Sunday, September 25, 2011

दो वर्ष पूरा होने की ख़ुशी ज्यादा या गम....

२३ सितम्बर को इस ब्लॉग के दो साल हो गए. पर इस बात की ख़ुशी नहीं बल्कि अपराधबोध से मन बोझिल है.  पिछले साल इस ब्लॉग पर सिर्फ दो लम्बी कहानियाँ और एक किस्त,वाली बस एक कहानी लिखी.

जबकि sept 2009 -sept 2010  के अंतराल में आठ-सोलह-चौदह किस्तों वाली तीन लम्बी कहानियाँ  और चार छोटी कहानियाँ लिखी थीं. मन दुखी इसलिए है कि  ऐसा नहीं कि  प्लॉट   नहीं सूझ रहा...कम से कम पांच-छः प्लॉट और दो लम्बी कहानियाँ अधूरी लिखी पड़ी हुई हैं. पर पता नहीं वक्त कैसे निकल जा रहा है...शायद दूसरे ब्लॉग की सक्रियता कहानियों की राह में रोड़े अटका रही है...एक मित्र से यही बात शेयर की तो उनका कहना था...."कहानियाँ तो खुद को लिखवा ही लेंगी...दूसरे ब्लॉग पर सक्रियता कायम रखें...वो ब्लॉग लोगो को ज्यादा पसंद है..".. ..हाँ, कहानियाँ शायद लिखवा ही लें खुद को...पर इस अपराधबोध का क्या करूँ...जो जब ना तब मन को सालता रहता है. 

खासकर तब,जब मेरी बहन शिल्पी ने कहा..., "आज भी पहले 'मन का पाखी' ही खोल कर देखती हूँ...नई कहानी आई है या नहीं"...और उसने एक बड़ी महत्वपूर्ण बात कही...कि "कहानियाँ, पाठकों की कल्पना को विस्तार देती हैं...वे अपनी दृष्टि  से किसी भी कहानी को देखते हैं.." . कुछ और पाठक हैं..जो यदा-कदा टोकते रहते हैं..'कहानी नहीं लिखी कब से आपने ' और मैने सोच लिया....लम्बी कहानियाँ तो जब पूरी होंगी तब होंगी...एक कहानी तो पोस्ट कर दूँ..

और मैने "
हाथों की लकीरों सी उलझी जिंदगी                          " लिख डाली.
 अब पाठकों को  बता दूँ कि ये कहानी ,जब मैं कॉलेज में थी,तभी लिखा था. दुबारा टाइप करते वक्त कुछ चीज़ें जुड़ गयीं...क्यूंकि हाल-फिलहाल की कहानी हो और टीनेजर्स से जुड़ी  हो तो फिर उसमे मोबाइल और एस.एम.एस. का जिक्र कैसे ना हो. 

मैने समीर जी से वादा भी किया था...कि डा. समीर के नाम के विषय में  पूरी कहानी पोस्ट करने के बाद लिखूंगी. जब मैने यह कहानी लिखी थी तो पात्रों के यही नाम थे. ब्लॉग में पोस्ट करते वक्त मुझे इस बात का ध्यान था कि समीर जी एक नामी ब्लोगर हैं और मेरी कहानियों के पाठक भी. फिर भी मैं यह नाम नहीं बदल पायी. दूसरे कहानी लेखकों का नहीं पता..पर मेरे साथ हमेशा ऐसा होता है कि कहानी के हर पात्र का नाम ही नहीं एक अस्पष्ट सी तस्वीर भी मेरे सामने बन जाती है. ऐसा लगता है..उसे कहीं देखूं तो पहचान लूंगी. और वो नाम...उनका व्यक्तित्व उस कहानी से कुछ ऐसे जुड़ जाते हैं कि फिर उन्हें बदलना मेरे लिए तो नामुमकिन है. आज भी शची-अभिषेक, नेहा-शरद, पराग-तन्वी, मानस-शालिनी .सब जैसे मेरे जाने-पहचाने हैं. प्रसंगवश ये भी बता दूँ कि ये 'नाव्या' नाम मैने कहाँ से लिया था??..अमिताभ बच्चन  के छोटे भाई की बेटी का नाम उनके पिता हरिवंश राय बच्चन ने रखा था, 'नाव्या नवेली'. मैने कहीं ये पढ़ा और ये नाव्या नाम तभी भा गया.

वैसे अब, जब कहानियाँ लिखती हूँ...तो सबसे बड़ी समस्या नामों की  होती है. परिचय का दायरा दिनोदिन विस्तृत होता जा रहा है...और कोई भी परिचित नाम रखने से बचती हूँ. ऐसे में बेटों को कहती हूँ...'जरा अपने सेल की कॉल लिस्ट पढो...वे नाम पढ़ते जाते हैं...और उनमे से ही नाम चुन लेती हूँ..'तन्वी'...मानस' ... 'पराग' नाम ऐसे ही चुना था :) 

हाथों की लकीरों सी उलझी जिंदगी से जुड़ी कुछ और बातों का जिक्र करने की इच्छा है...ये कहानी शायद मैने बीस साल पहले लिखी थी . {कोई सबूत चाहे तो पन्नो को स्कैन करके भी लगा सकती हूँ..पर एक वादा करना होगा...मेरी लिखावट पर कोई हंसेगा नहीं.,...वैसे इतनी बुरी भी नहीं है कि हँसे कोई ..पर हंसने वालो का क्या पता :( } 
ये साधारण सी कहानी है....मैं भी इसे अपनी प्रतिनिधि कहानियों में नहीं गिनती. कई  वर्षों बाद, 'विक्रम सेठ' ने  एक महा उपन्यास " Suitable  Boy  "  लिखा . इसे Booker's Prize के लिए भी नामांकित किया गया. कई सारे अवार्ड मिले. मैने भी इस उपन्यास की चर्चा अपनी एक पोस्ट में की थी...जिसमे नायिका बहुत ही कन्फ्यूज्ड है कि वो किस से शादी करे. एक उसका कॉलेज का पुराना प्रेमी है. एक बौद्धिकता के स्तर पर बिलकुल सामान, कवि-मित्र और एक उसकी माँ के द्वारा चुना गया, सामान्य सा युवक जो बुद्द्धिजिवी नहीं है परन्तु अपने काम के प्रति पूरी तरह समर्पित है. 

मैने यह पोस्ट लिखने एक बाद अपने एक मित्र से चर्चा की कि मैने भी बरसो पहले एक कहानी लिखी थी...जिसमे नायिका  समझ नहीं पाती कि वो किसे पसंद करती है. (हालांकि दोनों स्थितियों में बहुत अंतर है....मेरी कहानी में  तो प्यार का इजहार ही नहीं हुआ). संक्षेप में उस मित्र को कहानी सुनाई तो उन्होंने कहा कि " ये कहानी तो बहुत आगे तक बढ़ाई जा सकती है...जिसमे नायिका को तीनो युवक को जानने का अवसर मिलता है..उसके बाद उसे पता चलता है कि किसके लिए उसके दिल में जगह है. मैने उनसे कहा , "ठीक है....यहाँ तक ये कहानी मैने लिखी...अब इस से आगे की आप लिखिए ..एक नया प्रयोग होगा "

{वैसे भी ब्लॉगजगत में बहुत पहले 'बुनो कहानी ' लिखी जाती थी. जिसे दो लोग मिलकर लिखते थे. मैं जब अपनी पहली लम्बी कहानी पोस्ट कर रही थी,तभी किसी ने ये प्रस्ताव रखा था  कि "आप इस कहानी को पूरा कर लीजिये तो दुसरो के साथ मिलकर 'बुनो कहानी' ' के अंतर्गत एक कहानी लिखिए. उन्होंने कुछ नाम भी सुझाए कि  उनके साथ  मिलकर लिखिए ". तब उन्हें भी पता नहीं था और शायद मुझे भी कि  अभी तो मेरे झोले से ही नई नई कहानियाँ निकलती जा रही हैं..और कुछ निकलने को बेकरार हैं :)}

मेरे मित्र ने  बड़े उत्साह से 'हाँ' कहा. लेकिन वे युवा लोग...अभी जिंदगी शुरू ही हुई है...जिंदगी की सौ उलझनें....नौकरी बदल ली...नई नौकरी की डिमांड...और भी बहुत कुछ होगा...ये बात वहीँ रह गयी...वैसे आप सबो को खुला निमंत्रण है...जो भी चाहे इस कहानी को आगे बढ़ा सकता है...:)


सभी पाठकों का बहुत बहुत शुक्रिया ...जिन्होंने मेरी कहानियाँ पढ़ीं...और टिप्पणी देकर उत्साह बढाया ...मार्गदर्शन भी किया...आशा है आने वाले वर्ष में आप सबो को निराश नहीं करुँगी...और सारी अधूरी कहानियाँ लिख डालूंगी...शुक्रिया फिर से...लगातार दो वर्ष तक साथ बने रहने के लिए...:)

Tuesday, August 30, 2011

हाथों की लकीरों सी उलझी जिंदगी (समापन किस्त)


(नाव्या का एक्सीडेंट हो जाता है...रितेश उसे हॉस्पिटल लेकर आता है...हॉस्पिटल में जिंदादिल डा. समीर से उसकी मुलाक़ात होती है)

 सीनियर डॉक्टर राउंड पर आते और वो आस लगाए बैठी होती..शायद उसे       छुट्टी दे दें....लेकिन उसका डिस्चार्ज होना टलता जा रहा था...कुछ इसमें डैडी का भी योगदान था...सुबह वे डॉक्टर के राउंड के समय जरूर उपस्थित होते और कहते..."जितने नियम से हॉस्पिटल  में खाना -पीना, रेस्ट, दवाएं...सब समय  पर हो जाता है.. घर में संभव ही नहीं....यहाँ सुबह सात बजे ब्रेकफास्ट के साथ दवाइयां भी दे दी जाती हैं...घर में ये दस के पहले तो उठेंगी नहीं...और फिर देर रात तक टी.वी. देखना...अपनी मनमानी करना...ना डॉक्टर, आप जब तक बिलकुल इत्मीनान ना हो जाएँ...इसे डिस्चार्ज करने की जल्दी ना करें..."

"पर माँ को कितनी तकलीफ होती है...वे तो घर पे आराम कर सकती हैं..." उसे सच में माँ के लिए बहुत बुरा लगता था..बिचारी एक पतले से कॉट पर सोती थीं...करवट लेने में भी डर लगे.

पर माँ तुरंत बोल पड़ीं.."ना ना मुझे कोई तकलीफ नहीं..."

डॉक्टर हंस पड़े..."डोंट वरी बेटा...हम तुम्हे जरूरत से ज्यादा यहाँ नहीं रखेंगे....बस जल्दी ही छुट्टी दे देंगे..."

रुआंसी हो गयी वो....अपना कमरा अपना बिस्तर बहुत मिस कर रही थी....वैसे मन नहीं  लग रहा था ऐसा नहीं था...बल्कि एक उपलब्धि सा ही लग रहा था...ये एक्सीडेंट....माँ-डैडी का इतना प्यार...रितेश और समीर का इतना सुखदाई साथ. जिंदगी का रूप हमेशा ऐसा ही रहे तो कितना अच्छा हो. यूँ ही...डैडी दिन में कुछ घंटे जरूर उसके साथ बिताएं...माँ खाने के साथ-साथ उसकी हर चीज़ का ख्याल रखे. रितेश ऐसे ही उसके लिए फूल लाता रहे और डा. समीर उन फूलों पर हाथ फेर..'क्वाईट लवली...' कहते हुए दुनिया जहान  की बातें करते रहें.

पर दुनिया में हर ख़ुशी के साथ एक 'प्राइस टैग' लगा होता है...इन सारे सुखद पलों की कीमत उसे हॉस्पिटल के बेड पर पड़े रहकर चुकानी पड़ रही थी.

