Monday, December 27, 2010

कच्चे बखिए से रिश्ते (समापन किस्त )

(सरिता,अपनी सहेली के पति को अपने कॉलेज में ही लेक्चरर के पद पर नियुक्त करवाने में सहायता करती है. कुछ ही दिनों बाद उसकी सहेली की मृत्यु हो जाती है और उसके पति वीरेंद्र, कॉलेज में ज्यादातर समय ,सरिता के डिपार्टमेंट में बिताने लगते  हैं. पर सरिता को वीरेंद्र की कम्पनी रास नहीं आती फिर भी वह सहानुभूतिवश , उन्हें यह अहसास नहीं होने देती.)


गतांक से आगे

मुश्किल ये थी कि वीरेंद्र फिजिक्स  के प्रोफ़ेसर थे .और साइंस के अधिकतम छात्र, कोचिंग क्लास जाया करते लिहाजा..बहुत कम छात्र ही नियमित क्लास अटेंड किया करते.वीरेंद्र  भी  क्लास  में बीस मिनट बाद जाते और दस मिनट पहले निकल आते. कोई जिम्मेवारी  भी नहीं थी. वो कहती भी, "जो बच्चे..क्लास में ,बैठते हैं..शायद वे क्लोचिंग क्लास नहीं अफोर्ड कर पाते हैं..उन्हें ही मन से पढाया करिये .पर वे  गुस्से में बोल उठते,
"वे लोग  ऐसे भी नहीं पढने वाले...बहुत कमजोर हैं,पढने में ....साइंस  उनसे चलेगी नहीं..फेल होने वालो के उपर क्यूँ  मेहनत करूँ.." वह सोचती, तब तो दुगुनी मेहनत करनी चाहिए. पर सहेली के पति का ख्याल कर कुछ बोलती नहीं.
वीरेंद्र की निराशावादी बातें उसे परेशान कर देतीं...पर लिहाजवश वो कुछ भी ,रूडली नहीं बोल पाती. यूँ भी साइंस में नोट्स बनाने की जरूरत नहीं पड़ती. समय ही समय होता उनके पास. जबकि उसे सैकड़ो काम होते...नोट्स बनाने होते. लाइब्रेरी जाना होता..अपने साथी प्रोफेसर्स के साथ विचार-विमर्श..बहस भी नहीं हो पाती. सबसे जैसे वो कटती जा रही थी. वीरेंद्र की उपस्थिति से सब कन्नी काटने लगते और किसी बहाने उठ कर चले जाते.वीरेंद्र  को यूँ भी जिस से भी उसकी दो बातें हो जाती ...थोड़ी मित्रता होती....वे लोग  पसंद नहीं आते. मिस्टर जुनेजा को फोटोग्राफी का बेतरह शौक था...वे हमेशा कैमरा अपने पास रखते. उसकी भी फोटोग्राफी और पेंटिंग सीखने की दिली तमन्ना थी पर अवसर नहीं मिल पाया..नहीं सीख पायी..और अब तो जी के सौ जंजाल थे . उसका वह शौक अनुकूल,हवा,पानी खाद के अभाव में मृतप्राय हो गया था . जुनेजा  जी के खींचे चित्र देख जैसे  उसमे नव-जीवन संचार हो उठता . वे भी नई  तस्वीरें अपलोड करते ही उसे कंप्यूटर लैब में बुला ले जाते. कर्टसीवश वीरेंद्र को भी  बुला ले गए वे. पर वीरेंद्र ने इतनी आलोचना की "ये भी कोई तस्वीरें है..कीड़े-मकोड़ों की...टूटी झोपडी...गन्दी बस्ती की..फोटो तो सुन्दर दृश्यों के लेने चाहिए. " ढलते-सूरज, नदी-झरने झील की. " वो उनसे बहस नहीं करती .बात बदल देती.

अंग्रेजी के एक युवा प्रोफ़ेसर मिस्टर कुमार से उसका किताबो का आदान-प्रदान खूब होता. कई बार खड़े-खड़े ही किसी पुस्तक के किसी कैरेक्टर पर घंटो चर्चा हो जाती. पर मिस्टर कुमार एक विशेष विचारधारा को मानेवाले थे. वीरेंद्र, इस बात को मुद्दा बना उस से बहस कर बैठते .वह कितना भी कहती.."वो उनके विचार है...उसे उस से क्या लेना-देना...वो तो इतर विषय पर बात करती है." उस वक्त कुछ नहीं कहते,पर मौका ढूंढ अक्सर कह बैठते.."वो ये कह रहा था...उसे ऐसा कहते सुना मैने...मुझे बिलकुल नहीं पसंद " परेशान हो गयी थी वह. कॉलेज का कोई भी प्रोफ़ेसर उन्हें अच्छा नहीं लगता...खासकर अगर उनसे उसकी  अच्छी पहचान हो. वह उनकी मनःस्थिति समझती थी...वे परेशान थे, और इस तरीके ही अपनी खीझ ,फ्रस्ट्रेशन निकालना चाहते थे.  पर वो क्या करे. अपनी परिस्थिति से समझौते की कोशिश उन्हें खुद ही करनी थी. वे एक परिपक्व उम्र के इंसान थे. वो बस उनका साथ दे सकती थी,जिसकी वह भरसक कोशिश कर रही थी. पर इसके एवज में उसे अपना मानसिक संतुलन बनाये रखना कठिन हो जाता. घर, पति,बच्चे ,कॉलेज की हज़ारो जिम्मेदारियां और उस पर से वीरेंद्र का यह अनर्गल प्रलाप. वह एकदम से किनारा भी नहीं कर सकती थी. इस शहर में वही एकमात्र वीरेंद्र की परिचित थी और वीरेंद्र दूसरे लोगो से मिलने-जुलने, दोस्त बनाने को उत्सुक भी नहीं दिखते. उसने समय के सहारे खुद को छोड़ दिया था.

इन सबका कोई हल नज़र नहीं आ रहा था और ऐसे में टाइम-टेबल में बदलाव, उसके लिए एक सुखद बयार लेकर  आया. अब टाइम-टेबल कुछ ऐसा बना था जिसमे उसकी सहेली, कृष्णा और उसे एक साथ ऑफ पीरियड मिलते. उसे सुकून मिल गया.  वीरेंद्र तो उसे खाली  देखते आ ही जाएंगे ,इतना उसे पता था पर कम से कम कृष्णा  का साथ तो रहेगा. अब सब, इतना बोझिल तो नहीं होगा. उसने कृष्णा  से परिचय  करवाया और आश्चर्य...किसी से दोस्ती नहीं करनेवाले वीरेंद्र ने लपक कर उस से दोस्ती का हाथ बढाया. उसे सुकून मिला..चलो कुछ बोझ तो बँटा. शुरू में तो कृष्णा  भी उसपर  झल्लाई रहती..."कहाँ से उसके सर पर बिठा दिया..कितना अच्छा वे दोनों हंसी-मजाक दुनिया भर की बातें किया करते थे.' वीरेंद्र की  उपस्थिति थोड़ी असहज बना देती.  पर धीरे-धीरे उसने नोटिस किया.....वीरेंद्र, कृष्णा से काफी बातें करने लगे.

वैसे भी  कॉलेज फेस्टिवल्स अब नजदीक आ रहें थे और तमाम तरह के कम्पीटीशन होने वाले थे. हमेशा की तरह प्रिंसिपल ने उसे बुलाकर कई चीज़ों का इंचार्ज बना दिया था. डिबेट का पूरा कार्यक्रम उसे देखना था. फेस्टिवल के अलग-अलग डिपार्टमेंट्स के हेड भी स्टूडेंट्स  में से उसे ही नियुक्त करने थे . उसे काफी काम होता. डिपार्टमेंट में भी वो आती तो ढेर सारे पेपर वर्क करती  रहती. वीरेंद्र पहले की तरह कुर्सी खींच ...बैठ जाते और कोई ना कोई टॉपिक  शुरू  करने की कोशिश करते. वह भरसक प्रयास करती की उनकी बातो को ध्यान से सुने पर अब उसे  समय ही नहीं मिलता  और ये भी सोचती अब वे नितांत अकेले भी नहीं...कृष्णा से तो उनकी बात-चीत होती ही रहती है. हाँ-हूँ में जबाब देती तो वे चिढ कर उठ जाते. कभी उनके  यूँ अचानक उठ कर चले जाने पर बुरा भी लगता पर वो मजबूर थी.

कृष्णा भी जब भी अकेले में मिलती, कहती "क्या मुसीबत है,जैसे वे घड़ी देखते होते हैं...क्लास ख़त्म कर ,जैसे ही रजिस्टर रख कर जरा सा दम लो और पहुँच जाते हैं, ' नमस्ते कृष्णा  जी..कैसी हैं आप?' अब रोज भला कैसी होउंगी मैं...अच्छी मुसीबत, गले  डाल दी है तुमने "

"अरे,बेचारे अकेले हैं...थोड़ा झेल लो..मैने क्या कम झेला है इतने दिनों...फिर मिलकर उनकी शादी करवा देते हैं...अपनी नई पत्नी के साथ फोन पे चिपके रहेंगे ..हमें छुटकारा मिल जायेगा.."..हंस पड़तीं दोनों

"हाँ, ये ठीक रहेगा..जल्दी करो कुछ...वरना हम अपनी  बातें तो कर ही नहीं पाते.".... ये सच था कृष्णा और उसकी कितनी सारी गर्लिश टॉक अब  वीरेंद्र की  उपस्थिति के चलते गए दिनों की बात हो गयीं  थीं. कितने ही दिन हो गए और उन दोनों ने स्टुडेंट्स की बातें भी नहीं शेयर कीं. आजकल के स्टुडेंट्स,में गुरु-शिष्य वाली  भावना का लेशमात्र नहीं था. एक तो उनकी कच्ची  उम्र और उसपर अनुशासन का अभाव और फिल्मो,टी.वी. के प्रभाव ने काफी उच्छृंखल बना दिया था, छात्रों को.  महिला लेक्चरर्स की तो मुसीबत ही थी. कभी कोई लड़का लेक्चर के दौरान एकटक चेहरे पर देखता रहता. कुछ उसे कहा भी नहीं जा सकता. कह देता,"मैं तो ध्यान से सुन रहा हूँ" कभी कॉपी करेक्शन को दें तो उसमे हीरो हिरोइन की तस्वीरें या फिर कोई मनचला सा गीत लिखा होता. एकाध बार तो क्लास से बाहर निकलते  ही लड़कों  ने मोबाइल से तस्वीर भी खींच ली. डांटने पर बेशर्मी से कह देते ,"मैडम आप अच्छी लगती  हैं" एकाध बार उनके मोबाइल भी सीज किए पर कुछ दिन बाद खुद ही जाकर लौटाना पड़ा, महंगे मोबाइल्स थे..पता नहीं पैरेंट्स ने कितने खून पसीने की कमाई लगा दी होगी और ये आज के ढीठ बच्चे ,वापस मांगने भी नहीं आते. पर ये सब सत्र की शुरुआत में ही होता..धीरे- धीरे  जैसे टीचर-स्टुडेंट्स एक दूसरे को समझने लगते और एक रिश्ता सा बन जाता...फिर तो अपनी कितनी सारी समस्याएं  भी लेकर आते, जिसे वो और कृष्णा आपस में डिस्कस कर सुलझाने की कोशिश करते. पर अब  वीरेंद्र के सामने ये सब बातें करना मुश्किल हो गया था.

उसकी व्यस्तता बढती ही जा रही थी. अभी भी वीरेंद्र नियमित उसके डिपार्टमेंट में आते उसे नमस्ते जरूर कहते..दो मिनट बैठते..पर फिर विषय के अभाव में बात आगे नहीं बढती...'आज गर्मी है... 'लगता है बारिश होगी'...' आज तो मौसम अच्छा लग रहा  है..' बस..इसके आगे कुछ सूझता ही नहीं...
उस दिन भी सोच ही रही थी कि अगला वाक्य क्या कहे कि वीरेंद्र बोले..."कृष्णा जी नज़र नहीं आ रहीं....ये पत्रिका उनके यहाँ से लाई थी...लौटानी थी"

"कृष्णा के यहाँ से ?? " वो कुछ समझी नहीं.

"हाँ, वो बताया था ना आपको, एक मामा भी इसी शहर में हैं...वे कृष्णा जी के घर के पास ही रहते हैं...जब उनसे मिलने जाता हूँ...तो कृष्णा जी के यहाँ भी चला जाता हूँ."

"अच्छा....हाँ,मामाजी की बात तो आपने बतायी थी...कृष्णा के यहाँ की नही..."
"बस पांच-दस मिनट तो बैठता हूँ...क्या बताना  इसमें.."

"ओके .." कहने को तो उसने कह दिया...पर सोचती रही...एक-एक बात बताते हैं...और ये बात गोल कर गए...और कृष्णा ने भी नहीं बताया कुछ...जबकि  वीरेंद्रसे सम्बंधित तो हर बात बताती है...शिकायत ही सही...जिक्र तो रोज उनका  हो ही जाता है.
और करीब दो महीने बाद  जाकर, कृष्णा ने  एकदम कैजुअली कहा.." उस दिन वीरेंद्र घर आए तो बता रहे थे उनका कुक अब तक नहीं लौटा  गाँव से""
"वो तुम्हारे घर भी  जाते हैं?"
"अरे..कभी कभार...वो भी दस- पंद्रह  मिनट के लिए.."
"पर तुमने कभी बताया नहीं..."
"इसमें बताने जैसा क्या..था..."
"हाँ ये भी है......." कह तो दिया उसने पर सोचती रह गयी...वे दोनों   तो कॉलेज से सम्बंधित हर घटना का जिक्र एक दूसरे से जरूर करते थे. किसी प्रोफ़ेसर ने उसे लिफ्ट देने की  पेशकश की...या पहली बार हलो कहा...या किसी ने काम्प्लीमेंट  दिए....छोटी से छोटी कोई बात बताना नहीं भूलती पर वीरेंद्र  के घर पर आने वाली  बात, बतानी  उसने जरूरी नहीं समझी.

उसकी व्यस्तता बढती जा रही थी...और वीरेंद्र की नाराज़गी  भी. सारे खाली पीरियड्स ...स्टुडेंट्स के साथ मीटिंग्स...फेस्टिवल की तैयारियों  में निकल  जाते. डिपार्टमेंट में बैठना भी बहुत कम हो गया था उसका. कभी जाती तो देखती....वीरेंद्र, कृष्णा के पास की कुर्सी पर बैठे हैं. कभी कभी तो उसके हलो को भी नज़रअंदाज़  कर जाते. कृष्णा जरूर पूछती..."कितना बिजी रहने लगी हो.."
"अरे... पूछो मत...बस ये फेस्टिवल निकल जाए...तो चैन मिले."
"नहीं पसन्द, तो करती क्यूँ हैं... इतना काम..." अब वीरेंद्र फूटते
"करना पड़ता है...किसी को तो करना पड़ेगा ही ना...एंड आइ  एन्जॉय डूइंग इट "
"फिर शिकायत मत किया कीजिये...जरा विद्रूपता से कहा उन्होंने....उसे बुरा तो बहुत लगा...पर कुछ कह नहीं पायी "
ऐसा अक्सर लोग  कह जाते हैं...मनपसंद काम करने से भी थकान तो होती है...लेकिन लोग  उसके विषय में एक शब्द सुनना नहीं पसंद करते...अगर अपनी इच्छानुसार कोई काम करो तो फिर होठ  सी लो..दर्द पी लो...जुबान पे कुछ ना लाओ..वरना सुनने को मिलेगा..." किसने कहा ,करने को .

मन खिन्न हो आया. आजकल वीरेंद्र सिर्फ उसे इरिटेट करनेवाली  बाते ही किया करते थे. अक्सर सोचती..ये कृष्णा से उनकी इतनी कैसे बनने लगी?.आखिर किन विषयो पर बात करते हैं.?.क्यूंकि वीरेंद्र के पास तो कोई विषय ही नहीं थे और उसे लगता था ,कृष्णा बिलकुल उस जैसी थी......पर शायद दोनों की वेवलेंथ मिलती हो...एक जैसी पसंद नापसंद हो...

वीरेंद्र जरा थे भी भोंदू किस्म के  ..छोटे से कस्बे से ,कभी महिलाओं से ज़िन्दगी में बात की नहीं...और यहाँ पत्नी की सहेली की वजह से मिले अवसर का खूब  फायदा उठा रहे थे. प्रैक्टिकल क्लासेज़ में उनकी उपस्थिति अनिवार्य थी. पर वो भी लैब असिस्टेंट के भरोसे छोड़, यहाँ जमे रहते. उनसे सहानुभूति वश कोई सवाल नहीं करता. पर साइंस फैकल्टी के लोग उसे  ही सुना जाते, "अपने काम को तो सीरियसली लेना चाहिए ..आखिर रोटी वहीँ से मिलती है." उन्हें लगता,उसकी सिफारिश पर वीरेंद्र को यह लेक्चररशिप मिली है,तो कुछ जिम्मेवारी उसकी भी बनती है.
  वह क्या कह  सकती थी ? अब वीरेंद्र के बैठने की जगह भी बदल  गयी थी. पहले वे उसकी दायीं तरफ बैठते थे...कृष्णा से परिचय करवाया तो दोनों के बीच की कुर्सी पर बैठने लगे..अब देखती , कृष्णा की बायीं  तरफ  बैठते हैं...वो डिपार्टमेंट में आती ही कम...और जब आती भी तो देखती...साइकोलोजी वाली नीलिमा और संस्कृत पढ़ाने वाली शकुंतला जी भी बैठी हैं...और गप्पो के दौर चल रहें हैं...मुस्कराहट आ जाती,उसके  चेहरे पर...दोस्त बनाने से अरुचि रखनेवाले वीरेंद्र को महिला दोस्त बनाने से कोई परहेज नहीं था.

