Thursday, February 11, 2010

होठों से आँखों तक का सफ़र (कहानी)


मोबाइल पर एक अनजाना नंबर देख,बड़े बेमन से फोन उठाया.पर दूसरी तरफ से छोटी भाभी की आवाज़ सुनते ही ख़ुशी से चीख पड़ी. इतने सारे सवाल कर डाले कि उन्हें सांस लेने का मौका भी नहीं दिया.मेरे सौ सवालों के बीच वो सिर्फ इतना बता पायीं कि इसी शहर में हैं,अपने बेटे के पास आई हुई हैं और मुझसे मिलना चाहती हैं.

फोन रखते ही मैं जल्दी जल्दी काम निबटाने लगी और उसी रफ़्तार से मानसपटल पर पुराने दृश्य उभरने और मिटने लगे.

पड़ोस में रहने वाली ,मेरी सहेली सुधा के छोटे भैया की शादी हुई तो जैसे उनका घर रोशनी से नहा गया.अपने नाम किरण के अनुरूप ही,छोटी भाभी कभी सूरज की किरणें बन घर में उजास भर देतीं तो कभी चंद्रमा की किरण बन शीतलता बिखेरतीं.लम्बे काले बाल,दूध और शहद मिश्रित गोरा रंग,पतली छरहरी देह और उसपर जब हंसतीं तो दांतों की धवल पंक्ति बिजली सी चमक जाती.उन्हें देखकर ही जाना कि असली हंसी क्या होती है?उनकी हंसी सिर्फ होठों तक ही सीमित नहीं रहती बल्कि आँखों में उतर कर सामने वाले के दिल में घर कर लेती थी.

फोटो तो हम सबने पहले ही देख रखी थी.उसपर से सुना फर्स्ट क्लास ग्रेजुएट हैं. थोड़ा डर से गए थे. इतनी सुन्दर और इतनी पढ़ी लिखी हैं,जरूर घमंड भी होगा.ठीक से बात भी करेंगी या नहीं.पर अपने प्यारे व्यवहार से उन्होंने घर भर का ही नहीं.सुधा की सारी सहेलियों का भी मन मोह लिया.

हम इंतज़ार करते रहते कब क्लास ख़त्म हो और हम सब सुधा के घर जा धमकें.अक्सर छत पर हमारी गोष्ठी जमती और हम यह देख दंग रह जाते,साहित्य,राजनीति,खेल,फिल्म,संगीत,सब पर भाभी की अच्छी पकड़ थी.नयी नवेली बहू को सुधा की माँ तो कुछ नहीं कहतीं पर शाम के पांच बजते ही वे, किचेन में बड़ी भाभी की हेल्प करने चली जातीं.

छोटे भैया भी उनका काफी ख़याल रखते.अक्सर शाम को ऑफिस से लौट वे भाभी को कभी दोस्तों के घर ,कभी मार्केट तो कभी फ़िल्में दिखाने ले जाते.जब स्कूटर पर भैया भाभी की जोड़ी निकलती तो सारे महल्ले की कई जोड़ी आँखें,खिडकियों से ,बालकनी से या छत से झाँकने लगतीं.सब यही कहते कैसी,राम सीता सी जोड़ी है.

समय के साथ वे एक प्यारे से बच्चे की माँ भी बनीं.अब तो छोटे बच्चे के बहाने, मैं जैसे उनके घर पर ही जमी रहती.पर नन्हे से ज्यादा आकर्षण भाभी की बातों का रहता.वे भी जैसे मेरी राह देखती रहतीं. उन्होंने भी मुझे कभी सुधा से अलग नहीं समझा.

सब कुछ अच्छा चल रहा था,फिर हुआ वह वज्रपात.जाड़े के दिन थे,अल्लसुबह भैया किसी मित्र को लाने स्टेशन जा रहें थे.और कोहरे की वजह से उनके स्कूटर का एक्सीडेंट हो गया.भैया का निर्जीव शरीर ही घर आ पाया,नन्हे सिर्फ चार महीने का था,उस वक़्त.