रितेश के मितभाषी होने और कुछ खोये-खोये सा अपने में ही गुम रहने से, उसे सपनो में जीने वाला बिलकुल सीधा-सादा लड़का समझती थी...पर जमाने की नब्ज़ पर उसकी पकड़ ढीली नहीं थी...जब माँ ने कहा..." मुझे फूल बेहद पसंद है....पहले तो माली को हिदायत दे रखी थी....रोज ताजे फूल ही ड्राइंगरूम में रखा करे...पर अब तो इधर-उधर के कामो  से फुरसत ही नहीं मिलती...कि इन सबकी  तरफ नज़र भी करूँ."(माँ हमेशा..अपनी समाज-सेवा को इधर-उधर के काम कहकर गौण कर देतीं...उसके टोकने पर माँ का कहना था,लोग कहीं ये ना समझें की उन्होंने पैसे और समय होने की वजह से एक फैशन की तरह समाज-सेवा अपनाया हो...शुरुआत भले ही माँ ने समय काटने के लिए किया हो..पर अब वे पूरी तरह इसमें रम गयीं थीं.)

और रितेश सीधा फूल लाकर माँ के हाथों में ही थमा देता.

"अरे रोज़ क्यूँ लाते हो...ये कैसी फोर्मलिटी है?'

"नहीं आंटी... हमारे पिछवाड़े बहुत ही सुन्दर बाग़ है फूलों का..अपने बगीचे के ही फूल हैं..."

उसने हंसी छुपा ली...."हूँssss खूब!! ...जाने कितने पैसे खर्च कर चुके होगे फूलों पर...अपने घर के गुलाब, रोज़ रोज़  कोई यूँ लम्बे डंठल के साथ तोड़ता है??....माँ ने ध्यान नहीं दिया..वर्ना वे भी समझ जातीं .

पर रितेश था बहुत ही शांत किस्म का....आते ही एक हलके से स्मित के साथ पूछता..."कैसी हैं?"...और इन दो शब्दों के कहने के ढंग में ही सारे उद्गार सिमट आते. फिर कुर्सी खींच कर साथ लाई  किताबें-पत्रिकाएं  दिखाने लगता .उसे पढ़ने से सबलोग मना करते  कि आँखों पर जोर पड़ेगा...ये जिम्मा रितेश ने ले लिया था..कहता, दोपहर वो बिलकुल खाली रहता है...वो जबतक बैठता...माँ एक चक्कर बाज़ार का या घर का लगा आतीं. 

 उसने एक दिन पूछ लिया.."आपकी कविताओं में रूचि है?'

"हाँ.. हाँ..बिलकुल.. बहुत  पढ़ती हूँ..." उसने कहने को कह दिया.

"अरे वाह...बच्चों सा खिल उठा उसका चेहरा..."मैं आपको बहुत ही अच्छी-अच्छी कविताएँ पढ़ कर सुनाऊंगा..." वो तो बाद में जाना उसने... कविताओं में तो उसकी जान बसती थी.

भाव-भरी आवाज़ में वो कविता दर कविता पढता चला जाता...बिलकुल कविता में डूब ही जाता...अंदर से महसूस करते हुए पढता वह...और अब उसे रितेश की उदास आँखों का रहस्य पता चला...कविता पढ़ते वक़्त..कविता के अंदर का सारा दर्द वो जैसे सोख लेता...और वही दर्द उसकी आँखों में तैरते तैरते जम जाता,जैसे.

वह तो कविता से ज्यादा...उसके स्वर के चढ़ते उतार-चढ़ाव ..आवाजों का कम्पन...चेहरे पर आते-जाते भाव ही देखती रहती. आँखों में कभी स्निग्ध तरलता छाती...कभी गहरी उदासी...कभी व्यंग्य भरी तिलमिलाहट तो कभी अनचीन्ही सी छटपटाहट.कभी-कभी वो कविता पर ध्यान  नहीं भी देती..पर रितेश की धारदार एकाग्रता वैसी ही बनी रहती. 

एक दिन कुछ कविताएँ सुना रहा था...हठात नज़रें उठाईं और मुस्कुरा कर  पूछा...."कैसी लगीं..?" सकपका गयी वह..वो ख़ास ध्यान से सुन तो रही थी नहीं...वो तो रितेश की नुकीली  ठुड्ढी...तीखी नाक...जुड़ी भवें..और लम्बी घुंघराली पलकें ही निरख रही थी...क्या था कविता में...ध्यान ही नहीं दिया..चुप रही तो रितेश ने कुछ रस्यमय ढंग से मुस्कुरा कर पूछा..."बताइए तो सही...कैसी थीं कविताएँ?" तो चौंक गयी वो.

उसने हाथ बढ़ा दिए..."दीजिये,  एक बार खुद से पढूंगी..."

उसने एकदम से दूर हटा ली किताब..."अँs हाँs...इतना बेवकूफ नहीं मैं..." बेतरह नटखटपन कस गया चेहरे पर और उसने किताबों के बीच से कुछ कागज़ निकाल एहतियात से अपनी जेब में रख लिए..."

अच्छाss तो ये उसकी खुद की लिखी हुईं थीं....तभी इतना  मुस्कुरा कर पूछ रहा था...ओह! क्या मूर्खता की उसने , जरा  भी ध्यान नहीं...क्या था कविता में...बड़े आग्रह से बोली.."प्लीज़ एक बार दो ना....सिर्फ एक बार पढ़ कर दे दूंगी..." ध्यान भी नहीं रहा...कैसे 'आप' से 'तुम' पर आ गयी.

"जीssss   नहीं...ऐसा खतरा नहीं मोल ले सकता....जब तक पढ़ रहा था...तभी डर लग रहा था..पता नहीं क्या सोचो तुम...ये काफी पहले लिखी थी मैने, हाँs..." वो भी सहजता से बिना ध्यान दिए तुम पर आ गया...पर इसका मतलब...जरूर कविता में कुछ बात थी...वर्ना बहुत पहले लिखी थी की सफाई  क्यूँ देता? हाथ बढ़ा कर उसने कुर्सी की बाहँ पर रख दिया.."प्लीज़ रितेश...दे दो ना..एक बार देने में क्या जाता है...बस एक नज़र देख कर...वापस कर दूंगी.."

"नोss वेss...अच्छा ये सुनो...क्या कविता है...एकदम अलग सी...और इतनी वास्तविक कि लगेगा कवि की आँखे कैसे देख लेती हैं ये सब.." कहता कुर्सी की दूसरी बाहँ से सट सा गया.

रोष हो आया उसे...एकदम से हाथ खींच लिया...अगर उंगलियाँ भूले से,उसे  छू भी जातीं तो जाने क़यामत आ जाती....अछूत है क्या वह?

 "मुझे नहीं सुनना कविता-फविता.."..कह सीधा लेट आँखें बंद कर लीं.

"नाराज़ हो गयीं...?" शहद  भरा स्वर उभरा 

" नहीं, नाराज़ क्यूँ होने लगी...इसका हक़ तो सिर्फ आपलोगों को है..." विद्रूपता से कह.. दूसरी तरफ करवट बदल ली उसने..जाने क्यूँ आँखें भर आयीं.

"नाव्याss... " रितेश ने एकदम से कुर्सी छोड़ दी...और पलंग के किनारे हाथ रख झुका ही था कि कमरे के बाहर माँ और डा. समीर का सम्मिलित स्वर सुनायी दिया...एकदम से सीधा खड़ा हो...सीने पर हाथ बाँध लिए उसने.

"सोयी है क्या...." माँ ने पूछा..

"पता नहीं..शायद"

"कुछ तकलीफ तो नहीं थी,उसे??..ऐसे कैसे सो गयी ??" माँ के स्वर में चिंता  थी.

"वो मैं...कुछ  पढ़ कर सुना रहा था..शायद सुनते-सुनते सो गयी..."

"ओहो!!..अब कविताएँ सुनाओगे तो कोई सो ही जाएगा ना...." समीर ने हँसते हुए कहा...."और आपने देखा भी नहीं कि सुनने वाला सुन रहा है या नहीं...क्या यार....इतना डूबे रहते हो किताबो में...ये किताबें बस सपनीली दुनिया में ले जाने का काम करती हैं...तभी तो लोग सुनते-सुनते सो जाते हैं....सच्चाई का अंश भी नहीं होता, इनमे.."

"ऐसा नहीं है डॉक्टर...."

"अरे बस ऐसा ही है...अब देखो..ये कविताएँ...कुछ भी कल्पना कर लेते हैं कवि..."

"अच्छा आंटी अब तो आप आ गयी हैं..चलूँ...मैं?" रितेश था. 

उसने गौर किया था...रितेश कभी बहस में नहीं पड़ता...बात बदल कर निकल जाता है या फिर चुपचाप सुन लेता है. रितेश की जगह वो होती..तो अभी डा. समीर से इतनी बहस करती कि वे राउंड पर जाना भी भूल जाते..और फिर कभी किताबों को कल्पना की उड़ान कहने की  हिम्मत ना करते.

पर उसने तो सोने का बहाना किया हुआ था...सो उसे मन मसोस कर रह जाना पड़ा.

अचानक माँ  को कुछ याद आया..."हे भगवान...मैने फल लिए और थैला तो वहीँ छोड़ दिया....अब फिर से जाना पड़ेगा...पर नाव्या पीछे से जाग गयी तो...कहीं उसे कोई जरूरत ना पड़ जाए.."वे असमंजस में थीं. 

"कोई बात नहीं आंटी...अभी तो मैं थोड़ी देर खाली हूँ....मैं यहीं बैठता हूँ...आप आराम से हो आइये....मैं भी जरा देखूं तो दोस्त तुम्हारी किताबो में है क्या...पलटता हूँ थोड़ी देर.."

"बस मुश्किल से पंद्रह मिनट लगेंगे...आओ रितेश..तुम्हे भी रास्ते में छोड़ दूंगी.." कहती माँ..रितेश के साथ ही निकल गयीं. शायद जाते हुए रितेश ने पलट कर देखा हो...कि वो उठ कर उसे बाय कहती है या नहीं...पर वो सोने का बहाना कर  पड़ी रही...थोड़ी डोज़ दे देनी चाहिए इन लोगों को..समझते हैं कदमो में ही बिछे जा रहे हैं. 

उनके जाते ही...समीर ने कुर्सी खिसकाई बैठने को...और वो चौंक कर जगने का अभिनय करती उठ बैठी.

"ओह! जगा दिया ना आपको...सो सॉरी..." डा. समीर सचमुच अफ़सोस से भर उठे.

"नहीं..नहीं...कोई बात नहीं...माँ आयीं नहीं अभी तक ?"

"आयीं तो थीं..पर फल उन्होंने दुकान पर ही छोड़ दिए थे सो वापस लेने गयी हैं...और वो कवि साहब भी चले गए उनके साथ...जिनकी कविता सुनते-सुनते आप सो गयी थीं....हा हा.."समीर ने जोर का ठहाका लगाया.

ख़ास उसे भी नहीं समझ नहीं आती कविताएँ..पर समीर का यूँ उपहास उड़ाना उसे अखर गया,बोली ..."वो मैं थक गयी थी,इसलिए  सो गयी थी...कविताएँ तो मुझे भी पसंद हैं..."

"अब आप, बना लो बहाने...." वो फिर हंसा.

"नहीं सच में...मुझे गीत संगीत सब बहुत पसंद है....अच्छा कल रात कोई बड़ी अच्छी गिटार बजा रहा था...काफी देर तक सुनती रही मैं..."

"सपने में?..." समीर ने चिढाया तो सचमुच चिढ उठी वह.

जी ss नहींss..कल रात के ग्यारह बजे के करीब..मैने समय भी देखा...मुझे नींद ही नहीं आई देर तक.."

"होगा कोइ  सिरफिरा...चले आते हैं लोगों की नींद खराब करने..."

"अच्छा तो फिर कोई रियाज़ ही ना करे...म्युज़िक के नाम पर शोर मचाना बुरा है..पर इसमें क्या बुराई है....अच्छा संगीत सुकून ही देता है.."

