फिल्म 'परदेस' का एक डायलॉग मुझे बहुत पसंद है,जिसमे महिमा चौधरी कहती हैं,"अपने देश में, हम कभी किसी को अकेला नहीं छोड़ते.अगर वो नाराज़ या उदास होकर खुद को कमरे में बंद कर लेता है तो हम कमरे का दरवाजा तोड़ कर अन्दर उसके पास चले जाते हैं."पर क्या सचमुच हम ऐसा करते हैं? अपने गिरेबान में झांककर देखें या अपने आस-पास लोगों को देखें.क्या सचमुच सबलोग ऐसा करते हैं?..नहीं..लोग उसे अपने हाल पर छोड़ देते हैं कि वह खुद इस उदासी के गड्ढे से निकल आएगा.पर ऐसा होता नहीं.वह शख्स गड्ढे में गहरे और गहरे गिरता चला जाता है और जब उसमें घुट घुट कर दम तोड़ देता है तो सब लोग गड्ढे के किनारे मजमा लगाने जमा हो जाते हैं.
'रुचिका'के केस में सबका आक्रोश राठौर,उसके स्कूल प्रिंसिपल और सिस्टम पर है.पर मुझे सबसे ज्यादा नाराजगी,उसकी स्कूल टीचर्स से है.'बरखा दत्त' के शो में रुचिका के साथ पढने वाली एक लड़की बता रही थी कि अपने साथ हुए उस हादसे के बाद रुचिका हमेशा रोती रहती थी.वह किसी से बात नहीं करती थी.खिड़की के पास अपनी सीट पर बैठी पूरे पूरे दिन या तो वह खिड़की से बाहर देखती रहती थी या रोती रहती थी.रोज़ उसकी क्लास में करीब करीब सात टीचर्स जरूर आते होंगे.उनमे से एक ने भी करीब जाकर उसके दिल का हाल जानने की कोशिश नहीं की.उस तक पहुँचने के लिए कोई पुल तैयार नहीं किया.जबकि सब उसके साथ हुए हादसे के बारे में जानते थे.ऐसे में तो उन्हें उसका और ज्यादा ख़याल रखना चाहिए था.पर उनलोगों ने उसे उसके हाल पर छोड़ दिया.अगर किसी टीचर ने रुचिका के साथ,थोडा समय बिताया होता.उसके पास आने की कोशिश कर उसका दुःख बांटने की कोशिश की होती.रुचिका को भी अपना दुःख,इतना बडा नहीं लगता,कि उसने अपनी ज़िन्दगी खत्म करने का ही फैसला ले लिया..सहेलियां साथ थीं.पर वे भी उसकी तरह कच्ची उम्र की थीं,उन्हें ज़िन्दगी का इतना अनुभव नहीं था कि उसका सहारा बन सकें.पता नहीं,रुचिका की आत्महत्या कि खबर सुन भी उसकी टीचर्स के मन में एक बार भी यह ग्लानि हुई होगी कि नहीं कि'काश हमने समय पर उसके दुःख बाँट होते,उसे सहारा दिया होता."
टीचर्स, बस क्लास में आते हैं.,रटी रटाई चीज़ें जो बरसों पहले,पाठ्य पुस्तकों से वे रट चुके हैं,पढ़ाते रहते हैं.,कापियां चेक करते रहते हैं. और तनख्वाह ले,अपने घर चले जाते हैं.जाते .टीचर्स भूल जाते हैं कि वे किसी बेजान मशीन में यह सब नहीं फीड कर रहें.एक सोचने समझने वाले असीम संभावनाओं से भरे,मस्तिष्क में यह सब भरने की कोशिश कर रहें हैं.जिसमें पाठ्य पुस्तकों से अलग भी एक संसार बना हुआ है.पर टीचर्स को तो जैसे उस संसार कि कोई खबर ही नहीं.टीचर कि नज़र इतनी पैनी तो होनी ही चाहिए कि क्लास में एक बच्चा अलग थलग,उदास सा क्यूँ बैठा है?और अगर उन्हें कारण पता होता है तब तो उनकी जिम्मेवारी और भी बढ़ जाती है.कि कैसे उसे उदासी के गह्वर से बाहर निकाले,कैसे उसके होठों कि हंसी वापस लाये.
