(ये वो कहानी नहीं, जिसका जिक्र मैने अपनी पिछली पोस्ट में किया था....वो तो किस्तों वाली होगी...कुछ दिन चलेगी....यह भी थोड़ी लम्बी तो है..पर एक पोस्ट में ही समेट दिया है )
दोनों बच्चे शोर कर रहें हैं...आपस में कुछ ना कुछ बहस झगडा चल रहा है...शालिनी मुश्किल से उन्हें, आँखें दिखा कर चुप कराती है ,उसकी तो सारी इन्द्रियाँ सिमट कर बस कान बन गए हैं...फ्लाईट के पायलट का नाम अनाउंस होने ही वाला है....और धड़कन एक पल को रुक जाती है...और फिर थकी सी ठंढी सांस वापस निकल जाती है...उसका नाम नहीं था...पता नहीं कभी यह रुकी सांस उल्लासित होकर बाहर आएगी भी या नहीं. वापस शिथिल हो कर सर पीछे को टिका देती हैं...बच्चों का झगड़ना फिर शुरू हो गया है...करने दो...एयर होस्टेस अभी आँखें दिखायेगी तो खुद ही चुप हो जाएंगे.
जब से यहाँ वहाँ से उड़ती हुई खबर उसके कानों तक पहुंची है कि मानस ने डोमेस्टिक एयरलाइन्स ज्वाइन की है.हर बार कैप्टन का नाम ध्यान से सुनती है कि शायद वही हो जबकि उसे पता भी नहीं कौन सी एयरलाइन्स ज्वाइन की है. एयरपोर्ट पर भी बच्चे और ट्रॉली संभालते भी खोजी निगाहें दौड़ती रहती हैं. और लगता अभी किसी तरफ से मानस का हँसता चेहरा सामने आ जायेगा. हर सोशल नेट्वर्क पर भी उसे ढूंढ्ने की कोशिश की पर निराशा ही हाथ आयी.पर क्यूं, किसलिए उसे ढूँढने की कोशिश कर रही थी?? यह सवाल खुद से भी कई बार पूछ चुकी पर जबाब कोई नही मिलता.
और अपनी बेवकूफी पर हंस भी पड़ती है...मानस का छठी कक्षा वाला चेहरा ही सबसे पहले ध्यान में आता है...जब वह पहली बार उस पर इतना हंसा था...पर तब तो वह कित्ता रोई थी.
इंग्लिश के नए टीचर आए थे.आते ही डस्टर पटका और रौबीली आवाज़ में, सबको नोटबुक निकालने को कहा. फिर बहुत सारे कठिन ग्रामर के लेसन दिए हल करने को. सबकी कापियाँ जमा कर लीं चेक करने के लिए.. उनसे डर तो गए थे सब पर कितनी देर शांत रह पाते.देर शांत रहते..धीरे धीरे बातें शुरू हो गयीं.शालिनी, रीता और शर्मीला भी सर जोड़े नई फिल्म की कहानी सुनने लगीं जो पिछले हफ्ते ही शर्मीला अपने नए जीजाजी और दीदी के साथ देख कर आई थी. उसे कितनी कोफ़्त होती...वो क्यूँ सबसे बड़ी है? उसकी भी कोई बड़ी दीदी होती तो वो भी शर्मीला जैसी उनलोगों के साथ फिल्म देखकर आती और कहानियाँ सुनातीं.पर अभी तो बस सुननी पड़ती थीं. बेच बीच में सर के चिल्लाने कि आवाज़ आती रहती.पर वे लोग तो इतना धीरे बोल रही थीं. सर शायद पीछे बैठे लड़कों पर नाराज़ हो रहें थे .अचानक जोर का एक चॉक का टुकड़ा उसके सर से टकराया.उसने सर उठाया..और सर चिल्ला पड़े,"क्या गपाश्टक हो रहा है...चलो बेंच पर खड़ी हो जाओ" तब , इंग्लिश के सर भी हिंदी में ही बाते करते थे और कई बार तो लेसन भी हिंदी में ही एक्सप्लेन कर जाते. उसे तो काटो तो खून नहीं. आजतक कभी डांट भी नहीं पड़ी और सीधा बेंच पर खड़ी हो जाओ. वो हतप्रभ मुहँ खोले देखती रहीं तो फिर से चिल्लाये..."मुहँ क्या देख रही हो....स्टैंड अप ऑन द बेंच (इस बार अंग्रेजी में बोले)
वो सर झुकाए खड़ी हो गयी. और आँखों से धार बंध चली. पूरा क्लास सकते में था.इसलिए नहीं कि सर चिल्ला रहें थे.इसलिए कि वह बेंच पर खड़ी थी. सारे बच्चे ,मुहँ खोले उसे देख रहें थे.
सर, वापस कॉपियाँ चेक करने में लग गए थे.एक एक कॉपी चेक करते...बच्चे का नाम पुकारते...उस बच्चे को डांटते और फिर कॉपी उसकी तरफ फेंक देते. किसी ने अच्छा नहीं किया था. यह देख उसका रोना और बढ़ता जा रहा था .अब सर के सामने उसकी कॉपी थी. उनका बडबडाना बदस्तूर चालू था..."कोई भी नहीं पढता...किसलिए स्कूल आते हो तुमलोग"...फिर माथे पर चढ़ी भृकुटी थोड़ी शिथिल हुई.."अँ.. ये तो सही हैं....हम्म ये भी सही है...ओह ये भी सही है.."अब आश्चर्य का भाव था,चेहरे पर...."हम्म क्या बात है...ये भी राईट..हम्म..पंद्रह में से बारह राईट..." अब थोड़ी सी मुस्कान तिर आई थी उनके चहरे पर....नाम देख पुकारा..."शालिनी कौन है ?" वो चुप रही.
" हू इज शालिनी?" (फिर से अंग्रेजी पर आ गए )
इस बार मानस ने हँसते हुए कहा..'सर वो जो बेंच पर खड़ी रो रही है,ना..वही है शालिनी"
"ओह्ह!! सिट डाउन..... सिट डाउन...ले जाओ अपनी कॉपी...गुड़, यू हैभ डन बेल "
वो उतर तो गयी थी...पर इतने अपमान के बाद कॉपी लेने नहीं गयी. वे स्वर को कोमल बना कर
बोले.."ले जाओ अपनी कॉपी"
वो भी हठी की तरह खड़ी रही.
इस बार मानस उठ कर बोला.."सर मैं दे आऊं??" और हंस पड़ा.
"क्यूँ..."
"ही ही ही.. वो नहीं जा रही ना..."
"तुम्हार क्या नाम है?...."
"मानस"
"कितने नंबर मिले तुम्हे?"
"पांच"..मुस्कराहट अब भी वैसे ही जमी थी उसके चहरे पर.
"और हंस रहें हो..शर्म नहीं आती...खड़े हो जाओ बेंच पर..."डांट कर कहा ...और फिर उसी स्वर में उसे भी बोला.."ले जाओ आपनी कॉपी.
सहम कर वो चुपचाप अपनी कॉपी ले आई.पर मानस बेंच पर खड़ा भी हँसता ही रहा.
घंटी बजी और सर के जाते ही,सब भाग लिए दरवाजे की तरफ. अंतिम पीरियड था. वो शर्म से सर झुकाए,धीरे धीरे बढ़ रही थी कि आवाज़ आई 'रोनी बिल्ली" खूनी आँखों से देखा तो मानस और उसके चार-पांच शैतान दोस्त हंस रहें थे. बस वहीँ विष बेल के बीज पड़ गए.
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फिर तो मानस कोई मौका नहीं छोड़ता, उसे चिढाने का. उसी की कॉलोनी में चार घर छोड़ कर रहता था. साथ खेलने वाले सारे बच्चों को पता चल गया था. उसे बेंच पर खड़े होने की सजा मिली थी और वह रोई थी. खेल में भी मानस इतना तंग करता कि वह रो ही देती. लुक्का-छिपी खेलते तो पता नहीं कहाँ , छुपा रहता और फिर उसे धप्पा कर देता...बार-बार उसे ही चोर बनना पड़ता अंत में तंग आ वह रो देती.तो फिर उसे चिढाने का बहाना मिल जाता. कोई भी खेल शुरू करने के पहले कहता..'मैं नहीं खेलता, हारने पर लोग रोने लगते हैं..."
सबकी आँखें उसकी तरफ उठ जातीं. फिर सब मानस को मनाने में लग जाते और शालिनी गुस्सा पीते हुए खुद में ही सिमट जाती.
वह उसे गुस्से मे घूरती और वह दाँत दिखाता रह्ता.पर इस बार गुस्से मे घूरने की बारी मानस की थी जब सिक्स मंथली एक्ज़ाम मे वह फ़र्स्ट आई थी और मानस को बहुत कम नम्बर मिले थे. हर शाम की तरह वह शोभा के साथ, बाहर घूम रही थी. मानस के घर के सामने से गुजरते हुए, शोभा ने बताया कि आज अचानक वह मानस के घर गयी तो देखा, चाची मानस को आंगन में दौडा दौडा कर मार रही हैं और बोलती जा रही हैं "वह लड़की होकर भी फर्स्ट आ गयी ...इतने अच्छे नंबर लेकर आई...और तुम मुश्किल से पास हुए...अब भागते किधर हो?."
