Monday, December 27, 2010

कच्चे बखिए से रिश्ते (समापन किस्त )

(सरिता,अपनी सहेली के पति को अपने कॉलेज में ही लेक्चरर के पद पर नियुक्त करवाने में सहायता करती है. कुछ ही दिनों बाद उसकी सहेली की मृत्यु हो जाती है और उसके पति वीरेंद्र, कॉलेज में ज्यादातर समय ,सरिता के डिपार्टमेंट में बिताने लगते  हैं. पर सरिता को वीरेंद्र की कम्पनी रास नहीं आती फिर भी वह सहानुभूतिवश , उन्हें यह अहसास नहीं होने देती.)


गतांक से आगे

मुश्किल ये थी कि वीरेंद्र फिजिक्स  के प्रोफ़ेसर थे .और साइंस के अधिकतम छात्र, कोचिंग क्लास जाया करते लिहाजा..बहुत कम छात्र ही नियमित क्लास अटेंड किया करते.वीरेंद्र  भी  क्लास  में बीस मिनट बाद जाते और दस मिनट पहले निकल आते. कोई जिम्मेवारी  भी नहीं थी. वो कहती भी, "जो बच्चे..क्लास में ,बैठते हैं..शायद वे क्लोचिंग क्लास नहीं अफोर्ड कर पाते हैं..उन्हें ही मन से पढाया करिये .पर वे  गुस्से में बोल उठते,
"वे लोग  ऐसे भी नहीं पढने वाले...बहुत कमजोर हैं,पढने में ....साइंस  उनसे चलेगी नहीं..फेल होने वालो के उपर क्यूँ  मेहनत करूँ.." वह सोचती, तब तो दुगुनी मेहनत करनी चाहिए. पर सहेली के पति का ख्याल कर कुछ बोलती नहीं.
वीरेंद्र की निराशावादी बातें उसे परेशान कर देतीं...पर लिहाजवश वो कुछ भी ,रूडली नहीं बोल पाती. यूँ भी साइंस में नोट्स बनाने की जरूरत नहीं पड़ती. समय ही समय होता उनके पास. जबकि उसे सैकड़ो काम होते...नोट्स बनाने होते. लाइब्रेरी जाना होता..अपने साथी प्रोफेसर्स के साथ विचार-विमर्श..बहस भी नहीं हो पाती. सबसे जैसे वो कटती जा रही थी. वीरेंद्र की उपस्थिति से सब कन्नी काटने लगते और किसी बहाने उठ कर चले जाते.वीरेंद्र  को यूँ भी जिस से भी उसकी दो बातें हो जाती ...थोड़ी मित्रता होती....वे लोग  पसंद नहीं आते. मिस्टर जुनेजा को फोटोग्राफी का बेतरह शौक था...वे हमेशा कैमरा अपने पास रखते. उसकी भी फोटोग्राफी और पेंटिंग सीखने की दिली तमन्ना थी पर अवसर नहीं मिल पाया..नहीं सीख पायी..और अब तो जी के सौ जंजाल थे . उसका वह शौक अनुकूल,हवा,पानी खाद के अभाव में मृतप्राय हो गया था . जुनेजा  जी के खींचे चित्र देख जैसे  उसमे नव-जीवन संचार हो उठता . वे भी नई  तस्वीरें अपलोड करते ही उसे कंप्यूटर लैब में बुला ले जाते. कर्टसीवश वीरेंद्र को भी  बुला ले गए वे. पर वीरेंद्र ने इतनी आलोचना की "ये भी कोई तस्वीरें है..कीड़े-मकोड़ों की...टूटी झोपडी...गन्दी बस्ती की..फोटो तो सुन्दर दृश्यों के लेने चाहिए. " ढलते-सूरज, नदी-झरने झील की. " वो उनसे बहस नहीं करती .बात बदल देती.

