पिछले दिनों मेरी कामवाली बाई ने जल्दी जाने की छुट्टी मांगी क्यूंकि उसे बैंक जाना था,मैंने यूँ ही हंस कर पूछ लिया... और पैसे जमा करने है?कहने लगी,..ना..पैसे निकाल कर घर भेजने हैं, दस हज़ार का इन्तजाम और करना है...मैं आश्चर्य में डूब गयी...अभी कुछ ही दिन पहले उसने सात हज़ार रुपये मुझसे गिनवा कर बैंक में जमा किये थे,मुझसे अपना पास बुक भी चेक करवाया था.उसके खाते में पहले से पांच हज़ार की रकम देखकर मुझे बहुत ख़ुशी हुई थी...चलो दिन रात मेहनत करती है...कुछ पैसे तो जमा कर रखे हैं और आज वो सारे पैसे घर भेज रही थी ऊपर से क़र्ज़ लेने को भी तैयार....पता चला उसकी दादी गुजर गयीं हैं और उनके श्राद्ध के लिए पैसे चाहिए...इसके पिता की मृत्यु हो चुकी थी ..और कोई भाई भी नहीं इसलिए माँ को पैसे भेजने की जिम्मेवारी उसकी है.
मुझे श्राद्ध के धार्मिक कृत्यों के बारे में ज्यादा मालूम नहीं. लोगों को भोज खिलाने..दान पुण्य करने से सचमुच उनकी आत्मा को शांति मिलती है या नहीं,पता नहीं. पर इतना जरूर पता है कि धरती पर बचे लोगों की ज़िन्दगी में कई बार घोर अशांति आ जाती है...इन पैसों से वो मेरी बाई कितना कुछ कर सकती थी और कितना कुछ करने का सपना उसने देखा होगा. मैंने उसे कितना समझाया.....माँ को ही अगर ये पैसे देने हैं तो वह इन पैसों से...अपने घर की मरम्मत करवा सकती है,एक गाय खरीद सकती है लेकिन वो मुझे उल्टा समझाने लगी...आपको नहीं मालूम,अगर पूरे गाँव को भोज नहीं खिलाया तो गाँव वाले हमें जात बाहर कर देंगे,हमारा हुक्का पानी बंद कर देंगे...हमारे घर का पानी कोई नहीं पिएगा,हमें किसी शादी ब्याह,जन्मोत्सव में नहीं बुलाएँगे. एक बार तो मैंने खिन्न मन से ये भी कह दिया,क्या फर्क पड़ता है,बस पांच पंडित को खिला दो और माँ को यहीं बुला लो.लेकिन मुझे पता था मेरे लिए कहना आसान है.पर अपनी जड़ों से कटकर कौन रह पाया है? ये लोग इतने कष्ट में यहाँ रहते हैं पर कभी बताना नहीं भूलते, घर में हमारा अपना मकान है,खेती बाड़ी है,..यह बताते हुए इनकी आँखों में जो चमक आ जाती है.उस से कैसे महरूम किया जा सकता है...शायद एक एक पैसे जोड़ते हुए इनकी ज़िन्दगी चली जाए पर मन में ये सपना जरूर पलता रहता है कि बहुत सारे पैसे जमा कर लेंगे फिर गाँव जाकर आराम की ज़िन्दगी बसर करेंगे,इसी सपने के सहारे ये इस महानगर की कड़वी हकीकत रोज झेलते हैं.
लेकिन इन आडम्बरों में अगर ये अपनी पसीने की कमाई ऐसे बहाते रहेंगे तो कैसे जोड़ पायेंगे पैसे?बचपन में गाँव जाना होता था,तो ऐसी बाते सुनने को मिलती थीं. इतने दिनों बाद भी, कहीं कुछ नहीं बदला,वही जन्म जन्मान्तर का क़र्ज़ जिसे दादा लेता है और पोते,परपोते चुकाते रहते हैं...ब्याज चुकाते ही सारी ज़िन्दगी चली जाती है,मूल तो वैसे ही अनछुआ पड़ा रहता है.फिल्मो में कुछ ज्यादा बढा चढा कर दिखाते हैं पर स्थिति सचमुच ज्यादा अलग नहीं..पर इस स्थिति को बदलने का बीडा कौन उठाएगा?ज्यादातर पढ़े लिखे लोग नौकरी की तलाश में शहर का रुख कर लेते हैं और जो एकाध शिक्षित घर होते हैं वे इन गरीबों को क़र्ज़ देने का काम करते हैं.वे तो उन्हें इस से दूर रहने की सलाह देंगे नहीं.कौन इसके विरूद्व अलख जगायेगा,ये सचमुच चिंता का विषय है.