बच्चों कि ज़िन्दगी में सबसे महत्वपूर्ण स्थान टीचर का होता है.हर बच्चा एक बार जरूर सोचता है कि वह बडा होकर टीचर बनेगा.बच्चे दिन का अधिकाँश समय टीचर के संसर्ग में ही बिताते हैं तो शिक्षकों का भी कर्त्तव्य है कि वह उसके पूरे व्यक्तित्व के विकास पर नज़र रखे.यह कहा जा सकता है कि एक क्लास में ६०-६० बच्चे होते हैं,फिर टीचर को भी समय पर सिलेबस पूरा करना होता है,प्रश्नपत्र बनाने होते हैं.कापियां चेक करनी होती हैं,रिजल्ट तैयार करने होते हैं,सैकड़ों काम होते हैं.कहाँ तक ख़याल रखें बच्चों का.हमारी शिक्षा व्यवस्था ही ऐसी है.अब एक दिन में तो बदलाव आ नहीं सकता.इसी व्यवस्था के अन्दर से कोशिश करनी होगी.जरूरत है थोड़ी सी अतिरिक्त सजगता और अपने कार्य के प्रति समर्पण की.कम से कम उस बच्चे की तरफ तो निगाह डालें जिसकी खामोश और पनीली आँखें चीख चीख कर कहती हैं....
"किसे दिखाएँ ज़ख्म यहाँ कोई तो मिले
आँखें और जुबां पर सबके हैं ताले लगे हुए"
एक स्मार्ट,मेधावी बच्ची जिसका यूनिफ़ॉर्म बिलकुल साफ़ और इस्त्री किया हुआ होता,जुटे,मोज़े,टाई सब सही होते थे.अचानक गंदे यूनिफ़ॉर्म पहन,गलत रिबन,गंदे मोज़े,बिना पोलिश के जूते पहन स्कूल आने लगी.चुपचाप रहती ,होमवर्क नहीं करती.ग्रेड्स भी गिरने लगे.उसे रोज पनिशमेंट मिलने लगी.जब दो महीने बाद पैरेंट्स मीटिंग में टीचर ने शिकायत की तो पता चला,दो महीने पहले उसने अपनी माँ को खो दिया था.अगर टीचर ने एक बार उसे अलग बुला कर वजह पूछी होती तो उस मासूम बच्ची को कुछ सहारा मिला होता और वह रोज़ क्लास से बाहर जाने की जलालत से बच जाती.हो सकता था यह देख की उसकी भी फ़िक्र करने वाला कोई है...वह अपने ऊपर ध्यान देना शुरू कर देती.पर आजकल तो टीचर्स बच्चों को उनके आई-कार्ड से पहचानते हैं.उनके चेहरे भी नहीं याद रहते तो उनके दिल में चल रहें हलचलों की जानकारी कहाँ से होगी.
बच्चे गीली मिटटी की तरह,उनकी हाथों में होते हैं.अब यह उनपर है कि वे इस से कोई ख़ूबसूरत सी मूर्ति गढ़ डालें या उसे यूँ ही अनगढ़ छोड़ दें.शिक्षक का कार्य भी पूर्ण समर्पण की मांग करता है.मुझे तो लगता है,डाक्टर्स की तरह टीचर्स को भी यह शपथ लेनी चाहिए :वे बच्चों के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का ख़याल रखेंगे और कमज़ोर बच्चों की तरफ विशेष ध्यान देंगे.
38 comments:
na jane kyun kabhi ruchika ka rona chupchap baitthna jitna is post ke baad mahsoos hua pahle kabhi nahi."अपने देश में, हम कभी किसी को अकेला नहीं छोड़ते.अगर वो नाराज़ या उदास होकर खुद को कमरे में बंद कर लेता है तो हम कमरे का दरवाजा तोड़ कर अन्दर उसके पास चले जाते हैं."पर क्या सचमुच हम ऐसा करते हैंsach me sochne pe mazboor karti hai.
लोग उसे अपने हाल पर छोड़ देते हैं कि वह खुद इस उदासी के गड्ढे से निकल आएगा.पर ऐसा होता नहीं.वह शख्स गड्ढे में गहरे और गहरे गिरता चला जाता है और जब उसमें घुट घुट कर दम तोड़ देता है तो सब लोग गड्ढे के किनारे मजमा लगाने जमा हो जाते हैं.
बिलकुल सच !!!