अंग्रेजी के एक युवा प्रोफ़ेसर मिस्टर कुमार से उसका किताबो का आदान-प्रदान खूब होता. कई बार खड़े-खड़े ही किसी पुस्तक के किसी कैरेक्टर पर घंटो चर्चा हो जाती. पर मिस्टर कुमार एक विशेष विचारधारा को मानेवाले थे. वीरेंद्र, इस बात को मुद्दा बना उस से बहस कर बैठते .वह कितना भी कहती.."वो उनके विचार है...उसे उस से क्या लेना-देना...वो तो इतर विषय पर बात करती है." उस वक्त कुछ नहीं कहते,पर मौका ढूंढ अक्सर कह बैठते.."वो ये कह रहा था...उसे ऐसा कहते सुना मैने...मुझे बिलकुल नहीं पसंद " परेशान हो गयी थी वह. कॉलेज का कोई भी प्रोफ़ेसर उन्हें अच्छा नहीं लगता...खासकर अगर उनसे उसकी  अच्छी पहचान हो. वह उनकी मनःस्थिति समझती थी...वे परेशान थे, और इस तरीके ही अपनी खीझ ,फ्रस्ट्रेशन निकालना चाहते थे.  पर वो क्या करे. अपनी परिस्थिति से समझौते की कोशिश उन्हें खुद ही करनी थी. वे एक परिपक्व उम्र के इंसान थे. वो बस उनका साथ दे सकती थी,जिसकी वह भरसक कोशिश कर रही थी. पर इसके एवज में उसे अपना मानसिक संतुलन बनाये रखना कठिन हो जाता. घर, पति,बच्चे ,कॉलेज की हज़ारो जिम्मेदारियां और उस पर से वीरेंद्र का यह अनर्गल प्रलाप. वह एकदम से किनारा भी नहीं कर सकती थी. इस शहर में वही एकमात्र वीरेंद्र की परिचित थी और वीरेंद्र दूसरे लोगो से मिलने-जुलने, दोस्त बनाने को उत्सुक भी नहीं दिखते. उसने समय के सहारे खुद को छोड़ दिया था.

इन सबका कोई हल नज़र नहीं आ रहा था और ऐसे में टाइम-टेबल में बदलाव, उसके लिए एक सुखद बयार लेकर  आया. अब टाइम-टेबल कुछ ऐसा बना था जिसमे उसकी सहेली, कृष्णा और उसे एक साथ ऑफ पीरियड मिलते. उसे सुकून मिल गया.  वीरेंद्र तो उसे खाली  देखते आ ही जाएंगे ,इतना उसे पता था पर कम से कम कृष्णा  का साथ तो रहेगा. अब सब, इतना बोझिल तो नहीं होगा. उसने कृष्णा  से परिचय  करवाया और आश्चर्य...किसी से दोस्ती नहीं करनेवाले वीरेंद्र ने लपक कर उस से दोस्ती का हाथ बढाया. उसे सुकून मिला..चलो कुछ बोझ तो बँटा. शुरू में तो कृष्णा  भी उसपर  झल्लाई रहती..."कहाँ से उसके सर पर बिठा दिया..कितना अच्छा वे दोनों हंसी-मजाक दुनिया भर की बातें किया करते थे.' वीरेंद्र की  उपस्थिति थोड़ी असहज बना देती.  पर धीरे-धीरे उसने नोटिस किया.....वीरेंद्र, कृष्णा से काफी बातें करने लगे.

वैसे भी  कॉलेज फेस्टिवल्स अब नजदीक आ रहें थे और तमाम तरह के कम्पीटीशन होने वाले थे. हमेशा की तरह प्रिंसिपल ने उसे बुलाकर कई चीज़ों का इंचार्ज बना दिया था. डिबेट का पूरा कार्यक्रम उसे देखना था. फेस्टिवल के अलग-अलग डिपार्टमेंट्स के हेड भी स्टूडेंट्स  में से उसे ही नियुक्त करने थे . उसे काफी काम होता. डिपार्टमेंट में भी वो आती तो ढेर सारे पेपर वर्क करती  रहती. वीरेंद्र पहले की तरह कुर्सी खींच ...बैठ जाते और कोई ना कोई टॉपिक  शुरू  करने की कोशिश करते. वह भरसक प्रयास करती की उनकी बातो को ध्यान से सुने पर अब उसे  समय ही नहीं मिलता  और ये भी सोचती अब वे नितांत अकेले भी नहीं...कृष्णा से तो उनकी बात-चीत होती ही रहती है. हाँ-हूँ में जबाब देती तो वे चिढ कर उठ जाते. कभी उनके  यूँ अचानक उठ कर चले जाने पर बुरा भी लगता पर वो मजबूर थी.