भाभी को उनके मायके वाले ले गए.मुझे भाभी से बिछड़ने का गम तो था. पर मुझे विश्वास था कि भाभी,अपने घर की इकलौती बेटी हैं,दो भाइयों की छोटी लाडली बहन हैं,पिता भी प्रगतिशील विचारों वाले हैं.जरूर उन्हें आगे पढ़ा कर या अच्छा सा कोर्स करवा कर नौकरी के लिए प्रोत्साहित करेंगे.मैं मन ही मन प्रार्थना करने लगी,हे भगवान्! भाभी की दूसरी शादी भी करवां दें,कैसे काटेंगी अकेली ये पहाड़ सी ज़िन्दगी. पर तब मुझे दुनियादारी की समझ नहीं थी.नहीं जानती थी कि एक विधवा या परित्यक्ता बेटी के लिए मायके में भी जगह नहीं होती.जिस घर मे वह पली बढ़ी है, अब उस घर में ही फिट नहीं हो पाती.जिन माँ-बाप का गला नहीं सूखता ,यह कहते कि,उसके ससुराल वाले तो छोड़ते ही नहीं ..दो दिन में ही बुलावा आ जाता है.पर अगर बेटी हमेशा के लिए आ जाए तो भारी पड़ जाती है. दो महीने के बाद ही भाभी के पिता यह कहते हुए उन्हें ससुराल छोड़ गए कि यह नन्हे का अपना घर है , उसे इसी घर में बडा होना चाहिए.

घर में प्रवेश करते ही,भाभी ने अपनी स्थिति स्वीकार कर ली थी.उनका अपना कमरा अब उनका नहीं था. किचन से लगे एक छोटे से कमरे में उन्हें जगह मिली थी.जहाँ बस एक तख़्त पड़ा था.उनके दहेज़ के सामान में से बस एक आलमीरा उन्हें मिला था.उनके कमरे,उनके ड्रेसिंग टेबल,टू-इन-वन,सब पर अब सुधा का कब्ज़ा था.छोटी भाभी की अनुपस्थिति में उनके पलंग पर सुधा,और बड़ी भाभी के बच्चे सोते थे.वही व्यवस्था उनके लौटने के बाद भी कायम रही.उनका कमरा देख मेरा कलेजा मुहँ को आ गया.एक रैक पर नन्हे के कपड़ों के साथ बस एक कंघी पड़ी थी.एक आईना तक नहीं.तर्क होगा,जब श्रृंगार नहीं करना,फिर आईने की क्या जरूरत.

नन्हे को तो सुधा की माँ ने जैसे अपने संरक्षण में ले लिया था.उस बच्चे में वह अपने खोये हुए बेटे को देखतीं.उसका सारा काम खुद किया करतीं.एक मिनट भी उसे खुद से अलग नहीं करती....बस भाभी को आवाजें लगातीं....बहू,जरा..नन्हे की दूध की बोतल दे जाओ...कपड़े दे जाओ...उसके नहलाने का इंतज़ाम करो...और भाभी आँगन में पटरा गरम पानी तौलिया,साबुन सब रखतीं.पर बच्चे को नहलाने का सुख.माता जी ले जातीं.भाभी नन्हे की धाय माँ भी नहीं रह गयी थीं.

फिर भी भाभी ने अपनी मुस्कराहट जिंदा रखी थी.शायद यही उनके जीने का सम्बल था.पर अब उनकी हंसी बस होठों तक ही सीमित रहती,आँखों से नहीं छलकती थी.

छोटी भाभी के घर आते ही,बड़ी भाभी को पता नहीं किन काल्पनिक रोगों ने धर दबोचा.आज उनके पैर में दर्द रहता,कल पीठ में तो परसों कमर में.सारा दिन पलंग पर आराम फरमाया करतीं.और पड़े पड़े ही छोटी भाभी को निर्देश दिया करतीं.उन्होंने अपना वजन भी खूब बढा लिया था.मैं सोचती,आज तो ये काम से बचने के लिए बहाने कर रही हैं...इतने आराम से कल इन्हें ये सारे दर्द सचमुच झेलने पड़ेंगे.

