Friday, November 27, 2009

सचिन के गीले पौकेट और तीस हज़ार रन


'जीवन में खेल का महत्व' इस विषय पर हम सबने अपने स्कूली जीवन में कभी ना कभी एक लेख लिखा ही होगा.पर बड़े होने पर हम क्या इस पर अमल कर पाते हैं?अपने बच्चों को 'खेल' एक कैरियर के रूप में अपनाने की इजाज़त दे सकते हैं?हम चाह कर भी ऐसा नहीं कर पाते.कई मजबूरियाँ आड़े आ जाती हैं.हमारे देश में खेल का क्या भविष्य है और खिलाड़ियों की क्या स्थिति है, किसी से छुपी नहीं है.पर अगर आपके बच्चे की खेल में रूचि हो,स्कूल की टीम में हो, और वह अच्छा भी कर रहा हो तो माता-पिता के सामने एक बड़ी दुविधा आ खड़ी होती है.
स्कूल का नया सेशन शुरू होता है और हमारे घर में एक बहस छिड़ जाती है.क्यूंकि हर खेल की टीम का पुनर्गठन होता है.और मैं अपने बेटे को शामिल होने से मना करती हूँ. जब तक वे छोटी कक्षाओं में थे,मैं खुद प्रोत्साहित करती थी,हर तरह से सहयोग देती थी.इनका मैच देखने भी जाती थी.कई बार मैं अकेली दर्शक होती थी.दोनों स्कूलों के टीम के बच्चे,कोच,कुछ स्टाफ और मैं. छोटे छोटे रणबांकुरे,जब ग्राउंड की मिटटी माथे पे लगा,मैच खेलने मैदान में उतरते तो उनके चेहरे की चमक देख, ऐसा लगता जैसे युद्ध के लिए जा रहें हों .मैंने,मैच
के पहले कोच को 'पेप टॉक' देते सुना था और बढा चढ़ा कर नहीं कह रही पर सच में 'चक दे' के शाहरुख़ खान का 'पेप टॉक' बिलकुल फीका लगा था, उसके सामने फिल्म डाइरेक्टर के साथ में 'नेगी' थे,अच्छे इनपुट्स तो दिए ही होंगे.फिर भी मुझे नहीं जमा था.

पर जब बच्चे ऊँची कक्षाओं में आ जाते हैं,तब पढाई ज्यादा महत्वपूर्ण लगने लगती है. .क्यूंकि पढाई पर असर तो पड़ता ही है.जिन दिनों टूर्नामेंट्स चलते हैं.२ महीने तक बच्चे किताबों से करीब करीब दूर ही रहते हैं.और एक्जाम में 90% से सीधा 70 % पर आ जाते हैं.ऐसे में
बड़ी समस्या आती है.क्यूंकि भविष्य तो किताबों में ही है.(ऐसा सोचना हमारी मजबूरी है).एक लड़के को जानती हूँ.जो ज़हीर और अगरकर के साथ खेला करता था.रणजी में मुंबई की टीम में था. १२वीं भी नहीं कर पाया.आज ढाई हज़ार की नौकरी पर खट रहा है...और यह कोई आइसोलेटेड केस नहीं है.ज्यादातर खिलाड़ियों की यही दास्तान है.यह भी डर रहता है,अगर खेल में बच्चों का भविष्य नहीं बन पाया तो कल को वे माता-पिता को भी दोष दे सकते हैं कि हम तो बच्चे थे,आपको समझाना था.और कोई भी माता पिता ऐसा रिस्क लेंगे ही क्यूँ??बुरा
तो बहुत लगता है एक समय इनके मन में खेल प्रेम के बीज डालो और जब वह बीज जड़ पकड़ लेता है तो उसे उखाड़ने की कोशिश शुरू हो जाती है.इस प्रक्रिया में बच्चों के हृदयरूपी जमीन पर क्या गुजरती है,इसकी कल्पना भी बेकार है.

अगर उन्हें किसी खेल के विधिवत प्रशिक्षण देने की सोंचे भी तो मध्यम वर्ग के पर्स पर यह अच्छी खासी चपत होती है. coaching.traveling bat, football ,studs,stockings,pads .... . लिस्ट काफी लम्बी है.पता नहीं सचिन तेंदुलकर के गीले पौकेट्स की कहानी कितने लोगों को मालूम है? सचिन के पास एक ही सफ़ेद शर्ट पेंट थी.सुबह ५.३० बजे वे उसे पहन क्रिकेट प्रैक्टिस के लिए जाते.फिर साफ़ करके सूखने डाल देते और स्कूल चले जाते,स्कूल से आने के बाद फिर से ४ बजे प्रैक्टिस के लिए जाना होता.तबतक शर्ट पेंट सूख तो जाते पर पेंट की पौकेट्स गीली ही रहतीं.(मुंबई में कपड़े फैलाने की बहुत दिक्कत है,फ्लैट्स में खिड़की के बाहर थोड़ी सी जगह में ही पूरे घर के कपड़े सुखाने पड़ते हैं,यहाँ छत या घर के बाहर खुली जगह नहीं होती..उन दिनों उनके पास वाशिंग मशीन नहीं थी,और सचिन खुद अपने हाथों से कपड़े धोते थे,क्यूंकि उनकी माँ भी नौकरी करती थीं.वैसे भी सचिन अपने चाचा,चाची के यहाँ रहते थे,क्यूंकि उनका स्कूल पास था. चाचा-चाची ने उन्हें अपने बेटे से रत्ती भर कम प्यार नहीं दिया)इंटरव्यू लेने वाले ने मजाक में यह भी लिखा था, क्या पता सचिन के इतने रनों के अम्बार के पीछे ये गीले पौकेट्स ही हों,इस से एकाग्रता में ज्यादा मदद मिलती हो.