कृष्णा भी जब भी अकेले में मिलती, कहती "क्या मुसीबत है,जैसे वे घड़ी देखते होते हैं...क्लास ख़त्म कर ,जैसे ही रजिस्टर रख कर जरा सा दम लो और पहुँच जाते हैं, ' नमस्ते कृष्णा  जी..कैसी हैं आप?' अब रोज भला कैसी होउंगी मैं...अच्छी मुसीबत, गले  डाल दी है तुमने "

"अरे,बेचारे अकेले हैं...थोड़ा झेल लो..मैने क्या कम झेला है इतने दिनों...फिर मिलकर उनकी शादी करवा देते हैं...अपनी नई पत्नी के साथ फोन पे चिपके रहेंगे ..हमें छुटकारा मिल जायेगा.."..हंस पड़तीं दोनों

"हाँ, ये ठीक रहेगा..जल्दी करो कुछ...वरना हम अपनी  बातें तो कर ही नहीं पाते.".... ये सच था कृष्णा और उसकी कितनी सारी गर्लिश टॉक अब  वीरेंद्र की  उपस्थिति के चलते गए दिनों की बात हो गयीं  थीं. कितने ही दिन हो गए और उन दोनों ने स्टुडेंट्स की बातें भी नहीं शेयर कीं. आजकल के स्टुडेंट्स,में गुरु-शिष्य वाली  भावना का लेशमात्र नहीं था. एक तो उनकी कच्ची  उम्र और उसपर अनुशासन का अभाव और फिल्मो,टी.वी. के प्रभाव ने काफी उच्छृंखल बना दिया था, छात्रों को.  महिला लेक्चरर्स की तो मुसीबत ही थी. कभी कोई लड़का लेक्चर के दौरान एकटक चेहरे पर देखता रहता. कुछ उसे कहा भी नहीं जा सकता. कह देता,"मैं तो ध्यान से सुन रहा हूँ" कभी कॉपी करेक्शन को दें तो उसमे हीरो हिरोइन की तस्वीरें या फिर कोई मनचला सा गीत लिखा होता. एकाध बार तो क्लास से बाहर निकलते  ही लड़कों  ने मोबाइल से तस्वीर भी खींच ली. डांटने पर बेशर्मी से कह देते ,"मैडम आप अच्छी लगती  हैं" एकाध बार उनके मोबाइल भी सीज किए पर कुछ दिन बाद खुद ही जाकर लौटाना पड़ा, महंगे मोबाइल्स थे..पता नहीं पैरेंट्स ने कितने खून पसीने की कमाई लगा दी होगी और ये आज के ढीठ बच्चे ,वापस मांगने भी नहीं आते. पर ये सब सत्र की शुरुआत में ही होता..धीरे- धीरे  जैसे टीचर-स्टुडेंट्स एक दूसरे को समझने लगते और एक रिश्ता सा बन जाता...फिर तो अपनी कितनी सारी समस्याएं  भी लेकर आते, जिसे वो और कृष्णा आपस में डिस्कस कर सुलझाने की कोशिश करते. पर अब  वीरेंद्र के सामने ये सब बातें करना मुश्किल हो गया था.

उसकी व्यस्तता बढती ही जा रही थी. अभी भी वीरेंद्र नियमित उसके डिपार्टमेंट में आते उसे नमस्ते जरूर कहते..दो मिनट बैठते..पर फिर विषय के अभाव में बात आगे नहीं बढती...'आज गर्मी है... 'लगता है बारिश होगी'...' आज तो मौसम अच्छा लग रहा  है..' बस..इसके आगे कुछ सूझता ही नहीं...
उस दिन भी सोच ही रही थी कि अगला वाक्य क्या कहे कि वीरेंद्र बोले..."कृष्णा जी नज़र नहीं आ रहीं....ये पत्रिका उनके यहाँ से लाई थी...लौटानी थी"

"कृष्णा के यहाँ से ?? " वो कुछ समझी नहीं.

"हाँ, वो बताया था ना आपको, एक मामा भी इसी शहर में हैं...वे कृष्णा जी के घर के पास ही रहते हैं...जब उनसे मिलने जाता हूँ...तो कृष्णा जी के यहाँ भी चला जाता हूँ."