उस दृश्य की कल्पना कर वह दोनो हंस पड़ीं..उसी वक्त मानस घर से बाहर आ गया. दोनो अचकचा कर चुप हो गयीं पर मानस समझ गया कि वे दोनों उसी पर हंस रही थीं. उसे इतने गुस्से से घूरा कि अगर किसी देव ने कभी प्रसन्न होकर उसे कोई वर दिये होते तो वो वहीं भस्म हो जाती. उस विषबेल पर अब पत्ते निकल आये थे.
और अब माँ की मार का बदला वह रोज उसे स्कूल में तंग कर के लेता. अक्सर इंग्लिश टीचर उसे रीडींग डालने को बोलते और मानस जोर से चिल्ला कर बोलता, "सर सुनायी नहीं दे रहा". कभी कभी तंग आ कर टीचर, उसे, शालिनी की बराबर वाली बेन्च पर बिठा देते, तब भी वह बाज नहीं आता. कान को हाथ की ओट मे लेकर सुनने की एक्टिंग करता.सारा क्लास मुँह छुपा कर हंसता रह्ता.और शालिनी का ध्यान भंग हो जाता. अगर टीचर ,उसे बोर्ड पर कोई सवाल हल करने को देते तब भी चिल्लाता, "सर कुछ दिखाई नहीं दे रहा." वह उचक उचक कर और बडा लिखने की कोशिश करती और इस चक्कर मे सब टेढा मेढा हो जाता.
उसे बस आश्चर्य इस बात का होता, इतनी शैतानी करने पर भी सारे टीचर उसे इतना मानते कैसे थे? ऑफिस से रजिस्टर लाना हो, किसी को बुलाना हो, हमेशा मानस को ही बुलाते. शायद रेस मे हमेशा जीतता था, इसी लिये. स्पोर्ट्स डे के दिन मानस का ही बोलबाला रह्ता.सौ मीटर, चार सौ मीटर रेस, लौन्ग जम्प, हाई जम्प, सब मे वह ढेर सारे कप्स जीतता. अपने लाल हो आए चेहरे से पसीना पोंछते ,वह उसे एक बार गर्वीली नज़र से जरूर देख लेता.वो मुहँ घुमा लेती. बाकी सब तो"माss नस ...माss नस" का नारा लगाते, रह्ते, उसे बधाई देते.शर्मीला,,रीता, मीना सब जातीं , पर वो दूर ही खडी रह्ती. मानस तो कभी उस से बात भी नहीं करता,और इतना परेशान करता वो क्यूं जाये बधाई देने? विष-बेल अब बढती जा रही थी.
धीरे धीरे मानस ने शाम को उन सबके साथ खेलना छोड दिया. अब वह मैदान में बडे बच्चों के साथ क्रिकेट और फ़ुटबाल खेलने जाता.क्लास पर क्लास बढते गये पर स्कूल मे तंग करना वैसे ही जारी रहा. मानस की ड्राईंग बहुत अच्छी थी,जबकि,उसकी कम्जोर. फिज़िक्स के ड्राईंग तो वह फिर भी कर लेती पर बायोलोजि के ड्राइंग मे उसकी जान निकल जाती. कुछ भी ठीक से नहीं बना पाती. जब प्रैक्टिकल बुक जमा होती करेक्शन के लिये, वह सोचती बस मानस की नज़र ना पड़े,पर मानस किसी न किसी की बुक ढूंढ्ने के बहाने देख ही लेता और देख कर उपहास के ऐसे ऐसे मुहं बनाता कि उसकी झुकी गर्दन शर्म से और झुक जाती.
फ़ेयरवेल के दिन परम्परानुसार सबने साडी पहनी, उसे देख्ते ही मानस बोला, "कोई शादी है क्या...लोग इतना सज धज कर आ रहे हैं." उसका सारा तैयार होना व्यर्थ हो गया.
और इसी डर के मारे, कौलोनी मे अनीता दी की शादी मे जब उसने सब की ज़िद पर साडी पहनी तो पूरे समय मानस के सामने पडने से बचती रही. एक बार जब एकदम से सामने आ गया तो उसने जल्दी से मुहँ फ़ेर लिया.और वह धीमे से उसे सुना कर बोलता चला ही गया,"पता नहीं इतना घमंड किस बात का है?"
शालिनी सोचती रह जाती , कब किया उस ने घमंड? फ़र्स्ट आना क्या घमंड करने जैसा है? अब वह उसकी खुशी के लिये फ़ेल तो नहीं हो सकती. और उस ने मुहँ बिचका दिया.खाता रहे जितनी मार खानी हो अपनी माँ से. उसकी बला से.
वह गर्ल्स कॉलेज में आ गयी तो मानस से पीछा छूटा.पर कहीं उसके तानों की इतनी आदत पड गयी थी कि क्लास मे सब सूना सूना लगता. मानस के घर के बिल्कुल बगल मे एक शर्मा अंकल ट्रांस्फ़र हो कर आये थे.उनकी तीन लड्कियाँ थीं, तीनों का मानस के घर मे आना जाना था. उनसे हमेशा मानस को हँस कर बातें करते देखती तो आश्चर्य होता, उसे तो लगता था, मानस को लड़कियों से ही चिढ है.पर उसे क्या, जिस से मर्जी हो उस से बात करे.
एक बार शर्मा अन्कल के यहाँ गयी थी, बाहर ही उनकी बेटी निशा मिल गई, वो ऊन की सलाइयाँ, मानस की माँ को देने जा रही थी. उसे भी कहा, "चल मेरे साथ"
"मैं नहीं जाती मानस के यहाँ"
"क्यूँ?"
"ऐसे ही उस के यहाँ कोई लडकी भी नहीं."
"तो क्या हुआ...वो तो तुम्हारे ही क्लास मे था,स्कूल मे?...पर तुम लोग कभी बात भी नहिं करते...झगडा है क्या, उस से?"
"नहीं,झगड़ा क्यूँ होगा.?"
"अरे..झगडा तो किसी भी बात पर हो सकता है...वैसे मानस घर पर है नही..अभी अभी उसे बाहर जाते देखा है...बता ना...झगडा है उस से??
"नहीं बाबा...कोई झगडा नहीं...चलो चलती हूँ....." उसकी बातों से बचने को वो साथ चल दी."
वो हर कमरे मे चाची चाची कह्ती घूमने लगी पर चाची कहीं नहीं थीं. तुम यहिं रुको, मै छ्त पर देख कर आती हूँ, वह मानस का कमरा था. वह उसकी मेज़ पर आकर उसकी किताबें, उलट पलट कर देखने लगी.’देखूं कुछ पढ़ता भी है या,सब वैसे ही कोरी हैं"
पहली नोटबुक जो खोली , देखा, सुन्दर सा एक फ़ूल बना हुअ है...’ह्म्म ठीक ही सोचा था उसने ,अब भी नहीं पढ़ता.यही चित्रकारी करता रह्ता है’ पर तभी ध्यान से जो देखा तो देखा फ़ूल के बीच मे बड़ी खूबसूरती से लिखा हुअ है, ’शालिनी’. उस के दिल की धड़्कन अचानक बढ़ गई. फ़िर तो जल्दी जल्दी कई नोटबुक पलट डाले और तकरीबन सबमे, फ़ूल पत्ती, बेल बने हुये थे और बीच बीच मे लिख हुअ था, शालिनी.
एकदम से डर गई वह.पसीने से नहा गई. जल्दी से बाहर निकल आई. चेहरा , लाल पड़ गया था और दिल धौंकनी की तरह चल जोर जोर से धड़क रहा था.निशा के सामने पड़ने की हिम्मत नहीं थी उसमे. आंगन से ही आवाज़ लगाई उसने ,"निशा...मैं जा रही हूँ"
"अरे रुक मैं बस आ गई..." निशा की आवाज़ भी उसने बाहर निकलते निकलते सुनी.
घर आकर सीधा छ्त पर भाग गई, निशा क्या किसी का सामना करने की हिम्मत नहीं थी उसमे. साँस जब सम पर आई तब दिमाग कुछ सोचने लायक हुआ. पर वह इतना घबरा क्यूँ रही है,क्या अकेली शालिनी है वो दुनिया मे? उसके कॉलेज मे लड़्कियाँ भी तो पढ़ती हैं. उन मे से ही कोई होगी या क्य पता, जिन प्रोफ़ेसर के यहाँ ट्यूशन पढने जाता है, उनकी बेटी का नाम हो शालिनी. उसका नाम कैसे हो सकता है? उसके पढाई मे तेज़ होने के कारण. उस से तो वह बचपन से ही नफ़रत करता है, स्कूल मे रीता,शर्मिला सबसे बातें करता है, कॉलोनी में भी शोभा, निशा से कितना खुलकर बात करता है. एक सिर्फ़ उस से दूर रहता है, दूर ही नहीं हमेशा नीचा दिखाने की कोशिश , अब उसका नाम कैसे लिख सकता है..नामुमकिन. उस विष-बेल में अमृत धारा कैसे बह सकती है?
और अगर सच मे लिखा हो तो....न... न वह इतना हैंन्डसम है, इतन स्मार्ट, और वह कितनी छुई मुई सी है, बस कीताबी कीड़ा...ना..उसे तो कोई अपने जैसी स्मार्ट लड़की ही पसन्द आयेगी.जो जिसे चाहे मुहँ पर जबाब दे दे ,उसकी तो किसी को देखते ही जुबान तालु से चिपक जाती है. बेकार मे सपने बुन रही है वह.
