Saturday, January 9, 2010

और वो चला गया,बिना मुड़े...--२ (लघु उपन्यास)

गतांक से आगे
(नेहा स्कूल की प्रिंसिपल है.अपने केबिन में अचानक शरद को आते देख चौंक जाती है.और उसे शरद से अपनी पहली मुलाक़ात याद आने लगती हैं.यह भी कि किशोरावस्था में वह कितनी शैतान थी.सबको कैसे तंग करती रहती थी.सड़क छाप रोमियो से भी लोहा ले लेती थी )


लाॅन में कुर्सी डाले मम्मी के साथ बैठी थी। मम्मी एक मोटे से उपन्यास में डूबी थीं उसने भी अपनी नोटबुक खोल रखी थी पर जी नहीं लग रहा था पढ़ने में।

बोर हो चली थी, निगाहें भटक रही थीं कि कोई शगल मिले कि जानकी माँ को देखते ही उसकी बाँछें खिल गई। अब तो घंटा भर आराम से कट जाएगा... जानकी माँ थी ही इतनी गप्पी। पूरे उछाह से स्वागत किया... ‘हाँ जानकी माँ! आज लग रहा है कोई नानी या दादी माँ तशरीफ ला रही है... हर चीज उम्र पर शोभा देती है। देखो तो कितनी गरिमामय लग रही है... वो सब क्या पहन लेती थी... झुमका, हँसुली, पायजेब.. देर से ही सही मेरी बात समझ में तो आई।‘

जानकी माँ को हमेशा जेवर, बिंदी, आलता से सजी देख और श्रृंगार का बेतरह शौक देख अक्सर टोक देती थी... ‘अब यह सब बंद कर अपनी बहुरिया को दे दो... दुल्हन आ गई है घर में, कब तक दुल्हन बनी रहोगी?‘

अगर जानकी माँ का मूड ठीक रहता तो कहतीं-‘ई सब सुहाग का चीज है बिटिया...‘ और सूप रख हाथ जोड़ माथे से लगा लेती -‘एही बिनती है भगवान से... ऐसे ही सिंगार-पटार करते उठा लें।‘ और जो मूड जरा गड़बड़ हुआ तो बोलतीं -‘अबही से हम कवन बुढ़िया हो गई, पचास भी नहीं लगा है... और उ सब जो साठ-पैंसठ की बुढ़िया सब केस रंगे, ओठ रंगे... चमचम साड़ी गहना पहने रहे तो ठीक?? काहे न... बड़कन के घर के लोग हैं न‘... और उसे मान लेना पड़ता... बात तो ठीक है।

लेकिन आज उसने आँख उठाकर भी न देखा और स्थिर कदमों से आती... मम्मी का घुटना पकड़ जोरों से बिलख उठीं... ‘हम तू लुट... गए मालीकन... जानकी के बाबू बड़ा सवारथी निकले... बीच मझधार में छोड़ कर हमको चले गए। अब अकेले कैसे जीएँगे हम... कौनो सहारा नहीं रहा।‘

सन्न रह गई वह। वह तो उसे यों सादी-सादी देख वह सब बोल गई। उसके सादे रूप के पीछे यह कारण होगा... ऐसा तो सपने में भी ख्याल नही आया। अवाक हो जड़ बनी बैठी रही। अनजाने ही कितना दिल दुखाया इस निरीह नारी का।

मम्मी ने जब भीतर से पर्स लाने को कहा तब तंद्रा टूटी उसकी - पर्स दे घास पर ही बैठ गई। भीगे स्वर में बोली... ‘गलती से जाने क्या निकल गया मुँह से, तुम ध्यान मत देना, जानकी माँ। मुझे कुछ मालूम नहीं था।‘

जानकी माँ उसे पकड़ दिल चीज कर रख देेनेवाली आवाज में रो पड़ी। उसकी आँखें भी भीगती चली गईं।