"शरीफ लोगों के ये सब शौक नहीं होते..जो जिंदगी में कुछ नहीं करता वो गिटार टुनटुनाता  रहता है...ऐसा मैं नहीं बड़े-बुजुर्ग कहते हैं.."समीर उसे चिढाने पर आमादा था.

"पर मानते तो आप भी हैं,ना...मशीनी इंसान हैं आपलोग...गीत-संगीत...कहानियाँ किताबें...सब बेकार हैं आपकी नज़रों में...आपलोगों की दुनिया बस इस हॉस्पिटल तक ही सीमित है...माना कि आपलोग....जीवनदान देते हैं...लोगो को राहत पहुंचाते हैं पर इसके बाहर  भी कभी-कभार देख लेना चाहिए...इन इंजेक्शन-दवाइयों से परे भी एक दुनिया है..."..कहते उसने आँखें  बंद कर लीं...कानों में गिटार  टुनटुना  उठा.

"अच्छा लगा आपको "...स्वर बदला हुआ लगा, आँखें खोल देखा तो समीर दूसरी तरफ देखने लगा.

"और क्या..पर आपको  क्या..आपके लिए तो सब समय की बर्बादी ही है ना..." पता नहीं क्यूँ उसे बहुत खीझ हो रही थी.

समीर ने बड़ी आहत नज़रों से देखा,उसे. चेहरा संजीदा हो गया था....अब अपने में लौटी वह...ये क्या हो गया है उसे...रितेश का गुस्सा वो समीर पर क्यूँ निकाल रही है. माँ -डैडी आभार से दबे रहते हैं..इतनी केयर करता है उसकी और वो है कि बिना किसी वजह के झल्लाए जा रही है. स्वर में यथासाध्य मुलायमियत लाकर बोली, : "पास से ही आवाज़ आ रही थी.....लग रहा था ,हॉस्पिटल कैम्पस  में ही कोई बजा रहा था......आपको अंदाज़ा है..कौन बजा रहा होगा.."

"नाss..नहीं पता...." और समीर तड़ाक से उठ गया...शायद वो बुरा मान   गया था...." मुझे एक पेशेंट को देखने जाना है..चलता हूँ.." और बिना उस पर नज़र डाले लम्बे-लम्बे डग भरता बाहर निकल गया. 'ओह!!! दीज़ बॉयज़...'सर पकड़ लिया उसने...

ये तो बाद में पता चला, वह सिरफिरा और कोई नहीं समीर ही था. 

***
सुबह डा. राउंड पर आए और बोले अब वो घर जा सकती है....ख़ुशी से मन खिल उठा पर दूसरे ही पल बुझ भी गया...घर तो जा रही है पर वहाँ  रितेश,समीर से मुलाकात नहीं हो पाएगी...इन आठ दिनों में उनके साथ की इतनी आदत पड़ गयी थी कि अभी से उनकी कमी खलने लगी थी. माँ को याद दिलाया..'माँ रितेश शायद मिलने आए... उसे फोन करके बता दो..."

रितेश ने माँ को अपना नंबर दिया था कि जब भी जरूरत पड़े फोन कर लें. माँ ने कहा...'अच्छा याद दिलाया...अभी उसे फोन कर बता  देती हूँ.."

वो निराश हो गयी...उसे लगा था,माँ कहेंगी..."लो ,तुम ही कह दो...और उसे दो बातें करने का मौका मिल जाएगा...पर सामान सहेजती माँ ने इस तरह से सोचा ही नहीं. वो रुआंसी हो खिड़की के बाहर देखने लगी...जहां पेडों की पत्तियाँ  हवा से हलके-हलके डोल रही थीं...मानो उसे बाय कह रही हों.

डा. समीर मिलने आए थे. हमेशा की तरह उसी जोश और जल्दबाजी में थे... सौ हिदायतें उसके लिए और माँ के लिए भी....आज उसे उनकी किसी बात पर गुस्सा नहीं आ रहा था...बस उनके चेहरे पर ही नज़रें जमाये चुपचाप सब सुन रही थी...समीर को भी आश्चर्य हुआ...टोक ही दिया..."अभी से घर की यादों में गुम हो गयीं...मैं क्या कह रहा हूँ...कुछ सुन भी रही हैं??...हाँ! भाई....सबलोग आते हैं चले जाते हैं...हमारा तो यही घर-बार है...हम कहाँ जा सकते हैं..."

वो प्रत्युत्तर में सिर्फ मुस्कुरा दी तो डा. समीर भी गंभीर हो आए और बहाने से बाहर चले गए.

रास्ते में ,माँ ने बताया एक रात पहले ही एक मेहमान भी घर पर आया हुआ है. डैडी के एक मित्र के सुपुत्र. नया-नया चार्ज लिया है किसी कंपनी में . जब तक उसके रहने का इंतजाम नहीं हो जाता .घर पर ही रहेगा. खीझ हो आई उसे. एक तो सर पर बंधे इस बड़े से बैन्डेज़ के साथ उसे किसी के सामने जाने में बहुत ही अजीब लग रहा था...दूसरे घर में किसी अजनबी की उपस्थिति भी असहज कर रही थी., अब ये बचपन से अकेले रहने की वजह से था या कुछ  और पर अपने घर में ज्यादा भीड़-भाड़ उसे अच्छी नहीं लगती. रिश्ते  के हम-उम्र भाई-बहन भी आते तो कुछ दिन  तो उसे अच्छा लगता पर फिर अपनी आज़ादी में खलल लगने लगता...सुन कर अनमनी सी हो गयी थी , माँ ने इसे लक्ष्य किया और बोलीं, " बाबा वो ऊपर वाले कमरे में रहेगा...आना-जाना भी बाहर सीढियों से होगा तो तुम्हे क्या परेशानी है.."

" क्यूँ ..टेरेस पर जाने में उसका कमरा नहीं पड़ेगा?..मैं क्या सिर्फ नीचे ही कैद रहूंगी.."

"वो सब बाद में, देखेंगे.....अभी तो ज्यादा घूमना-फिरना है नहीं तुम्हे..." माँ ने आश्वस्त किया..फिर भी थोड़ा असहज तो थी ही वह.

लेकिन किशोर बहुत ही सहज था...शाम को ऑफिस से आने के बाद,उस से मिलने आया...और पहले वाक्य में ही मुस्कुरा कर पूछा , "वेकेशन की ऐसी प्लानिंग तो मैने कहीं नहीं देखी....एग्जामिनेशन हॉल से सीधा हॉस्पिटल."

वो भी मुस्कुरा कर रह गयी....उसकी किताबों की आलमारी देख बोला,.."इतना पढ़ती हैं आप..बाप रे.."

"हाँ समय अच्छा कट जाता है और शौक भी है..."

"बढ़िया है..पर आप से संभल कर बात करना पड़ेगा..पता नहीं..कहाँ से क्या कोट कर दें.."

"निश्चंत रहिए मैं पढ़ कर भूल जाती हूँ.."
"ताकि दुबारा पढ़ने का स्कोप बना रहे..."..और दोनों ही इतने जोर से हंस पड़े कि कमरे में आती माँ एक पल को ठिठक सी गयीं. और उसकी तरफ गौर से देखा...अभी तो उस एकीशोर कि उपस्थिति इतनी नागवार गुजर रही थी और अभी हंस रही है उसके साथ...जरूर मन में कहा होगा..."ये लड़की भी ना.."

किशोर ज्यादा नीचे नहीं आता. उसका  खाना भी माँ ऊपर ही भिजवा देतीं....इतवार को भी वो देर तक सोता रहता...और ज्यादातर अपने कमरे में ही बना रहता...पर जब भी नीचे पापा से मिलने आता उससे मिलने भी जरूर आता और अपनी थोड़ी देर की उपस्थिति से ही एक खुशगवार...माहौल की छाप छोड़ जाता.

कितनी ही बार मोबाइल पर रितेश और समीर का नंबर निकाल घूरती रहती पर फोन करने की  हिम्मत नहीं कर पाती. आने के बाद बस एक-एक बार दोनों को शुक्रिया कहने के लिए फोन किया था....रितेश का शर्मीला चेहरा उसे फोन के पार से दिख रहा था...'हाँ' - 'ना'...में ही जबाब देता.,..और उसे अपना ख्याल रखने की हिदायत देता रहता...अजनबी सा उसने कहा..."आइये कभी.."
और अजनबी सा ही रितेश ने कहा .."हाँ जरूर..' और कह कर फोन रख दिया...थोड़ी देर वो घूरती रही फोन को...यही रितेश था जो पास बैठा घंटों उसे कविताएँ सुनाया करता था...पर फोन पर अभी आदत नहीं पड़ी थी...बस कभी कभी उसे कविता की सुन्दर पंक्तियाँ या शेर एस.एम.एस करता..और बदले में वो कुछ भारी भरकम से कोटेशंस  भेज देती..उसे कुछ सूझता ही नहीं...पर रितेश के खुद से टाइप किए मेसेज का इंतज़ार बना रहता. 

समीर के पास तो एस.एम.एस भेजने का वक़्त भी नहीं रहता....जब उसने फोन किया तब भी जाने कहाँ था और कितने लोगो से घिरा हुआ था...पर बात बड़े अपनेपन से किया बहुत ही सहजता से...'दवा ले रही है ना..खाना ठीक से खाती कि नहीं...समय पर सो जाती है ना...माँ कैसी हैं'..और फिर माँ से उसे घर के खाने ..चाय की याद आ गयी...उसके पास,तमाम बातें थीं करने को..पर  समय ही नहीं था...बोला, "करता हूँ फिर फोन..अभी तो भागना पड़ेगा..."

अब  समीर को  समय नहीं मिलता या उसे भी एक हिचक होती....वो समझ नहीं पाती. पर फोन उसका भी नहीं आता. अच्छा हुआ माँ ने ही एक दिन,कहा....तुम थोड़ी और ठीक हो जाओ...पट्टी  खुल जाए...सबकुछ खाने-पीने लगो तो समीर और रितेश को एक दिन खाने पर बुलाते हैं..दोनों ने बहुत ख्याल रखा...हम कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं."
और उस दिन से ही  जैसे वो दिन गिनने लगी... कब उसके माथे का बैन्डेज़ खुले.

और वो दिन आ ही गया....माथे का बैन्डेज़ खुल गया था...और इतने दिनों बाद....माँ ने श्यामली की सहायता से कुर्सी पर बैठा पीछे कर उसके बाल धो दिए थे. दिनों बाद खुले बालों से घिरा अपना चेहरा देखा तो जैसे खुद को ही पहचान नहीं पायी. रितेश समीर भी उसे देख, चौंके तो जरूर लेकिन दोनों की प्रतिक्रिया बहुत ही अलग सी रही....पहले रितेश आया...रितेश ने उसे पहले भी देखा था पर जैसे इस बार एक नई नज़र से देखा....और कुछ इस तरह उसे देखा कि उसने ही शर्मा कर आँखें झुका लीं.

उसे देखते  ही समीर के होंठ गोल हो गए...शुक्र है,उसने सीटी नहीं बजायी...पर हँसते हुए  बोला.."क्या बात है..आप सचमुच नाव्या ही हैं...या नाव्या की सहेली...मैं तो सच में कहीं और देखता तो पहचान नहीं पाता..."

"इतनी बुरी लग रही हूँ मैं..."

"थोड़ी सी..."..उसने मुस्कुरा कर दोनों उँगलियों से इशारा किया...

"हाँ! आपको लोग पेशेंट के रूप में ही अच्छे लगते हैं...हैं ना.."