20/20 वर्ल्ड कप के स्टार रोहित शर्मा की कहानी भी कम रोचक नहीं.रोहित शर्मा मेरे बच्चों के स्कूल SVIS से ही पढ़े हुए हैं.ये पहले किसी छोटे से स्कूल में थे.एक बार समर कैम्प में SVIS के कोच की नज़र पड़ी और उनकी प्रतिभा देख,कोच ने रोहित शर्मा को SVIS ज्वाइन करने को कहा.पर उनके माता-पिता इस स्कूल की फीस अफोर्ड नहीं कर सकते थे.कोच डाइरेक्टर से मिले और उनकी विलक्षण प्रतिभा देख डाइरेक्टर ने सिर्फ पूरी फीस माफ़ ही नहीं की बलिक क्रिकेट का पूरा किट भी खरीद कर दिया,रोहित शर्मा ने भी निराश नहीं किया. 'गाइल्स शील्ड' जिस पर 104 वर्षों तक सिर्फ कुछ स्कूल्स का ही वर्चस्व था.SVISके लिए जीत कर लाया.मिस्टर लाड को कोचिंग के अनगिनत ऑफर मिलने लगे.बाद में तो एक
कमरे में रहने वाले रोहति शर्मा ने मनपसंद कार की नंबर प्लेट 4500 के लिए 95,000Rs. RTO को दिए.(एक ख्याल
आया,राज ठाकरे ,इन्हें मुम्बईकर मानते हैं या नहीं क्यूंकि रोहित शर्मा के पिता भी कुछ बरस पहले कानपुर से आये थे)

सचिन और रोहित शर्मा हर कोई तो नहीं बन सकता.पर जबतक हम बच्चों को मौका देंगे ही नहीं खेलने का,उनकी प्रतिभा का पता कैसा चलेगा?..जब कभी मैं बोलती हूँ,सचिन ढाई घंटे तक एक स्टंप से दीवार पर बॉल मारकर प्रैक्टिस करते थे.बच्चे तुरंत पलट कर बोलते हैं हमें तो दस मिनट में ही डांट पड़ने लगती है.
खेल के मैदान से बड़ी ज़िन्दगी की कोई पाठशाला नहीं है.मैंने देखा है, कैसे इन्हें ज़िन्दगी की बड़ी सीख जो मोटे मोटे ग्रन्थ नहीं दे सकते. खेल का मैदान देता है.एक मैच हारकर आते हैं,मुहँ लटकाए,उदास....पर कुछ ही देर बाद एक नए जोश से भर जाते हैं,चाहे कुछ भी हो,हमें अगला मैच तो जीतना ही है.यही ज़ज्बा मैंने खेल से इतर चीज़ों के लिए भी नोटिस किया है.


दूसरों के लिए कैसे त्याग किया जाए,और उस त्याग में ख़ुशी ढूंढी जाए,बच्चे बखूबी सीख जाते हैं.गोल के पास सामने बॉल रहती है,पर इन्हें जरा सी भी शंका होती है,अपने साथी को बॉल पास कर देते हैं,वो गोल कर देता है,उसे शाब्बाशी मिलती है,कंधे पर उठाकर घूमते हैं,अखबार में नाम आता है.और उसकी ख़ुशी में ही ये खुश हो जाते हैं.
आज टीनेजर बच्चों को टीचर तो दूर माता-पिता भी हाथ लगाने की नहीं सोच सकते.पर गोल मिस करने पर,या कैच छोड़ देने पर कोच थप्पड़ लगा देता है,और ये बच्चे चुपचाप सर झुकाए सह लेते हैं.एक बार भी विरोध नहीं करते.
समानता का पाठ भी खेल से बढ़कर कौन सीखा सकता है? अभी कुछ दिनों पहले पास के मैंदान में ही अंडर 14 का मैच था.आमने सामने थे,धीरुभाई अम्बानी स्कूल,(जिसमे शाहरुख़,सचिन,सैफ,अनिल,मुकेश अम्बानी के बच्चे पढ़ते हैं) और सेंट फ्रांसिस (जिसमे माध्यम वर्ग के घर के बच्चों के साथ साथ,ऑटो वाले और कामवालियों के बच्चे भी पढ़ते हैं...स्कूल अच्छा है,और fully aided होने की वजह से फीस बहुत कम है.)धीरुभाई स्कूल का कैप्टन था शाहरुख़ का बेटा और सेंट फ्रांसिस का कैप्टन था एक ऑटो वाले का बेटा.जिसकी माँ,मोर्निंग वाल्क करने वालों को एक छोटी से फोल्डिंग टेबल लगा,करेले,आंवले,नीम वगैरह का जूस बेचती है.हम भी, कभी कभी सुबह सुबह मुहँ कड़वा करने चले जाते हैं.उसने उस दिन लड्डू भी खिलाये,बेटे की टीम जीत गयी थी.निजी ज़िन्दगी में ये बच्चे एक साथ कभी बैठेंगे भी नहीं पर मैंदान में धक्के भी मारे होंगे,गिराया भी होगा,एक दूसरे को..
अफ़सोस होता है...यह सबकुछ जानते समझते हुए भी हम मजबूर हो जाते हैं...क्यूंकि दसवीं में जमकर पढाई नहीं की तो अच्छे कॉलेज में एडमिशन नहीं मिलेगा.और फिर किसी वाईट कॉलर जॉब हंटिंग की भेड़ चाल में शामिल कैसे हो पायेंगे ,ये नन्हे खिलाड़ी.

Saturday, November 21, 2009

जब आसमान कुछ ज्यादा करीब लगता था !!

पिछली पोस्ट में की पत्रिकाओं,आलेखों और पत्रों के जिक्र ने जैसे मुझे यादों की वादियों में धकेल दिया और अभी तक मैं उनमे ही भटक रही हूँ.कई लोगों ने मेरे छपे आलेखों के बारे में भी पूछा,सोचा आपलोगों को भी उन वादियों की थोड़ी सैर करा दूँ.

