
फिल्म 'परदेस' का एक डायलॉग मुझे बहुत पसंद है,जिसमे महिमा चौधरी कहती हैं,"अपने देश में, हम कभी किसी को अकेला नहीं छोड़ते.अगर वो नाराज़ या उदास होकर खुद को कमरे में बंद कर लेता है तो हम कमरे का दरवाजा तोड़ कर अन्दर उसके पास चले जाते हैं."पर क्या सचमुच हम ऐसा करते हैं? अपने गिरेबान में झांककर देखें या अपने आस-पास लोगों को देखें.क्या सचमुच सबलोग ऐसा करते हैं?..नहीं..लोग उसे अपने हाल पर छोड़ देते हैं कि वह खुद इस उदासी के गड्ढे से निकल आएगा.पर ऐसा होता नहीं.वह शख्स गड्ढे में गहरे और गहरे गिरता चला जाता है और जब उसमें घुट घुट कर दम तोड़ देता है तो सब लोग गड्ढे के किनारे मजमा लगाने जमा हो जाते हैं.
'रुचिका'के केस में सबका आक्रोश राठौर,उसके स्कूल प्रिंसिपल और सिस्टम पर है.पर मुझे सबसे ज्यादा नाराजगी,उसकी स्कूल टीचर्स से है.'बरखा दत्त' के शो में रुचिका के साथ पढने वाली एक लड़की बता रही थी कि अपने साथ हुए उस हादसे के बाद रुचिका हमेशा रोती रहती थी.वह किसी से बात नहीं करती थी.खिड़की के पास अपनी सीट पर बैठी पूरे पूरे दिन या तो वह खिड़की से बाहर देखती रहती थी या रोती रहती थी.रोज़ उसकी क्लास में करीब करीब सात टीचर्स जरूर आते होंगे.उनमे से एक ने भी करीब जाकर उसके दिल का हाल जानने की कोशिश नहीं की.उस तक पहुँचने के लिए कोई पुल तैयार नहीं किया.जबकि सब उसके साथ हुए हादसे के बारे में जानते थे.ऐसे में तो उन्हें उसका और ज्यादा ख़याल रखना चाहिए था.पर उनलोगों ने उसे उसके हाल पर छोड़ दिया.अगर किसी टीचर ने रुचिका के साथ,थोडा समय बिताया होता.उसके पास आने की कोशिश कर उसका दुःख बांटने की कोशिश की होती.रुचिका को भी अपना दुःख,इतना बडा नहीं लगता,कि उसने अपनी ज़िन्दगी खत्म करने का ही फैसला ले लिया..सहेलियां साथ थीं.पर वे भी उसकी तरह कच्ची उम्र की थीं,उन्हें ज़िन्दगी का इतना अनुभव नहीं था कि उसका सहारा बन सकें.पता नहीं,रुचिका की आत्महत्या कि खबर सुन भी उसकी टीचर्स के मन में एक बार भी यह ग्लानि हुई होगी कि नहीं कि'काश हमने समय पर उसके दुःख बाँट होते,उसे सहारा दिया होता."
टीचर्स, बस क्लास में आते हैं.,रटी रटाई चीज़ें जो बरसों पहले,पाठ्य पुस्तकों से वे रट चुके हैं,पढ़ाते रहते हैं.,कापियां चेक करते रहते हैं. और तनख्वाह ले,अपने घर चले जाते हैं.जाते .टीचर्स भूल जाते हैं कि वे किसी बेजान मशीन में यह सब नहीं फीड कर रहें.एक सोचने समझने वाले असीम संभावनाओं से भरे,मस्तिष्क में यह सब भरने की कोशिश कर रहें हैं.जिसमें पाठ्य पुस्तकों से अलग भी एक संसार बना हुआ है.पर टीचर्स को तो जैसे उस संसार कि कोई खबर ही नहीं.टीचर कि नज़र इतनी पैनी तो होनी ही चाहिए कि क्लास में एक बच्चा अलग थलग,उदास सा क्यूँ बैठा है?और अगर उन्हें कारण पता होता है तब तो उनकी जिम्मेवारी और भी बढ़ जाती है.कि कैसे उसे उदासी के गह्वर से बाहर निकाले,कैसे उसके होठों कि हंसी वापस लाये.
बच्चों कि ज़िन्दगी में सबसे महत्वपूर्ण स्थान टीचर का होता है.हर बच्चा एक बार जरूर सोचता है कि वह बडा होकर टीचर बनेगा.बच्चे दिन का अधिकाँश समय टीचर के संसर्ग में ही बिताते हैं तो शिक्षकों का भी कर्त्तव्य है कि वह उसके पूरे व्यक्तित्व के विकास पर नज़र रखे.यह कहा जा सकता है कि एक क्लास में ६०-६० बच्चे होते हैं,फिर टीचर को भी समय पर सिलेबस पूरा करना होता है,प्रश्नपत्र बनाने होते हैं.कापियां चेक करनी होती हैं,रिजल्ट तैयार करने होते हैं,सैकड़ों काम होते हैं.कहाँ तक ख़याल रखें बच्चों का.हमारी शिक्षा व्यवस्था ही ऐसी है.अब एक दिन में तो बदलाव आ नहीं सकता.इसी व्यवस्था के अन्दर से कोशिश करनी होगी.जरूरत है थोड़ी सी अतिरिक्त सजगता और अपने कार्य के प्रति समर्पण की.कम से कम उस बच्चे की तरफ तो निगाह डालें जिसकी खामोश और पनीली आँखें चीख चीख कर कहती हैं....
"किसे दिखाएँ ज़ख्म यहाँ कोई तो मिले
आँखें और जुबां पर सबके हैं ताले लगे हुए"
एक स्मार्ट,मेधावी बच्ची जिसका यूनिफ़ॉर्म बिलकुल साफ़ और इस्त्री किया हुआ होता,जुटे,मोज़े,टाई सब सही होते थे.अचानक गंदे यूनिफ़ॉर्म पहन,गलत रिबन,गंदे मोज़े,बिना पोलिश के जूते पहन स्कूल आने लगी.चुपचाप रहती ,होमवर्क नहीं करती.ग्रेड्स भी गिरने लगे.उसे रोज पनिशमेंट मिलने लगी.जब दो महीने बाद पैरेंट्स मीटिंग में टीचर ने शिकायत की तो पता चला,दो महीने पहले उसने अपनी माँ को खो दिया था.अगर टीचर ने एक बार उसे अलग बुला कर वजह पूछी होती तो उस मासूम बच्ची को कुछ सहारा मिला होता और वह रोज़ क्लास से बाहर जाने की जलालत से बच जाती.हो सकता था यह देख की उसकी भी फ़िक्र करने वाला कोई है...वह अपने ऊपर ध्यान देना शुरू कर देती.पर आजकल तो टीचर्स बच्चों को उनके आई-कार्ड से पहचानते हैं.उनके चेहरे भी नहीं याद रहते तो उनके दिल में चल रहें हलचलों की जानकारी कहाँ से होगी.
बच्चे गीली मिटटी की तरह,उनकी हाथों में होते हैं.अब यह उनपर है कि वे इस से कोई ख़ूबसूरत सी मूर्ति गढ़ डालें या उसे यूँ ही अनगढ़ छोड़ दें.शिक्षक का कार्य भी पूर्ण समर्पण की मांग करता है.मुझे तो लगता है,डाक्टर्स की तरह टीचर्स को भी यह शपथ लेनी चाहिए :वे बच्चों के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का ख़याल रखेंगे और कमज़ोर बच्चों की तरफ विशेष ध्यान देंगे.