दिल्ली में कई प्रतिभाशाली पत्रकारों/लेखकों/कवियों को मैं ने देखा है पल-पल मरते हुए, सीमा तक साथ दिया है उनका , उनका हौसला बढ़ाया है.लेकिन वो लोग जिनका ऐसे लोगों ने कभी खूब साथ--सहयोग किया था.कन्नी काटते देखा है.और उसके मरने के बाद खूब टेसवा बहाते ऐसे ही लोग हैं.
बहुत क्रूर दुनिया है, पगले!
इन तिल-तिल कर मरने वालों में अगला नाम मेरा भी जल्द लिखा जाएगा!
रुचिकाएं रोज़ मर रही हैं, रोज़ उनकी इस्मत से खिलवाड़ किया जाता है,ये तो रुचिका की प्रोफाइल ज़रा अच्छी रही कि चर्चा है, वरना कितनी अँधेरी सुरंग में दम तोड़ देती हैं.
शहरोज़ भाई ये क्या कह डाला आपने...मरें आपके दुश्मन...हम सब,पूरा ब्लॉग जगत आपके साथ है...ऐसी उदासी भरी बातें,ना करें प्लीज़...यह एक लम्हे का ख़याल हो सकता है...इसे दूसरे लम्हे में ही बदल डालें.
रश्मि जी यही तो दुर्भाग्य है हमारे education सिस्टम का ..यहाँ जोर शिक्षा पर नहीं ,व्यक्तित्व विकास पर नहीं बस किताबी ज्ञान पर होता है...बच्चा पैदा हुआ नहीं की बस A B C सिखा दो teachers आती हैं सिर्फ अपना काम पूरा करने खाना पूरी करने .जबकि बच्चा दिन का आधे से ज्यादा हिस्सा स्कूल में बिताता है और अपनी अध्यापिका के बहुत करीब होता है .
बहुत सार्थक लेख लिखा है .बधाई आपको
are shehroz saheb ye kya ho gaya aapko? esa na kahen .bahut jarurat hai aap jaise jagruk patrkaron ki samaj ko.
रश्मि,
बहुत ही ज्वलंत समस्या को उजागर करती हुई है तुम्हारी पोस्ट....
हर स्टुडेंट पूरे दिन का बहुत बड़ा हिस्सा स्कूल में बिताता है....और टीचर की बहुत बड़ी जिम्मेवारी होती है कि वह उतने समय उसके समीप रहे...ख़ास करके अगर कोई बच्चा/बच्ची उदास या औरों से अलग हट कर वर्ताव कर रहा हो.....
मेरे बेटे के साथ यह हो चुका है.....ग्रेड ७ में मेरा बड़ा बेटा ....मात्र ८०% लेकर आया...मुझे हैरानी हुई इसलिए कि वो ९०% लाने वाला स्टुडेंट था.....मैं पहुँच गयी स्कूल ...पता करने पर मालूम हुआ कि अंग्रेजी के १४ असाइंमेंट उसने जमा ही नहीं किये थे.....१४ असाइंमेंट बहुत बड़ा नंबर था....मैंने उस टीचर कि सही क्लास ले ली.....ऐसा लताड़ा कि ज़िन्दगी भर याद रखेगी.....बच्चे कि गलतियों को माँ-बाप तक पहुंचाना टीचर का काम है.....और अब वो टीचर मेरी पड़ोसन बन गयी है... नैन्सी डेविडसन नाम है उसका...
न जाने कितनी रुचिकाएं बस अपने आप में सिमट कर रह जातीं हैं...!!!
बहुत अच्छा लेख है....शिक्षकों का कर्तव्य बनता है कि वो अपने विद्यार्थियों के बारे में जानकारी रखें...और ये बहुत मुश्किल काम नहीं है... माना कि शिक्षकों को बहुत काम होते हैं और एक कक्षा में बच्चे भी बहुत होते हैं पर रोज़ एक ही कक्षा में जाते रहने से बच्चों के बारे में जानकारी रहती है...अलग से बुला कर बच्चों से उनकी समस्याएं पूछी जा सकती हैं..कम से कम कक्षा - अध्यापक तो ये जानकारी ले ही सकता है...