"अच्छा....हाँ,मामाजी की बात तो आपने बतायी थी...कृष्णा के यहाँ की नही..."
"बस पांच-दस मिनट तो बैठता हूँ...क्या बताना  इसमें.."

"ओके .." कहने को तो उसने कह दिया...पर सोचती रही...एक-एक बात बताते हैं...और ये बात गोल कर गए...और कृष्णा ने भी नहीं बताया कुछ...जबकि  वीरेंद्रसे सम्बंधित तो हर बात बताती है...शिकायत ही सही...जिक्र तो रोज उनका  हो ही जाता है.
और करीब दो महीने बाद  जाकर, कृष्णा ने  एकदम कैजुअली कहा.." उस दिन वीरेंद्र घर आए तो बता रहे थे उनका कुक अब तक नहीं लौटा  गाँव से""
"वो तुम्हारे घर भी  जाते हैं?"
"अरे..कभी कभार...वो भी दस- पंद्रह  मिनट के लिए.."
"पर तुमने कभी बताया नहीं..."
"इसमें बताने जैसा क्या..था..."
"हाँ ये भी है......." कह तो दिया उसने पर सोचती रह गयी...वे दोनों   तो कॉलेज से सम्बंधित हर घटना का जिक्र एक दूसरे से जरूर करते थे. किसी प्रोफ़ेसर ने उसे लिफ्ट देने की  पेशकश की...या पहली बार हलो कहा...या किसी ने काम्प्लीमेंट  दिए....छोटी से छोटी कोई बात बताना नहीं भूलती पर वीरेंद्र  के घर पर आने वाली  बात, बतानी  उसने जरूरी नहीं समझी.

उसकी व्यस्तता बढती जा रही थी...और वीरेंद्र की नाराज़गी  भी. सारे खाली पीरियड्स ...स्टुडेंट्स के साथ मीटिंग्स...फेस्टिवल की तैयारियों  में निकल  जाते. डिपार्टमेंट में बैठना भी बहुत कम हो गया था उसका. कभी जाती तो देखती....वीरेंद्र, कृष्णा के पास की कुर्सी पर बैठे हैं. कभी कभी तो उसके हलो को भी नज़रअंदाज़  कर जाते. कृष्णा जरूर पूछती..."कितना बिजी रहने लगी हो.."
"अरे... पूछो मत...बस ये फेस्टिवल निकल जाए...तो चैन मिले."
"नहीं पसन्द, तो करती क्यूँ हैं... इतना काम..." अब वीरेंद्र फूटते
"करना पड़ता है...किसी को तो करना पड़ेगा ही ना...एंड आइ  एन्जॉय डूइंग इट "
"फिर शिकायत मत किया कीजिये...जरा विद्रूपता से कहा उन्होंने....उसे बुरा तो बहुत लगा...पर कुछ कह नहीं पायी "
ऐसा अक्सर लोग  कह जाते हैं...मनपसंद काम करने से भी थकान तो होती है...लेकिन लोग  उसके विषय में एक शब्द सुनना नहीं पसंद करते...अगर अपनी इच्छानुसार कोई काम करो तो फिर होठ  सी लो..दर्द पी लो...जुबान पे कुछ ना लाओ..वरना सुनने को मिलेगा..." किसने कहा ,करने को .

मन खिन्न हो आया. आजकल वीरेंद्र सिर्फ उसे इरिटेट करनेवाली  बाते ही किया करते थे. अक्सर सोचती..ये कृष्णा से उनकी इतनी कैसे बनने लगी?.आखिर किन विषयो पर बात करते हैं.?.क्यूंकि वीरेंद्र के पास तो कोई विषय ही नहीं थे और उसे लगता था ,कृष्णा बिलकुल उस जैसी थी......पर शायद दोनों की वेवलेंथ मिलती हो...एक जैसी पसंद नापसंद हो...

