - उसने नजरें झुकाए धीरे से कहा तो एकदम झुंझला गया, वह - ‘ओह! गाॅड! दुश्मन की गोली खत्म करे, इससे पहले तुम लोगों की ये मनहूस चुप्पी, मार देगी, मुझे... वहाँ के रोने-धोने से घबराकर भागा तो यहाँ ये आलम है। ... सबके चेहरे ऐसे गमगीन है, जैसे मेरी मय्यत का सरंजाम हो रहा है... बाबा अभी बहुत दिनों तक रहना है, मुझे इस संसार में, क्यों तुमलोग अंतिम विदा कहने पर तुले हो?‘

भैय्या ने तेजी से आकर उसे कंधों से थाम लिया, और सीधा आँखों में देखता हुआ जोर से बोला - ‘डोऽऽन्ट... एवर से दैट, ओक्के?‘

मम्मी भी उठकर उसके पास चली गईं और हल्के से उसके बाल बिखेरते हुए बड़े अधिकारपूर्ण स्वर में लाड़ भरा उलाहना दिया -

‘ऐसा नहीं कहते, बेटे‘

‘तो क्या करूँ आंटी... आप देख रही हैं न घंटे भर से अकेले ही हँस-बोल रहा हूँ और किसी के चेहरे पर हँसी की एक रेखा तक नहीं।‘

‘अब कोई शिकायत नहीं होगी बेटे...‘ और मम्मी खुलकर मुस्करा दी।

‘वाउ! वंडरफुल... ऐसा ही माहौल रहा तब तो मेरी भी हिम्मत बनी रहेगी... वरना कभी-कभी तो लगता है - क्या सचमुच लौट कर नहीं देखूंगा ये सब -‘

‘अरे , तूने फिर बोला ये... और भैया के हाथ में कोई पेपर था, उसे ही गोल कर... दो-चार जमा दिया शरद को।

‘अरे... इतनी जोर से लगी... अभी बताता हूं तुझे...‘ और वह भैय्या के पीछे दौड़ा... दोनों की इस धींगामुश्ती ने घर का माहौल हल्का करने में काफी मदद की।

लेकिन शरद खुद भीतर से कितना अशांत है... उसके ठहाके कितने बेजान हैं, हँसी कितनी खोखली है... ये तो बाद में पता चला।

जाने क्यों... सबके बीच उसका मन नहीं लग रहा था... छत पर चली आई और यूं ही शून्य में जाने क्या देख रही थी कि किसी की उपस्थिति का अहसास हुआ। पलट कर देखा, तो शरद था... जाने कब से खड़ा था... एक हूक सी उठी लेकिन जब्त कर गई। स्नेहसिक्त मुस्कान से नहलाते हुए बोला... ‘चलो, जरा टहल आएं... थोड़ी दूर‘। उसने असमंजस में दरवाजे की तरफ देख तो आश्वस्त कर दिया -‘मैंने मम्मी से पूछ लिया है।‘

छोटे वाले गेट से निकल कर वे पगडंडी पर आ गए - थोड़ी दूर पर ही एक पतली सी पहाड़ी नदी बहती थी... कोई भी बात शुरू नहीं कर पा रहा था... दोनों ही खोए-खोए से अपने विचारों में गुम कदम बढ़ा रहे थे... थोड़ी देर बाद शरद ने धीरे से उसका हाथ, अपने हाथों में ले लिया... बस अंतर उमड़ पड़ा उसका... आँखों से वर्षा की झड़ी की तरह बूंदे चेहरा भिगोने लगीं। उसने निगाह नीची कर ली, सिसकी अंदर ही घोंट ली। शरद खुद में ही खोया सा चल रहा था। नदी के कगार पर पहुंच इधर-उधर देखते हुए बोला -‘कहाँ बैठा, जाए?‘

और इस क्रम में जो उसपर नजर पड़ी तो चैंक पड़ा - ‘अरे, नेहा! ये क्या;बेवकूफ लड़की...‘ लेकिन वह अब और नहीं जब्त का सकी - अपना हाथ खींच, पास ही एक पत्थर पर बैठ, घुटनों में सर छुपा, बेसंभाल हो फफक पड़ी। शरद उसके पैरों के पास बैठ गया। दोनों हाथों से उसका सर उठाने की कोशिश करता हुआ बोला - ‘नेही, प्लीज, ये क्या लगा रखा है?‘

पर जाने कहाँ से आँसू उमड़े चले आ रहे थे। भीतर मानो कोई ग्लैशियर पिघल गया था, जो आंखों के रास्ते अपनी राह बना रहा था।

उसकी ये हालत देख, शरद भी घबड़ा उठा। बड़ी आजीजी से गीली आवाज में बोला- ‘नेही... नेही.. प्लीज ऐसे मत रो पगली... बोल कैसे जा पाऊँगा मैं? ...तुझे ऐसी हालत में छोड़कर कदम उठेंगे, मेरे?... बोलो... नेहा प्लीज... मेरे सर की कसम जो और ... जरा भी रोई...‘

बड़ी मुश्किल से काबू कर पाई, खुद पर। उसका चेहरा हथेलियों में भर शिकायती स्वर में बोला -

‘यों कमजोर न बनाओ मुझे‘; आवाज की कम्पन ने ही उसे आँखें उठाकर देखने पर मजबूर कर दिया। बिना आँसुओं के ही वे आँखें, इस कदर लाल थीं कि... उनका दर्द देख अंदर से हिल गई। और दिल चीर कर रख देने वाली आवाज में फूट पड़ी - ‘शऽरऽद‘ और उन्हीं हथेलियों में सर छुपा सिसक पड़ी।

‘नेहा... तू इस कदर परेशान क्यों है? क्या लगता है, तुझे... और शरद ने हथेली खींच, उसके सामने फैला दी - ‘ये... ये... देख... कितनी लम्बी आयु रेखा है मेरी... कुछ नहीं होगा, मुझे... नेहा, सच... तेरी आस्था... तेरा विश्वास और तेरा प्यार मेरे साथ है... क्यों है न?‘ और फिर मुस्करा कर जोड़ा - ‘कहीं, ऐसा तो नहीं कि ये बस एकतरफा प्यार ही है, तुमने कभी कुछ कहा ही नहीं।‘

बच्चों की तरह हथेलियों से आँखें पोछते... बिना सोचे-समझे वह बोल पड़ी -‘तुमने ऐंगेज्मेंट-’सेरेमनी‘ क्यों नहीं होने दी?‘

‘ओफ्फोह!! तो इसीलिए सारा पागलपन है, तुम्हारा‘ - हँस पड़ा था शरद (इस स्थिति में भी संभालना जानता है, खुद को... आखिर मिलीट्री मैन है) -‘सच्ची... बेवकूफ की बेवकूफ रही तू... इसमें क्या मुश्किल है, लो अभी हुआ जाता है... ये तो मन के रिश्ते है न... लोगों की भीड़ की क्या जरूरत? - और शरद ने अपनी अंगुली में पहनी अंगूठी डाल दी थी उसकी ऊँगली में, फिर बोला -‘अब तुम्हारी अंगूठी तो मुझे आएगी नहीं‘ - पास से ही एक लम्बी सी घास तोड़, उसे गोल-गोल घुमा एक छल्ले सा बना दे दिया, उसे - ‘लो अब जरा अपनी अँगुलियों को भी कष्ट दो।‘

उसने काँपते हाथों से पहना दी तो बड़े आग्रह से बोला -

‘अब एक बार तो मुस्करा दो‘ - और उसकी मुस्कराहट देख दर्द से आँखें फेर लीं, उसने -‘तुम्हारे मुस्कराने से तो तुम्हारा रोना लाख दर्जे बेहतर था।‘

जाने कितनी देर तक चुपचाप बैठे रहे दोनों। गहन चिंता में डूबा चेहरा लग रहा था, उसका। जब थोड़ा अंधियारा घिरने लगा तो, वह उठ खड़ी हुई। लेकिन शरद ने फिर खींचकर बिठा दिया, उसे और थरथराती आवाज में बोला -‘नेहा, पहले एक वादा करो, अब और नहीं रोओगी, तुम।‘ तुम इस कदर भावुक हो, ऐसा तो मैं कभी सोच भी नहीं सकता था। तुम्हें तो एक चंचल, शरारती लड़की ही समझता था और वही रूप पसंद है, मुझे। जानती हो, कितना अशांत कर दिया तुम्हारे इस रूप ने? वहाँ मन लगेगा मेरा... बार-बार तुम्हारे इसी रूप का खयाल आता रहेगा। और बोलो... चाहती हो कि कुछ का कुछ कर बैठूं - नहीं नेहा, यहाँ सिर्फ मेरा-तुम्हारा नहीं... पूरे देश का सवाल है। बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, मुझपर। जिस निभाने के लिए शांत-निरूद्वेग दिमाग चाहिए। और इसके लिए मुझे तुम्हारा सहयोग चाहिए - बोलो करती हो वादा‘ - उसके हँसते-खिलखिलाते चेहरे के बीच, उसका यह रूप, शरद का मन स्वीकार नहीं कर पा रहा था।

आँसू पीती बोली थी वह - ‘वादा करती हूँ, शरद।‘

‘ना, ऐसे नहीं... खाओ मेरी कसम‘ और अपना हाथ आगे बढ़ा दिया। हाथ थाम वह फिर सिसक उठी थी... पर तुरंत संभाल लिया खुद को।

‘तुम्हारी, कसम, शरद... शिकायत का कोई मौका नहीं मिलेगा, तुम्हें।‘

‘कब्भी नहीं‘’- शरद ने शरारत से मुस्करा कर पूछा था (ये शरद भी सचमुच एक पहेली है)

‘कभी-नहीं‘’ - आँसू पोंछ दृढ़ स्वर में बोली थी वह। ‘अरे, नहीं यार! मेरी मौत की खबर सुन तो दो-चार अश्रु-बूँद टपका ही देना, वरना आत्मा भटकती रहेगी...‘ -- हँस कर बोला तो उसने‘-

‘तुम बहुत बुरे हो, बहुत बुरे... सच्ची बहुत बुरे हो...‘ कहती मुट्ठियों की बौछार सी कर दी उस पर।

उसके हमले से खुद को बचाता, शरद बोला -‘अरे! तुम दोनों भाई-बहन किस जनम की दुश्मनी निकाल रहे हो‘ - और एकदम से उसे खींच कर बाहों में भर लिया।

एक पल को लगा, जैसे सृष्टि थम सी गई है। अभी उसके सीने की धधकती आंच ठीक से महसूस भी न कर पाई थी कि झटके से अलग करता हुआ बोला -‘चलो, चलो सब ढूँढ़ रहे होंगे, हमें... बहुत देर हो गई है।‘(स्टुपिड! डर है, कहीं कमजोर न पड़ जाए, मन ही मन हँस पड़ी वह)

वापसी का रास्ता बहुत ही आसान लगा। शरद ने एक बांह से घेर, उसे कंधे से लगा लिया था... और मन का सारा बोझ, सारा गम जाने कहाँ विलीन हो गया।

जाने कैसी शक्ति सी आ गई थी... एक विश्वास सा जम गया था... अब कुछ अघटित नहीं होगा... बिल्कुल शांत हो आया था उसका मन। अब ये बदलाव शरद के दो पल के साथ ने दिया था या... अँगुली में पड़ी इस अँगूठी ने... कहना मुश्किल था।

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और शरद के प्रयासों ने घर का माहौल बदलने में पूरा सहयोग दिया। उदासी के बादल थोड़े ही सही, मगर छँटे जरूर थे। एक-दूसरे को संभालने के लिए जबरदस्ती ही हँसने-बोलने की कोशिश बोझिलता कम करने में बड़ी सहायक सिद्ध हुई थी। शरद तो उसी रात सीमा पर चला गया था पर वहाँ से भी उसने घर का वातावरण हल्का बनाए रखने की कोशिश जारी रखी थी। फोन तो कभी-कभार आते और इतनी डिस्टर्बेंस की कुशल-क्षेम भी ठीक से नहीं पूछ पाते एक-दूसरे का। पर उसके छोटे-छोटे खत बड़े मजेदार होते... बड़े ही मनोरंजकपूर्ण ढंग से वह युद्ध का वर्णन करता। घर में जीवंतता की लहर दौड़ जाती। उसके नाम अलग से कभी कोई खत नहीं होता... हाँ दो-चार लाइनें जरूर रहती उसके लिए। कभी तो बस इतना ही होता... ‘मैंने तुम्हें कुछ लिखने ही वाला था... पर ध्यान आया... तुमने तो रिप्लाय दिया ही नहीं... फिर क्यों लिखूँ मैं?‘
(क्रमशः)

Thursday, January 21, 2010

और वो चला गया,बिना मुड़े....(लघु उपन्यास )--6


अपने कमरे में पढ़ाई में मन लगाने की कोशिश कर रही थी.इतना डर लग रहा था,बिलकुल भी नहीं पढ़ पा रही थी और
ऐसे में में जब बुआ बड़े शौक से गहनों की डिजाइन पसंद कराने उसके कमरे में आईं तो सुलग उठी वह।

‘देख तो नेहा, कौन-कौन सी पसंद है तुझे?‘

‘मेरी पसंद का क्या करना है?‘- किसी तरह गुस्सा दबाते सपाट स्वर में बोली।

‘तो और किसकी पसंद का करना है। बंद कर लिखना, आ कर देख तो.. कितनी सुंदर-सुंदर है...‘ पलंग पर करीने से सजा रही थीं वह।

‘मैं जेवर पहनती भी हूँ ' - कलम चलाना जारी रखा।

‘तो, अब जो पहनना होगा... जल्दी कर जैमिनी ज्वेलर्स का आदमी बैठा है बाहर।‘

‘क्यों अब क्या खास बात हो गई भई जो पहनना होगा... मुझे नहीं पहनना जेवर-फेवर।‘

‘ओह! नेहा, मेरा दिमाग मत खराब कर... चल आ कर देख ले चुपचाप‘ - खीझ गई बुआ।

और एकदम तैश में आ गई वह -‘दिमाग तो मेरा खराब कर रखा है, तुमलोगों ने... एक मिनट चैन से रहने भी दोगे या नहीं। मैंने हजार बार कह दिया है... मुझे शादी नहीं करनी है, नहीं करनी है... फिर भी जेवर पसंद कर लो तो साड़ियाँ पसंद कर लो... क्यों आज डिजाईन पसंद कराने क्यों आई... एक ही बार ‘इन्वीटेशन कार्ड‘ लेकर आती कि ‘नेहा, कल तेरी शादी है‘ - उस समय अड़ जाती न तो बहुत अच्छी इज्जत बनती, डैडी की। एकदम गूँगी गाय ही समझ लिया है, लोगों ने। जिसके खूँटे बाँध देंगे, चुपचाप चली जाऊँगी... तो नेहा, ऐसी लड़की नहीं है... साड़ियों और जेवरों में तो पसंद पूछी जा रही है, पर जहाँ जिंदगी का असली सवाल है... सब मौन हैं... जिस लूले-लँगड़े के जी में आएगा... गले मढ़ देंगे।

बुआ आवाक् देख रही थीं... उसे, अब हँसी फूटी उनकी... ‘बाबा, वह लूला-लंगड़ा नहीं है... क्यों परेशान हो रही है तू।‘

‘ना सही, साक्षात् कामदेव ही सही... लेकिन कह दिया न... ये राह मेरे लिए नही ंतो नहीं, और अब मेरे कमरे में ये सब आया न तो सब उठा कर फेंक-फांक दूँगी, नहीं देखूँगी हीरा है या सोना।‘ बात खत्म करने के अंदाज मे कही उसने और किताबें समेटने लगी।

बुआ ने भी हँस कर माहौल हल्का करने की कोशिश की... ‘अच्छा, अच्छा बंद कर अपना ये भाषण, किसी डिबेट के लिए संभाल कर रख, खूब तालियाँ मिलेंगी... अभी चुप कर प्राईज की जगह डैडी की डाँट ही मिलेगी। बाहर कुछ लोग बैठे हैं... क्या सोचेंगे।‘

‘सोचेंगे... पत्थर - जी में आया कहे, किंतु बिल्कुल थक गई थी। निढाल हो, सर टिका दिया, मेज पर।


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चेहरे पर पानी के छींटे मार लौट ही रही थी कि बुआ और मम्मी की बातचीत का स्वर कानों में पड़ा... बरामदे में ही रूक गई।

‘कमाल है, भाभी, जवाब नहीं आप लोगों का भी, कहाँ तो भैय्या कहते थे कि नेहा की पसंद के लिए कोई जाति, धर्म, देश... कोई बंधन नहीं मानेंगे और बिचारी को आज यह भी पता नहीं कि अगर शादी हो रही है तो किससे हो रही है। आज कल साधारण घरों में भी खानापूर्ति ही सही, पूछ तो लेते हैं, बता तो देते हैं।‘

‘ये क्या कह रही हो सुधा?? नेहा, अच्छी तरह उसे जानती है, भई। बल्कि हमलोग तो यही समझ रहे हैं कि, आपस में तय है, इन लोगों का.... उधर से ही प्रपोजल आया है।‘‘

‘मुझे तो ऐसा नहीं लगता... बार-बार वही पुरानी रट- ‘मुझे शादी नहीं करनी-शादी नहीं करनी‘

‘हे भगवान! तब तो ये लड़की परेशानी खड़ी कर देगी। बात इतनी आगे बढ़ चुकी है।‘

‘हुंह!!‘ - मुँह बनाया उसने। बात तुमलोग बढ़ाओ और परेशानी खड़ी करूँ मैं। लेकिन ये काम है किसका, जरूर वो चश्मुद्यीन होगा। इतना सीनियर होने पर भी आगे-पीछे घूमता रहता है -‘नेहा तुम्हें नोट्स, चाहिए होंगे या बुक्स, तो बताना मुझे।‘ लाइब्रेरी बंद हो गई है जैसे... दुनिया का आखिरी आदमी होता न तब भी उससे लेने नहीं जाती, नोट्स...