बाद में भी जाने कब तक अवसन्न सी बैठी रह गई। मम्मी के टोकने पर अपराधी स्वर में बोली थीं... ‘मम्मी उसने रंगीन साड़ी पहनी थी न, इसीलिए मेरे दिमाग में यह बात आई ही नहीं... उसे तो... ऐसे में तो सफेद साड़ी पहननी चाहिए न।‘

‘वो ऽ ऽ गरीब कहाँ से लाएंगी सफेद साड़ी, सबकी उतरन ही तो पहनती हैं... जिसने जैसा दे दिया... इन्हें तो शायद ‘कफन‘ ही नया नसीब होता है... लोकाचार भी सब पैसे वालों को चोंचले हैं।‘ - मम्मी ने समझाया।

सुबह उठी तब भी ये भारीपन दिलो-दिमाग पर तारी था। कल वाली घटना भुलाए नहीं भूल रही थी। इसलिए मन बदलने की खातिर लाॅन में चलीं आई। सुनहरी धूप, हरी दूब, उसपर झिलमिलाते ओसकण... सब मिलकर एक अलग ही छटा प्रस्तुत कर रहे थे कि... शरद को प्रवेश करते देख उसका शरारती दिमाग पैंतरे लेने लगा।

रस्ते के दोनों ओर झूलते डहेलियां औरों की तरह शरद को भी मोह रहे थे। और वह रूक-रूक कर कुछ झुकते हुए बड़े गौर से उन्हें देखते हुए आगे बढ़ रहा था।

धीरे से पीछे जाकर उसने बड़े पुराने परिचित की तरह गर्मजोशी से कहा -‘हल्लो!!! मि. शरद... ‘ आशा थी हड़बड़ा कर पलटेगा तो एक खनकती हुई हँसी उसे और भी स्तंभित कर देगी। लेकिन उसने तो धीमे से नजरें घुमायीं और उसका जायजा लेता हुआ हल्के से हँस कर बोला... ‘हलो! आपकी तारीफ।‘ जैसे कोई बड़ा बुजुर्ग शरारती बच्चे की नादानी पर हँसता है।

खीझ गया उसका मन, ऐंठ कर बोली-‘जितनी भी की जाए कम है।‘

‘करेक्ट.. बिल्कुल सही‘ उसकी बात खत्म भी न हुइ कि बोल उठा वह -‘आज के युग के लिए ‘अपना काम स्वयं करो‘ की जगह ‘अपनी प्रशंसा आप करो‘ वाला सूत्र ही ठीक रहेगा... वरना यहाँ दूसरों के लिए मर-खप जाओ.. पर तारीफ के दो बोल न फूटेंगे किसी के मुख से.. बिल्कुल प्रैक्टीकल बात की तुमने... आई एप्रीशिएट।‘

‘हम्म् तो बच्चू को बालेना भी आता है। देखती हूँ कब तक जुबान साथ देती है। और उसने अपना नुस्खा नं. 1, आजमाया। यानी किसी को बुरी तरह काॅशस कर देने वाली दृष्टि से घूरना कितनेा को पानी पिला चुकी थी वह अपने इस हथियार से। भैया के एक दोस्त तो इस कदर परेशान हो गए थे कि दो मिनट में ही मैदान छोड़ गए थे। ये कहते हुए कि ... ‘एक जरूरी काम याद आ गया है.. निलय से बाद में मिल लूँगा।‘ और हफ्ते भर सूरत नहीं दिखाई थी उन्होंने। बहुत बाद में बताया था कि कभी लगता उल्टा शर्ट पहन कर चले आए हैं... या बालों में कंधी करना भूल गए है... या शायद चेहरे पर कुछ लगा हुआ है... और भागकर दस मिनट तक प्रत्येक कोण से निहारते रहे थे खुद को, आईने में।

शर्मा आंटी तो आते ही हथियार डाल देती - ‘भई, इस तरह मत देखा कर, कुछ गड़बड़ हो तो पहले ही बता दे।‘