सुन्दर लेख के लिए बधाई
यह समस्या तो बेहद गंभीर है, और मैं भी कहीं न कहीं इसे महसूस कर चुका हूँ, और अभी भी कर रहा हूँ पर अगर अपने आप को सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रुप से मजबूत बना लेंगे तो ये परेशानियाँ तो कुछ भी नहीं हैं, ये सब फ़िर तो छोटी छोटी बातें हो जाती हैं, कहीं न कहीं इसमें सिस्टम गलत है, जिसमें हम और आप इन स्कूलों और ऐसे शिक्षकों का कुछ नहीं कर सकते हैं।
बहुत अच्छा लिखा है आपने। आपके विचारों से सहमत हूं।
मैने अपने ब्लाग पर एक कविता लिखी है-तुम्हारी आंख के आंसू-समय हो पढ़ें और कमेंट भी दें-
http://drashokpriyaranjan.blogspot.com
मैं अभी आता हूँ.... अभी सिस्टम ठीक नहीं हुआ है....परेशां हो गया हूँ.... मैं.... ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ......
हम लोग खुद इन्ट्रोवर्ट होते जा रहे है.. किवाड़ तोड़ कर अन्दर घुसना आजकल इंटरफेयर कहा जाता है...
दूसरी बात एज्युकेशन सिस्टम की है,, शायद सब लोग बड़ी जल्दी में है.. कैसी जल्दी पता नहीं...
इन तिल-तिल कर मरने वालों में अगला नाम मेरा भी जल्द लिखा जाएगा!
आपका सवाल बहुत हद तक सही है ...मगर आजकल सबके अपने दुःख ही इतने विशाल होते हैं कि दूसरों के बारे में सोचने की फुर्सत कहाँ ..तनाव के एक बहुत लम्बे दौर से मैं भी गुजरी हूँ ..भाग्यशाली रही कि कुछ अपने और बेगाने अजनबी इस समय मेरे साथ रहे ..आज मैं इस तनाव से उबर चुकी हूँ तो कोशिश यही करती हूँ .. अपने आस पास किसी को ज्यादा देर उदास नहीं रहने दूं ...
आपकी संवेदनाएं मन को छू जाती हैं हर बार ....!!
आप ने बहुत अच्छी बात कही अपने इस लेख मै बच्चे को पेदा होते ही हम उस के लिये बडे बडे खाह्व देखते है, उसे एक तरह से सजा देते है कि साले तु हमारे घर पेदा हो गया है तो चल अब ह्मारी मर्जी से जो भी करना हो कर, कभी उस के ख्याल नही पुछते, उस की मर्जी नही पुछते, कभी उस के मन का दर्द नही पुछते, ओर इस मै सब से बडी गल्ती मां बाप की है, बाहर की दुनिया ओर टीचर तो बाद मै आते है, सब से पहले बच्चो के दोस्त बनो उन से हर दुख सुख बांटॊ, ओर उन के दुख सुख बांटो, बच्चा पढने मै कमजोर है तो उस का रुझाण किस ओर है देखो, उदास है , चिंतित है तो उस पर ध्यान दो, लेकिन आज ज्यादा तर मां बाप के पास इन फ़ालतू बातो के लिये कहां समय है
इसमें कोई शक नहीं की टीचर्स की भी एक जिम्मेदारी होती है। लेकिन आज के व्यवसायिक युग में टीचर्स में कहाँ गुरु वाली बात रह गयी है। सब अपनी ड्यूटी पूरी करते हैं बस। फिर बच्चों को पढना भी खुद ही पड़ता है।
अच्छा मुद्दा उठाया है आपने।
आजकल टीचर टेक्स्ट बुक का ही पर्याय हो गए हैं! आपने सही शब्द कहा....मशीनी ! मुझे भी याद नहीं पड़ता की कभी मुझसे भी किसी टीचर ने आकर कभी परेशान देखकर हाल पूछा हो!
बहुत अच्छा आलेख।
यह अच्छा विश्लेषण है लेकिन मुझे लगता है कि बच्चों का समाजीकरण सिर्फ शिक्षक ही नही करते पूरा समाज करता है इसलिये शिक्षको को दोष नही दिया जा सकता ।
इस पोस्ट में सवाल और जवाब दोनों हैं. ये मानता हूँ कि ज्यादातर शिक्षक असंवेदनशील होते हैं वे भी समाज का ही हिस्सा होते है. और वो भी वैसे ही वर्ताब करते हैं जैसे समाज में सब करते हैं. आज कौन किसका हाल पूछता है? क्या कोई अपने पडोसी का हाल पूछता है?