रंग-ढंग तो बहुत दिनों से देख रही थी - लिफ्ट नहीं दी तो यहाँ तक बढ़ आया। आई. ए. एस. में क्या सेलेक्ट हो गया। यहाँ तक अधिकार समझ बैठा तो बैठे रहे जिंदगी भर। मिला तो था उस दिन शर्मिला की पार्टी में -‘नेहा, मुझे कांग्रेचुलेट नहीं किया न... इस लायक मैं कहाँ? पर मिठाई तो आ कर खा लीजिए किसी दिन‘ - जरूर उसी के यहाँ से प्रपोजल आया होगा और मम्मी-डैडी तो सातवें आसमान पर पहुँच गए होंगे। घर बैठे, आई. ए. एस. लड़का मिल गया। अभी-अभी जमीन पर आ जाएंगे वे।

अजीब मन की हालत हो गई है। पढ़ भी कहाँ पाती है, इतना डिस्टर्ब रहती है। फाइनल सर पे आ गया है... फेल-वेल हो जाएगी तो खुशी होगी, इन लोगों को।

नए सिरे से किताब में मन लगाने की कोशिश कर ही रही थी कि बुआ आती दीखीं। हाथ में उनके एक फोटो था। देखते ही बिफर पड़ी।

‘बुआ! मैंने कह दिया है न‘

‘तूने जो कहा है, मैंने सुन लिया और अब मेरी भी सुन‘ - शांत स्वर में बोलीं वह।

‘मुझे कुछ नहीं सुनना...‘ और किताब नजरों के सामने कर जोर-जोर से पढ़ने लगी।

‘ठीक है, फोटो रखती जा रही हूँ.... कल सुबह मुझे अपने विचार बता देना... कुछ हल निकालना होगा या नहीं। तुम अपनी बात पर अड़ी रहो... भैया-भाभी अपनी बात पर... और बाकी लोग मुफ्त में तमाशा देखें।‘

‘मेरे विचार सबको अच्छी तरह मालूम है... और ये भी अपने साथ लेती जाओ-‘ कह हाथ मार कर फोटो गिरा दिया, पर इस क्रम में तस्वीर पर जो नजर गई तो फ्रीज हो गई वह। आश्चर्यचकति जाने कब तक वैसे ही खड़ी रह गई। हे ईश्वर! आँखें सही-सलामत तो है न, क्या देख रही है यह - जमीन पर शरद पड़ा मुस्करा रहा था। धीरे से, काँपते हाथों से तस्वीर उठा ली और एक सिहरन रोम-रोम में दौड़ती चली गई...‘शऽरऽद‘ - उसे तो इस रूप में कभी देखने की कल्पना ही नहीं की। देर तक उसके चेहरे पर देखते रहने की ताब नहीं थी। धीरे से टेबल पर तस्वीर सरका दी और खिड़की पर चली आई। अजीब गुमसुम सा लग रहा था, सबकुछ। किसी बिंदु पर विचार टिक ही नहीं रहे; क्यों अचानक इतना हल्का हो आया मन, सारा तनाव जाने कहां विलीन हो गया। मुस्काराहट खेल आई, चेहरे पर... ‘यू इडियट‘ उसे भी अंधेरे में रखा... किस कदर परेशान किया।

खिड़की के बाहर चटकीली चांदनी फैली थी। और अनायास उसे टेरेस पर वाली चांदनी रात याद हो आई... क्या शरद भी अभी अपने छत पर खड़ा निरख रहा होगा, चांदनी में नहायी इस सृष्टि को? क्या याद आई होगी, उसे भी... उस दिन की।

लिविंग रूम से आते बातचीत के स्वर में बार-बार उसका नाम उछल रहा था। ध्यान दिया.. मम्मी थीं।

‘सुन लिया न, फिर न कहिएगा, पहले क्यों नहीं बताया।‘

डैडी हूँ... हाँ करते न्यूजपेपर में डूबे थे।

पूरा एडिटोरियल खत्म कर, पेपर रखते हुए पूछा... ‘हां, वो जेमिनी ज्वेलर्स को आर्डर दे दिया।‘

‘कैसा आर्डर?'

‘क्यों‘...चौंके ' डैडी।

खीझ गईं मम्मी -‘क्या कह रही हूँ, तब से, बिटिया रानी तैय्यार नहीं है शादी को।‘

‘ये... ये सब क्या तमाशा है-‘ डैडी जोर से बिगड़े।

‘पूछिए अपनी लाड़ली से... जो बात थी मैंने कह दी।‘

‘अऽऽ नेहा... कहां है? नेहा ऽऽ‘ डैडी ने गुस्सैल आवाज में पुकारा तो उसने धीरे से लाइट आफ कर दी। पर स्विच आॅफ करते-करते ही शरद की मुँह चिढ़ा दिया -‘वाज नहीं आए, दूर रहकर भी डाँट सुनवाने से।‘

बुआ ने कह दिया - ‘सो गई है।‘

पर नींद कहाँ आ रही थी? कुछ सोच भी नहीं पा रही थी पर जाने क्यों फूल सा हल्का हो उठा था उसका तन-बदन। लगा जैसे बड़ी मुश्किल से किसी चक्रव्यूह से निकल आई हो... सीने पर रखा कोई पत्थर सरका है, जिसके तले उसका दम घुट रहा था... अब खुलकर सांस ले सकती है। बहुत बड़ी समस्या सुलझ गई है, हालाँकि समस्या तो अपनी जगह है -‘क्यों शादी तो नहीं करनी ना, उसे? छोड़ो भी... बाद में सोचेगी यह सब। लेकिन ये शरद भी खूब निकला... एकदम छुपा रूस्तम, उसकी कारस्तानी है यह, कभी सोच भी नही सकती थी। या शायद परमानेंट डाँटने का जुगाड़ बैठा रहा है। और... सचमुच समस्या तो अपनी जगह है, शादी नहीं करनी न... पर क्यों पहले वह इतनी उद्विग्न हो रही थी और अब सहज, शांत है... कहीं सच्चाई तो नहीं थी स्वस्ति की बातों में। हालाँकि, उस दिन तो वह बहुत बुरा मान गई थी जब फूल की बात हो रही थी और स्वस्ति कह उठी थी -

‘अपनी नेहा, फूल तो है ही, पर शरद ऋतु में खिलने वाली।‘

नहीं समझी तो स्वस्ति ने बड़ी अदा से हँस कर दुहराया था -‘हाँऽऽ, शरद ऋतु‘

और उसने बड़ी जोर से डाँट दिया था - ’स्वस्ति! होश संभाल कर बातें किया करो।’

कहीं उसकी आँखों नें कुछ कह तो नहीं दिया... ऊँह! छोड़ो! होगा कुछ बाद में सोचेगी अभी तो नींद आ रही है, उसे। और सचमुच उन पंडित जी के दर्शन के बाद पहली बार पूरी पुरसुखद नींद ली उसने और किसी दुःस्वप्न ने नहीं डराया।

डर था... डैडी बुलाकर क्राॅस एग्जामिनेशन न शुरू कर दें - लेकिन किसी ने नहीं पूछा कुछ। बुआ ने भी नहीं - शायद उसके खिले-खिले चेहरे ने ही कोई सूत्र थमा दिया उन्हें।


अपनी किताबों में डूबी थी कि अचानक फोन की घंटी बज उठी.इंतज़ार करती रही.कोई तो उठाएगा
पर मम्मी हमेशा की तरह बाज़ार गयी हुईं थीं.'रघु'....'रघु' ऊँचे स्वर में पुकारा. पर रघु शायद घर में नहीं था.

भुनभुनाती हुई अपने कमरे से निकली. जरूर मम्मी की किसी सहेली का होगा.'मेरी बेटी तो डायटिंग के चक्कर में कुछ खाती ही नहीं'...'बेटा बिलकुल नहीं पढता'...पति को तो जैसे घर से कोई मतलब ही नहीं बस काम और काम'..यही सब होगा..या फिर महरी गाथा.इनलोगों को दूसरा कोई काम ही नहीं.जरा खाली हुईं और फोन लेकर बैठ गयीं.यही सब सोचते,रिसीवर उठा जरा,गुस्से में ही बोला, 'हेल्लो'

'नेहा'...उधर से थोडा आश्चर्यमिश्रित स्वर आया.और वह फ्रीज़ हो गयी. ये तो शरद की आवाज़ थी.

'नेहा...'

'.......'

"नेहा ...यू देयर "

"हूँ" ..गले से फंसी हुई सी आवाज़ निकली और इस 'हूँ' ने ही शायद शरद को उसके मन की हलचलों की खबर दे दी.थोड़ी देर को वह भी चुप हो गया.शायद बस एक दूसरे की साँसे ही सुन पा रहें थे.पर शरद ही पहले संभला.

'हम्म तो इसका मतलब है.....मैं रिजेक्ट नहीं हुआ'

'मुझे क्या पता'...धीरे से बोली वह.

'नाराज़ हो मुझसे '

'नहीं'

'लग तो रहा है...सॉरी नेहा..आयम रियली रियली सॉरी....मुझे सामने से कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ी.पता नहीं कैसा डर था,कहीं तुम मजाक बना, हंसी में ना उड़ा दो.डर गया था,तुम्हारी 'ना' सुनने के बाद कैसे जी पाऊंगा??इसीलिए बैकडोर से तुम्हारे मन का पता लगाना पड़ा....अरे, कुछ बोलो भी...अभी तक गुस्सा हो?

'मैं क्यूँ गुस्सा होने लगी...मुझे तो किसी ने कुछ कहा भी नहीं'

'ओह्ह!! तो ये बात है,लो अभी कह देते हैं...इसमें क्या है'....थोड़ी शरारत से बोला,शरद

'फोन पे??...हाउ बोरिंग'....डर गयी, पता नहीं क्या बोल दे.

'अच्छा तो आपको फ्लावर,वाइन और म्युज़िक के साथ चाहिए??'....शरद ने चिढाया.

'जी नहीं...इट्स सो प्रेडिक्टेबल'

'हे भगवान् तो क्या एफिल टावर के नीचे ले जाकर प्रपोज़ करूँ?'...जैसे खीझ गया था,शरद.
उसकी खीज देख,उसे भी मजा आने लगा और वो पल भर में पुरानी शरारती नेहा में बदल गयी.

'इतना ऊँचा नहीं उड़ती मैं...मेरे पैर ज़मीन पर ही हैं'

'तो तुम्ही बताओ'

'हम्म.....बीच रोड पे......बिलकुल बिजी सड़क हो...चारो तरफ से ट्रैफिक आ रहा हो...एकदम पीक आवर्स में...' उसकी कल्पना के घोड़े उडान भरने लगे थे.

'बस बस ...ये नहीं होगा मुझसे'

'ठीक है' फिर मेरी तरफ से ना'

'अच्छा...थोड़ा कन्सेशन मिलेगा...सड़क तो हो...पर सूनी सी..खाली सड़क?'

'जी नहीं..एकदम बिजी रोड....सारी गाड़ियां रुक जाएँ..ट्रैफिक मैन व्हिसिल बजाना भूल जाए'...मजा आ रहा था उसे...और मत बोलो..सब मन में छुपा कर रखो.

'नो वे...ये तो नहीं कर सकता मैं'

'ठीक है ...फिर कैंसिल'

'ओके...कैंसिल'

"क्या.... कैंसिल??'..उसने जरा जोर से ही कहा,तो शरद हंस पड़ा..'अरे! मुझे आने तो दो.रोड पे शीर्षासन करके प्रपोज़ करने को बोलोगी तो वो भी कर दूंगा'

वह भी हंसने लगी और तभी शरद बोल पड़ा,'ओ माई गोंड....आयम लेट....टाईम अप माई डियर ...मुझे भागना होगा,अब"

एकदम से निराश हो गयी...इतनी मजेदार बात चल रही थी.पर शरद ने अभी फोन रखा नहीं था.

'नेहा...'

'हम्म...'

बाय'...ओह्ह.. सिर्फ बाय कहना था उसे.

पर फोन तो अभी तक कट नहीं हुआ था.और उसकी सारी इन्द्रियाँ कानों में सिमट आई थीं.धड़कन तेज हो गयी थी...और शरद ने कहा..'प्लीज़ टेक वेरी गुड केयर ऑफ योरसेल्फ ...एन डू वेल इन योर एग्जाम'...जैसे शरद ने सारी इमोशंस उंडेल दी उन शब्दों में फिर कुछ रुक कर कहा.'आई मीन इट '.और फोन रख दिया

थोड़ी देर यूँ ही रिसीवर हाथों में लिए खड़ी रह गयी.कितना अच्छा है,घर में कोई नहीं है और वह थोड़ी देर यूँ चुपचाप,शांत खड़ी रह सकती है.फिर धीरे से रिसीवर रखा और धीमे कदमों से अपनी किताबों तक लौट आई.मन में बस चलता रहा...'प्लीज़ टेक केयर'...डू वेल'...'आई मीन इट'
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उसमें वही पुरानी चपलता लौट आई थी बस बीच-बीच में रोष की लालिमा की जगह सिंदूरी आभा छिटक आती, चेहरे पर। सहेलियों के बहुत कुरेदने पर भी सच्चाई नहीं आ सकी होठों पर। लेकिन जब एंगेज्मेंट का दिन करीब आने लगा तो स्वस्ति को राजदार बना ही लिया। सुन कर किलक उठी स्वस्ति... नाराज भी हुई। -

-‘हाय! सच नेहा, जा मैं नहीं बोलती तुझसे...इतना गैर समझा मुझे... बिल्कुल भी बात नहीं करनी तुझसे।‘ - लेकिन छलकती खुशी ने ज्यादा देर तक नाराजगी टिकने नहीं दी।

दूसरे ही पल उसका कंधा थाम बोली-

‘अच्छा बाूेल! मेरा गेस ठीक था या नहीं‘ वह भी मुस्कराहट दबाते धीमे से बोली - ‘लेकिन तेरा गेस तो उल्टा था... यहां मेरी तरफ से कुछ नहीं है।‘

‘अयऽ हय... अब झूठ मत बोल... दूध की धुली हो न तुम... खूब पता है हमें, तुम्हारे मन की।‘ - फिर कुछ सोचती सी बोली थी - ‘असल में नेहा, तू इतनी भोली है, इतना निष्पाप मन है तेरा कि तुझे अपने ही मन की खबर नहीं थी... सोच कर हँसी आती है। उन दिनों तेरी बातचीत का एक ही विषय हुआ करता था -‘शरद‘। तू बीसीयों बार नाम लेती, उसका लेकिन जहाँ हम कुछ कहते कि बिगड़ पड़ती‘ - और रहस्य भरी मुस्कराहट के साथ बोली - ‘मुझे तो लगता है, शरद से ज्यादा तू ही... बीच में ही बात काट दी उसने -‘बाबा, तुझे पढ़ाई करनी है या कहीं बाहर जाना है तो सीधे से बोल ना, मुझे क्यों बना रही है, सच्ची मैं चुपचाप चली जाऊँगी, बिल्कुल बुरा नहीं मानूँगी-‘

