Wednesday, October 28, 2009

ऊसर भारतीय आत्माएं


एम्.ए. की परीक्षा की तैयारियों में व्यस्त थी.अंग्रेजी में कहें तो 'वाज़ बर्निंग मिड नाईट आयल' और उसी मिड नाईट में एक कोयल की कुहू सुनाई दी.बरबस ही माखनलाल चतुर्वेदी (जिनका उपनाम 'एक भारतीय आत्मा'था) की कविता "कैदी और कोकिला' याद हो आई....ऐसे ही उन्होंने भी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान,जेल के अन्दर एक कोयल की कुहू सुनी थी और उन्हें लगा था कोयल, क्रांति का आह्वान कर रही है.

कुछ अक्षर कागज़ पे बिखर गए जो अब तक डायरी के पीले पड़ते पन्नों में कैद थे.आज यहाँ हैं.

ऊसर भारतीय आत्माएं

रात्रि की इस नीरवता में
क्यूँ चीख रही कोयल तुम
क्यूँ भंग कर रही,निस्तब्ध निशा को
अपने अंतर्मन की सुन

सुनी थी,तेरी यही आवाज़
बहुत पहले
'एक भारतीय आत्मा' ने
और पहुंचा दिया था,तेरा सन्देश
जन जन तक
भरने को उनमे नयी उमंग,नया जोश.

पर आज किसे होश???

क्या भर सकेगी,कोई उत्साह तेरी वाणी?
खोखले ठहाके लगाते, मदालस कापुरुषों में
शतरंज की गोट बिठाते,स्वार्थलिप्त,राजनीतिज्ञ में

भूखे बच्चों को थपकी दे,सुलाती माँ में
माँ को दम तोड़ती देख विवश बेटे में
दहेज़ देने की चिंता से पीड़ित पिता
अथवा ना लाने की सजा भोगती पुत्री में

मौन हो जा कोकिल
मत कर व्यर्थ अपनी शक्ति,नष्ट
नहीं बो सकती, तू क्रांति का कोई बीज
ऊसर हो गयी है,'सारी भारतीय आत्मा' आज.

28 comments:

निर्मला कपिला said...

क्या भर सकेगी,कोई उत्साह तेरी वाणी?
खोखले ठहाके लगाते, मदालस कापुरुषों में
शतरंज की गोट बिठाते,स्वार्थलिप्त,राजनीतिज्ञ में

भूखे बच्चों को थपकी दे,सुलाती माँ में
माँ को दम तोड़ती देख विवश बेटे में
दहेज़ देने की चिंता से पीड़ित पिता
अथवा ना लाने की सजा भोगती पुत्री मे
बहुत सुन्दर और मार्मिक अभिव्यक्ति हैसच मे
नहीं बो सकती, तू क्रांति का कोई बीज
ऊसर हो गयी है,'सारी भारतीय आत्मा' आज.
निशब्द हूँ तुम्हारी इस रचना पर और फिर तुम कहती हो कि कविता मे मेरा हाथ तंग है हैरान हूँ कि जब हाथ खुलेगा तो आस्मान तक फैलेगा । बहुत सुन्दर आशीर्वाद इसी तरह लिखती रहो।सण्वेदनायेण हैण शब्द हैं और लिखने की ललक है फिर और क्या चाहिये मा शारदे का आशीर्वाद भी है लिखती रहो बहुत बहुत आशीर्वाद्

कुश said...

कोयल की कुहू के माध्यम से समाज का कड़वा सच उजागर कर दिया आपने तो..

भूखे बच्चों को थपकी दे,सुलाती माँ में
माँ को दम तोड़ती देख विवश बेटे में
दहेज़ देने की चिंता से पीड़ित पिता
अथवा ना लाने की सजा भोगती पुत्री में

ये चारो पंक्तिया बहुत उम्दा लगी.. बहुत द्रवित कर देने वाले शब्द कह गयी आप तो इस बार

mamta said...