दसवीं उत्तीर्ण कर कॉलेज में कदम रखा ही था.स्कूल हॉस्टल के जेलनुमा माहौल के बाद,कॉलेज में आसमान कुछ ज्यादा करीब लगता,धूप सहलाती हुई सी और हवा गुनगुनाती हुई सी लगती. मौलिश्री के पेड़ के नीचे बैठ गप्पें मारना,किताबें पढना,कमेंट्री सुनना हम सहेलियों का प्रिय शगल था.उसी दौरान एक पत्रिका 'क्रिकेट सम्राट' के सम्पादकीय पर नज़र पड़ी.पूरे सम्पादकीय में अलग अलग तरह से सिर्फ यही लिखा था कि 'लड़कियों को खेल के बारे में कुछ नहीं मालूम, उन्हें सिर्फ खिलाड़ियों से मतलब होता है'.मुझे बहुत गुस्सा आया क्यूंकि मुझे खेल में बहुत रूचि थी.क्रिकेट,हॉकी,टेनिस कभी खेलने का मौका तो नहीं मिलता पर इन खेलों के बारे में छपी ख़बरों पर मेरी पूरी नज़र रहती.मुझे सब चलती फिरती 'रेकॉर्ड बुक' ही कहा करते थे.यूँ छोटे भाइयों को क्रिकेट खेलते देख,मन तो मेरा भी होता खेलने को.पर मैं बड़ी थी. छोटी बहन होती तो शायद जिद भी कर लेती,"भैया मुझे भी खिलाओ" पर मैं बड़ी बहन की गरिमा ओढ़े कुछ नहीं कहती.एक बार मेरे भाई की शाम में कोई मैच थी और उसे बॉलिंग की प्रैक्टिस करनी थी.उसने मुझसे बैटिंग करने का अनुरोध किया.मैंने अहसान जताते हुए,बल्ला थामा .भाई ने बॉल फेंकी,मैंने बल्ला घुमाया और बॉल बगल वाले घर को पार करती हुई जाने कहाँ गुम हो गयी.भाई बहुत नाराज़ हुआ,मुझे भी बुरा लगा,ये लोग कंट्रीब्यूट करके बॉल खरीदते थे. ममी पैसे देने को तैयार थीं पर भाई ने जिद की कि बॉल मैंने गुम की है,मुझे अपनी गुल्लक से पैसे निकाल कर देने पड़ेंगे.शायद बॉल गुम हो जाने से ज्यादा खुन्नस उसे अपनी बॉल पर सिक्सर लग जाने का था. वो मेरी ज़िन्दगी का पहला और आखिरी शॉट था.

अखबार भी मैं हमेशा पीछे से पढना शुरू करती थी.क्यूंकि अंतिम पेज पर ही खेल की ख़बरें छपती थीं.इस चक्कर में एक बार अपने चाचा जी से डांट भी पड़ गयी.उन्होंने किसी खबर के बारे में पूछा और मेरे ये कहने पर कि अभी नहीं पढ़ा है. डांटने लगे,"लास्ट पेज पढ़ रही हो और अभी तक पढ़ा ही नहीं है." इस पर जब मैंने 'क्रिकेट सम्राट' में लड़कियों पर ये आरोप देखा तो मेरा खून जलना स्वाभाविक ही था.मैंने एक कड़ा विरोध पत्र लिखा और उसमे संपादक की भी खूब खिल्ली उडाई क्यूंकि हमेशा अंतिम पेज पर किसी खिलाडी के साथ, उनकी खुद की तस्वीर छपती थी.सहेलियों ने जब कहा ,'वो नहीं छापेगा' तो मैंने दो और पत्र,एक नम्र स्वर में और एक मजाकिया लहजे में लिखा और 'रेशु' और अपने निक नेम 'रीना' के नाम से भेज दिया.सारी 'डे स्कॉलर' सहेलियों को नए अंक चेक करते रहने के लिए कह रखा था.हमारी केमिस्ट्री की क्लास चल रही थी और शर्मीला कुछ देर से आई. उसने 'में आई कम इन' जरा जोर से कहा तो हम सब दरवाजे की तरफ देखने लगे.शर्मीला ने मुझे 'क्रिकेट सम्राट' का नया अंक दिखाया और इशारे से बताया 'छप गयी है'.अब मैं कैसे देखूं?..मैं सबसे आगे बैठी थी और शर्मीला सबसे पीछे और 45 मिनट का पीरियड अभी बाकी था.नीचे नीचे ही पास होती पत्रिका मुझ तक पहुंची.देखा,एक अलग पेज पर मेरे तीनो पत्र छपे हैं,और एक कोने में संपादक की क्षमा याचना भी छपी है.फिर तो नीचे नीचे ही पूरा क्लास वो पेज पढता रहा और मैडम chemical equations सिखाती रहीं.

छुट्टियों में घर जा रही थी.ट्रेन में सामने बैठे एक लड़के को 'क्रिकेट सम्राट' पढ़ते हुए देखा. जैसे ही उसने पढ़ कर रखी,मैंने अपने हाथ की मैगज़ीन उसे थमा,उसकी पत्रिका ले ली.(आज भी मुझे किताबें या पत्रिका मांगने में कोई संकोच नहीं होता.फ्रेंड्स के घर में कोई किताब देख निस्संकोच कह देती हूँ,पढ़ कर मुझे देना,इतना ही नहीं,रौब भी जमाती हूँ,इतना स्लो क्यूँ पढ़ती हो, जल्दी खत्म करो).मिडल पेज पर देखा संपादक ने बाकायदा एक परिचर्चा आयोजित कर रखी थी."क्या लड़कियों का क्रिकेट से कोई वास्ता है" पक्ष और विपक्ष के कई लोगों ने मेरे लिखे पत्र का उल्लेख किया था.अब मैं किसे बताऊँ?पापा,बगल में बैठे एक अंकल से बात करने में मशगूल थे, बीच में टोकना अच्छा नहीं लगा.यूँ भी पापा ने ज्यादा ख़ुशी नहीं दिखाई थी. गंभीर स्वर में बस इतना कहा था 'ये सब ठीक है,पर अपनी पढाई पर ध्यान दो"उन्हें डर था कहीं मैं साइंस छोड़कर हिंदी ना पढने लगूँ.मैंने चुपचाप उसे पत्रिका वापस कर दी,ये भी नहीं बताया की इसमें जिस ;रश्मि' की चर्चा है,वो मैं ही हूँ.जान पहचान वाले लड़कों से ही हमलोग ज्यादा बांते नहीं करते थे,अनजान लड़के से तो नामुमकिन था.ये बात, मुंबई की मेरी सहेलियां बिलकुल नहीं समझ पातीं.