हँस पड़ी स्वस्ति - ‘अरे, नहीं, अब तो तेरे साथ का एक-एक पल कीमती है - सोचकर सिहर जाती हूँ, चली जाएगी तू तो कैसे बीतेंगे दिन, अपनी-तेरी दोस्ती पर हमेशा आश्चर्य होता है, मुझे... लेकिन तू अपनी अगंभीरता के विषय में इतनी गंभीर है कि मजे से पट गई मुझसे पता है विकी चाचा क्या कहते थे -‘

‘ये तेरे विकी चाचा क्या कर रहे हैं आजकल?‘

‘वही ‘रोड-इंस्पेक्टरी‘ और मुट्ठी में बारूद लिए घूमते हैं कि वश चले तो सारी दुनिया को आग लगा दें - खैर छोड़, पता है वो हमेशा कहते है कि ये ‘आग‘ और ‘बर्फ‘ का संगम कैसे हो गया? तू इतनी बातूनी, इतनी चंचल... सब से झट से दोस्ती कर लेती है और मेरे दोस्त ऊँगलियों पर गिने जाने वाले - पर अब तो नहीं कहेंगे‘ - भेद भरी मुस्कराहट के साथ बोली - ‘क्योंकि अब तो ये ‘फूल‘ और ‘बर्फ‘ का संगम है और इस मिलन से तो बस याद आता है, ‘गुलमर्ग‘! क्यों वहीं की बर्फ लदी चोटियाँ और डैफोडिल्स से भरी घाटियाँ साक्षी रहेंगी न...‘

‘तूने आज पूरी बनाने की कसम ही खा रखी है... अब चली मैं‘ - और वह सचमुच उठ खड़ी हुई।

स्वस्ति भी उठ आई -‘हाँ भई! शरद साहब की पसंद का ख्याल तो रखना है न... कहीं बातों-बातों में सात बज गए तो-‘ उसने गुस्से से आंखें तरेरीं तो स्वस्ति ने नाटकीय मुद्रा में आँखें बंद कर हाथ जोड़ लिए।

Monday, January 18, 2010

और वो चला गया,बिना मुड़े....(लघु उपन्यास )--5


‘नेहा ऽ ऽ ऽ ...‘ किसी ने इतनी मिठास भरी आवाज में पुकारा कि किताबें फेंक, उद्भ्रांत सी चारों तरफ देखने लगी।

‘नेहा ऽऽऽ-‘ फिर आवाज आई; मुड़ कर देखा, ओह! कोई नजर तो नहीं आ रहा। परेशान सी इधर-उधर देख ही रही थी कि तभी क्राटन के पीछे कुछ सरसराहट सी लगी।

एक ही छलाँग में पहुँच गई - ‘अरे! शऽरऽद... कब आए‘ - और हाथों से बैग थाम लिया।

‘कमाल है, सामन अभी हाथों में ही है, और पूछने लगीं... ‘कब आए‘ - जवाब नहीं लड़कियों के दिमाग का भी.

'ना कोई फोन, ना कोई खबर और इतने दिनों बाद यूँ ,अचानक'...चीख ही पड़ी जैसे

'वो लीव सैंक्शन हो गयी तो घर तो जाना ही था और इधर से होकर ही तो जाना है तो सोचा मिलता चलूँ'
'
'अच्छा ...यानी रास्ते में हमारा शहर नहीं पड़ता तो तुम मिलने नहीं आते'.....थोडा गुस्से में बोला,उसने.

'ऐसा कहना,मैंने ??'

'और क्या'

'क्या बात है बहुत हेल्थ बन गया है इस बार,..कितना पुट ऑन कर लिया है'...शरद ने बात बदल कर चिढाते हुए कहा.

हाँ! हाँ! चश्मा ले लो चश्मा, कल ही बुखार से उठी हूँ और तुम्हें मोटी दिख रही हूँ।‘


‘तो, ये इतना भारी बैग उठाए कैसे खड़ी हो,मेरा भी दम फूल गया था।‘

और उसके हाथों से बिल्कुल छूट गया बैग, ओह अँगुलियाँ टूट गईं, उसकी तो।

शरद जोरों से हँस पड़ा -‘हाँ! अब ख्याल आया कि लड़कियाँ नाजुक होती हैं।‘

‘नहीं, शरद, सच्ची बहुत भारी है।‘

‘अभी तो अच्छी भली उठाए खड़ी थी।‘

अब कौन बहस करे इससे। अंदर की ओर दौड़ पड़ी... 'मम्मी ....शरद आया है'

थोड़ी देर तक जम कर गुल-गपाड़ा मचा रहा।सावित्री काकी भी हाथ पोंछती किचेन से निकल आई थीं.रघु फुर्ती से पानी ले आया.कौन क्या कह रहा है, कुछ सुनाई ही नहीं पड़ रहा.पर सबसे ऊपर उसकी आवाज़ ही सुनायी दे रही थी.जब माली दादा ने दरवाजे से ही' नमस्कार,शरद बाबू' बोला..तो वह बोल पड़ी,'अरे माली दादा,अब इन्हें सैल्यूट करो.इन्हें नमस्कार समझ में नहीं आता.अब ये लेफ्टिनेंट बन गए हैं,देखते नहीं कितना भाव बढ़ गया है'...अनर्गल कुछ भी बोले जा रही थी.

शरद मंद मंद मुस्काता हुआ उसकी तरफ देखता बैठा रहा.एक बार लगा,शायद बुखार से कुछ ज्यादा ही दुबली हो गयी है,तभी इतने गौर से देख रहा है.पर उसने ध्यान दिए बिना अपना शिकायत पुराण जारी रखा...'पोस्टिंग इतनी पास मिली है,तब भी इतने दिनों बाद शकल दिखाई है.

'अरे बाबा तुम्हे पता नहीं कितना टफ जॉब है इसका और छुट्टी कहाँ मिलती है'...मम्मी ने बचाव करने की कोशिश की पर उसने अनसुना कर दिया...'अच्छा फोन भी करने की मनाही है?..इतनी बीमार थी मैं,एक बार फोन करके हाल भी पूछा??

'उसे सपना आया था कि तुम बीमार हो'

'क्यूँ नहीं आया,...आना चाहिए था'

मम्मी पर से निगाहें हटा,शरद ने कुछ ऐसी नज़रों से उसे देखा कि एकदम सकपका गयी..'लगता है कुछ ज्यादा ही बोल गयी.

शरद ने भी जैसे उसकी असहजता भांप ली.रघु से बोला,जरा मेरा बैग लाना.सबके लिए कुछ ना कुछ गिफ्ट लाया था.कहता रहा,माँ ने बोला,जॉब लगने के बाद पहली बार जा रहें हो...कुछ लेकर जाना,वैसे मुझे तो कुछ समझ में आता नहीं..माँ ने जैसा बताया ले आया...और उस ज़खीरे में से एक एक कर तोहफे निकालता रहा.वह सांस रोके देखती रही ,सुमित्रा काकी के लिए शॉल, रघु के लिए टी-शर्ट, माली दादा के लिए मफलर,ममी के लिए नीटिंग की आकर्षक बुक,और पापा के लिये सुन्दर सी टाई...

सबसे अंत में उसकी तरफ एक गुड़िया उछाल दी -‘लो बेबी रानी! ब्याह रचाना गुड़िया का।‘(वैसे गुड़िया थी तो बहुत सुंदर... सजावट के काम आ जाती... लेकिन चेहरा उतर गया उसका। शरद सच्ची बिल्कुल बच्ची समझता है, उसे।)

‘अब मुँह काहे को सूज गया... मैंने कहा, एक छोटी लड़की भी है, तो माँ ने कहा, एक गुडिया ले लो'

‘ और लो! ये उसकी बचपना का प्रचार भी करते चलता है।

इतना मूड खराब हो गया, अपनी स्टडी टेबल पे आ यूँ ही, एक किताब खोल ली। तभी शरद ने पीछे से आँखों पर हाथ रख दिया (जाने कैसी बच्चों सी आदत है, सुमित्रा काकी भी नहीं बचतीं, इससे। पहले तो वह आराम से नख-शिख वर्णन कर जाती थीं... ‘एक महाशरारती लड़का है, जिसकी कौड़ी जैसी आंख है, पकौड़ी जैसी नाक है, हथौड़ी जैसा मुँह है, कटोरा-कट बाल है।‘ - लेकिन नाम नहीं बोलती) - लेकिन आज मुँह फुलाए चुप रही। शरद ने भी तुरंत हाथ हटा लिया और उसकी किताब की ओर झुकते हुए बोला -‘अच्छा ऽऽऽ तो यहाँ ’‘नाॅट बिदाउट माइ डाॅटर‘’ पढ़ा जा रहा है?‘

‘क्या... ?‘ - चैंक पड़ी वह। ओह! तो शरद ने एक हाथ से उसकी आँखें बंद कर, दूसरे हाथ से ये किताब उसके समक्ष खोल कर रख दी। कितने दिनों से पढ़ना चाह रही थी, इसे... कहाँ-कहाँ न छान मारी पर नहीं मिल पाया था।

खुशी से चहकते हुए पूछा -‘कहाँ से मिला तुम्हें, शरद? किसी लाइब्रेरी से लाए हो या किसी फ्रेंड से... या खरीद कर लाए हो।‘ - जल्दी से उलट-उलट कर देखने लगी।

पर, शरद अपनी आदत से कैसे बाज आएगा उल्टा सवाल -‘तुम्हें, आम खाने से मतलब है, या पेड़ गिनने से?‘

लेकिन इस वक्त बहुत खुश थी... सच्चे मन से माफ कर दी। इतनी सी बात शरद को याद रही... जानकर अच्छा लगा।

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जंगल के बीच एक मंदिर था। काफी महात्म्य था, उसका। मम्मी को चाव था, इतने दिनों से है, यहाँ, एक बार तो जाना
चाहिए। जबकि इसकी ख्याति दूर-दूर तक थी। लेकिन कहे किस से? डैडी और भैय्या तो मंदिर और पूजा के नाम से ऐसे बिदकते हैं जैसे पाकिस्तान के सामने किसी ने भारत के गुण गा दिए हों।

मम्मी ने शरद से चर्चा की और श्रवण कुमार तैय्यार।

एक दिन अपने एक दोस्त के साथ एकाएक जीप लेकर आया और आते ही जल्दी मचाने लगा -‘चलो, झटपट हो तैयार हो जाओ, सब लोग।‘

दो दिन पहले ही शॉपिंग के लिए गई थी और ‘लाँग स्कर्ट’ लिए थे। उसे ही पहन तैयार हो गई...

‘मम्मी ठीक है न?‘

मम्मी कुछ बोलतीं कि इसके पहले ही शरद टपक पड़ा -

‘बहुत ठीक है, पर घर आकर बिसूरना नहीं कि मेरी नई स्कर्ट का सत्यानाश हो गया। याद रखिए रानी साहिबा किसी पार्टी में नहीं जंगल में तशरीफ ले जा रही हैं... जहाँ मखमली कालीन नहीं... कंकड़, पत्थर, काँटे....‘

सुनना असहय हो उठा... बीच में ही जोर से खीझ कर बोली -‘मम्मी! देख रही हो।‘

‘मेरे ख्याल से तो आंटी, दो साल पहले ही देख चुकी हैं, मुझे।‘

वह कुछ बोलती कि मम्मी ने आग्रह से चुप होने का संकेत किया -‘श ऽ र ऽ द‘

लेकिन कहता तो ठीक ही है, इतने मन से खरीदा था... इतना बढ़िया ड्रेस दाँव पर तो नहीं लगा सकती। ... ‘चूड़ीदार-समीज‘ बदल लो। लेकिन जिसने ‘नुक्स‘ निकालने की कसम ही खा रखी हो, उससे जीता जा सकता है, भला।

लिविंग-रूम में पहुँची तो खिड़की के बाहर देखता हुआ बोला -‘हमें तो कुछ कहने की मनाही है, फिर भी बताना मेरा फर्ज है-‘ और उसकी जमीन छूती चुन्नी की ओर इशारा करते हुए बोला -‘ये झाड़ी में फँस-वँस गई...न तो लाख टेरने पर भी... ‘काँटो में उलझ गई रे ऽऽऽ‘ कोई हीरो साहब नहीं पहुँचेंगे छुड़ा ने।’ - नाटकीय स्वर में बोला तो मम्मी, उसका वो दाढ़ी वाला दोस्त; सब हँस पड़े। अब क्या मंदिर में वह जींस में जायेगी??...पर अक्कल हो तब,ना

अपमान से लाल हो उठी वह। जरा सा भी शउर नहीं बोलने का, जता रहा है, बहुत मौड है वह। ये सब उसकी आर्मी लाइफ में चलता होगा... बोलती तो अभी एक मिनट में बंद कर देती, लेकिन दाँत दिखाता उसका वह दढ़ियल दोस्त भी तो बैठा है। शरद को जरा भी मैनर्स का ख्याल नही तो क्या वह भी छोड़ दे। जाने क्यों अब एटिकेट्स का इतना ध्यान आ जाता है... पहले तो बात पूरी भी न हुई कि जवाब हाजिर (यह तो बाद में सोचती कि ऐसा नहीं... ऐसा बोलना चाहिए था) कोई अंकल भी होते तो शायद ही बख्शती वह। ...और सचमुच रास्ता इतना खराब था कि काँटों से लगकर चुन्नी तार-तार हो गई। पर होंठ नहीं खोले उसने।

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क्लास में कदम रखा ही था कि पाया सारी नजरें मुस्कुराती हुई, उसी पर टिकी हुई है।... क्या बात है, स्वस्ति के करीब पहुँच बैग रख आँखों में ही पूछा तो उसने भी ब्लैकबोर्ड की तरफ आँखों से ही इशारा कर दिया... जहाँ बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था -‘अंगारे बन गए फूल‘

इसका क्या मतलब हुआ? यह तो एक फिल्म का नाम है... वह भी गलत लिखा हुआ... इससे उसका क्या ताल्लुक... किसी ने यूँ ही लिख दिया होगा। पर सबकी नजरें उसे क्यों देख रही हैं?