कौन दूसरे के पचड़े में पड़ता है? रोड एक्सिडेंट में अक्सर देखने को मिलता है कि लोग सड़क पर मर जाते हैं और कोई हॉस्पिटल नहीं पहुंचता. तो शिक्षक भी वही करते हैं. क्या पूरा समाज ही ऐसा नहीं है?
मेरा मत सिर्फ ये है कि शिक्षको के पास एक मौक़ा था. लेकिन उन्होंने उसे भुनाया नहीं. इस मसले पर एक बहुत ही सम्मानित शिक्षिका से बात हुई तो उनका ये कहना था - जब मैं एक क्लास में जाती हूँ, तो सबसे पहले मेरा ध्यान भी सिलेबस पर होता है फिर स्टुडेंट्स की पढ़ाई की वीकनेस पर ध्यान जाता है. और उसके बाद, अगर किसी बच्चे को प्रॉब्लम है तो मुझे तभी पता चलता है जब बच्चा खुद आ कर चर्चा करता है.
अगर किसी बच्चे ने कोई प्रॉब्लम बताई तो मैं सुझाब देती हूँ. लेकिन उस पर अमल करना या ना करना बच्चे के अपने परिवेश पर निर्भर करता है. रही बात बच्चे के बदले व्यबहार की तो ये हम उसी क्लास में ओब्सेर्वे कर पाते हैं, जिसके हम क्लास टीचर होते हैं. और वो भी तभी नोट कर पाते हैं जब चेंज ज्यादा हो बाकी क्लासेस में इतना वक़्त हमको सिस्टम नहीं देता. फिर भी, मैं तो काफी इन्वोल्व रहती हूँ
बाकी बहुत से तो ये भी नहीं करते. ज्यादा बोलो तो पेरेंट्स इतनी शिकायत करते है टीचर्स की नौकरी चली जाती है, तो कौन बोलेगा?
यह पोस्ट पढने के ठीक पहले दिल्ली की इस छात्रा की आत्महत्या की खबर देखी. बच्चों को क्या पढ़ाएंगे हम? पहले इन बड़ों को मानसिक परिपक्वता और संवेदनशीलता के बारे में पढ़ाने की ज़रुरत है.
So much has been said about the insensitivity of teachers,but do you really know how much most of the teachers care about children?Almost as much as they care about their own children! but in that case parents say -you please take care of his/her studies,the rest we can handle.they take it as an insult if teachers say something about the child.They think that they are being accused of not taking proper care of the child.It is possible that in some cases teachers don't bother that much but that is trueto some parents also.Then why generalise and just blame the teachers????????????????
U r right Mamta...was looking forward to ur comments as i know u r able to throw sme light on other aspects too..n make ppl understand the plight of dedicated teachers...am really SORRY..shud hv mentioned that only sme teachers r like this...hv no right to hurt the feelings of dedicated teachers like u.
वो कहते हैं,ना..जल्दी का काम शैतान का...was in a hurry to write this post as was seething with anger after hearing the insensitivities of Ruchika's teachers..but i know there r teachers who can go to any extent for the welfare of their students...bt sadly very few....उँगलियों पर गिने जाने वाले...फिर भी अगर एक टीचर भी अपने काम के प्रति समर्पित है...तो हम इसे जेनरलाइज़ नहीं कर सकते...SORRY AGAIN
रश्मि,
एक रुचिका ही नहीं और भी कितने इअसे ममाले होते हिं जिनमें की सिर्फ स्कूल स्टार पर ही नहीं बल्कि कॉलेज और इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज में भी ऐसे पढ़ाने वाले हैं जो अगर किसी स्टुडेंट से चिढ गए तो पूरी की पूरी लाइफ बर्बाद कर देते हैं. मुझे याद आता है की यहाँ ही कानपुर में ही M.S के एक स्टुडेंट कोप्रोफ़ेसर ने इतना परेशान किया था की उसने और उसकी गर्भवती पत्नी ने आत्महत्या कर ली थी. और वह आज बड़े ऐश के साथ रह रहे हैं. शायद ऐसे लोगों में कोई आत्मा जैसी चीज ही नहीं होती है.
यह तो व्यक्ति व्यक्ति पर निर्भर करता है की वह किस तरह से दूसरों को समझता है या फिर सिर्फ अपने ही दंभ में जीता है.