घर का सारा बोझ छोटी भाभी के कंधे पर आ गया था.सुबह उठकर बड़ी भाभी के बच्चों के टिफिन बनाने से लेकर,रात में सबके कमरे में पानी की बोतल रखने तक उनका काम अनवरत चलता रहता.बस दोपहर को थोड़ी देर का वक़्त उनका अपना होता.जब वे घर वालों के कपड़े समेट आँगन में धोने बैठती.सबलोग अपने कमरे में आराम कर रहें होते और वे मुगरी से कपड़ों पर प्रहार करती रहतीं और उसी के लय पर उनके मधुर स्वर में लता के दर्द भरे नगमे गूंजते रहते..मैं उस समय किताबें लिए छत पे होती. मुझे उनकी आवाज़ के कम्पन से पता चल जाता कि वे रो रही हैं और उनकी दर्द भरी आवाज़ सुन, मेरे भी आंसू झर झर किताबों पे गिरते रहते पर मैंने भाभी को कभी नहीं बताया...उनका ये एकमात्र निजी पल मैं उनसे नहीं छीनना चाहती थी. शायद इसी एक घंटे में वे अपने अंतर का सारा कल्मष निकाल देतीं और बाकी के २३ घंटे हंसती मुस्काती नज़र आतीं.

शायद इसी मूक पल ने जैसे कोई मूक रिश्ता स्थापित कर दिया था,हमारे बीच.मैं भाभी की तरफ देखती और भाभी नज़रें झुका लेतीं और जल्दी से काम में लग जातीं.उन्हें डर था जैसे मैं नज़रों से उनका दर्द पढ़ लूंगी.हमारी गोष्ठी अब इतिहास हो चुकी थी.मुझे अब उनके यहाँ जाना भी अच्छा नहीं लगता.क्यूंकि सुधा जिस तरह उनसे व्यवहार करती वो मुझसे देखा नहीं जाता.

एक दिन एक सहेली के घर जाना था.सुधा के घर उसे लेने गयी तो देखा,सुधा, भाभी के ऊपर चिल्ला रही है,"मेरा पिंक वाला कुरता कहाँ है?" जब भाभी ने कहा ,'इस्त्री के लिए गयी है" तो बिफर उठी वह ,"अब क्या पहनूं? कहा था ना आपको,नीरा के बर्थडे में जाना है.फिर क्यूँ दिया आपने इस्त्री में?"
भाभी ने चतुराई से बात संभालने की कोशिश की.आलमारी से ब्लू रंग का कुरता निकाल कर प्यार से बोलीं,"अरे ये क्यूँ नहीं पहनती? इस रंग में कितना रंग खिलता है तुम्हारा.बहुत अच्छी लगती है तुम पर."
मैंने भी हाँ में हाँ मिलाई,"हाँ सुधा,बहुत अच्छी लगती है तुम पर ये ड्रेस."
"हाँ ,अब और चारा भी क्या है?"..कहती सुधा,भाभी के हाथों से वो ड्रेस ले बदलने चली गयी.
मैंने ऐसे सर झुका लिया,जैसे मेरी ही गलती हो.भाभी ने भी भांप लिया और बात बदलते हुए,मेरी पढ़ाई के बारे में पूछने लगीं.पर जब हमारी आँखें मिलीं तो सारे बहाने ढह गए और भाभी की आँखें गीली हो आयीं,जिन्हें छुपाने वे जल्दी से कमरे से बाहर चली गयीं.

मैंने रास्ते में सुधा को समझाने की कोशिश की पर मेरी सहेली कैसी भावनाहीन हो गयी थी,देख आश्चर्य हुआ.उल्टा मुझपर बरस पड़ी,"उनको और काम ही क्या है,इतना भी ध्यान नहीं रख सकतीं"
मन हुआ उसे रास्ते से नीचे धकेल दूँ.हाँ उस बिचारी का पति नहीं रहा...अब चौबीस घंटे तुमलोगों की चाकरी और तुम्हारे नखरे उठाने के सिवा उसके पास काम ही क्या है.मैंने बोला तो कुछ नहीं पर सुधा मेरी नाराज़गी समझ गयी.हमारी दोस्ती के बीच एक दरार सी आ गयी जो समय के साथ बढती ही चली गयी.