बरसों पहले गोदान पढ़ी थी और उसके बरसों पहले वह लिखी गयी थी पर आज भी हर गाँव में ना जाने कितने 'होरी' और कितने 'गोबर' ज़िन्दगी की उसी पुरानी जद्दोजहद
से जूझ रहें हैं.
बाई यह भी बता रही थी कि बहुत सारी चीज़ें दान करनी पड़ेंगी. कहीं सुनी एक कहावत याद आ गयी."जिंदे को ना पूछे बात...मरे को दूध और भात' चाहे फटे चिथडों में ज़िन्दगी गुजरी हो,,टूटी चारपाई भी नसीब ना हो.पर मरने के बाद,नए कपड़े,चारपाई,गद्दे सब दान किये जाते हैं .कुछ बदले हुए रूप में ही सही पर ऐसा संपन्न घरों में भी खूब होता है.बचपन की ही एक घटना है,मेरे पड़ोस में एक वृधा रहती थीं.घर वाले उनके साथ दुर्व्यवहार नहीं करते थे,खाने पीने,डॉक्टर दवा.सबका ख्याल रखते थे.पर इसके परे भी उन बूढे मन की भी कुछ ख्वाहिशें होती हैं,इससे निरपेक्ष थे. दादी की चप्पल टूट गयी थी,जिसे मोची से मरम्मत करवा दी गयी थी.उसने एक भद्दा सा कला रबर का टुकडा लगा दिया था.दादी को अपने भाई के पोते की शादी में जाना था.कई बार उन्होंने बेटे बहू से कहा,मुझे एक नयी चप्पल ला दो.पर किसी ने ध्यान नहीं दिया.अक्सर दादी कोने में पड़ी चारपाई पर लेटी रहतीं,हम बच्चे आस पास खेलते रहते थे,ना जाने दादी को कितनी बार खुद से कहते सुना,'लोग हसेंगे कि बेटा माँ का ख्याल नहीं रखता' यहाँ भी उन्हें अपने बेटे की इज्जत की ज्यादा फिकर थी..आखिर उन्हें एक दिन मय साजो समान के शादी में जाते देखा..पैरों में वही टूटी चप्पल थी.काफी दिनों बाद वे बीमार पड़ीं.मैं भी माँ के साथ,उन्हें देखने हॉस्पिटल गयी,देखा बेड के नीचे वही टूटी चप्पल रखी है.दादी गुजर गयीं,बड़ी धूमधाम से उनका श्राद्ध हुआ.पूरा खानदान जुटा,सारे शहर को न्योता था और दान में पलंग,बर्तन,कपडों के साथ थी,एक चमचमाती हुई नयी चप्पल...
किसी शायर की ये पंक्तियाँ याद आती हैं. "सारा शहर उसके जनाजे में था शरीक
तन्हाइयों के खौफ से, जो शख्स मर गया"
एक तरफ तो ये गरीब, अपनी सारी जमापूंजी खर्च करके,यहाँ तक कि क़र्ज़ लेकर भी सारे कर्मकांड निभाते हैं और दूसरी तरफ ये भी देखा कि लाखो कमाने वाले, साधारण औपचारिकता भी नहीं अपनाते.एक परिचित के पिता की मृत्यु हो गयी थी.जब वे बीमार थे पूरी सोसायटी के लोग उनका हालचाल पूछते रहते थे..पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने एक हवन रखा था.अपने कुछ रिश्तेदारों के अलावा सिर्फ हमें बुलाया था वो भी शायद इसलिए क्यूंकि मैं उन्हें दो बार हॉस्पिटल में देखने गयी थी.एक नौजवान पंडित हवन करवा रहा था.इतने लोगों को नतमस्तक, अपनी बाते सुनते देख शायद वह कुछ ज्यादा ही उत्साह में आ गया.बीच बीच में भजन गाने लगता और सबसे आग्रह करता कि 'एक पंक्ति मैं गाता हूँ,उसे आपलोग भी दुहरायें'.सबलोग तन्मयता से भजन गाते रहें.करीब ३ घंटे तक पूजा चली.फिर पंडित जी ने बोला सबलोग आकर प्रसाद ले लें.मैं बैठी रही,पहले घर वालों को लेना चाहिए.कुछ देर बाद पतिदेव ने इशारा किया...चलते हैं.हमने पति-पत्नी दोनों को दिलासा के दो शब्द कहे और इजाज़त मांगी...दोनों ने सर हिलाया.हाँ ठीक है.ये लोग मुंबई के नहीं हैं,इनके सारे नाते-रिश्तेदार अभी भी गाँव में ही हैं.पर यहाँ आकर,ये इतने बदल गए हैं.कैसी विडंबना है,कहीं तो कोई इसलिए परेशान है कि कोई मेरे घर का पानी नहीं पिएगा,और कहीं किसी को इतनी भी परवाह नहीं कि एक ग्लास पानी ही पूछ लें.