As good in poetry as in prose.Wow!

ankit narayan said...

kya kahoon usse jisne apne ap ko ek pinjre main band kar apne sapno ko bikher diya ...
jisne apne pariwar k liye apne armanon ka gala ghont diya ...
acha hi hai shayad ...
kyunki agar ye panchi khule gagan main udta to na jaane or kitni anjaani cheezon ki or hamara rukh mod deta...

रश्मि प्रभा... said...

यहाँ हर शाख गिरवी है,परिंदे पर कटे से हैं ..................मत बोलो,वरना कहेंगे अब धरती से यह कोकिला लुप्त होनेवाली है
............
बहुत ही श्रेष्ठ रचना

रंजू भाटिया said...

दिल को छु लेने वाली हैं यह रचना .बहुत सुन्दर

गौतम राजऋषि said...

अरे, ये तो बहुत सुंदर कविता है...और आप कह रही थीं कि कविता का ज्ञान नहीं आपको। इतनी भी modesty ठीक नहीं मैम...यहाँ तो मुक्त-छंद और छंद-मुक्त और नई कविता के नाम पर इतना कुछ परोसा जाता है कि क्या कहें।

बहुत ही सशक्त रचना है और "कैदी और कोकिला" की याद दिलाने का भी शुक्रिया। आज निकाल कर पढ़ूंगा इसे फिर बड़े दिनों बाद।

M VERMA said...

क्या भर सकेगी,कोई उत्साह तेरी वाणी?
खोखले ठहाके लगाते, मदालस कापुरुषों में
और फिर
नहीं बो सकती, तू क्रांति का कोई बीज
ऊसर हो गयी है,'सारी भारतीय आत्मा' आज.
ऊसर न हुई होती तो क्रांति का बीज बोने की आवश्यकता ही क्यों पडती.
सुन्दर भाव और प्रवाह

डिम्पल मल्होत्रा said...

भूखे बच्चों को थपकी दे,सुलाती माँ में
माँ को दम तोड़ती देख विवश बेटे में
दहेज़ देने की चिंता से पीड़ित पिता
अथवा ना लाने की सजा भोगती पुत्री में...ik dard sa hai bas or kuch nahi.....

Arvind Mishra said...

भावपूर्ण -चित्र चातक का है !

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

aapki lekhni mein jaadu hai..... shabdon ko bhaavukta ke syaahi mein dooba ke likha hai aapne....

भूखे बच्चों को थपकी दे,सुलाती माँ में
माँ को दम तोड़ती देख विवश बेटे में
दहेज़ देने की चिंता से पीड़ित पिता
अथवा ना लाने की सजा भोगती पुत्री में

in panktiyon ne dil ko chhoo liya..

Chandan Kumar Jha said...

बहुत ही सार्थक और प्रभावशाली रचना ।

चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345 said...

अद्भुत....निःशब्द हूं मैं!

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

बहुत ही सुन्दर एवम यथार्थ को उकेरने वाली रचना।
हेमन्त

शरद कोकास said...

रश्मी जी कविता तो अच्छी है ,आवेग भी है और गति भी बधाई ,लेकिन ऐसा कुछ हो कि सन्दर्भ देने की ज़रूरत न हो और जिन्हे न भी मालूम हो कि एक भारतीय आत्मा का अर्थ वे भी समझ जाये कि यह माखनलाल चतुर्वेदी है ... कोशिश करके देखिये

सदा said...

बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

Ashish said...

Beeti Vibhavari Jaag Ri

Ambar Panghat Mein Bhigo Rahi --
Taraghat Usha Nagri

Khag Kul Kul-kul Sa Bol Raha,
Kislaya Ka Anchal Dol Raha ,
Lo RASHMI JI Bhi Bhar Layi --
Madhu Mukul Naval Ras Gagri

Adharon Mein Rag Amand Piye,
Alkon Mein Malyaj Band Kiye,
Too Abtak Soyi Hai Aali --
Ankhon Mein Bhare Vihag Ri


Sabhar -----Jai shankar Prasad

रंजना said...

रश्मि जी ,

हालाँकि आपकी इस रचना में गहन नैराश्य भाव उदबोधित हुआ है,परन्तु मैं दावे से कह सकती हूँ कि यह किसी भी संवेदनशील को झकझोरने और जगाने में पूर्ण समर्थ है....