वह पत्रिका फिर मुझे नहीं मिली पर इससे मेरे आत्मविश्वास को बड़ा बल मिला.मेरा लिखा, छपता ही नहीं लोग पढ़ते भी हैं और याद भी रखते हैं.फिर तो मैं काफी लिखने लगी.खासकर 'धर्मयुग','साप्ताहिक हिन्दुस्तान' के युवा जगत में मेरी रचनाएं अक्सर छपती थीं.जब पहली बार 100 रुपये का चेक आया तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ.छप जाना ही एक रिवार्ड सा लगता,इसके पैसे भी मिलेंगे, ये तो सोचा ही नहीं था.पर मुझे ख़ास ख़ुशी नहीं होती.चेक तो बैंक में जमा हो जाते.कैश होता तो कोई बात भी थी.
लोगों के पत्र आने भी शुरू हो गए.एक बार जयपुर से एक पोस्टकार्ड मिला.लिखा था,"मैं 45 वर्षीय पुरुष हूँ,मेरे दो पुत्र और तीन पुत्रियाँ हैं,आपका साप्ताहिक हिदुस्तान में छपा लेख पढ़ा,अच्छा लगा,वगैरह वगैरह.हमलोग सिर्फ 'धर्मयुग', 'सारिका' और 'इंडिया टूडे' लेते थे.अबतक तो वह अंक bookstall पर भी नहीं मिलता.मैंने छत पर से, एक बार दो घर छोड़कर एक लड़के को 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' पढ़ते देखा था.(कॉलेज में मेरी सहेलियां कहा करती थीं,'रश्मि को किताबों की खुशबू आती है...किसी ने कितनी भी छुपा कर कोई किताब रखी हो,मेरी नज़र पड़ ही जाती.)वे लोग नए आये थे,हमारी जान पहचान भी नहीं थी.मैंने नौकर को कई बार रिहर्सल कराया कि कैसे क्या कहना है.और उनके यहाँ भेजा .आज तक नहीं पता उसने क्या कहा,पर उस लड़के ने 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान के 3 , 4 अंक भेज दिए.कई दिन तक सब मुझे चिढाते रहें,'और तुम्हारा 45 वर्षीय मित्र कैसा है?"

पूरे भारत से ही पत्र आते थे पर अल्मोड़ा, इंदौर और नागपुर के पत्र कुछ ख़ास लगते क्यूंकि मेरी प्रिय लेखिका,शिवानी,मालती जोशी और सूर्यबाला के शहर से होते. .जबाब तो मैं खैर उन पत्रों का भी नहीं देती.सुदूर नाइजीरिया से जब किसी ने लिखा था,'पापी पेट के वास्ते यहाँ पड़ा हूँ'तो उसपर बड़ी दया आई थी. इनमे से कुछ पत्र जेनुइन भी होते.एक बार 'धर्मयुग' में मेरा एक संस्मरण छपा था.मैंने लिखा था,'घर में बहुत मेहमान होने की वजह से मैं एक छोटे से कमरे में सो रही थी जो पुरानी किताबों,अखबारों से भरा हुआ था.एक टेबल फैन लगाया था.आधी रात को अचानक नींद
खुली तो देखा टेबल फैन के पीछे से छोटी छोटी आग की लपटें उठ रही थीं.भगवान ने वक़्त पर नींद खोल दी वरना कमरे में आग लग जाती " इस पर चंडीगढ़ से एक लड़के ने अपने पत्र में बाकायदा उस कमरे का स्केच बनाया था और लिखा था कि कमरा छोटा होने की वजह से प्रॉपर वेंटिलेशन नहीं होगा.और आग की लपटों के साथ धुआं भी निकला होगा.जिससे आपका गला चोक हो गया होगा और नींद खुल गयी.इसमें भगवान का कोई चमत्कार नहीं है.'धर्मयुग' वालों ने भी यह नहीं सोचा था.पर इन फैनमेल्स ने मेर अहित भी कम नहीं किया. पता नहीं मेरी कहानियाँ छपती या नहीं.पर मैंने डर के मारे कभी भेजी ही नहीं.सोचा,इतने रूखे-सूखे सब्जेक्ट पर लिखती हूँ तब तो इतने पत्र आते हैं.पता नहीं कहानी छपने पर लोग क्या सोचें और क्या लिख डालें.

हमलोग गिरिडीह में थे,वहां जन्माष्टमी में हर घर में बड़ी सुन्दर झांकी सजाई जाती.मेरे पड़ोस में छोटे छोटे बच्चों ने एक शहर का दृश्य बनाया था.सड़कों का जाल सा बिछाया था.पर हर सडक पर छोटे छोटे खिलौनों की सहायता से कहीं जीप और ट्रक का एक्सीडेंट,कहीं पलटी हुई बस तो कहीं गोला बारी का दृश्य भी दर्शाया था.यह सब देख मैंने एक लेख लिखा,'बच्चों में बढती हिंसा प्रवृति' और मनोरमा में भेज दिया.काफी दिनों बाद एक आंटी घर आई थीं,जन्माष्टमी की चर्चा चलने पर मैं उन्हें ये सब बताने लगी.उन्होंने कहा, 'अरे ऐसा ही एक लेख मैंने मनोरमा में पढ़ा है'और मैं ख़ुशी से चीख पड़ी, 'अरे वो छप भी गया'.आस पास सब मुझे 'रीना' नाम से जानते थे.'रश्मि' नाम किसी को पता ही नही था.

दहेज़ मेरा प्रिय विषय था.और कहीं भी मौका मिले मैं उसपर जरूर लिखती थी.एक बार शायद 'रविवार' में एक लेख लिखा था.'लडकियां आखिर किस चीज़ में कम हैं कि उसकी कीमत चुकाएं'. लेख का स्वर भी बहुत रोष भरा था.पापा व्यस्त रहते थे,उन्हें पत्रिका पढने की फुर्सत कम ही मिलती थी.हाँ अखबार का वे एक एक अक्षर पढ़ जाते थे (आज भी).एक बार वे बीमार थे और समय काटने के लिए सारी पत्रिकाएं पढ़ रहें थे.उनकी नज़र इस लेख पर पड़ी और उन्होंने ममी को आवाज़ दी, 'देखो तो जरा, आजकल लड़कियां क्या क्या लिखती हैं' ममी ने बताया ,'ये तो रीना ने लिखा है' मैं जल्दी से छत पर भाग गयी,कहीं बुला कर जबाब तलब ना शुरू कर दें.पर पापा ने कोई जिक्र नहीं किया.एक बार उन्होंने मेरा लेखन acknowledge किया था जब किसी स्थानीय पत्रकार ने उन्हें धमकी दी थी कि लोकल अखबार में उनके खिलाफ लिखेगा. उन्होंने जबाब में कहा था ,'मुझे क्या धमकी दोगे,मेरी बेटी नेशनल मैगजींस में लिखती है' ये बात भी पापा ने नहीं ,प्यून ने बतायी थी.