’’ बैठ अभी, बताती हूँ, सर आ रहे हैं।‘ स्वस्ति ने उसके लिए जगह बनाते हुए कहा। वह भी चुपचाप बैठ गई। डस्टर ले मिटाना भी भूल गई। और तब ध्यान आया इधर कितने दिनों से न ब्लैकबोर्ड साफ करती है, न बोर्ड पर तारीख डालती है... न ही मेज कुर्सी ठीक करती है और इधर टेबल पर भी उसका आसन नहीं जमता -- नही तो सर क्लास से बाहर हुए और वह उछल कर मेज पर सवार।

सर ने क्या पढ़ाया कुछ भी नहीं गया दिमाग तक... बेल लगते ही... डेस्क फलांगती पहुँच गई, अपनी पसंदीदा जगह पर।

केमिस्ट्री लैब के पीछे, कामिनी के झाड़ की घनी छाया ही प्रिय स्थल था उनका। वह स्वस्ति, छवि और जूही.... बैग एक तरफ पटक आराम से बैठ गई और उसने सवाल दागा - ‘हाँ! अब बोलो, इससे मेरा क्या संबंध।‘

छूटते ही बोली छवि... ‘तुझसे नही तो और किससे है? इतनी तेजी से किसमें परिवर्तन आता जा रहा है?‘

‘परिवर्तन आ रहा है? क्यूँ भला, चेहरा वही, हाईट वही, रंग वही... फिर? ‘

‘रंग-रूप में नहीं मैडम, व्यवहार में; तुझे खुद नहीं महसूस होता?‘

‘कोई बात होगी, तब तो महसूस होगा... दिमाग मत चाटो मेरा... साफ-साफ बोलो-सचमुच खीझ गई वह।‘

‘अच्छा बोल‘- जूही ने समझाया - ‘एक यही बात गौर कर, उस अजीत के ग्रुप से कितने दिन हो गए झड़प हुए ‘ (अजीत के ग्रुप के लड़कों से बिल्कुल नहीं बनती थी इन लोगों की और वह ग्रुप भी इन्हें तंग करने का कोई मौका नहीं छोड़ता।)

‘अब सब के सब सुधर गए हैं।‘

‘हाँ, आज देख ली न बानगी।‘

‘अरे! वो ऐसे ही किसी ने लिख दिया होगा... तुम लोग ख्वाहमखाह टची हुई जा रही हो।‘

‘नहीं मैडम, तेरे आने से पहले अजीत कह रहा था -‘आजकल अंगारे पर राख पड़ती जा रही है।‘‘ - हमलोग तो कुछ समझ नहीं पाए पर उनका ग्रुप जोर-जोर से हँसने लगा और रमेश ने कहा -‘ठीक कहते हो यार, आजकल क्लास में भी बार-बार ‘सर... मैम...आई हैव अ डाउट‘ सुनने को नहीं मिलता। सारा पीरियड उन लोगों के उबाऊ लेक्चर में ही बीत जाता है तब हमलोगों की समझ में आया, तेरा नाम उन लोगों ने आपस में अंगारा रख छोड़ा है।‘ छवि बोली और आगे स्वस्ति ने जोड़ा -‘तभी फिरोज ने एक शेर जैसा कुछ कहा कि ...‘अंगारा अब फूल बनता जा रहा है।‘ और तभी अजीत ने लिख दिया बोर्ड पर।‘

‘और तुमलोग चुपचाप बैठी देखती रही, कितनी बार मैंने झगड़ा मोल लिया है, तुमलोगों की खातिर।‘

‘अरे! जबतक हमलोगों की समझ में पूरी बात आती कि तू आ गई और पीछे-पीछे सर।‘

‘खैर छोड़, इन सबको तो मैं देख लूँगी... पर तुमलोग भी मान बैठी हो कि मैं बदल गई हूँ।‘

‘अरे, मानना-वानना क्या... ये तो जग-जाहिर है। -’ मुस्करा कर बोली छवि - ‘खुद ही सोच आज ये सब देख तू, यूँ चुपचाप रह जाती। याद है जब हमलोग नए-नए आए थे और नारंगी के छिलके लापरवाही से उनकी डेस्क पर छोड़ दिए थे - और इसी अजीत ने ब्लैकबोर्ड पर लिख दिया था कि ‘छिलके फेंकनेवालियों दिल फेंक कर देखो‘ तो कितना हंगामा हुआ था.... एप्लीकेशन ले आप ही गई थीं, हेड के पास। और उस दिन के बाद आज ये वारदात हुई और तू...‘

‘वो तो मैं समझी नही ना... इसलिए।‘

‘समझने-वमझने की बात नहीं... कल बस में सब शर्मिला को ‘ओ मेरी... ओ मेरी शर्मीली’’गाकर छेड़ रहे थे... मैंने तेरी तरफ देखा भी पर तू खिड़की पार देखती जाने कहाँ गुम थी। शर्मिला बिल्कुल रोने-रोने को हो रही थी... जी में आया कुछ बोलूँ पर मेरी हिम्मत तो पड़ती नहीं... और जब हमारी माउथपीस ही चुप बैठी हो‘ - स्वस्ति ने प्यार से उसका कंधा थाम लिया -‘जाने आजकल कैसी गुमसुम हुई जा रही है, बिल्कुल खोई-खोई सी।‘

‘अच्छा-अच्छा, अब कल देखना, इस अंगारे की चमक... झुलस कर न रह गए सभी, तब कहना... फूल भी हुई जा रही हूं तो कोई गुलाब का नहीं, कैक्टस का ही।‘ - और इस बात पर चारों जन इतनी जोर से हंसे कि पतली सी डाल पर झूलती बुलबुल हड़बड़ा कर उड़ गई।
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लेकिन दिखा कहाँ पाई अंगारे की चमक. दूसरी ही उलझन सामने आ गई। कालेज से लौटी तो देख पंडित जी बैठे हैं। अभी कल तक इन्हें कितना तंग किया करती थी। देखते ही दूर से चिल्लाती थी -‘प्रणाऽऽऽम पंडित जी।‘ और वे इससे बहुत चिढ़ते थे... लाठीमार प्रणाम कहते इसे । उनका कहना था - ‘दोनों हथेलियाँ पूरी तरह जोड़, थोड़ा सा सर झुका तब प्रणाम शब्द उच्चारित करना चाहिए। देखते ही शब्द होठों पर तो आ गए पर चिल्ला न सकी। छिः इतनी बड़ी हो गई है, यही सब शोभा देता है... अनजाने ही उन्हीं के अंदाज में सर झुका अंदर चली गई।‘

लेकिन ये पंडित जी तशरीफ लाए किसलिए हैं? इधर कोई व्रत-अनुष्ठान तो है नहीं। और जो उनके आने का रहस्य समझ में आया तो ऐसा लगा, जैसे काटो तो खून नहीं। इधर एक महीने से घर में कुछ सरगर्मी देख तो रही है... मम्मी के बाजार का चक्कर भी खूब लग रहा है। अक्सर बुआ आ जाती हैं और दोनों घुल-मिल कर जाने क्या योजनाएँ बनाती रहती हैं। लेकिन वह अपने एग्जाम की तैयारियों में ही उलझी थीं। बस कालेज, किताबें और अपने कमरे की ही होकर रह गई थी... ध्यान ही नहीं दिया।

किंतु अब गौर कर रही है... मम्मी और बुआ के बाजार का चक्कर यों ही नहीं लग रहा। लेकिन... लेकिन... आँखों में आँसू छलक आए... उसके। वह तो एक बार नहीं हजार बार कह चुकी है..’उसे. शादी नहीं करनी है... नहीं करनी है।’ सब जानते हैं... फिर क्यों बड़े आराम से जाल फैला रहे हैं, सब। ये गुपचुप तैय्यारियाँ बींध कर रख दे रही है, मन को। ओह! कोई कुछ पूछता-कहता भी तो नहीं। कैसे खुद जाकर कह दे कि ’नहीं करनी.हैं;शादी;उसे और अगर जबाब मिले ’कौन करवा रहा है तुम्हारी शादी? ...तो?? बेबसी से आँखें डबडबा कर रह जाती है।

अजीब त्रासदी है, भारतीय बाला होना भी । कितनी बड़ी विडम्बना है... उसकी जिंदगी के अहम् फैसले लिए जा रहे हैं और वह दर्शक बनी मूक देखती रहे पर आज के दर्शक तो रिएक्ट करते हैं, रिमार्क कसते हैं या कुर्सी छोड़ ही चले जाते हैं। पर यहाँ तो...

बस आँख, कान बंद किए अपने जीवन के बलि चढ़ने की मूक वेदना महसूस करती रहे।

उदास चेहरा लिए वह घर भर में घूमती रहती है... पर किसी को कोई गुमान ही नहीं। सब समझते हैं एग्जाम की टेंशन है. सिक्के का दूसरा पहलू देखने का कष्ट किसी को गवारा नहीं। चुपचाप बिस्तर पर पड़ी रहती है, तकिया, आँसुओं से गीला होता रहता है। इतना असहाय तो कभी महसूस नहीं किया, जीवन में। घर की नए सिरे से साज-संभाल होती देख खीझ कर रह जाती है और कोसती रहती है, खुद को... हाँ! ठीक कहती है, स्वस्ति, बिल्कुल ठीक कहती है, बहुत बदल गई है, वह। अभी पहले वाली नेहा होती तो सीधा जाकर कड़क कर पूछती...

‘क्या हो रहा है, यह सब?‘ - और फिर चीख-चीख कर आसमान सर पर उठा लेती।

पर, अब तो कदम उठते ही नहीं। जबान तालू से चिपक कर रह जाती है। हुँह! अंगारे की चमक दिखाएंगी? अंगारे पर राख क्या पानी पड़ गया पानी... और बिल्कुल बुझ गया है, वह... अब मात्र कोयले का एक टुकड़ा रह गया है - , बदसूरत, बेकाम का।

बेबसी और गुस्से से सर पटक-पटक कर रह जाती... ये शरद भी जाने कहां मर गया... दो महीने से सूरत नहीं दिखाई उसने। लेकिन ये अचानक, शरद का नाम कैसे आ गया, होठों पर। शरद से क्या मतलब इन सब बातों का... हाँ कोई मतलब नहीं..उसका तो कब से कुछ पता भी नहीं,बस कभी कभार फोन आ जाता है. पहले तो महीने में तीन-तीन बार आकर बोर करेगा। जाने क्यों लगता... अभी शरद होता तो सारी समस्या हल हो जाती। शायद उससे कह पाती - ‘शरद समझा दो इन लोगों को। उसे नहीं करनी शादी-वादी।‘ भले ही चिढ़ाता, सह लेती पर काम तो बन जाता।

किंतु वह तो मीलों दूर ‘इम्फाल‘ में बैठा है... नयी-नयी पोस्टिंग है, ‘प्रिंस-स्टेज‘ छोड़कर क्यों आने लगा? क्या जाने कभी आए ही नहीं। कितने सारे दोस्त तो बनते हैं, भैय्या के और बिछड़ जाते हैं। पर शरद महज भैय्या का दोस्त ही तो नहीं... मम्मी-डैडी भी तो कितना मानते हैं उसे। कम से कम एक बार तो उसे आना ही चाहिए। लेकिन क्या पता तब तक सब कुछ खत्म हो जाए... सुबक उठी वह।

Thursday, January 14, 2010

और वो चला गया,बिना मुड़े....(लघु उपन्यास )--4



(नेहा स्कूल की प्रिंसिपल है.अपने केबिन में अचानक शरद को आते देख चौंक जाती है.और उसे शरद से अपनी पहली मुलाकात याद आने लगती हैं.यह भी कि किशोरावस्था में वह कितनी शैतान थी.सबको कैसे तंग करती रहती थी.शरद ने जब उसके साथ एक छोटी बच्ची की तरह बर्ताव किया तो बहुत नाराज़ हुई थी वह.पर धीरे धीरे शरद से दोस्ती हो गयी और शरद ने घर का बोझिल वातावरण बदलने में बहुत मदद की)

गतांक से आगे

कॉलेज खुला तो इतने दिनों से छूटी सहेलियों का ख्याल आया। बातें... बातें और बस बातें... सबों के पास इतना कुछ था कहने को... और वक्त इतना कम। अनजाने ही शायद शरद के सारे कारनामे सुना गई वह। यह भी ध्यान तब आया जब स्वस्ति ने टोका - ‘तेरी बातों से तो ऐसा लगता है, जैसे शरद आठ दिन नहीं, आठ महीने रहकर गया है।‘

‘अरे! वह सुबह से रात तक कोई न कोई गुल खिलाते रहता था... और सब तो ठीक था, पर मुझ पर ही बहुत रौब जमाता था... क्या करती... मम्मी डैडी ने भी इतना सर चढ़ा रखा था कि बस।‘

और यह शरद हर पंद्रह दिन बाद रौब जमाने पहुंच जाता... ट्रेनिंग सेंटर पास ही था। इस बार भैया के आने पर ‘वाटर फाल‘ जाने का प्रोग्राम बना। वह मन ही मन चाह रही थी कि डैडी न जाएं तो अच्छा। डैडी भी कहां तैयार थे... हमेशा की तरह कहा -‘इस संडे तो जरा मैं बीजी हूँ, तुमलोग घूम आओ।‘

पर शरद अड़ गया -‘एक दिन का समय...अपने लिए निकालिए न,अंकल,...अच्छा लगेगा, हमलोग तो मौज-मस्ती करें और आप फाइलों से जूझते रहें। नहीं अंकल... सोचेंगे कुछ नहीं... आप चल रहे हैं।‘

और डैडी ने हथियार डाल दिए -‘अच्छा अब तुमलोगों का इतना मन है तो समय निकालना ही होगा, पर फिर सेटरडे मैं बहुत देर से घर आऊंगा...अपनी आंटी से कह दो... फिर कोई शिकायत नहीं करेंगी।‘ और प्रस्ताव सर्व सम्मति से पास हो गया। डैडी को भी अब यह सब रास आने लगा था। वैसे तो उसने भी खूब जिद की थी... लेकिन सच कहे तो अंर्तमन से नहीं चाहती थी कि डैडी के साथ जाना पड़े। उतनी फ्रीडम कहाँ रहेगी? कितने भी खुल गए हों तो क्या... शरारतें करने की छूट तो नहीं मिली। हँसते-खेलते समय भी, एक सहम सी व्याप्त रहती है। कहीं सीमा का अतिक्रमण न हो जाए। और पहाड़ी पर चढ़ने को जब सीढ़ियों का सहारा लेना पड़े तो क्या मजा?

लेकिन उसकी शंका निर्मूल सिद्ध हुई। डैडी, इतने खुशमिजाज हैं और इतने लतीफे उन्हें याद हैं, किसी को भी पता नहीं था - रास्ते भर अपने संस्मरण और लतीफे सुना-सुना कर हँसाते रहे सबको।

जब वे लोग डैडी के साथ धीरे-धीरे चलने लगे तो उन्होंने उत्फुल्लता से कहा, ‘...आह! हम बूढ़ों के साथ क्यों घिसट रहे हो तुमलोग... गो अहेड...एन्जॉय योरसेल्फ।‘

‘अंकल... शरद ने शायद कुछ प्रतिवाद में कहा था पर यहां सुनने की फुर्सत किसे थी। वह तो उछलती, कूदती दूर निकल आई थी। पर डैडी ने छूट दे दी तो क्या... शरद तो उसकी पहरेदारी को मौजूद था। मम्मी ने एक बार कह क्या दिया कि ‘तुम झरने के पास मत जाना, एक मिनट स्थिर नहीं रहती हो, कहीं पैर रपट गया तो लेने के देने पड़ जाएंगे।‘ - बस बात गाँठ बाँध ली।

खुद तो आराम से भैया के साथ पानी में पैर डाले बैठा था... वह आ ही रही थी कि दूर से ही चिल्लाया... ‘नहीं नेहा, अब आगे नहीं... वहीं से देखो।‘- वह परवाह न करते हुए आगे बढ़ती रही तो वहीं से डपट दिया -‘कह रहा हूँ न, वहीं से देखो, मना किया जा रहा है, सुनाई नहीं दे रहा’

.इतना बुरा लगा। अपमान से आँसू निकल आए। उल्टे पाँव लौट पड़ी।


चुपचाप एकांत में आ बैठ गई, किसी को फिक्र भी क्या... सबकी अपनी जोड़ियाँ हैं, एक वह ही तो अकेली है... किसी को उसकी परवाह भी नहीं।

जब नाश्ता निकाला गया तो उसकी खोज हुई... आकर चुपचाप बैठ गई। सब आपस में बातें किए जा रहे हैं। उसकी ओर किसी का ध्यान ही नहीं। तभी शरद भारी आवाज में जोर से बोला -‘मैं बहुत नाराज हूँ, कोई नहीं बोलेगा, मुझसे?‘

सबकी दृष्टि उसकी ओर उठ गई। डैडी हँसते हुए बोले -‘क्या हुआ भई, बिटिया रानी इतनी चुप क्यों है?‘

‘डैडी देखिए, खुद तो इतने पास जाकर पानी में पैर डाले बैठे थे दोनों जन और मुझे कितनी दूर पर ही रोक दिया - शिकायती स्वर में बोली वह। आँखें छलछला आईं।‘

’तो क्या गलत किया, हमलोग चुपचाप बैठे थे या तुम्हारी तरह उछलकूद कर रहे थे।’ भैया ने तरफदारी की तो एकदम सुलग उठी वह -‘भैय्या, तुम्हारी ही शह पर इतना मन बढ़ा हुआ है, किस तरह डाँट दिया मुझे। कितने सारे लोग थे वहाँ।‘

‘अच्छा... अच्छा...‘ -डैडी ने बीचबचाव किया। ‘तुझे देखना ही है न, जा देख आ, लेकिन संभल के।‘

‘येल्लो ऽऽऽ‘ - अपनी जीत पर इतनी खुश हुई कि एकदम से मुहँ चिढ़ा दौड़ पड़ी। कूदती-फाँदती चली जा रही थी कि मम्मी जोर से चिल्लाई -‘नहीं नेहा, इस तरह नहीं... चलो लौट आओ... नहीं जाना है।‘