अब पता नहीं क्यूँ ,अपने डिपार्टमेंट में जा कर बैठना ,उसे अच्छा नहीं लगता. उनकी गप्पे चलती रहतीं... इंट्रूडर जैसा लगता. उसने स्टाफरूम में बैठना शुरू कर दिया. यहाँ ज्यादातर..इंग्लिश,हिंदी,, जोग्रोफी वाले प्रोफ़ेसर बैठते थे. पर सुखद आश्चर्य हुआ उसे ,पहले क्यूँ नहीं आई, इनके सान्निध्य में. बड़े नौलेजेबल लोंग थे. किसी किताब की यूँ मीमांसा करते कि वो मुग्ध सुनती रह जाती. बात-बात पे कोटेशन्स..गीता, रामायण..उपनिषदों से उद्धरण ...रोज ही कुछ नया सीखने को मिलता. स्वस्थ बहस भी होती..कभी-कभी तीखी भी पर एक दूसरे के विचारों का सम्मान करते सब. अपने विचार दूसरे पर थोपने की कोशिश नहीं करते.

फिर भी उसे अपने डिपार्टमेंट में तो जाना ही पड़ता. कृष्णा एक औपचारिक 'हलो' कहती.वीरेंद्र, अगर होते तो वो भी नहीं कहते. दूसरी तरफ देखते रहते. कभी सामने पड़ गए...तो वो 'नमस्ते' कह देती..और वे सिर्फ सर हिला कर चले जाते. अजीब लगता उसे. पर सोचने की फुरसत कहाँ थी..अब डिबेट्स के इनिशियल राउंड शुरू हो गए थे. उसमे पूरी तरह मुब्तिला थी वो. कभी- कभी उसकी क्लास भी छूट जाती. पर ऐसा तो हर वर्ष होता...वो बाद में एक्स्ट्रा क्लास ले सिलेबस पूरा कर देती.पर उसके कानो में कुछ  अजीब सी बात पड़ी...जब केमिस्ट्री  की रीमा कपूर ने कहा, ' "वीरेंद्र जी  आपके मित्र हैं ना..."
"हाँ..क्यूँ.."
"कुछ नाराज़ हैं क्या आपसे...?"
"नहीं तो..क्या हुआ.." उसे लग तो रहा  था,पर वो दुसरो के सामने क्यूँ स्वीकारे ये सब. 
"पता नहीं...कल आपको बहुत क्रिटीसाईज  कर रहें थे...कह रहें थे...'ये क्या बात हुई..क्लास में इतना शोर हो रहा है..कॉलेज में तो पढाना पहला धर्म होना चाहिए...ये डिबेट्स वगैरह ,सब तो ऑफ टाइम में होना चाहिए....आपकी सहेली  भी वहीँ थीं..."

"हम्म...होगा कुछ...मैं बात कर लूंगी ..चलूँ अभी...कुछ काम है " वो ज्यादा बढ़ावा  नहीं देना चाहती थी.

फिर तो अक्सर ही कोई ना कोई कह जाता...' वीरेंद्र जी इतना नाराज़ क्यूँ हैं,आपसे...आपके पढ़ाने के तरीके की बड़ी बुराई कर रहें थे कि उनकी क्लास में कितना शोर होता है..स्टुडेंट-टीचर का रिलेशन पता ही नहीं चलता...वे बहुत फ्रेंडली हो जाती हैं...स्टुडेंट के मन में हमेशा टीचर का डर होना चाहिए...और कृष्णा जी की बड़ी तारीफ़ कर रहें थे कि कितनी शान्ति होती है क्लास में...कोई शोर-शराबा नहीं...टीचर तो ऐसी होनी चाहिए"

" अब इसमें क्या कहा जाए...उन्हें कृष्णा का पढ़ाना अच्छा लगता होगा.." कह कर वो बात ख़त्म कर देती.

कृष्णा और उसका पढ़ाने का ढंग अलग  था . कृष्णा नोट्स बना कर ले जाती. क्लास में पढ़कर थोड़ा एक्सप्लेन कर चली आती.  स्टुडेंट्स खुश होते,बना बनाया नोट्स मिल जाता. जिसे रटकर वे परीक्षा में अच्छे नंबर ले आएँ. जबकि वो कोशिश करती कि बिना किसी नोट्स के पढाये...और विषय समझाने की कोशिश करे कि क्लास में ही कुछ तो उनके दिमाग में रह जाए. इस चक्कर में काफी सवाल जबाब होते और बाहर वालो  को लगता शोर हो रहा है.पर और किसी ने तो कभी शिकायत नहीं की.पता नहीं वीरेंद्र को उस से क्या प्रॉब्लम  हो गयी है. शायद उन्हें लगा वो जान-बूझकर इग्नोर कर रही है. पर सबकुछ तो सामने ही था .वो वीरेंद्र से तो  कुछ भी नहीं पूछ्नेवाली ..इतना कुछ किया है उनके  लिए ,उसका सिला जब वे ,ये दे रहें हैं ,तो क्या बच जाता है पूछने को. उनकी मर्जी.

पर उसने  कृष्णा से इसकी चर्चा करने की सोची.

कृष्णा ने छूटते  ही कहा.."क्या पता तुमलोगों के बीच क्या मिसअंडरस्टैंडिंग है . वीरेंद्र जी बहुत हर्ट हैं"

"अच्छा इसीलिए सब जगह मेरी बुराई करते चल  रहें हैं....और सब तो तुम्हारे सामने ही है ना...कैसी मिसअंडरस्टैंडिंग??...तुम्हे तो सब पता है, मैं बिजी रहने लगीहूँ.....उनसे ज्यादा बात नहीं कर पाती, अब " मन कसैला हो आया उसका. उसकी  इतने दिनों की सहेली भी बात समझने की कोशिश नहीं कर रही .

"अब मुझे क्या पता....तुम दोनों के बीच क्या हुआ है...कह रहे थे, सरिता जी अब बात नहीं करतीं...."

"अरे, तुम्हारे सामने तो कितनी बार हलो कहा है...और उन्होंने जबाब भी नहीं दिया...अजीब बात है...हाँ,बाद में मैने भी छोड़ दिया...मैं भी इतनी फालतू नहीं"

"अब मुझे क्या पता....और मुझे क्या मतलब इन सब बातों से....ये तुम दोनों के बीच की बात है....पर वे बहुत हर्ट हैं  "

"हम्म..ठीक  है जाने दो.." वो समझ गयी, जब वीरेंद्र उसकी प्रशंसा के पुल बांधते फिर रहें हैं तो उसे उनका कोई दोष कैसे नज़र आएगा. चाशनी का ड्रम ही सामने उंडेल दिया गया हो तो पैर तो वहीँ चिपक जाएंगे ना.

एक दिन क्लास लेकर निकली ही थी कि प्यून बुलाने आया..."प्रिंसिपल साहब ने आपको अपने ऑफिस में बुलाया है"

चौंक गयी वो.."अब तो फेस्टिवल ख़तम हो गए...अब कौन सा काम आ पड़ा"

प्रिंसिपल बड़े इत्मीनान में दिखे ,उसे बिठाया ,इधर-उधर की बातें करने लगे ....वो समझ नहीं पा रही थी उनके बुलाने का प्रयोजन क्या है...फिर अचानक उन्होंने पूछा, "आपकी किसी से कोई नाराज़गी कोई बहस हुई है क्या...?"

हम्म तो ये बात है..पर इन तक वीरेंद्र की बात किसने पहुंचाई होगी ?

उसे नकारात्मक सर हिलाते देख उन्होंने कहा.."ऐसी कोई सीरियस बात नहीं... एक इमेल आया है...उसमे आपके खिलाफ काफी बातें कही गयीं है...मैं  सोचने लगा, आप तो इतनी डेडिकेटेड हैं अपने काम के प्रति...किसे शिकायत होगी...कोई पारिवारिक दुश्मनी  तो नहीं...किसी से?"

पर मन काँप गया ,उसका.."कैसी बुराई...क्या कहा गया है?"

" खुद देख लीजिये....आइ डी  भी फेक सा ही लगता है कुछ 'वी' से है ."...कहते उन्होंने लैपटॉप उसकी तरफ कर दिया....एक नज़र देखा उसने, बचकानी बातें थीं..." सरिता तो प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने लायक भी नहीं....उन्हें कॉलेज में कैसे रख लिया आपने..पढ़ाने से ज्यादा उनका मन दूसरी चीज़ों में लगता है...वगैरह..वगैरह..." इतनी गलत अंग्रेजी लिखी थी कि उसे पढने में भी वितृष्णा सी हो रही थी. इस गलत अंग्रेजी और 'वी'  के इनिशियल ने उसका शक यकीन में बदल  दिया..ये वीरेंद्र ही थे..पर उसने कुछ कहा नहीं.

उसे विचार मग्न देख, प्रिंसिपल ने आश्वस्त किया.."इतनी चिंता की बात नहीं..मैने सिर्फ इसलिए बता दिया कि आप  सावधान हो जाएँ....क्या पता, आप जिन्हें दोस्त समझ रही हों...उनमे से ही कोई हो"..उनका अनुभव बोल रहा था.

"थैंक्यू सो मच सर...अगर और इमेल्स आएँ तो बताएं...फिर कोई एक्शन लेना पड़ेगा.."

"हाँ वो तो मैं खुद ही पता लगा लूँगा...बस आपको सावधान करने को यह बताया..."

फिर से  थैंक्स कहती वो बाहर चली आई....मन हो रहा था 'कंप्यूटर लैब में जाकर एकबार अपना मेल भी चेक कर ले...क्या पता उसे भी कुछ भला-बुरा कहा हो. पर वो लास्ट पीरियड था. क्लास रूम्स बंद होने शुरू हो गए थे. शैलेश टूर पर गए हुए थे ,वरना रात में उनके लैप टॉप पर ही चेक कर लेती...

अगर ये वीरेंद्र ही हैं..पर उनके सिवा और कौन होगा...तो कितनी बड़ी गलती की  उसने, उनसे  लैपटॉप खरीदने की सलाह देकर.....वीरेंद्र बिलकुल तैयार नहीं थे..."मुझे क्या काम...मुझे इसकी क्या जरूरत"
उसने समझाया था.."अकेलेपन का बढ़िया साथी है"...कहकर  इंटरनेट के सारे गुण उनके सामने गा डाले थे.

उन्हें कुछ नहीं आता था..उसे भी ज्यादा कहाँ पता था...पर उसने कम्प्यूटर टीचर ' करण दोषी ' से अपनी पहचान  का फायदा उठाया. कॉलेज फेस्टिवल के समय, स्पौन्सर्स से इमेल के  आदान-प्रदान का भार,उसने करण दोषी  पर ही डाल रखा था. हंसमुख और कर्मठ लड़का था, अपने ऑफिशियल काम से कितने ही इतर काम करने को हमेशा तैयार रहता था. वीरेंद्र  ने लैप टॉप  के उपयोग  की सारी जटिलताएं उस से सीख लीं, थीं.
दूसरे दिन पहला क्लास लेकर आई ही थी कि मिस्टर जुनेजा...भागते हुए उसके पास आए..."चलिए जरा आपको कुछ दिखाना है.."

उसने सोचा..."तस्वीरें होंगी...पर उन्होंने अपना मेल बॉक्स खोला...और वही मेल उनके इन्बौक्स में भी पड़ा था "
उसने बताया , कि प्रिंसिपल को भी ऐसा मेल भेजा जा चुका है...."कौन हो सकता है?"...उन्होंने पूछा...
"क्या पता..."
उसके जबाब पर वो खुद ही बोले..."मुझे तो वीरेंद्र साहब ही लगते हैं...आजकल नाराज़ चल रहे हैं आपसे..जिधर देखो..आपके गुण गाते चलते हैं.."
"अच्छा...आपको भी  पता चल गया..".हंस पड़ी वो..
"हम अपनी तस्वीरों की दुनिया में रहते हैं..पर यहाँ की खबर  हमें भी होती है..आपकी शान में कसीदे तो पढ़ते ही रहते हैं...और दूसरी महिला लेक्चरर्स के सामने तो जैसे अगरबत्ती, धूप जला,बस दंडवत को तैयार."
"ह्म्म्म..." 
"वो ठीक है...उनकी अपनी मर्जी...पर जरूरी है कि एक की  बुराई करके ही दूसरे की तारीफ़ की जाए?"
"यही तो मैं सोचती हूँ.....ठीक है...मेरे सारे काम में त्रुटियाँ हैं...पर उन्हें  क्या फर्क पड़ रहा है...मुझे मेरे हाल पर छोड़ दें,ना "
"तब मजा नहीं ना...जबतक दूसरों के लिए गाए  आरती -भजन आपके कानो में ना पड़ें..क्या मजा उनका...घंटी की टुनटुनाहट तेज करनी ही पड़ती  है..." मुस्कुराते हुए कहा मिस्टर जुनेजा ने.

उसे जोर की हंसी आ गयी...मिस्टर जुनेजा आगे बोले, "फ़िक्र ना करें....अगर ये फेक मेल भेजने वाली, हरकत जारी रही तो कुछ किया जाएगा."
"फ़िक्र कैसी....अगर वे नहीं संभले तो  तो असलियत तो सामने आ ही जायेगी "

और यही हुआ..धीरे-धीरे जो भी नेट पर सक्रिय थे ..सबके पास वो इमेल और उसके साथ ही उस जैसे कई इमेल्स पहुँचने लगे. पता नहीं कहाँ से सबके इमेल आइ.डी. भी पता कर लिए थे...उसने सोचा, 'दूसरा कोई काम तो है नहीं. खाली  दिमाग शैतान का घर...करे भी क्या. कोई जुगत लगाई होगी '

उसे भी इमेल्स  मिलते .पर वो तो डर कर घर पर चेक भी नहीं करती अगर शैलेश ने देख लिया तो फिर तूफ़ान मचा देंगे. वे चुप नहीं बैठने वाले. तुरंत ही आइ.पी. एड्रेस पता कर एक्शन ले डालते..और बेकार का कॉलेज में एक चर्चा का विषय बन जाता. सोच में पड़ गयी वह....घर से बाहर निकल कर काम करने वाली औरतों को कितना कुछ सहना पड़ता है..कैसी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है...और उसे वे  'मजबूर' घर में भी शेयर नहीं कर पातीं.

शायद उसकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया ना देख . वीरेंद्र की हताशा बढती गयी और उन्होंने करण दोषी को भी ऐसे मेल भेज दिए .करण तुरंत हरकत में आ गया... पच्चीस  साल का लड़का...जोश से भरा...कुछ नया करने को मिला. सीधा उसके पास आया...किसकी हरकत हो सकती है??...और उसने अपना शक बता दिया...वो तुरंत काम में लग गया.
क्लास लेकर निकल ही रही थी कि शकुंतला जी मिल गयीं....उनका फिर से वही प्रश्न.." वीरेंद्र जी  इतने  नाराज़ क्यूँ है आपसे..."

अब कहाँ से लाए वो कोई वजह...जो थी फिर से दुहरा दी. तभी पीछे से करण ने जोर से आवाज़ दी...."सरिता मैडम"

उसके कदम रूक गए.....शकुंतला जी को देख  कर थोड़ा हिचकिचाया..पर उसने कहा.."ये सब जानती हैं...बोलो क्या पता चला?"

"मैडम ये वही वीरेंद्र जोशी हैं ना ...उन्होंने अपनी  आइ.डी. मेरे सामने ही तो  बनाई थी...आप ही तो लेकर आयीं थीं...उन्हें.....दोनों आइ. डी . का आइ.पी.एड्रेस एक ही है..."
"ओह्ह.." बस इतना ही बोल पायी...शक तो उसे था ही...पर प्रमाण मिल जाने पर सच में एक बार चौंक गयी..शकुंतला जी के चेहरे पर भी आश्चर्य के भाव थे.

उसे चुप देख..करण बोल  पड़ा.
"ये क्या तरीका है...अगर नाराज़ हैं....कोई शिकायत है  तो सामने से बोलो ना.... यूँ फेक आइ.डी. बना कर पीछे से वार क्यूँ....मुझे तो बहुत गुस्सा आ रहा है.."

"बस बस...काबू  रखो गुस्से पर ...ये सब चलता रहता है....और थैंक्यू सो मच...इतना बड़ा काम किया आपने....चलो अपनी क्लास देखो..बाद में बात करते हैं.

शकुंतला जी ने सब सुना....पर बोला कुछ नहीं....उसने ही कहा..." देखिए बिना किसी बात के ...कितनी बात बढ़ गयी "

"अब क्या कहा जाए...गलत तो है ही ये सब "  बस इतना ही कहा उन्होंने. पर उसे संतोष था उनके सामने करण ने यह बात बतायी...अब तो कृष्णा,नीलिमा सबको पता चल जायेगा और उन्हें विश्वास भी करना पड़ेगा.

पर सबके ठंढे रिस्पौंस पर उसे बड़ा दुख हुआ. कृष्णा से भी उसे खुद  ही कहना पड़ा..." सुना ना तुमने....वो फेक इमेल वाले वीरेंद्र ही थे..."

"हाँ....जो भी हुआ बहुत गलत हुआ..." बस इतना ही कहा उसने.

वीरेंद्र  का उसके डिपार्टमेंट में आना बदस्तूर जारी था. अब सबको इमेल वाली  बात मालूम हो गयी थी..अकेले में सब इसकी निंदा कर गए थे पर वीरेंद्र से उसी गर्मजोशी से मिलते. हर्षल को भी देखती...बड़े प्यार से दूर से पुकारता..' कैसे हैं.. वीरेंद्र  स्साब" ऐसा लगता जैसे सब विशेष चेष्टा कर यह दिखाने को आमादा हैं कि उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता...