और फ़िर जैसे खुद को ही पहली बार जाना. सपने??...तो क्या, उसे मानस से कोई नराज़गी नहीं.पहले तो उसे बड़ा गुस्सा आता था, उस पर...हाँ आता तो था,पर जब से कॉलेज अलग हुये हैं,उसकी कमी बहुत खलती है. तो क्या वह...ना ना...ये सोचने का भी क्या फ़ायदा...वो कभी मानस की पसन्द हो ही नहीं सकती,ये जरूर कोई और शालिनी है, नहीं तो क्या अब तक वह एक बार भी नज़र उठा उसे देखता भी नहीं. इतनी सारी लड़कियों से बात करता है, सिवाय उसके. इसका मतलब वो उसे पसंद नहीं करता...हाँ, उसे तो उसके जैसा ही कोई पढ़ाकू पसंद करेगा....मोटी कांच के चश्मेवाला, चिपके बाल....पूरी बाहँ की शर्ट, गले तक बंद बटन....यक... और जैसे अपनी कल्पना से ही घबराकर उठ कर नीचे भाग गयी.
शुक्र है,माँ घर में नहीं थीं..वरना उसका बदहवास चेहरा देख पूछ ही बैठतीं,क्या हुआ?...उसने सोफे
पर लेट, टी.वी. ऑन कर दिया...कुछ तो ध्यान बंटे...पर स्क्रीन पर तो एक सुन्दर सा फूल दिख रहा था, जिसके अंदर लिखा था, शालिनी. घबरा कर आँखें बंद कीं तो पलकों में भी वही फूल मुस्करा उठा. उसने कुशन उठा कर जोरो से आँखों पर भींच लिया.
पर इसके बाद से वह काफी डर गयी थी. बालकनी में खड़ी रहती और दूर से भी मानस को आते देखती तो धडकनें तेज़ हो जातीं और वह झट से छुप जाती. लगता जैसे, सबकी नज़रें उन दोनों को ही देख रही हैं. निशा कितनी बार बुलाने आती..चलो बाहर टहलते हैं..पर वो उसे छत परले जाती, कहीं मानस से सामना ना हो जाए. कभी आते-जाते मानस सामने पड़ भी जाता तो पसीने से नहा उठती और जल्दी से कतरा कर निकल आती. जबकि बार बार खुद से कहती..."वो शालिनी कोई और है...वो तो हो ही नहीं सकती"
मानस दिखता भी कम...निशा बताती...बहुत मेहनत से पढ़ाई कर रहा है..उसका मन होता कहे, 'जरा उसकी कॉपियाँ पलट कर देखो..पढता है या ड्राइंग करता है' पर जब बारहवीं का रिजल्ट आया तो सब हैरान रह गए, मानस को 'फर्स्ट क्लास' मिली थी. उसके बराबर में आ गया था वह...जो पापा को शायद अच्छा नहीं लगा था, बार बार कहते.."लड़कों का कुछ पता नहीं,कब पढने की लगन जाग जाये.."
माँ बहुत खुश थी,कहतीं.." मानस की माँ की चिंता दूर हो गयी...हमेशा कहती थीं..."तुम्हारी तो बिटिया है..वो भी इतनी तेज है..और मानस तो ..लड़का होकर भी नहीं पढता....कैसे मिलेगी, नौकरी?"
मानस का अच्छा रिजल्ट उसे इस शहर से भी दूर ले गया. वह बड़े शहर में पढने चला गया.जाने के एक दिन पहले, कई बार मानस को उसके घर के सामने से आते-जाते देखा....पर हर बार वह ओट में हो जाती. हिममत ही नहीं हुई सामने आने की.
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उसने भी खुद को पढ़ाई में झोंक दिया.अपने भविष्य की रूपरेखा भी तय कर ली, ग्रेजुएशन के बाद कम्पीटीशन देगी...और फिर एक बढ़िया सी नौकरी. बड़ी सी मेज़ होगी...फाइलों से लदी. सामने चपरासी हाथ बांधे खड़ा रहेगा...वाह क्या रुआब होगा.
पर उसे कहाँ पता था, वह तो परीक्षा की तैयारियों में उलझी है...घर वाले किसी और तैयारी में. यूँ ही पढ़ाई से ब्रेक लेने किचेन में कुछ डब्बे टटोलने आई तो बरामदे में बैठी माँ और पड़ोस वाली, सिन्हा चाची का स्वर कानो में पड़ा. " अब लड़की के भाग्य हैं और क्या..घर बैठे तुम्हे इतना अच्छा लड़का मिल गया " सिन्हा चाची थीं.
"हाँ , वो तो है...हमने अभी कहाँ कुछ सोचा था, वो तो इसकी बुआ आई थीं उन्होंने ही बताया उनकी पड़ोस में एक बहुत अच्छा लड़का है. उनलोगों को बस अच्छे घर की गोरी,पढने में तेज़ लड़की चाहिए..."
"अरे तेज़ लड़की...मतलब?..नौकरी करवाएंगे क्या?? लड़का अच्छा कमाता तो है...?"
"सच कहूँ तो मैं भी ऐसे ही हैरान हो गयी थी, पर सुषमा जी ने जब बताया सुन कर कुछ अजीब ही लगा....लड़की पढने में तेज़ होनी चाहिए..ताकि बच्चे मेधावी हों...क्या क्या नखरे होते जा रहें है लड़केवालों..के..पर इनकी दहेज़ की ज्यादा मांग नहीं और शालिनी को तो दूर से बाज़ार में देख कर ही पसंद कर लिया...वरना आप शालिनी को तो जानती हैं , ना??...वह कभी तैयार होती 'लड़की दिखाने को"?? दिमाग में क्या फितूर भरा हुआ है..बहुत पढना है....कम्पीटीशन देना है..ऑफिसर बनना है....पर हमें तो ,बिना चप्पल घिसे अच्छा लड़का मिल गया...हम तो गंगा नहा लिए."...माँ थीं.
वो घड़े से पानी ले रही थी, मन हुआ ग्लास दे मारे घड़े पर और सारा पानी फ़ैल जाए,किचेन के साथ साथ उनके मंसूबों पर भी.
पर कुछ नहीं कर सकी और अनजान बन वापस कमरे में लौट आई...बस किताब उठा जोर से दूर फेंक दी ..और बरसती आँखें ,तकिये में छुपा लीं.
पढने का भी मन नहीं होता...पर मन को बहलाने का कोई दूसरा साधन भी नहीं था...नोटबुक खोलती तो बार-बार मानस के उकेरे फूल पत्ती दिखने लगते...पर खुद को ही डांट देती...पता नहीं, किस शालिनी का नाम वह लिखता रहता है.. और वह दिवास्वप्न देख रही है.
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इम्तहान ख़त्म हो गए और उसकी शादी की तैयारियां शुरू हो गयीं. घर जिस तेजी से मेहमान से भरने लगा,उतनी तेजी से ही उसके दिल में खालीपन घर करने लगा....कोई उत्साह,उमंग मन में जागती ही नहीं. उसने इस जीवन की कल्पना तो कभी नहीं की थी?? उसके मन की इच्छा को भली-भांति जानते हुए भी अगर माता-पिता एक बोझ समझ दूसरे हाथ में सौंप गंगा नहा लेना चाहते हैं..तो ऐसा ही सही.
मन इतना अवसाद से घिर चुका था, मानस का भी ख़याल नहीं आता, आता तो यही कि उसे कम से कम जिसकी चाहना है वो,उसे मिल जाए.
आज उसकी शादी थी और उसे पीली साड़ी पहना,आँखों में काजल लगा, एक कमरे में बिठा दिया गया था. सारे भाई-बहन, मेहमान, चहकते हुए रंग-बिरंगे कपड़ों में सजे इधर से उधर दौड़ते रहते. पल भर को हमउम्र बहने पास आ बैठतीं फिर ही ही करती हुई बाहर चल देतीं. वो वीतराग सी चुपचाप एक चटाई पर बैठी रहती. तभी माँ का तेज़ स्वर कानों में पड़ा..."अरे मानस की माँ कहाँ,जा रही हैं?? खाना खा कर जाइये. " कुछ दिनों से घर में सब चिल्ला चिल्ला कर बातें करते. धीरे बोलना सब भूल ही गए थे जैसे. पिछले दो दिन से ज्यादा करीबी लोगों का खाना शालिनी के घर ही होता था. बस समय समय पर वे लोग कपड़े बदल कर आ जाते.
" बस थोड़ी देर में आती हूँ...मानस की ट्रेन का टाइम हो चला है...वो आने ही वाला होगा..."
"अच्छा मानस आ रहा है??...आप तो कह रही थीं...उसकी छुट्टी नहीं"
"हाँ पहले तो उसने यही कहा था...पर कल कहा कि दो दिनों के लिए आ रहा है..."