ओफ्! इतना गुस्सा आया, खुद पर। इसी कारण वो सब जाने से मना कर रहे थे। कैसे भूल गई वह? मुँह फुलाए वहीं पत्थर पर बैठ गई। अब शरद उठा -‘मैं साथ में चला जाता हूं, अंकल।‘

नहीं जाएगी,...वह बिल्कुल नहीं जाएगी। यही तो चाह रहा था, वह... अहसान जताने का मौका मिले।

‘चलिए, महारानी जी, मुलाजिम सैर करा लाए आपको।‘

उसने मुँह घुमा कर बिल्कुल अनसुना कर दिया। शरद धीरे से पीछे की तरफ झाँककर बोला -‘यहाँ से वे लोग दिख तो नहीं रहे, बिल्कुल... हूंऽऽऽ ऐसे ही चुपचाप बैठी रहना... इसी बहाने मैं घूम आऊँ, एक बार।‘

और वह जब सचमुच मुड़ गया तो एकदम से उठ गई वह... ‘एक तुम ही चालाक हो न।‘

‘ना... ना... मेरा नम्बर तो दूसरा है।‘

छोड़ो... इन बातों में वह यह मौका नहीं खोएगी। चलो, ये लोग अकेले नहीं जाने देंगे तो ऐसे ही सही।

झरने को बिल्कुल पास से देखने का अपना ही आनंद है। हरीतिमा से आच्छादित काले-काले पत्थर और उनके बीच छलछलाता पिघले चांदी सा पानी। मानो काली चमकीली केशराशि पर हरी चूनर ओढ़े कोई चाँद सी दुल्हन हँसी से दोहरी हुई जा रही हो... या सफेद मलमल की खूब फ्रिल लगी फ्रॉक पहने कोई शरारती बच्ची, अपनी माँ की पकड से छूट... खिलखिलाते हुए बड़ी वेग से दौड़ी चली आ रही हो। जो समतल पर आ कर बांकी चाल वाली गंभीर युवती में बदल गई हो। जहाँ पानी गिर रहा था वहाँ दूर-दूर तक बस झाग ही झाग नजर आ रहा था... जैसे मनों डिटरजेंट पाउडर उलट दिया गया हो।

मंत्रमुग्ध सी जाने कब तक यह मनमोहक दृश्य निहारती रही। सच, सब कुछ इतना खुशगवार लग रहा था कि सारा अपमान, गुस्सा सब भूलभाल किलक उठी -‘एई, शरद!! कितना अच्छा लग रहा है न।‘

‘अँ ऽ ऽ ऽ‘ - शरद भी जैसे किसी दूसरी दुनिया में खोया था। लौट कर खोयी-खोयी सी दृष्टि उसपर टिका दी... ये ऐसे क्यों देख रहा है... पहचान नहीं रहा क्या... या शायद सोच रहा होगा अब इस बात को कैसे काटे... कुछ दिनों से एक अजीब सी बात देख रही है... सबके सामने तो लड़ता-झगड़ता रहता है, चिढ़ाता-खिझाता रहता है पर जब भी अकेला हो, जुबान जाने कहाँ गुम हो जाती है.....उदास सा कहीं खो जाता है, हिम्मत जो नहीं पड़ती होगी...वहाँ तो दूसरों के बल पर उछलता रहता है। अकेले में लोहा ले तब न।

कल रात की ही बात है, अगर मम्मी या भैय्या होते तो बिना अपनी टें, टें किए न रहता।

चाँदनी रात, देख तो जैसे वह पागल हो जाती है। इतना पसंद है उसे कि जी चाहता है कि कोई जादू की छड़ी घुमा उसे रात भर के लिए किसी पेड़ या पौधे में बदल दे... फिर जी भर कर नहाती रहेगी चाँदनी में। जब स्कूल कैम्प के लिए गई थी तो वह और स्वस्ति टीचर की नजर बचा एक चक्कर लगा ही आती थी फील्ड का... घर में फील्ड कहाँ मयस्सर पर छत तो है।

कल भी जब खिड़की के बाहर ऐसी चाँदनी बिखरी देखी तो चुपके से दरवाजा खोल टैरेस पर आ गई। रेलिंग पर झुकी पी ही रही थी इस सुहानी छटा को कि एक ट्रक की हेड-लाईट बड़े जोरों से चमकी... उसकी चौंध से बचने को जो आँखें फेर सर घुमाया तो चीख निकलते-निकलते रह गई। थोड़ी ही दूर पर एक और आकृति रेलिंग के सहारे टिकी खड़ी थी। डर से काँप ही रही थी कि पहचान गई... ये तो शरद है। अब तो इसे गोल्डेन चांस मिल गया... लगाएगा एक झाड़ कि रात में यहाँ खड़ी क्या कर रही हो। उसे क्या मालूम कि इस ‘आर्मी मैन‘ को भी महत्व पता है, चाँदनी का।

जबाब सोच ही रही थी... लेकिन यह कुछ बोलता क्यों नहीं... हेड लाईट की रोशनी में तो निश्चय ही देख लिया है, उसे। लेकिन यह तो वैसे ही खड़ा है... अब क्या मजा आएगा... यमदूत की तरह उसकी हर खुशी का गला घोंटने पहुँच जाता है। अपने कमरे की तरफ लौट पड़ी... करीब से गुजरी तो पलट कर दूसरी दिशा में बढ़ गया। इसे समझना भगवान के भी वश की बात नहीं। जी में आएगा तो छोटी-छोटी बातों पर डाँट खिलाता रहेगा... स्वस्ति के यहाँ से लौटने में सात बज गए तो कैसा भैय्या को चढ़ा दिया और भैय्या भी तुरंत बातों में आ जाते हैं... क्या पहले नहीं लौटी वह सात बजे तक। पर आज शरद के चढ़ाने पर डाँट दिया -‘हमेशा तो चार घंटे बैठती हो वहाँ, फिर और पहले ही क्यों नहीं गई... ये वक्त है घर लौटने का?‘ ...मन ही मन भुनभुनाई, पर कहीं अच्छा भी लगा, चलो कुछ ख्याल तो है... पहले तो कहीं भी आओ या जाओ... कुछ भी करो। न तो प्रशंसा ही मिलेगी न कोई आलोचना ही करेगा।

और अब जब सचमुच डाँटने की बात है तो चुप लगा गया या क्या जाने, कल सबके सामने बोलेगा और सबसे डाँट सुनवाएगा... पता नहीं कैसी दुश्मनी है उससे... सोचती, सहमती जाने कब सो गई... लेकिन शरद ने तो फिर कोई चर्चा तक नहीं की।

और अभी कैसे घूर रहा है, खा ही जाएगा जैसे। मन नहीं था तो क्यों आया? नहीं ले आता, तो कोई मर तो नहीं जाती वह... जोर से बोली, ‘तुम्हें अच्छा नहीं लग रहा क्या?‘

अब जैसे अपने में लौटा वह... वही पुरानी अकड़... ‘हाँ! हाँ! बहुत अच्छा लग रहा है... सारे कपड़े भीग जाएंगे न तो और भी अच्छा लगेगा... चलो अब, बहुत हुआ प्रकृति-दर्शन।‘ -उपहास भरे स्वर में बोला।

‘हे, भगवान! उसने तो ध्यान ही नहीं दिया। हवा के झोंकों के सहारे झरने से पानी की फुहारें सी पड़ रही थीं दोनों पर... कपड़े हल्के-हल्के सिमसमा आए थे।‘

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‘तू उस दिन पार्टी में क्यो नहीं आई... तेरे इंतजार में कितनी देर तक केक नहीं काटा था मैंने।‘- स्वस्ति ने शिकायत की।

‘अरे! उसी शरद महाराज का काम था, गाड़ी खराब थी। भैया को तो जानती ही है, मेरी सहेलियों के घर के तो जैसे ‘एलसेशियन-डॉग' रहते हैं, काट ही लेंगे उसे। और बस शरद ने चढ़ा दिया मम्मी को... ‘रात में अकेले कैसे जाएगी।‘ - कितनी मिन्नते की... बस आधे घंटे में चली आऊँगी पर नही तो बस नहीं। मैंने तो तेरे लिए जगजीत-चित्रा की सी॰डी॰ भी सुबह ही ले ली थी।‘

‘अरे तू और गजल... कब से?‘ - उछल पड़ी स्वस्ति।

‘क्यों?‘

‘अरे! पहले तो तुझे बड़ी बोरिंग लगती थी?‘

'पहले समझती जो नही थी'

‘अय... हयऽऽ‘ नेहा गजलों में दिलचस्पी हो गई है, आपकी... क्या बात है, मैडम..?.‘ स्वस्ति ने शोखी से कहा तो मासूमियत से पूछ बैठी वह - ‘क्या बात होगी?‘

उसका भोलापन देख आगे कुछ नहीं कहा स्वस्ति ने। पुरानी बात पर लौट आई -

‘खैर, सफाई तो मैंने सुन ली, पर शरद के साथ तो आ सकती थी।‘

‘अह! चल उस लंगूर के साथ‘ - उसने तेजी से कहा तो एकदम से उसकी आँखों में देख, स्वस्ति पूछ बैठी -‘एक बात पूछूं?‘

‘क्या?‘

‘ना, पहले बोल।‘

‘कोई मैंने मना किया है।‘

‘चाहे छोड़।‘

‘ना... अब तो पूछना ही पड़ेगा।‘

‘छोड़, पूछना क्या, मेरी बात का जवाब तेरी आँखें दे रही हैं... चल छत पे चलते हैं कितना सुहाना मौसम है।‘

‘स्वस्ति, तेरी यही पहेलियोंवाली बातें, मेरी समझ में नहीं आती।‘

स्वस्ति ने प्यार से नाक पकड़ हिला दी और गाल थपथपा दिए - ‘अब, सब समझने लगोगी, मैडम!‘

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Monday, January 11, 2010

और वो चला गया,बिना मुड़े....(लघु उपन्यास)--3


(नेहा स्कूल की प्रिंसिपल है.अपने केबिन में अचानक शरद को आते देख चौंक जाती है.और उसे शरद से अपनी पहली मुलाक़ात याद आने लगती हैं.यह भी कि किशोरावस्था में वह कितनी शैतान थी.सबको कैसे तंग करती रहती थी.शरद ने जब उसके साथ एक छोटी बच्ची की तरह बर्ताव किया तो बहुत नाराज़ हुई थी वह)

गतांक से आगे

तभी मम्मी आई और चिंतित स्वर में बोलीं -‘बुआ की तबितयत, अचानक खराब हो गई है, रमण का फोन आया है, मुझे तुरंत जाना होगा, लौटने में शायद शाम हो जाए, गेस्ट-रूम शरद के लिए ठीक करवा देना। खाने में ये ये बनवा लेना और... और अपनी शरारतें जरा बंद रखना।‘

वो ऽऽ मारा... इससे अच्छी बात भला और क्या हो सकती है। अब तो पूरा चार्ज ही मिल गया... चलो मि. शरद... आगे-आगे देखो, होता है क्या। प्रकट में बोली -‘मम्मी, बस ऐसे ही सब मुझे दोष देते हैं... क्या करती हूँ मैं, एक भी शिकायत मिले तो देखना।‘

‘नहीं कुछ देखना-वेखना नहीं, मुझे मिलनी ही नहीं चाहिए-‘ मम्मी को कुछ सुनने की फुर्सत नहीं थी। तुरंत बाहर निकल गईं।

खुशी से उछल पड़ी वह और अचानक पंचम सुर में अलाप उठी... ‘आ ऽ ऽ देखें जरा, किसमें कितना है दम, ख्याल आया तो हड़बड़ा कर चुप हुई।‘

कार स्टार्ट होने की आवाज आई तो वह झपटकर ड्राइंगरूम में आ गई। ऐसी चाय, भला चुपचाप पीने का मजा क्या? जल्दी से ढूढ़-ढ़ाँढ़ कर एक शास्त्रीय संगीत का सी.डी.लगा दिया । असली मजा तो अब आएगा जब वेस्टर्न म्युजिक पर थिरकने वाले को यह संगीत भी गटकना पड़ेगा। मुस्कराहट दबाते, एक पत्रिका में मुँह छुपाकर बैठ गई।

कप रख, खड़े हो, शरद ने एक जोरदार अँगड़ाई ली (मानो, इस चाय ने सारी थकान दूर कर दी हो) और एक अदद मुस्कराहट के साथ पूछा -‘कब से शुरू किया है, ये शास्त्रीय संगीत सुनना ?‘

जी में आता है, नोच कर फेंक दें इस मुस्कुराहट को। सच में अगर देखती रही तो कुछ न कुछ कर बैठेगी। इतना गुस्सा आता है, आज तक, इस तरह किसी ने उसके अस्तित्व को नहीं नकारा। पन्ने पर नजर गड़ाए ही रहस्यमय ढंग से बोली -

‘कब्भी से नहीं।‘

‘यही मैं भी सोच रहा हूँ।‘ -छूटते ही शरद बोला।

‘क्या ऽ ऽ‘ - अब चैंकी वह।

‘यही कि दूसरा कुछ नहीं मिला तो यही लगा दिया।‘

‘जी ऽऽ नहीं, कब्भी से नहीं का मतलब, बचपन से ही सुनती आ रही हूं, डैडी को शौक है, कभी शुरू करने का सवाल ही नहीं‘ - उसने जरा जोर से कहा।

शरद ने भी वैसे ही स्वर में चिढ़ाया -‘तो, नेहा जी, अभी डैडी होते ना, तो आपने जम कर डाँट खायी होती।‘

ओह! कैसे बोल रहा है, जाने कब से जान-पहचान हो।

‘क्यों ऽ ऽ ऽ‘ भौं चढ़ाई उसने।

‘पगली, ये राग, रात में सुना जाता है, औरा तुम दिन में दस बजे लगाए बैठी हो - डाँट नहीं खाओगी तो क्या तारीफ करेंगे कि बिटिया रानी को बड़ी समझ है, संगीत की।‘

अब इस आदमी से लड़ा जा सकता है भला, इतने अपनत्व और प्यार से बोल रहा है, जैसे युगों से परिचित हो। जी में आया, पत्रिका फेंक-फांक खूब गप्पे मारे, जैसे शर्मा अंकल से करती है। उन्हीं जैसा नहीं लगता वह। लेकिन वे तो अंकल हैं - लेकिन ये साहब क्या हैं, बमुश्किल चार साल बड़े होंगे उससे और रौब ऐसे मार रहे हैं जैसे चालीस साल बड़े हों। उससे सही नहीं जाएगी, ये बाॅसिंग।

देखा, मनोयोग से रेकाॅर्ड छाँटनें में लगा है -‘ये राग तो ‘कुमार गंधर्व‘ का पसंदीदा राग है, सुन कर सब कुछ भूल जाए, आदमी, अंकल को शौक है, तब तो जरूर होना चाहिए।‘ वह उसकी तरफ पीठ किए ही बोल रहा था। चुपके से चली आई, वह। अब बतियाते रहें, दीवार से। लेकिन कुछ भी, कहेा- है, नं. वन बेवकूफ... इसमें संदेह नहीं, विश्वास कर ही लिया कि उसकी शास्त्रीय संगीत में रुचि है। ... रुचि है खाक... उसने तो ‘कुमार गंधर्व‘ का नाम तक नहीं सुना।
***
फिर नाश्ते खाने में खिलवाड़ करने की हिम्मत नहीं हुई उसकी... इसका क्या है, ये तो लक्कड़ हजम, पत्थर-हजम है... कुछ भी चबा लेगा। कहीं बीमार-वीमार पड़ गया तो वो जम भी जाएगा, दस दिन और डॉक्टर की फीस भरनी पड़ेगी, सो अलग, और उसकी जो लानत मलामत होगी, उसकी ते कल्पना ही बेकार है।

लेकिन इस बार दूसरा ही हथकंडा अपनाया, जी भर कर उपेक्षा की। रघु ने पूछा भी, कमरा ठीक करने की बाबत... तो टाल गई... सामान वैसे ही पैसेज में पड़ा रहा। खाने के टेबल पर भी ऐसे मुँह बना रखा जैसे उसके साथ एक टेबल पर बैठकर अहसान कर रही हो। लेकिन उसकी उपेक्षा की परवाह भी किसे थी। उन आठ दिनों में लगता है, खूब रंग जमा गया था क्योंकि सुमित्रा काकाी के पोते के हालचाल से लेकर रघु के जमीन के झगड़े सबके विषय में खूब घुलमिलकर आधिकारिक ढंग से बातें कर रहा था। इन लोगों से व्यक्गित तौर पर कभी किसी ने बातें नहीं कीं इसलिए बड़ी खातिर-तवज्जो हो रही थी, शरद की। उसने कुछ भी हिदायत नहीं दी थी पर, डायनिंग टेबल स्वादिश्ट व्यंजनों से लदा पड़ा था।