उनकी बहस और आगे बढती कि माँ ने टोक दिया...."अरे बैठने तो दो पहले..फिर इत्मीनान से कर लेना  बहस...बहुत दिनों का कोटा बाकी है...बहुत अच्छा लग रहा है...बेटा..तुम दोनों को यहाँ  देख'

माँ ने किशोर को भी बुला लिया  था....डाइनिंग टेबल पर तो डैडी से ही सब ज्यादा बातें  करते रहे और माँ खिलाने-पिलाने में लगी रहीं. पर खाने के बाद जब सब लिविंग रूम में लौटे तो डैडी अपने  कमरे मे चले गए...माँ भी बस बीच-बीच में आती रहीं....ये तीनो भी एक दूसरे से अच्छी तरह घुल -मिल गए थे और तमाम विषयों पर बातें कर रहे थे...पर जब राजनीति पर बातें शुरू हुईं.. तो उसकी उपस्थिति जैसे भूल ही गए....आपस में ही उलझ गए...उसे गुस्सा आ गया....क्या वो नहीं पढ़ती अखबार?...वो नहीं देखती खबरे?...पर इन्हें लगता है..वो लड़की है तो उसकी क्या रूचि होगी...चर्चा कुछ और जोर पकड़ती कि समीर को एक कॉल आ गया...और रितेश भी उसके साथ ही उठ गया. बार-बार दोनों माँ  का शुक्रिया अदा कर रहे थे और माँ उन्हें फिर से आने का न्योता दे रही थीं. उनके जाते ही किशोर भी विदा लेकर चला गया और वो देर तक खिड़की के पास खड़ी ठंढी हवा के झोंके के साथ इस ख़ूबसूरत शाम के एक एक पल को दुबारा जीती रही.

अब फोन पर बातचीत का सिलसिला बढ़ गया...बीच की वो असहजता नहीं रही. रितेश किताबों की बातें करता और समीर अपने पेशेंट्स की...हॉस्पिटल की. पर इस से अलग कुछ और जैसे लबों तक आते आते छूट जाता...और वो चैन की सांस लेती. बातचीत में वे जरा सा पॉज़ लेते और उसका दिल धड़क जाता... डर जाती...'आगे क्या कहने वाले हैं...वो कैसे रिएक्ट करेगी...क्या जबाब देगी...पर फिर दोनों ही जैसे खुद संभल कर बात किसी और तरफ मोड देते.

एक दिन माँ ने सलाइयों पर अंगुलियाँ चलाते हुए पूछा, "ये किशोर कैसा लड़का है?"

"क्यूँ कुछ हुआ क्या....उसके पड़ोसियों  ने कुछ कहा क्या..." किशोर अब अपना मकान ले उसमे शिफ्ट हो चुका था. 

"अरे नहीं...." माँ आगे कुछ कहतीं कि  वो फिर से बोल पड़ी..."वही तो मैने सोचा तुमने ऐसा कैसे पूछा...इतना अच्छा सलीके वाला लड़का है...इतना कल्चर्ल्ड....ना बहुत गंभीर... ना ज्यादा बातूनी....और इतना क्वालिफाइड...कितनी कम उम्र में इतनी अच्छी पोस्ट कैसे मिल गयी उसे...बहुत ही अच्छा लड़का है,माँ..पर तुमने पूछा क्यूँ ऐसे??"

माँ जोरों से हंस पड़ी.."सच्ची आजकल तू कितना बोलने लगी है....मेरे पूछने का  मतलब  था..तुम्हे कैसा लगता है?"

"क्यूँ अच्छा है तो..अच्छा ही लगेगा ना...उसके यहाँ रहने की बात से थोड़ा मैं अनकम्फर्टेबल थी..पर फिर मिली तो बहुत ही सहज लगा मुझे...इतने अपनेपन से बात की"
"हम्म.....फिर तो ठीक है..."
"क्या ठीक है..." वो कुछ समझ नहीं पा रही थी.
"कुछ नहीं..." माँ ने हंस कर कहा...और एकदम से सब उसकी समझ में आ गया.
"माँsss ....साफ़-साफ़ बताओ...क्या बात है.." उसने गुस्से में भर कर कहा 

और माँ ने सब साफ़-साफ़ बता दिया...कि पापा और उनके मित्र दोनों की इच्छा है कि वे दोनों अब सिर्फ दोस्त ना रहकर एक रिश्ते में बंध जाएँ...वो लाख सर पटक कर रह गयी कि..ग्रेजुएशन से क्या  होता है....उसे आगे पढ़ाई करनी है...नौकरी करनी  है..तब जाकर शादी के बारे में सोचेगी. पर माँ के पास अपने तर्क थे..'तुम्हे पढ़ने से कौन रोक रहा है...जितनी मर्ज़ी हो पढो..पर इतना अच्छा लड़का हाथ से निकलने नहीं देना चाहते...जाना -सुना घर है..तुम्हारी भलाई ही सोच रहे हैं...पता नहीं दूसरा घर कैसा मिले.  डैडी और किशोर के पिता दोनों की ही यही इच्छा है....और सही समय भी है...कुछ ही दिनों में तुम्हारा रिजल्ट आ जायेगा,....ग्रैजुएट हो जाओगी.....लड़के की नौकरी लग गयी हैं...आखिर कितने दिन वे इंतज़ार करेंगे...उन्हें भी लड़कीवालों ने परेशान किया हुआ है...सुबह शाम लोगों का तांता लगा होता है....वे भी एक अच्छी जगह रिश्ता पक्का करके निश्चिन्त हो जाना चाहते हैं."

"तो उन्हें निश्चिन्त करने के लिए मैं बलि चढ़ जाऊं...??"

"कैसी बातें कर रही है...इसमें बलि जैसी क्या बात है...किशोर अच्छा लड़का है..तुमने खुद कहा है.."

"तो दुनिया में जितने अच्छे लड़के हैं..सब से शादी कर लूँ.." उसका गुस्सा सातवें आसमान पर था.

"अब तुमसे डैडी  ही बात करेंगे ..मेरे वश का नहीं तुम्हारी उलटी-सीधी बातों का जबाब देना..." माँ ने अपना ब्रह्मास्त्र चला दिया और ऊन सलाई समेट कर वहाँ से चली गयीं. उसे पता है..डैडी से वो बहस नहीं कर पाएगी...और सर झुका कर उनका हर निर्णय स्वीकार कर लेगी.

आँसू छलक आए...'ये सब क्या हो रहा है.....इतने दिनों बाद जिंदगी इतनी प्यारी लग रही थी....माँ ज्यादातर उसके आस-पास ही रहतीं...बहुत कम बाहर जातीं...पापा भी उसके साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताने की कोशिश करते...रितेश....समीर की दोस्ती....सब कुछ कितना सुहाना लग रहा था..पर किसकी नज़र लग गयी...और अब उसकी जिंदगी फिर कोई नया रुख लेने वाली थी. 

पर वो इतनी परेशान क्यूँ है...शादी से इनकार की वजह क्या सिर्फ  पढाई  ही  है...या कोई और बात है....क्या उसका मन कहीं और झुका हुआ है...पर वो क्या जाने...जितनी देर समीर से बातें होती है..लगता है,अनंत काल तक वो उस से बातें ही करती रहे...कभी ख़त्म ना हो उनकी बातें...पर फिर कब रितेश की छवि चुपके से पलकों पर आ कर बैठ जाती है..उसे पता भी नहीं चलता...लगता है रितेश के सिवा उसने और किसी को जाना ही नहीं....जानने की इच्छा भी नहीं.

और वो शादी से इनकार करे भी तो किस बिना पर. इन दोनों ने भी तो कभी अपनी भावनाओं  को शब्द नहीं दिए. क्या पता समीर सिर्फ उसे एक अच्छी दोस्त मानता हो...क्या पता रितेश सिर्फ औपचारिकता या कर्तव्य निभाता हो...पर उसकी आँखें जो कभी-कभी देख लेती हैं..उसपर कैसे अविश्वास करे. समीर की आँखों में जो कभी-कभी कौंध जाता है...वो सिर्फ दोस्त के लिए नहीं होता...रितेश जिन खोयी-खोयी निगाहों से देखता है..वे ये जता देती हैं कि  उसने और किसी को ऐसी निगाहों से नहीं देखा है. पर वो क्या करे??...ये मन की कैसी दुविधा है....रितेश की आँखों के मौन आमंत्रण को खूब पहचानती है वो..तो समीर के मुखर संदेश से भी बेखबर नहीं है. उसके कैशोर्य मन ने किसी के ह्रदय के समक्ष पूरी आस्था से आत्म समर्पण किया है तो वो रितेश का अंतर्मन ही है. लेकिन ये रितेश की छवि के आस-पास कैसी उद्दाम लहरें सी उठने लगती हैं और उसे परे धकेलता एक मुस्कुराता सा चेहरा सामने आ जाता है...जो निश्चय ही समीर का है और उसके होठों पर भी मुस्कराहट  आ जाती है. ..ऐसा क्यूँ...रितेश का ख्याल आते ही ह्रदय में एक टीस सी उठती है और दिल में गहरी उदासी सी छा जाती है. वहीँ समीर का ख्याल मात्र होठों पर हंसी ला देती है...सुकून दोनों दे जाते हैं दिल को..वो उदासी भी और ये मुस्कराहट भी.

क्या करे वह.....इन दोनों ने भी तो कभी ऐसा कुछ नहीं कहा कि इनकी भावनाओं से भी साक्षात्कार हो...यदि सिर्फ आँखों से ही काम चल जाता तो फिर भाषा का आविष्कार ही क्यूँ हुआ...किसलिए शब्दों का सहारा लिया गया...या क्या पता उन्हें सही वक़्त की तलाश हो.

मेज पर सर पटक-पटक कर रह जाती...क्या करे वह??....और वो कुछ नहीं कर सकी....बस एक सूत्र में बंधी किशोर के संग सात फेरे घूम लिए. और आज उसकी शादी की पार्टी में चुटकुले सुनाता..कहकहे लगाता ..चहरे पर अचानक छा जाने वाले बादलों को अपनी जानदार हंसी से उडाता समीर भी था और उदास आँखों में थोड़ी और विरानगी लिए फूलों के गुलदस्ते  थमाता रितेश भी था.

एक कोने में बने स्टेज पर औकेस्ट्रा    वाले तेज धुनें बजा-बजा कर थक गए थे....लड़के-लडकियाँ भी शायद नाच-नाच कर पस्त हो चुके थे और अब उसके  सिंगर ने शायद पार्टी में उपस्थित  बुजुर्गों का ख्याल कर तान छेड़ दी थी...


"कई बार यूँ भी  देखा है...
ये जो मन की सीमा रेखा है..
मन तोड़ने लगता है
अनजानी प्यास के पीछे...
अनजानी आस के पीछे...
मन दौड़ने लगता है..
राहों में...राहों में....जीवन की राहों में..

(समाप्त) 

Saturday, August 20, 2011

हाथों की लकीरों सी उलझी जिंदगी. ..(3)

(नाव्या का एक्सीडेंट हो जाता है...और उसे हॉस्पिटल लेकर रितेश नामक एक युवक आता है...जिसकी किताबों की दुकान से वो किताबें लिया करती थी पर रितेश की आँखों में उसके लिए कोई पहचान नहीं उभरती थी. )


दूसरे दिन से ही जैसे जैसे लोगो को पता चलता गया...लोगो का हुजूम उसके अस्पताल के कमरे में जमा होता गया. सुबह से डैडी के दोस्तों का...रिश्तेदारों का जमघट लगा रहा...ऑफिस जाने से पहले...सब लोग हॉस्पिटल का एक चक्कर लगाते जा रहे थे....माँ रटे-रटाये से सारे वाकये दुहराए जा रही थी...और बार-बार भगवान का शुक्र अदा कर रही थी...साथ में रितेश का जिक्र भी जरूर कर जाती....और वो होठों पर अनायास आए ,मुस्कान को...जबरन छुपाने की कोशिश में लग जाती..कहीं किसी की नज़र ना पड़ जाए.