"बहुत अच्छा हुआ...कॉलोनी के लड़के ही काम नहीं संभालेंगे तो कौन संभालेगा..जल्दी आइये उसे साथ लेकर"
शालिनी को जैसे जोर का चक्कर आ गया...क्यूँ आ रहा है मानस?...क्यूँ उसके लिए सबकुछ इतना मुश्किल बना रहा है?....क्या पहले ही यह राह कम दुष्कर नहीं. पर रोक नहीं सकी खुद को...खिड़की पर जा खड़ी हुई. कोई घंटे भर, खड़े रहने के बाद, जब पैर दुखने लगे...तब जाकर, उसकी नज़रों के फ्रेम में एक आकृति नमूदार हुई और वह घबराकर चटाई पर आकर वापस बैठ गयी. सर घुटनों में छुपा लिया.
बरामदे में मानस के पदचाप के साथ....उसकी आवाज़...नमस्ते चाची..प्रणाम दादी..सुन रही थी. जरूर ,छोटू को ढूंढ रहा होगा. पर उसकी पदचाप तो कमरे तक आती जा रही थी और परदा उठा वह भीतर दाखिल हो गया..उसकी झुकी गर्दन और झुक गयी.
'शालिनी"...इतने दिनों में पहली बार मानस ने बिना किसी व्यंग्य के उसका नाम पुकारा. पर उसका झुका सर उठ नहीं सका.
"शालिनी..." इस बार मानस की आवाज़ थरथरा रही थी....और उसकी आँखों से दो बूँद...पानी टपक गए.
"शालिनी....क्या हमेशा नाराज़ ही रही होगी..." गीली हो आई थी मानस की आवाज़ और उसके आँखों से आंसुओं की धार बंध चली.
"ओक्के .. नो प्रॉब्लम....इट्स फाइन ...यू टेक केयर.." और बहुत ही भारी थके क़दमों से वह बाहर निकल गया.
उसने जल्दी से सर उठा..'मानस' पुकारना चाहा..पर तब तक वह परदे उठा बाहर कदम रख चुका था....उसकी थमती रुलाई दूने वेग से उमड़ पड़ी.
बाहर माँ की आवाज़ सुनाई दी.." आ गए बेटा..बहुत अच्छा किया...तुमलोगों को ही तो सब संभालना है. पर तुम मेरा एक काम करो....मेरा कैमरा तुम संभालो. फोटोग्राफर तो हैं ही..पर वो सबको पहचानता नहीं ना.....तुम मेरे कैमरे से, सारे करीबी लोगों की अच्छी अच्छी फोटो लेना...सारे रस्मों की... हाँ.."
और माँ कमरे में आ गयीं.."शालिनी जरा आलमारी से कैमरा निकाल दो तो..."
उसने बिजली की फुर्ती से कैमरा निकाल कर दे दिया...और साथ में चार रील भी. माँ ने सारी तैयारी कर रखी थी.
मानस के हाथों में कैमरा देखना था कि बच्चों की फरमाईश शुरू हो गयी, एक हमारी फोटो लो ना भैया.." उधर से लड़कियों का झुण्ड खिलखिलाता हुआ आया..."भैया एक फोटो हमारी भी"...तभी मामियों ,चाचियों का ग्रुप टोकरी में कुछ सामान लिए उसके कमरे तक आता दिखा,और साथ में मानस को हिदायत..."अंदर चलो....रस्म होने वाली है...उसकी फोटो ले लेना..."
कैमरा संभालता मानस अंदर दाखिल हो गया. इसके पहले भी इन चाची,मौसी,मामी,बुआ, दादी का ग्रुप उसे अक्सर घेरे रहता और अजीब अजीब से रस्म करवाता रहता, 'यहाँ चावल चढाओ' .'यहाँ टीका करो.' वह कठपुतली सी बिना किसी अहसास के रस्म निभाये जाती पर आज थोड़ी सी अनकम्फर्टेबल थी... पूरे समय लगता रहा,एक जोड़ी आँखें उसपर टिकी हुई हैं. रस्म ख़त्म होते होते....उसके पैर सुन्न पड़ गए थे. उसने आशा भरी आँखों से उनलोगों की तरफ देखा, पर वे लोग खुद में ही मगन थीं..."अरे ये तो लाल कपड़े में बाँधा जाता है"...."सुपारी नहीं रखी?"..."पान के पत्ते भी चाहिए थे"..."क्या जीजी अभी तो आपने बेटी की शादी की है...और सब भूल गयीं "
किसी का ध्यान उसकी तरफ नहीं था. और एक हाथ उसके आँखों के सामने आया, नज़रें उठाईं तो देखा, 'मानस ने सहारे के लिए हाथ बढाया है' वह उसकी आँखों का आग्रह समझ गया था. कैसे नहीं समझता ,'बचपन से बस आँखों की भाषा ही तो जानी है'
उसका हाथ थाम, उठते हुए लड़खड़ा सी गयी..और मानस ने एकदम से थाम लिया,..'अरे संभल के' ..कितना स्वाभाविक सा लग रह है सब कुछ ...जैसे कितने पुराने ,गहरे दोस्त हों. वो बीच में फैली विष-बेल कहाँ विलीन हो गयी थी.
महिलाओं का सारा ग्रुप कोई मंगल गीत गाते हुए ,आँगन की तरफ चला गया कोई और रस्म निभाने. और जैसे उसे होश आया, अपनी पसीजती हथेली उसने मानस के हाथों से छुड़ा ली.
कमरे में सिर्फ मानस और वह थे, और थी बड़ी ही असहज करती हुई सी चुप्पी.उसने ही चुप्पी तोड़ी.."खाना खाया?"
"हाँ"
"झूठ"..हंसी आ गयी उसे..."जब से आए हो कैमरा संभाले खड़े हो...खाना कब खा लिया?"....फिर से एकदम सहज हो उठा सब कुछ.
मानस भी मुस्कुरा पड़ा...फिर थोड़ा रुक कर पूछा, "तुमने खाया?"
"नहीं....मेरा उपवास है...मुझे कुछ भी नहीं खाना.."
"अरे क्यूँ?"
"लड़कियों को शायद पहले से ही ट्रेनिंग दी जाती है कि आदत बनी रहें...क्या पता वहाँ जाकर कुछ खाने को मिले या नहीं...या पता नहीं कब मिले.." हंस दी वह.
"बेकार की बातें हैं सब.....मैं ले आऊं?...कुछ खाओगी?..भूख लगी है?"
"नहींssss...." उसने जरा जोर से ही कह दिया..मानो ये थोड़ा सा एकांत मिला है...इसे गंवाना नहीं चाहती हो.
फिर से दोनों चुप हो गए. इस बार मानस ने ही थोड़ी देर अपनी हथेलियों को घूरते हुए कहा, "बड़ी जल्दी थी, तुम्हे शादी की"
उसने एक नज़र मानस को देखा, और नज़रें खिड़की से बाहर टिका दीं..."किसी ने कहा ही नहीं इंतज़ार करने को.."
"कैसे कहता...वह कुछ बन तो जाता पहले...तुम कहाँ इतनी तेज़....टॉपर....और मैं नकारा..किसी तरह पास होने वाला." कहने की रौ में मानस भूल गया था कि इशारे में बातें हो रही थीं.
"तुम स्कूल के..कॉलोनी के.... कॉलेज के हीरो थे" एक एक शब्द पर जोर देते हुए कहा,उसने.
"मुझे सिर्फ एक का हीरो बनना था"
"तुम उसके हीरो थे" जरा जोर देकर कहा उसने तो मानस एकदम से पूछ बैठा...
"सच??.." मानस के दिल की धड़कन बढ़ गयी थी.
शालिनी ने एक नज़र मानस को देखा और नज़रें खिड़की के बाहर आम के पेड़ की फुनगी पर टिका दीं...जहाँ कुछ गुलाबी कोमल पत्ते उग आए थे.ऐसा ही कुछ कोमल सा उनके बीच भी उग रहा था...पर इन नवजात कोंपलों की उम्र कितनी कम थी. वो पेड़ के कोंपल की तरह प्रौढ़ हरे पत्ते में बदल पायेंगे कभी?
"हाँ सच...पर तुम तो पता नहीं किस शालिनी के नाम की माला जप रहें थे...
अपनी नोटबुक में उसका नाम ही लिखते रहते थे..." उलाहना भरा स्वर था उसका.
"व्हाटssss ???? .." बुरी तरह चौंक गया वह.
उसकी असहजता पर मुस्कुरा पड़ी वह, "हाँ मानस एक बार निशा के साथ मैं तुम्हारे घर गयी थी...देखा..नोटबुक में फूल-पत्तियों के बीच किसी शालिनी का नाम लिख रखा है...मैं देखते ही भाग आई..."
"ये...ये... तो बहुत गलत है...यूँ चोरी..चोरी किसी की किताब कॉपियाँ..देखना...बैड मैनर्स... वेरी वेरी बैड, मैनर्स " मानस का चेहरा लाल पड़ते जा रहा था, बोला,"...और मैं दूसरी किस शालिनी को जानता हूँ...? "...फिर एकदम से उसकी नज़रों में सीधा देखते हुए कहा ..."अगर ऐसा होता तो आज मैं यहाँ आता??...मुझे तो जैसे ही माँ ने बताया....बस दिमाग में एक ही बात थी...'मुझे यहाँ पहुंचना है...हर हाल में..क्यूँ, कैसे मैं कुछ नहीं जानता...दो कपड़े बैग में डाले और सीधा स्टेशन आ गया....रात भर जाग कर टॉयलेट के पास एक रुमाल बिछा कर बैठ कर आया हूँ....और तुम कह रही हो..कोई और शालिनी होगी" दर्द से भीग आया स्वर उसका.