सुमित्रा काकी का वात्सल्य भाव उमड़ा जा रहा था -‘ई ‘मलाई कोफ्ते‘ तो लो, खास तुमरे वास्ते बनायी है।‘ वह चुपचाप रोटी टूँगती रही। शरद ने उसे भी बातें में समेटने की कोशिश की -‘अ ऽ ऽ नेहा, जरा वो डोंगा इधर बढ़ाना तो।‘

उसने हाथ रोककर रघु को आवाज दी और चेहरा पूरी तरह निर्विकार रखे... कहा-‘ये डोंगा, जरा उधर बढ़ा दो।‘

रघु के हाथ खाली नहीं थे। शरद ने तुरंत कहा -‘रहने दो... रहने दो... ले लेता हूँ, मैं। और आधा उठकर खींच लिया डोंगा अपनी तरफ। आवाज में कोई गिला-शिकवा नहीं। चेहरे पर एक शिकन तक नहीं... आराम से सब्जी डाल रहा था अपनी प्लेट में। लेकिन काकी ने उसकी चुप्पी गौर की।‘


‘ई नेहा बिटिया को का हुआ आज? कौनो सहेली से लड़ाई हो गई का?‘ - हँह, इन शरद महाराज से नहीं हो सकती ना। जाने कितना रूतबा जमा गया है, एक हफ्ते में ही।

वह कुछ बोलती कि मजे से अंगुलियां चाटता, शरद बोला -‘तुम्हारी नेहा, बिटिया का टाँसिल बढ़ गया है... आह! चटनी तो तुम क्या खूब बनाती हो, काकी। ‘लिटरली‘..लोग. अंगुलियां चाटते रह जाए ‘लिटरली ?? खूब समझ रही होंगी, काकी।

‘अउर ई मजे में दही खा रही है, मालकिन नहीं है तो?‘ - काकी बोलीं।

‘किसका टाँसिल बढ़ गया है‘ - तेज स्वर में कहा उसने।

‘ओह! साॅरी गला ठीक है, दरअसल जब मेरा टाँसिल बढ़ जाता है तो मुझे बोलने में बड़ी तकलीफ होती है, तुम इतना कम बोल रही थी तो मैंने सोचा, शायद... ‘ और एक विशुद्ध निर्दोष हँसी।

‘हुँह! सोचने की दुम, जितना दिमाग होगा, उतना ही तो सोचोगे...‘ मन ही मन भुनभुनाते हुए एकबारगी ही कुर्सी ठेल उठ खड़ी हुई। यह भी नहीं देखा, शरद ने खाना खत्म किया भी है या नहीं।
***
अपने रूम में बिस्तर पे लेट, एक बुक उठा ली... तभी ध्यान आया शरद को तो आराम करने की कोई जगह बताई ही नहीं... रघु ने पूछा भी था... कमरा ठीक करने की बाबत... पर वह टाल गई थी। एक बार जी में आया... चलकर कमरा ठीक करवा ही दे... और व्यंग से मुस्करा दी... आखिर ‘अतिथिदेवो भव‘ और अतिथि-सत्कार तो परम धर्म है। पर यह विचार शीघ्र ही दूध की उफान की तरह बैठ गया। चलो भी, जब से आया है, उसे बना रहा है... और उसके आराम की फिक्र करती रहे वह। बहुत कष्ट हो रहा है तो अपना बैग उठाए और रास्ता नापे... और किताब में खो गई वह।

आँखें खुली तो पसीने से तर-ब-तर थी... ओह! ये पावरकट तो जान लेकर रहेगा एक दिन... पता नहीं कब किताब पढ़ते-पढ़ते आँख लग गई थी उसकी। बहुत देर तक ठंढे पानी से हाथ-मुंह धोती रही। अचानक ध्यान आया जरा इन महाशय का हाल देखें... और जो देखा तो ईष्र्या से भर उठी... लान में झूले पर लेटा... शरद ठंढी-ठंढी हवाओं के झोकों का मजा लेता... एक मोटी सी किताब में डूबा था।


जी तो उसका भी कर रहा है, जरा लाॅन में टहले तो कुछ राहत मिले... पर वो हजरत जो वहां जमे हैं। टपक ही पड़ेंगे और आखिर कब तक वह अपना मुँह बंद रखेगी वह भी अकारण।

एक फैसला लिया... अब कोई मतलब नहीं रखना उसे, शरद से... मरे या जीए... रहे या जाए... उसकी बला से... ओफ्!! सुबह से खुलकर हंसी तक नहीं और वह शर्मिला का नं. मिलाने लगी।

और अपने फैसले पर अटल भी रही। सबसे काट लिया खुद को। पर यहाँ परवाह भी किसे थी ? सारा घर ही शरद के गिर्द सिमटा जा रहा था। शरद के मित्र साहब भी अब तशरीफ ले आए थे।
***
जब दसरे दिन शरद ने जाने की पेशकश की तो भैया ने उसकी छुट्टी का पूरा प्लान बनाकर रख दिया। यहाँ तक कि शरद की मम्मी को भी फोन कर के इजाजत माँग ली... और एक हफ्ते के लिए शरद को रोक लिया।

यह देख अच्छा भी लगा अैर रूआँसी भी हो गई, लड़कियों में इतनी निश्छल दोस्ती क्यों नहीं होती? एक-दूसरे पर इतना अधिकार क्यों नहीं होता?

भैया का तो खैर वह दोस्त ही था। पर मम्मी को तो जैसे नया बेटा ही मिल गया था। कभी भैया से इतनी सहजता से बातें करते नहीें देखा। कभी बाजार का काम कहतीं भी तो हिचकते हुए। पर शरद से तो बड़े अधिकार से नापसंद चीजें लौटा लाने को भी कह डालतीं। और शरद भी इतना घुल मिल गया था कि आराम से कह डालता ...‘ओह! आंटी... क्या फर्क है इन दोनों रंगों में... आपने कहा ‘ग्रीन कलर‘ और मैंने ला दिया।‘

मम्मी भी खीझकर बोलतीं -‘हाँ! ये ‘पैरेटग्रीन‘ और ‘बाॅटलग्रीन‘ में तुम्हें कोई अंतर नजर नहीं आ रहा न। ... ‘पैंरेटग्रीन और क्रीम कलर का स्वेटर बना दूँ तो अंकल गले में डालना तो दूर, घर में देखना भी पसंद नहीं करेंगे... चलो चैंज करके लाओ इसे।‘

मम्मी और भैया के अलावा शरद के प्रशंसकों की एक फौज ही थी - रघु, सुमित्रा काकी, माली दादा... सब शामिल थे... पर इन सबको छोड़ वह तो डैडी से भी गप्पे लगा लेता। जबकि वह और भैया बाहर चाहे जितनी उधम मचा लें। डैडी के सामने तो भीगी बिल्ली ही बन जाते हैं। डैडी के रौबीले व्यक्तित्व ने कभी इतनी छूट ही नहीं दी। पर शरद के लिए तो जैसे सात खून माफ थे। वह तो डैडी के सामने ही आराम से कुर्सी उल्टी कर उसके पीठ पर ठुड्डी टिकाए बातें करता रहता और आश्चर्य!! डैडी कुछ भी नहीं कहते। जबकि इतने सलीके पसंद डैडी, मेहमानों तक की ज्यादती बर्दाश्त नहीं कर पाते। पर शरद का व्यवहार इतना बेलौस था कि क्या कहे कोई... कैसे कहे कोई??

अब तो बातों का सिलसिला डायनिंग टेबल पर भी नहीं छूटता। पूरे जोश-ओ-खरोश के साथ... व्यंजनों की प्रशंसा की जाती है, नुक्स निकाले जाते हैं, सुझाव दिए जाते हैं, साथ ही फमाईशें भी की जाती हैं। वरना सिर्फ प्लेट, चम्मचों की खनखनाहट के बीच मन भर मुँह लटकाए जल्दी-जल्दी कौर निगलता याद है उसे। अब मम्मी भी तो कितने शौक से नई-नई डिश बनाती है... जबकि पहले तो जैसे रस्मपूर्ति होती थी।

पर इन सबके बीच रह-रह कर कुछ काँटे सा चुभ रहा था... बहुत ही आहत हो उठी थी वह। गौर किया... यहां तो शरद की उपेक्षा के चक्कर में खुद उसी की उपेक्षा हुई जा रही है। यूँ पहले भी घर में कोई खास बातचीत तो नहीं थी पर तब तो किसी की किसी के साथ नहीं थी। और जिसकी उपेक्षा करने की कोशिश कर रही है, उसे तो इलहाम तक नहीं। एकमात्र वही पूरे अधिकारपूर्ण ढंग से बातें करता -‘नेहा, जरा आज का न्यूजपेपर दे जाना तो‘ - या - बाबा रे! इतना पढ़ती है लड़की, टाॅप भी किया तो क्या तारीफ? (अलग-थलग दिखने की यही तो तरकीब है, हर वक्त किताबें थामे रहो।)

और एक बार जब उसे पेन चाहिए थी तो बेझिझक उसके कमरे में पहुँच गया... और ... ‘अरे! यहाँ नाॅवेल पढ़े जा रही है, और हमलोग सोच रहे हैं... रानी बिटिया ‘कार्ल माक्र्स‘ को घोंट रही है। ये शाम का वक्त कोई पढ़ने का है, चलो बाहर।‘ ... और जबरदस्ती बाहर ले आया था उसे। याद नहीं पड़ता... कभी भैया ने उसके कमरे में पैर भी रखा हो।

फिर तो पूरी तरह शामिल हो गई, वह भी... यहाँ इंकार भी किसी था? और अब लगता है, यह ईंट-गारे-सीमेंट से बना निर्जीव मकान नहीं... अहसासों, भावनाओं से धड़कता घर है। यूँ चहल-पहल पहले भी रहती थी... उसकी सहेलियों की चहचहाटों से, भैया के दोस्तों की धमाचैकड़ी से या पापा के मित्रों के छतफाड़ ठहाके से... ऐसा कभी नहीं हुआ कि घर के चारों जन मिल बैठें और लफ्फजी गुलछर्रे उड़ा रहे हों।

मम्मी की तो पूरी शख्सियत ही बदल गई, लगती थी। कभी भी उन लोगों ने मम्मी को घर की साज-संभाल से अलग या किचेन से परे देखा ही नहीं। शरद बड़े आराम से मम्मी से राजनीति, साहित्य, संगीत यहाँ तक कि फिल्मों के विषय में भी बातें करता रहता और वह आश्चर्यचकित रह जाती, मम्मी इतनी वले-इ-फाॅर्म्ड है, इन सब विषयों पर। उस दिन जब क्रिकेट की चर्चा छिड़ी थी और न उसे, न शरद को न भैया को ही याद आ रहा था कि ‘ओवल टेस्ट‘ में भारत कितने रनों से जीतते, जीतते रह गया था तो मम्मी ने बिना नींटींग पर से नजरें हटाए ही कहा था -‘नौ रन‘ आश्चर्य से मुँह खुला रह गया था, उसका। भैया ने भी चकित होकर पूछा था -‘मम्मी तुम और क्रिकेट?‘

हँस पड़ी थी मम्मी। -‘क्यों चैबीस घंटे टीवी आॅन रहता है, फुल वाॅल्यूम में कमेंट्री चलती रहती है तो क्या मैं आँखों पर पट्टी और कानों में रूई डाले बैठी रहती हूँ - और उसे ध्यान आया। सच ही तो है घर में इतनी सारी पत्रिकाएं, न्यूजपेपर आते हैं और मम्मी पढ़ती भी खूब है। वे लोग तो यह भी भूल चले थे कि मम्मी अपने जमाने की फस्र्ट क्लास एम ए हैं। जो गिने चुने लोग ही होते थे एम ए।

अब लगता है, यह घर का यही माहौल वह भी तो चाहती थी, लेकिन किसी से सहयोग मिले, तब तो। डैडी के लिए तो घर का मतलब था, पेपर, ब्रेकफास्ट, डिनर (लंच वे आॅफिस में लिया करते थे) और नींद... बस। और मम्मी इतना कम बोलतीं - सिर्फ काम की बातें, बस। और भैया को रौब जमाने से ही फुर्सत नहीं। महीने में दस दिन तो उसके साथ लड़ाई ही रहती... रौब तो ये शरद भी कम नहीं जमाता, पर दूसरे ही पल मना भी लेता है, अपनी गलती मान भी लेता है। जबकि भैया... हुँह! हार कर खुद जातीं बातें करने और तब ऐसे बोलता जैसे अहसान कर रहा हो।

पर अब तो आराम से ताश की बाजी जमती, बरसों बाद कैरम की धूल झाड़ी गई... भैया भी उदार हो लेता है। बरना लूडो तक कभी नहीं खेला उसके साथ

बाहर निकली, तो देखा शरद कैरम की गोटियाँ जमा रहा है। भैया... मनपसंद गानों की सीडी ढँूढ़ने में लगे थे। उसे आदेश दिया शरद ने... ‘अपने लिए, एक चेयर लेकर आओ।‘

‘पर तीन जन कैसे खेलेंगे!‘

‘कयों तुम नहीं खेलोगी, शर्मिला टैगोर का बुलावा आ गया क्या?‘

‘जी नहीं।‘

‘ओह! समझा... जूही चावला तशरीफ ला रही हैं।‘

’’नहीं बाबा’’

अच्छा तो; पूनम ढिल्लों से मिलने जा रही हो ?