नन्हे अब बोलने लगा था.पर बड़ी भाभी के बच्चों की तरह वो छोटी भाभी को 'छोटी माँ' कह कर ही बुलाया करता.मैंने टोका तो भाभी ने हंस कर बात टाल दी,"अरे बच्चे जो सुनते हैं वही तो बोलना सीखते हैं" पर र्मैने पाया घर में भी कोई उसे 'छोटी माँ' की जगह मम्मी कहना नहीं सिखाता.बल्कि सबको मजे लेकर यह बात बताया करते.हर आने जाने वाले को भाभी को दिखाकर,नन्हे से पूछते,'ये कौन है' और जब नन्हे अपनी तोतली जुबान में कहता,'चोटी मा' तो जैसे सबको हंसी का खज़ाना मिल जाता.नन्हे भी अपने छोटे छोटे हाथों से ताली बजा,हंसने लगता.उसे लगता उसने कोई बडा काम कर लिया.ऐसे में भाभी जिस कौशल से हंसी के पीछे अपना दर्द छुपातीं.बड़ी से बड़ी ऑस्कर अवार्ड पाने वाली अभिनेत्रियाँ भी नहीं कर पाएंगी.

नन्हे पर उसके दादा,दादी,चाचा सब जान छिड़कते थे.उसके भविष्य की पूरी चिंता थी...कहाँ पढ़ाएंगे, कैसे पढ़ाएंगे...सारी योजनायें बनाते रहते. यूँ वे छोटी भाभी से भी कोई दुर्वयवहार नहीं करते थे. सिर्फ काम मशीनों वाला लेते थे,वरना कोई अपशब्द या कटाक्ष या व्यंग नहीं करते थे.पर दुर्वयवहार ना करना,सद्व्यवहार की गिनती में तो नहीं आता.मनुष्य की जरूरतें सिर्फ,खाने कपड़े और छत की ही नहीं होती.छोटी भाभी को भी एक सामान्य जीवन जीने का हक़ था.हंसने बोलने,बाज़ार,फिल्मे जाने का समारोह,उत्सवों में भाग लेने का हक़ था...जो अब वर्जित हो गया था,उनके लिए.


फिर मेरी शादी हो गयी.पर जब भी मायके जाना होता.कहने को तो मैं सुधा के घरवालों से मिलने जाती पर मन तड़पता रहता,भाभी से मिलने को.नन्हे अब बडा हो रहा था और जैसे धीरे धीरे उसपर असलियत खुल रही थी.क्यूंकि हंसने खलने वाला महा शरारती बच्चा,अब बिलकुल शांत हो गया था.वह अपनी माँ की स्थिति समझ रहा था.उन्हें अब 'छोटी माँ' कहकर नहीं बुलाता पर जैसे माँ कहने में भी उसे हिचक होती.वह कुछ कहता ही नहीं.इन सबसे बचने के लिए उसने किताबों की शरण ले ली थी.हर बार उसके कामयाबी के नए किस्से सुना करती और दिल गर्व से भर जाता.चलो भाभी का त्याग व्यर्थ नहीं गया.नन्हे के रूप में गहरे काले बादल की ओट से सुनहरी किरणें झाँक रही थीं अब भाभी के जीवन में पूरा प्रकाश फैलने में देर नहीं थी.

सुना नन्हे ने इंजीनियरिंग में टॉप किया है.और एक बड़ी मल्टीनेशनल कम्पनी में अच्छी नौकरी मिल गयी है.भाभी को फोन पर मुबारकबाद दी तो वे ख़ुशी से रो पड़ीं.नन्हे की शादी में बड़े प्यार से बुलाया था,भाभी ने.पर अपनी घर गृहस्थी में उलझी मैं,नहीं जा सकी.

और आज जब फोन पर सुना,नन्हे इसी शहर में है तो मन ख़ुशी से झूम उठा.