ग्यारह बजे के बाद से....माँ की सहेलियों...पास-दूर के रिश्तेदार महिलाओं....पापा के दोस्त की पत्नियों का आना शुरू हो गया. खीझ होने लगी उसे....यहाँ विजिटिंग आवर्स के नियम भी तो नहीं...कि लोग-बाग़ बस समय पर ही आएँ....बीच बीच में नर्स सबको बाहर कर देती....पर उनलोगों के सामने...नाश्ता करना -खाना सब भी बड़ा अजीब लगता. कई बार तो वो आँखें मूंदें सोने का बहाना करती रहती. पर फिर देखती...वो तो उपेक्षित सी ही पड़ी है...दो-दो तीन के ग्रुप में आंटियां आतीं और माँ के साथ गप्प में मशगूल हो जातीं. बस मुश्किल से पांच मिनट उसकी बात होती...फिर दुनिया जहान के किस्से....और वो थोड़ी देर तो ओह-आह करती,फिर भी कोई ध्यान नहीं देता...तो माँ से झूठ-मूठ को कभी पानी पिलाने के लिए कहती,तो कभी चादर ठीक कर देने को.

तीन बज रहे थे....अभी कोई नहीं था, कमरे में. माँ भी पास के कॉट पर लेटी हुई थीं....शायद उन्हें नींद आ गयी थी...बहुत ही हलके खर्राटे गूँज रहे थे...माँ आराम से सो भी तो नहीं पा रहीं. उसे नींद नहीं आ रही थी...यूँ देर तक सीधे लेटे  रहना बहुत ही कष्टकर लग रहा था. पता नहीं और कितने दिन लग जायेंगे ठीक होने में...अच्छी भली मुसीबत हो गयी...फिर सोचती चलो जाने दो...उसे थोड़ी सी चोट ही आई....कुछ असुविधा हो रही है..पर वो बच्चा तो बच गया....कहीं उसे कुछ हो जाता तो क्या वो पूरी जिंदगी चैन की नींद सो पाती?...पता नहीं कितना बड़ा बच्चा था...कौन था...उसने तो बस होश आने के बाद लोगो की बातों से जाना...पर उसके बच जाने की सोच एक सुकून सा महसूस हुआ और दर्द कम होता सा लगा. 
तभी, कमरे का पर्दा हटा कर किसी ने झाँका....हाथों में छोटा सा गुलाबों का गुलदस्ता था. पहले तो फूलों पर ही नज़र पड़ी...फिर नज़रें ऊपर कीं...तो देखा..रितेश था. कमरे में ऐसी खामोशी और हल्का सा अँधेरा देख वो असमंजस सा दरवाजे पर ही खड़ा था. उसने ही हाथों से थोड़ी चादर सरकाई...और कहा.."आ जाइए..मैं जाग ही रही हूँ"

दबे कदमो से उसके बिस्तर के पास आया और झिझकते हुए से गुलदस्ता थमा...एक धीमा सा 'हाय ' कहा.

वो भी फूल थामते हुए..प्रत्युत्तर में बस.."थैंक्स" ही कह पायी. फूल बगल में रखते हुए उसने कुर्सी की तरफ बैठने का इशारा किया.
'ना ठीक हूँ मैं.".. कहते हुए...उसने बेड के सिरहाने की तरफ हाथ टिकाया..और पूछा.."अब कैसी हैं आप?"

उसका इतना निकट होना, अजीब सा लग रह था.....बहुत ही असहज महसूस कर रही थी..कहा, "ठीक हूँ" 

अब दोनों ही चुप थे. दीवारें शांत....परदे खींचे हुए थे...कमरे में घड़ी भी नहीं थी...कि उसकी टिक-टिक ही कम से कम इस सन्नाटे में कॉमा ..फुलस्टॉप  लगाती रहे. अपनी साँसों की आवाज़ भी सुन पा रही थी ,एक बार लगा......कहीं रितेश को भी तो नहीं सुनायी पड़ रही हैं...और धीमी कर ली साँसें....थोड़ी देर यूँ ही चुप्पी छाई  रही..शायद उसे भी समझ नहीं आ रहा था...क्या बोले..क्या पूछे....आखिरकार उसने ही गला साफ़ करते हुए कहा, "आप प्लीज़ बैठिये ना....यूँ खड़े क्यूँ हैं"

उसने भी उसकी बात मान..एकदम धीमे से बड़े एहतियात से कुर्सी खिसका कर उसके बेड के करीब लाने की कोशिश की . पर इतनी धीमी आवाज़ ने भी माँ की झपकी में खलल डाल दी..और वे हडबडा कर उठ बैठीं...फिर रितेश को देखते ही जैसे खिल  गयीं...."अरे तुम कब आए... बेटा?"

अरे वाह...'बेटा' का संबोधन..बस एक ही मुलाकात में...मन ही मन चौंकी वो..पर माँ के उठ जाने से जैसे दोनों को राहत मिल गयी....रितेश के चेहरे पर भी एक चौड़ी मुस्कान खींच गयी.."बस आंटी अभी आया ही था...आपको जगा दिया ना....आप आराम कीजिए ना प्लीज़...थक गयी होंगी  "

शुक्र है..माँ ने उसकी बात नहीं सुनी..वर्ना फिर दोनों अकेले पड़ जाते..और फिर बात क्या करते..."अरे नहीं...बैठे-बैठे क्या थकना..." बोलीं माँ.

"तुम तो बस हमारे लिए जैसे भगवान के दूत ही बन कर आए हो...."

"ओह! आंटी....फिर मत शुरू कीजिए....कोई भी मेरी जगह होता...तो यही करता.."

"अरे नहीं बेटे...मैने ज़माना देखा है...लोग मजमा लगाए खड़े होते हैं...ऐसा नहीं कि कुछ करना नहीं चाहते...पर आगे कौन बढे...कैसे क्या करे...ये लोगो की समझ में नहीं आता...क्विक डिसीज़न बहत जरूरी होता है...और वो तुमने किया..तो तुम्हे श्रेय तो मिलना ही चाहिए"

"क्या कहते हैं डा. ...कोई गंभीर चोट तो नहीं.." रितेश ने एकदम से बात बदल दी.
'गंभीर तो नहीं बता रहे..पर इसका बुखार नहीं जा रहा....शायद एक दो दिन लगे संभलने में...पूरा शरीर हिल गया ना..अंदर तक दहल गयी होगी...समय तो लगेगा ही"
लो फिर उसे सब भूल गए...यहाँ सब आते हैं,उसे देखने...पर उसे ही भूल जाते हैं...फिर से उसने अपनी तरफ ध्यान खींचने  को जोर से कहा.."माँ...ये फूल उधर टेबल पर रख दो ना..चुभ रहे हैं.."

"फूल भी...चुभ रहे हैं?...." एक शैतानी भरी मुस्कराहट के साथ रितेश ने धीमे से कहा...अच्छा तो ये मिटटी का माधो नहीं है...बोलना भी आता है...इसे..

"और क्या..यहाँ पास में पड़ा हुआ.....अनकम्फर्टेबल लग रहा है ना...और फिर मुरझा भी तो जायंगे.."और उनके बीच की जमी बर्फ पिघल गयी....

रितेश मुस्कुरा कर चुप हो गया.

माँ ने फूल लेकर टेबल पर रख दिया..."अरे बेटा...इस  फॉरमेलिटी की क्या जरूरत थी...." ..ये माँ भी ना....जैसे उनके लिए लेकर आया है...पहली बार तो जिंदगी में किसी ने उसे फूल दिए हैं...और फिर रुआंसी हो गयी...'वो भी हॉस्पिटल में.."

"वो तो आंटी बस ऐसे ही..." 

"अच्छा बताओ बेटा.. क्या करते हो....?"..माँ तो सब भूल जाती हैं..... बताया तो था कि किताबो की दुकान है उसकी.

"आंटी मैने...सिविल सर्विसेज़ का इम्तहान दिया है..रिटेन तो क्वालीफाई कर गया हूँ...अभी इंटरव्यू बाकी  हैं"

उसने एकदम से मुड कर उसे देखा....और रितेश ने भी उसी पल उसकी तरफ देखा...आँखें मिलीं...और जैसे आँखों में ही बात हो गयी..जैसे उसकी आँखों ने कहा हो.....'अच्छा! मैं तो तुम्हे...किताब की दुकान वाला समझती थी"...और रितेश की आँखों ने जबाब दिया हो.."मुझे पता था...तुम मुझे एक दुकानदार ही समझ रही थी.."

फिर उसने नज़र सामने कर ली...रितेश ने भी माँ की तरफ चेहरा घुमा लिया और जैसे उसकी जिज्ञासा पूरी तरह शांत करने के लिए बोला..."ये मेरे चाचा जी की किताबों की दुकान है...चाचा इन दिनों कुछ बीमार हैं...तो मैं आजकल दुकान पर बैठता हूँ...किताबों की दुकान में ज्यादा भीड़ तो होती नहीं...सो बैठ कर पढता रहता हूँ.."


"बहुत बढ़िया बेटा...तुम्हारे इतने अच्छे कर्म  हैं....तुम जरूर कामयाब होगे...दिल से मेरी दुआ है..तुम सफल हो जाओ."


"बस आंटी...बड़ों की दुआ चाहिए और क्या..."

फिर दरवाजे पर खटखट हुई...और जीवन काका हाथों में बास्केट लिए अंदर  आए..."कैसी हो बिटिया...कैसा चेहरा मुरझा गया है...ताज़ा जूस निकाल कर लाया हूँ..तुम्हारे लिए..पी लो..तबियत हरी  हो जायेगी"
और वो बास्केट से फ्लास्क निकालने लगे...मालकिन आपके लिए थर्मस में चाय भी लाया हूँ.."


"हाँ मैं सोच ही रही थी कि अब आपको आ जाना चाहिए.."

"अरे हम तो मुला घड़ी ही देखत रहे...लछमी भी गैस अगोर कर ही बैठी थी..चाय बनाने  को.."
"नाव्या... तुम जूस पी लो..फिर हमलोग चाय पीते हैं.."
"अभी नहीं..."
"अब यहाँ हॉस्पिटल में नखरे नहीं...जब जो दिया जाए....खा लिया करो.."..माँ ने सख्ती से कहा.
"अच्छा तो ये नखरे भी करती हैं..." रितेश दबी हुई मुस्कान के साथ बोला..
"अरे पूछो मत....जब भी खाने के लिए पूछो....सिर्फ एक ना..."..माँ अपनी ही धुन में बोले जा रही थीं.

मन हुआ बोले..' माँ खाना छोड़कर तुमने आजतक और किसी चीज़ के लिए पूछा है,कभी....वो भी चुपचाप खा लेती...तो फिर कोई संवाद ही नहीं होता,हमारे बीच....इस ना...और तुम्हारी डांट के साथ दो चार जुमले तो हमारे बीच बोले जाते कम से कम.

उसे यूँ सोच में डूबे देख..रितेश बोल पड़ा..." जूस पीने से इतना क्यूँ डर रही हैं..एम श्योर..कोई करेले का जूस नहीं होगा.."

"यक..सुन कर ही मुहँ कड़वा हो गया...कैसे पीते हैं लोग.." इतने सहज रूप से बात हो रही थी...लगा ही नहीं अभी कुछ समय पहले दोनों...शब्दों के अभाव में छत और दीवारें तक रहे थे.

रितेश ने बेड ऊपर करने में माँ की सहायता की...वो संकोच से गडी जा रही थी...अधलेटे होकर उसने जूस का ग्लास थाम लिया और जीवन काका से उनलोगों के लिए चाय निकालने के लिए कहा..

'अच्छा बिटिया."..कह कर वो बढे ही थे कि माँ ने जरा जोर से ही कहा.."ना पहले तुम जूस ख़त्म करो...फिर हम चाय पियेंगे"

"माँ, बीमार हूँ, मैं ...और तुम इतना डांट कर  बात कर रही हो....प्यार से बोलो ना....":उसने झूठे गुस्से से थोड़ा ठुनक कर कहा...

"ओहो!! मेरी रानी बेटी..जूस पी लो.. "..माँ ने इतनी नाटकीयता से कहा...कि वो और रितेश साथ ही हंस पड़े...माँ भी हंसने लगी.

और उसी वक़्त डा. समीर ने कमरे में ये कहते प्रवेश किया..."क्या बात है...सीम्स माइ पेशेंट इज डूइंग वेल..गुड़..गुड़.."