एक दिन स्टाफरूम में कोई नहीं था .... यही सब सोचते ,यूँ ही चुप सी बैठी थी. नज़र खिड़की के अंदर आ गए बोगनवेलिया के लतरों पर जमी थीं. मिस्टर कुमार के आने का  उसे पता ही नहीं चला...
"क्या हुआ भाई..यहाँ यूँ खामोशी से क्यूँ  बैठी हैं...आज ब्रश-वर्श  नहीं किया क्या.."
"मतलब.." वो अबूझ सा देखती रही
तो फिर बोले,"ओह! लगता है ब्रश करने गयी तो दाँत सिंक में ही गिरा आयीं...इसीलिए नहीं दिख रहें "
हंस पड़ी वो..."ओह, अब समझी...कैसी भूलभुलैया भरी बातें करते हैं..आप भी"
"हाँ... आप ऐसी ही हंसती हुई अच्छी लगती हैं..पर हुआ क्या..ऐसा मूड क्यूँ है आज.."
"कुछ ख़ास नहीं"
"अब बता भी दीजिये "
"आपने मेरी तारीफ़ में कसीदे नहीं सुने क्या...कोई मेरी तारीफ़ में पुलिंदे लिखे जा रहा है.."
"ना..वरना मैं भी कुछ अपनी तरफ से जोड़ देता...कौन हैं ये भलामानुष"
अब वो चुप नहीं रह सकी...और सब बता दिया कि कैसे वीरेंद्र हर जगह उसकी बुराई करते फिर रहें हैं..कैसे फेक इमेल भेज रहे हैं..सबको"
"पर वे तो आपके मित्र थे,ना..हुआ क्या "
"बताया ना...कहने को तो कुछ  भी नहीं हुआ"
"ओके... मैं बात करता हूँ "
"नोsssss    वेsss "..वो जैसे चिल्ला ही पड़ी.
"अरे..मैं अपने तरीके  से बात करूँगा..."
"नहीं प्लीज़.. कुमार....आप रहने दीजिये.." वो घबरा गयी थी..."क्यूँ जिक्र किया आपसे "
"मैं इधर आ रहा था तो उन्हें साइंस डिपार्टमेंट की तरफ जाते देखा है....बीच रास्ते में ही पकड़ता हूँ..वरना वे अकेले नहीं मिलेंगे...डोंट वरी....मैं  बड़े तरीके से बात करूँगा"
और  कुमार तो यह जा वह जा...वे थे ही इतने जल्दबाज .
वह मायूस सी बैठी रह गयी....यह क्या कर दिया उसने ...पता नहीं कुमार क्या बात करें और वीरेंद्र  क्या समझे कि उसने भेजा है...अब क्या कर सकती थी.एकदम उदास सी बैठी थी कि दस मिनट बाद ही कुमार वापस आ गए. वो गुस्से में भरी बैठी थी. पर कुमार तो हँसते हुए बगल की कुर्सी पर जैसे ढह से गए  और पेट पकड़ कर हंसने लगे.
उसने घूर कर देखा तो बोले, "बताता हूँ...."और फिर हंसने लगे .
उसका घूरना जारी रहा तो किसी तरह हंसी रोक बोले, "शांत देवी..शांत ..पर आप ये बताइये इन जनाब से आपकी दोस्ती कैसे हो गयी."
"कहाँ की दोस्ती...आपने ना कुछ सुना ना कुछ जाना और चल दिए...महान बनने..कहा क्या आपने उनसे?"
"मैने इतना ही पूछा कि आपको सरिता जी से क्या प्रॉब्लम है...आप उनको यूँ क्रिटीसाईज  क्यूँ करते फिर रहें हैं...तो वे तो ..वे तो..".कुमार फिर हंसने लगे....फिर हंसी थाम कर बोले ..."सॉरी टू से ..पर वे तो बिलकुल औरतों की तरह बात करते हैं...नाक फुला कर कहने लगे, 'सरिता जी ने मेरा अपमान किया है...मैने कहा ..'तो उनसे जाकर  क्लियर कीजिये...यूँ दुसरो से उनकी बुराई करने का और ये फेक मेल भेजने का क्या मतलब ...तो बोले 'मैंने किसी से कोई बुराई नहीं की ..बल्कि उन्होंने मेरी इन्सल्ट की है...मैं बहुत हर्ट हूँ...हा...हा.. ही इज नॉट वर्थ इट...यु आर बेटर ऑफ हिम...शुक्र मनाइए  जान छूटी..

"मैने हर्ट किया है.....कैसे भला....पूछा नहीं,आपने??"..आवाज़ तेज हो गयी थी,उसकी.

"अरे पूछना क्या...वे खुद ही भरे बैठे थे...कहने लगे...मुझे इग्नोर करती हैं....मुझे एवोयेड करती है...ये बहुत अपमानजनक है मेरे लिए...यही सब कह रहें थे....बाप रे..कैसे गाँव की औरतों की तरह नखरे के साथ बोलते हैं....मैं तो पांच मिनट ना झेल पाऊं ऐसे आदमी को...आपकी इनसे दोस्ती कैसे हो गयी...कई बार आपके डिपार्टमेंट में बैठे देखा है ,इन्हें .."

" इसीलिए तो कह रही थी..आपको कुछ पता नहीं...वे मेरे दोस्त नहीं उनकी पत्नी मेरी सहेली थी.." फिर उसने सारी कहानी बतायी.

तो कुमार हाथ झटक कर बोले ..."बस आपका काम ख़त्म हुआ...आपने अपना कर्तव्य निभाया.इसे यहीं  छोड़ दीजिये और जरा भी चिंता मत कीजिये...आपको पूरा कॉलेज  ज्यादा अच्छी तरह जानता है..वो भोंपू लेकर भी चिल्लाये ना..कोई असर नहीं होने वाला...चाय पीनी है..खूब मीठी सी ...यू विल फील बेटर "

"ना एम आलरेडी फिलिंग बेटर आफ्टर टाकिंग टु यू ..थैंक्स.अ मिलियन ."
'एनिटायीम..बस आप ब्रश करने जाएँ तो ध्यान रखें ..दाँत सिंक में ना गिरा दें..." और दोनों जोर से  हंस पड़े.
***
कुमार से बात करके सचमुच बड़ा हल्का हो आया मन. सच में इतनी तरजीह देने की क्या जरूरत...कितने दिन बोलेंगे. ये बस एक अटेंशन सीकर बेहवियर है. निगेटिव तरीके से ध्यान खींचने की कोशिश . वो कुछ रेस्पौंड ही नहीं करेगी तो खुद ही चुप हो जाएंगे और दोस्ती का क्या..शायद उसकी भूमिका यहीं तक थी...कृष्णा और वीरेंद्र की दोस्ती करवाने के लिए ही ईश्वर ने उसे चुना था. वीरेंद्र को यहाँ स्थापित करवाने और सबसे परिचय करवाने तक की जिम्मेवारी ही उसकी थी. . और अब उसकी जिम्मेवारी पूरी हुई,बस....कैसा गम.

फेस्टिवल  भी अब समाप्ति की ओर  था. सारे इवेंट्स अच्छी तरह संपन्न हो रहें थे. बीच-बीच में हल्की-फुलकी  गड़बड़ियां भी होती  रहीं . डिबेट्स में दूसरे कॉलेज के आए स्टुडेंट्स ने बड़ा हंगामा किया . उसके कॉलेज के सारे डिबेटर्स  को हूट कर दिया. फोर्थ इयर की ज्योति को इतनी अच्छी तरह तैयार किया था . गोल्ड मेडल कहीं जानेवाला नहीं था.पर उन लडको को देखते  ही वह घबरा गयी. काफी कुछ तो भूल ही गयी...जो बोला वो भी डर-डर के. सबको अच्छा नहीं लगा, उसके कॉलेज में आकर दूसरे कॉलेज के बच्चे मेडल  ले गए.पर अब क्या किया जा सकता है.

ऐसे ही  फैन्सी ड्रेस कम्पीटीशन का उसने और फिलौसोफी की मंजुला ने नया कांसेप्ट सोचा था. कोई स्टेज नहीं बनाया...कॉलेज कैम्पस में ही तरह-तरह के वेश धरे स्टुडेंट्स आते रहें. प्रिंसिपल ने दो पीरियड ऑफ देकर इस इवेंट को और्गनाइज़ करने की अनुमति दी थी.पर बच्चो  ने इतना एन्जॉय किया कि दो पीरियड की अवधि समाप्त हो जाने के बाद भी क्लास में नहीं गए. कैम्पस  में ही ही हाहा  करते रहें. जिन प्रोफेसर्स  की क्लास थी..उनलोगों ने थोड़ी नाराज़गी जताई...हालांकि एन्जॉय उनलोगों  ने भी कम नहीं किया.

आज अंतिम दिन था और प्राइज़ डिस्ट्रीब्यूशन  भी था. प्रिंसिपल ने प्रोग्राम की समाप्ति पर उसका अलग से उल्लेख कर उसे धन्यवाद कहा और भूरी-भूरी  प्रशंसा  की. वो तो इतना असहज महसूस कर रही थी कि सर भी नहीं उठा पायी.

सब अच्छी तरह संपन्न हो जाने के बाद अब जी-जान से छूटी पढ़ाई में जुटी थी. पूरे दिन लाइब्रेरी में या स्टाफ-रूम में बैठे नोट्स तैयार करती रहती. उस दिन क्लास ख़त्म हो जाने के बाद मंजुला ने मार्केट चलने का इसरार किया. उसे कुछ शॉपिंग करनी थी. वो बोली, "ठीक है चलो..जरा ये नोट्स और किताबें मैं डिपार्टमेंट में अपने लॉकर  में रख आऊं. "

डिपार्टमेंट तक पहुंची कि उसे ख्याल  आया, "अरे मोबाइल तो ..मेज पर ही छूट गया "
उसने मंजुला को अपना बैग ,,किताबे थमायी  और तेज कदमो से वापस लौट पड़ी. जब मोबाइल लेकर आई तो देखा, मंजुला दरवाजे के पास ही गंभीर मुद्रा में खड़ी है , उसने पूछा..तो उसे होठो पे अंगुली रख चुप हो सुनने का इशारा किया .

अंदर वीरेंद्र  की आवाज गूँज रही थी.."पता नहीं लोगो ने सरिता जी को इतना सर क्यूँ चढ़ा रखा है...किस बात की तारीफ़ कर रहें थे प्रिंसिपल...बटरिंग करती होंगी प्रिंसिपल की...पहले तो सारी जिम्मेवारी दे दी उन्हें...उन्हें ही क्यूँ??..और लोग  नहीं हैं, कॉलेज में...कृष्णा जी हैं...नीलिमा जी हैं..इतने एफिशिएंट लोंग हैं...कितना हंगामा मचा रहा..पूरे प्रोग्राम के दौरान...डिबेट का मेडल दूसरे कॉलेज वाले ले गए...फैन्सी ड्रेस वाले दिन देखा...कोई डिसिप्लीन  ही नहीं..कृष्णा जी एकदम शान्ति से सुचारू रूप से सब करवातीं. सरिता जी को ना तो पढ़ाने का ढंग है..ना क्लास में शान्ति रखने का.....एक काम भी उनका सही नहीं होता..फिर भी लोगो  को देखिए बिना वजह की तारीफ़ करते रहते हैं..."

"अरे जमाना ऐसा ही है....वीरेंद्र  जी" किसने कहा..ये देखने को कमरे के अंदर झाँका तो पाया, वहाँ  तो उसके सारे ही तथाकथित दोस्त भरे पड़े हैं..कृष्णा, शकुंतला जी, नीलिमा तो हमेशा की तरह थी हीं पर उसे आश्चर्य हुआ , मनीषा दी को देख. वे उसकी बड़ी दीदी की सहेली  थीं....उनसे घर जैसा रिश्ता था. हमेशा, उसे मेरी छोटी बहन कह लाड़ लगाती रहतीं. वे भी चुपचाप वीरेंद्र का ये अनर्गल  प्रलाप सुन रही थीं. एक शब्द नहीं कहा उन्होंने कुछ. भले ही ना कहतीं..पर कम से कम वहाँ से हट तो सकती थीं. यह सब सुनने की क्या मजबूरी थी,उनकी? उतना ही आश्चर्य हर्षल को देख भी हुआ. नया -नया उसके हिस्ट्री डिपार्टमेंट  आया था. उसे दीदी कहते उसकी जुबान नहीं थकती . उसका सबसे बड़ा खैरख्वाह बनता था .इतना एग्रेसिव था ,किसी से भी लड़ पड़ने को तैयार. कितनी बार रोका था उसे. और यहाँ, वह भी सब चुपचाप सुन रहा  था.

उसकी आँखे झलझला  आई थीं. मंजुला ने महसूस किया और उसका हाथ पकड़ कर बोली.."चलो..यहाँ से चलते हैं"
उसके लाख मना करने पर भी उसे शॉपिंग  के लिए ले गयी..."अरे मूड ठीक होगा..घर जाओगी तो यही सब सोचते बैठोगी. घर पर कोई है भी नहीं...कि ध्यान बंटेगा..चलो मेरे साथ."

  हँसते-बतियाते..ढेर सारी शॉपिंग की....उसे भी लगा ..अब वो नॉर्मल  है सब भूल गयी है. पर घर की तरफ आते ही जैसे बाँध  की पानी की मानिंद  उन बातों का सैलाब उमड़ पड़ा....और थके-बोझिल कदमो से उसने दरवाज़ा खोल अंदर कदम रखा.

खिड़की के पास खड़ी ...उन्ही बातों के बहाव के साथ मन हिचकोले ले रहा  था .बिजली अभी तक नहीं आई थी.लगता था कुछ मेजर ब्रेकडाउन हो गया है. बाहर फैला घना अँधेरा उसके अंदर भी फैलता जा रहा था. सामने शर्मा जी के बंगले का चौकीदार अपनी लाठी ठक-ठक करता हुआ गेट के पास बैठ गया था.अब पता था वो ऊँची वाल्यूम में अपना ट्रांजिस्टर ऑन करेगा. और अगले ही पल फिजा को गुंजाते हुए  स्वरलहरियां फ़ैल गयीं..गाना बज रहा था,

"कसमे वादे प्यार वफ़ा
सब बातें हैं बातों का क्या
कोई किसी का नहीं
ये रिश्ते नाते हैं, नातों का क्या"

वो ऐसे चौंक उठी जैसे उसकी  ही चोरी पकड़ ली हो किसी ने...उसके मनोभाव का इन गाना प्ले करने वालों  को कैसे चल गया? क्या सचमुच ऐसी ही है दुनिया...ये रिश्ते-नाते क्या कच्चे बखिए से हैं...बिन प्रयास के ही उधड़ जाते हैं. कैसे किसी पर विश्वास करे....हर चेहरे के अंदर एक चेहरा है...जबतक नकाब पड़ी रहें तभी तक दुनिया ख़ूबसूरत है...उसे लगता था ..सबकुछ देख -जान चुकी है...अब कुछ भी बाकी नहीं..दुनिया के हर पैंतरे से वाकिफ है वह... पर इतना  कुछ देखने के बाद भी कितन कुछ अनदेखा -असमझा बाकी रह जाता है...

अनायास ही उसकी नज़र आकाश की तरफ उठ गयी. सुदूर कोने में एक मध्यम सा तारा था . उसकी नज़र पड़ते ही झिलमिलाया ,लगा उसने आँखे झिपझिपा कर हामी भरी हो.

Friday, December 24, 2010

कच्चे बखिए से रिश्ते


ताला खोल,थके कदमो से...घर के अंदर प्रवेश किया...बत्ती  जलाने का भी मन नहीं हुआ..खिड़की के बाहर फैली उदास शाम, जैसे  उसके  मूड को रिफ्लेक्ट कर रही थी...या शायद उसके मन की उदासी ही खिड़की के बाहर फ़ैल कर पसर गयी थी...अच्छा था, आज घर में वो अकेली थी..जबरदस्ती मुस्कुराने का नाटक करने की जहमत पल्ले  नहीं थी....बच्चे अपनी बुआ  के पास गए थे और पति दौरे पर.  जबरदस्ती कोई बात नहीं करनी थी....दिखाना नहीं था कि सब नॉर्मल  है...आज वह जी भर कर अपनी उदासी को जी सकती थी...कब  मिलता है ज़िन्दगी में ऐसा मौका कि अपनी मनस्थिति को बिना कोई मुखौटा लगाए सच्चाई से जिया जा सके. अचानक मोबाइल का ध्यान आ गया...डर लगा, उसके अकेले रहने पर पति से लेकर बच्चे..ननदें...सब फोन करके अपनी उदासी को जीने के मुश्किल से मिले ये पल....कहीं छीन ना लें..और उसे वापस उसी चहकती आवाज में बतियाना पड़े...कि 'चिंता ना करो सब ठीक है'..मोबाइल साइलेंट पर रख,दराज़ में रख दिया. लैंडलाइन का रिसीवर भी उतार कर रख दिया...ख्याल आया कॉफी के साथ ये उदासी एन्जॉय  की जाए....कॉफी में दूध भी नहीं डाली...सारे कॉम्बिनेशन सही होने चाहिए...धूसर सी शाम...अँधेरा कमरा ...ये उदास मन और काली  कॉफी.

कॉफी का मग थामे खिड़की तक चली आई....शाम के उजास को अब अँधेरे का दैत्य जैसे लीलता जा रहा था...और दूर के दृश्य उसके पेट में समाते जा रहें थे. दैत्य ने उसकी खिड़की के नीचे भी झपट्टा मार थोड़ी सी बची उजास हड़प ली. और उसके इस कृत्य से नाराज़ हो जैसे सारे उजाले छुप गए..शहर  की बिजली चली गयी थी. घुप्प अँधेरा फैला था...उसकी नज़र आकाश की तरफ गयी..आकाश में तारों ...अभी कुछ ही देर में पूरी महफ़िल सज जाएगी और सारे तारे जग-मग करने लगेंगे. क्या ये तारे हमेशा ही इतनी ख़ुशी से चमकते रहते हैं या कभी उदास भी होते हैं. इन्ही तारों में से एक उसकी सहेली भी तो होगी...पर वो उसे उदास देख क्या कभी खुश हो सकती है?