बहुत बडिया प्रस्तुति आज इतना ही कहूँगी आशीर्वाद्
इस पोस्ट ने मुझे रुला दिया है.... टीचर्स कभी भी अपना दायित्व नहीं समझते.... मैं भी जब स्कूल में था... तो मैं हकलाता था ... थोडा थोडा.... और मेरे कुछ टीचर्स मेरा मज़ाक बना देते थे... जिससे कि मेरा कॉन्फिडेंस लेवल लो हो गया था... और मेरा आक्रोश मेरे टीचर्स के प्रति बढ़ गया था... फिर मैं जब अपने टीचर्स से झगडा करने लगा तो वो लोग मुझसे डरने लगे... और मेरा कॉन्फिडेंस लेवल बढ़ गया... अब यहाँ पर मैं यह सोचता हूँ... कि मुझे थोड़े वक़्त के लिए बिगाड़ने में मेरे टीचर्स का ही हाथ था.... हमारे यहाँ टीचर्स... अपनी ज़िम्मेदारी नहीं समझते हैं.... बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट.... दिल को छू गई....
मेरी सातवीं या आठवीं की पंजाबी की किताब में एक लेखक ने अपना हाल लिखा था कि जब उसके परिवार के किसी नजदीकी की मौत हो गई तो उसे आनन फानन में प्रथम दर्जे का टिकट कटा गाँव लौटना पडा। आधे रास्ते प्रथम दर्जे में सफर करते उससे किसी ने कोई बात नहीं की लेकिन जैसे ही वह सेकंड क्लास में घुसा अपने जैसे लोगों को पा अपना दर्द न छुपा सका और ट्रेन में ही उसकी आँखें नम हो आईं।
आस पास के लोगों ने हौले हौले बातचीत शुरू की और यह जान कि उसके किसी नजदीकी की मौत हो गई है कई लोग उसके साथ सहानुभूति जताने लगे...कई लोगों ने कंधे पर थपकीनुमा हाथ भी रखा...तब जाकर लेखक को राहत मिली और उस लेखक का कहना था कि ऐसे वक्त पर किसी की थपकी और बातें कितना सहारा बन जाती हैं यह उसने तब ही जाना।
अंत में लेखक ने अपनी आपबीती कहते हुए एलीट क्लास के नाम पर चुपचाप अपने में खोये रहने को एक तरह से समाज के लिये घातक माना था क्योंकि एसा करते हुए सहानुभूति और संजीदगी का समाज से लोप होने का खतरा है।
और इतने साल बाद उन लेखक की बात कितनी सच साबित हो रही है यह हम लगातार देखते आ रहे हैं।
मैं उस लेखक को शायद कभी याद न करता लेकिन इस पोस्ट ने यादों को कुरेदने में साथ दिया है। कुछ जर्द पन्ने आज याद आ गये।
रश्मि बहना,
समय का पहिया ब़ड़ा बलवान होता है...कहते हैं न बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी...आज ही रुचिका के स्कूल
की पूर्व प्रिसिंपल के खिलाफ सख्त आदेश जारी हुए हैं...सारा सम्मान, मेडल वापस ले लिया जाएगा...रुचिका तो
वापस नहीं आ सकती...लेकिन ऐसे पत्थरदिल और मानवतारहित लोगों का यही हश्र होना चाहिए...इनके लिए सबसे
बड़ी सज़ा यही है कि इनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाए...
जय हिंद...
शायद बहुत देर से पहुचा इसके लिए क्षमा याचना । बेहद संजिदा मुद्दा उठाया आपने । आपकी बातो से पूर्णतया सहमत हूं , पता नहीं क्यो अब अध्यापक और छात्र के रिश्ते खोते जा रहे है , शायद इसके जिम्मेदार दोनो पक्ष हैं । आपकी ये रचना बहुत ही उम्दा लगी , आपको बहुत-बहुत बधाई
आज की शिक्षा प्रणाली , कार्यपरक बनाने के फेर में अपनी मूल दिशा और लक्ष्य से भटक सी गयी है . शिक्षा का लक्ष्य केवल ज्ञान प्राप्त करना नहीं बल्कि नौकरी की गला काट प्रतियोगिता के लिए अपने आप को तैयार करना है .जहा तक बात सम्बेदंशिलता की है , वो तो चाहे टीचर हो या स्टुडेंट , दोनों से ही विलुप्त हो गयी है . हम नहीं कह सकते की की कोई एक इसके लिए आलोचना का पात्र हो सकता है . अगर शिक्षक और विद्य्रार्थी में केवल पुस्तकीय ज्ञान का सम्बन्ध हो तो कीसी भवनात्मक संबंधो के लिए जगह नहीं होती.आज की प्रणाली में माता पिता भी आपके बच्चो का प्राप्तांक देखते है, उसके सर्वांगींन विकास पर जोर नहीं दिया जाता. ऐसा नहीं है की समस्त माता पिता ऐसे हो लेकिन बहुलता है. शिक्षा समाज का आईना है , अगर हम अपने वर्तमान प्रणाली से इस आईने को धुंधला कर रहे है.मेरा ये मनांना है की वर्तमान प्रणाली , रोजगार परक तो बन रही है लेकिन संवेदनहीन भी हो गयी है.
