Monday, December 14, 2009

उम्र की सांझ का, बीहड़ अकेलापन


पिछले पोस्ट्स में बच्चों की ही बाते होती रहीं...महानगरों में वृद्धों की कारुणिक अवस्था भी ,कम हलचल नहीं मचाती मन में. अपने पीछे इन्होने एक भरपूर जीवन जिया होता है.पर महानगर में ये किसी अबोध बालक से अनजान दीखते हैं.यहाँ का रहन सहन,भाषाएँ सब अलग होती हैं.इनका कोई मित्र नहीं होता.बच्चों की भी मजबूरी होती है.बूढे माता-पिता को अकेले गाँव में कैसे छोड़ें?..और यहाँ वे अपेक्षित समय चाह कर भी नहीं दे पाते.
दिल्ली में मेरे घर के सामने ही एक पार्क था.देखती गर्मियों में शाम से देर रात तक और सर्दियों में करीब करीब सारा दिन ही,वृद्ध उन बेंचों पर बैठे शून्य निहारा करते.मुंबई में तो उनकी स्थिति और भी सोचनीय है.ये पार्क में होती तमाम हलचल के बीच,गुमनाम से बैठे होते हैं.कितनी बार बेंचों पर पास आकर दो लोग बैठ भी जाते हैं,पर उनकी उपस्थिति से अनजान अपनी बातों में ही मशगूल होते हैं.
रोज शाम को योगा क्लास से लौटते हुए देखती हूँ , पांचवी मंजिल पर एक जोड़ी उदास आँखें खिड़की पर टंगी होती हैं...और मैं नज़रें नीचे कर लेती हूँ.वृधावस्था अमीरी और गरीबी नहीं देखती.सबको एक सा ही सताती है.एक बार मरीन ड्राईव पर देखा.एक शानदार कार आई.ड्राईवर ने डिक्की में से व्हील चेयर निकाली और एक वृद्ध को सहारा देकर कार से उतारा.समुद्र तट के किनारे वे वृद्ध घंटों तक सूर्यास्त निहारते रहें.

यही सब देखकर एक कविता उपजी थी,यह भी डायरी के पीले पन्नों में ही
क़ैद पड़ी थी अबतक.आज यहाँ शेयर कर रही हूँ.



जाने क्यूँ ,सबके बीच भी अकेला सा लगता है.
रही हैं घूर,सभी नज़रें मुझे
ऐसा अंदेशा बना रहता है.
यदि वे सचमुच घूरतीं.
तो संतोष होता
अपने अस्तित्व का बोध होता.
ठोकर खा, एक क्षण देखते तो सही
यदि मैं एक टुकड़ा ,पत्थर भी होता.

लोगों की हलचल के बीच भी,
रहता हूँ,वीराने में
दहशत सी होती है,
अकेले में भी,मुस्कुराने में
देख भी ले कोई शख्स ,तो चौंकेगा पल भर
फिर मशगूल हो जायेगा,निरपेक्ष होकर
यह निर्लिप्तता सही नहीं जायेगी.
भीतर ही भीतर टीसेगी,तिलामिलाएगी

काश ,होता मैं सिर्फ एक तिनका
चुभकर ,कभी खींचता तो ध्यान,इनका
या रह जाता, रास्ते का धूल ,बनकर
करा तो पाता,अपना भान,कभी आँखों में पड़कर

ये सब कुछ नहीं,एक इंसान हूँ,मैं
सबका होना है हश्र,यही,
सोच ,बस परेशान हूँ,मैं.

36 comments:

shikha varshney said...

खुबसूरत भावों से सजी मार्मिक रचना .

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

वृद्धों की यह पीड़ा मैं समझ सकता हूँ..... आपने इनकी पीड़ा को बहुत मार्मिकता से दिखाया है...... और आपकी यह कविता दिल को छू गई..... यह देख कर बहुत अच्छा लगा कि आपने कविता लिखी...... पहली बार कविता लिखने के लिए बहुत बहुत बधाई.....

rashmi ravija said...

@महफूज़
तीसरी कविता है ,जनाब....आपने मेरी पिछली पोस्ट्स पढ़ी ही नहीं...."सच से आँखें कैसे चुराएं?"..और "ऊसर भारतीय आत्माएं "

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

अरे! सॉरी .....सॉरी......... मैं अभी देखता हूँ...... सब..... प्लीज़ माफ़ कर दीजियेगा......

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत भावपूर्ण रचना है।

स्वप्न मञ्जूषा said...