रूपा से उसकी टेलीपैथी इतनी अच्छी थी कि उसके अंतर्मन के सात पर्दों में छुपी उदासी की हल्की सी रेखा भी उससे  नहीं  छुप पाती थी. वो कहती थी.."अरे नहीं....सब ठीक है..इट्स फाइन....मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता" तो रूपा गंभीर हो कहती.."अगर कहना पड़े ना..इट्स फाइन..मुझे फर्क नहीं पड़ता  इसका मतलब है...फर्क पड़ता है....बताओ ना ..क्या हुआ " और कितनी  भी कोशिश करती बात टालने की आखिर उसे रूपा को सब बताना ही पड़ता और फिर दोनों मिलकर उस वाकये  की शल्यचिकित्सा  कर डालतीं. उसका मन हल्का हो जाता . पर आज उसका दुख बांटना तो दूर समझनेवाला भी कोई नहीं था .

रूपा कोई उसकी बचपन की सहेली नहीं थी. रूपा के पिता और उसके पिता की पोस्टिंग एक ही जगह हुई थी और वे दोनों अपने-अपने मायके आई हुई थीं...उन्ही दिनों रूपा से मुलाकात हुई थी .जल्दी ही यह पहचान एक गहरी दोस्ती में बदल  गयी...जैसे कोई पूर्वजनम का नाता हो.  मुलाकात तो कम ही होती पर फोन से कॉन्टैक्ट बना रहता. दोनों बच्चों सा किलकती हमेशा एक दूसरे के शहर आ मिलने का जुगाड़ बनातीं पर वह कारगर नहीं हो पाता. रूपा शिकायत करती,कितना अच्छा होता तेरी जगह मेरे पति की तरह तेरे पति भी प्रोफ़ेसर होते और फिर हम गर्मी की  लम्बी छुट्टियां साथ बिताते. ईश्वर ने उसकी उनके एक ही शहर में रहने की पुकार सुनी तो सही पर गिने-चुने दिनों के लिए.

उसके कॉलेज में फिजिक्स  के प्रोफ़ेसर की जरूरत थी और उसने हिचकते हुए रूपा को फोन मिलाया क्या उसके पति इस शहर के कॉलेज में ज्वाइन करेंगे? रूपा तो खबर सुनते ही उछल पड़ी..."क्यूँ नहीं करेंगे....बड़े शहर का बड़ा कॉलेज है.इस कस्बे के कॉलेज से तो हर हाल में अच्छा. हमारी दोस्ती की बात तो जाने दे..पर इनके  कैरियर के लिए भी बहुत  अच्छा है."
वह अक्सर कॉलेज के डिबेट्स..एक्स्ट्रा करिकुलर  एक्टिविटीज़ कंडक्ट किया करती  थी,जिस से प्रिंसिपल से थोड़ी जान-पहचान हो गयी  थी और थोड़ी अनौपचारिकता भी. इसका ही फायदा उठाया और रूपा के पति वीरेंद्र  की सिफारिश कर डाली. प्रिंसिपल तुरंत मान गए. वीरेंद्र  का बायोडेटा भी इम्प्रेसिव ही था. बढ़िया कॉलेज. और बढ़िया पर्सेंटेज और वीरेंद्र   जोशी  ने उसका  कॉलेज ज्वाइन कर लिया.

उसने रूपा को नए शहर में गृहस्थी बसाने में पूरी सहायता की ..घर पर खाने  को भी बुलाया .उसके पति से भी मुलाकात हुई. उसे शरीफ से ही लगे. मितभाषी और थोड़े बोरिंग भी. पर उसने सोचा कौन सी मुलाकात होनी है...वो इतिहास पढ़ाती है...जबकि वे फिजिक्स ..अलग फैकल्टी अलग बिल्डिंग....कभी कुछ सन्देश देना भी हो तो सोच कर जाना पड़ेगा. पर वो यहीं गलत साबित हो गयी. वीरेंद्र  अक्सर उसके डिपार्टमेंट  में आ जाते. शुरू में तो उसे लगा ..अभी किसी और से परिचय नहीं है..दोस्त नहीं बने हैं..इसीलिए आ जाते हैं और शायद...अपनी पत्नी की सहेली को हलो कहना फ़र्ज़ भी समझते हों. पर धीरे धीरे उसे नागवार  गुजरने लगा. खासकर इसलिए कि कोई बात ही नहीं होती करने को. वो ज्यादातर रूपा और उसके बेटे अक्षय की ही बात करती. वे भी खुश खुश दोनों  विषय में कुछ ना कुछ बताते रहते. उसे लगता चलो कितने भी बोरिंग हों..उसकी सहेली का तो अच्छी तरह ख्याल रखते हैं. और उसकी सहेली खुश है तो अपनी सहेली के लिए उसके बोरिंग पति को झेल लेना उसका भी फ़र्ज़ है. वह रूपा को सरप्राइज़ देने के उन्हें नए नए गुर बताती.

रूपा का बर्थडे आ रहा था और उसने वीरेंद्र  को बताया क़ि आप उसे एक रेस्टोरेंट में ले जाइए और उसके मैनेजर से पहले ही बात कर लीजिये क़ि वो कुछ देर बाद उनकी टेबल पर जलती हुई मोमबत्ती के साथ एक केक भेजे और 'हैप्पी  बर्थडे" का म्यूजिक बजाए . और मैने ये आइडिया दिया है..ये बिलकुल मत बताइयेगा ".वीरेंद्र  ने ठीक ऐसा ही किया और दूसरे दिन सुबह सुबह रूपा का फोन आया. ख़ुशी उसकी आवाज़ से छलकी पड़ रही थी, 'ये मेरे लाइफ का सबसे यादगार  बर्थडे था. इसका थोड़ा श्रेय  तुम्हे भी जाता है..तुमने हमें इस बड़े शहर में आने का मौका दिया..उस छोटे से शहर में तो एक ढंग का रेस्टोरेंट भी नहीं था फिर वीरेंद्र  को ये सब पता भी नहीं था . यहीं किसी से सुना होगा उन्होंने.." वो मन ही मन मुस्कराती उसकी ख़ुशी में शामिल होती रही. रूपा खुश है...उसे और क्या चाहिए. इस बार तो वीरेंद्र  ने अच्छी एक्टिंग कर ली.रूपा को पता नहीं लगने दिया क़ि उसने बताया था सब. पर तीज  के वक्त वे भूल  कर बैठे .
उसने यूँ ही पूछ लिया.."कल तीज है..आप रूपा के लिए कुछ ले जा रहें हैं ?"

"मुझे तो ध्यान ही नहीं,  कल तीज है...और क्या ले जाऊं..."

"अरे! वो आपके लिए सारा दिन भूखी रहेगी और आप उसके लिए कुछ नहीं करेंगे??...उससे पूछिए,उसे क्या चाहिए उसे शॉपिंग के लिए लेकर जाइए...आपकी क्लास तो ख़त्म हो चुकी है...बस देर किस बात की...अभी ही घर की  तरफ निकल लीजिये"

वीरेंद्र के चले जाने के बाद उसने लम्बी सांस ली....आज तो एक ही पत्थर से दो शिकार किए , अपनी सहेली को भी खुश कर दिया और वीरेंद्र  से भी जान छुड़ा ली."

पर शायद वीरेंद्र , रूपा के दरवाज़ा खोलते ही उस से पूछ बैठे ..."कल तीज है ना..कुछ लेना है मार्केट से?..चलो इसीलिए जल्दी आ गया हूँ "

और रूपा समझ गयी क़ि उसने ही बताया है...बाद में उसने उस से पूछा..तो वो बिलकुल नकार गयी.

"नहीं मुझे क्या पता..बेचारे ने इतना ख्याल रखा तुम्हारा...और तू  शक कर रही है..नॉट फेयर..."

रूपा हंस पड़ी."नहीं बताना तो मत बता..पर एक गाना याद आ रहा है..'होठों पे सच्चाई रहती  है..जहाँ दिल में सफाई रहती है...."

आज भी वो गाना जब बजता है तो उस से सुना नहीं जाता वो टी.वी. बंद कर देती है...बच्चे भी आश्चर्य करते हैं...' इतना अच्छा गाना तो है.तुम्हारे जमाने का...तुम्हे तो ऐसे रोने वाले गाने ही पसंद है...क्यूँ बंद कर दिया.."

वो बहाने बना देती है..." आजकल कहाँ किसी के होठो पे सच्चाई और दिल में सफाई होती है..इतना झूठा गाना नहीं सुना जाता..." सच बता भी दे तो कोई भी उसके दुख को उस गहराई से महसूस नहीं कर पायेगा..क्या फायदा बोलने का .

वीरेंद्र  तो नियमित आते रहते पर रूपा से उसकी बात नहीं हो पा रही थी...रूपा  जब कॉल करती तो वो  क्लास में होती या कहीं और .... जब वो कॉल करती तो..रूपा नहीं उठाती..कभी किचन..बाथरूम या फिर कभी सब्जी लाने गयी होती तो कभी बेटे को स्कूल छोड़ने. वीरेंद्र  ने भी शिकायत की कि रूपा परेशान है, उस से बात नहीं हो पा रही . जब उसने कहा कि वो तो फोन करती है घर पर रूपा फोन ही नहीं उठाती..तो वीरेंद्र  तुरंत बोले, "मेरे मोबाइल पर कर लीजिये..मैं जाकर दे दूंगा.." उसे उन्हें नंबर देना गवारा नहीं हुआ...कॉलेज में उनकी कंपनी क्या कम झेलनी पड़ती है कि अब फोन पर भी झेले. उसने मुस्कुरा कर बहाने बना दिए.."रूपा को ही एक मोबाइल लाकर दे दीजिये ना...रूपा बाहर भी जाएगी तो उसका फोन उठा सकती है..या फिर उसका नंबर देख कॉल बैक तो करेगी.

दो दिन बाद ही वीरेंद्र  ने बताया कि रूपा के लिए मोबाइल ले दिया है..अब आप अपना नंबर दे दीजिये..उसने कहा.."ना आप रूपा का नंबर दीजिये..मैं उसे फोन करके सरप्राइज़ कर दूंगी..."
ओके  कह कर उन्होंने नंबर भी दे दिया उसने सेव तो कर लिया..पर घर गयी तो आदतन ,लैंड लाइन  ही खटका डाला. रूपा ने बताया वो दो दिन बाद ही हफ्ते भर के लिए सापरिवार कोई शादी अटेंड करने ससुराल  जा रही है.

वीरेंद्र  भी छुट्टी ले चले गए . कुछ दिन तक कोई खबर नहीं आई . वह समझ रही थी, रूपा रिश्तेदारों  में बिजी होगी...वापस शहर आते ही फोन करेगी. पर पता नहीं क्या इंट्यूशन हुआ ,एक शाम  यूँ ही कॉल कर बैठी..दो मिनट के लिए ही सही....बात कर लेगी. पर रूपा ने ना तो फोन उठाया ना ही कॉल बैक किया. उसे आश्चर्य हुआ,अगले दो दिन में उसने कई कॉल कर डाले पर रिंग होता रहा. फोन नहीं उठाया उसने. उसका कॉल भी नहीं आया तो उसे आश्चर्य हुआ.पता था, बिजी होगी..फिर भी एक बार भी फोन ना उठाये ऐसी क्या व्यस्तता..उसके बाद अक्सर ही वो कई कॉल कर डालती पर नतीजा वही..नो रिस्पौंस सोचा ,लगता है..रिश्तेदारों में ज्यादा ही व्यस्त है..पर कुछ दिन बाद जो खबर आई  वो तो सबका दिल दहला गयी. अब रूपा किसी भी व्यस्तता से छुट्टी पा चुकी थी..एक भीषण बस एक्सीडेंट में अपने बेटे के साथ इस लोक को विदा कह चुकी थी. वीरेंद्र  को कई फ्रैक्चर्स थे पर ज़िन्दगी को कोई खतरा  नहीं था. आखिर रूपा ने उनकी लम्बी ज़िन्दगी के लिए व्रत जो रखे थे और सफल हुई थी उसकी पूजा.

उसके दुख का कोई ठिकाना नहीं था पर वीरेंद्र  के दुख के सामने उसका दुख नगण्य था. कॉलेज के काफी लोग   मिलकर  उनके शहर हॉस्पिटल में देखने गए थे. वीरेंद्र  ने एक भी बात नहीं की  बस शून्य आँखों से छत देखते रहें थे. उसका कलेजा मुहँ को आ गया था. वीरेंद्र  के स्वस्थ होने की प्रार्थना करती रहती पर साथ ही सोचती हॉस्पिटल से निकल वे वापस  कैसे सामन्य ज़िन्दगी जी पाएंगे. उसके दुख की सीमा नहीं थी.

इस हादसे के करीब दो महीने बाद.... कॉलेज से आ कपड़े समेट रही थी कि उसका मोबाइल बज उठा..देखा..'रूपा कॉलिंग' वो तो जड़ हो गयी...उसने नंबर डिलीट ही नहीं किया था. समझ गयी वीरेंद्र  होंगे दूसरे एंड पर .किसी तरह कांपते हाथो से फोन उठाया. वीरेंद्र  की आवाज़ आई..'इस नंबर से बहुत सारे मिस्ड कॉल थे इस सेल पर" उसका गला भर  आया...किसी तरह रुंधे हुए स्वर में बताया.."वीरेंद्र  जी....मैं हूँ ....सरिता  " और वीरेंद्र  दहाड़ मार रो पड़े..उसकी भी सिसकियाँ बंध गयीं. उस दिन तो कुछ भी बात नहीं हो पायी..."ये क्या हो गया सरिता जी.."..बस बार बार यही कहते रहें..."आपकी सहेली मुझे छोड़कर चली गयी.."

वीरेंद्र  हॉस्पिटल से डिस्चार्ज हो घर आ गए थे .पर अभी पूर्ण स्वस्थ होना बाकी था. अब अक्सर  वीरेंद्र  के फोन आने लगे....वो उन्हें अपनी शक्ति भर ढाढस   बताती रहती . हमेशा निराशावादी बातें करते .."अब क्या करूँगा जीकर...कैसी नौकरी...अब रिजायीन कर दूंगा ..किसके लिए पैसे कमाना है.." वो उन्हें समझाती रहती..वही सैकड़ों बार कही बातें दुहराती रहती.."जानेवाला तो चला गया...अब जीना तो पड़ेगा..वगैरह ..वगैरह "

उनके दुख से वह  भी दुखी हो जाती...समझ नहीं पाती..उन स्मृतियों से भरे  घर में अब वो किस तरह रह  सकेंगे...उसे लगता ,शायद वही अपने  माता-पिता के पास ही वे रह जाएँ...किसी ना किसी कॉलेज में नौकरी उन्हें मिल ही जायेगी. पर जब एक महीने बाद उन्होंने कहा कि वे उसी कॉलेज में ज्वाइन करने आ रहें हैं तो बहुत आश्चर्य हुआ उसे. पर फिर सोचा ,आखिर उन्हें नई ज़िन्दगी भी तो शुरू करनी होगी...इतनी बढ़िया नौकरी क्यूँ कुर्बान करें. शुरू में दसेक दिनों तक माता-पिता साथ आए थे पर फिर अपनी जगह छोड़ उनका मन नहीं लगा...और वे वापस चले गए...अब वीरेंद्र  नितांत अकेले थे अपने घर में..सोच कर उसकी रूह काँप जाती ,'हर तरफ यादें बिखरी पड़ी होंगी..कैसे रह पाते होंगे..

अब भी वीरेंद्र  खाली पीरियड होते ही उसके डिपार्टमेंट में चले आते. अब तो सबकी सहानुभूति थी उनके साथ. वह भी  पूरी कोशिश करती कि उनका दुख बांटने की कोशिश करे..पर मुश्किल थी, कैसे.??.'संवाद अब भी उनके बीच नहीं हो पाता और अब तो कुछ विषय भी प्रतिबंधित हो गए थे..पहले रूपा की... उनके बेटे की कितनी बातें कर लेती  थी..अब ध्यान रखती की गलती से भी उनका नाम ना आ जाए ,उसकी जुबान पर. अपने बच्चों की ही पढ़ाई की स्कूल की  बातें किया करती थी  ..पर अब अपने बच्चों  का भी नाम नहीं लेती कि कहीं उन्हें अपने बेटे की याद ना आ जाए.

वीरेंद्र  बताते रात भर वे सो नहीं पाते हैं...और उनकी स्थिति  वो समझ सकती थी. उसने सुझाया
"योगा किया कीजिये ..मन भी शांत होगा और नींद भी समय पर आ  जाएगी"

"पर सुबह उठूँ कैसे...चार-पांच बजे सुबह तो नींद आती है.."

"बस एकाध दिन कोशिश कर उठ  जाइए..फिर बॉडी क्लॉक सेट हो जायेगा और जल्दी नींद आ जाया करेगी."

"नहीं हो पाता कितना भी कोशिश करता हूँ..नींद नहीं खुलती "

"ठीक है..मैं उठा दिया करुँगी.." और वह सुबह बच्चों के लिए टिफिन  बनाने  उठती और किचन से उन्हें फोन करके उठाया करती कि कहीं पति ना जाग जाएँ. पति कितने भी उदार थे ..वीरेंद्र  से सहानुभूति भी थी...पर सुबह -सुबह अपनी  बीवी का किसी और को फोन करके जगाना भी नागवार ना गुजरे..ये अपेक्षा उनके मेल इगो से कुछ ज्यादा हो जाती.