बहु खूब सुन्दर रचना
बहुत बहत आभार
कितना कुछ कहना जैसे अब भी शेष है इस पूरे सिस्टम के खिलाफ़, जबकि लगता है सबकुछ तो कह डाला गया है। सोचता हूं. रुचिका कम-से-कम इतनी लकी तो है कि इन आई बी एन और टाइम्स नाउ वालों की नजर चली गयी...पटना की उस शिल्पा का क्या...मेरे शहर की दीपा का क्या....दिल्ली की नमिता, संगीता, पुष्पा का क्या?????
इसमें उल्लिखित दोनों प्रसंग बेहद मार्मिक और विचारने बल्कि अमली जामा पहनाने लायक हैं। इन घटनाओं/दुर्घटनाओं से प्रेरणा लेकर यदि हम सिलेबस तैयार करें, इनके तरीके से उनमें परिवर्तन करें तो निश्चय ही सब कुछ ठीक हो सकता है। वे पुराने दिन, अधिक छात्र होने पर भी, अध्यापकों में छात्रों की जिंदगी से जुड़ने का जज्बा पूरी शिद्दत से धधक सके, तो इस लेख के माध्यम से आने वाला परिवर्तन सतही नहीं, हलचलीय होगा। इससे अनेक विद्यार्थियों के जीवन में प्रेम और नेक विचार विकसित होंगे। इसी की जरूरत है आज समाज को। विचारों की रश्मियां सब कुछ बदल सकती हैं।
rshmi ji is me bechari school teacher ka itna ksoor khan hai vh to ek mohra bhr hai vyvstha ka jb bde 2 adhikari neta aur doosre log kuchh nhi kr paye to vh bechri kya krti
bat asl me is vyvstha ki hai jis meis trh ka kuchh bhi smbhv hai jb tk hm vyvstha ke privtn ki bat nhi uthayenge tb tk kuchh nhi hone vala kya ek ruchika ko nyay milne se sb ko nyay mil jayega bilkul bhi nhi jb tk neta v afsr ka isi trh smikrn mila rhega tb tk aap koi ymmid mt rkhen
isshasn prnali me to koi aasha dikhi nhi
snvidhan ke hrf hrf me yhi ibart likhi hui
fir bhi us ko aankh mund kr hm sare nt mstk hain
shayd ek yhi karn hai jo ye dilli tiki hui
khne ko kanoon bhut se aur vkil bhut se hain
shjr 2me nyayaly bhi kitne khob bhut se hain
fir bhi kb ruchika jaisi in knyaon ko nyay mila
hai kis liye desh ka shasn neta khob bhut se hain
snvidhan bhi rota hoga apni is mjboori pr
jn jn se jo door ho gya apni is mjboori pr
khan surkshit laj kisi ki ruchika ek udahrn hai
kyon kanoon nhi rota hai jnta ki mjboori pr
esi jane kitni knya roj bli chd jati hain
ye to ek udahrn hi hai khan jban khul pati hai
ydi jban hi khul jaye to khob dekh lo kya hoga
raj niti ke in chahron ko shrm hya kb aati hai
dr.vedvyathit@gmail.com
जहां तक बात रुचिका कि है ,यह एक गंभीर सामाजिक समस्या है ! एक समय था जब हमारे समाज में पति के मरने के बाद औरत को सती कर दिया जाता था ,यह औरत के प्रति निष्ठुर हो जाने का प्रतीक है !आज जब एक औरत के साथ बलात्कार या उसका शोषण होता है तो भी उसे ही सारी ज़िल्लत उठानी पड़ती है ! इस समस्या को हल करने के लिए हमें औरत के प्रति सवेंदेनशील बनना होगा ! दूसरी समस्या के समाधान के लिए शिक्षा विभाग को पाठ्यक्रम में कुछ सुधार करने होंगे ओर केवल उन्ही शिक्षकों को पढ़ाने का दायित्व देना होगा जो असल में छात्रों हे प्रति संवेदनशील हैं ,जो उनके दर्द को महसूस कर सकें, अन्यथा ऐसा संभव नहीं !