यहाँ भी वह भौं चढ़ाए, माथे पर बल डाले, सामने वाले का निरीक्षण करती रही थी। एक पल को तो शरद भी काँशस हो ही गया था, लेकिन दूसरे ही क्षण असलियत समझ हँस पड़ा... ‘ऐसे क्या देख रही हो, भई, पागलखाने से नहीं छूटा हूँ... और आसपास कोई अजायबघर भी तो नहीं... सीधा रेलवे स्टेशन से आ रहा हूँ।‘

ओह!... कोई फड़कता सा जबाब देना चाहिए और कुछ सूझ ही नहीं रहा... ‘थैंक गाॅड! मम्मी ने उबार लिया। आवाज सुनते ही बाहर निकल आई थीं। शरद उन्हें देख पांवों तक झुक आया। बस अब तो मम्मी के ‘गुडबुक‘ में नाम दर्ज हो गया। यह अप-टू-डेट लिबास और यह विनीत भाव। गदगद हो गईं होंगी मम्मी तो... हो ही गईं... पीठ थपथपाते हुए अंदर ले गई... कुशल-क्षेम पूछती रहीं... बातों से पता लगा जनाब उसकी अनुपस्थिति में पूरे दस दिन यहाँ की मेहमानवाजी का लुत्फ उठा गए हैं। (सुना तो था कि भैय्या का कोई दोस्त आया था, पर वो तो बचपन से देख रही है, हाॅस्टल से कोई न कोई दोस्त भैय्या के साथ आया ही करता थ) ... आंटी इधर से गुजर रहा था तो बिना मिले जाना अच्छा नहीं लगा... और आपकी नाराजगी का डर तो था ही... अच्छा! ये नियल कहाँ है? (भले आदमी को इतनी देर बाद अपने दोस्त की सुध आई है) ... बताने पर खड़े अफसोस भरे स्वर में बोला -‘कल लौटेगा?? तब तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। सोच रहा था आज रात की ट्रेन से निकल जाऊँ।‘

वह चैंकी... सोच रहा था... क्या मतलब... यानी अब जमोगे। मम्मी बड़े लाड़ से बोल रही थीं -‘अरे, ऐसे कैसे... कुछ दिन रूको, फिर जाना।‘

हुँह। कुछ दिन?? इनको रूखसत करने के लिए तो कुछ मिनट ही काफी होंगे। वह भी इसलिए कि खाल जरा मोटी है। वरना अनचाहे लोगों को तो वह दो पल में ही दरवाजे का रूख करवा देती है और मजा ये कि वे खुद ही शीघ्रतिशीघ्र दरवाजे की तरफ कदम बढ़ाने को उत्सुक होते हैं।

तभी अचानक ख्याल आया वह तो बिल्कुल उपेक्षित खड़ी है, चुपचाप... क्यों... खड़ी है। क्यों खड़ी है भला? बहुत बेटा-बेटा कर रही है हैं, मम्मी... तो करें अपने बेटे का स्वागत... दोनों में से जरा सा किसी को भी गुमान नहीं कि... वह भी खड़ी है यहां। और वह पलट कर चल दी। जाने उसके पलटने के अंदाज ने ही उसके मन की बात उजागर कर दी या क्या कि दोनों ने अचानक उसकी तरफ पलट कर देखा (ठीक ही तो कहती है स्वस्ति, नेहा सिर्फ तेरा चेहरा ही आईना नहीं बल्कि तू खुद एक आदमकद दर्पण है... तेरे हाव-भाव तक तेरे मन की झलक दे जाते हैं।) मम्मी ने तुरंत कहा -‘यही है, नेहा।‘

‘वह तो मैं देखते ही समझ गया था।‘ सोफे पर थोड़ा और फैलते हुए बोला, साथ ही वही बुर्जुगाना मुस्कुराहट। तिलमिला कर रह गई वह... हुँह! देखते ही समझ गया था। नाम लिखा है ना, उसका चेहरे पर - झूठ की भी हद होती है। वह सिर झटक कर चल दी!