चार-पांच दिनों बाद ही उनकी आदत बन गयी और वे अपने आप जल्दी उठने लगे और सोने भी लगे. उसने भी फिर ना तो पूछा ना ही फोन किया. सोचा,उसने तो अपना कर्तव्य निभाया अब आगे वे जाने.

परन्तु अब धीरे-धीरे उनकी कंपनी असह्य होने लगी थी क्यूंकि बात करते पता चलता उनके विचार किसी बिंदु पर नहीं मिलते. राजनीतिक,सामाजिक, किसी विषय पर वे एक तरह नहीं सोचते. किताबो की बात करने की कोशिश करती तो यहाँ भी पसंद बिलकुल अलग थी..उन्हें आधुनिक,नया लेखन बिलकुल पसंद नहीं था . फिल्मे, क्रिकेट, अखबारों की गॉसिप में उनकी कोई रूचि नहीं थी. बड़े शुष्क किस्म के इन्सान थे. और मुश्किल थी कि वे एक सीमा तक असहिष्णु थे. उन्हें लगता जो उन्हें पसंद वो दूसरे को कैसे पसंद  नहीं आ सकता??.वो मजाक में बात टाल भी देती पर बहस पर उतारू हो जाते. और मुश्किल ये कि वे नए दोस्त भी नहीं बनाते. उनके डिपार्टमेंट के लोगो ने दोस्ती का हाथ बढाया...क्लास के बाद कहीं चलने के लिए पूछ लेते. उस से जिक्र करते तो वह भी उत्साह  बढ़ाती ,"आपको जाना चाहिए था...ऐसे ही  तो लोगो से जान-पहचान होगी"

पर वे पुराना राग ले बैठ जाते.."नहीं मुझे क्या करना है..दोस्ती करके..मेरा जी उचट गया है, दुनिया से ..मैं तो बस कॉलेज आता हूँ..पढाता हूँ..घर चला जाता हूँ...मुझे नहीं दिलचस्पी,किसी से दोस्ती करने में ...कहीं आने-जाने में  " कुछ प्रोफेसर्स  इनके परिचितों के दोस्त, रिश्तेदार ही निकल आए...एक जनाब...उनके कजिन के क्लासमेट थे...एक उनके चाचा के पड़ोसी .उसे लगा अब तो कम से कम पुराने परिचितों के हवाले ही उनके करीब जाएंगे...उसने हुलस कर पूछा .."ये तो बड़ी अच्छी बात है...अब तो आप उनसे कितनी सारी पुरानी बातें शेयर कर सकते हैं"

लेकिन फिर.."ना मुझे कोई इंटरेस्ट नहीं....मुझे नहीं करनी कोई बात .." उनके ठंढे से जबाब ने उसके सारे उत्साह पर पानी फेर दिया.
(क्रमशः)

Friday, December 10, 2010

कहानी 'छोटी भाभी' की

इन  दिनों व्यस्तता कुछ ऐसी चल रही है कि कहानी के इतने प्लॉट्स दिमाग में होते हुए भी...उन्हें विस्तार देने का मौका नहीं  मिल पा रहा...और ख्याल आया...कहानी सुनवाई तो जा ही सकती है. ये कहानी भी आकशवाणी से प्रसारित हुई थी. इसे ब्लॉग पर भी पोस्ट कर  चुकी हूँ  "होठों से आँखों तक का सफ़र "..शीर्षक  से.....  दोनों कहानियों में थोड़ा बहुत अंतर ..रेडियो के समय सीमा के कारण नज़र  आ सकता है

तो मुलाहिजा फरमाएं :) 


Monday, October 11, 2010

आज पढने के बदले सुन लें कहानी...."कशमकश"

कुछ कहानियाँ ज़ेहन में चल रही हैं...बस उन्हें शब्दों में ढालने का समय नहीं मिल पा रहा....पर ये कहानी भी आप सबों के लिए नई ही होगी...यह मेरे ब्लॉग की पहली पोस्ट थी और इसे मैने आकशवाणी के लिए भी पढ़ा था. उसी की रेकॉर्डिंग निम्न लिंक पर सुन सकते हैं. समय सीमा के कारण रेडियो  के लिए कुछ एडिट करना पड़ा.

 

 चाहें तो सुन ले...या फिर इस लिंक पर पूरी कहानी पढ़ सकते हैं.
http://mankapakhi.blogspot.com/2009/09/blog-post.html      

Monday, September 27, 2010

हैप्पी बर्थडे ... मन का पाखी

'मन का पाखी' ने एक वर्ष की उड़ान भर ली और अब तक थका हो...ऐसा महसूस तो होता नहीं. वैसे भी मन के पाखी को इस  ब्लॉग आकाश की खबर बहुत दिनों बाद चली. और गलती मेरी थी, पिछले 5 साल से नेट  पर सक्रिय हूँ पर हिंदी ब्लोग्स   के बारे में मालूम नहीं था. बस कभी कभार 'चवन्नी चैप' पढ़ लिया करती थी. एक बार वहाँ हिंदी फिल्मो से सम्बंधित किसी के संस्मरण पढ़े और मेरा भी मन हो आया कि अपने अनुभवों को कलमबद्ध करूँ. मैने भी अपने  संस्मरण लिख कर अजय(ब्रहमात्मज) भैया को भेज दिए  (.हाँ, वे मेरे भैया भी हैं.) उन्हें पसंद आई और उन्होंने पोस्ट कर दी. उस पोस्ट पर काफी  कमेंट्स आए पर उस से ज्यादा लोगों ने  उन्हें फोन कर के बोला,कि 'बहुत अच्छा लिखा है.' मैने बेवकूफी भरा प्रश्न पूछ लिया कि "जब इतने लोगों को अच्छा लगा तो उन्होंने कमेंट्स क्यूँ नहीं लिखे?" और अजय भैया ने बताया "सबलोग कमेंट्स नहीं लिखते" (अब तो मैं भी यह बात बहुत अच्छी तरह जान गयी हूँ...इसलिए मेरे ब्लॉग के Silent Readers आप सबो का भी बहुत आभार,मेरा लिखा ,पढ़ते रहने के लिए:) )

अजय भैया ने मुझे अपना ब्लॉग बनाने की सलाह दे डाली . पर मैं  बहुत आशंकित थी. यूँ तो पहले भी मैं पत्रिकाओं में लिखती थी.पर लिखने और छपने के बीच एक एडिटर होता था. यहाँ खुद ही निर्णय लेना था,क्या लिखना है? पर अजय भैया रोज ही पूछने लगे थे. उन्हें ऑनलाइन देख मैं डर जाती. उन्हें पता था,मैने कहानियां लिख रखी हैं.कहने लगे कम से कम एक जगह एकत्रित  करने की सोच ही ब्लॉग बना डालो. और मैने ब्लॉग बना कर अपनी एक कहानी पोस्ट कर दी.,चंडीदत्त शुक्ल ,आशीष राय,रेखा श्रीवास्तव ,कुश, ममता ये लोग पहली पोस्ट से ही मेरे ब्लॉग के पाठक  बन गए और लगातार उत्साहवर्द्धन  करते रहें. आप सबका शुक्रिया .

दूसरी पोस्ट पर भी कई नए लोगों के कमेंट्स आए.उसके बाद तो मुझमे आत्मविश्वास आ गया,और किसी भी विषय पर लिखने लगी. आज जब पुरानी पोस्ट पर नज़र डाली तो कुछ नाम देख हैरान रह गयी.उड़न तश्तरी , डिम्पल, निर्मला कपिला, रश्मि प्रभा,दिलीप कवठेकर, कमल शर्मा, प्रवीण शाह,  सुलभ सतरंगी, रंगनाथ सिंह, पंकज उपाध्याय, गिरीश बिल्लोरे, दर्पण शाह , अपूर्व, विजय कुमार सप्पति, शमा, अनिल कांत, रंजना भाटिया, जाकिर अली, सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, नीरज गोस्वामी, सुरेश चिपलूनकर, डा. दराल ये लोग शुरू से ही टिप्पणी देकर  मेरी हौसला  अफजाई करते रहें हैं ('जी' सबमे कॉमन है :))  आप सबो का शुक्रिया.

निर्मला जी ने जब लिखा "तुम्हारी शैली बहुत प्रभावित करती है" और अगले कमेंट्स में कई लोगों ने उसका अनुमोदन किया तो मैने आश्चर्य से सोचा, "अच्छा ! मेरी कोई शैली भी है. " ऐसे ही दीपक मशाल ,अजय झा,राज भाटिया जी, विवेक रस्तोगी जी  और कई लोगों ने कहा 'आपके लेखन में सहज प्रवाह  है" तो मन में संतोष हुआ. मुझे किसी भी लेख में सबसे ज्यादा उसका फ्लो पसंद आता है...और थोड़ा बहुत मेरे लिखने में भी आ गया है, अच्छा लगा,जान. नीरज गोस्वामी जी का ये कहना ,"आपके विचार बहुत स्पष्ट हैं" और गौतम राजरिशी का बार बार उल्लेखित करना कि "आप का विषय चयन अचंभित कर देता है '...हैरान कर देता, इतना कुछ दिख गया ,इनलोगों को मेरे लेखन में और मुझे कुछ पता ही नहीं था.

एक शाम  अमिताभ बच्चन के ब्लॉग में पढ़ा, कि वे मिडिया द्वारा ब्लॉग को महत्व नहीं दिए जाने से बहुत दुखी हैं और मैने एक पोस्ट लिख डाली  ,अमिताभ और ब्लॉग जगत का साझा दर्द उस पोस्ट पर काफी लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया दीं अविनाश वाचस्पति, स्मित अजित गुप्ता, हरकीरत हकीर, गिरश बिल्लोरे, मुफलिस,रंजना ,शाहिद मिर्ज़ा शाहिद, कुलवंत हैप्पी,अर्क्जेश ,सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी,  दिगंबर नासावा, किशोर चौधरी,  डा.प्रवीण चोपड़ा,.इनमे से कुछ लोग तो  नियमित रूप से मेरी पोस्ट्स पढ़ते हैं. सबका आभार.

पर मैं हैरान थी, लोगों को मेरी पोस्ट के बारे में पता कैसे चल जाता है? अजय भैया के  कहने पर  मैने ब्लॉग वाणी पर रजिस्टर कर लिया था .पर ना मुझे वहाँ कुछ देखना आता था ना ही मैं कभी वहाँ 'लॉग इन' करती. ऐसे में  एक पोस्ट पर नमूदार हुए 'महफूज़ अली'. और गूगल  ने हमें दोस्त बना दिया.'हॉट  लिस्ट','चटका' ,वहाँ से दुसरो की पोस्ट पर कैसे जा सकते हैं, यह सब महफूज़ ने समझाया. महफूज़ की दोस्ती जिन्हें मिली है, उन्हें पता है कि सारी दुनिया आपके विरुद्ध हो जाए पर आप,महफूज़ को अपने साथ खड़ा पाएंगे. और महफूज़ अपने दोस्तों की कही किसी  बात का बुरा नहीं मानते. मैने दो,तीन बार किसी और की पोस्ट पर दिए ,महफूज़ के कमेन्ट पर  पब्लिकली बड़े कड़े शब्दों में आपत्ति प्रकट की है. महफूज़ की जगह कोई और होता तो मैं शब्दों में हेर-फेर कर माइल्ड बना देती.पर मुझे पता था,इस से महफूज़ से मेरी दोस्ती के इक्वेशन पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा..और ऐसा ही हुआ. बस महफूज़,अपना उतावलापन जरा कम कर लो, और जल्दी से अपनी गृहस्थी बसा लो, अपने आप स्थिरता आ जाएगी.शुभकामनाएं.

महफूज़ ने अदा और शिखा को मेरे ब्लॉग से परिचित करवाया. अदा से आंचलिक  भाषा में टिप्पणियों के आदान-प्रदान को मैने बहुत एन्जॉय किया. अदा, इतनी व्यस्त रहने के बावजूद,अपने दोस्तों की प्रशंसा कर उन्हें आसमान पर बिठाना , नव-वर्ष और जन्मदिन पर शुभकामनाएं देना नहीं भूलती. सीखने पड़ेंगे ये सारे गुण.

शिखा और मैं तो अक्सर इनविजिबल मोड में रहकर पोस्ट लिखते रहते हैं और  डिस्कस भी करते रहते हैं. कमियां भी बताते हैं और एक दुसरे को आश्वस्त भी करते हैं,"न एडिट की जरूरत नहीं,रहने दो" शिखा से जाना कि ये 'फौलोवर लिस्ट' और 'डैश बोर्ड' क्या बला है. उसकी बहुत अच्छी आदत है कोई भी कमेन्ट करे वो उन्हें थैंक्स बोलती है,उनका ब्लॉग चेक करती है,फौलो करती है और कमेन्ट भी कर आती है. मैं बहुत कोशिश करती हूँ ये सब सीखने की,पर मेरी  लम्बी किस्तों को टाइप करने की थकान और कुछ मेरा laid back  attitude  आड़े आ जाता है. (शिखा, बहुत कुछ जमा हो गया है तुमसे सीखने को :))

शिखा और अदा के साथ वाणी गीत और संगीता स्वरुप जी भी मेरा ब्लॉग पढने लगीं. ये लोग इतनी सारगर्भित टिप्पणी देती हैं कि मेरी पोस्ट इनकी टिप्पणियों के बिना अधूरी रहती है. वाणी बहुत ही अच्छी सहेली है और उसके बेबाक विचार और सुन्दर लेखन शैली की तो फैन हूँ मैं.

मैने ब्लॉग जगत में कई जगह बहसों में जम कर हिस्सा लियाऔर खुल कर अपने विचार रखे. शायद
यही देख, ,रचना जी ने नारी ब्लॉग पर लिखने का निमंत्रण  दिया.और मैने वहाँ ,'मोनालिसा स्माइल फिल्म के बारे में लिखा,जो अब भी मेरे प्रिय पोस्ट में से एक हैं.एक पूरा सन्डे 'बेनामी  जी' के ब्लॉग पर बहस में व्यतीत  हुआ और मुझे पता भी नहीं था कि मेरी 'विवाह-संस्था' पर इतनी आस्था है. दूसरे पक्ष की वकालत ,'गिरिजेश राव जी, अमरेन्द्र त्रिपाठी, लवली गोस्वामी,दिव्या श्रीवास्तव जैसी शख्सियत कर रहें थे और मैं अकेले 'मोर्चा संभाले  थी. जब अंत में सबकी खिंचाई करने वाले, बेनामी जी ने कहा' आपकी सोच में एक सफाई है ,जो नमन मांगती है ' तो मेरा सन्डे बर्बाद होने का सारा मलाल चला गया. चिट्ठा चर्चा पर  भी अपनी असहमति जताने में मैने हिचक नहीं बरती.

पर चिट्ठा चर्चा ने एक बहुत ही प्यारी सहेली दी.'वंदना  अवस्थी दुबे' ,उस से बातें करते तो लगता है.'कॉलेज के नहीं स्कूल के दिन लौट आए हैं.बात बात पे कहती है,"विद्या कसम" जो मैने स्कूल के बाद अब तक नहीं सुना था .मेरे लेखन की सजग पाठक है और किसी भी कमी की तरफ तुरंत इंगित करती है. 'विद्या कसम' ,वंदना ऐसी ही पैनी नज़र रखना मेरे लिखे पर:)

पापा की सर्विस में उनकी पोस्टिंग के समय हुए कुछ रोचक (और भयावह भी ) घटनाओं पर लिखे संस्मरण और मुंबई की लोकल ट्रेन के संसमरण लोगों को खूब पसंद आए.चंडीदत्त जी ने सलाह दी कि, "संस्मरण, शब्द चित्र और रेखा चित्र " पर ज्यादा कंसंट्रेट करूँ. शरद जी के आश्वासन पर ,डायरी में कैद अपनी कुछ  कविताएँ भी पोस्ट करने की हिम्मत कर डाली. बच्चों के लिए खेल की अनिवार्यता..... काउंसलिंग की आवश्यकताऔर बाल मजदूर की त्रासदी पर भी लिखे मेरे पोस्ट, पसंद आए सबको. कई लोगों ने  मुझे बच्चों से संबंधित विषयों पर लिखने की सलाह दी. विजय कुमार सपत्ति जी शिवकासीमें काम कर रहें बाल मजदूरों  की दशा  के बारे में पढ़कर इतने  द्रवित हो गए कि मुझसे 'नुक्कड़ ब्लॉग' से जुड़ने का आग्रह किया ताकि मानस के मोती के जरिये , पोस्ट सब तक पहुँच सके. आप सबका आभार,मेरे लेखन पर इतनी बारीक नज़र रखने के लिए.

अलग-अलग  विषयों  पर लिखना जारी था और ममता कुमार (मेरी भाभी ) मुझसे पूछती रहतीं, "कहानी कब पोस्ट कर रही हैं?" प्रथम पोस्ट से अब तक की हर पोस्ट वे पढ़ती हैं और जहाँ सहमत ना हों,आपत्ति जताने से भी नहीं चूकती ,  इनके जैसे ही कुछ नॉन-ब्लॉगर सौरभ हूँका,आलोक, आदि कुछ अंग्रेजी पढने-लिखने -बोलने वाले लोग हैं पर मेरा लिखा बड़े शौक से पढ़ते हैं. शुक्रिया दोस्तों.

मैने कहानी की किस्तें डालनी  शुरू कर दीं.अब कई लोग नेट पर लम्बी कहानी पढने के आदी नहीं हैं. मैने भी दूसरे आलेखों  के लिए दूसरा ब्लॉग बना लिया.जिन्हें कहानियों का शौक था, बस  वे लोग ही इस ब्लॉग  पर आते रहें. पहले  लघु उपन्यास की  अंतिम किस्त पर आचार्य सलिल जी ,डा.अमर कुमार जी, रवि रतलामी जी, ज्ञानदत्त पण्डे जी, ताऊ रामपुरिया जी, इन लोगों की टिप्पणी से पता चला ये लोग भी मेरा लिखा पढ़ रहें थे.