समीर को देखते  ही वो सहम कर चुप हो गयी और नज़रें झुका ली...

"ये क्या बात हुई...आप इतना डर क्यूँ जाती हैं...आज इसीलिए मैं राउंड पर निकलने से पहले यहाँ आया...इस तरह डरती रहेंगी तो हमारी दवा असर नहीं करेंगी...और फिर ज्यादा दिन रहना पड़ेगा यहाँ"

"नहीं...मुझे दवाइयां...इंजेक्शन...हॉस्पिटल..डॉक्टर..सबसे बहुत डर लगता है"....डर सचमुच उसकी आवाज़ में उतर आया था.

"हा हा...ओके ओके..." कहते गले में पड़ा स्टेथोस्कोप डा. समीर ने उतार कर हाथों में नीचे ले लिया..."अब तो नहीं दिखता मैं डा.?...ठीक है?"

उनकी इस हरकत पर उसके होठो पर मुस्कराहट आ गयी....

"दैट्स  लाइक अ गुड़ गर्ल ...डॉक्टर भी इंसान ही हैं....हमेशा इंजेक्शन ही नहीं लगाते रहते"

"चाय लेंगे ..डॉक्टर साब.."..माँ ने पूछा...जीवन काका ने चाय प्यालों में निकाल ली थी.

डा.समीर माँ की तरफ मुड़े...और थर्मस और प्याले पर नज़र पड़ते ही..बोल उठे.."अरे वाह!! घर की चाय...क्यूँ नहीं...घर की बनी किसी चीज़ को मैं कभी ना नहीं कहता...सालों से घर से बाहर हूँ..कप में चाय पीने की आदत ही जाती रही.."

रितेश ने मना कर दिया...तो माँ से पहले...डा.समीर ही बोल पड़े..."अरे हमारा साथ दीजिये..आंटी, इतने प्यार से पूछ रही हैं...क्यूँ काका चाय है ना सबके लिए"

"अरे बहुत है ,सर ..पाँच कप से ज्याद ही  होगा...हमको पता था...हॉस्पिटल  में तो लोग मिलने को आते ही रहते हैं..तो मालकिन,अकेले कैसे पियेंगी....ए ही सोच थर्मस भर कर लाए हैं.." जीवन काका किसी को भी इज्जत देने के लिए सर कह कर बुलाते थे...और इस पर वह उनकी बहुत खिंचाई करती थी..पर अभी चुप रही.

"तब तो मैं एक कप और पिऊंगा..."डा-समीर ने हँसते हुए कहा...और वो हैरान रह गयी...शायद रोज़ इतने लोगो के   संपर्क   ने इतना बेतकल्लुफ बना दिया है, इन्हें...या फिर ये उनके स्वभाव में शामिल है...इनकी तो बातों से ही मरीज़ की आधी बीमारी दूर हो जाती होगी.इतनी आत्मीयता से अजनबियों से भी बाते करते हैं... उसका भी डर धीरे-धीरे जाता महसूस हुआ.

चाय पीते...डा. समीर ने रितेश से पूछा.."और आप कैसे हैं?...उस दिन तो आपकी  घबराहट देख लग रहा था....हॉस्पिटल में एक बेड आपके नाम भी करनी होगी हमें.."


"ओह! मैं बुरी तरह हिल गया था....इस तरह एक्सीडेंट..खून..देखने का पहला मौका था...ड्राइवर और इन्हें दोनों को इस हालत में देख बहुत घबरा गया था...वो तो आप डॉक्टर लोग तय करते हैं कि चोट कितनी गहरी है...खून बहता देख..हमारी तो हालत खराब हो जाती है"

"हाँ...और खासकर जब अपनों का हो.." ..समीर आगे कुछ और कहते कि माँ बोल पड़ी..." ना डॉक्टर साब...इन जैसे लोगो से ही इंसानियत पर विश्वास बना रहता है...ये तो नाव्या को जानते भी नहीं थे...फिर भी इतना किया हम सबके लिए"

हठात ही रितेश और उसकी नज़रें मिल गयीं...'क्या सचमुच वे एक-दूसरे को नहीं जानते थे...हल्की सी मुस्कराहट जैसे आँखों में ही तैर गयीं...और दोनों ने अपनी निगाहें लौटा लीं.

"पहले तो आप....मुझे ये डॉक्टर साब बोलना बंद कीजिए...कोई जब ऐसा कहता है तो खुद ही मेरे हाथ बालों पर चले जाते हैं..लगता है..जरूर बाल  पक  गए हैं और बुड्ढा दिखने लगा हूँ..." और फिर कप रख रितेश की तरफ हाथ बढाया..."इट्स रियली कमेंडेबल  दोस्त....दोस्त कह सकता हूँ ना...मुस्कुरा कर जरा सा रुके..फिर गर्मजोशी से उसका हाथ हिलाते हुए बोले," आप जैसे लोगो की बड़ी जरूरत है...आपलोग हमारा काम आसान कर देते हैं...ऐसे में समय की बड़ी कीमत होती है..और अक्सर डॉक्टर्स   के पास एक्सीडेंट केसेज़ लाने में लोग इतना टाइम  वेस्ट कर देते हैं कि...हमें दुगुनी मेहनत करनी पड़ती है और पेशेंट को रिकवर होने में भी काफी समय लग जाता है...इट्स रियली नाइस टु नो यू"

"अब भागना होगा आंटी..थैंक्स फॉर द लवली टी....पर चाय तो काका ने बनाई हैं ना....धन्यवाद काका.."
काका ने अभिभूत होकर हाथ जोड़ दिए..

" एंड यू ट्राई टु बी अ गुड गर्ल..तंग ना किया करें आंटी को...नर्स बता रही थी...आप दवा लेने में बड़ी नखरे  करती हैं...और इंजेक्शन में तो बच्चों सा शोर मचाती हैं"

"हैं, भी तो इतनी सारी...बड़ी-बड़ी सी ...निगली ही नहीं जाती.." उसने मुहँ बनाया.

" सिर्फ इंजेक्शन चलेगा...?" हंस कर बोला...और फिर एकदम गंभीर हो गया..."देखिए...वूंड हील करने के लिए, दवा  तो सारी की सारी लेनी पड़ेंगी और इंजेक्शन भी....ओके...अच्छा चलूँ..." माँ और रितेश की तरफ हाथ हिलाया...और चला गया. 

अपने नाम के अनुरूप ही खुशबू के एक झोंके सा  आया और सबके मन पर अपनी उपस्थिति दर्ज कर चला गया. इतने कम समय में ही उसने कमरे में उपस्थित चारो लोगो से बातें की..सबको समान महत्त्व  दिया...हम्म सीखना पड़ेगा ये सब..

"अच्छा लड़का है..." माँ थीं..

"या..नाइस चैप एंड अ वेरी गुड डॉक्टर...उस दिन मैने इन्हें देखा...इतनी अच्छी तरह सब संभाला...यु आर इन सेफ हैंड्स...."...रितेश उसकी तरफ मुड कर बोला...और वो सोचने लगी..इन दो दिनों में उसकी दुनिया कितनी बदल गयी....अपनी साँसों के  के लिए वो इन दो अजनबियों की कर्ज़दार हो गयी. 

इन्ही ख्यालों में गुम थी कि हैरान-परेशान सी...नीना, प्रियंका, अर्चना कमरे में दाखिल हुईं. तीनो एक साथ बोल रही थीं.."अरे क्या हुआ...कब हुआ..कैसे हुआ.....मुझे तो आज पता चला....इतनी परेशान  हो गयी...मैं"  वो मन ही मन मुस्कुरा उठी..फिर से तीनो में होड़ शुरू हो गयी कि किसे उसकी सबसे ज्यादा चिंता है...माँ ही बता रही थीं...वो थक सी गयी थी....उसने माँ को कहा...लेटना चाहती है...जरा नीचे कर दे बेड. रितेश ने ही आगे बढ़ कर किया और फिर वहीँ से.."चलता हूँ आंटी..फिर आऊंगा...और उसकी तरफ आँखे झुका कर बाय कहा....और चला गया.

चैन की सांस ली,उसने..अभी उसकी सहेलियाँ आपस में ही उलझी थीं..रितेश को उन्होंने उसका कोई रिश्तेदार समझ लिया..अगर पूछताछ शुरू करतीं  तो फिर उसे जबाब देते नहीं बनता. और उन्हें उसे छेड़ने का एक बहाना मिल जाता. पर पता नहीं  उसका बात करने का मन नहीं हो रहा था...रितेश..डा. समीर की बातें....बार-बार रिप्ले हो रही थीं...मन में...और उसने आँखें  मूँद लीं...माँ ने कहा...काफी देर से बैठी थी..लगता है...थक गयी हैं. सहेलियाँ आपस में ही बातें करती ताहीं..और फिर आने का वायदा कर चली गयीं.
(क्रमशः)

Friday, August 12, 2011

हाथों की लकीरों सी उलझी जिंदगी. ..(2)

( नाव्या कॉलेज में पढनेवाली एक धनाढ्य पिता की पुत्री है....ख़ूबसूरत है....पढ़ने में अव्वल है....किन्तु अकेलापन उसका साथी है. सबकी प्रशंसात्मक नज़रों की आदी नाव्या को एक किताब के दुकानवाले की अपने प्रति उदासीनता सोच में डाल देती है) 


चैटर्जी सर ने ऑर्गेनिक केमिस्ट्री में टी. शर्मा की किताब लेने को कहा...उस दुकान के सामने पहुंचते ही...वो यंत्रवत ड्राइवर से  बोल उठी...." यहाँ रोकना जरा..." 
दरवाजे के हैंडल पर हाथ रखा ही था कि याद आया..."उसे तो नहीं जाना ना.."
हाथ हटा लिया..."ना ड्राइवर से ही मंगवा लेती है"

लेकिन ड्राइवर क्या जानने गया..."ऑर्गेनिक या फिजिकल केमिस्ट्री..कहीं उसे बेवकूफ बनाने को दूसरी पुस्तक पकड़ा दी तो?...गाड़ी तो पहचान ही गया होगा...और एक ही झटके से गाड़ी से उतर कर जोर से दरवाज़ा बंद कर दिया...." हुंह ! वो क्यूँ परवाह करे किसी की ..."

और खटाखट सीढियां चढ़, हाथ बांधे, चेहरे पर अतिव्यस्तता का मुखौटा लगाए, पूरी गंभीरता से बोली..."टी शर्मा की  ऑर्गेनिक केमिस्ट्री है क्या?"



वह किताबों के बीच कुछ ढूंढ रहा था....हलके से चौंक कर मुडा...पल-भर को निगाहें मिलीं....ओफ्फ़!! किस कदर उदास हैं ये आँखें....ये बस जन्म से ऐसी ही हैं...या इनके पीछे कोई कहानी छुपी हुई है. किसका सीना ना चाक कर दे ..उदासी के गह्वर में डूबी ये आँखें..चेहरे पर बच्चों सी मासूमियत...और आँखें ऐसीं जैसे ना जाने कितने वसंत देख चुकी हों ...और आज तक बस खोया ही खोया हो. उसकी तनी हुई नसें थोड़ी ढीली पड़ने लगीं कि ख्याल आया उसे तो नाराज़गी दिखानी है...फिर से अकड़ कर सीधी खड़ी हो गयी.


वह कुछ क्षणों तक होठों को तर्जनी से थपथपाता रहा, फिर बड़ी नम्रता से बोला...."आsssप एक मिनट ठहरें....मैं बगल से मंगवा दे रहा हूँ. "अरे ये क्या सचमुच टेलीपैथी का कोई अस्तित्व है?....इसे कैसे खबर हो गयी...उसके मूड की...आज तक तो कभी इतनी रियायत नज़र नहीं आई. 'नहीं' शब्द छोड़कर आज तक दूसरा सुना ही नहीं...और आज तो ये पूरा वाक्य बोल गया. अगर किताब होती तो उसे से नहीं..दुकान में काम करने वाले लड़कों से कहता....निकाल कर देने को...और नहीं होती तो सिर्फ एक 'सपाट' नहीं .
उसके चेहरे की  कठोरता कम पड़ने लगी लेकिन उसने जल्दी से फिर से वही सख्त भाव ओढ़ लिए और कड़क कर पूछा, "देर लगेगी?"