फिर धीरे धीरे एक एक कर धर्मयुग,साप्ताहिक हिन्दुस्तान,सारिका सब बंद होने लगे.मैं भी घर गृहस्थी में उलझ गयी.मुंबई में यूँ भी हिंदी अखबार ,पत्रिकाएं बड़ी मुश्किल से मिलते हैं. हिंदी से रिश्ता ख़तम सा हो गया था.अब ब्लॉग जगत की वजह से वर्षों बाद हिंदी पढने ,लिखने का अवसर मिल रहा है.AND I AM LOVING IT

Sunday, November 15, 2009

खाली नहीं रहा कभी, यादों का ये मकान

चुनाव के दौरान हुए अनुभवों वाली पोस्ट के बाद ही यह पोस्ट लिखने वाली थी पर कुछ समसामयिक विषय सामने आ गए और लिखना टलता गया.मेरे पिताजी, अगर अपने कार्यकाल के दौरान हुए अपने अनुभवों को लिखें तो शायद एक ग्रन्थ तैयार हो जाए.किस्से तो मैंने भी कई सुने कि कैसे दंगों के दौरान पापा ने एक अलग सम्प्रदाय के लोगों को दो दिन तक घर में पनाह दी थी.वे लोग दो दिन तक पलंग के नीचे छुपे रहें.पलंग पर जमीन छूती चादर बिछी रहती.घर में आने जाने वाले लोगों को पता भी नहीं चलता कि कोई छुपा हुआ है.पापा घर में ताला बंद कर ऑफिस जाते.उनमे से एक को सिगरेट पीने कि आदत थी,उन्होंने रिस्क लेकर एक सिगरेट सुलगाई और बंद खिड़की की दरार से निकलती धुँए की लकीर देख, दंगाइयों ने पूरा घर घेर लिया था.शक तो उन्हें पहले से था ही.संयोग से पुलिस ने वक़्त पर आकर स्थिति संभाल ली.ऐसे ही एक बार दंगे में पापा की पूरी शर्ट खून से रंग लाल हो गयी थी.भीड़ में से किसी ने घर पर खबर कर दी और घर पर रोना,धोना मच गया.बाद में पापा की खैरियत देख सबको तसल्ली हुई.

हॉस्टल में रहने के कारण ,मैंने किस्से ही ज्यादा सुने पर एकाध बार मुझे भी ऐसी स्थितियों का सामना करना पड़ा.इस बार पापा की पोस्टिंग एक नक्सल बहुल क्षेत्र में थी.मेरे कॉलेज की छुट्टियाँ कुछ जल्दी हो गयी थीं,लिहाज़ा दोनों छोटे भाइयों के घर आने से पहले ही मैं घर आ गयी थी.फिर भी मैं बहुत खुश थी क्यूंकि इस बार,छुट्टियाँ बिताने,मेरे मामा की लड़की 'बबली' भी आई हुई थी. वी.सी.आर.पर कौन कौन सी फिल्मे देखनी हैं,किचेन में क्या क्या एक्सपेरिमेंट करने हैं...हमने सब प्लान कर लिया था.उसपर से हमारा मनोरंजन करने को एक नया नौकर ,जोगिन्दर भी था.जो फिल्मो और रामायण सीरियल का बहुत शौकीन था.जब भी हम बोर होते,कहते,"जोगिन्दर एक डायलॉग सुना." और वह पूरे रामलीला वाले स्टाईल में कहता--"और तब हनुमान ने रावण से कहा..."या फिर शोले के डायलॉग सुनाता.हम हंसते हंसते लोट पोट हो जाते पर वह अपने डायलॉग पूरा करके ही दम लेता.

दिन आशानुकूल बीत रहें थे,बस कभी कभी शाम को घर में कुछ बहस हो जाती.पास के शाहर के एक अधिकारी का मर्डर हो गया था.और पापा को उनका कार्यभार भी संभालने का निर्देश दिया गया था.घर वाले और सारे शुभेच्छु पापा को मना कर रहें थे पर पापा का कहना था, "ऐसे डर कर कैसे काम चलेगा.मुझे यहाँ के काम से फुरसत नहीं मिल रही वरना वहां का चार्ज तो लेना ही है."

एक दिन शाम को हमलोग 'चांदनी' फिल्म देख कर उठे.बबली किचेन में जोगिन्दर को 'स्पेशल चाय' बनाना सिखाने चली गयी.ममी भगवान को दीपक दिखा रही थीं.प्यून उस दिन की डाक दे गया था ,मैं वही देख रही थी (कभी हमारे भी ऐसे ठाठ थे). उन दिनों मेरी डाक ही ज्यादा आया करती थी.मैंने पत्र पत्रिकाओं में लिखना शुरू कर दिया था.'धर्मयुग','साप्ताहिक हिन्दुस्तान",'मनोरमा' 'रविवार' वगैरह में मेरी रचनाएं छपने लगी थी.लिहाजा ढेर सारे ख़त आते थे.मेरे ५ साल के लेखन काल में करीब ७५० ख़त मुझे मिले ,जबकि मैं नियमित नहीं लिखा करती थी.कभी कभी तो इन पत्रों से ही पता चलता कि मेरी कोई रचना छपी है.फिर पड़ोसियों के यहाँ ,पेपर वाले के यहाँ पत्रिका ढूंढनी शुरू होती.हालांकि ये इल्हाम मुझे था कि ये पत्र मेरे अच्छे लेखन की वजह से नहीं आ रहें.उन दिनों इंटरनेट की सुविधा तो थी नहीं.इसलिए लड़कियों से interact करने का सिर्फ एक तरीका था.किसी पत्रिका में तस्वीर और पता देख, ख़त लिख डालो.सारे पत्र शालीन हुआ करते थे,पर कुछ ख़त बड़े मजेदार होते थे.दो तीन ख़त तो सुदूर नाईजीरिया से भी आये थे..मैं किसी पत्र का जबाब नहीं देती थी पर हम सब मजे लेकर सारे ख़त पढ़ते थे.थोडा अपराधबोध भी रहता था क्यूंकि ममी पापा को लगता था मेरी पढाई पर असर पड़ेगा इसलिए वे मेरी लेखन को ज्यादा बढावा नहीं देते थे.