भाभी जैसे मेरे इंतज़ार में ही थीं.कॉलबेल पर हाथ रखा और दरवाजा खुल गया.भाभी को देख,मैं ठगी सी रह गयी.लगा पच्चीस साल पहले वाली भाभी खड़ी हैं.चेहरे पर वही पुरानी हंसी लौट आई थी.जो होठों से चलकर आँखों तक पहुँचती थी.नन्हे की पत्नी रुचिका बहुत ही प्यारी लड़की थी.रुचिका को भाभी ने बेटी सा प्यार दिया तो रुचिका ने भी उन्हें माँ से कम नहीं समझा.'माँ' सुनने को तरसते भाभी के कान जैसे रुचिका की माँ की पुकार सुन थक नहीं रहें थे.गुडिया सी वह लड़की पूरे समय हमारी खातिरदारी में लगी रही.बिना माँ से पूछे उसका एक काम नहीं होता. भाभी भी दुलार से भरी उसकी हर पुकार पे दौड़ी चली जातीं.दोनों को यूँ घुलमिल कर सहेलियों सी बातें करते देख जैसे दिल को ठंढक पड़ गयी.मैंने आँखें मूँद धन्यवाद दिया ईश्वर को,सच है भगवान् तुम्हारे यहाँ देर हैं अंधेर नहीं.

दोनों मुझे टैक्सी तक छोड़ने आयीं.तभी रुचिका ने कुछ कहा और भाभी खिलखिला कर हंस पड़ीं.मैं मंत्रमुग्ध सी निहारती ही रह गयी.रुचिका ने ही मेरे लिए आगे बढ़ कर टैक्सी रोकी और दोनों को हाथ हिलाता देख,लग रहा था,दो सहेलियां मुझे विदा कह रही हैं.टैक्सी चलते ही मैंने सीट पर सर टिका आँखें मूँद लीं.कुछ देर आँखें बंद कर इस ख़ूबसूरत अहसास को अन्दर तक महसूस करना चाहती थी.

Tuesday, February 2, 2010

"टू इन वन".....'मेकिंग ऑफ दिस नॉवेल' एंड 'थैंक्यू नोट्स "