रश्मि,
ऐसे सन्दर्भ को उठाया है आपने ....जो है पर कितना ओझल सा है...
आप सिर्फ कल्पना कीजिये की यहाँ विदेशों में बुजुर्गों की क्या दशा है...जहाँ चारों ओर अनजाने से चेहरे ही नज़र आते हैं...न भाषा अपनी न संस्कृति ...इतना एकापन झेलना कितना कठिन होता होगा....
बहुत सार्थक आलेख है आपका...
और आपकी कविता बहुत हृदयस्पर्शी....
बधाई. ...

ghughutibasuti said...

कविता बहुत अच्छी लगी।
घुघूती बासूती

شہروز said...

आप की कोशिश लगभग हर एक उस विषय को पकड़ने की रहती है, जो बहुधा हमजैसे लोगों से अनछुआ रहता है.अनजाना इसलिए नहीं कहूँगा की हमलोग जान-बूझ कर ही तो अनजान बनते हैं.लेखन अनुकरण करना ही होता है.सिर्फ लेखन ही नहीं कला साहित्य से जुडी हर विधा में ऐसा ही होता है.बरसों पहले ऐसा अरस्तु कह गए हैं.दरअसल आस-पास सब कुछ है, कुछ अनजान बन निकल जाते हैं और कुछ उसे अपने शब्द, कुची से नया अर्थ देते हैं.और अर्थ कितना मूल्यवान और भावपूर्ण है, ये रचनाकार की अभिव्यक्ति पर निर्भर करता है.और आप यहाँ कामयाब हैं.

इसी तरह लिखते रहें,यही दुआ है!

Udan Tashtari said...

मार्मिक अभिव्यक्ति..बुजुर्गों की स्थिति का यथार्थ!!

अजय कुमार झा said...

पहले मुझे लगता था कि शहरी बुजुर्गों की हालत ही ऐसी है एकाकीपन वाली .......मगर पिछले कुछेक वर्षों में जब से गांव जा रहा हूं तो देखता हूं कि ग्रामीण बुजुर्ग भी अब उसी स्थिति में हैं .......गांव के गांव खाली पडे हैं सुनसान और वे बुजुर्ग अपनी मजबूरी और अकेलेपन के बोझ को ढोते हुए .....वहां तो परिस्थितियां और भी दुरूह हैं ॥संवेदनसील इंसान के मन से स्वत: इन परिस्थितियों को देखकर कविता फ़ूट जाया करती है । आभार ।

अविनाश वाचस्पति said...

दिलों के घाव
उभर आए हैं
बाहर तक
इसलिए
नजर आए हैं
भीतर तक
तरबतर
प्रत्‍येक है इससे
सच्‍चाई के वाहक
कब मिलेगी राहत
लगता नहीं है
ऐसा होगा।

रेखा श्रीवास्तव said...

रश्मि,
बहुत सही कहा, अब ये बुजुर्गों कि नियति है, कल ये हमारी भी होगी ऐसा नहीं है. हाँ शायद हमारे लिए कुछ ऐसे साधन बन चुके हैं , कि हम इनमें व्यस्त होकर सब भूल जाते हैं. पर जो अभी इस पड़ाव पर हैं , वे इतना अपनापन जी चुके हैं कि अब शहरी संस्कृति में ढल नहीं पाते.
मेरे एक परिचित थे, उनका एकलौता बेटा अमेरिका में था, जब भी वह भारत आता और जाने लगता तो वह कहते , 'मिस्टर पंडित हो सकता है कि ये हमारी आखिरी मुलाकात हो.' और कई वर्षों बाद ऐसा ही हुआ.
अब तो बच्चों के सानिंध्य कि कौन कहे, अंतिम दर्शन भी नहीं नसीब होते हैं.

निर्मला कपिला said...

बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति हैमैं भी इस स्थिती के करीब ही हूँ इस दर्द का बखूबी अंदाज़ा लगा सकती हूँ। शायदऐसे लोगों मे खुशकिस्मत हूँ कि आप सब का साथ मिल गया है। कविता दिल को छू गयी बहुत बहुत आशीर्वाद।

Khushdeep Sehgal said...

