Sunday, April 10, 2011

आखिर कब तक ??

{सबसे पहले तो क्षमाप्राथी हूँ ,पाठकों...बहुत दिनों बाद कोई कहानी लिखी है...जबकि महीनो पहले खुद से और आप सबसे, एक लम्बी कहानी  लिखने का वायदा भी किया था...कहानी रोज ही दस्तक देती है...पर दूसरे ब्लॉग ने कुछ इतना व्यस्त कर रखा है...कि लिख ही नहीं पा रही. वो तो भला हो आकाशवाणी वालों का कि तकाज़ा कर के कहानी लिखवा ही लेते हैं और unedited version जो पहले पन्नो में ही दबी रह जाती थी..अब यहाँ पोस्ट कर सकती हूँ....अग्रिम शुक्रिया, सबका :) }

वह घर में सबसे छोटी थी...तितली की तरह सबके आस-पास मंडराती हुई...चिड़िया की तरह फुदक कर कभी घर के अंदर आती तो कभी बाहर. घर वालों की  ही नहीं...पड़ोसियों की भी प्यारी. उसके  कॉलेज से घर आते ही शर्मा चाची अक्सर कभी गरम हलवे , कभी गरम पोहे की प्लेट भेज देतीं. जब पूछती, "आपको कैसे पता चल जाता है....मैं घर आ गयी??"...

"अरे तेरे पंचम सुर के आलाप से पता  चल जाता है...जितनी  देर घर में तू होती है...तेरे गाने की मीठी आवाज़ आती  रहती है."

"एक दिन धोबी भी आ जायेगा ...अपने गधों को ढूंढते हुए "....ये उस से दो साल  बड़े भाई की आवाज़ थी.

"भैया sss." कह कर झपटी तो उसकी चोटी आ गयी  भैया के हाथो में...."बोल और झपटेगी ..कटखनी बिल्ली...."वह उसकी  चोटी थोड़ी और खींचता और वो चिल्ला पड़ती.."माँ sss "

माँ की आवाज़ सुनते ही भैया चोटी छोड़...किताब में आँखे गड़ा लेता....शर्मा चाची के बच्चे बड़े थे और नौकरी पर दूसरे शहर चले गए थे...उन्हें उन सबकी ये शरारत बड़ी अच्छी  लगती...माँ दोनों को डाँटती तो शर्मा चाची  ,उन्हें समझातीं..."जाने दो..शिवानी की माँ रौनक बनी रहती है..एक दिन मेरे जैसे तरसोगी कि लड़ने को ही सही बच्चे पास तो होते"....और वो भैया को जीभ चिढ़ा कर भागती तो भैया  फिर से किताबे फेंक उसके पीछे  भागता....माँ सर पे हाथ रख लेतीं..."ओह!!  कोई किसी से कम नहीं "

भैया हमेशा  चिढ़ता-खिझाता रहता पर उसे कॉलेज के लिए देर होती तो बाइक से झट कॉलेज छोड़ आता. रात में उसके साथ बैठकर उसे मैथ्स समझाता. अगर भैया की पेन उसके हाथों गुम हो गयी तो पापा जी  से शिकायत कर देता. पापा की यूँ तो वो सबसे लाडली थी पर न्याय करने के लिए पापा उसे झूठ-मूठ का भी डांट देते तो भैया को ही बुरा लग जाता , फिर उसके लिए चॉकलेट जरूर लेकर आता.

दीदी तो जैसे उसकी फ्रेंड-फिलौस्फार-गाइड ही थी...बचपन से उसके किताबो पर कवर लगा देना...उसकी किताबों की  रैक ठीक कर देना ....अपने दुपट्टे से ,उसकी गुड़िया की  सुन्दर साड़ी बना  देना . होमवर्क में मदद करना. उसकी शैतानियों को हमेशा छुपाना...दीदी ये सारा कुछ उसके लिए करती.  सहेली  से लड़ाई हो जाए तो आँसू भी दीदी ही पोछती.
 