उसकी भी आँखें भर आयीं....अब क्या फायदा मानस...तुमने जरा सी हिम्मत नहीं की...और कोई संकेत भी नहीं दिया..उल्टा उसे हमेशा चिढाते,खिझाते ही रहें , और चिढाने की बात से सब पिछला याद आ गया, रोष उमड़ आया....आज उसे सारा हिसाब लेना ही होगा. एकदम से बोल पड़ी..."तुम मुझे इतना चिढाते, रुलाते क्यूँ थे?"
"तुम्हारी अटेंशन पाने को..इतना भी नहीं समझती थी तुम"
"हाँ, नहीं समझती थी...और जब समझने लगी....तुम दूर चले गए "..हताश होकर बोली वह.
"पता नहीं, मुझे क्यूँ तुम हमेशा डरी-सहमी सी लगती थी...लगता था तुम्हे किसी की सुरक्षा की जरूरत है...तुम्हे याद है..हमेशा मैं तुम्हारे पीछे आता था और किसी को आवाज़ देकर जता देता था की मैं पीछे ही हूँ....पर तुमने कभी एक बार मुड कर भी नहीं देखा"
"क्या देखती...मैं तो डर जाती थी...अब फिर कुछ चिढ़ाओगे..."
"बुध्दू हो तुम..बिलकुल...स्कूल में और किसी लड़के ने कभी कुछ कहा?...तंग किया?...परेशान किया??...क्यूंकि सब जानते थे...तुम्हे परेशान करने का अधिकार सिर्फ मेरा है..वरना वो तुम्हारी सहेलियाँ...रीता, शर्मीला..याद है..कितना परेशान करते थे लड़के, उन्हें??..." और जैसे उसे कुछ याद आ गया, हंस पड़ा...."वो उचक उचक कर बोर्ड पर 'सम' बनाती तुम...और वो बेंच पर खड़ी हो कर रोती हुई...एकदम रोनी बिल्ली लगती थी.."
"अच्छा और क्लास में मुर्गा बने तुम कैसे दिखते थे...शर्मा सर तो तुम्हारी पीठ पर किताबें भी रख देते थे और तुम उन्हें गिरा देते....सर तुम्हे आधे घंटे और खड़ा रखते...."उसके भी होठों पर मुस्कान तिर आई.
"उन्हीं सब से तो दूर जाना था., मैं तुम्हारे काबिल बनना चाहता था...जी-जान लगा दी थी मैने पढ़ाई में...अब क्या पढूंगा...सब छोड़ दूंगा..." झुंझला गया वह.
"बेवकूफी की बातें मत करो....मेरी पढ़ाई तो अकारथ गयी....तुम बहुत बड़े आदमी बनना ,मानस..मुझे अच्छा लगेगा."
"तुमने इतनी जल्दी शादी के लिए 'हाँ' क्यूँ कहा,शालिनी....??" मानस ने आजिजी से कहा.
"किसने पूछा मानस??...हम लड़कियों से कभी पूछते हैं??....बता देते हैं,बस..कई बार तो तुरंत बताते भी नहीं...दूसरों से पता चलता है कि उनकी शादी ठीक हो गयी है...." गला भर आया उसका.
मानस भी चुप हो आया, फिर शायद उसे थोड़ा सहज करने के लिए मुस्कुराता हुआ बोला, "चलो..भाग चलते हैं "
वह उसका प्रयास समझ गयी थी...उसमे शामिल होती हुई बोली, "ड्राइविंग आती है?.."
"ना"
"बाइक है?"
"उह्हूँ "..मानस ने भी साथ देते हुए सर हिला दिया.
"कोई दोस्त है...गाड़ी लेकर खड़ा...?"
"ना "
'फिर कैसे भागेंगे?..पैदल??...पकडे जाएंगे ...भागना कैंसल..पहले से सब प्लान करना था ना"
"हाँ, अब तो कैंसल ही करना पड़ेगा....कैसे कुछ प्लान करता....तुम तो ऊँची डाली पर लगी उस फूल के समान थी,जहाँ तक पहुँचने के लिए मैं इतनी मशक्कत कर सीढ़ी तैयार कर रहा था ...और तुम बीच में ही किसी और की झोली...में..." आगे के शब्द मानस ने अधूरे छोड़ दिए.
इतनी महेनत से हल्की-फुलकी बात करने की कोशिश की थी उसने पर फिर से उदासी ने अपने घेरे में ले लिया, दोनों को.
"वैसे , हू इज दिस लकी चैप ....मैने माँ से कुछ पूछा ही नहीं..."
"क्या पता "
"व्हाट डू यू मीन ...क्या पता....मिली नहीं हो?"
"ना...और कोई इंटरेस्ट भी नहीं....जो भी हो...पति परमेश्वर मानना होगा उसे"
"अरे चाचा जी ने बहुत अच्छा लड़का ढूँढा होगा...मस्ट बी अ गुड़ कैच..वरना तुम्हारी पढ़ाई ,तुम्हारा कैरियर यूँ बीच में नहीं छुडवा देते.. बहुत काबिल होगा..."..उदासी घिर आई थी उसके स्वर में , जिसने उसे भी कहीं गहरे छू लिया.
"मानस, मुझे बहुत डर लग रहा है.." अनायास ही थरथरा आई आवाज़ उसकी.
मानस का मन हुआ उसे आगे बढ़ ,गले से लगा कर उसके अंदर का सारा डर सोख ले. एक आवेग सा उमड़ा...पर उसकी पीली साड़ी और मेहंदी रचे हाथ दिख गए...जो किसी और के नाम के थे. वैसे ही जड़ बना बैठा रहा.
और तभी निशा और शोभा ने ये कहते ,कमरे में कदम रखा...."शालिनी चलो..मंडप में तुम्हे बुला रहें हैं तुम्हे... " मानस को देखकर एकदम से चौंक गयी.
"अरे तुम कब आए....हम्म बेस्ट फ्रेंड की शादी में तो सब आते हैं...पर पक्के दुश्मन की शादी में आते पहली बार देखा किसी को..." शोभा की आवाज़ में चुहल थी.
मानस और शालिनी की नज़रें मिलीं....और सारा अनकहा सिमट आया, क्या थे वे...दोस्त..दुश्मन..या क्या.
निशा की नज़र मानस के हाथ में थमे कैमरे पर पड़ी और वह मचल उठी..'मानस शालिनी के साथ हमारी फोटो लो ना".
दोनों उससे लग कर खड़ी हो गयीं और जब निशा ने उसे कंधे से घेर गीली आवाज़ में कहा, "कितना मिस करेंगे तुम्हे...कैसे रहेंगे हमलोग तुम्हारे बिना..." शालिनी का इतनी देर से रुका आंसुओं का सैलाब बह चला....दोनों सहेलियाँ भी आँखें पोंछने लगीं और उसे पता था कैमरे के पीछे भी किसी की आँखें गीली हैं.
वह मानस से पहली और आखिरी आत्मीय बातचीत थी. बड़ी दीदियाँ,उसे तैयार करने.., संवारने ले गयीं...मानस भी नहीं दिखा फिर. जब स्टेज पर जयमाल के लिए, सब लेकर जा रहें थे ...देखा,मानस कैमरा लिए बिलकुल सामने खड़ा है...नज़रें मिलीं और वहीँ जम कर रह गयीं. एक टीस सी उठी दिल में, अब वह किसी और के पहलू में बैठने जा रही है. उसके कदम लड़खड़ा से गए, 'अरे संभालो..." सबको लगा, भारी लहंगा पैरों में फंस गया है. स्टेज पर उसका दूल्हा बैठा था...नज़र उठा कर भी नहीं देखा उसे...अब तो सारी ज़िन्दगी यही चेहरा देखना..है और स्टेज के नीचे खड़ा चेहरा शायद फिर कभी ना मिले देखने को.
स्टेज पर तो सब यंत्रवत करती रही...लोगों की तालियाँ, हंसी ठहाकों , कैमरे के लिए बार बार वो माला पकड़ना , सबके आग्रह पर मुस्काराना ...सब मशीनवत चलता रहा पर जब कन्यादान के समय उसे माता-पिता के बगल से उठा उस अजनबी के पास बिठाया जाने लगा तो जैसे अंदर कुछ जोर का दरक गया. सामने निगाहें उठाईं तो पाया, मानस की नज़रें उस पर ही जमी हैं...उसने मानस की ओर देखा और उसकी नज़रों में इतनी शिकायत,इतना उलाहना भरा था कि मानस उसके नज़रों कि ताब सह नहीं सका. उसने गर्दन झुका कैमरा किसी और को पकडाया और वहाँ से चला गया. और वह एक अनजान व्यक्ति के पास बिठा दी गयी, अब उसका हाथ किसी और के हाथों में सौंप दिया गया था.
उसे पता था, अब मानस नहीं आएगा...और वह उसकी विदाई तक नहीं आया.
शालिनी के पापा, सिर्फ शालिनी की पढ़ाई की वजह से अपना ट्रांसफर कई बार रुकवा चुके थे, अब शालिनी की शादी के बाद,उन्होंने भी ट्रांसफर दूसरी जगह ले लिया और मानस फिर कभी नहीं मिला.