"नहीं..नहीं.." उसने फिर बड़ी नम्रता से सर हिलाकर कहा..जैसे किसी दूसरे जहां से बोल रहा हो..." बिलकुल पास ही है...रामेश्वर देखना तो चौधरी बुक डिपो में हो शायद....थी मेरे पास भी..पर ख़त्म हो गयी..." वैसे ही होठों को तर्जनी से थपथपाता अपनी जगह खड़ा रहा...ना तो उसने  कोई किताब उठायी ना ही खुद को कहीं और व्यस्त किया.

उसका सारा तनाव ढीला पड़ गया....हल्का सा दीवार का सहारा लिए पीठ टिका दी....हाथ...सामने कौर्निस पर रखा और तुरंत ही समेट लिए..क्या पता...सोचे अपने लम्बे-लम्बे पेंटेड नाखून दिखा रही है..."

वो वैसे ही दीवार से पीठ टिकाये....छत से घूमते पंखे को देखती रही...और वो सामने सड़क पर नज़रें जमाये खड़ा रहा...लगा,जैसे आस-पास के  सारे दृश्य पिघल कर रंग-बिरंगे लहरों में तब्दील हो उनके चारों तरफ चक्कर काट रहे हैं ..और दोनों ही अपने-अपने वृत्त में घिरे...ठिठके से खड़े हैं...उसके सहायक ने आकर जैसे उन लहरों को छू दिया और लहरें स्थिर हो गयीं...सबकुछ अपनी जगह वापस लौट आया...वे दोनों भी.

उसने बिना कुछ बोले ...झुक कर किताब उसकी तरफ बढाया और नाव्या ने  बिना कीमत पूछे...पांच सौ का नोट काउंटर पर रख दिया...उसने चेंज वापस काउंटर पर रखा और दराज़ में झुक कर कुछ ढूँढता रहा. नाव्या पैसे उठाकर गिनने लगी..तो उसने आँखें ऊपर उठाईं और बड़ी आश्चर्य भरी भरपूर निगाह  डाली, उसके चेहरे पर. 
आज तक कभी,लौटाए पैसे वह गिनती नहीं थी...आरक्त चेहरे से पैसे और किताबें समेट वह दौड़ती हुई सीढियां उतर गयी. लगा, पीछे उसकी आँखें हंस रही हैं.

रोज़ गाड़ी उसके दुकान के सामने से गुजरती...पर जैसे उसे अब जाने में संकोच सा होता....अब तक जिन नज़रों में  अपनी पहचान देखना चाहती थी...अब जैसे उन्ही नज़रों से आँखें चुराने लगी थी...फिर भी एक बार नज़र उसकी तरफ उठ  ही जाती...कभी, बस उसके घुंघराले बाल नज़र आते...कभी उसकी चौड़ी  पीठ तो कभी बस एक हाथ...जिसमे झूलते कड़े को देख,एक अव्यक्त चिढ से भर उठती...पता नहीं...सुसंस्कृत लोगों में भी ये चवन्नीछाप बनने की लालसा क्यूँ बनी रहती है...होगा फैशन..पर उसे नहीं पसंद...और जब उसे नहीं पसंद तो उसे पसंद आने वालों को उसकी पसंद का ख्याल तो रखना चाहिए....और जैसे  खुद की चोरी ही पकड़ लेती...उसकी पसंद??..फिर अपने ऐसे किसी ख़याल से बचने को  घबरा कर....किसी पत्रिका के पन्ने पलटने लगती. 

पर अब पत्रिकओं से भी दूरी बढानी थी...इम्तहान निकट आ रहे थे. अपनी फर्स्ट पोजीशन बरकरार रखने को मेहनत तो करनी ही पड़ती थी. कभी-कभी सोचती,अच्छा होता वो पढ़ने में बिलकुल फिसड्डी होती ,फिर शायद माँ या डैडी कुछ ध्यान देते. कितना अच्छा लगता, उसे ले चिंतित हो बातें करते उसके विषय में...माँ घर पर रहने की कोशिश करतीं...ताकि वो ध्यान से पढ़ाई करे. पापा अपने दोस्तों से उसके गिरते मार्क्स की चिंता करते...लेकिन क्या करे....अब जानबूझकर तो फेल नहीं हुआ जा सकता. कभी भूले-भटके कोई अंकल-आंटी, उसकी पढ़ाई के विषय में पूछ लेते तो माँ-डैडी दोनों एक स्वर में कहते..":अरे! हमें कभी फ़िक्र नहीं करनी पड़ी....बिटिया शुरू से ही तेज है,पढ़ने में...फर्स्ट आती रही है,हमेशा" 

इम्तहान के दिनों में वो सब कुछ भूल जाती...गीतों-ग़ज़लों-फिल्मो के सी डी धूल खाते रहते....किताबें उदास सी एक दूसरे से सिमटी शेल्फ में कैद रहतीं...और उसके कमरे में टेबल से लेकर बिस्तर...खिड़की ..जमीन हर जगह पन्ने ही पन्ने बिखरे होते. हाँ, कभी-कभी..उन पन्नों के बीच ही कोई आकृति उभर आती...तो कभी कोई आंसर याद करते वक्त , अचानक लगता किसी ने आश्चर्य से उसे देखा है...कभी याद  करके लिखे डेफिनिशंस को दुबारा पढ़ती तो कहीं कहीं लिखा हुआ पाती...'मिटटी का माधो" और एक गहरी मुस्कराहट छा जाती चेहरे पर....और किसी को ख्यालों में ही मुहँ चिढ़ा उठती..."हाँ! पत्थर बनेंगे...ये नहीं मालूम कि निर्मल झरना भी तो पत्थरों के बीच  से ही निकलता है."

पेपर आशानुकूल ही जा रहे थे...अंतिम पेपर देकर लौट रही थी...परीक्षा ख़त्म होने की ख़ुशी भी थी और मन कुछ उदास सा भी था.... क्या करेगी अब इन खाली-खाली लम्बे  दिन और रातों का. तभी एक छोटा सा बच्चा, सड़क पार करते  ट्रैफिक में बुरी तरह से घिर गया  और जो ड्राइवर ने उसे बचाने के लिए अचानक ब्रेक मारी तो पीछे से आती हुई कार बुरी तरह टकरा गयी उसकी कार से. उसे बस इतना याद रहा कि वो उछल सी पड़ी..और सर बड़ी जोर से दरवाजे से टकराया...फिर क्या हुआ उसे कुछ याद नहीं. थोड़ी देर बाद लगा किसी ने सर के नीचे हाथ लगा, उठाया है उसे....मुश्किल से तन्द्रिल आँखें खोलने की कोशिश की ....सब धुंधला सा नज़र आया.....पर ये गालों पर पानी सा क्या फिसल रहा है...आँसू....लाल-लाल आँसू...और फिर उसकी आँखें मुंद गयीं.

जब होश आया तो खुद को एक बिस्तर पर लेटा हुआ पाया...ऐसा लगा...बड़ी दूर कुछ लोग बातें कर रहे हैं...बड़ी हल्की सी आवाज़ आ रही थी. हाथ उठाना चाहा...लेकिन हाथों ने कहा मानने से इनकार कर दिया. आँखें खोलने की कोशिश की तो लगा मन- मन  भर के बोझ रखे हों पलकों पर. बड़े जोरों की  प्यास महसूस हुई. सर में भयंकर दर्द हो रहा था...पानी माँगने  की कोशिश की  पर गले से कोई स्वर नहीं निकला. सारी शक्ति लगाकर आँखें खोलीं..पर दूसरे ही पल फिर आँखें मुंद गयीं. लगा, जैसे कोई झुका है, उसपर. बालों पर सहलाहट सी महसूस हुई. धीरे-धीरे फिर से आँखें खोलने की कोशिश की.  पलकों की झिरी से देखा...जाना -पहचान चेहरा लग रहा था ....पर याद नहीं आ रहा. दिमाग पर जोर डाला लेकिन थक गयी. 

अचानक वे आँखें आयीं नज़रों की हद में और कुछ याद आया....आँखें...उदास आँखें...किसकी...मि... मि ...मिटटी के माधो की...और एकबारगी ही पलकें पूरी लम्बाई में खुल गयीं. हाँ, उसपर झुका चेहरा 'मिटटी के माधो' का ही था...लेकिन आज ना आँखें खोयी खोयी सी थीं और ना ही उदास...बल्कि बड़ी व्यग्रता झलक रही थी उनमे. चपल मछलियों सी पुतलियाँ ...उन झील सी आँखों में इधर से उधर तैर रही थीं.

उसे होश आया देख, कुछ ठहराव आया उनमे. एक तरलता झलकी और स्निधता फ़ैल गयी..चेहरे पर...हाथ उसके सर पर थे.."कैसा लग रहा है?" सुन तो नहीं पायी सोचती है..यही पूछा होगा. और एकदम से प्यास याद आ गयी. सूखे होठों पर जीभ फेर कर कर कहा...'.पाsssssss नी......पाssssssss नी ' पर शायद आवाज़ बहुत धीमी थी..उसे सुनाई नहीं दी.....वह सुनने को  झुका.. उसने फिर दुहराया.....'.पाsssssss नी.' पर वो सुन नहीं पाया...और अचानक ढेर सारे घुंघराले बाल छा गए उसके चेहरे पर.... उसके कान उसके होठों से मुश्किल से दो इंच की दूरी पर थे.  दूसरे ही क्षण वो तेजी उठ गया...'नर्स..नर्स...पानी.." 

"होश... आ गया? .." एक पतली सी पर तेज आवाज़ आई. और फिर तो कई अजनबी चेहरों ने उसे घेर लिया. उन चेहरों में नवीन अंकल भी थे और नवीन अंकल पर नज़र पड़ते ही डैडी याद आए और फिर माँ.... बंद पलकों पर मोटी-मोटी बूंदें उभर आयीं..'माँ..माँ...डैडी..कहाँ हैं आपलोग?...ये क्या हो गया...मैं यहाँ  कैसे पहुँच गयी...ये लोग कौन हैं...?"..'सवालों के झंझावात उसे झकझोरे जा रहे थे.

नवीन अंकल उसके सर पर हाथ फेर रहे थे.."आँखें खोलो बेटे...अब कैसा लग रहा है?'

"म्माँ...माँ....डैडी...बुला दीजिये उन्हें..."

"वे लोग आते ही होंगे..दोनों लोगो को खबर कर दी गयी है...आपके पापा जो भी पहली फ्लाईट मिलेगी...उस से आ रहे हैं...माँ, पास के गाँव में गयी हुई थीं... बस पहुँच ही रही होंगी....लीजिये पानी पी लीजिये.." एक गूंजती सी आवाज़ एक सांस में सब कह गयी....

आँखें खोल,आवाज़ के मालिक को देखने का यत्न किया तो उसके शर्ट का गहरा लाल रंग आँखों में चुभ गया. घबरा कर आँखें बंद कर लीं. 

"लीजिये... पानी पी लीजिये...." फिर वही आवाज़...हाथ भी उसी का होगा.

कराहती हुई...उसने सर हिला .."नईssssss.....माँ को बुला दीजिये..." 

" पी लो बेटे...माँ बस आ ही रही हैं...." नवीन अंकल का स्नेहिल स्वर उभरा.