बुआ जब भी यहाँ आती...माँ को समझाती..."भाभी  इसे भी  कुछ रसोई का काम सिखाओ  कल को पराये घर जाएगी...क्या कहेंगे सब...कि घर वालों ने कुछ सिखाया ही नहीं है. खानदान का नाम कटवा देगी,लड़की"

माँ, बुआ  की बात रखने को उसे किचन में भेज देती...और दीदी को आवाज़ लगाती " शिवानी!  आज सारा काम गुड़िया से ही करवाना "

उसका अच्छा भला नाम था स्नेहा, पर सब गुड़िया ही कहते...जब दोस्त उसे चिढाते तो उसे बहुत गुस्सा आता पर घर वालों को कौन समझाये...कॉलेज  में पढनेवाली लड़की को भी गुड़िया ही बुलाते. वो किचन में जाती तो जरूर पर दरवाजे की ओट में नॉवेल  पढ़ती रहती और दीदी भी मुस्कुरा कर कुछ नहीं कहती...बल्कि माँ की आहट सुनते  ही उसे आगाह कर देती और वो झूठ-मूठ बर्तन उठाने-रखने लगती. माँ को कुछ दाल में काला नज़र आता ,वो उसे अविश्वास से देखती तो वो पलट कर पूछती.."क्या हुआ.....तुमने कहा ना...किचन में काम करो..तो कर रही  हूँ....कल  क्लास टेस्ट है...इतना पढना है पर जाने दो, कम नंबर आए तो क्या....किचन का काम सीखना ज्यादा जरूरी है...आखिर खानदान की नाक का सवाल है "

माँ कहती.."अच्छा बाबा जा....बहुत काम कर लिया...जा तू पढ़ ,मैं शिवानी का हाथ बटाती हूँ "

वो चुपके से  नॉवेल उठा...दीदी की तरफ  एक मुस्कराहट फेंक भाग जाती .

दीदी की शादी हो गयी तो जैसे उसपर प्यार न्योछावर करनेवाले एक और जन की बढ़ोत्तरी  हो गयी. जीजाजी  की कोई छोटी बहन नहीं थी...वे अपनी छोटी बहन का सारा शौक उसके जरिये ही पूरी करते. अब कॉलेज में सहेलियाँ, उसका नया बैग....नई सैंडल....नई ड्रेस सब हैरानी से देखतीं और वो इतरा  कर कहती.."मेरे जीजाजी  लाए हैं...बम्बई  से  "

***

अभी बी.ए. पास किया कि बुआ एक रिश्ता ले आयीं...."बड़े अच्छे  लोग हैं...लड़का अफसर है....ज्यादा मांग नहीं उनकी...बस देखे-भाले  घर की लड़की चाहते हैं...मुझसे बरसों का परिचय है. मैने गुड़िया की बात चलाई तो झट मान गए "

पिता जी को लगता था...अभी बहुत छोटी है...भैया उसे और आगे पढ़ने देने और किसी नौकरी के बाद ही, शादी के पक्ष में था...पर बुआ, पिताजी से बड़ी थीं...माँ की तरह पाला था...पिताजी की एक ना चली ,उनके सामने .
दीदी की तो शादी होते ही जैसे यह घर पराया हो गया था...यहाँ के मामलो में वह मुहँ नहीं खोलती...उसने जब थोड़ा डरते हुए  हुए दीदी को फोन किया

" दीदी वहाँ,  सबसे बड़ी हो जाउंगी मैं...कैसे सम्भालूंगी...??"

"संभालना क्या है...कोई छोटे बच्चे थोड़े ही हैं वे सब....अच्छा साथ रहेगा....खुश रहेगी तू...यहाँ पर  देख तेरे जीजाजी  ऑफिस चले जाते हैं..तो सारा दिन मैं अकेले पड़ी रहती हूँ...ज्वाइंट   फॅमिली में समय अच्छा कट जाता है "

दीदी के समझाने पर उसके मन का डर भी जाता रहा. कहीं ये भी लग रहा था...क्या रौब होगी..बड़ी भाभी बनेगी वह ..यहाँ तो सबसे छोटा समझ सब बस लाड़-प्यार ही लुटाते हैं...कोई गंभीरता से लेता ही नहीं.  
 पर ससुराल वालों की गंभीरता का अंदाजा उसे एंगेजमेंट से ही होने लगा. पास में बैठे अजनबी ने जैसे बस एक उचटती नज़र डाली उस पर. वरना कई कजिन्स को देख चुकी थी...लड़के जैसे बात करने के बहाने ही ढूंढते रहते.