रश्मि बहना,
जिस घर में बड़ों का सम्मान नहीं होता, उस घर में कभी सुख-शांति नहीं आ सकती...आज हमें लगता है कि खुद
मरने की फुर्सत नहीं है बड़े-बुज़ुर्गों को कहां से वक्त दें...लेकिन ये वही बड़े हैं जो बचपन में हमें छींक भी आने पर
पूरी रात हमारे सिरहाने बैठ कर निकाल दिया करते थे...मैंने अपनी ब्लॉगिंग के शुरुआती दिनों में बुर्जुंगों की हालत
को लेकर सांझ का अंधेरा नाम से चार लेख की सीरीज लिखी थी...टिप्पणियों के ज़रिए बड़ा अच्छा विमर्श हुआ था...यहां लिंक दे रहा हूं...टाइम हो तो पढ़िएगा ज़रूर और मेरे ई-मेल sehgalkd@gmail.com पर राय भेजिएगा...

http://deshnama.blogspot.com/2009/09/blog-post_03.html

http://deshnama.blogspot.com/2009/09/blog-post_04.html

http://deshnama.blogspot.com/2009/09/blog-post_05.html

http://deshnama.blogspot.com/2009/09/blog-post_06.html


जय हिंद...

रचना दीक्षित said...

एक अत्यंत मार्मिक चित्रण.बहुत कुछ कहती हुई एक रचना. कुछ. सोचने को मजबूर तो करती है पर न जाने क्यों लोग अपनी असमर्थता जाहिर करते हैं .सबके अपने अलग अलग कारण हैं.कभी लगता है की सबकी अपनी अपनी मज़बूरी होगी

रश्मि प्रभा... said...

आज के माहौल का सजीव चित्रण है ........बुजुर्गों की स्थिति ती सोचनीय है

vandana gupta said...

bahut hi samvedansheel rachna..........bujurgon ke akelepan par abhi kuch din pahle maine bhi ek post dali thi aur pahle bhi kai baar likha hai.........sach hum sab aur sab kuch likh lete hain magar udhar dekhna nhi chahte jo aage hamare sath bhi hone wala hai.........kabhi padhiyega.........sookhe darakht ka dard........ismein bhi usi dard ko piroya hai jo aapne mehsoos kiya hai aur apni kavita mein ujagar kiya hai.........bahut hi marmik likha hai.....aage bhi aise hi likhti rahiye.

Dipti said...

कविता बहुत ही सुन्दर है।

शरद कोकास said...

इस रचना पर आपसे बात हो गई थी तो ऐसा लगा था जैसे यहाँ टिप्पणी दे चुका हूँ ,अभी अजय झा ने याद दिलाए तो फिर यहाँ आया ..बधाई हो इस रचना और इसके विषय के लिये ।

Unknown said...

रश्मि जी आपने एक ऐसे संवेदनशील मामले को अपनी कलम से उठाया है जिस पर बहुत कम लिखा गया है और अधिकतर भुगत भोगी ही लिखते आये है.
अगर जीवन चलता रहा तो ये समय हमारा सबका आना है
परिवार छोटे होते जा रहे है और स्नेह के रिश्ते भी संकुचित हो रहे है
ओल्ड एज होम पहले बहुत ही हे विकल्प मना जाता था पर अब लगता है वहा जीवन तो है, देखभाल का एक सिस्टम तो है, सुख दुःख साझा करने का हौसला और मन तो है. मुझे लगता है जीवन की संझा मई बुजुर्गो को भी अपने लिए कुछ शौक विकसित करने चाहिए.
कुछ नयापन, कुछ उत्साहवर्धक और हमारे जमाने मे ऐसा होता था ये भूलकर हर ज़माने के शाश्वत मूल्यों पे जोर देना चाहिए.

आपकी कविता की टाइमिंग बहुत ही बढ़िया है.

सागर said...

बुजुर्गों का सूर्यास्त देखना... जैसे अपने जीवन का इहलीला का अंत देखना... काश की सबका सूर्यास्त पिघलता सोना सा हो... और जब उसकी रश्मि नदी में पड़े तो तरंग हर पैर को आनंदित करे...
वैसे एक डायरी की पन्ने पीले ही क्यों होते हैं ?

नीरज गोस्वामी said...

बहुत मार्मिक ढंग से आपने वृद्ध लोगों की व्यथा कथा लिखी है...आज जिन्हें हम यूँ बे सहारा छोड़ देते हैं कल हमें भी कोई यूँ छोड़ देगा ये क्यूँ नहीं सोचते...भाग दौड़ की इस ज़िन्दगी ने हमें कितना यांत्रिक बना दिया है सोच में भी और व्यवहार में भी...संवेदनाएं जैसे मर सी गयीं हैं...आपकी कविता भी दिल छु गयी...वाह...
नीरज

Arvind Mishra said...