उसने जिद से सर हिला दिया...'नईssss"

आँखें जरूर इधर-उधर भटकीं...पर सूनी ही रहीं...सर घुमा देखना चाहा . पर पट्टियों से बंधा सर हिला भी नहीं. रोष उभर आया उसे...ये मिटटी का माधो..सचमुच मिटटी का माधो ही है...ये अनजान लोग तीमारदारी में जुटे हैं और वो खुद किधर है? इन्हें ही कहा था उसने पानी पिलाने को??...पर इस से ज्यादा तनाव दिमाग बर्दाश्त नहीं कर पाया...निढाल सी पड़ गयी. गहरी क्लान्ति छा गयी...थकी पलकें मुंदने लगीं...ह्रदय अतल गहराइयों में डूबने लगा...और जब अंकल ने कहा..".मुहँ खोलो बेटे..." तो उसने ऑटोमेटीकली  मुहँ खोल दिए...इतने में ही इतना थक गयी थी....दो घूँट पानी पीते ही फिर से सो गयी. 
***
बहुत दिनों का भुला हुआ स्पर्श....सर पर गालों पर....हाथों पर महसूस हुआ...और उसने हडबडाकर आँखें खोल दीं..माँ उसपर झुकी हुई थीं...आँखें सुर्ख लाल लग रही थीं. उस से आँखें मिलते ही पलकों पर आँचल रख दूर हट गयीं. पर हाथों का स्पर्श वैसा ही बना रहा...तो ये हाथ किसके हैं...दूसरी तरफ नज़रें घुमाईं...तो पाया डैडी की डबडबाई  सी आँखें उस पर ही टिकी हैं....एक आवेग सा उमड़ा और वो बिलकुल पांच वर्ष की नन्ही सी नाव्या बन फूट पड़ी...."डैडी...ओह.. डैडी...." 

डैडी की  आँखें भी छलकने को हुईं पर रोक लिया खुद  को.."ना बच्चा ना....हम सब यहाँ हैं ना...सब ठीक हो जाएगा..."

माँ भी पास आ गयीं..." रोते नहीं बेटा...जल्दी ही ठीक हो जाओगी....भगवान का लाख-लाख शुक्र, ज्यादा सीरियस कुछ नहीं है"

"पर हुआ क्या...मैं यहाँ कैसे आ गयी.....मुझे तो कुछ भी नहीं याद.....मेरी तो आँख खुलती है..और मैं सो जाती हूँ ...तुमलोग भी कब आए पता ही नहीं चला...जाने कब तक सोती रही मैं..."उसने कुछ शिकायती लहजे  में कहा.

"कार का एक्सीडेंट हो गया बेटे...पर भगवान ने बचा लिया..ज्यादा चोट नहीं आई "

"और रमण अंकल?...वे कैसे हैं..." अब उसे ड्राइवर का ख्याल आया.

"वो भी ठीक है.......इसी हॉस्पिटल में है.."
 "थैंक गौड'.. वे  ठीक हैं.." कहकर उसने आँखें मूँद लीं......मम्मी-पापा उसकी बेड के दोनों तरफ कुर्सियों पर बैठे  थे...डैडी का हाथ उसके सर पर  था और माँ उसके हाथ सहला रही थीं. उनकी ये छवि बूँद-बूँद महसूसने की कोशिश कर रही थी...पिछली बार कब हुआ था ऐसा?... कब उसके बेड के आस-पास माँ और डैडी दोनों जन थे?...याद करने पर भी याद नहीं आ रहा. वो सर का भारीपन...हाथ-पैरों पर जगह-जगह लगी खरोंचे....पैरों पर कसकर बाँधा हुआ क्रेप बैन्डेज़
...वो सारे कष्ट थोड़ी देर को भूल ही गयी. ..हे भगवान! इस क्षण को अनंतकाल के लिए स्थिर कर दो...ओह! उसका एक्सीडेंट...दो साल..चार साल...छः साल.. पहले ही क्यूँ ना हुआ...यूँ माँ-डैडी सब छोड़  उसके पास चले आते.

किसी की धीमी पदचाप कमरे में आई और डैडी अभ्यर्थना में उठ खड़े हुए , बोले..
"बेटा.. भगवान की असीम कृपा  तो है ही...पर थैंक्स  इनका भी करो..." और उन्होंने एक युवक के कंधे पर हाथ रख...उसे आगे किया..."बेटे ये हैं..रीतेश...ये ही तुम्हे समय पर हॉस्पिटल  ले आए....और तब से देखभाल कर रहे हैं...नवीन अंकल  भी पता चलते ही आ गए फिर भी सारी जिम्मेवारी इन्होने ही उठायी.."

आगंतुक की  आँखों में गहरी आत्मीयता झलक रही थी...और आँखों  में हल्का स्मित. मुस्कुरा पड़ी वो..सिरचढ़ी  छोटी सी बच्ची की तरह इठला कर बोली...." मैं तो जानती हूँ, इन्हें...अग्रवाल बुक डिपो इनकी ही तो है...कई बार किताबें ली हैं,वहाँ से..." माँ ने होठों पर ऊँगली रख दी.."धीरे नाव्या...और ज्यादा मत बोलो...कमजोरी और बढ़ेगी" 

कमजोरी?? अब कमजोरी का उसके रास्ते में क्या काम....इतना उत्साह तो उसे कभी महसूस नहीं हुआ...इतनी ख़ुशी तो उसे कभी नहीं मिली....अगर इन पट्टियों  ने ना जकड़ा हुआ होता तो अभी उठ कर....क्या करती?..हाँ, क्या करती?...पता नहीं..पर कुछ करती तो जरूर. अभी तो बस उसकी आँखों को ही पूरी अभिव्यक्ति की इजाज़त थी...शरीर इस लायक नहीं था कि हिले-डुले भी..और बोलने पर कभी माँ तो कभी डैडी टोक ही देते. 

वह डैडी के पास खड़ा एकटक नज़रें जमाये था उसके चेहरे पर...एक स्निग्ध तरलता फैली थी चेहरे पर और इतनी मुखर आँखें ,उसने तो नहीं देखीं कभी. उसने भी फीकी सी मुस्कान सजा रखी थी होठों पर...लेकिन अपने एपियरेंस पर उसे बड़ी कोफ़्त हो रही थी...ये माथे पर बंधी बड़ी सी पट्टी...ना जाने, चेहरा  कैसा लग रहा है...कितनी अजीब सी दिख रही होगी वो. 

माँ-डैडी बार-बार अपनी कृतज्ञता प्रगट कर रहे थे और वो विनम्रता से दुहरा हुआ जा रहा था.."ऐसा कुछ ख़ास नहीं किया मैने...मेरी जगह कोई भी होता...तो यही करता...बस संयोग कहिए कि...मैं वहाँ तुरंत पहुँच गया.."

"वो सब ठीक है बेटा..पर जो भी करता हम तो उसके ही एहसानमंद हो जाते...अभी तो तुम्हारे ही हैं"

पता चला..पास ही उसका घर है...माँ से कह रहा था...कुछ भी जरूरत हो तो तुरंत बता दिया करें....माँ ने भी ने बार-बार कहा..."मिलते रहना बेटा...मेरी बेटी की जान तो तुमने ही बचाई है..इसे हम कभी नहीं भूलेंगे"

शायद डैडी और माँ की इन बातों से वो बहुत ही असहज महसूस कर रहा था...बार-बार कभी हाथ पीछे की तरफ बांधता...तो कभी बालों को हाथ लगाता...कभी इस पैर पर शरीर का वजन डालता... तो कभी उस पैर पर....और इन बातों से  बचने को ही शायद बाहर जाने को उद्धत हो उठा..."अच्छा आंटी..चलता हूँ...किसी चीज़ की भी जरूरत हो...तो प्लीज़ संकोच मत कीजियेगा...बिलकुल दो कदम पर ही मेरा घर है. कल फिर आऊंगा..." और झुक कर माँ-डैडी को उसने हाथ जोड़ दिए. एक मुस्कान उसकी तरफ उछाला जिसे पलकें झपका कर उसने लपक लिया और वो दरवाजे से बाहर हो गया.

रितेश के जाने के थोड़ी ही देर बाद डा. समीर आ गए...हाँ! उस लाल शर्ट वाले का यही नाम था. छः फुट लम्बा कद...इकहरा शरीर..गूंजती सी आवाज़ और उस पर चेहरे पर धूप खिली मुस्कान. ओह! एक डॉक्टर का ऐसा व्यक्तित्व...तभी उसकी एक पुकार पर कई-कई नर्सें यूँ दौड़ी चली आती हैं....किन उपायों से  बचता होगा...अरे ,बचना क्या...भरपूर जिंदगी जीता होगा....वो यही सब सोच रही थी और डा. समीर उसकी फ़ाइल पर नज़रें जमाये...नर्स से उसके हाल-चाल का ब्यौरा ले रहे थे. थोड़ी देर बाद फ़ाइल नर्स को थमा और उसे कुछ निर्देश दे ...डैडी की तरफ मुड़े ...डैडी से हाथ मिला कर अपना परिचय दिया..फिर माँ की तरफ देख मुस्कराए "आप ज्यादा चिंता ना करें...ज्यादातर तो सुपरफिशियल इन्जरीज़ ही हैं....पैर में थोड़ा स्प्रेन है...और माथे पर कुछ स्टिचेज़ लगाने पड़े हैं...इन्हें  बुखार भी है...तो देखते हैं.,..कितनी जल्दी हम इन्हें छुट्टी दे सकते हैं..."

फिर उसकी तरफ मुड़े..." सो... हाउ आर यू फीलिंग नाउ ?"

अपने सूखे होठों पर जीभ फेरकर इतना ही कह पायी.."फाइन"..डर लगा...कुछ दर्द बताएगी..तो कहीं नर्स को कोई इंजेक्शन लगाने को ना कह दें.

"या..या....यू हैव टु बी.....हमारी हॉस्पिटल में जो हैं आप....बेस्ट इन द सीटी...." डा. समीर ने उसकी नब्ज़ देखी...आँखें देखी...जीभ दिखाने को कहा...वो यंत्रवत करती रही...और अंदर अंदर डरती भी रही....शायद  उसका डर पढ़ लिया उन आँखों ने...और उसे सहज  करने को...उसकी माँ की तरफ मुड़ कर पूछा..."किस क्लास में पढ़ती हैं ये"

"कॉलेज में है...बी-ए फाइनल का एग्जाम दिया है....आज लास्ट पेपर था"

"क्याsssss " ....... नाटकीय सी मुद्रा अपनाई उन्होंने..."मुझे तो लगा..किसी प्राइमरी स्कूल में हैं...जिस तरह से सुबह जिद कर रही थीं...." माँ को बुलाओ..पानी नहीं पीना...ओह!! परेशान  कर दिया था....और जरा सा पैर क्या मुडा हुआ था..'फ्रैक्चर..फ्रैक्चर...डा. मेरा पैर फ्रैक्चर हो गया है'..चिल्लाए  जा रही थी"..ऐसे मुहँ बना कर कहा कि
माँ-डैडी के होठों पर भी एक स्मित-रेखा खिंच गयी.

" फ्रैक्चर वाली बात कब कही मैने...??"..गुस्से में चिल्ला सी ही पड़ी....भूल गयी कि अभी इसी डा. से कितना डर रही थी वो.

"मैम यू डोंट नो...कितनी परेशानी हो रही थी, हमें ..आपको संभालने में....एक तो माँ के नाम की जिद...और दूसरे...आपका यूँ पैनिक होना...आधी बेहोशी में थीं आप....और फ्रैक्चर भी हो गया तो क्या...ठीक नहीं होता क्या वो"..हंस दिया वह.

"मुझे फ्रैक्चर नहीं चाहिए..."..उसने नाक फुला कर कहा.

"लाइक यू हैव च्योयास ..बट लकी यू आर....नहीं हुआ फ्रैक्चर... अब आराम कीजिए...ज्यादा एग्ज़र्शन ठीक नहीं....फिर नर्स की तरफ  मुड़ कर कहा...मेक श्योर...ये जल्दी दवा लेकर सो जाएँ..."

माँ-डैडी को आँखों में ही,सर हिला कर  'ओके'  कहा...और उस पर बिना एक नज़र डाले बाहर हो गया. 

रुआंसी हो गयी वो..सच्ची सचमुच उसे बच्ची ही समझता है.
(क्रमशः )