आजकल चलन है,फिल्म रिलीज़ होने के बाद ' Making of the Film ' दिखाए जाते हैं उसी तर्ज़ पर मैंने सोचा, Making of this novel ' भी क्यूँ ना लिख डालूं जब कई रोचक बातें जुडी हुई हैं इस नॉवेल से.
मैंने नॉवेल पोस्ट करने के पहले ही सोचा था, ये सब शेयर कर लूँ.,फिर सोचा सबलोग फिर उसी नज़र से देखेंगे.अब जब लोगों ने पढ़ लिया है और पसंद भी किया है तब बता सकती हूँ कि यह नॉवेल मैंने तब लिखा था,जब मैं सिर्फ १८ बरस की थी.और यह मेरा दूसरा लघु उपन्यास है. पहला नॉवेल लिखा ,तो जैसा अक्सर होता है, सहेलियां उसकी नायिका से मेरी तुलना करने लगीं जबकि नायिका एम्.ए. की छात्रा थी और मैं इंटर में थी उस वक़्त.दरअसल रचनाकार थोड़ा बहुत अपने हर किरदार में होता है और ऐसे ही उसके संपर्क में आनेवाले लोगों की थोड़ी थोड़ी झलक हर चरित्र में मिल जाती है.
शायद यही साबित करने की चाह होगी और मेरे सबकॉन्शस ने ये सब लिखवा लिया.क्यूंकि अभी तक सोच समझ कर नही लिखा,कभी..(आगे का नहीं जानती) उन दिनों मैं हॉस्टल से घर आई हुई थी,घर मेहमानों से भरा था...मैं कभी छत पर छुप कर लिखती,कभी सब दोपहर में सो रहें होते तो उतनी गर्मी में बरामदे में बैठकर लिखती.
इंटर से लेकर एम्.ए.तक छात्र-छात्राओं के बीच ये दोनों नॉवेल इतना घूमा कि मुझे तीन बार फेयर करनी पड़ी.कोई भी अनजान लड़की मांग कर ले जाती और करीबी सहेलियां डांट लगातीं,ऐसे कैसे दे देती हो,कहीं नहीं लौटाया तो?....पर कैसे मना करूँ और ये मेरा विश्वास किसी ने नहीं तोडा.कई मजेदार घटनाएं भी हुईं.इंग्लिश ऑनर्स पढनेवाली,'मीता त्रिपाठी' बड़े शान से पढाई का बहाना कर मेरा नॉवेल पढ़ रही थी.माँ के पूछने पर रजिस्टर बढा दिया देखो,पढ़ रही हूँ.और उसकी माँ ने पूछा,' इंग्लिश ऑनर्स' हिंदी में कब से पढ़ाई जाने लगी??और फिर वे खुद वो नॉवेल लेकर चली गयीं पढने.आंटी ने एक प्यारा सा नोट लिख कर दिया था,मुझे जो मैंने बहुत दिन तक संभाल कर रखा था.
एक बार कैंटीन में सुनीता और विभा के बीच बहस चल रही थी,पूछने पर पता चला,दोनों लड़ रही हैं कि "मैं अपनी बेटी का नाम "नेहा नवीना' रखूंगी"...नहीं मैं रखूंगी"...दोनों कजिन थीं.
उन दिनों धारावाहिक कहानियों का चलन था.पर मैंने कहीं भी भेजने कि हिम्मत नहीं की.एक तो पैरेंट्स का डर,'क्या सोचेंगे...यही सब चलता रहता है इसके दिमाग में"..दूसरा पत्रों का डर,इतने रूखे सूखे विषयों पर लिखने पर तो इतने पत्र मिलते थे.ऐसी कहानी छपने पर पता नहीं कैसे कैसे पत्र आयेंगे.
कॉलेज के बाद ये कहानियाँ.बंद ही पड़ी रहीं..कभी कभी पन्ने खुलते जब मेरी कोई कजिन मेरे पास आती.पर मेरी एक मलयाली सहेली,'राज़ी' जो अंग्रेजी पत्रिका "Society " में सह संपादक थी और जिसने बीस साल से हिंदी में कुछ नहीं पढ़ा था,उसने बड़ी मेहनत से पढ़ी.जब अजय भैया (अजय ब्रह्मात्मज) के पी.ए. ने टाइप करके भेजी तब नेट पर कई दोस्तों ने पढ़ी.और पढ़ी,मेरी ममता भाभी ने...जो बरसों पहले हमारे परिवार में शामिल हो गयी थीं ..और भाभी से ज्यादा मेरी सहेली हैं ...पर उन्हें अब तक पता ही नहीं था कि मैं कभी लिखती भी थी...उन्होंने बहुत सराहा और बढ़ावा दिया...ये ब्लॉग शुरू करने के लिए भी उन्होंने काफी प्रोत्साहित किया...और अब मेरी रचनाओं की एक सजग पाठक हैं.
और अब ब्लॉग के साथियों ने.कई लोगों ने कहा छपवा लो.पर जो संतोष ब्लॉग पर पोस्ट करके मिला.पुस्तक के रूप में नहीं मिलता.खुद ही बताओ लोगों को और फिर सकुचाते हुए पूछो कि कैसी लगी??
और हाँ,इस नॉवेल का नाम था,'दीपशिखा'...ब्लॉग पर डालते हुए बदल दिया..ये शीर्षक जरा Hep लगा(Hep की हिंदी नहीं मालूम,वैसे भी ब्लॉग पर अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग की बहुत लिबर्टी ले लेती हों,बुरा लगे किसी को तो क्षमा )...और मैंने नॉवेल में कहीं नहीं स्पष्ट किया है कि शरद और उर्मिला की शादी हो गयी.पर यहाँ सबने ऐसा ही समझा...फिर मैंने सोचा...Why Not?? निश्छल प्रेम,अटूट दोस्ती के साथ 'विधवा विवाह' का एंगल भी सही.