उन पत्रों में से एक पत्र था तो पापा के नाम पर मुझे लिखावट मेरे दादाजी की लगी,लिहाज़ा मैंने पत्र खोल लिया.पढ़कर तो मेरी चीख निकल गयी.ममी, बबली,जोगिन्दर सब भागते हुए आ गए.उस पूरे पत्र में पापा को अलग अलग तरह से धमकी दी गयी थी कि अगर उन्होंने 'अमुक' जगह का चार्ज लिया तो सर कलम कर दिया जायेगा..एक मर्डर वहां हो भी चुका था.हमारे तो प्राण कंठ में आ गए.पापा मीटिंग के लिए पटना गए हुए थे.जल्दी से जोगिन्दर को भेज 'प्यून' को बुलवाया गया.शायद वह कुछ बता सके.वो प्यून यूँ तो इतना तेज़ दिमाग था कि हमारे साथ यू.एस.ओपन देख देख कर लॉन टेनिस के सारे नियम जान गया था. बिलकुल सही जगह पर 'ओह' और 'वाह' कहता.पर अभी उस मूढ़मति ने बिना स्थिति की गंभीरता समझे कह डाला,"साहब तो कह रहें थे कि मीटिंग जल्दी ख़तम हो गयी तो वहां का चार्ज ले कर ही लौटेंगे." हम सबकी तो जैसे सांस रुक गयी. पर पापा का इंतज़ार करने के सिवा कोई और चारा नहीं था.सो चिंता से भरे हम सब सड़क पर टकटकी लगाए,बरामदे में ही बैठ गए.तभी जैसे सीन को कम्लीट करते हुए बारिश शुरू हो गयी.बारिश हमेशा से मुझे बहुत पसंद है पर आज तो लगा जैसे पट पट पड़ती बारिश कि बूँदें हमारी हालत देख ताली बजा रही हैं.बिजली की चमक भी मुहँ चिढाती हुई सी प्रतीत हुई. बारिश शुरू होते ही बिजली विभाग द्वारा बिजली काट दी जाती थी ताकि कहीं कोई तार टूटने से कोई दुर्घटना ना हो जाए.बिलकुल किसी हॉरर फिल्म से लिया गया दृश्य लग रहा था.....कमरे में हवा के थपेडों से लड़ता धीमा धीमा जलता लैंप,अँधेरे में बैठे डरे सहमे लोग और बाहर होती घनघोर बारिश.तभी दूर से एक तेज़ रौशनी दिखाई दी.पास आने पर देखा कोई ५ सेल की टॉर्च लिए सायकल पे सवार हमारे घर की तरफ ही आ रहा है.हमारी जान सूख गयी.पर जब वह हमारा गेट पारकर चला गया तो हमारी रुकी सांस लौटी.

दूर से पापा की जीप की हेडलाईट दिखी और हमने राहत की सांस ली.ममी ने कहा,"तुंरत कुछ मत कहना, हाथ पैर धोकर. खाना खा लें,तब बताएँगे" पर पापा ने जीप से उतरते ही ड्राइवर को हिदायत दी,"कल सुबह जरा जल्दी आना.पहले मैं वहां का चार्ज लेकर आऊंगा तभी अपने ऑफिस का काम शुरू करूँगा."ममी जैसे चिल्ला ही पड़ीं,"नहीं, वहां बिलकुल नहीं जाना है" फिर पापा को पत्र दिया गया.सबसे पहले हम लड़कियों पर नज़र पड़ी.इन्हें यहाँ से हटाना होगा.पटना में मेरे छोटे मामा का घर खाली पड़ा था.मामा छः महीने के लिए बाहर गए हुए थे और मामी अपने मायके में थीं.हमें आदेश मिला,"अपना अपना सामान संभाल लो,सुबह ड्राइवर मामा के घर छोड़ आएगा"
खाना वाना खाते, बातचीत करते रात के बारह बज गए,तब जाकर मैंने और बबली ने अपनी चीज़ें इकट्ठी करनी शुरू कीं.बिस्तर पर दोनों अटैचियाँ खोले हम अपना अपना सामान जमा रहें थे कि हमारी नज़र नेलपौलिश पर पड़ी.हमने तय किया नेलपौलिश लगाते हैं.रात के दो बज रहें थे तब.ममी हमारी खुसपुस सुन कमरे में हमें देखने आयीं.(ये ममी लोगों की एंट्री हमेशा गलत वक़्त पर ही क्यूँ होती है??) हमें नेलपौलिश लगाते देख जम कर डांट पड़ी.और हम बेचारे अपनी अपनी दसों उंगलियाँ फैलाए डांट सुनते रहें.क्यूंकि झट से किसी काम में उलझने का बहाना भी नहीं कर सकते थे.नेलपौलिश खराब हो जाती.

सुबह सुबह मैं और बबली,पटना के लिए रवाना हो गए.पता नहीं,स्थिति की गंभीरता हम पर तारी थी या अकेले सफ़र करने का हमारा ये पहला अनुभव था.ढाई घंटे के सफ़र में हम दोनों, ना तो एक शब्द बोले,ना ही हँसे.जबकि आज भी हम फ़ोन पर बात करते हैं तो दोनों के घरवालों को पूछने की जरूरत नहीं होती कि दूसरी तरफ कौन है?,ना तो हमारी हंसी ख़तम होती है,ना बातें.
ड्राईवर हमें घर के बाहर छोड़ कर ही चला गया,दोपहर तक ममी को भी आना था.पड़ोस से चाभी लेकर जब हमने घर खोला,तो हमारे आंसू आ गए.घर इतना गन्दा था कि हम अपनी अटैची भी कहाँ रखें,समझ नहीं पा रहें थे.मामी के मायके जाने के बाद कुछ दिनों तक मामा अकेले थे और लगता था अपनी चंद दिनों की आज़ादी को उन्होंने भरपूर जिया था.सारी चीज़ें बिखरी पड़ी थीं.बिस्तर पर आधी खुली मसहरी,टेबल पर पड़े सिगरेट के टुकड़े,किचेन प्लेटफार्म पर टूटे हुए अंडे,जाने कब से अपने उठाये जाने की बाट जोह रहें थे.'जीवाश्म' क्या होता है,पहली बार प्रैक्टिकली जाना.डब्बे में एक रोटी पड़ी थी.जैसे ही फेंकने को उठाया,पाया वह राख हो चुकी थी.