माँ का नाराजगी भरा स्वर भी उभरा... ‘नेहाऽऽ!‘ परवाह नहीं।

जाते-जाते सुना शायद माँ ने नाश्ते के लिए पूछा था क्योंकि जनबा फरमा रहे थे... ‘आंटी, नाश्ता-वाश्ता तो बाद में अभी तो बस एक कड़क चाय चलेगी। स्टेशन का चाय ने मुँह का जायका बिगाड़ कर रख दिया।‘ - हद है, लोग कहते हैं नाश्ता-वाश्ता छोड़िए सिर्फ चाय मँगवाइए और ये... कटसी तो है ही नहीं जरा भी।

सर हिलाया उसने... चलो ठीक है, रघु बाजार गया है और सुमित्रा काकी गेहूँ धो रही हैं। चाय तो उसे ही बनानी होगी। ऐसी चाय पिलाएगी, बच्चू जीवन भर याद रखोगे। ठीक ही सोचा था, माँ थोड़े देर में आईं और चाय का आदेश दे चली गईं। आश्चर्य चकित भी हुईं कि बिना ना-नुकुर किए इतनी सहजता से कैसे तैयार हो गई वह।

पूरे मनोयोग से चाय बनायी उसने। इतनी एकाग्रता से उसे काम करते देख लें तो मम्मी, डैडी, भैया, रघु, सुमित्रा काकी सब गदगद हो जाएं। चाय में बस थोड़ी काली मिर्च छिड़की हल्का सा नमक मिलाया, पास रखी मसाले की शीशियों में से जरा-जरा सा डाला और चम्मच हिलाती हुई पहुँच गईं।

परदे के पास पहुँची ही थी कि सुना -‘अब तो बस तीन महीने की ट्रेनिंग बाकी है न... इतनी कम उम्र में सेकेंड लेफ्टिनेंट बन जाओगे... बहुत ही अच्छा कैरियर चुना...‘

हाथ कांप गया उसका। गाॅड, ये चिकने-चुपड़े वाला लड़का लेफ्टिनेंट है... ना चेहरे पर कोई कठोरता... ना आवाज ही रौबदार क्या जाने उसने ध्यान न दिया हो। ना बाबा... ये चाय नहीं देगी... कौन जाने ‘कप‘ पटक दे और चीखने-चिल्लाने लगे तो? रिवाॅल्वर भी जरूर होगी इसके पास... घर में कोई है भी नहीं। कहीं शूट-वूट कर निकल भागे तो? बाप रे! इन लोगों का गुस्सा भी मशहूर है। कोई आँच तो इन पर आएगी नहीं... जिस तरह इन लोगों का मन बढ़ा हुआ है, जो जी में आए कर डालो और खूबसूरती से उसे एक ‘एनकाउंटर‘ का नाम दे दो। - एक क्षण में ही खुराफाती दिमाग यह सब सोच गया... लेकिन अब करती भी क्या एक पैर अंदर रख चुकी थी।

‘डरते-डरते कप‘ टेबल पर रख ही रही थी कि बीच में ही थाम लिया शरद ने और मुस्कुराते हुए पूछा -‘किस स्कूल में हो?‘

सिर से पाँव तक लहक उठी वह। सारा डर जाने कहाँ उड़ गया। बहुत अच्छा किया जो ऐसी चाय बना लाई। अभी लौटा ले जाती तो कितना अफसोस होता... इसी लायक है वह ‘लेफ्टिनेंट बनने जा रहा है, हुँह! शक्ल तो देखो जरा, ऐसा लगता है, जैसे ए बी सी डी सीख रहा है... और उसे स्कूल में समझता है... हुँह!‘