शादी के रस्मो में भी होने वाले पति को गंभीर मुखमुद्रा में ही देखा. सहेलियों को ज्यादा मजाक करने की हिम्मत भी नहीं  हुई.

माँ ने समझाया था...ससुराल में जल्दी से उठ कर चाय बना देना....यहाँ की तरह आठ बजे तक मत सोती रहना. उसे भी दिखाना था...वह अपने घर की छोटी-लाडली है तो क्या जिम्मेवारियाँ संभालना  खूब आता है,उसे. सुबह ही उठ, नहा-धो किचन में पहुँच गयी. चाय बना कर ट्रे लेकर निकल  ही रही थी कि सासू माँ ने टोक दिया..."बहू पल्ला रखो सर पर "

अब थोड़ी देर वो इसी में उलझी रही..पल्लू  रख जैसे ही  ट्रे थामे, पल्लू  गिर जाए. फिर से पल्लू संभाले...सासू माँ गौर से ये सब देखती रहीं पर कहा नहीं कि 'रहने दो'...आखिरकार उसने पल्लू ठुड्डी से दबाया और किसी तरह, आगे बढ़ी तो लगे कि साड़ी अभी पाँव में उलझ जायेगी और वो गिर जाएगी...किसी तरह मैनेज किया. ससुर जी के सामने ट्रे रखी...सोचा ससुर जी खुश हो जाएंगे...और दो घड़ी पास बैठा बातें करेंगे ...पर उन्होंने अखबार हटा कर एक बार देखा और फिर अखबार में नज़रें गड़ा लीं....जब उसने बड़ी नम्रता से पूछा, "चीनी कितनी चम्मच?" सपाट स्वर में उत्तर मिला.."एक चम्मच "

वह निराश सी बाहर चली आई. फिर भी, कोशिश नहीं छोड़ी....खाने के समय पास खड़ी रहती..पूछती रहती ..."और सब्जी दूँ...रायता दूँ..".कोई ना कोई बात शुरू कर देती..आज गर्मी बहुत है...आपको ऑफिस से आते वक्त ज्यादा ट्रैफिक तो नहीं मिला....एक दिन ससुर जी ने रूखे स्वर में कह दिया..."जो चाहिए कह दूंगा...प्लीज़ डोंट डिस्टर्ब..." शायद ससुर जी को अपने रूटीन में बदलाव पसंद ना था. वे घर में किसी से भी बहुत कम बातें किया करते  थे.

ससुर जी की ही आदत उनके बड़े बेटे को भी थी....घर में सिर्फ खाने-कपड़े से ही मतलब था....दोनों बाप-बेटे टी.वी. पर समाचार देखते और जैसे ही सासू जी के सीरियल देखने  का वक्त होता....दोनों उठकर अपने-अपने कमरे में चले जाते. वह असमंजस में पड़ जाती..पति के साथ,कमरे में बैठे  या सासू माँ के साथ सीरियल देखे. पति तो अपने लैप टॉप पर दफ्तर का कोई काम लिए बैठे होते...वह कमरे...ड्राइंग  रूम और किचन का चक्कर लगाती रहती.

शादी से पहले ,इतनी खुश थी....हमउम्र देवर और ननदें हैं...बढ़िया वक्त कटेगा....उसने सोचा ननद की कोई बहन नहीं वो सार प्यार उंडेल देगी...पर ननद कॉलेज से सीधी अपने कमरे में जाती और सेल फोन से चिपक जाती. एकाध बार उसने जबदस्ती कमरे में जा बात करने की कोशिश भी की ..तो ननद ने बड़े अनमने भाव से उत्तर दिया....और वो पलट कर दरवाजे तक भी नहीं पहुंची थी कि  ननद पीठ फेरे...किसी को फोन पे कह रही थी..."अरे भाभी थीं...कॉलेज से आओ नहीं कि बहाने से आ जाती हैं कमरे में....इत्मीनान से फोन पे बात भी ना कर सको..."