'प्लीज़ टाई योर सीट बेल्ट' की उद्घोषणा से उसकी तन्द्रा भंग हुई. बच्चों की सीट बेल्ट बाँधी...उन्हें जगाया...प्लेन लैंड होने वाली थी.
फिर से एयरपोर्ट पर निगाहें इधर-उधर भटकने लगी थी.
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शालिनी को कहाँ पता था, उसी समय देश के किसी दूसरे एअरपोर्ट पर यूँ ही एक जोड़ी निगाहें उसके लिए भटक रही थीं. जब से मानस की माँ को वाया वाया किसी से पता चला था कि शालिनी अब छुट्टियों में बच्चों को लेकर प्लेन से ही मायके आती है. उन्होंने यूँ ही मानस से एक बार पूछ लिया, "तुम्हे कभी मिली शालिनी?..." और आगे खुद ही जोड़ दिया..."मिल भी गयी तो पहचानेगा कहाँ ....अब तक कितनी बदल गयी होगी."
मानस ने मन ही मन कहा, "माँ, वो अस्सी साल की भी हो जाए तब भी पहचान लूँगा... उसकी आँखें और मुस्कुराहट तो नहीं बदलेंगी....और तब से स्कूल की छुट्टियां शुरू होते ही, मानस की नज़रें, एयरपोर्ट पर किसी को ढूंढती रहती हैं. उसकी एयर होस्टेस पत्नी को भी पता है, कि बचपन की अपनी फ्रेंड को वह ढूंढता रहता है.
कभी कभी मजाक भी करती है, "क्या बात है...कुछ प्यार व्यार का चक्कर तो नहीं था.."
"व्हाट रब्बिश....हमलोग स्कूल में साथ थे....वी वर जस्ट किड्स "
उनलोगों के बीच जो भी था, उसे वह कोई नाम दे सकता है,क्या?
"फिर क्यूँ, इस तरह उसे ढूंढते रहते हो? "....रोज़ा उसे थोड़ा और चिढाती है.
यही तो सैकड़ों बार खुद से भी पूछता रहता है,... क्यूँ...किसलिए.....पर जबाब कोई नहीं मिलता .
51 comments:
" क्यूँ...किसलिए.....पर जबाब कोई नहीं मिलता "
सबको अपना हमसफर नहीं मिलता
किसिकों कुछ और किसिकों कुछ नहीं मिलता
अत्यंत सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति , क्या ये एक कहानी है !!
हा हा ..महेश जी...आप शायद पहली बार आए हैं मेरे ब्लॉग पर अन्यथा नहीं पूछते....:)
मेरी पिछली कहानियाँ भी पढ़िए....फिर कुछ और सवाल कीजिये...:)
वैसे आपका बहुत बहुत शुक्रिया...मेरे ब्लॉग पर आए और सबसे पहले ये कहानी पढ़ी..आपको अच्छी लगी कहानी...अपने प्रयास को सफल मानूंगी.
खोज रह गई....... ना इस समेटने में मानस को गुम नहीं करना था
मोतियों क़ी माला मै एक और अनमोल मोती जुड़ गया. अब तो लगता है कुछ दिनों मै शब्दों क़ी कमी पडने लगेगी. लेकिन कोई नहीं, आपका साहित्य पद पद के आज का यूथ(मै) एक सही दिशा में तो जा रहा है. बेहद प्रभावशाली कहानी. मै भी जब इंडिया लौटूंगा , तब देखूगा, शायद शालिनी या मानस दिख जाए कही...... :)
बहुत सुंदर लगी आप की यह कहानी, धन्यवाद
कुछ चीजें और लोग ऐसे मानस में बस जाते हैं कि कभी भूला नहीं जा सकता है.वह अनाम रिश्ता या याद हर वक्त साथ रहती है और फिर हम खोजा करते हैं. काश! वो एक बार मिल जाये.
baap re baap.... bahut badee hai.. raat me padhta hoon..
कहानी बहुत अच्छी है ...सारे चरित्रों के मनोविज्ञान को बखूबी सटीक दिखाया है ...मानस का चरित्र ...अपनी चाहत को पाने के लिए कुछ बनने का मनोविज्ञान ...शालिनी की सोच ....
पर उनका न मिलना कसक छोड़ गया ...लेकिन शायद ज़िंदगी का यही यथार्थ है ...
अच्छी कहानी
मानस जैसे बालक हर कक्षा में बहुतायत से मिलते हैं। उत्सुक आँखें।
मानस" सागर के तट पर क्यों लोल लहर की घाते
कल कल ध्वनि से है कहती , कुछ बिस्मृत बीती बाते.
सुन्दर कहानी ,जीवन के विविध रंगों को कलमबद्ध करने में आप सिद्धहस्त हो . वैसे , शालिनी मिले तो उसे बता दीजियेगा की मानस kingfisher में काम करता है , मुझे सन्डे को मिला था कोलम्बो एअरपोर्ट पर रोजा के साथ. हा हा .
कहो कुछ तो कहो
हो कि नहीं हथेली की रेखाओं में ...
अभी इतना ही कहूँगी ...मेरी डायरी में लिखी एक नज़्म है ... पोस्ट करुँगी तब पढ़ लेना
कुछ रिश्ते , कुछ एहसासों की खूबसूरती उनके खो जाने में ही होती है ...पास आकर रिश्तों की शक्ल बदल जाती है ...!
पढ़ कर देखना फुर्सत में इसे ...इस कहानी जैसे ही एहसास हैं इसमें
http://vanigyan.blogspot.com/2009/10/blog-post_12.html
बहुत सुन्दर कहानी ...हमेशा की तरह मन से जुड़ गयी ..!
नायक साम्यता की कोशिश में अपने प्रेम को अभिव्यक्त नहीं कर सका और नायिका अपनी नासमझी में ! नायक और नायिका स्पोर्ट्स मैन स्प्रिट और पढाई की प्रतिभा की तरह विकसित होते हैं जिसमें गलत कुछ भी नहीं है ! कथा की नायिका टिपिकल भारतीयता के नियतिवाद की शिकार हो गयी पर उसकी सहज बुद्धि किताबों के बाहर निकलने के लिए बनी ही नहीं थी तभी तो एक और नियति(नोट बुक)नें ही उसपर प्रेम का द्वार खोला पर वो सशंकित बनी रही ! केवल किताबों और नियति पर आँख मूंदती नायिका को निश्चय ही प्रेम अतृप्ति बनी ही रहना थी !
कथा का नायक बचपन से ही नायिका को संरक्षण देता है , फिर उसके जैसा हो जाने का यत्न भी करता है ,यकीनन इसे प्रेम समर्पण कहा जा सकेगा , किन्तु वो अगर नहीं करता तो बस एक ही काम कि अपनी आसक्ति को नोट बुक से बाहर नहीं लाता !
मेरी नज़र में ऐसे चुप्पे और घुन्ने प्रेमियों का प्रेम से वंचित रह जाना गलत नहीं है !
बल्कि मै तो कहता हूं कि उन दोनों नें कभी भी सही समय पर सही काम किया ही नहीं अब देखिये ना जब प्रेम का समय था तो अभिव्यक्त हुए नहीं और अब जबकि दोनों विवाहित है तब भी अपने सहचर के प्रति ईमानदार नहीं है,जो पास है उसे जीते नहीं और जो अपनी ही गलती से छूट गया उसके आकर्षण में उलझे हुए हैं !
[ रश्मि जी , कथा को अपने ढंग से पढ़ने और समझने की कोशिश की है ! संभव है कि आप , नायक नायिका से इतनी बुरी तरह से पेश नहीं आना चाहती हों जैसा कि मै ! बस इतना ही कहूँगा आपने कैरेक्टर्स के साथ पूरा न्याय किया है ]
रश्मि,
आज की कहानी तो कहानी लगी ही नही यूँ लगा सब आँखों के सामने घटित हो रहा हो……………प्रेम सिर्फ़ पाना नही है और दिल जिसे उम्र भर चाह सके बिना किसी चाह के,बिना किसी वादे के बस वो ही तो प्रेम है ……………तभी तो कहते हैं------कोइ शर्त होती नही प्यार मे---------प्रेम बस प्रेम है और दोनो ने सिर्फ़ उसे ही जीया ज़िन्दगी भर्……………यही तो अमर प्रेम होता है।
sundar abhivyakti
rashmi mam,
bahut acchi kahani thi...padhte-padhte aankh bhar aayi na jane kyun? aisa laga sab kuch samne ho raha hai...nischal prem ko to bas mahsus kiya jata hai...aur ye wo prem tha jo bina bole shalini aur manas ne kar liya tha ek-dusre se...bahut umda aur sarthak rachna...shubhkaamnaayein...
शुक्रिया, अली जी,
आपने बहुत ध्यान से कहानी पढ़ी और इतना अच्छा विश्लेषण किया, अब तो अफ़सोस हो रहा है...आप पहले मेरे ब्लॉग पर क्यूँ नहीं आए...और पिछली कहानियाँ क्यूँ नहीं पढ़ीं :)
"संभव है कि आप , नायक नायिका से इतनी बुरी तरह से पेश नहीं आना चाहती हों जैसा कि मै ! "
अली जी, मैने कभी कोई पात्र सायास गढ़ने की कोशिश नहीं की है ( आगे का पता नहीं )...वे बस वक़्त के बहाव में बहते चले जाते हैं .पिछली कहानी में 'नमिता ' का पात्र सबको इतना प्रिय था कि उसका घर छोड़ कर चले जाना ,किसी को नहीं भाया और इसका अंदेशा मुझे था...फिर भी मैने कोई कोशिश नहीं की, उसका चरित्र उद्दात्त बनाने की.