33 comments:
कभी एक कविता पढ़ी थी.. कर्जा लेकर क़र्ज़ चुकाना.. अंगारों से आग बुझानी..
शायद इसीलिए पियूष मिश्रा कहते है.. तुम्हारी है तुम्ही संभालो ये दुनिया..
यही हमारे तथाकथित विकसित इंडिया का दूसरा चेहरा है जिसे 'भारत"कहा जाता है.............
आप ठीक कह रही हैं। गोदान ही नही मृतक भोज में भी यही है। जिंदा को कोई पूछे चाहे न पूछे मगर लोक-लाज के डर से मरे हुए का श्राद्ध तो सभी करते हैं।
ghar ghar ki kahani hai ye .sab log ak bharm me
jeete hai aur yhi unki shakti hoti hai .
बिना ब्याहे संग रहना, और माई-बाप से तंग रहना
जाने क्या? कैसे रिश्ते? अब तहजीबें ढूंढती हैं
Aapne to sentimental kar diya....khaaskar wo dadi ki chappal wali ghatna ko bata kar..... par yeh waaqai mein aisa hota hai...yehmaine khud dekha hai.......... aapne to sentimental kar diya.........
जी रश्मि जी कई बार हमें समाज के बीच रहने के लिए उनके बनाये माप दंडों को मानना पड़ता है ....हमारे यहाँ भी इस तरह के रिवाज़ हैं घर में खाने को हो या न हो श्राद्ध के पाठ पर बिस्तर,वस्त्र, रुपये दान किये जाते हैं chahe उसे jivaan भर मन pasand का khana मिला हो या न मिला हो पर shraadh पर usi के pasand को ध्यान में रख कर भोज karaya जाता है .....kitane vichitra riti रिवाज़ बनाये हैं इस manav समाज ने .....!!
सच्चाई है !
कर्मकांड करते-करते सिर्फ़ गरीब ही नहीं गरीब से थोडा अमीर भी कर्जदार होते देखे गए हैं ।
zindgee ki kadwi magar sachi haqeekat btati apki post......
prapanch adhik hote hain........achha likha hai is par
जमीन से जुड़े लेख के लिए बधाई!
कल इसे चर्चा मे लगा दूँगा।
A good one.........................
Keep writing .........
All the very best.
"जिंदे को ना पूछे बात...मरे को दूध और भात" सच में, हमसब की आसपास की जिंदगी का एक क्रूर सत्य!
Very true and very tragic but how many of us have the courage to depart from the set pattern?
Ek aur Raja Ram Mohan Roy ki jarurat hai. Samjaik Kuritiya Desh Aur samaj ke vikas me badhk hai.
shayad ye garib log jo haad tod kar mehnat karte hain, aur adhe peta bhojan karte hain.apani jadon ko thame hue hain. isaka doosara pahaloo aap sampanna logon ko dekhiye ghar ke bujurgon ko koi poochhata nahin hai. khud hotel men dinner le rahe hain aur maan ke liye subah ka rakha hai vahi kha lena.
itana to kar hi skate hain ki unhen marane ke baad bhale hi na yaad karen are jivan men to unka dhayaan rakhe. par ye kahani to har ghar ki ban chuki hai.
आज की तल्ख़ सच्चाई को आपने बहुत बेबाकी से सामने रखा है....बहुत सारगर्भित लेख...
नीरज
सारा शहर उस जनाजे में था शरीक
तनहाइयों के खौफ से जो शख्स मर गया ...
हकीकत के धरातल पर रहकर जीना इसी को कहते हैं ....
samaj ka yatharth se aapne parichye karya hai..prantu abhi hame sudharne me sadiyan beet jayengi...haalat to yahi kah rahen hain..
achchhi aur saargarbhit post....