मेरे लेखन ने,आचार्य सलिल जी, ज्ञानदत्त जी, सारिका,आलोक, डा. अमर कुमार, डा.तरु ...... कई लोगों को  (शायद भावनाओ की रौ में)  दिग्गज साहित्यकारों के लेखन  और उनकी कृतियों  की याद दिला दी. शायद मैं सातवें आसमान पर पहुँच जाती पर चंडीदत्त  जी, शरद जी, शहरोज़ भाई, अनूप शुक्ल जी,राजेश उत्साही जी  की टिप्पणियों ने हमेशा धरातल पर रखा. इन लोगों ने मेरा उत्साहवर्धन भी कम नहीं किया. पर यदा-कदा बताते भी रहें कि,यहाँ शिल्प की  कमी है,या साहित्यिक शब्दों की कमी खलती है,वगैरह.

प्रारम्भ से जिन लोगों  ने मेरी पोस्ट्स पढनी शुरू की,अब तक अपना स्नेह बनाये रखा है . बाद में कुछ नए नाम भी शामिल हो गए.
प्रथम उपन्यास से वंदना गुप्ता, सतीश पंचम जी, हरि शर्मा जी, दीपक शुक्ल जी, मनु जी,मुदिता, पूनम, शुभम जैन,  विनोदकुमार पाण्डेय, अबयज खान,पाबला जी हर किस्त पर  साथ बने रहे. खुशदीप भाई ने तो मुझे सीरियल में स्क्रिप्ट लेखन की कोशिश की सलाह भी दे डाली.

दूसरे लघु उपन्यास से , मुक्ति, संजीत त्रिपाठी, हिमांशु मोहन जी जुड़ गए और अपनी समीक्षात्मक  टिप्पणियों  से मेरी मेहनत  सार्थक करते रहें. अनूप शुक्ल जी ने कुछ अंशों को बॉक्स  में उद्धृत करने की तकनीकी सलाह भी दी.पर मैं नाकाम रही. (अब उन्हें सलाह देने के लिए थैंक्यू बोलूं या मेरे अमल ना कर पाने के लिए सॉरी, समझ में नहीं आता :))

तीसरा लघु उपन्यास तो इन्हीं पाठकों के साथ ने लिखवा ली.साधना वैद्य जी और शोभना चौरे , इंदु पूरी जी, प्रवीण पाण्डेय जी, घुघूती बासूती जी   ने भी पढ़ा और  ख़ास नज़र रखी,इस उपन्यास पर.

पिछली दो कहानियों पर अली जी  की समीक्षात्मक टिप्पणी ने अपनी ही लिखी कहानी को समझने में मदद की.  अभी और रोहित  की संवेदनशीलता भी कहीं गहरे छू गयी.

एक उल्लेख और करना चाहूंगी, "पराग, तुम भी.." में पहली बार मैने अपने लेखन में थोड़ी बोल्डनेस दिखाई (अपने स्टैण्डर्ड से ) दरअसल दिखानी पड़ी क्यूंकि वो 2010 की कहानी है ,और आज लड़के-लड़की साथ मिलकर सिर्फ चाँद और फूल नहीं देखते. किसी ने मुझे आगाह भी किया कि ये ब्लॉग जगत है, ज्यादातर लोग , सिर्फ उन्हीं उद्धरणों को कोट करके अपनी प्रतिक्रिया देंगे. पर एक भी पाठक ने ऐसा नहीं किया और कहानी के मूल स्वरुप को ही समझने की कोशिश की. सच , मुझे गर्व हो आया,पाठकों पर. और ब्लॉग जगत से कोई शिकायत नहीं ,यहाँ काफी  अच्छे लोग हैं जो बहुत अच्छा लिखते हैं और प्रोत्साहित भी करते हैं,अच्छा लिखने को..

सभी पाठकों का बहुत बहुत शुक्रिया, जिनके साथ और उत्साहवर्द्धन ने इस एक साल की ब्लॉग यात्रा को इतना खुशनुमा बनाए रखा.

मन के पाखी की, स्वच्छंद विचरण की यही जिजीविषा बनी रहें और थकान,ऊब, निराशा उसके पास भी ना फटके...बस यही  कामना है.

कुछ ऐसी टिप्पणियाँ, जो बेहतर लिखने को उत्साहित करती हैं और जिम्मेवारी का अहसास भी 

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल जी 
http://mankapakhi.blogspot.com/2009/10/blog-post_13.html 
ज्ञानदत पाण्डेय जी
http://mankapakhi.blogspot.com/2010/03/4.html
अविनाश वाचस्पति जी,
http://mankapakhi.blogspot.com/2010/02/blog-post_11.html 
खुशदीप भाई
http://mankapakhi.blogspot.com/2010/01/blog-post_30.html
शहरोज़ भाई
http://mankapakhi.blogspot.com/2009/12/blog-post_17.html
हिमांशु  मोहन जी,
http://mankapakhi.blogspot.com/2010/05/blog-post.html
प्रवीण शुक्ल प्रार्थी जी,
http://mankapakhi.blogspot.com/2009/12/blog-post_17.html

Tuesday, August 31, 2010

आँखों का अनकहा सच

(ये  वो कहानी नहीं, जिसका जिक्र मैने अपनी पिछली पोस्ट  में  किया था....वो तो किस्तों वाली होगी...कुछ दिन चलेगी....यह भी थोड़ी लम्बी तो है..पर एक पोस्ट में ही समेट दिया है )


दोनों बच्चे शोर कर रहें हैं...आपस में कुछ ना कुछ बहस झगडा चल रहा है...शालिनी  मुश्किल से उन्हें, आँखें दिखा कर  चुप कराती है ,उसकी तो सारी इन्द्रियाँ सिमट कर बस कान बन गए हैं...फ्लाईट के पायलट का नाम अनाउंस होने ही वाला है....और धड़कन एक पल को रुक जाती है...और फिर थकी सी ठंढी सांस वापस निकल जाती है...उसका नाम नहीं था...पता नहीं कभी यह रुकी सांस उल्लासित होकर बाहर आएगी भी या नहीं. वापस शिथिल हो कर सर पीछे को टिका देती हैं...बच्चों का झगड़ना फिर शुरू हो गया है...करने दो...एयर होस्टेस अभी आँखें दिखायेगी  तो खुद ही चुप हो जाएंगे.

जब से यहाँ वहाँ  से उड़ती हुई खबर उसके कानों तक पहुंची है कि मानस ने डोमेस्टिक एयरलाइन्स   ज्वाइन की है.हर बार कैप्टन का नाम ध्यान से सुनती है कि शायद वही हो जबकि उसे पता भी नहीं कौन सी एयरलाइन्स ज्वाइन की  है. एयरपोर्ट पर भी बच्चे और ट्रॉली  संभालते भी खोजी निगाहें दौड़ती रहती हैं. और लगता अभी किसी तरफ से मानस का हँसता चेहरा सामने आ जायेगा. हर सोशल नेट्वर्क पर भी उसे ढूंढ्ने की कोशिश की पर निराशा ही हाथ आयी.पर क्यूं, किसलिए  उसे ढूँढने  की कोशिश कर रही थी?? यह सवाल खुद से भी कई बार पूछ चुकी पर जबाब कोई नही मिलता.

और अपनी बेवकूफी पर हंस भी पड़ती है...मानस का  छठी कक्षा वाला चेहरा ही सबसे पहले ध्यान में आता है...जब वह पहली बार उस पर इतना हंसा था...पर तब तो वह कित्ता  रोई थी.

इंग्लिश के नए टीचर आए थे.आते ही डस्टर पटका और रौबीली आवाज़ में, सबको नोटबुक निकालने को कहा. फिर बहुत सारे कठिन ग्रामर के लेसन दिए हल करने को. सबकी  कापियाँ  जमा कर लीं चेक करने के लिए.. उनसे डर तो गए थे सब पर कितनी देर शांत रह पाते.देर शांत रहते..धीरे धीरे बातें शुरू हो गयीं.शालिनी,  रीता और शर्मीला भी सर जोड़े नई फिल्म की कहानी सुनने लगीं जो पिछले हफ्ते ही शर्मीला अपने नए जीजाजी  और दीदी के साथ देख कर आई थी. उसे कितनी कोफ़्त होती...वो क्यूँ सबसे बड़ी है? उसकी भी कोई बड़ी दीदी होती तो वो भी शर्मीला जैसी  उनलोगों के साथ फिल्म देखकर आती और कहानियाँ सुनातीं.पर अभी तो बस सुननी पड़ती थीं. बेच बीच में सर के चिल्लाने कि आवाज़ आती रहती.पर वे लोग तो इतना धीरे बोल रही थीं. सर शायद पीछे बैठे लड़कों पर नाराज़ हो रहें थे .अचानक जोर का एक चॉक  का टुकड़ा उसके सर से टकराया.उसने सर उठाया..और सर चिल्ला पड़े,"क्या गपाश्टक हो रहा है...चलो बेंच पर खड़ी  हो जाओ" तब , इंग्लिश के सर भी हिंदी में ही बाते करते थे और कई बार तो लेसन भी हिंदी में ही एक्सप्लेन कर जाते. उसे तो काटो तो खून नहीं. आजतक कभी डांट भी नहीं पड़ी और सीधा बेंच पर खड़ी हो जाओ. वो  हतप्रभ मुहँ खोले देखती रहीं तो फिर से चिल्लाये..."मुहँ क्या देख रही हो....स्टैंड अप ऑन द बेंच (इस बार अंग्रेजी  में बोले)

वो सर झुकाए खड़ी हो गयी. और आँखों से धार बंध चली. पूरा क्लास सकते में था.इसलिए नहीं कि सर चिल्ला रहें थे.इसलिए कि वह बेंच पर खड़ी  थी. सारे बच्चे ,मुहँ खोले उसे देख रहें थे.
सर, वापस कॉपियाँ चेक करने में लग गए थे.एक एक कॉपी चेक करते...बच्चे का नाम पुकारते...उस बच्चे को  डांटते  और फिर कॉपी उसकी तरफ फेंक देते. किसी ने अच्छा नहीं किया था. यह देख उसका रोना और बढ़ता जा रहा था .अब सर के सामने उसकी कॉपी थी. उनका बडबडाना बदस्तूर चालू था..."कोई भी  नहीं पढता...किसलिए स्कूल आते हो तुमलोग"...फिर माथे पर चढ़ी भृकुटी थोड़ी शिथिल हुई.."अँ.. ये तो सही हैं....हम्म ये भी सही है...ओह ये भी सही है.."अब आश्चर्य का भाव था,चेहरे पर...."हम्म क्या बात है...ये भी राईट..हम्म..पंद्रह में से बारह राईट..." अब थोड़ी सी मुस्कान तिर आई थी उनके चहरे पर....नाम देख पुकारा..."शालिनी कौन है ?" वो चुप रही.

" हू इज शालिनी?" (फिर से अंग्रेजी पर आ गए )

इस बार मानस  ने हँसते हुए कहा..'सर वो जो बेंच पर खड़ी रो रही है,ना..वही है शालिनी"

"ओह्ह!! सिट डाउन..... सिट डाउन...ले जाओ अपनी कॉपी...गुड़, यू हैभ  डन बेल "

वो उतर तो गयी थी...पर इतने अपमान के बाद कॉपी लेने नहीं गयी. वे स्वर को कोमल बना कर

बोले.."ले जाओ अपनी कॉपी"

वो भी हठी की  तरह खड़ी रही.

इस बार मानस उठ कर बोला.."सर मैं दे आऊं??" और हंस पड़ा.

"क्यूँ..."

"ही ही ही.. वो नहीं जा रही ना..."

"तुम्हार क्या  नाम है?...."

"मानस"

"कितने नंबर  मिले तुम्हे?"

"पांच"..मुस्कराहट अब भी वैसे ही जमी थी उसके चहरे पर.

"और हंस रहें हो..शर्म नहीं आती...खड़े हो जाओ बेंच पर..."डांट कर कहा ...और फिर उसी स्वर में उसे भी बोला.."ले जाओ आपनी कॉपी.
सहम  कर वो चुपचाप अपनी कॉपी ले आई.पर मानस बेंच पर खड़ा भी हँसता ही रहा.

घंटी बजी और सर के जाते ही,सब भाग लिए दरवाजे की तरफ. अंतिम पीरियड था. वो शर्म से सर झुकाए,धीरे धीरे बढ़ रही थी कि आवाज़ आई 'रोनी बिल्ली" खूनी आँखों से देखा तो मानस और उसके चार-पांच शैतान  दोस्त हंस रहें थे. बस वहीँ विष बेल के बीज पड़ गए.
000
फिर तो मानस कोई मौका नहीं छोड़ता, उसे चिढाने का. उसी की  कॉलोनी में चार घर छोड़ कर रहता था. साथ खेलने  वाले सारे बच्चों को पता चल गया था. उसे बेंच  पर खड़े होने की सजा मिली थी और वह रोई थी. खेल में भी मानस इतना तंग करता कि वह रो ही देती. लुक्का-छिपी खेलते तो पता नहीं कहाँ , छुपा रहता और फिर उसे धप्पा कर देता...बार-बार उसे ही चोर बनना पड़ता अंत में तंग आ वह रो देती.तो फिर उसे चिढाने का बहाना  मिल जाता. कोई भी खेल शुरू करने के पहले कहता..'मैं नहीं खेलता, हारने पर लोग रोने लगते हैं..."

सबकी आँखें उसकी तरफ उठ जातीं. फिर सब मानस को मनाने में लग जाते और शालिनी गुस्सा पीते हुए खुद में ही सिमट जाती.

वह उसे गुस्से मे घूरती और वह दाँत दिखाता रह्ता.पर इस बार गुस्से मे घूरने की बारी मानस की थी जब सिक्स मंथली  एक्ज़ाम मे वह फ़र्स्ट आई थी और मानस को बहुत कम नम्बर मिले थे. हर शाम की तरह वह शोभा के साथ, बाहर घूम रही थी. मानस के घर के सामने से गुजरते हुए, शोभा ने बताया कि आज अचानक वह मानस के घर गयी तो देखा, चाची मानस  को आंगन में दौडा दौडा कर मार रही हैं और बोलती जा रही हैं "वह लड़की होकर भी फर्स्ट आ गयी ...इतने अच्छे नंबर लेकर आई...और तुम मुश्किल से पास हुए...अब भागते किधर हो?."
 उस दृश्य की  कल्पना कर वह दोनो हंस पड़ीं..उसी  वक्त मानस घर से बाहर आ गया. दोनो अचकचा कर चुप हो गयीं पर मानस  समझ गया कि वे दोनों  उसी पर हंस रही थीं. उसे इतने गुस्से से  घूरा  कि अगर किसी देव ने कभी प्रसन्न होकर उसे  कोई वर दिये होते तो वो वहीं भस्म हो जाती. उस विषबेल पर अब पत्ते निकल आये थे.

और अब माँ की मार का बदला वह रोज उसे स्कूल में तंग कर के लेता. अक्सर इंग्लिश टीचर उसे रीडींग डालने को बोलते और मानस जोर से चिल्ला कर बोलता, "सर सुनायी नहीं दे रहा". कभी कभी तंग आ कर टीचर, उसे, शालिनी की  बराबर वाली बेन्च पर बिठा देते, तब भी वह बाज नहीं आता. कान को हाथ की ओट मे लेकर सुनने की एक्टिंग करता.सारा क्लास मुँह छुपा कर हंसता रह्ता.और शालिनी का  ध्यान भंग हो जाता. अगर टीचर ,उसे बोर्ड पर कोई सवाल हल करने को देते तब भी चिल्लाता, "सर कुछ दिखाई नहीं दे रहा." वह उचक उचक कर और बडा लिखने की कोशिश करती और इस चक्कर मे सब टेढा मेढा हो जाता.

उसे बस आश्चर्य इस बात का होता, इतनी शैतानी करने पर भी सारे टीचर उसे इतना  मानते कैसे थे? ऑफिस  से रजिस्टर लाना हो, किसी को बुलाना हो, हमेशा मानस को ही बुलाते. शायद रेस मे हमेशा जीतता था, इसी लिये. स्पोर्ट्स डे के दिन मानस का ही बोलबाला रह्ता.सौ मीटर, चार सौ मीटर रेस, लौन्ग जम्प, हाई जम्प, सब मे वह ढेर सारे कप्स जीतता. अपने लाल हो आए चेहरे से पसीना पोंछते ,वह उसे एक बार गर्वीली नज़र से जरूर देख लेता.वो मुहँ घुमा  लेती. बाकी सब तो"माss नस ...माss नस"  का नारा  लगाते, रह्ते, उसे बधाई देते.शर्मीला,,रीता, मीना  सब जातीं , पर वो दूर ही  खडी रह्ती. मानस तो कभी उस से बात भी नहीं करता,और इतना परेशान करता वो क्यूं जाये बधाई देने? विष-बेल अब बढती जा रही थी.

धीरे धीरे मानस ने शाम को उन सबके साथ खेलना छोड दिया. अब वह मैदान में बडे बच्चों के साथ क्रिकेट और फ़ुटबाल खेलने जाता.क्लास पर क्लास बढते गये पर स्कूल मे तंग करना वैसे ही जारी रहा. मानस की ड्राईंग बहुत अच्छी थी,जबकि,उसकी कम्जोर. फिज़िक्स के ड्राईंग तो वह फिर भी कर लेती पर बायोलोजि के ड्राइंग मे उसकी जान निकल जाती. कुछ भी ठीक से नहीं बना पाती. जब प्रैक्टिकल बुक जमा होती करेक्शन के लिये, वह सोचती बस मानस की नज़र ना पड़े,पर मानस किसी न किसी की बुक ढूंढ्ने के बहाने देख ही लेता और देख कर उपहास के ऐसे ऐसे मुहं बनाता कि उसकी झुकी गर्दन शर्म से और झुक जाती.