उसने ननद से दोस्ती बढाने की कोशिश छोड़ ही दी...उसे लगा था, देवर हमेशा भाभियों के प्यारे होते हैं...एक दिन देवर अपने दोस्त के साथ सिनेमा देखने गए थे. सास और पति के मना करने के बावजूद वो उसका इंतज़ार करती रही...ड्राइंग रूम में चैनल बदल कर समय काटती रही...देवर ने अपनी चाबी से दरवाज़ा खोला...और उसे ड्राइंगरूम में देख एक मिनट के लिए हेडफोन निकाला और पूछा..."अरे भाभी नींद नहीं आ रही आपको...या भैया से लड़ाई हो गयी...हाँ " और फिर से हेडफोन कान में लगाए गाने पर झूमता सर हिलाता अपने कमरे में चला गया.

उसने ही  कमरे के दरवाजे पर जाकर पूछा, "खाना गरम करती हूँ....जल्दी से हाथ मुहँ धोकर आ जाइए..."
"ओह! क्या भाभी....आप कितनी ओल्ड फैशंड हैं....मुझे खाना होगा...तो माइक्रोवेव में गरम कर लूँगा..वैसे अक्सर मैं खाना खा कर ही आता हूँ...गुड़ नाईट भाभी एंड  थैंक्स फॉर आस्किंग .."..कह कर वापस हेडफोन लगा...झूमना शुरू कर दिया.

इस घर का  रंग-ढंग अलग सा था...सब एक छत के नीचे रहते थे...पर सबकी दुनिया अलग थी...वो सबकी दुनिया में कदम रखने  की कोशिश करती...पर दरवाज़ा बंद पाती...और फिर बंद दरवाजे से टकरा बार-बार उसका मन लहु-लुहान हो जाता.

पति को घूमने -फिरने का शौक  नहीं था...उनका देखा-जाना अपना शहर था...कोई उत्साह नहीं रहता ,कहीं जाने का. शुरू-शुरू में वो ही जिद कर बाहर जाने पर मजबूर करती. पति बड़े बेमन से, गंभीर चेहरा  बनाए साथ हो लेते ....पर हर जगह कोई ना कोई परिचित मिल जाता और फिर तो पति की मुखमुद्रा बिलकुल बदल  जाती..इतने गर्मजोशी से मिलते और बातों का वो सिलसिला शुरू होता कि उसकी उपस्थिति ही भूल  जाते. धीरे-धीरे बाहर घूमने जाने का उसका सारा उत्साह ठंढा पड़ गया.

बस एक सहारा दीदी और सहेलियों के फोन का रहता..फोन पर बात करते वो अपने आस-पास का  पूरा परिवेश भूल, जाती..लगता वही कॉलेज का लॉन है या फिर घर की छत. ऐसे ही एक दिन देर तक बातें की थी दीदी से...दीदी ने उन्हें बम्बई बुलाया था और पतिदेव ने भी हामी भर दी थी...मन इतना खुश-खुश था...बाथरूम में देर तक गुनगुनाते हुए नहाती रही....बाहर निकली तब भी गीले बालों को झटकते गाना जारी रहा....कुछ  देर बाद जब लम्बे बाल पीछे की तरफ फेंक सामने देखा तो दरवाजे पर खड़े पति गौर से देख रहे थे. एक सल्लज मुस्कान फ़ैल गयी उसके चहरे पर...ये ध्यान भी आया, यहाँ  आकर तो वह गाना ही भूल गयी है...पति ने पहली बार उसका गाना सुना है...शायद अभी आकर बाहों में भर लेंगे और कहेंगे, "कितनी मीठी आवाज़ है तुम्हारी...हरदम क्यूँ नहीं गाती?" .इंतज़ार में जैसे साँसे भी रुक गयी थीं...पर कोई आहट नहीं हुई..नज़रें उठा कर देखा तो पति अखबार उठा कुर्सी की तरफ जा रहे थे...उसे अपनी तरफ देखता पाकर बोले..."इतनी जोर से गा रही हो...बगल के कमरे में ही माँ- पापा हैं ...कुछ तो सोचा करो..." और अखबार फैला लिया सामने. मन तो हुआ, वो भी पैर पटकती हुई  बाहर चली जाए. पर फिर सोचा..आज इतवार है और दिन बस शुरू ही हुआ है..सारा दिन अबोला रह जाएगा. किसी तरह आँसू ज़ज्ब करते हुए , स्वर को सामान्य बनाते हुए , पूछा..."दीदी ने बुलाया है....आपने भी हाँ कहा..कब चलेंगे ?"