गुस्से से तमतमाता चेहरा लिए कुछ बोलने जा ही रही थी कि माँ हँस पड़ी -‘अरे! वह बी ए पार्ट टू में है, तुम्हें इतनी बच्ची लगती है।‘

‘अच्छा ऽ ऽ ऽ‘ -आश्चर्य से मुँह फाड़ा (हे भगवान! कोई मक्खी घुस जाए, मुँह में) और फिर... ‘बच्ची तो खैर है ही।‘

ठीक है, बच्ची हूँ न, तो अभी एक सिप लो, सारा बचपन पता चल जाएगा। और आगे आने वाले दृश्य की कल्पना कर तनी हुई नसें ढीली पड़ गईं.. उमड़ती हुई हँसी ने सारा गुस्सा काफूर कर दिया। अभी मुँह बनाते हुए थू-थू करेगा न तो असली लेफ्टिनेंट लगेगा... क्या मजा आएगा... बड़ा स्नेह उमड़ रहा है न मम्मी का, कितनी मेहनत से बनाई थी ये क्रोशिए का सफेद टेबल-क्लाॅथ... अभी जब चाय से तर होगा न तब दिखाइएगा ये प्रेम भाव। या ये नई कालीन खराब होगी तब; हाल ही में डैडी ने मँगवाया है, जयपुर से। कोई पानी का ग्लास भी ले कर आए तो कहते हैं... ‘ऐ! देखो जरा ध्यान से।‘ तब पता चलेगा मम्मी को.... जब डाँट पड़ेगी। जिस-तिस को बैठा लेती हैं। और अगर कुछ बोलेगा तो बिल्कुल नकार जाएगी उल्टा बुरा मान जाएगी... बिगड़ पड़ेगी -‘कैसी बातें करते हैं, ऐसी भी भला कहीं चाय बनती है, दिमाग तो ठीक है, आपका? कोई उसकी झूठी चाय चखने से तो रहा।‘

पूरी तरह तैयार हो, वह एकटक उसके चेहरे पर नजरें जमाए खड़ी थी। लेकिन ये तो कप लिए बैठा है। ...कहीं भनक तो नहीं लग गई... तभी शरद ने प्याला होठों की ओर बढ़ाया और उसकी सांस रूक गई। लेकिन सांस थोड़ी और देर तक रूकी रह गई। उसके सामने जो बैठा है, वह आदमी ही है न। शरद ने एक सिप लिया और एकदम उसी मुखमुद्रा में मम्मी के अगले प्रश्न का उत्तर देने लगा। एक शिकन तक नहीं उभरी चेहरे पर। जैसे बिल्कुल सामान्य चाय हो। यही नहीं, दूसरा सिप लिया फिर उसके बाद तीसरा, चैथा, पाँचवा... और मम्मी से वैसे ही बातें करता रहा।

एक बार उसकी तरफ नजर तक नहीं की। कम से कम विजयी नजरों से ही देख लेता... कि देखो, मैंने पी ली... लेकिन कोई रिएक्शन नहीं और वह और नहीं रूक सकी। दिमाग को ठकठकाया; कहीं ऐसा तो नहीं कि वह सोचती ही रह गई और सामान्य चाय बना कर दे आई। किचन में जाकर देखा, लापरवाही से खुली रह गई शीशियाँ इस सत्य से इंकार कर रही थीं। हाथ जोड़ माथे से लगा लिया... ‘मान गए भई, गैंडे की खाल है तुम्हारी।‘

26 comments:

मनोज कुमार said...

दिलचस्प विवरण। आगे की प्रतीक्षा।

vandana gupta said...

rashmi ji
bahut hi badhiya kahani chal rahi hai aur ye kissa padhte padhte to sirf hansti hi rahi hun..........agli kadi ka intzaar rahega.

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

सच में गैंडे की खाल है .... बहुत अच्छी लगी आपकी यह कहानी... शुरुआत से लेकर अंत तक बांधे रखा.. यही आपकी लेखनी का कमाल है.....