‘ओफ्फोह! कह तो दिया... न कोई आ रही है, न मैं कहीं जा रही हूं, (अब उसकी तीन सहेलियों के नाम, फिल्म एक्ट्रेसों से मिलते थे, तो उसका क्या कसूर, पर शरद को तो जैसे ये नाम रट गए थे, हर दो मिनट में दुहरा लेता) ... पर हमलोग सिर्फ तीन हैं, कैसे खेलेंगे?‘

‘क्यों, तीन क्यों?? आंटी कहाँ गईं?‘

‘मम्मी ऽ ऽ खेलेंगी‘ हँसी छूट गई उसकी तो।

‘क्यों नहीं खेलेंगी, हमलोग तो यहाँ जमे हैं, अकेली क्या करेंगी वो?‘

मम्मी भी कहाँ तैयार थीं। टालने की कोशिश की, पर एक नहीं माना शरद -‘‘इसमें क्या है, यों स्ट्राइकर पे हाथ रखा और यों मारा शाॅट कम से कम इस गिलहरी से तो अच्छा ही खेलिएगा।‘

और सचमुच जब मम्मी ने दूसरे ही शाॅट में क्वीन कवर कर लिया तो उसने भी घोषणा कर दी, अगले चांस मे वह और मम्मी पार्टनर रहेंगी।
***
शरद आठ दिन रहकर, मौज-मस्ती कर चला गया पर सबको जैसे एक सूत्र में पिरो गया। उसे डर था... शरद के जाने के बाद कहीं घर वापस पुराने ढर्रे पर न लौट पर नहीं, डैडी एक बार खुले तो फिर पुराने उधड़े स्वेटर सा परत दर परत खुलते ही चले गए। अब पहले से जल्दी घर भी तो लौटने लगे हैं। आदमी की व्यस्ततम जिंदगी में भी एक कोना ऐसा होता है... जिसकी पूर्ति घर-परिवार में ही हो सकती है।

भैया भी खूब दिलचस्पी लेने लगा है, घर में... पिक्चर, पिकनिक... चारों इकट्ठे जाते तो पैर नहीं पड़ते उसके जमीन पर। पहली बार भैया के हास्टल जाने पर चीजें देर तक धँुधली नजर आती रहीं।

Saturday, January 9, 2010

और वो चला गया,बिना मुड़े...--२ (लघु उपन्यास)

गतांक से आगे
(नेहा स्कूल की प्रिंसिपल है.अपने केबिन में अचानक शरद को आते देख चौंक जाती है.और उसे शरद से अपनी पहली मुलाक़ात याद आने लगती हैं.यह भी कि किशोरावस्था में वह कितनी शैतान थी.सबको कैसे तंग करती रहती थी.सड़क छाप रोमियो से भी लोहा ले लेती थी )


लाॅन में कुर्सी डाले मम्मी के साथ बैठी थी। मम्मी एक मोटे से उपन्यास में डूबी थीं उसने भी अपनी नोटबुक खोल रखी थी पर जी नहीं लग रहा था पढ़ने में।

बोर हो चली थी, निगाहें भटक रही थीं कि कोई शगल मिले कि जानकी माँ को देखते ही उसकी बाँछें खिल गई। अब तो घंटा भर आराम से कट जाएगा... जानकी माँ थी ही इतनी गप्पी। पूरे उछाह से स्वागत किया... ‘हाँ जानकी माँ! आज लग रहा है कोई नानी या दादी माँ तशरीफ ला रही है... हर चीज उम्र पर शोभा देती है। देखो तो कितनी गरिमामय लग रही है... वो सब क्या पहन लेती थी... झुमका, हँसुली, पायजेब.. देर से ही सही मेरी बात समझ में तो आई।‘

जानकी माँ को हमेशा जेवर, बिंदी, आलता से सजी देख और श्रृंगार का बेतरह शौक देख अक्सर टोक देती थी... ‘अब यह सब बंद कर अपनी बहुरिया को दे दो... दुल्हन आ गई है घर में, कब तक दुल्हन बनी रहोगी?‘

अगर जानकी माँ का मूड ठीक रहता तो कहतीं-‘ई सब सुहाग का चीज है बिटिया...‘ और सूप रख हाथ जोड़ माथे से लगा लेती -‘एही बिनती है भगवान से... ऐसे ही सिंगार-पटार करते उठा लें।‘ और जो मूड जरा गड़बड़ हुआ तो बोलतीं -‘अबही से हम कवन बुढ़िया हो गई, पचास भी नहीं लगा है... और उ सब जो साठ-पैंसठ की बुढ़िया सब केस रंगे, ओठ रंगे... चमचम साड़ी गहना पहने रहे तो ठीक?? काहे न... बड़कन के घर के लोग हैं न‘... और उसे मान लेना पड़ता... बात तो ठीक है।

लेकिन आज उसने आँख उठाकर भी न देखा और स्थिर कदमों से आती... मम्मी का घुटना पकड़ जोरों से बिलख उठीं... ‘हम तू लुट... गए मालीकन... जानकी के बाबू बड़ा सवारथी निकले... बीच मझधार में छोड़ कर हमको चले गए। अब अकेले कैसे जीएँगे हम... कौनो सहारा नहीं रहा।‘

सन्न रह गई वह। वह तो उसे यों सादी-सादी देख वह सब बोल गई। उसके सादे रूप के पीछे यह कारण होगा... ऐसा तो सपने में भी ख्याल नही आया। अवाक हो जड़ बनी बैठी रही। अनजाने ही कितना दिल दुखाया इस निरीह नारी का।

मम्मी ने जब भीतर से पर्स लाने को कहा तब तंद्रा टूटी उसकी - पर्स दे घास पर ही बैठ गई। भीगे स्वर में बोली... ‘गलती से जाने क्या निकल गया मुँह से, तुम ध्यान मत देना, जानकी माँ। मुझे कुछ मालूम नहीं था।‘

जानकी माँ उसे पकड़ दिल चीज कर रख देेनेवाली आवाज में रो पड़ी। उसकी आँखें भी भीगती चली गईं।

बाद में भी जाने कब तक अवसन्न सी बैठी रह गई। मम्मी के टोकने पर अपराधी स्वर में बोली थीं... ‘मम्मी उसने रंगीन साड़ी पहनी थी न, इसीलिए मेरे दिमाग में यह बात आई ही नहीं... उसे तो... ऐसे में तो सफेद साड़ी पहननी चाहिए न।‘

‘वो ऽ ऽ गरीब कहाँ से लाएंगी सफेद साड़ी, सबकी उतरन ही तो पहनती हैं... जिसने जैसा दे दिया... इन्हें तो शायद ‘कफन‘ ही नया नसीब होता है... लोकाचार भी सब पैसे वालों को चोंचले हैं।‘ - मम्मी ने समझाया।

सुबह उठी तब भी ये भारीपन दिलो-दिमाग पर तारी था। कल वाली घटना भुलाए नहीं भूल रही थी। इसलिए मन बदलने की खातिर लाॅन में चलीं आई। सुनहरी धूप, हरी दूब, उसपर झिलमिलाते ओसकण... सब मिलकर एक अलग ही छटा प्रस्तुत कर रहे थे कि... शरद को प्रवेश करते देख उसका शरारती दिमाग पैंतरे लेने लगा।

रस्ते के दोनों ओर झूलते डहेलियां औरों की तरह शरद को भी मोह रहे थे। और वह रूक-रूक कर कुछ झुकते हुए बड़े गौर से उन्हें देखते हुए आगे बढ़ रहा था।

धीरे से पीछे जाकर उसने बड़े पुराने परिचित की तरह गर्मजोशी से कहा -‘हल्लो!!! मि. शरद... ‘ आशा थी हड़बड़ा कर पलटेगा तो एक खनकती हुई हँसी उसे और भी स्तंभित कर देगी। लेकिन उसने तो धीमे से नजरें घुमायीं और उसका जायजा लेता हुआ हल्के से हँस कर बोला... ‘हलो! आपकी तारीफ।‘ जैसे कोई बड़ा बुजुर्ग शरारती बच्चे की नादानी पर हँसता है।

खीझ गया उसका मन, ऐंठ कर बोली-‘जितनी भी की जाए कम है।‘

‘करेक्ट.. बिल्कुल सही‘ उसकी बात खत्म भी न हुइ कि बोल उठा वह -‘आज के युग के लिए ‘अपना काम स्वयं करो‘ की जगह ‘अपनी प्रशंसा आप करो‘ वाला सूत्र ही ठीक रहेगा... वरना यहाँ दूसरों के लिए मर-खप जाओ.. पर तारीफ के दो बोल न फूटेंगे किसी के मुख से.. बिल्कुल प्रैक्टीकल बात की तुमने... आई एप्रीशिएट।‘

‘हम्म् तो बच्चू को बालेना भी आता है। देखती हूँ कब तक जुबान साथ देती है। और उसने अपना नुस्खा नं. 1, आजमाया। यानी किसी को बुरी तरह काॅशस कर देने वाली दृष्टि से घूरना कितनेा को पानी पिला चुकी थी वह अपने इस हथियार से। भैया के एक दोस्त तो इस कदर परेशान हो गए थे कि दो मिनट में ही मैदान छोड़ गए थे। ये कहते हुए कि ... ‘एक जरूरी काम याद आ गया है.. निलय से बाद में मिल लूँगा।‘ और हफ्ते भर सूरत नहीं दिखाई थी उन्होंने। बहुत बाद में बताया था कि कभी लगता उल्टा शर्ट पहन कर चले आए हैं... या बालों में कंधी करना भूल गए है... या शायद चेहरे पर कुछ लगा हुआ है... और भागकर दस मिनट तक प्रत्येक कोण से निहारते रहे थे खुद को, आईने में।

शर्मा आंटी तो आते ही हथियार डाल देती - ‘भई, इस तरह मत देखा कर, कुछ गड़बड़ हो तो पहले ही बता दे।‘

यहाँ भी वह भौं चढ़ाए, माथे पर बल डाले, सामने वाले का निरीक्षण करती रही थी। एक पल को तो शरद भी काँशस हो ही गया था, लेकिन दूसरे ही क्षण असलियत समझ हँस पड़ा... ‘ऐसे क्या देख रही हो, भई, पागलखाने से नहीं छूटा हूँ... और आसपास कोई अजायबघर भी तो नहीं... सीधा रेलवे स्टेशन से आ रहा हूँ।‘

ओह!... कोई फड़कता सा जबाब देना चाहिए और कुछ सूझ ही नहीं रहा... ‘थैंक गाॅड! मम्मी ने उबार लिया। आवाज सुनते ही बाहर निकल आई थीं। शरद उन्हें देख पांवों तक झुक आया। बस अब तो मम्मी के ‘गुडबुक‘ में नाम दर्ज हो गया। यह अप-टू-डेट लिबास और यह विनीत भाव। गदगद हो गईं होंगी मम्मी तो... हो ही गईं... पीठ थपथपाते हुए अंदर ले गई... कुशल-क्षेम पूछती रहीं... बातों से पता लगा जनाब उसकी अनुपस्थिति में पूरे दस दिन यहाँ की मेहमानवाजी का लुत्फ उठा गए हैं। (सुना तो था कि भैय्या का कोई दोस्त आया था, पर वो तो बचपन से देख रही है, हाॅस्टल से कोई न कोई दोस्त भैय्या के साथ आया ही करता थ) ... आंटी इधर से गुजर रहा था तो बिना मिले जाना अच्छा नहीं लगा... और आपकी नाराजगी का डर तो था ही... अच्छा! ये नियल कहाँ है? (भले आदमी को इतनी देर बाद अपने दोस्त की सुध आई है) ... बताने पर खड़े अफसोस भरे स्वर में बोला -‘कल लौटेगा?? तब तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। सोच रहा था आज रात की ट्रेन से निकल जाऊँ।‘

वह चैंकी... सोच रहा था... क्या मतलब... यानी अब जमोगे। मम्मी बड़े लाड़ से बोल रही थीं -‘अरे, ऐसे कैसे... कुछ दिन रूको, फिर जाना।‘

हुँह। कुछ दिन?? इनको रूखसत करने के लिए तो कुछ मिनट ही काफी होंगे। वह भी इसलिए कि खाल जरा मोटी है। वरना अनचाहे लोगों को तो वह दो पल में ही दरवाजे का रूख करवा देती है और मजा ये कि वे खुद ही शीघ्रतिशीघ्र दरवाजे की तरफ कदम बढ़ाने को उत्सुक होते हैं।

तभी अचानक ख्याल आया वह तो बिल्कुल उपेक्षित खड़ी है, चुपचाप... क्यों... खड़ी है। क्यों खड़ी है भला? बहुत बेटा-बेटा कर रही है हैं, मम्मी... तो करें अपने बेटे का स्वागत... दोनों में से जरा सा किसी को भी गुमान नहीं कि... वह भी खड़ी है यहां। और वह पलट कर चल दी। जाने उसके पलटने के अंदाज ने ही उसके मन की बात उजागर कर दी या क्या कि दोनों ने अचानक उसकी तरफ पलट कर देखा (ठीक ही तो कहती है स्वस्ति, नेहा सिर्फ तेरा चेहरा ही आईना नहीं बल्कि तू खुद एक आदमकद दर्पण है... तेरे हाव-भाव तक तेरे मन की झलक दे जाते हैं।) मम्मी ने तुरंत कहा -‘यही है, नेहा।‘

‘वह तो मैं देखते ही समझ गया था।‘ सोफे पर थोड़ा और फैलते हुए बोला, साथ ही वही बुर्जुगाना मुस्कुराहट। तिलमिला कर रह गई वह... हुँह! देखते ही समझ गया था। नाम लिखा है ना, उसका चेहरे पर - झूठ की भी हद होती है। वह सिर झटक कर चल दी!

माँ का नाराजगी भरा स्वर भी उभरा... ‘नेहाऽऽ!‘ परवाह नहीं।

जाते-जाते सुना शायद माँ ने नाश्ते के लिए पूछा था क्योंकि जनबा फरमा रहे थे... ‘आंटी, नाश्ता-वाश्ता तो बाद में अभी तो बस एक कड़क चाय चलेगी। स्टेशन का चाय ने मुँह का जायका बिगाड़ कर रख दिया।‘ - हद है, लोग कहते हैं नाश्ता-वाश्ता छोड़िए सिर्फ चाय मँगवाइए और ये... कटसी तो है ही नहीं जरा भी।

सर हिलाया उसने... चलो ठीक है, रघु बाजार गया है और सुमित्रा काकी गेहूँ धो रही हैं। चाय तो उसे ही बनानी होगी। ऐसी चाय पिलाएगी, बच्चू जीवन भर याद रखोगे। ठीक ही सोचा था, माँ थोड़े देर में आईं और चाय का आदेश दे चली गईं। आश्चर्य चकित भी हुईं कि बिना ना-नुकुर किए इतनी सहजता से कैसे तैयार हो गई वह।

पूरे मनोयोग से चाय बनायी उसने। इतनी एकाग्रता से उसे काम करते देख लें तो मम्मी, डैडी, भैया, रघु, सुमित्रा काकी सब गदगद हो जाएं। चाय में बस थोड़ी काली मिर्च छिड़की हल्का सा नमक मिलाया, पास रखी मसाले की शीशियों में से जरा-जरा सा डाला और चम्मच हिलाती हुई पहुँच गईं।

परदे के पास पहुँची ही थी कि सुना -‘अब तो बस तीन महीने की ट्रेनिंग बाकी है न... इतनी कम उम्र में सेकेंड लेफ्टिनेंट बन जाओगे... बहुत ही अच्छा कैरियर चुना...‘

हाथ कांप गया उसका। गाॅड, ये चिकने-चुपड़े वाला लड़का लेफ्टिनेंट है... ना चेहरे पर कोई कठोरता... ना आवाज ही रौबदार क्या जाने उसने ध्यान न दिया हो। ना बाबा... ये चाय नहीं देगी... कौन जाने ‘कप‘ पटक दे और चीखने-चिल्लाने लगे तो? रिवाॅल्वर भी जरूर होगी इसके पास... घर में कोई है भी नहीं। कहीं शूट-वूट कर निकल भागे तो? बाप रे! इन लोगों का गुस्सा भी मशहूर है। कोई आँच तो इन पर आएगी नहीं... जिस तरह इन लोगों का मन बढ़ा हुआ है, जो जी में आए कर डालो और खूबसूरती से उसे एक ‘एनकाउंटर‘ का नाम दे दो। - एक क्षण में ही खुराफाती दिमाग यह सब सोच गया... लेकिन अब करती भी क्या एक पैर अंदर रख चुकी थी।

‘डरते-डरते कप‘ टेबल पर रख ही रही थी कि बीच में ही थाम लिया शरद ने और मुस्कुराते हुए पूछा -‘किस स्कूल में हो?‘

सिर से पाँव तक लहक उठी वह। सारा डर जाने कहाँ उड़ गया। बहुत अच्छा किया जो ऐसी चाय बना लाई। अभी लौटा ले जाती तो कितना अफसोस होता... इसी लायक है वह ‘लेफ्टिनेंट बनने जा रहा है, हुँह! शक्ल तो देखो जरा, ऐसा लगता है, जैसे ए बी सी डी सीख रहा है... और उसे स्कूल में समझता है... हुँह!‘

गुस्से से तमतमाता चेहरा लिए कुछ बोलने जा ही रही थी कि माँ हँस पड़ी -‘अरे! वह बी ए पार्ट टू में है, तुम्हें इतनी बच्ची लगती है।‘

‘अच्छा ऽ ऽ ऽ‘ -आश्चर्य से मुँह फाड़ा (हे भगवान! कोई मक्खी घुस जाए, मुँह में) और फिर... ‘बच्ची तो खैर है ही।‘

ठीक है, बच्ची हूँ न, तो अभी एक सिप लो, सारा बचपन पता चल जाएगा। और आगे आने वाले दृश्य की कल्पना कर तनी हुई नसें ढीली पड़ गईं.. उमड़ती हुई हँसी ने सारा गुस्सा काफूर कर दिया। अभी मुँह बनाते हुए थू-थू करेगा न तो असली लेफ्टिनेंट लगेगा... क्या मजा आएगा... बड़ा स्नेह उमड़ रहा है न मम्मी का, कितनी मेहनत से बनाई थी ये क्रोशिए का सफेद टेबल-क्लाॅथ... अभी जब चाय से तर होगा न तब दिखाइएगा ये प्रेम भाव। या ये नई कालीन खराब होगी तब; हाल ही में डैडी ने मँगवाया है, जयपुर से। कोई पानी का ग्लास भी ले कर आए तो कहते हैं... ‘ऐ! देखो जरा ध्यान से।‘ तब पता चलेगा मम्मी को.... जब डाँट पड़ेगी। जिस-तिस को बैठा लेती हैं। और अगर कुछ बोलेगा तो बिल्कुल नकार जाएगी उल्टा बुरा मान जाएगी... बिगड़ पड़ेगी -‘कैसी बातें करते हैं, ऐसी भी भला कहीं चाय बनती है, दिमाग तो ठीक है, आपका? कोई उसकी झूठी चाय चखने से तो रहा।‘

पूरी तरह तैयार हो, वह एकटक उसके चेहरे पर नजरें जमाए खड़ी थी। लेकिन ये तो कप लिए बैठा है। ...कहीं भनक तो नहीं लग गई... तभी शरद ने प्याला होठों की ओर बढ़ाया और उसकी सांस रूक गई। लेकिन सांस थोड़ी और देर तक रूकी रह गई। उसके सामने जो बैठा है, वह आदमी ही है न। शरद ने एक सिप लिया और एकदम उसी मुखमुद्रा में मम्मी के अगले प्रश्न का उत्तर देने लगा। एक शिकन तक नहीं उभरी चेहरे पर। जैसे बिल्कुल सामान्य चाय हो। यही नहीं, दूसरा सिप लिया फिर उसके बाद तीसरा, चैथा, पाँचवा... और मम्मी से वैसे ही बातें करता रहा।

एक बार उसकी तरफ नजर तक नहीं की। कम से कम विजयी नजरों से ही देख लेता... कि देखो, मैंने पी ली... लेकिन कोई रिएक्शन नहीं और वह और नहीं रूक सकी। दिमाग को ठकठकाया; कहीं ऐसा तो नहीं कि वह सोचती ही रह गई और सामान्य चाय बना कर दे आई। किचन में जाकर देखा, लापरवाही से खुली रह गई शीशियाँ इस सत्य से इंकार कर रही थीं। हाथ जोड़ माथे से लगा लिया... ‘मान गए भई, गैंडे की खाल है तुम्हारी।‘

Friday, January 8, 2010

और वो चला गया,बिना मुड़े...