"छुट्टी कहाँ है??...इतना काम है दफ्तर में...कैसे जा सकता हूँ??...अब वो , हाँ तो कहना ही पड़ता है...बाद में कोई बहाना  बना देंगे " और कहते अखबार में डूब गए.

वो जैसे आसमान से गिरी....कितनी खुश थी  वह... कितनी ही योजनायें बना डालीं . अब अपने आँसू रोकना मुश्किल हो गया. किचन में जाकर ढेर सारे प्याज काट डाले. सास ने आश्चर्य से पूछा..."इतने सारे प्याज??"
ऑंखें नाक पोंछते हुए इतना ही कहा..."हाँ, आज सोचा आलू दोप्याज़ा बना दूँ  "

***
 उसने तय कर लिया, अगर घर वालों  की अपनी दुनिया है तो वो भी अपनी अलग दुनिया बसा लेगी और खुश रहेगी,उसमे. और खाली वक्त में अखबारों के कॉलम देखने  लगी..या तो नौकरी करेगी या फिर कोई बढ़िया सा कोर्स. अभी यह तलाश जारी ही थी  कि माँ बनने की खुशखबरी मिली. लगा  अब घर का माहौल बदल  जाएगा.
नन्हे बेटे की किलकारी ने घर में रौनक तो ला दी. पर उसकी दिनचर्या में ज्यादा बदलाव  नहीं आया , बल्कि  नई जिम्मेवारियाँ और शुमार हो गयीं. बेटे को तो सब खूब खिलाते...सार दिन घर का कोई ना कोई सदस्य गोद में उठाये फिरता. पर काम सारा उसके जिम्मे था..."स्नेहा जरा,इसके कपड़े बदल  दो "  दूध  का टाइम  हो गया है..दूध पिला दो."..."लगता  है नींद आ रही है..सुला दो.." वो नींद में ही उसके पास आता. कभी-कभी उसे लगने लगता कहीं बड़ा होकर ये ना सोचे माँ सिर्फ काम के लिए ही होती है..और बाकी सबलोग साथ खेलने को.

मितभाषी पति भी बेटे के साथ खूब खेलते....एक दिन प्रैम  खरीद कर ले आए ,वो  बहुत खुश हुई...अब
प्रैम में बेटे को लिटा..दोनों पति-पत्नी पार्क में उसे घुमाने के लिए ले जाया करेंगे. लेकिन दूसरे दिन  ही पति ने ऑफिस से आते ही जल्दी से कपड़े बदले...और बोले...'इसे तैयार कर दो..जरा मैं घुमा कर ले  आता हूँ "
 

वो मन मसोस कर रह गयी. 'हाँ..उसे तो किचन देखना है...वो कैसे जा  सकती है??' 

***
जब देवर की भी शादी तय हो गयी तो सबसे ज्यादा ख़ुशी उसे ही हुई ...एक सहेली मिल जाएगी उसे...वो भी तो दूसरे घर से आएगी...यहाँ के तौर-तरीके से अनभिग्य . तय कर लिया ,उसे वो कभी अकेलापन  नहीं महसूस होने देगी.

पर उसने पाया ...देवरानी ने तो कोई कोशिश ही नहीं की इस घर में घुलने-मिलने की. पहले दिन ही
इतनी देर तक सोती रही कि सासू जी को ननद को भेजना पड़ा,उसे जगाने . और जब उसे नहा धोकर नाश्ते के लिए बाहर आने के लिए कहा गया तो कह दिया..."अभी तो तैयार होने में बहुत समय लगेगा...दोनों जन का नाश्ता कमरे में ही भिजवा दी जाए." ननद पैर पटकती हुई अपने कमरे में चली गयी...."मेरे हाथों भेजने की सोचना भी मत "

सासू जी ने असहाय हो  उसकी तरफ देखा तो वो भाग कर कामवाली को बुला लाई...शुक्र है, उसने उसे अतिरिक्त पैसे का वायदा कर दिन भर  के लिए रोक लिया था......वरना उसे ही सेवा में हाज़िर होना पड़ता.
देवरानी ने बाद में भी कभी जल्दी उठने की कोशिश नहीं की..बल्कि उसे ही कहती.."आप कैसे इतनी जल्दी उठ जाती हैं....मेरी तो आँख ही नहीं खुलती" क्या बताये वो...'मायके में वो भी देर तक सोया करती थी."