वीरेंद्र जरा थे भी भोंदू किस्म के  ..छोटे से कस्बे से ,कभी महिलाओं से ज़िन्दगी में बात की नहीं...और यहाँ पत्नी की सहेली की वजह से मिले अवसर का खूब  फायदा उठा रहे थे. प्रैक्टिकल क्लासेज़ में उनकी उपस्थिति अनिवार्य थी. पर वो भी लैब असिस्टेंट के भरोसे छोड़, यहाँ जमे रहते. उनसे सहानुभूति वश कोई सवाल नहीं करता. पर साइंस फैकल्टी के लोग उसे  ही सुना जाते, "अपने काम को तो सीरियसली लेना चाहिए ..आखिर रोटी वहीँ से मिलती है." उन्हें लगता,उसकी सिफारिश पर वीरेंद्र को यह लेक्चररशिप मिली है,तो कुछ जिम्मेवारी उसकी भी बनती है.
  वह क्या कह  सकती थी ? अब वीरेंद्र के बैठने की जगह भी बदल  गयी थी. पहले वे उसकी दायीं तरफ बैठते थे...कृष्णा से परिचय करवाया तो दोनों के बीच की कुर्सी पर बैठने लगे..अब देखती , कृष्णा की बायीं  तरफ  बैठते हैं...वो डिपार्टमेंट में आती ही कम...और जब आती भी तो देखती...साइकोलोजी वाली नीलिमा और संस्कृत पढ़ाने वाली शकुंतला जी भी बैठी हैं...और गप्पो के दौर चल रहें हैं...मुस्कराहट आ जाती,उसके  चेहरे पर...दोस्त बनाने से अरुचि रखनेवाले वीरेंद्र को महिला दोस्त बनाने से कोई परहेज नहीं था.

अब पता नहीं क्यूँ ,अपने डिपार्टमेंट में जा कर बैठना ,उसे अच्छा नहीं लगता. उनकी गप्पे चलती रहतीं... इंट्रूडर जैसा लगता. उसने स्टाफरूम में बैठना शुरू कर दिया. यहाँ ज्यादातर..इंग्लिश,हिंदी,, जोग्रोफी वाले प्रोफ़ेसर बैठते थे. पर सुखद आश्चर्य हुआ उसे ,पहले क्यूँ नहीं आई, इनके सान्निध्य में. बड़े नौलेजेबल लोंग थे. किसी किताब की यूँ मीमांसा करते कि वो मुग्ध सुनती रह जाती. बात-बात पे कोटेशन्स..गीता, रामायण..उपनिषदों से उद्धरण ...रोज ही कुछ नया सीखने को मिलता. स्वस्थ बहस भी होती..कभी-कभी तीखी भी पर एक दूसरे के विचारों का सम्मान करते सब. अपने विचार दूसरे पर थोपने की कोशिश नहीं करते.

फिर भी उसे अपने डिपार्टमेंट में तो जाना ही पड़ता. कृष्णा एक औपचारिक 'हलो' कहती.वीरेंद्र, अगर होते तो वो भी नहीं कहते. दूसरी तरफ देखते रहते. कभी सामने पड़ गए...तो वो 'नमस्ते' कह देती..और वे सिर्फ सर हिला कर चले जाते. अजीब लगता उसे. पर सोचने की फुरसत कहाँ थी..अब डिबेट्स के इनिशियल राउंड शुरू हो गए थे. उसमे पूरी तरह मुब्तिला थी वो. कभी- कभी उसकी क्लास भी छूट जाती. पर ऐसा तो हर वर्ष होता...वो बाद में एक्स्ट्रा क्लास ले सिलेबस पूरा कर देती.पर उसके कानो में कुछ  अजीब सी बात पड़ी...जब केमिस्ट्री  की रीमा कपूर ने कहा, ' "वीरेंद्र जी  आपके मित्र हैं ना..."
"हाँ..क्यूँ.."
"कुछ नाराज़ हैं क्या आपसे...?"
"नहीं तो..क्या हुआ.." उसे लग तो रहा  था,पर वो दुसरो के सामने क्यूँ स्वीकारे ये सब. 
"पता नहीं...कल आपको बहुत क्रिटीसाईज  कर रहें थे...कह रहें थे...'ये क्या बात हुई..क्लास में इतना शोर हो रहा है..कॉलेज में तो पढाना पहला धर्म होना चाहिए...ये डिबेट्स वगैरह ,सब तो ऑफ टाइम में होना चाहिए....आपकी सहेली  भी वहीँ थीं..."

"हम्म...होगा कुछ...मैं बात कर लूंगी ..चलूँ अभी...कुछ काम है " वो ज्यादा बढ़ावा  नहीं देना चाहती थी.