WHAT SO EVER YOU HAVE MENTIONED IS PRASIE WORTHY.
ACCORDING TO YOU ALL THE PROBLEM IS WITH TEACHERS. I DON'T AGREE WITH IT.
TEACHERS ARE ALSO FROM THIS SOCEITY.
BUT WHO IS GOING TO STUDY IN SCHOOL.
MOST OF THE PARENTS DON'T KNOW THE NAME OF THE SCHOOL, CLASS OF THEIR WARD AND THEIR OTHER REPROTS.
TEACHERS ARE UNDER STRESS THESE DAYS. THEY HAVE TO CLOSE THEIR EYES, THEY HAVE TO BECOME DEAF AND DUM. PARENTS ARE MAKING SHORTCUTS FOR MERITS.
THESE DAYS STUDENTS ARE AT KOTA AND THEY ENROLLED IN SCHOOLS. WHO BOTHER. THEY DEMAND BUT NEVER REPAY. DUTY IS NOT ONLY OF THE TEACHERS. TEACHERS ARE ALWAYS TREATED AS WEAKER SECTION. THEY MAKE D.C., OFFICERS, DOCTORS BUT THEY ARE TREATED BADLY.
SO THIS SIDE OF COIN SHOULD ALSO BE ....
Ullekh jaruri hai...
Sandesh dena jaruri hai.
रश्मि जी ने मुद्दा सही उठाया है।पर मुझे लगता है हम सब टुकड़ों में सोचने के आदी हो गए हैं। हम केवल शिक्षक की बात कर रहे हैं। जो बातें हो रही हैं वे आज के शिक्षक की हैं। उन्नीस साल पहले भी क्या शिक्षक ऐसा ही था। अगर हां तो हम समाज को बदलता नहीं देख रहे,उससे आंख चुरा रहे हैं। दूसरी बात रुचिका की कहानी के जो पन्ने खुल रहे हैं,उससे लगता है उसके परिवार को जो जिल्लत झेलनी पड़ रही थी वो उससे ज्यादा परेशान थी। और सब जानते हैं कि पुलिस उन्हें परेशान कर रही थी। तो सोचिए कि रूचिका को किसी शिक्षिका ने समझने की समझाने की कोशिश की भी होगी तो भी वह पुलिस की उस जिल्लत से परिवार को बचा पाएगी होगी। असली समस्या वहां थी।
मुझे लगता है केवल एक दो या केवल दस उदाहरणों के बल पर हमें किसी वर्ग विशेष को गलत सिद्ध करने पर नहीं तुल जाना चाहिए। यह जरूरी तो नहीं कि अगर कहीं अपनी जिम्मेदारी निभा रहा हो वह बात आपके सामने आनी ही चाहिए। जहां नहीं निभाई गई आमतौर पर वही सामने आती है।
कहीं ना कहीं हमारे समाज और हमारे अपनों में बहुत बड़ी कमी है जिस फलस्वरूप ऐसी हालत हो रही है..बढ़िया प्रसंग बस इसे समझने और जागने की ज़रूरत है अपने देशवासियों को..
मै पहली ही बार आपके ब्लॉग पार आई हूँ पार ऐसा लग रहा है इतनी देर क्यों कि आने में \एक सशक्त आलेख |सबने अपने विचार रख ही दिए है बहुत ही अच्छे ढंग से |घर के बाद बच्चा अपने शिक्षक के ही साथ सबसे ज्यादा रहता है ,पहले तो ६ या सात साल में बच्चा शिक्षक से मिल पाता था अब तो दो साल के बाद ही शिक्षक के सम्पर्क में आता है और दस साल का होते होते कई शिक्षक उसकी क्लास में आये होते है तो नही1 वो उन्हें अपना बना पाता है और न ही शिक्षक उसे मन से अपना पाते है |और दूरी ही रह जाती है |फिर शिक्षक भी आज कोई उद्देश्य लेकर चलते है ?
Post a Comment