दो दिनों की लगातार बारिश के बाद चैंधियाती धूप निखरी थी सफेद कमीज और लाल निक्कर में सजे छोटे-छोटे बच्चों की चहचहाहट से मैंदान गूंज रहा था। अपने केबिन में बैठे इन सबकी प्यारी-प्यारी उछलकूद देखना बड़ा ही भला गल रहा था। इनमें ही खो सी गई थी कि प्यून ने आकर किसी का विजिटींग कार्ड थमाया... ‘कर्नल एस. के. मेहरोत्रा‘ यूं ही सरसरी निगाह डाल मशीनी ढंग से कह डाला -‘भेज दो।‘

‘मे आय कम इन‘ - की रौबीली आवाज सुन... -‘येस कम इन‘ भी यंत्रवत ही कह डाला। नजरें तो फील्ड में धींगामुश्ती करते दो बच्चों पर ही टीकी थीं और आंखें बड़ी बेचैनी से तलाश रही थीं कि कोई टीचर इन पर नजर रखने केा है या नहीं। मिस शारदा की उनकी तरफ बढ़ते देख चैन की सांस ली और आगंतुक की ओर जो घुमायीं तो पल भर की आंखें झपकाना ही भूल गई। चित्रलिखे सी जड़वत अवाक देखती रह गई। ये क्या देख रही है वह या काफी देर तक धूप में देखते रहने से आकृति स्पष्ट नजर नहीं आ रही। दो तीन बार आंखें झिपझिपा कर खोलीं तब भी शरद का मुस्कुराता चेहरा ही सामने था जो बड़ी आतुरता से अपनी बात कहने की प्रतीक्षा कर रहा था। साथ में सहमा-सहमा सा नौ-दस साल का बच्चा भी खड़ा था।

आगंतुक से नजरें बचाते हुए उसने अपने बालों की ओर हाथ बढ़ाया और चोर नजरों से आलमीरे की ओर देख लिया। जिसके शीशे लगे दरवाजे में चेहरा भी साफ नजर आ रहा था। सही है... उसके चेहरे ने अपनी सारी मासूमियत खो दी थी। और अब उस पर एक दबंग, कठोर, कर्मठ महिला का चेहरा चस्पां हो गया था। मोटे फ्रेम के चश्मे और बालों में झिलमिलाते चाँदी के तारों ने चेहरे को गरिमायुक्त बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। फिर भी यह बदलाव क्या इतना था कि जिसके तले उसकी पुरानी छवि ने यों दम तोड़ दिया। ‘नेहा कपूर‘ के व्यक्तित्व ने क्या ‘नेहा नवीना‘ को इस कदर आच्छन्न कर लिया कि पहचान की सारी कड़ियाँ ही शेष हो गईं। समय के गर्त ने शायद उसके अतीत को सदा के लिए अपने अंक में समेट लिया। नही ंतो क्या शरद की आँखों में कुछ नहीं कौंधता। उन नीली आँखों के सागर में कोइ्र लहर तरंगायित नहीं होती।


हालांकि उसने तो चेहरे पे झलक रहे प्रौढ़ता के गांभीर्य... माथ पे झूलती लट की जगह उलट कर संवारे गए बाल और कनपटियों पर कुछ सफेद बाल (जैसे शेव के बाद थोड़े से साबुन के झाग अनधुले रह गए हों) सहित शरद को एक नजर में ही पहचान लिया था। लेकिन उसका क्या... उसने तो तब शरद को बिना कभी देखे ही पहचान लिया था।

सुबह का वक्त था... सूरज की किरणों और फूलों की पंखुड़ियों के बीच मान-मनौव्वल चल ही रहा था। पंखुड़ियों ने अभी अपना घूँघट पूरी तरह नहीं सरकाया था और न अपने आंसू ही पोंछे थे। वह अपने गीले बाल पीठ पर छितराए लाॅन में टलह रही थी कि... गेट को हल्का सा धक्का दे, कंधे पर एयरबैग लटकाए, एक नौजवान ने बड़ी लापरवाही से प्रवेश किया। कुछ ही क्षणों में पहचान लिया उसने... भैय्या के एलबम में फोटो देखी थी। बस इतना लिंक काफी था वरना उसे तो जाने-अनजाने लोगों का किसी ना किसी से चेहरा मिलाते रहने का व्यसन सा था। अपने आस-पास उसने बड़े-बड़े नामों वाले चर्चित चेहरों का अच्छा-खासा हुजूम जुटा लिया था। उसके सामने वाले बंगले में अशोक कुमार रहा करते थे तो अमजद खान उसकी काॅलोनी में पहरा देते थे। निरूपा राय उसके यहाँ सब्जी बेचने आती तो संदीप पाटील नुक्कड़ पे पान बेचता था।

शरद को देखते ही उसके चुलबुले दिमाग में शरारत का कीड़ा रेंगने लगा। थी ही इतनी शराती इतनी चंचल कि लोग पनाह मांगते थे। एक मिनट स्थिर बैठने की तो जैसे कसम थी उसे। हर पल उछल-कूद मचाते रहना सबको छेड़ते रहना उसकी दैनिक आदतों में शुमार था। और उसकी ‘छेड़छाड‘़से ‘छेड़छाड के लिए जाने जाने वाले महानुभाव भी बरी नहीं थे। राह चलते किसी भी चवन्नी छाप हीरो की हिम्मत नहीं थी कि एक भी जुमला उछाल सके। शुरूआत में जरूर कुछ ने तेजी दिखाने की कोशिश की लेकिन उहें ऐसी अजीबो-गरीब स्थिति का सामना करना पड़ा कि तौबा कर ली सबने।

‘डिबेट‘ में मारे गए फस्र्ट प्राइज इतना तो तय कर ही देते थे कि तर्क में उसे कोई भी परास्त नहीं कर सकता। बात खत्म भी न हुई कि जवाब हाजिर।

चैराहे पर सिगरेट का कश लगाते दो चार लड़कों ने उसे लाल ड्रेस में गुजरते देख आवाज कसी थी - ‘वो ऽऽ देखो! लाल परी‘ और वह त्वरित वेग से मुड़ उनकी बिल्कुल पास पहुँच पूछ बैठी थी -‘जी! आपने मुझसे कुछ कहा, कभी देखी है परी? मैं तो बचपन से ढँूंढ़ रही हूँ, नहीं दीखी मुझे... आपने देख ली... कहाँ है परी?‘

उसके इस अप्रत्याशित हमले के लिए तैयार नहीं थे... बिलकुल घबरा से गए।

आसपास खड़ी भीड़ विस्फारित नेत्रों से देख रही थी और जबतक लड़के इस आकस्मिक हमले से सम्भल कुछ कहने की स्थिति में होते... वह बड़े शान से लौट पड़ी थी।

अब तो उसकी हरकतों ने उसकी सहेलियों में भी काफी आत्मविश्वास भर दिया था। (हालांकि उसे आत्मविश्वास दिया था उसकी ‘जूडो कराटे‘ की ट्रेनिंग ने) इनका इस्तेमाल करने की जरूरत तो नही ंपड़ी लेकिन इसने इतनी हिम्मत जरूर दे दिया कि ईंट का जवाब पत्थर से दे सके। और तब जाना कि लड़के भी छुई-मुई सी कतरा कर निकल जाने वाली... लेकिन इस कतराने के क्षण में भी जतन से सँवारे अपने रूप की एक झलक देने का मोह रखनेवाली लड़कियों को ही निशाना बनाते हैं। किसी ने स्वच्छंदता से खुल कर सामना करने की कोशिश की नहीं कि भीगी बिल्ली बन जाते हैं।

और इस सारे बदलाव का श्रेय नेहा नवीना यानी उसे दिया जाता है जबकि यह सब तो अनजाने में हो गया किसी योजना के तहत उसने कुछ नहीं किया। किसी भी चीज को गंभीरता से लेना तो उसके स्वभाव में शामिल ही नहीं। भले ही माली काका और उनकी पत्नी या रघु और मंगल के बीच झगड़े सुलझाती वह बड़ी धीर गंभीर नजर आए। लेकिन गंभीरता से उसका कोसों दूर का नाता नहीं। सावित्री काकी के अंदर जाते ही बिल्कुल नन्हीं नेहा बन ठुनकने लगती -‘माली दादा, तुम्हें तो अब इलायची अदरक डाली बढ़िया चाय मिल जाएगी... मुझे भी अपनी पसंद की चीज चाहिए।‘


माली दादा उसकी शरारत समझ जाते पीले गुलाब के गुच्छे वे हर शाम डैडी के कमरे में सजाते थे - क्योंकि उनका सबसे प्रिय इसी रंग का यही फूल था। वह उसी की फर्माईश कर बैठती और पूरी नहीं करने की दशा में तरह तरह के गुलदस्ते बनवाती। और ढेर सारे कच्चे अमरूद तुड़वाती। माली काका भी खुश-खुश उसकी फर्माईशें पूरी करते जाते और बतरस का आनंद भी लेते रहते। उसे वह नन्हीं नेहा ही समझते -‘अच्छा कच्चे अमरूद खाओगी और पेट में दरद होगा, तब?‘

‘अच्छा होगा न, फिर सावित्री काकी से खट्टा-मीठा चूरण भी खाने को मिलेगा।‘ वह अमरूद पर दाँत गड़ाती बालती।

‘पता नहीं हमारी बिटिया कब बड़ी होगी?‘ - मनोयोग से गुलदस्ता बनाते माली काका जैसे अपने-आप से ही बोलते। तो वह आँखें चैड़ी कर कह उठती -‘मैं बताऊँ... बारह तारीख को बारह बज कर बारह मिनट पर।‘

माली दादा अनी ठेंठ अलीगढ़ी अंदाज में हो हो कर हँस पड़ते। फिर बड़ी संजीदगी से कहते -‘इतना लगी रहती है, बिटिया, चली जाएगी तो ये घर बाग-बगीचा सब सूना हो जाएगा।‘

‘कहाँ चली जाऊँगी?‘ - वह इठला कर पूछती तो क्षोभ उतर आता माली काका के स्वर में - ‘अरे! वहीं जहाँ पाँच बरस पहले जाना चाहिए था।... क्या कहूं ... सहर में रहकर छोटे मालिक की बुद्धि भरमा गई है... नही ंतो अपने यहां तेरहवां लगते ही लड़की अपने घरबार को हो जाती थीं‘

‘बस फिर वहीं गंदी बात... अभी बताती हूँ‘ - और वह दौड़कर कोई तितली हाथों में कैद कर लेती। यह माली काका को निरस्त करने का सबसे कारगर हथियार था।

एक बार उसने बताया था कि कैसे उसकी सहेलियाँ तितलियों को किताबों के बीच दबा कर मार देती हैं। और फिर उन्हें ग्रीटींग कार्ड सजाने के काम में लाती हैं। माली काका ने कानों पर हाथ रख लिया -‘राम-राम बिटिया ऐसा भी कहीं होता है।‘

‘क्यों नहीं होता, खूब होता है... अब यहाँ भी होगा... मैं भी सजाऊँगी ऐसे ही।‘

रोश उमड़ आया था उनके स्वर में, याद नहीं कभी इतनी झिड़की भरी आवाज सुनी हो... ‘ना... ना बिटिया ऐसा जघन्य काम नहीं होने देंगे हम... जीव हत्या सबसे बड़ा पाप है... जो चीज हम जो चीज हम दे नहीं सकते उसे लेने का क्या हक है?‘... सीधे सादे शब्दों में उन्होंने अपना दर्शन रख दिया था।

लेकिन वह उन्हें खिझाती रहती... ‘क्या हुआ एक न एक दिन तो सबको मरना ही है। अच्छा है न जितनी जल्दी इसे कीड़े वाली योनि से छुटकार मिल जाए‘ - फिर बड़े राजदार ढंग से बोलती -‘क्या जाने काका इसे मनुष्य जन्म मिले।‘

‘हाँ हाँ! देवता का मिलेगा, पहले तू छोड़ इसे‘ - फिर खूब मिन्नतें करवा तितली को आजाद करती।

उस दिन भी उनके हाथों में काले-पीले रंगों वाली एक खूबसूरत तितली फड़फड़ाती देख माली दादा अधबना गुलदस्ता छोड़ उसकी ओर भागे थे। वह कुछ और दूर जाती हुई बोली थी -‘क्यों अब और बोलोगे जाना है?‘

असमंजस में खड़े रहते माली काका -‘तूने तो बड़ी धरमसंकट में डाल दिया बेटी... कैसे कहूँ कि नहीं जाना है।‘

‘ठीक है कहेा‘... मुँह फुलाए कहती वह और हाथों में फड़फड़ाती तितली से बोलती ’’तितली रानी, अब तो तुम हमेशा मेरे साथ रहोगी... मिनट-दो मिनट देश लो इस दुनिया को।‘’

उसका अभिप्राय जान बड़ी अजीजी से कहते माली दादा... ‘अच्छा, अब नहीं कहँूगा, छोड़ दे बिटिया, इसे।‘

‘कभी नहीं कहोगे कि जाना है...‘

‘कभी नहीं।‘ ... वे बड़ी मरी सी आवाज में बोलते।
और वह एक बारगी ही तितली को हवा में उड़ा झूठे रोश से पैर पटकने लगती -‘हाँ, हाँ... क्यों कहोगे... रामकली को तो कब का भेज दिया अपने ससुराल... मुझे कहते हो... यहीं रहना है, हमेशा।‘

मुस्करा पड़ते माली दाद... ‘तुझसे बातों में कौन जीत सकता है बिटिया... इसी से तो कहता हूं... चली जाएगी तो कैसे रहेंगे, हमलोग?‘

‘ऐ हे ऐ... फिर कहा... चली जाएगी‘ - छूटते ही बोलती वह और खिखिलाकर हँस पड़ते दोनों।

नित नई शरारतें ईजाद करना और हर किसी की खिंचाई करते रहना तो जैसे उसकी हाॅबी ही थी। लेकिन इसमें मात्र एक बाल सुलभ भोलापन और उसकी खिलंदड़ी तबियत ही थी। किसी किस्म की दुर्भावना नहीं। जान-बूझकर किसी का दिल नहीं दुखाया... अगर कभी अनजाने में ऐसे कर भी बैठी तो सच्चे दिल से माफी माँगने में भी देर नहीं की।

क्रमशः (ये एक लघु उपन्यास है,जरा धीरज धरना होगा :) )