फिर तो अक्सर ही कोई ना कोई कह जाता...' वीरेंद्र जी इतना नाराज़ क्यूँ हैं,आपसे...आपके पढ़ाने के तरीके की बड़ी बुराई कर रहें थे कि उनकी क्लास में कितना शोर होता है..स्टुडेंट-टीचर का रिलेशन पता ही नहीं चलता...वे बहुत फ्रेंडली हो जाती हैं...स्टुडेंट के मन में हमेशा टीचर का डर होना चाहिए...और कृष्णा जी की बड़ी तारीफ़ कर रहें थे कि कितनी शान्ति होती है क्लास में...कोई शोर-शराबा नहीं...टीचर तो ऐसी होनी चाहिए"

" अब इसमें क्या कहा जाए...उन्हें कृष्णा का पढ़ाना अच्छा लगता होगा.." कह कर वो बात ख़त्म कर देती.

कृष्णा और उसका पढ़ाने का ढंग अलग  था . कृष्णा नोट्स बना कर ले जाती. क्लास में पढ़कर थोड़ा एक्सप्लेन कर चली आती.  स्टुडेंट्स खुश होते,बना बनाया नोट्स मिल जाता. जिसे रटकर वे परीक्षा में अच्छे नंबर ले आएँ. जबकि वो कोशिश करती कि बिना किसी नोट्स के पढाये...और विषय समझाने की कोशिश करे कि क्लास में ही कुछ तो उनके दिमाग में रह जाए. इस चक्कर में काफी सवाल जबाब होते और बाहर वालो  को लगता शोर हो रहा है.पर और किसी ने तो कभी शिकायत नहीं की.पता नहीं वीरेंद्र को उस से क्या प्रॉब्लम  हो गयी है. शायद उन्हें लगा वो जान-बूझकर इग्नोर कर रही है. पर सबकुछ तो सामने ही था .वो वीरेंद्र से तो  कुछ भी नहीं पूछ्नेवाली ..इतना कुछ किया है उनके  लिए ,उसका सिला जब वे ,ये दे रहें हैं ,तो क्या बच जाता है पूछने को. उनकी मर्जी.

पर उसने  कृष्णा से इसकी चर्चा करने की सोची.

कृष्णा ने छूटते  ही कहा.."क्या पता तुमलोगों के बीच क्या मिसअंडरस्टैंडिंग है . वीरेंद्र जी बहुत हर्ट हैं"

"अच्छा इसीलिए सब जगह मेरी बुराई करते चल  रहें हैं....और सब तो तुम्हारे सामने ही है ना...कैसी मिसअंडरस्टैंडिंग??...तुम्हे तो सब पता है, मैं बिजी रहने लगीहूँ.....उनसे ज्यादा बात नहीं कर पाती, अब " मन कसैला हो आया उसका. उसकी  इतने दिनों की सहेली भी बात समझने की कोशिश नहीं कर रही .

"अब मुझे क्या पता....तुम दोनों के बीच क्या हुआ है...कह रहे थे, सरिता जी अब बात नहीं करतीं...."

"अरे, तुम्हारे सामने तो कितनी बार हलो कहा है...और उन्होंने जबाब भी नहीं दिया...अजीब बात है...हाँ,बाद में मैने भी छोड़ दिया...मैं भी इतनी फालतू नहीं"

"अब मुझे क्या पता....और मुझे क्या मतलब इन सब बातों से....ये तुम दोनों के बीच की बात है....पर वे बहुत हर्ट हैं  "

"हम्म..ठीक  है जाने दो.." वो समझ गयी, जब वीरेंद्र उसकी प्रशंसा के पुल बांधते फिर रहें हैं तो उसे उनका कोई दोष कैसे नज़र आएगा. चाशनी का ड्रम ही सामने उंडेल दिया गया हो तो पैर तो वहीँ चिपक जाएंगे ना.

एक दिन क्लास लेकर निकली ही थी कि प्यून बुलाने आया..."प्रिंसिपल साहब ने आपको अपने ऑफिस में बुलाया है"

चौंक गयी वो.."अब तो फेस्टिवल ख़तम हो गए...अब कौन सा काम आ पड़ा"

प्रिंसिपल बड़े इत्मीनान में दिखे ,उसे बिठाया ,इधर-उधर की बातें करने लगे ....वो समझ नहीं पा रही थी उनके बुलाने का प्रयोजन क्या है...फिर अचानक उन्होंने पूछा, "आपकी किसी से कोई नाराज़गी कोई बहस हुई है क्या...?"