मैंने और बबली ने एक दूसरे को देखा और आँखों आँखों में ही समझ गए,सारी सफाई हमें ही करनी पड़ेगी.कपड़े बदल हम सफाई में जुट गए.बस बीच बीच में एक 'लाफ्टर ब्रेक' ले लेते.कभी बबली मुझे धूल धूसरित,सर पर कपडा बांधे, लम्बा सा झाडू लिए जाले साफ़ करते देख,हंसी से लोट पोट हो जाती तो कभी मैं उसे पसीने से लथपथ,टोकरी में ढेर सारा बर्तन जमा कर , मांजते देख हंस पड़ती.कभी हम,डांट सुनते हुए लगाई गयी अपनी लैक्मे की नेलपौलिश की दुर्गति देख समझ नहीं पाते,हँसे या रोएँ.
दो तीन घंटे में हमने घर को शीशे सा चमका दिया और नहा धोकर ममी की राह देखने लगे.अब हमें जबरदस्त भूख लग आई थी.किचेन में डब्बे टटोलने शुरू किये तो एक फ्रूट जूस का टिन मिला. टिनक़टर तो था नहीं,किसी तरह कील और हथौडी के सहारे उसे खोलने की कोशिश में लगे.मेरा हाथ भी कट गया पर डब्बा खोलने में कामयाबी मिल गयी.बबली ताजे धुले कांच के ग्लास ले आई.हमने इश्टाईल से चीयर्स कहा और एक एक घूँट लिया.फिर एक दूसरे की तरफ देखा और वॉश बेसिन की तरफ भागे.जूस खराब हो चुका था.वापस किचेन में एक एक डब्बे खोल कर देखने शुरू किये.एक डब्बे में मिल्क पाउडर मिला.डरते डरते एक चुटकी जुबान पर रखा,पर नहीं मिल्क पाउडर खराब नहीं हुआ था.फिर तो हम चम्मच भर भर कर मिल्क पाउडर खाते रहें,और बातों का खजाना तो हमारे पास था ही.सो वक़्त कटता रहा..
वहां का काम समेटते ममी को आने में शाम हो गयी.हमने उन्हें घर के अन्दर नहीं आने दिया.फरमाईश की,पहले हमारे लिए,समोसे,रसगुल्ले,कचौरियां लेकर आओ,फिर एंट्री मिलेगी.

Saturday, November 7, 2009

कौन जगायेगा अलख???

पिछले दिनों मेरी कामवाली बाई ने जल्दी जाने की छुट्टी मांगी क्यूंकि उसे बैंक जाना था,मैंने यूँ ही हंस कर पूछ लिया... और पैसे जमा करने है?कहने लगी,..ना..पैसे निकाल कर घर भेजने हैं, दस हज़ार का इन्तजाम और करना है...मैं आश्चर्य में डूब गयी...अभी कुछ ही दिन पहले उसने सात हज़ार रुपये मुझसे गिनवा कर बैंक में जमा किये थे,मुझसे अपना पास बुक भी चेक करवाया था.उसके खाते में पहले से पांच हज़ार की रकम देखकर मुझे बहुत ख़ुशी हुई थी...चलो दिन रात मेहनत करती है...कुछ पैसे तो जमा कर रखे हैं और आज वो सारे पैसे घर भेज रही थी ऊपर से क़र्ज़ लेने को भी तैयार....पता चला उसकी दादी गुजर गयीं हैं और उनके श्राद्ध के लिए पैसे चाहिए...इसके पिता की मृत्यु हो चुकी थी ..और कोई भाई भी नहीं इसलिए माँ को पैसे भेजने की जिम्मेवारी उसकी है.

मुझे श्राद्ध के धार्मिक कृत्यों के बारे में ज्यादा मालूम नहीं. लोगों को भोज खिलाने..दान पुण्य करने से सचमुच उनकी आत्मा को शांति मिलती है या नहीं,पता नहीं. पर इतना जरूर पता है कि धरती पर बचे लोगों की ज़िन्दगी में कई बार घोर अशांति आ जाती है...इन पैसों से वो मेरी बाई कितना कुछ कर सकती थी और कितना कुछ करने का सपना उसने देखा होगा. मैंने उसे कितना समझाया.....माँ को ही अगर ये पैसे देने हैं तो वह इन पैसों से...अपने घर की मरम्मत करवा सकती है,एक गाय खरीद सकती है लेकिन वो मुझे उल्टा समझाने लगी...आपको नहीं मालूम,अगर पूरे गाँव को भोज नहीं खिलाया तो गाँव वाले हमें जात बाहर कर देंगे,हमारा हुक्का पानी बंद कर देंगे...हमारे घर का पानी कोई नहीं पिएगा,हमें किसी शादी ब्याह,जन्मोत्सव में नहीं बुलाएँगे. एक बार तो मैंने खिन्न मन से ये भी कह दिया,क्या फर्क पड़ता है,बस पांच पंडित को खिला दो और माँ को यहीं बुला लो.लेकिन मुझे पता था मेरे लिए कहना आसान है.पर अपनी जड़ों से कटकर कौन रह पाया है? ये लोग इतने कष्ट में यहाँ रहते हैं पर कभी बताना नहीं भूलते, घर में हमारा अपना मकान है,खेती बाड़ी है,..यह बताते हुए इनकी आँखों में जो चमक आ जाती है.उस से कैसे महरूम किया जा सकता है...शायद एक एक पैसे जोड़ते हुए इनकी ज़िन्दगी चली जाए पर मन में ये सपना जरूर पलता रहता है कि बहुत सारे पैसे जमा कर लेंगे फिर गाँव जाकर आराम की ज़िन्दगी बसर करेंगे,इसी सपने के सहारे ये इस महानगर की कड़वी हकीकत रोज झेलते हैं.