वाजिब परेशानी !

Chandan Kumar Jha said...

ढ़लती उम्र का अकेलापन सच में कितना कष्टदायी होता होगा हम तो बस इसकी कल्पना ही कर सकते है अभी ।


बहुत सुन्दर कविता दीदी !!!!!!

Smart Indian said...

ये सब कुछ नहीं,एक इंसान हूँ,मैं
सबका होना है हश्र,यही,
सोच ,बस परेशान हूँ,मैं.

अगर हम अवश्यम्भावी को आज देख पायें तो शायद बुजुर्गों के प्रति ज़्यादा सजग हों. कविता पढ़कर संत कबीर के शब्द याद आ गए.
मालिन आवत देख के कलियाँ करत पुकार
फूल आज चुन ले गयी, कल हमारी बार

गौतम राजऋषि said...

मन को छूती हुई कविता। सचमुच की कविता। नई कविता के नाम पर बस पंक्तियों को छोटा-बड़ा और ऊपर-नीचे कर गद्य को कविता के नाम पर परोसने की तमाम करतूतों से तनिक अलग-थलग ये रचना सकून पहुँचाती है..कि अभी भी कविता अगर दिल से निकले तो सुर-लय-प्रवाह और तुक को बनाये रखती है, भले ही छंदों की बंदिश ना हो।

दिल से बधाई एक अच्छे पोस्ट के लिये और एक अच्छी कविता के लिये।

कुश said...

ek umr ke baare mein sochna kisi bhi umr mein munasib nahi lagta.. shayad isiliye piyush mishra sahab likhte hai.. ""jaisi bachi hai waisi ki waisi bacha lo re duniya..."

ek achhi post!!

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

रश्मि जी, आपकी संवेदनात्मक लेखन ने ध्यान खींचा है. युवाओं को हर संभव प्रयास करना चाहिए इनके एकाकीपन को कम करने में.

कहीं कहीं विदेशो में तो यह एकाकीपन अभिशाप बन गया है. चलिए यहाँ स्थिति कुछ बेहतर है वर्ना हमे तो कभी कभी कुछ ऐसा लिखना पड़ता है

- सुलभ

रंजू भाटिया said...

पसंद आई आपकी यह पोस्ट ..सच्चाई को कहती है यह .शुक्रिया

श्याम जुनेजा said...

कमेंट्स की इतनी लम्बी ट्रेन देख कर अक्सर निकल जाता हूँ लेकिन आपने जिस सलीके से अपने अनुभवों को पिरोया है उसे पढने के बाद अपने को रोक नहीं पाया ... बहुत सुन्दर गद्य बहुत सुन्दर कविता

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

रश्मि जी ,
आपने बहुत सजीव चित्रण किया है ..
यदि वे सचमुच घूरतीं.
तो संतोष होता
अपने अस्तित्व का बोध होता.

सच शायद इस उम्र में अपना अस्तित्व ही खोता हुआ सा लगता है

लोगों की हलचल के बीच भी,
रहता हूँ,वीराने में
दहशत सी होती है,
अकेले में भी,मुस्कुराने में

सटीक वर्णन है...मार्मिक भाव अपने शब्दों में उतार दिए हैं ......अच्छी रचना के लिए बधाई .

नव वर्ष की शुभकामनायें

Mithilesh dubey said...

बेहद मार्मिक व उम्दा रचना लगी , दिल को छु लिया आपने । बहुत खूब

सतीश पंचम said...

संजीदगी का इस तरह कवित्त के माध्यम से उकेरना अक्सर होता रहा है, लेकिन यहां तो आपने मय तस्वीर उस सांझ को जीवंत ला खडा किया है जब शाम इस तरह निरीह भाव से निहारी जा रही थी।

सुंदर।

विभूति" said...

बहुत ही खुबसूरत
और कोमल भावो की अभिवयक्ति......

Unknown said...

इस कविता में वृद्धों की सामाजिक स्थिति का एक चित्र पाठकों के सामने खड़ा होता है|जिसकी मार्मिकता व्यक्ति की मन को छू जाती है ....आपकी यह कविता पढ़कर बहुत अच्छा लगा|

Unknown said...

यह कविता वृद्धों की सामाजिक स्थिति का एक मार्मिक रेखांकन है.....जो अपनी वास्तविकता के कारण मन को छू जाति है........