फ़ेयरवेल के दिन परम्परानुसार सबने साडी पहनी, उसे देख्ते ही मानस बोला, "कोई शादी है क्या...लोग इतना सज धज कर आ रहे हैं." उसका सारा तैयार होना व्यर्थ हो गया.

और इसी डर के मारे, कौलोनी मे अनीता दी की शादी मे जब उसने सब की ज़िद पर साडी पहनी तो पूरे समय मानस के सामने पडने  से बचती रही. एक बार जब एकदम से सामने आ गया तो उसने जल्दी से मुहँ फ़ेर लिया.और वह धीमे से उसे सुना कर बोलता चला ही गया,"पता नहीं इतना घमंड किस बात का है?"

शालिनी सोचती रह जाती , कब किया उस ने घमंड? फ़र्स्ट आना क्या घमंड करने जैसा है? अब वह उसकी खुशी के लिये फ़ेल तो नहीं हो सकती. और उस ने मुहँ बिचका दिया.खाता रहे जितनी मार खानी हो अपनी माँ से. उसकी बला से.

वह गर्ल्स कॉलेज में  आ गयी तो मानस से पीछा छूटा.पर कहीं उसके तानों की इतनी आदत पड गयी थी कि क्लास मे सब सूना सूना  लगता. मानस के घर के बिल्कुल बगल मे एक शर्मा अंकल ट्रांस्फ़र हो कर आये थे.उनकी तीन लड्कियाँ थीं, तीनों का मानस के घर मे आना जाना था. उनसे हमेशा मानस को हँस कर बातें करते देखती तो आश्चर्य होता, उसे तो लगता था, मानस को लड़कियों  से     ही चिढ है.पर उसे क्या, जिस से मर्जी हो उस से बात करे.

एक बार शर्मा अन्कल के यहाँ गयी थी, बाहर ही उनकी बेटी निशा मिल गई, वो ऊन की सलाइयाँ, मानस की माँ को देने जा रही  थी. उसे भी कहा, "चल मेरे साथ"

"मैं नहीं जाती मानस के यहाँ"

"क्यूँ?"

"ऐसे ही उस के यहाँ कोई लडकी भी नहीं."

"तो क्या हुआ...वो तो तुम्हारे ही क्लास मे था,स्कूल मे?...पर तुम लोग कभी बात भी नहिं करते...झगडा है क्या, उस से?"

"नहीं,झगड़ा क्यूँ होगा.?"

"अरे..झगडा तो किसी भी बात पर हो सकता है...वैसे मानस घर पर है नही..अभी अभी उसे बाहर जाते देखा है...बता ना...झगडा है उस से??

"नहीं बाबा...कोई झगडा नहीं...चलो चलती हूँ....." उसकी बातों से बचने को वो साथ चल दी."

वो हर कमरे मे चाची चाची कह्ती घूमने लगी पर चाची कहीं नहीं थीं. तुम यहिं रुको, मै छ्त पर देख कर आती हूँ, वह मानस का कमरा  था. वह उसकी मेज़ पर आकर उसकी किताबें, उलट पलट कर देखने लगी.’देखूं कुछ पढ़ता भी है या,सब वैसे ही कोरी हैं"

पहली नोटबुक जो खोली , देखा, सुन्दर सा एक फ़ूल बना हुअ है...’ह्म्म ठीक ही सोचा था उसने ,अब भी नहीं पढ़ता.यही चित्रकारी करता रह्ता है’ पर तभी ध्यान से जो देखा तो देखा फ़ूल के बीच मे बड़ी खूबसूरती से लिखा हुअ है, ’शालिनी’. उस के दिल की धड़्कन अचानक बढ़ गई. फ़िर तो जल्दी जल्दी कई नोटबुक  पलट  डाले और तकरीबन  सबमे, फ़ूल पत्ती, बेल बने हुये थे और बीच बीच मे लिख हुअ था, शालिनी.

एकदम से डर गई वह.पसीने से नहा गई. जल्दी से बाहर निकल आई. चेहरा , लाल पड़ गया था और दिल धौंकनी की तरह चल जोर जोर से धड़क रहा था.निशा के सामने पड़ने की हिम्मत नहीं थी उसमे. आंगन से ही आवाज़ लगाई उसने ,"निशा...मैं जा रही हूँ"

"अरे रुक मैं बस आ गई..." निशा की आवाज़ भी उसने बाहर निकलते निकलते सुनी. 

घर आकर सीधा छ्त पर भाग गई, निशा क्या किसी का सामना करने की हिम्मत नहीं थी उसमे. साँस जब सम पर आई तब दिमाग कुछ सोचने लायक हुआ. पर वह इतना घबरा क्यूँ रही है,क्या अकेली शालिनी है वो दुनिया मे? उसके कॉलेज मे लड़्कियाँ भी तो पढ़ती हैं. उन मे से ही कोई होगी या क्य पता, जिन प्रोफ़ेसर के यहाँ ट्यूशन पढने  जाता है, उनकी बेटी का नाम  हो शालिनी. उसका नाम कैसे हो सकता है? उसके पढाई मे तेज़ होने के कारण. उस से तो वह बचपन से ही नफ़रत करता है, स्कूल मे रीता,शर्मिला सबसे बातें करता है, कॉलोनी  में भी शोभा, निशा से कितना खुलकर बात करता है. एक सिर्फ़ उस से दूर रहता है, दूर ही  नहीं हमेशा  नीचा दिखाने की कोशिश , अब उसका नाम कैसे लिख सकता है..नामुमकिन. उस विष-बेल में अमृत धारा कैसे बह सकती है?

और अगर सच मे लिखा हो तो....न... न वह इतना हैंन्डसम है, इतन स्मार्ट, और वह कितनी छुई मुई सी है, बस कीताबी कीड़ा...ना..उसे तो कोई अपने जैसी स्मार्ट लड़की ही पसन्द आयेगी.जो जिसे चाहे मुहँ पर जबाब दे दे ,उसकी तो किसी को देखते ही जुबान तालु से चिपक जाती है. बेकार मे सपने बुन रही है वह.

और फ़िर जैसे खुद को ही पहली बार जाना. सपने??...तो क्या, उसे मानस से कोई नराज़गी नहीं.पहले तो उसे बड़ा गुस्सा आता था, उस पर...हाँ आता तो था,पर जब से कॉलेज  अलग हुये हैं,उसकी कमी बहुत खलती है. तो क्या वह...ना ना...ये सोचने का  भी क्या फ़ायदा...वो कभी मानस की पसन्द हो ही नहीं सकती,ये जरूर कोई और शालिनी  है, नहीं  तो क्या  अब तक वह एक बार भी नज़र उठा उसे देखता भी नहीं. इतनी सारी लड़कियों से बात करता है, सिवाय उसके. इसका मतलब वो उसे पसंद नहीं करता...हाँ, उसे तो उसके जैसा ही कोई पढ़ाकू पसंद करेगा....मोटी कांच के चश्मेवाला, चिपके बाल....पूरी बाहँ की शर्ट, गले तक बंद बटन....यक... और जैसे अपनी कल्पना से ही घबराकर उठ कर नीचे भाग गयी.

शुक्र है,माँ घर में नहीं थीं..वरना उसका बदहवास चेहरा देख पूछ ही बैठतीं,क्या हुआ?...उसने सोफे
पर लेट, टी.वी. ऑन कर दिया...कुछ तो ध्यान बंटे...पर स्क्रीन पर तो एक सुन्दर सा फूल दिख रहा था, जिसके अंदर लिखा था, शालिनी. घबरा कर आँखें बंद कीं तो पलकों में भी वही फूल मुस्करा उठा. उसने कुशन उठा कर जोरो से आँखों पर भींच लिया.

पर इसके बाद से वह काफी डर गयी थी. बालकनी में खड़ी रहती और दूर से भी मानस को आते देखती तो धडकनें तेज़ हो जातीं और वह झट से छुप जाती. लगता जैसे, सबकी नज़रें उन दोनों को ही देख रही हैं. निशा कितनी बार बुलाने आती..चलो बाहर टहलते  हैं..पर वो उसे छत परले जाती,  कहीं मानस से सामना ना हो जाए. कभी आते-जाते मानस सामने पड़ भी जाता तो पसीने से नहा उठती और जल्दी से कतरा कर निकल आती. जबकि बार बार खुद से कहती..."वो शालिनी कोई और है...वो तो हो ही नहीं सकती"

मानस दिखता भी कम...निशा बताती...बहुत मेहनत  से पढ़ाई कर रहा है..उसका मन होता कहे, 'जरा उसकी कॉपियाँ पलट कर देखो..पढता है या ड्राइंग करता है' पर जब बारहवीं का रिजल्ट आया तो सब हैरान रह गए, मानस  को 'फर्स्ट क्लास'  मिली थी. उसके बराबर में आ गया था वह...जो पापा को शायद अच्छा नहीं लगा था,  बार बार कहते.."लड़कों का कुछ पता नहीं,कब पढने की लगन जाग  जाये.."
माँ बहुत खुश थी,कहतीं.." मानस की माँ की चिंता दूर हो गयी...हमेशा कहती थीं..."तुम्हारी तो बिटिया  है..वो भी इतनी तेज है..और मानस तो ..लड़का होकर भी नहीं पढता....कैसे मिलेगी, नौकरी?"

मानस का अच्छा रिजल्ट उसे इस शहर  से भी दूर ले गया. वह बड़े शहर में पढने चला गया.जाने के एक दिन पहले, कई बार मानस को उसके घर के सामने से आते-जाते देखा....पर हर बार वह ओट में हो जाती. हिममत  ही नहीं हुई सामने आने की.

000

उसने भी खुद को पढ़ाई में झोंक दिया.अपने भविष्य की रूपरेखा भी तय कर ली, ग्रेजुएशन के बाद कम्पीटीशन देगी...और फिर एक बढ़िया सी नौकरी. बड़ी सी मेज़ होगी...फाइलों से लदी. सामने चपरासी हाथ बांधे खड़ा रहेगा...वाह क्या रुआब होगा.

पर उसे कहाँ पता था, वह तो परीक्षा की तैयारियों में उलझी है...घर वाले किसी और तैयारी में. यूँ ही पढ़ाई से ब्रेक लेने किचेन में कुछ डब्बे टटोलने आई तो बरामदे में बैठी  माँ और पड़ोस वाली, सिन्हा चाची  का स्वर कानो में पड़ा. " अब लड़की के भाग्य हैं और क्या..घर बैठे तुम्हे इतना अच्छा लड़का मिल गया " सिन्हा चाची थीं.

"हाँ , वो तो है...हमने अभी कहाँ कुछ सोचा था, वो तो इसकी बुआ आई थीं उन्होंने ही बताया  उनकी  पड़ोस में एक बहुत अच्छा लड़का है. उनलोगों को बस अच्छे घर की गोरी,पढने में तेज़ लड़की चाहिए..."

"अरे तेज़ लड़की...मतलब?..नौकरी करवाएंगे क्या??  लड़का अच्छा कमाता तो है...?"

"सच कहूँ तो मैं भी ऐसे ही हैरान हो गयी थी, पर सुषमा जी ने जब बताया सुन कर कुछ अजीब ही लगा....लड़की पढने में तेज़ होनी चाहिए..ताकि बच्चे मेधावी हों...क्या क्या नखरे  होते जा रहें है लड़केवालों..के..पर इनकी दहेज़ की ज्यादा मांग नहीं और शालिनी को तो दूर से बाज़ार में देख कर ही पसंद कर लिया...वरना आप शालिनी को तो जानती हैं , ना??...वह कभी तैयार होती 'लड़की दिखाने को"?? दिमाग में क्या फितूर भरा हुआ है..बहुत पढना है....कम्पीटीशन देना है..ऑफिसर बनना है....पर हमें तो ,बिना चप्पल घिसे अच्छा लड़का मिल गया...हम तो गंगा नहा लिए."...माँ थीं.

वो घड़े से पानी ले रही थी, मन हुआ ग्लास दे मारे घड़े पर और सारा पानी फ़ैल जाए,किचेन के साथ साथ उनके मंसूबों पर भी.

पर कुछ नहीं कर सकी और अनजान बन वापस कमरे में लौट आई...बस किताब उठा जोर से दूर  फेंक दी ..और बरसती आँखें ,तकिये में छुपा लीं.

पढने का भी मन नहीं होता...पर मन को बहलाने का कोई दूसरा साधन भी नहीं था...नोटबुक खोलती तो बार-बार मानस के उकेरे फूल पत्ती दिखने लगते...पर खुद को ही डांट देती...पता नहीं, किस शालिनी का नाम वह लिखता रहता है.. और वह दिवास्वप्न देख रही है.

000

इम्तहान ख़त्म हो गए और उसकी शादी की तैयारियां शुरू हो गयीं. घर जिस तेजी से मेहमान से भरने लगा,उतनी तेजी से ही उसके दिल में खालीपन घर करने लगा....कोई उत्साह,उमंग मन में जागती ही नहीं. उसने इस जीवन की कल्पना तो कभी नहीं की थी?? उसके मन की इच्छा को भली-भांति जानते हुए भी अगर  माता-पिता  एक बोझ समझ दूसरे हाथ में सौंप गंगा नहा लेना चाहते हैं..तो ऐसा ही सही.

मन इतना अवसाद से घिर चुका था, मानस का भी ख़याल नहीं आता, आता तो यही कि उसे कम से कम जिसकी चाहना है वो,उसे  मिल जाए.

आज उसकी  शादी थी और उसे पीली साड़ी पहना,आँखों में काजल लगा, एक कमरे में बिठा दिया गया था. सारे भाई-बहन, मेहमान, चहकते हुए रंग-बिरंगे कपड़ों में सजे इधर से उधर दौड़ते रहते. पल भर को हमउम्र बहने पास आ बैठतीं फिर ही ही करती हुई बाहर चल देतीं. वो वीतराग  सी चुपचाप एक चटाई पर बैठी रहती. तभी माँ का तेज़ स्वर कानों में पड़ा..."अरे मानस की माँ कहाँ,जा रही हैं?? खाना खा कर जाइये. " कुछ दिनों से घर में  सब चिल्ला चिल्ला कर बातें करते. धीरे बोलना सब भूल ही गए थे जैसे. पिछले दो दिन से  ज्यादा करीबी लोगों का खाना शालिनी के  घर ही होता था. बस समय समय पर वे लोग कपड़े बदल कर आ जाते.

" बस थोड़ी देर में आती हूँ...मानस की ट्रेन का टाइम हो चला है...वो आने ही वाला होगा..."

"अच्छा मानस आ रहा है??...आप तो कह रही थीं...उसकी छुट्टी नहीं"

"हाँ पहले तो उसने यही कहा था...पर कल कहा कि दो दिनों के लिए आ रहा है..."

"बहुत अच्छा हुआ...कॉलोनी के लड़के ही काम नहीं संभालेंगे तो कौन  संभालेगा..जल्दी आइये उसे साथ लेकर"

शालिनी को जैसे  जोर का चक्कर आ गया...क्यूँ आ रहा है मानस?...क्यूँ उसके लिए सबकुछ इतना मुश्किल बना रहा है?....क्या पहले ही यह राह कम दुष्कर नहीं. पर रोक नहीं सकी खुद को...खिड़की पर जा खड़ी हुई. कोई घंटे भर, खड़े रहने के बाद, जब पैर दुखने लगे...तब जाकर, उसकी नज़रों के फ्रेम में एक आकृति नमूदार हुई और वह घबराकर चटाई पर आकर वापस बैठ  गयी. सर घुटनों में छुपा लिया.

बरामदे में मानस के पदचाप के साथ....उसकी आवाज़...नमस्ते चाची..प्रणाम दादी..सुन रही थी. जरूर ,छोटू को ढूंढ रहा होगा. पर उसकी पदचाप तो कमरे तक आती जा  रही थी और परदा उठा वह भीतर दाखिल हो गया..उसकी झुकी गर्दन और झुक गयी.

'शालिनी"...इतने दिनों में पहली बार मानस ने बिना किसी व्यंग्य के उसका नाम पुकारा. पर उसका झुका सर उठ नहीं सका.

"शालिनी..." इस बार मानस की  आवाज़ थरथरा रही थी....और उसकी आँखों से दो बूँद...पानी टपक गए.

"शालिनी....क्या हमेशा नाराज़ ही रही होगी..." गीली हो आई थी मानस की आवाज़ और उसके आँखों से आंसुओं की धार बंध चली.

"ओक्के .. नो प्रॉब्लम....इट्स फाइन  ...यू टेक केयर.." और बहुत ही भारी थके क़दमों से वह बाहर निकल  गया.
उसने जल्दी से सर उठा..'मानस' पुकारना चाहा..पर तब तक वह परदे उठा बाहर कदम रख चुका था....उसकी थमती रुलाई दूने वेग से उमड़ पड़ी.

बाहर माँ की आवाज़ सुनाई दी.." आ गए बेटा..बहुत अच्छा किया...तुमलोगों को ही तो सब संभालना है. पर तुम मेरा एक काम करो....मेरा कैमरा तुम संभालो. फोटोग्राफर तो हैं ही..पर वो सबको पहचानता नहीं ना.....तुम मेरे कैमरे से, सारे करीबी लोगों की अच्छी अच्छी फोटो लेना...सारे रस्मों की... हाँ.."

और माँ कमरे में आ गयीं.."शालिनी जरा आलमारी से कैमरा निकाल दो तो..."

उसने बिजली की फुर्ती से कैमरा निकाल कर दे दिया...और साथ में चार रील भी. माँ ने सारी तैयारी कर रखी  थी.