लेकिन इन आडम्बरों में अगर ये अपनी पसीने की कमाई ऐसे बहाते रहेंगे तो कैसे जोड़ पायेंगे पैसे?बचपन में गाँव जाना होता था,तो ऐसी बाते सुनने को मिलती थीं. इतने दिनों बाद भी, कहीं कुछ नहीं बदला,वही जन्म जन्मान्तर का क़र्ज़ जिसे दादा लेता है और पोते,परपोते चुकाते रहते हैं...ब्याज चुकाते ही सारी ज़िन्दगी चली जाती है,मूल तो वैसे ही अनछुआ पड़ा रहता है.फिल्मो में कुछ ज्यादा बढा चढा कर दिखाते हैं पर स्थिति सचमुच ज्यादा अलग नहीं..पर इस स्थिति को बदलने का बीडा कौन उठाएगा?ज्यादातर पढ़े लिखे लोग नौकरी की तलाश में शहर का रुख कर लेते हैं और जो एकाध शिक्षित घर होते हैं वे इन गरीबों को क़र्ज़ देने का काम करते हैं.वे तो उन्हें इस से दूर रहने की सलाह देंगे नहीं.कौन इसके विरूद्व अलख जगायेगा,ये सचमुच चिंता का विषय है.
बरसों पहले गोदान पढ़ी थी और उसके बरसों पहले वह लिखी गयी थी पर आज भी हर गाँव में ना जाने कितने 'होरी' और कितने 'गोबर' ज़िन्दगी की उसी पुरानी जद्दोजहद
से जूझ रहें हैं.

बाई यह भी बता रही थी कि बहुत सारी चीज़ें दान करनी पड़ेंगी. कहीं सुनी एक कहावत याद आ गयी."जिंदे को ना पूछे बात...मरे को दूध और भात' चाहे फटे चिथडों में ज़िन्दगी गुजरी हो,,टूटी चारपाई भी नसीब ना हो.पर मरने के बाद,नए कपड़े,चारपाई,गद्दे सब दान किये जाते हैं .कुछ बदले हुए रूप में ही सही पर ऐसा संपन्न घरों में भी खूब होता है.बचपन की ही एक घटना है,मेरे पड़ोस में एक वृधा रहती थीं.घर वाले उनके साथ दुर्व्यवहार नहीं करते थे,खाने पीने,डॉक्टर दवा.सबका ख्याल रखते थे.पर इसके परे भी उन बूढे मन की भी कुछ ख्वाहिशें होती हैं,इससे निरपेक्ष थे. दादी की चप्पल टूट गयी थी,जिसे मोची से मरम्मत करवा दी गयी थी.उसने एक भद्दा सा कला रबर का टुकडा लगा दिया था.दादी को अपने भाई के पोते की शादी में जाना था.कई बार उन्होंने बेटे बहू से कहा,मुझे एक नयी चप्पल ला दो.पर किसी ने ध्यान नहीं दिया.अक्सर दादी कोने में पड़ी चारपाई पर लेटी रहतीं,हम बच्चे आस पास खेलते रहते थे,ना जाने दादी को कितनी बार खुद से कहते सुना,'लोग हसेंगे कि बेटा माँ का ख्याल नहीं रखता' यहाँ भी उन्हें अपने बेटे की इज्जत की ज्यादा फिकर थी..आखिर उन्हें एक दिन मय साजो समान के शादी में जाते देखा..पैरों में वही टूटी चप्पल थी.काफी दिनों बाद वे बीमार पड़ीं.मैं भी माँ के साथ,उन्हें देखने हॉस्पिटल गयी,देखा बेड के नीचे वही टूटी चप्पल रखी है.दादी गुजर गयीं,बड़ी धूमधाम से उनका श्राद्ध हुआ.पूरा खानदान जुटा,सारे शहर को न्योता था और दान में पलंग,बर्तन,कपडों के साथ थी,एक चमचमाती हुई नयी चप्पल...
किसी शायर की ये पंक्तियाँ याद आती हैं. "सारा शहर उसके जनाजे में था शरीक
तन्हाइयों के खौफ से, जो शख्स मर गया"

एक तरफ तो ये गरीब, अपनी सारी जमापूंजी खर्च करके,यहाँ तक कि क़र्ज़ लेकर भी सारे कर्मकांड निभाते हैं और दूसरी तरफ ये भी देखा कि लाखो कमाने वाले, साधारण औपचारिकता भी नहीं अपनाते.एक परिचित के पिता की मृत्यु हो गयी थी.जब वे बीमार थे पूरी सोसायटी के लोग उनका हालचाल पूछते रहते थे..पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने एक हवन रखा था.अपने कुछ रिश्तेदारों के अलावा सिर्फ हमें बुलाया था वो भी शायद इसलिए क्यूंकि मैं उन्हें दो बार हॉस्पिटल में देखने गयी थी.एक नौजवान पंडित हवन करवा रहा था.इतने लोगों को नतमस्तक, अपनी बाते सुनते देख शायद वह कुछ ज्यादा ही उत्साह में आ गया.बीच बीच में भजन गाने लगता और सबसे आग्रह करता कि 'एक पंक्ति मैं गाता हूँ,उसे आपलोग भी दुहरायें'.सबलोग तन्मयता से भजन गाते रहें.करीब ३ घंटे तक पूजा चली.फिर पंडित जी ने बोला सबलोग आकर प्रसाद ले लें.मैं बैठी रही,पहले घर वालों को लेना चाहिए.कुछ देर बाद पतिदेव ने इशारा किया...चलते हैं.हमने पति-पत्नी दोनों को दिलासा के दो शब्द कहे और इजाज़त मांगी...दोनों ने सर हिलाया.हाँ ठीक है.ये लोग मुंबई के नहीं हैं,इनके सारे नाते-रिश्तेदार अभी भी गाँव में ही हैं.पर यहाँ आकर,ये इतने बदल गए हैं.कैसी विडंबना है,कहीं तो कोई इसलिए परेशान है कि कोई मेरे घर का पानी नहीं पिएगा,और कहीं किसी को इतनी भी परवाह नहीं कि एक ग्लास पानी ही पूछ लें.