देवर के ऑफिस जाने के बाद ही वो नहा धोकर बाहर आती....सासू माँ को कुछ टोकने का मौका ही नहीं मिलता और तब तक किचन का सारा काम सिमट गया होता. थोड़ी देर इधर-उधर घूम फिर अपने कमरे मे चली जाती. अपने कपड़े -जेवर -चूड़ियाँ सम्हालती  रहती. कमरे को सजाती रहती. सास-ननदें भी तारीफ़  करतीं. 'कितने सुंदर ढंग से सजा कर अपना कमरा रखती है'
वो इशारा समझ जाती...पर कह  नहीं पाती कि 'मैं तो सारा घर ही संभालती रहती थी...अपने कमरे की बारी ही नहीं आती '

देवरानी दिन में सो जाती और सोकर उठते ही तैयार होना शुरू कर देती. देवर ऑफिस से आ बमुश्किल चाय पीते और पत्नीश्री को लेकर घूमने निकल  जाते. सास भी स्नेह से निहारते हुए कहतीं, "एकदम राम-सीता सी जोड़ी है...दोनों के ही एक से शौक, निलय घूमने-फिरने का शौक़ीन....बहू भी वैसी ही मिली है....निशांत तो  अपना भोले राम है...उसे कभी भी घूमने -फिरने का शौक नहीं रहा "

उनके शौक ना होने की  वजह से वो कितना घुटती रही...इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता.

देवरानी किसी दिन घूमने नहीं जाती और किचन में आ कभी सब्जी बना देती तो पूरे घर में शोर हो जाता...खाने की टेबल पर सासू जी इंगित करतीं.."आज तो सब्जी ,छोटी बहू ने बनाई है...." और हमेशा मौन रहकर खाना खाने वाले ससुर जी...भी बोल पड़ते, "अच्छाss थोड़ी और दो...बहुत बढ़िया बनी है..." पतिदेव को लगता ,उन्हें भी हाँ में हाँ मिलानी चाहिए...वे भी स्वाद लेते हुए बोलते..."सचमुच बहुत बढ़िया बनी है..." देवर इस प्रशंसा पर ऐसे फूलते, जैसे उनकी ही तारीफ़ हो रही हो.

***

आज वो बेटे को थपकते-थपकते  खुद भी लेट गयी थी...पर नींद आँखों से कोसों दूर थी...शारीरिक थकान से ज्यादा मानसिक  थकान थी, शायद. वह अपने  दिन याद कर रही थी,जब नई-नई इस घर में आई थी...सबके आस-पास मंडराती रहती पर कोई नोटिस भी नहीं लेता बल्कि अक्सर उपेक्षा ही झेलनी पड़ती और आज यही देवरानी....अपने कमरे में ही बनी रहती है...तो पति -ससुर सब पूछ लेते हैं....'अंकिता नहीं दिख रही...उसकी तबियत तो ठीक है...?"

उस से तो किसी ने नहीं पूछा, कभी...पर उसने कभी मौका ही नहीं दिया...बुखार में भी गोलियाँ ले कर काम में लगी रहती. क्या ये ठीक किया ??
मायके में किसी ने  उसे कभी सामने बिठा कर नहीं समझाया पर उम्र की सीढियां पार करते हुए, कहानियों में, धर्मग्रंथों में पढ़कर.....फिल्मो में देखकर..अपनी दादी-नानी-बुआ-मौसी-माँ को देखकर यह  अहसास अपने आप मन में घर करता गया कि लड़की को त्याग करना चाहिए...अपनी इच्छा के ऊपर दूसरों की इच्छा सर्वोपरि  रखनी चाहिए...सबको खुश रखना चाहिए...सारा दुख हँसते-हँसते सह जाना चाहिए....ससुराल के नियम-कायदे बिना ना-नुकुर के अपना लेने चाहिए.  और उसने इन सबमे कुछ ज्यादा ही  बहादुरी दिखाई...खुद आगे बढ़कर सारे काम अपने ऊपर ले लिए...और अब दो साल  में तो ससुर जी की दवाई....सासू जी की धूप -अगरबत्ती...ननद का डियो...देवर की जींस...पति की तो कोई भी  चीज़ अगर ना मिले तो सब एक ही पुकार लगाते हैं....और वो भी दौड़-दौड़ कर सबकी जरूरतें पूरी करती रहती है.