मानस के हाथों में कैमरा देखना था कि बच्चों की फरमाईश शुरू हो गयी, एक हमारी फोटो लो ना भैया.." उधर से लड़कियों का झुण्ड खिलखिलाता हुआ आया..."भैया एक फोटो हमारी भी"...तभी मामियों ,चाचियों का ग्रुप टोकरी में कुछ सामान लिए उसके कमरे तक आता दिखा,और साथ में मानस को हिदायत..."अंदर चलो....रस्म   होने वाली है...उसकी फोटो ले लेना..."

कैमरा संभालता मानस अंदर दाखिल हो गया. इसके पहले भी इन चाची,मौसी,मामी,बुआ, दादी का ग्रुप उसे अक्सर घेरे रहता और अजीब  अजीब से रस्म करवाता रहता, 'यहाँ चावल चढाओ' .'यहाँ टीका करो.' वह कठपुतली सी बिना किसी अहसास के रस्म निभाये जाती पर आज थोड़ी सी अनकम्फर्टेबल थी... पूरे समय लगता रहा,एक जोड़ी आँखें उसपर टिकी हुई हैं. रस्म ख़त्म होते होते....उसके पैर सुन्न पड़ गए थे. उसने आशा भरी आँखों से उनलोगों की तरफ देखा, पर वे लोग खुद में ही मगन  थीं..."अरे ये तो लाल कपड़े में बाँधा जाता है"...."सुपारी नहीं रखी?"..."पान के पत्ते भी चाहिए थे"..."क्या जीजी अभी तो आपने बेटी की शादी की है...और सब भूल गयीं "
किसी का ध्यान उसकी तरफ नहीं था. और एक हाथ उसके आँखों के सामने आया, नज़रें उठाईं तो देखा, 'मानस ने सहारे के लिए हाथ बढाया है' वह उसकी आँखों का आग्रह समझ गया था. कैसे नहीं समझता ,'बचपन से बस आँखों की भाषा ही तो जानी है'

उसका हाथ थाम, उठते  हुए लड़खड़ा सी गयी..और मानस ने एकदम से थाम लिया,..'अरे संभल के' ..कितना स्वाभाविक सा लग रह है सब कुछ ...जैसे कितने पुराने ,गहरे दोस्त हों. वो बीच में फैली विष-बेल कहाँ विलीन हो गयी थी.

महिलाओं का सारा ग्रुप कोई मंगल गीत गाते हुए ,आँगन की तरफ चला गया कोई और रस्म निभाने. और जैसे उसे होश आया, अपनी पसीजती हथेली  उसने मानस के हाथों से छुड़ा ली.

कमरे में सिर्फ मानस और वह थे, और थी बड़ी ही असहज करती हुई सी चुप्पी.उसने ही चुप्पी तोड़ी.."खाना खाया?"
"हाँ"
"झूठ"..हंसी आ गयी उसे..."जब से आए हो कैमरा संभाले खड़े हो...खाना कब खा लिया?"....फिर से एकदम सहज हो उठा सब कुछ.
मानस भी मुस्कुरा पड़ा...फिर थोड़ा रुक कर पूछा, "तुमने खाया?"
"नहीं....मेरा  उपवास है...मुझे कुछ भी नहीं खाना.."
"अरे क्यूँ?"
"लड़कियों को शायद पहले से ही ट्रेनिंग दी जाती है कि आदत बनी रहें...क्या पता वहाँ जाकर कुछ खाने  को मिले या नहीं...या पता नहीं कब मिले.." हंस दी वह.
"बेकार की बातें हैं सब.....मैं ले आऊं?...कुछ खाओगी?..भूख लगी है?"
"नहींssss...." उसने जरा जोर से ही कह दिया..मानो ये थोड़ा सा एकांत मिला है...इसे गंवाना नहीं चाहती हो.

फिर से दोनों चुप हो गए. इस बार मानस ने ही थोड़ी देर अपनी हथेलियों को घूरते हुए कहा, "बड़ी जल्दी थी, तुम्हे शादी की"

उसने एक नज़र मानस को देखा, और नज़रें खिड़की से बाहर टिका दीं..."किसी ने कहा ही नहीं इंतज़ार करने को.."

"कैसे कहता...वह कुछ बन तो जाता पहले...तुम कहाँ इतनी तेज़....टॉपर....और मैं नकारा..किसी तरह पास होने वाला." कहने की रौ में मानस भूल गया था कि इशारे में बातें हो रही थीं.

"तुम स्कूल के..कॉलोनी के.... कॉलेज के हीरो थे" एक एक शब्द पर जोर देते हुए कहा,उसने.

"मुझे सिर्फ एक का हीरो बनना था"

"तुम उसके हीरो थे" जरा जोर देकर कहा उसने तो मानस एकदम से पूछ बैठा...

"सच??.." मानस  के दिल की धड़कन बढ़ गयी थी.

शालिनी ने एक नज़र मानस को देखा और नज़रें खिड़की के बाहर आम के पेड़ की  फुनगी पर टिका दीं...जहाँ कुछ गुलाबी कोमल पत्ते उग आए थे.ऐसा ही कुछ कोमल सा उनके बीच भी उग रहा था...पर इन  नवजात कोंपलों की उम्र कितनी कम थी. वो पेड़ के कोंपल की तरह प्रौढ़ हरे पत्ते में बदल पायेंगे कभी?

"हाँ सच...पर तुम तो पता नहीं किस शालिनी के नाम की माला जप रहें थे...
अपनी नोटबुक में उसका नाम ही लिखते रहते थे..." उलाहना भरा स्वर था उसका.

"व्हाटssss ????       .." बुरी तरह चौंक गया वह.

उसकी असहजता पर मुस्कुरा पड़ी वह, "हाँ मानस एक बार निशा के साथ मैं तुम्हारे घर गयी  थी...देखा..नोटबुक में फूल-पत्तियों के बीच किसी शालिनी का नाम लिख रखा है...मैं देखते ही भाग आई..."

"ये...ये... तो बहुत गलत है...यूँ चोरी..चोरी किसी की किताब कॉपियाँ..देखना...बैड मैनर्स... वेरी वेरी बैड, मैनर्स " मानस का चेहरा लाल पड़ते जा रहा था, बोला,"...और मैं  दूसरी किस शालिनी को जानता हूँ...? "...फिर एकदम से उसकी नज़रों में सीधा देखते हुए कहा ..."अगर ऐसा होता तो आज मैं यहाँ आता??...मुझे तो जैसे ही माँ ने बताया....बस दिमाग में एक ही बात थी...'मुझे यहाँ पहुंचना है...हर हाल में..क्यूँ, कैसे मैं कुछ नहीं जानता...दो कपड़े बैग में डाले और सीधा स्टेशन आ गया....रात भर जाग कर टॉयलेट के पास एक रुमाल बिछा कर बैठ कर आया हूँ....और तुम कह रही हो..कोई और शालिनी होगी" दर्द से भीग आया स्वर उसका.

उसकी भी आँखें भर आयीं....अब क्या फायदा मानस...तुमने जरा सी हिम्मत नहीं  की...और कोई संकेत भी नहीं दिया..उल्टा उसे हमेशा चिढाते,खिझाते ही रहें , और चिढाने की बात से सब पिछला याद आ गया, रोष उमड़ आया....आज उसे सारा हिसाब लेना ही होगा. एकदम से बोल पड़ी..."तुम मुझे इतना चिढाते, रुलाते क्यूँ थे?"

"तुम्हारी अटेंशन पाने को..इतना भी नहीं समझती थी तुम"

"हाँ, नहीं समझती थी...और जब समझने लगी....तुम दूर चले गए "..हताश होकर बोली वह.

"पता नहीं, मुझे क्यूँ तुम हमेशा डरी-सहमी सी लगती थी...लगता था तुम्हे किसी की सुरक्षा की जरूरत है...तुम्हे याद है..हमेशा मैं तुम्हारे पीछे आता था और किसी को आवाज़ देकर जता देता था की मैं पीछे ही हूँ....पर  तुमने कभी एक बार मुड कर भी नहीं देखा"

"क्या देखती...मैं तो डर जाती थी...अब फिर कुछ चिढ़ाओगे..."

"बुध्दू हो तुम..बिलकुल...स्कूल में और किसी  लड़के ने कभी कुछ कहा?...तंग किया?...परेशान किया??...क्यूंकि सब जानते थे...तुम्हे परेशान करने का अधिकार सिर्फ मेरा है..वरना वो तुम्हारी सहेलियाँ...रीता, शर्मीला..याद है..कितना परेशान करते थे लड़के, उन्हें??..." और जैसे उसे कुछ याद आ गया, हंस पड़ा...."वो उचक उचक कर बोर्ड पर 'सम' बनाती तुम...और वो बेंच पर खड़ी हो कर रोती हुई...एकदम रोनी बिल्ली लगती थी.."

"अच्छा और क्लास में मुर्गा बने तुम कैसे दिखते थे...शर्मा  सर तो तुम्हारी पीठ पर किताबें भी रख देते थे और तुम उन्हें गिरा देते....सर तुम्हे आधे घंटे और खड़ा रखते...."उसके भी होठों पर मुस्कान तिर आई.

"उन्हीं सब से तो दूर जाना था., मैं तुम्हारे काबिल बनना चाहता था...जी-जान लगा दी थी मैने पढ़ाई में...अब क्या पढूंगा...सब छोड़ दूंगा..." झुंझला गया वह.

"बेवकूफी की बातें मत करो....मेरी पढ़ाई तो अकारथ गयी....तुम बहुत बड़े आदमी बनना  ,मानस..मुझे अच्छा लगेगा."

"तुमने इतनी जल्दी शादी के लिए  'हाँ'  क्यूँ कहा,शालिनी....??" मानस ने आजिजी से कहा.

"किसने पूछा मानस??...हम लड़कियों से कभी पूछते हैं??....बता देते हैं,बस..कई बार तो तुरंत बताते भी नहीं...दूसरों से पता चलता है कि उनकी शादी ठीक  हो गयी है...." गला भर आया उसका.

मानस भी चुप हो आया, फिर शायद उसे थोड़ा सहज करने के लिए मुस्कुराता हुआ बोला, "चलो..भाग चलते हैं "

वह उसका प्रयास समझ गयी थी...उसमे शामिल होती हुई बोली, "ड्राइविंग आती है?.."

"ना"

"बाइक है?"

"उह्हूँ "..मानस ने भी साथ देते हुए सर हिला दिया.

"कोई दोस्त है...गाड़ी लेकर खड़ा...?"

"ना "

'फिर कैसे भागेंगे?..पैदल??...पकडे जाएंगे ...भागना कैंसल..पहले से सब प्लान करना था ना"

"हाँ, अब तो कैंसल ही करना पड़ेगा....कैसे कुछ प्लान करता....तुम तो ऊँची डाली पर लगी उस फूल के समान थी,जहाँ तक पहुँचने के लिए मैं इतनी मशक्कत कर सीढ़ी तैयार कर रहा था ...और तुम बीच में ही किसी और की झोली...में..." आगे के शब्द मानस ने अधूरे छोड़ दिए.

इतनी महेनत से हल्की-फुलकी बात करने की कोशिश की थी उसने पर फिर से उदासी ने अपने घेरे में ले लिया, दोनों को.

"वैसे , हू इज दिस लकी चैप ....मैने माँ से कुछ पूछा ही नहीं..."

"क्या पता "

"व्हाट डू यू मीन ...क्या पता....मिली नहीं हो?"

"ना...और कोई इंटरेस्ट भी नहीं....जो भी हो...पति परमेश्वर मानना होगा उसे"

"अरे चाचा जी ने बहुत अच्छा लड़का ढूँढा होगा...मस्ट बी अ गुड़ कैच..वरना तुम्हारी पढ़ाई ,तुम्हारा कैरियर यूँ बीच में नहीं छुडवा देते.. बहुत काबिल होगा..."..उदासी घिर आई  थी उसके स्वर में , जिसने उसे भी कहीं गहरे छू लिया.

"मानस, मुझे बहुत डर लग रहा है.." अनायास ही थरथरा आई आवाज़ उसकी.

मानस का मन हुआ उसे आगे बढ़ ,गले से लगा कर उसके अंदर का  सारा डर  सोख ले. एक आवेग सा उमड़ा...पर उसकी पीली साड़ी और मेहंदी  रचे हाथ दिख गए...जो किसी और के नाम के थे. वैसे ही जड़ बना बैठा रहा.

और तभी निशा और शोभा ने ये कहते ,कमरे में कदम रखा...."शालिनी चलो..मंडप में तुम्हे बुला रहें हैं तुम्हे... "  मानस को देखकर एकदम से चौंक गयी.

"अरे तुम कब आए....हम्म बेस्ट फ्रेंड की शादी में तो सब आते हैं...पर पक्के दुश्मन की शादी में आते पहली बार देखा किसी को..." शोभा की आवाज़ में चुहल थी.

मानस और शालिनी की नज़रें मिलीं....और सारा अनकहा सिमट आया, क्या थे वे...दोस्त..दुश्मन..या क्या.

निशा की नज़र मानस के हाथ में थमे कैमरे पर पड़ी और वह मचल उठी..'मानस शालिनी के साथ हमारी फोटो लो ना".

दोनों उससे लग कर खड़ी हो गयीं और जब निशा ने उसे कंधे से घेर गीली आवाज़ में  कहा, "कितना मिस करेंगे तुम्हे...कैसे रहेंगे  हमलोग तुम्हारे बिना..." शालिनी का इतनी देर से रुका आंसुओं का सैलाब बह चला....दोनों सहेलियाँ भी आँखें  पोंछने लगीं और उसे पता था कैमरे के पीछे भी किसी की आँखें गीली हैं.

वह मानस से पहली और आखिरी आत्मीय बातचीत थी. बड़ी दीदियाँ,उसे तैयार करने.., संवारने ले गयीं...मानस भी नहीं दिखा फिर. जब स्टेज पर जयमाल के लिए, सब  लेकर जा रहें थे ...देखा,मानस कैमरा लिए बिलकुल सामने खड़ा है...नज़रें मिलीं और वहीँ जम कर रह गयीं. एक टीस सी उठी दिल में, अब वह किसी और के पहलू में बैठने जा रही है. उसके कदम लड़खड़ा से गए, 'अरे संभालो..." सबको लगा, भारी लहंगा पैरों में फंस गया है. स्टेज पर उसका दूल्हा बैठा था...नज़र उठा कर भी नहीं देखा उसे...अब तो सारी ज़िन्दगी यही चेहरा देखना..है और स्टेज के नीचे खड़ा चेहरा शायद फिर कभी  ना मिले देखने को.

स्टेज पर तो सब यंत्रवत करती रही...लोगों की तालियाँ, हंसी ठहाकों , कैमरे के लिए बार बार वो माला पकड़ना , सबके आग्रह पर मुस्काराना ...सब मशीनवत चलता रहा पर जब कन्यादान के समय उसे माता-पिता के बगल से उठा उस अजनबी के पास बिठाया जाने लगा तो जैसे अंदर कुछ जोर का दरक गया. सामने निगाहें उठाईं तो पाया, मानस की नज़रें उस पर ही जमी हैं...उसने मानस की ओर देखा और उसकी नज़रों में इतनी शिकायत,इतना उलाहना भरा था कि मानस उसके नज़रों कि ताब सह नहीं सका. उसने गर्दन  झुका कैमरा किसी और को पकडाया  और वहाँ से चला गया. और वह एक अनजान व्यक्ति के पास बिठा दी गयी, अब उसका हाथ किसी और के हाथों में सौंप दिया गया था.
उसे पता था, अब मानस नहीं आएगा...और वह उसकी विदाई तक नहीं आया.

शालिनी के पापा, सिर्फ शालिनी की पढ़ाई की वजह से अपना ट्रांसफर कई बार रुकवा चुके थे, अब शालिनी की शादी के बाद,उन्होंने भी ट्रांसफर दूसरी जगह ले लिया और मानस फिर कभी नहीं मिला.

'प्लीज़ टाई योर सीट बेल्ट' की उद्घोषणा से उसकी तन्द्रा भंग हुई. बच्चों की सीट बेल्ट बाँधी...उन्हें जगाया...प्लेन लैंड होने वाली थी.
फिर से एयरपोर्ट पर निगाहें इधर-उधर भटकने लगी थी.

000

शालिनी को  कहाँ पता था, उसी समय देश के किसी दूसरे एअरपोर्ट पर यूँ ही एक जोड़ी निगाहें उसके लिए भटक रही थीं.  जब से मानस की  माँ को वाया वाया किसी से पता चला था  कि शालिनी अब  छुट्टियों में बच्चों को लेकर प्लेन से ही मायके आती है. उन्होंने यूँ ही मानस से एक बार पूछ लिया, "तुम्हे कभी मिली शालिनी?..." और आगे खुद ही जोड़ दिया..."मिल भी गयी तो पहचानेगा कहाँ ....अब तक कितनी  बदल गयी होगी."

मानस ने मन ही मन कहा, "माँ, वो अस्सी साल की भी हो जाए तब भी पहचान लूँगा... उसकी आँखें और मुस्कुराहट तो नहीं बदलेंगी....और तब से स्कूल की छुट्टियां शुरू होते ही, मानस की नज़रें, एयरपोर्ट पर किसी को ढूंढती रहती हैं. उसकी एयर  होस्टेस पत्नी को भी पता है, कि बचपन की अपनी फ्रेंड को वह ढूंढता रहता है.

कभी कभी मजाक भी करती है, "क्या बात है...कुछ प्यार व्यार का चक्कर तो  नहीं था.."

"व्हाट रब्बिश....हमलोग स्कूल  में साथ थे....वी वर जस्ट किड्स "

उनलोगों  के बीच जो भी था, उसे वह कोई नाम दे सकता है,क्या?

"फिर क्यूँ, इस तरह उसे ढूंढते रहते हो? "....रोज़ा  उसे थोड़ा और चिढाती है.

यही तो सैकड़ों बार खुद से भी पूछता रहता है,... क्यूँ...किसलिए.....पर जबाब कोई नहीं मिलता .