और आप इन पात्रों के साथ कोई बुरी तरह पेश नहीं आए....दोनों की कमियों को रेखांकित किया...और वह बिलकुल सही है. पर वही कि यहाँ कौन परफेक्ट है? नहीं तो ये दुनिया परफेक्ट नहीं हो जाती :)
बहुत अच्छी कहानी है,
आप भी इस बहस का हिस्सा बनें और
कृपया अपने बहुमूल्य सुझावों और टिप्पणियों से हमारा मार्गदर्शन करें:-
अकेला या अकेली
अरे ऐसा क्यों करती हो आप ?कितनी क्यूट कहानी चल रही थी :(..और फिर अलग कर दिया उन्हें ... वैसे एक बात बताओ ये इतने प्यारे प्यारे फंडे आते कहाँ से हैं आपके पास ..मेरा मतलब इतने अच्छे अच्छे वाक्य ....सब लगता है जैसे आस पास ही घटित हुआ है .
वैसे कभी किसी को मुक्कमल जहाँ नहीं मिलता ,कितना कुछ अनकहा रह जाता है .बहुत खूबसूरती से मनोभाव उकेरे हैं आपने .बढ़िया कहानी .
sach me itni badi kahani ke liye to pura samay dena hoga..........:)
lekin aaunga fir........sure!!
मैं तो जन्माष्टमी की रामराम करने आया था पर आपके लेखन ने पूरी कहानी पढे बगैर वापस नही लौटने दिया.:)
आपकी कहानियां एक सहज धारा में चलती है या कहना चाहिये कि बहती हैं. ऐसा लगता है सब कुछ अपने आप घटित हो रहा हो. और यही वो खासियत है जो शुरु की चार पांच लाईन पढने के बाद कब कहानी का अंत आगया..यह पता ही नही चलता. बहुत सुंदर.
जन्माष्टमी की घणी रामराम.
रामराम.
ऐसा बहुत होता था पहले रश्मि जी कि जब तक प्रेमी प्रेमिका एक दूसरे के मन के भाव ठीक से समझ सके तब तक उनमे से किसी एक का भाग्य तय हो चुका होता था. इसीलिये कहता हूँ कि प्रेम करो तो उसका इज़हार भी करो. नही तो किस्मत में अपनी हे प्रेयसी के बच्चो का मामा बनना लिखा होता है.
बिना किसी चाह के,बिना किसी वादे के बस वो ही तो प्रेम है
कृष्ण जन्माष्टमी के मंगलमय पावन पर्व अवसर पर ढेरों बधाई और शुभकामनाये ...
achhi kahaani
मानस और शालिनी दोनों अपने में ही सिमटे रहे.. एक दूसरे से कभी इज़हार करने की हिम्मत ही नहीं की.. वक़्त, समाज और कई रस्म-ओ-रिवाजों को तो निर्मम, ज़ालिम या कसाई कहा ही जाता है लेकिन वहाँ क्या किया जाए जहाँ खुला दरवाज़ा देख कर भी मेमने भागना ना चाहें..
रश्मि जी.....
बहुत दिन इंतज़ार करवाया आपने ....लेकिन सब्र का फल हमेशा मीठा होता है... इस बार भी रहा....बहुत सटीक अभिव्यक्ति .. और व्यवहारिकता इसी में थी कि वे दोनों मिलते नहीं.... कहानी का अंत भले ही सुखद हो जाता किन्तु उसके बाद बहुत से अनुत्तरित प्रश्न आ खड़े होते... जिससे बेहतर यही रहा कि एक ही अनुत्तरित प्रश्न रहे दोनों के ज़ेहन में .. जो किसी सांसारिक रिश्ते को प्रभावित नहीं कर रहा है....
बेहद प्यारी कहानी है। मुझे लग रहा था कि कहानी के अंत में दोनों मिल जाएंगे, मगर हुआ इसके विपरीत। इस अफसाने को खूबसूरत मोढ़ दिया है आपने...जो जीवनभर कसक देता रहेगा। प्रेम चीज ही ऐसी है।
मानस और शालिनी के बच्चो वाली स्कूली नोंक झोंक को बहुत सूक्ष्मता से लिखा है एक लडके और लडकी के स्वाभाविक स्वभाव का सुन्दर चित्रण करती सुन्दर कहानी |
kintu pyar ki kask और ahsas को varsho tak jinda rakha ja skta है कहानी का mool है ye |
एक achhi khani के liye बहुत बहुत badhai |
बहुत सुन्दर कहानी है. कुछ दृश्य तो इतने स्वाभाविक हैं, की भूल गयी, कहानी पढ़ रही हूँ-
"और फ़िर जैसे खुद को ही पहली बार जाना. सपने??...तो क्या, उसे मानस से कोई नराज़गी नहीं.पहले तो उसे बड़ा गुस्सा आता था, उस पर...हाँ आता तो था,पर....."
बहुत बड़ा सच.....
"पर उसे कहाँ पता था, वह तो परीक्षा की तैयारियों में उलझी है...घर वाले किसी और तैयारी में."
हमारे देश के मध्यमवर्गीय परिवारों में बेटियों कि यही विडम्बना है, आज भी.
"ना...वह कभी तैयार होती 'लड़की दिखाने को" दिमाग में क्या फितूर भरा हुआ है..बहुत पढना है....कम्पीटीशन देना है..ऑफिसर बनना है....पर हमें तो ,बिना चप्पल घिसे अच्छा
लड़का मिल गया...हम तो गंगा नहा लिए."
ऑफिसर बनने का हक़ तो केवल लड़कों का है न, और ऐसे सपने देखने का भी...लड़कियां यदि ऐसे सपने देखती हैं, तो फितूर ही कहलाते हैं.
"वो घड़े से पानी ले रही थी, मन हुआ ग्लास दे मारे घड़े पर और सारा पानी फ़ैल जाए,किचेन के साथ साथ उनके मंसूबों पर भी."
बहुत सुन्दर वाक्य विन्यास.
"पर कुछ नहीं कर सकी और अनजान बन वापस कमरे में लौट आई"
यही तो त्रासदी है, लड़कियों की.
"आशा भरी आँखों से उनलोगों की तरफ देखा, पर वे लोग खुद में ही मगन थीं..."अरे ये तो लाल कपड़े में बाँधा जाता है"...."सुपारी नहीं रखी?"..."पान के पत्ते भी चाहिए थे"..."क्या जीजी अभी तो आपने बेटी की शादी की है...और सब भूल गयीं " ...किसी का ध्यान उसकी तरफ नहीं था."
शादी वाले घर कि चहल-पहल का सुन्दर और सजीव चित्रण. दूल्हा-दुल्हन की तरफ ध्यान देता कौन है?
"वह उसकी आँखों का आग्रह समझ गया था. कैसे नहीं समझता ,'बचपन से बस आँखों की भाषा ही तो जानी है'"
क्या बात है. बलिहारी जाऊं.
"सब मशीनवत चलता रहा पर जब कन्यादान के समय उसे माता-पिता के बगल से उठा उस अजनबी के पास बिठाया जाने लगा तो जैसे अंदर कुछ जोर का दरक गया."
जिसका कन्यादान हो चुका हो, वही इतना सजीव और दिल "दरकाने" वाला वर्णन कर सकता है.
अब शालिनी और मानस कि बातचीत-
ऐसे प्रेमी-युगल, जिनके बीच प्रेम भाव जताया ही न गया हो, के मध्य होने वाली सजीव और स्वाभाविक चर्चा. बिना किसी शिकवा-शिकायत के, बिना किसी दोषारोपण के.... आखिर कौन किस पर आरोप लगाता? बहुत बहुत सुन्दर.
कहानी का अंत भी बहुत शानदार है. शानदार कहानी पढवाने के लिए धन्यवाद
सुबह ऑफिस में जल्दी जल्दी में पढ़ा था, अब थोड़ा आराम से पढ़ा।
कहानी का विश्लेषण अली जी ने काफी बढ़िया कर ही दिया है।
कई जगह काफी सुंदर नेरेशन है जैसे कि टॉयलेट के पास रूमाल बिछा कर उस पर बैठ कर आने का वर्णन ....जुससे कि कुछ कुछ मानस के भीतर उमड़ते घुमड़ते भावों को उसकी व्यग्रता को समझने के लिए कहानी में बहुत स्पेस बन जाता है।
शानदार कहानी है।
ओह्ह हम तो पूरी कहानी पढ़ने के बाद पूरे भीग चुके हैं, और पता नहीं क्या क्या याद आ गया... ऐसा लगा कि .... शब्द ही नहीं मिल रहे हैं व्यक्त करने के लिये... क्षमा चाहता हूँ...