 पर इन सबमे उसकी स्थिति उस अदृश्य  हवा की तरह हो गयी ...जिसके बिना कोई जी नहीं सकता...सबको उसकी जरूरत है. पर हवा  दिखाई नहीं देती... हवा के लिए कुछ करने की जरूरत नहीं महसूस होती.....उसका ख्याल रखने की जरूरत नहीं पड़ती...ना ही उसकी अहमियत समझ में आती है. क्यूंकि वो तो हमेशा अपने आस-पास बनी हुई है.

खुद को  मिटा कर वह इस घर में इस तरह घुल-मिल गयी है कि उसका कोई अस्तित्व ही नहीं बचा....आज जब अंकिता अलग-थलग बनी हुई है तो सब उसका अस्तित्व महसूस तो कर रहे हैं. क्या जग की यही रीत है??...सामने झुके लोगों की ही उपेक्षा की जाती है. और अगर  कोई आपकी ही उपेक्षा करने लगे तब जाकर उसका अस्तित्व महसूस होता है.

अचानक घड़ी पर जो नज़र गयी तो देखा पांच बज गए हैं...एकदम से हडबडा कर उठ बैठी....अभी तो पानी आनेवाला होगा...सब जगह उसे पानी स्टोर करना है. घर में आते ही उसने ये काम सासू जी से अपने हाथों में ले लिया था. दौड़-दौड़ कर किचन बाथरूम...सब जगह पानी भरती और ये जिम्मेवारी उस पर आ पड़ी. ननद और सासू दोनों अपने अपने कमरे में आराम करती रहतीं और पानी आने के समय का ख्याल उसे ही रखना  पड़ता. सोचती..चलो,सासू जी ने तो इतने वर्षों तक ये सब किया है..ननद तो छोटी है...कॉलेज से थकी हुई आई है...ये सब उसे ही करना चाहिए.

पर अब तो घर में देवरानी भी है . वो भी कर सकती है...और वो दुबारा लेट गयी...जाने दो आज देखती है....कोई और उठता  है या नहीं,पानी भरने...अगर कोई पानी नहीं भरता तो होने दो थोड़ी मुश्किल...कह देगी, उसकी आँख लग गयी....आखिर वो भी इंसान ही है...कोई मशीन नहीं.

और फिर 'आहान' को तैयार कर पति के आने से पहले ही पार्क में ले जायेगी...कह देगी...रो रहा था...बहलाने को ले गयी...जब पति को नहीं महसूस होता कि ऑफिस से आकर कुछ समय पत्नी के साथ बिताएं तो वो ही क्यूँ पानी का ग्लास और चाय का कप  पकडाने को इंतज़ार करती रहे. खुद से लेकर पानी पी सकते हैं. बहन, माँ, अंकिता...कोई भी चाय बना कर दे सकती  है. चाहें तो बाद में पार्क में आ सकते हैं. और ना तो ना सही....अब उसे थोड़ा समय खुद के लिए भी निकालना  ही होगा...वरना उसका वजूद ही मिटता जा रहा है ....वो सिर्फ किसी की बेटी-बहू-माँ बन कर ही रह जायेगी.

यह फैसला करते ही एकदम हल्का हो आया मन और सालों बाद भुला हुआ सा पसंदीदा गीत होठों पर आ गया...गुनगुना उठी...
 

अजीब दास्ताँ है ये...कहाँ शुरू कहाँ ख़तम
ये मंजिलें हैं कौन सी...ना वो समझ सके...ना हम