अजय कुमार झा said...

पर टिप्पणी तो हमने कभी देखी नहीं...लोग यह भी बोलते हैं,अरे कमेंट्स पर ना जाइए..आपको लोग बहुत पढ़ते हैं...पर ये silent readers का वेश मुझे समझ में नहीं आता.अजय जी कह रहें हैं कहीं कहीं मौन रहना जरूरी होता है...मेरी पोस्ट्स का जिक्र अक्सर ये अपनी चर्चा में करते हैं..पर कमेंट्स तो नहीं लिखते...मेरा लिखा इन्हें मौन कर देता है..इतना घातक है :)
प्रिय रश्मि जी , आपने मुझे संबोधित करते हुए शायद ऐसा दूसरी बार कहा है , अब देखिए आप खुद ही मानती हैं कि मैं अपनी चर्चा में आपकी पोस्टों को शामिल करता हूं , और मेरी चर्चा को पढने वाले ये बात अब तक जान ही चुके होंगे कि मैं उन दो पंक्तियों में ही पोस्ट का सार रखने की कोशिश करता हूं , हां चर्चा तैयार करते समय टीप नहीं पाता मगर इससे इतना तो आपको पता चल ही गया होगा कि आपके लेखों को मैं पढता जरूर हूं । अब बात आपकी मौन रह जाने संबंधी शिकायत की तो नियमित रूप से जब ब्लोगजगत की उठापटक से रूबरू होंगी न तो आपको भी लगेगा कि कुछ स्थानों पर उर्जा नष्ट करने से बेहतर है कि उसे बचा लिया जाए । आशा है कि आपको अब शिकायत नहीं होगी , भई क्या किया जाए कि आपकी शिकायत दूर हो ...????

भई ये तो आपके लिए वहां टीपा था इसलिए यहां भी लाद लाया , अब बात इस पोस्ट की , पहला काम तो ये कि पिछली पोस्ट का लिंक लगा दीजीये और भी बेहतर लगेगा , और हां तितली , गैंडा....सब सहेज रहा हूं

rashmi ravija said...

अजय जी,...अच्छा है आपने वहाँ दी टिप्पणी यहाँ पोस्ट कर दी...मैंने तो देखा ही नहीं था....मैंने यह पहली बार कहा है....हाँ किसी ने कुछ नाम लिए थे और कहा था ये लोग आपका लिखा पढ़ते हैं...जब मैंने कहा,कमेंट्स नहीं करते....तो उन्होंने वह बात मेरे मना करने के बावजूद आप तक पहुंचा दी...आपने एक दो पोस्ट पर कमेन्ट किया और गायब हो गए (आज मैंने शिकायत की तो फिर वापस आ गए :))...बात कमेन्ट करने और ना करने की नहीं है...कई लोग मेरे ब्लॉग पर अपनी उपस्थिति नहीं दिखाना चाहते...यह बात अजीब सी लगती है...आपकी व्यस्तता मुझे पता है..मौन वाली बात मैंने मजाक में कही थी...अन्यथा,ना लेँ.

कहानी अच्छी लग रही है...जानकर सचमुच अच्छा लगा...कब से लिख रखी थी...बहुत हिचकते हुए पोस्ट करने की सोची...पर आपलोगों की प्रतिक्रियाएँ तो माशाल्लाह....कुछ ज्यादा ही दरियादिली दिखा रही हैं..वैसे मैं यह सब पढ़ जमीन के २ इंच ऊपर चल रही हूँ,आजकल :)

Unknown said...

कहानी ने जम्प मार लिया है. अब ये नेहा जो ना करे कम है
वो गाना याद आ रहा है
उसकी बेटी ने उठा रक्खी है सर पर दुनिया
ये तो अच्छा हुआ अंगूर के बेटा ना हुआ

लिखे जाओ हम बैठे है ना पढने को बेताब

निर्मला कपिला said...

ant tak baandhe rakhaa pichalee kaDee bhee dekhanee paDee aur agali kadi ka intazar rahega rocak kahaanee hai badhaaI aasheervaad

राज भाटिय़ा said...