बहुत ही बढ़िया कहानी
बहुत ही खूबसूरत कहानी है रश्मि जी ! मध्यमवर्गीय भारतीय समाज के संकोची, शर्मीले, भीरू और भाग्यवादी युवाओं की मानसिकता का बहुत ही गहन और सूक्ष्म चरित्र चित्रण किया है ! कहानी का अंत बहुत स्वाभाविक और यथार्थवादी लगा ! जाने कितने लोगों ने इस कहानी में अपने जीवन के प्रतिबिम्ब ढूँढ लिए होंगे और अपनी उस एक पल की कायरता को कोसा होगा जब उन्होंने संकोच छोड़ ज़रा सी हिम्मत और साहस से काम लिया होता तो जीवन के मायने ही बदल गए होते ! इतनी बढ़िया कहानी लिखने के लिए और हम जैसे पाठकों तक पहुंचाने के लिए बहुत-बहुत बधाई एवं धन्यवाद !
बहुत सुन्दर दिल को छूती कहानी , थोडा देर से पढ़ पाए इसलिए कमेन्ट भी देर से कर रहे हैं..
luv this story bt vahi baat hai na ki yahi chaht hoti hai ki hero-heroin mile tabhi har kaahni safal lagti hai, khair lekin iske baavjudd bhi kahani bahut pasand aai, apan to let-latif hain hi naa padhne aur tipiyaane ke mamle me, so der se hi sahi ji.
एक बार फिर आपकी इस सफल कहानी को पढ़ कर मन बहुत खुश हुआ...सब कुछ एक चलचित्र की तरह चलता जाता है आपकी कहानी में...कहीं कोई नीरवता नहीं कही किसी चरित्र के साथ कोई ढीलापन नहीं. यही आपकी लेखनी की सफलता और सार्थकता है.
आप सफलता की ऊँचाइयों को छूए यही शुभकामना है.
बधाई.
bahut sundar post badhai
बहुत से रिश्ते अनखे रह जाते हैं बहुत ही अच्छी लगी ये कहानी --- पहली सभी कहानियों से भी अच्छी। बधाई हो।
Very cute story,although a tragedy but very nice read.
कहानी बहुत अच्छी है!
हिन्दी का प्रचार राष्ट्रीयता का प्रचार है।
हिंदी और अर्थव्यवस्था, राजभाषा हिन्दी पर, पधारें
बहुत ही सुंदर कहानी । प्रेम वह चीज है जो नही मिलता तबी तक उसकी महत्ता रहती है । मिल जाये तो मिट्टी है खो जाये तो सोना है .
हम भारतीय अपने बच्चों के प्यार, आशा, अभिलाषा को कितनी बखूबी दफ़न कर देते हैं!
घुघूती बासूती
रश्मि जी आपकी यह कहानी पढ़ ली। एक पोस्ट में निपटाने के चक्कर में लगता है आपने कहानी का कत्ल कर दिया। यह वह अंत तो नहीं है जो कहानी कहती है। कम से कम उनकी एक मुलाकात तो बनती ही थी। यहां तो आप पूरे अतीत में ही कहानी को चलाती हैं। किसी ने कहा है कि आपने कैरेक्टरों को मार डाला। मुझे भी लगता है। माफ करें,मैं भी कहानियां लिखता रहा हूं। इस अनुभव से कह रहा हूं कि कई बार जो पात्र हम गढ़ते हैं वे आपसे उनको लिखवाते हैं और कई बार हम उन्हें अपनी तरह से लिखते हैं। दोनों के बीच एक संतुलन रखना पड़ता है। यहां अंत में आपका कहानीकार शालिनी और मानस पर हावी हो गया। तो मैं तो यही कहूंगा कि दोनों प्रेमियों को आपने नहीं मिलवाकर प्रेम करने वालों पर बहुत अन्याय किया है।
बहरहाल कहानी की रवानी बहुत अच्छी है,जब तक चलती है सहजता से।
विश्वास कीजिये कई जगह आंसू पोछने पड़े..
दिल में एक अजीब सा डर फिर से जाग गया, ऐसी कहानियों असल जिंदगी में बहुत पाएंगी आप, अभी भी ज़रा नज़रें घुमा के देख लीजिए, शायद मिल जाए..
बिलकुल निशब्द हूँ अभी...कुछ कहने के हालत में नहीं, ऐसे ही कुछ देर किसी सोच में बैठे रहना चाहता हूँ, शुक्र है आज ऑफिस नहीं गया, घर पे ही हूँ वरना मुसीबत होती
फ़िलहाल खुद पे गुस्सा आ रहा है की इतनी देर क्यों की कहानी पढ़ने में.
कित्ती लम्बी कहानी...पर कित्ती अच्छी भी तो है.
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'पाखी की दुनिया' - बच्चों के ब्लॉगस की चर्चा 'हिंदुस्तान' अख़बार में भी.
एक मुलाकात जरुरी थी या नहीं कुछ कह नहीं सकता। पर जो है उसमें जी नहीं पाता इंसान औऱ जो छुट जाता है वो गीला मन वहीं रह जाता है। कैसे कहें क्या कहें। अस्सी साल की उम्र में भी पहचान जाता। आंखो की चमक और मुस्कान थोड़ी न बदल जानी है। यही तो अनकहा प्रेम है। कहानी और हकीकत एक जैसी होती है। पर लगा अगर मिलन हो जाता तो अपने को चैन मिल जाता। जाने क्यूं?
हमारे आस-पड़ोस में, हॉस्टल लाइफ में, यहाँ तक कि दिल्ली आकर आई.ए.एस. की तैयारी करने वालों के बीच में, ऐसी कई कहानियों को विषबेल से प्रेमांकुर में बदलते और फिर सूखकर मुरझाते देखा है. नब्बे प्रतिशत कहानियों का अंत दुखद होता है... जैसा हम सोचते हैं वैसा कहाँ होता है?..बचपन और किशोरावस्था की कहानियों का तो यही अंत स्वाभाविक है... हम कल्पनाओं में चाहे जितने प्रेमियों को मिलाते रहें क्योंकि उस उम्र में हममें साहस नहीं होता, अगर होता भी है तो कोई आधार नहीं होता. अगर बच्चों को थोड़ी स्वतंत्रता दी जाए, तो वे इस तरह अपने बचपन के प्रेमी को छोड़कर किसी अजनबी के साथ जीवन बिताने को अभिशप्त ना हों.
आपकी ये खासियत है कि आप बिना कोई प्रयास किये और बिना कोकिसी सैद्धांतिक बहस के, सहज रूप में नारी-विमर्श को अपनी कहानियों में ला देती हैं और मुझे आपकी यही विशेषता सबसे अधिक अच्छी लगती है, उदाहरण ये पंक्तियाँ---
- -"...पर हमें तो ,बिना चप्पल घिसे अच्छा लड़का मिल गया...हम तो गंगा नहा लिए."...माँ थीं.
---"किसने पूछा मानस??...हम लड़कियों से कभी पूछते हैं??....बता देते हैं,बस..कई बार तो तुरंत बताते भी नहीं...दूसरों से पता चलता है कि उनकी शादी ठीक हो गयी है...."
अली जी और उत्साही जी की बातें अपनी जगह पर सही हो सकती हैं क्योंकि एक ही चीज़ को देखने का सबका नजरिया होता है और स्त्री-पुरुष का नजरिया तो काफी अलग होता है.
मुझे कहानी बहुत स्वाभाविक लगी और अंत भी स्वाभाविक, आस-पड़ोस में घटी किसी आम सी घटना की तरह. इसकी ख़ूबसूरती भी इसके स्वाभाविक होने में है.
interesting...from begining till end
कहानी पढ़ना बहुत मजेदार अनुभव रहा।
उत्साही जी की अपनी सोच हो सकती है। लेकिन ज्यादातर प्रेम-कहानियां में किस्से संयोग-वियोग के ही तो होते हैं।
कहने को तो कोई यह भी कह सकता है कि ऐसे भी क्या बेवकूफ़ प्रेमी हैं कि उनको एक-दूसरे के प्रेम के बारे में इत्ती देर से पता चला। लेकिन इस कहानी के समर्थन में यह शेर भी है:
ये तो नफ़रत है जिसे लम्हों में दुनिया जान लेती है,
मोहब्बत का पता चलते जमाने बीत जाते हैं।
संयोग से इस कहानी की शुरुआत में उसकी तो सारी इन्द्रियाँ सिमट कर बस कान बन गए हैं पढ़कर पांच साल पहले लिखी इस कहानी का वाक्य उसका पूरा शरीर कान हो गया याद आ गया। कैसे अलग-अलग समय में एक सरीखे भाव आते हैं कहानीकारों के मन में।
अच्छा लगा कहानी और पाठकों की प्रतिक्रियायें पढ़ना।
बहुत अच्छा लगा परन्तु आज रात भर सोचते ही रहेंगे.
आपने रुला दिया..गले में कुछ भारी सा अटक गया..आसूँ बस अटके हैं.... जाने क्यों शालिनी की बजाए मुझे मानस से मोह हो गया...
इसलिए तो मानती हूँ कि ...प्यार या प्रेम पीड़ा का दूसरा नाम है...वन्दना ने तो जैसे मेरे दिल की ही बात कर दी हो ...दूसरी तरफ अली साहब की टिप्पणी ने तो बहुत कुछ सोचने पर विवश कर दिया..बहुत बारीकी से उन्हों ने दो मुख्य पात्रों का चरित्र चित्रण किया है...
कल 24/04/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल (विभा रानी श्रीवास्तव जी की प्रस्तुति में) पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
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