शुक्रिया दोस्तों :)
मेरी कहानी इतने धैर्य से पढने के लिए सबका बहुत बहुत शुक्रिया.सबसे पहले तो चंडीदत्त शुक्ल जी का शुक्रिया,जिन्होंने इस पूरे नॉवेल को यूनिकोड में परिवर्तित कर के भेज दिया.
वरना मुझे एक एक शब्द टाइप करने पड़ते.(अब दूसरी कहानियाँ तो टाइप करनी ही पड़ेंगी :( )
मैं इसे 'उपन्यासिका' कहने वाली थी पर 'हरि शर्मा' जी ने सलाह दी कि जेंडर बहस शुरू हो जाएगी बेहतर है,लघु उपन्यास कहें.
विनोद पाण्डेय जी,राज भाटिया जी,समीर जी,मनु जी,प्रवीण जी,मिथिलेश,अबयज़ जी सबलोगों का बहुत बहुत शुक्रिया...आमतौर पर पुरुष इस तरह का उपन्यास नहीं पढ़ते.पर आप सबों ने बहुत धैर्य से पढ़ा,शुक्रिया.
शिखा,अदा,वाणी,वंदना अवस्थी,वंदना गुप्ता.सारिका जी,संगीता जी,रश्मि प्रभा जी,निर्मला जी,रंजू जी,हरकीरत जी.आप सबलोग भी लगातार उत्साह बढाती रहीं...शुक्रिया.
शिखा का बच्चों कि तरह जिद करना कि 'नेहा'और शरद' को प्लीज़ अलग मत करो...और धमकी भी दे डाली कि 'वरना मैं अंत बदल कर अपने ब्लॉग पे पोस्ट कर दूंगी,(हा हा नॉट अ बैड आइडिया,शिखा)
वंदना जी हर बार मासूमियत से पूछतीं ..आखिर ऐसा क्या हुआ होगा जो दोनों अलग हो गए....प्यार भी है,परिवार वाले भी तैयार हैं....उनके इस कथन से ही 'फ्लैश बैक' का महत्त्व पता चला,पाठक की उत्कंठा बनी रहती है.
सारिका जी और वाणी हमेशा तकाज़ा करतीं कि अगली किस्त कब आएगी?...सारिका जी तो कमेन्ट भी कर जातीं..'इंतज़ार है,अगली पोस्ट का"
दीपक मशाल का मन होता था,पढ़ते जाएँ...understandable है उनकी उम्र ही है ऐसे नॉवेल पसंद करने की :)
खुशदीप जी का चिंतित होना कि अक्सर आर्मी ऑफिसर कहानी या फिल्मों में शहीद ही हो जाता है...इसे दुखांत मत बनाना.वे पढने की रौ में यह भूल ही गए कि कहानी फ्लैशबैक में चल रही है.
हरकीरत जी और मनु जी ने टाइपिंग त्रुटियों कि ओर ध्यान दिलाया...शुरू में मैंने लापरवाही बरती थी पर बाद में थोड़ी मेहनत की.
अजय झा जी ने लिंक लगाने की सलाह दी..मैंने कभी लगाया, कभी नहीं अलग बात है.
सबसे ज्यादा मुझे डर था ,'मेजर गौतम राजरिशी जी' से. पता नहीं...क्या टेक्नीकल गलतियां नज़र आ जाएँ.आखिर एक आर्मी ऑफिसर की कहानी थी.ये लिखते हुए कि 'हर स्टेशन पे युद्ध से लौटते हुए जवानो की आरती उतारी जाती,उपहार दिए जाते."..मैं असमंजस में थी,पता नहीं ऐसा होता है या नहीं..फिर सोचा नहीं होता तो होना चाहिए...और गौतम जी ने तो यह बताकर कि "शायद आपको पता नहीं हो, किंतु एक ऐसी ही घटना हो चुकी है बिल्कुल कि जब एक आफिसर की शहादत के बाद उसी युनिट के एक जुनियर ने शहीद हुये आफिसर की विधवा का हाथ थामा...." कहानी और सत्य के फर्क को मिटा ही दिया बिलकुल.
ज्ञानदत्त पांडे जी,ताऊ रामपुरिया जी,रविरतलामी जी...इनलोगों के कमेंट्स अंतिम किस्त पर ही आए...मुझे पता भी नहीं था,ये लोग पढ़ रहें हैं,इसे...
आप सबों ने मिलकर इस नॉवेल को पोस्ट करने के लम्हों को बहुत खुशनुमा बना दिया...हाँ शुक्रिया उनलोगों का भी...जिन्होंने कमेन्ट नहीं किया,पर पढ़ा...अब उन्हें पसन्द आया या नहीं...मालूम नहीं..पर पढ़ा तो सही :)