एक कड़वे सच को आपने बहुत अच्छे ढंग से उजागर किया है. बहुत सारगर्भित लेख है.
महावीर शर्मा
हां इन्ही विडम्बनाओं और विपर्ययों में भारतीय जीवन बीत जाता है -अच्छा लिखा है !
RASHMI JI SAMAAJIK PARAMPARAAYE JABAUR VYVASTHAYE JAV KURITIYA AUR AVYVASTHAYE BAN JAATI HAI TO UNKA PUNARMULYANKAN AUR PUNARNIRDHARAN AVASHYK HOO JAATA HAI NAHI TO SMAAJ ME AVYVASTHA AUE ASHAANTI TO FAILE GI HI BHUT HI SAMVEDAN SHIL VISAY AUR SOCHNIY BAAT RAKHI HAI MERI BADHAAYI SWIKAAR KARE
SAADAR
PRAVEEN PATHIK
9971969084
सभी धर्म-कर्म, नीयम-कानून गरीबों के लिए बने हैं
पैसे वाले समाजिक रूप से निषिध्द आचरण भी करें तो कोई विरोध करने वाला नहीं होता, वही सत्य ठहरा दिया जाता है।
सही लिखा है आपने कि आज भी गाँव में कितने होरी और कितने गोबर ज़िंदगी की उसी पुरानी जद्दोजहद से जूझ रहे हैं
मगर अलख हम-आप ही ज़गाएंगे ...आसमान से कोई फरिश्ता नहीं आएगा....
ज्यों-ज्यों हमारा समाज शिक्षित होगा त्यों-त्यों हम इस सामाजिक दासता से मुक्त हो पाएंगे।
रश्मि जी,
खूब शब्दजाल बुना है भावनाओं का.
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
बेहतरीन रचना
maine apney blog pr ek lekh likha hai- gharelu hinsa-samay mile to padhein aur comment bhi dein-
http://www.ashokvichar.blogspot.com
मेरी कविताओं पर भी आपकी राय अपेक्षित है। यदि संभव हो तो पढ़ें-
http://drashokpriyaranjan.blogspot.com
कौन जगायेगा अलख???...aap aur hamm..isi tarah...
link 4 u...फेमिनिस्ट
आपकी यह पोस्ट पढ़ते हुए कितनी बातें मन में आई क्या कहूँ.....
शादी ब्याह में जो खर्च करना होता है उसके लिए तो व्यक्ति चाहे कर्ज लेकर ही सही तैयार भी रहता है,पर मरणोपरांत किये जाने वाले खर्च तो एक तरह से कमर तोड़ देने वाले होते हैं...ऐसा नहीं है कि निम्न या मध्यमवर्गीय आय वाला हर व्यक्ति इसे त्रासद नहीं समझता ,पर फिर भी कोई इसके खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत नहीं करता...
शहरों में तो स्थिति कुछ कुछ सुधरने लगी है,लोग मृत्यु के बाद के कर्मकांडों में न तो अधिक पैसा लगाना चाहते हैं और जो लगता है उसे कोई उत्साहित भी नहीं करता....आशा रखा जाए कि जीवन के बाकी क्षेत्रों का रहन सहन जिस तरह शहर से गांवों की ओर जा रहा है,यह भी गांवों तक पहुंचे,क्योंकि इसकी सबसे अधिक आवश्यकता तो वहीँ है....
बहुत ही अच्छी लगी आपकी यह पोस्ट ......
जिम्मेदारी कमबख्त चीज ही ऐसी है।
युवा सोच युवा खयालात
खुली खिड़की
फिल्मी हलचल
आपकी प्रगतिशीलता का मैं कायल हूँ ।
सारा शहर उस जनाजे में था शरीक
तनहाइयों के खौफ से जो शख्स मर गया ...
कितनी सच्चाई है आपके आलेख में....अब तो हम यही देख रहे हैं अपने आस-पास...
बहुत अच्छे से आपने समाज में बटें लोगों के विचार उकेर दिया आपने...कैसी विडंबना है,कहीं तो कोई इसलिए परेशान है कि कोई मेरे घर का पानी नहीं पिएगा,और कहीं किसी को इतनी भी परवाह नहीं कि एक ग्लास पानी ही पूछ लें...
लाजवाब व उम्दा रचना के लिए बधाई स्वीकार करें ।
Post a Comment