बहुत ही सुंदर लगी यह कडी भी बांधे रखा, जादू है आप के की बोर्ड मै( कलम नही कहुंगा यह पुराने जमाने की बात हो गई?

kshama said...

Upnyas ke is bhag ne poorv bhag padhne ke liye vivash kar diya!

डॉ टी एस दराल said...

लेखन पर बहुत अच्छा नियंतरण है आपका, रश्मि जी।
बधाई इस शानदार वृतांत के लिए।

Udan Tashtari said...

गैंडे की खाल है तुम्हारी..डायलॉग बहुत दिन बाद सुना..:)


बेहतरीन प्रवाहमय...शानदार लेखन!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत बढ़िया कहानी चल रही है......अभी तो भूमिका ही बंधी है....आगे बेसब्री से इंतज़ार है

विनोद कुमार पांडेय said...

अब शरद ठहरा इतना पढ़ लिखा और होशियार आदमी उसे सब पता है की कहाँ किस स्टाइल में जवाब देनी चाहिए अगर चाय पीने के बाद कुछ भी ग़लत रीएक्सन देता तो लड़की अपनी मकसद में कामयाब हो जाती इसलिए शरद ने ऐसा मज़ा चखाया जैसे कुछ असर ही नही हुआ हो....बढ़िया कहानी..आगे के भाग का इंतज़ार रहेगा..धन्यवाद रश्मि जी

shikha varshney said...

are jaldi jaldi padhaiye na kahani sabar nahi ho raha...itni achchi kahani ke liye itna tarsana thik nahi ...:)

वाणी गीत said...
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वाणी गीत said...

बहुत गुदगुदा गयी आपकी कहानी ...एक उम्र में लगभग सभी की यादें मिलती जुलती होती हैं ...अपनी कितनी ही शरारतें याद आ गयी ...किसी को ऐसी ही नमक वाली चाय भी पिलाई गयी थी ....:)
क्या होगा इस कहानी का अंजाम ...उत्सुकता बढ़ गयी है ....!!!

स्वप्न मञ्जूषा said...

अरे !!
बहुत सही चल रही है तुम्हारी कहानी जानी...
गैडे की खाल वाली कहावत है पुरानी
पर आज पढ़ी तो छूटी हंसी सायानी
हमने भी दी थी चाय नमक वाली रानी
पूड़ी में डाली थी धोती फटी पुरानी
और याद दिला दी थी किसी की हमने नानी

रश्मि, कहानी में प्रवाह बना हुआ है ...लेखनी ने सारी घटनाओं को जीवंत सा कर दिया है..बस हम तो जीते चले जारहे हैं तुम्हारे पात्रों को...

Khushdeep Sehgal said...

ये गैंडे की खाल बड़े काम की चीज़ है...शादी के बाद भी हर प्रकोप से बचाती रहती है...

रश्मि बहना, कहानी में जबरदस्त प्रवाह है...ये हम टेलीविजन चैनल वालों को अब समझ आ रहा है कि मिलते हैं ब्रेक के बाद....कहना दर्शकों को कितना अखरता होगा...

जय हिंद...

वन्दना अवस्थी दुबे said...

बेहद रोचक और अल्हड सी कहानी. ज़रा जल्दी आगे का भाग पढवाइये तो बात बने. चाय आराम से पी लेने का राज हम भी तो जानें. शानदार उपन्यासिका-अंश है.

alka mishra said...

भाई ,नेहा वाली चाय हमें भी भेज दो ,थोडा सा चख लें ...
शुभकामनाएं

गौतम राजऋषि said...