बहुत ही सुन्दर रचना...मन को छूकर विभोर कर गयी...साथ ही इस रचना में मुझे जिस प्रकार आपके पावन मनोभूमि के दर्शन हुए मन नतमस्तक हो गयी....

लिखती रहें,इसी तरह...सतत अनवरत....शब्द कभी विफल नहीं जाते..कोई एक व्यक्ति भी जग गया तो समझिये यह सार्थक हुआ...

नीरज गोस्वामी said...

भूखे बच्चों को थपकी दे,सुलाती माँ में
माँ को दम तोड़ती देख विवश बेटे में
दहेज़ देने की चिंता से पीड़ित पिता
अथवा ना लाने की सजा भोगती पुत्री में

आपकी इस रचना की जितनी भी प्रशंशा करूँ कम ही पड़ेगी...इस उम्र में इतनी गहरी और अच्छी रचना किसी चमत्कार से कम नहीं...मेरी बधाई स्वीकार कीजिये...इश्वर से प्रार्थना करता हूँ की आपकी लेखनी की इस धार को सदा यूँ ही बनाये रखे...
नीरज

Arshia Ali said...

बहुत ही जगब की है आपकी कल्पना। अभी तक भटकती आत्माएं तो सना था, उसर भारतीय आत्माएं पहली बार सुना है। बधाई इस सुंदर कल्पना के लिए।
--------
स्त्री के चरित्र पर लांछन लगाती तकनीक।
चार्वाक: जिसे धर्मराज के सामने पीट-पीट कर मार डाला गया।

प्रवीण शुक्ल (प्रार्थी) said...

Dअवचेतन मन की कुंठा को और सामाजिक पीडा को जिस तरह से आप ने शब्द दिए है अद्भुद है ...आम जन की व्यथा को जिस तरह से आप ने मह्शूश किया है और उसे कविता के माध्यम से व्यक्त किया है ... मै नत मस्तक हूँ आज जिस तरह से सामाजिक चेतना खो रही और व्यक्ति जिस तरह से भाव शून्य हो रहा है उस समय आप की यह कविता एक आन्दोलनखडा करती है
सादर
प्रवीण पथिक

daanish said...

आपकी चिंता व्यर्थ नहीं है
और यही चिंतन ही तो
उस कोयल ki मधुर वाणी है
जो आह्वान करती है ...निरंतर ....
aisa hi मननीय, अनुकरणीय लेखन
हमेशा अपनी मंजिल तक पहुंचता है

बहुत अच्छी और सार्थक रचना के लिए
बधाई स्वीकारें

जोगी said...

waah ji , bahut hi achha likha...par asha hai ki is koyal ki awaj aaj ka bharat sune ...

shubhkamnayein !!!

satish kundan said...

bahut marmik aur man ko chhu gai aapki rachna..main to jaise kho gaya aapki kavita me..aapka blog bahut khubsurat hai!!!mere blog par aapka swagat hai..

Murari Pareek said...

bahut gahan rachnaa hai, bilkul haqiqat se sarobaar !!!

हरकीरत ' हीर' said...

क्या भर सकेगी,कोई उत्साह तेरी वाणी?
खोखले ठहाके लगाते, मदालस कापुरुषों में
शतरंज की गोट बिठाते,स्वार्थलिप्त,राजनीतिज्ञ में

कौन कहता है इन पंक्तियों में नैराश्यता है ....??

कवि तभी लिखता है ज़ब वह किसी बात से आहात होता है और ये आहात होना उसका ज़मीर स्वीकार नहीं करता घनी पीडा के बिच एक कविता का जन्म होता है ....हर रचना के पीछे कवि का विद्रोह ही होता है चाहे वह उसके निजी दर्द ही क्यों न हो .....!!

वर्तमान समय पर गहरे से वार करती एक सशक्त रचना है आपकी .....!!

लोकेन्द्र विक्रम सिंह said...

बहुत खूब......
Best of luck for ur exam...

बाल भवन जबलपुर said...

Adabhut