सोच रहा था कि आपको मेल करुं, क्योंकि जहां तक मेरा ख्याल है इसी कहानी को आपने भेजा था मुझे मेल...किंतु वो कुछ फोंट की अनुपस्थिति की वजह से खुल नहीं रहा था मेरे लैप-टाप पर।

अभी देर रात गये दोनों किश्त पढ़ा और आपके शिल्प ने मंत्र-मुग्ध किया...कथ्य की बाबत आखिरी किश्त पढ़ कर बताऊंगा। किंतु शिल्प की बुनावट कह रही है कि आपकी लेखनी में एक बेहद उम्दा कहानीकार की लेखनी की रौशनाई शामिल है यकीनन।

manu said...

ये तो अपनी सी कहानी हुयी रश्मि जी..
ज़रा सा अंतर है बस...
हमें चाय में मसाले के बजाय
खीर में नमक मिला था...और हमने बड़े आराम से खा लिया था...
hamaare भाई की साली साहिबा की शक्ल देखने लायक थी उस वक़्त..

फिर उसने माफ़ी मांगके नए कटोरे मेंखीर दी..( एकदम सही वाली..)
हमने
नजर बचा के एक चम्मच नमक से भरा हुया बड़े तरीके से रख दिया उस गाढ़ी खीर में..

फिर हमने कहा के हमनें नहीं खानी नमक वाली खीर..तो बोली के नहीं जी..ये एकदम ठीक है...
हमने कहा के चलो एक चम्मच खा के दिखाओ......

उस बेचारी ने बड़ी बेफिक्री से उस गाढ़ी खीर की कटोरी में रखा नमक भरा चम्मच उठाया और अपने मुंह में डाल लिया...

बाकी की खीर हम आराम से खाने लगे..और वो भागी कमरे से उलटी करने के लिए....
वापिस आई तो हम आराम से खीर खा रहे थे......
इस बार वो फिर से हक्की बक्की रह गयी...
और उसकी शक्ल एक बार फिर से देखने काबिल थी...

rashmi ravija said...

मनोज जी, जी,वंदना जी,निर्मला जी,राज जी,अजय जी,समीर जी,हरी जी,क्षमा जी,दराल जी,संगीता जी,विनोद जी,वंदना अवस्थी जी,महफूज़,शिखा एवं खुशदीप भाई....आप सबलोगों का बहुत बहुत आभार.,मेरा उत्साह बढ़ने के लिए...कहानी पसंद आ रही है..जानकर संतोष हुआ....आशा है..आगे भी पसंद आएगी.
@वाणी,अदा एवं मनु जी....मैंने तो सिर्फ लिखा और आपलोगों ने ये कारगुजारियां कर भी डालीं...चलो फिर तो ये कपोल कल्पित नहीं है...कपड़े वाली पूरी..नमक वाली खीर और नमक वाली चाय का जायका किसी (मनु जी) ने तो लिया ही...:)
@गौतम जी,यही कहानी भेजी थी,आपको....क्यूंकि नायक एक फौजी है तो मुझे लगा कुछ टेक्नीकल गलतियां होंगी, उसे आप शायद सुधार सकें...पर फोंट्स ही नहीं खुल पाए...कोई बात नहीं...अब उन्ही गलतियों के साथ पढ़िए और यहीं सुधार दीजिये..

रचना दीक्षित said...

आपकी कहानी पढ़ी तो पढ़ती ही चली गयी मज़ा आया अगली कड़ी का इंतजार है

स्वप्न मञ्जूषा said...

Blog ki nayi saaj-sajja acchi lagi..
badhaai..

गौतम राजऋषि said...

पिछली बार आपको बताना भूल गया था कि ये चाय वाली घटना, बिल्कुल ऐसी ही घटना मेरे पापा के साथ हुई थी उनके ससुराल में जब मम्मी की बहनों ने पापा को चाय में नमक मिला कर पिलाया था और पापा ने कोई रिएक्ट ही नहीं किया था। मेरे ननिहाल सौराठ में अब भी इतने सालों बाद भी इस घट्ना का जिक्र होता है...