हम्म तो ये बात है..पर इन तक वीरेंद्र की बात किसने पहुंचाई होगी ?

उसे नकारात्मक सर हिलाते देख उन्होंने कहा.."ऐसी कोई सीरियस बात नहीं... एक इमेल आया है...उसमे आपके खिलाफ काफी बातें कही गयीं है...मैं  सोचने लगा, आप तो इतनी डेडिकेटेड हैं अपने काम के प्रति...किसे शिकायत होगी...कोई पारिवारिक दुश्मनी  तो नहीं...किसी से?"

पर मन काँप गया ,उसका.."कैसी बुराई...क्या कहा गया है?"

" खुद देख लीजिये....आइ डी  भी फेक सा ही लगता है कुछ 'वी' से है ."...कहते उन्होंने लैपटॉप उसकी तरफ कर दिया....एक नज़र देखा उसने, बचकानी बातें थीं..." सरिता तो प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने लायक भी नहीं....उन्हें कॉलेज में कैसे रख लिया आपने..पढ़ाने से ज्यादा उनका मन दूसरी चीज़ों में लगता है...वगैरह..वगैरह..." इतनी गलत अंग्रेजी लिखी थी कि उसे पढने में भी वितृष्णा सी हो रही थी. इस गलत अंग्रेजी और 'वी'  के इनिशियल ने उसका शक यकीन में बदल  दिया..ये वीरेंद्र ही थे..पर उसने कुछ कहा नहीं.

उसे विचार मग्न देख, प्रिंसिपल ने आश्वस्त किया.."इतनी चिंता की बात नहीं..मैने सिर्फ इसलिए बता दिया कि आप  सावधान हो जाएँ....क्या पता, आप जिन्हें दोस्त समझ रही हों...उनमे से ही कोई हो"..उनका अनुभव बोल रहा था.

"थैंक्यू सो मच सर...अगर और इमेल्स आएँ तो बताएं...फिर कोई एक्शन लेना पड़ेगा.."

"हाँ वो तो मैं खुद ही पता लगा लूँगा...बस आपको सावधान करने को यह बताया..."

फिर से  थैंक्स कहती वो बाहर चली आई....मन हो रहा था 'कंप्यूटर लैब में जाकर एकबार अपना मेल भी चेक कर ले...क्या पता उसे भी कुछ भला-बुरा कहा हो. पर वो लास्ट पीरियड था. क्लास रूम्स बंद होने शुरू हो गए थे. शैलेश टूर पर गए हुए थे ,वरना रात में उनके लैप टॉप पर ही चेक कर लेती...

अगर ये वीरेंद्र ही हैं..पर उनके सिवा और कौन होगा...तो कितनी बड़ी गलती की  उसने, उनसे  लैपटॉप खरीदने की सलाह देकर.....वीरेंद्र बिलकुल तैयार नहीं थे..."मुझे क्या काम...मुझे इसकी क्या जरूरत"
उसने समझाया था.."अकेलेपन का बढ़िया साथी है"...कहकर  इंटरनेट के सारे गुण उनके सामने गा डाले थे.

उन्हें कुछ नहीं आता था..उसे भी ज्यादा कहाँ पता था...पर उसने कम्प्यूटर टीचर ' करण दोषी ' से अपनी पहचान  का फायदा उठाया. कॉलेज फेस्टिवल के समय, स्पौन्सर्स से इमेल के  आदान-प्रदान का भार,उसने करण दोषी  पर ही डाल रखा था. हंसमुख और कर्मठ लड़का था, अपने ऑफिशियल काम से कितने ही इतर काम करने को हमेशा तैयार रहता था. वीरेंद्र  ने लैप टॉप  के उपयोग  की सारी जटिलताएं उस से सीख लीं, थीं.
दूसरे दिन पहला क्लास लेकर आई ही थी कि मिस्टर जुनेजा...भागते हुए उसके पास आए..."चलिए जरा आपको कुछ दिखाना है.."

उसने सोचा..."तस्वीरें होंगी...पर उन्होंने अपना मेल बॉक्स खोला...और वही मेल उनके इन्बौक्स में भी पड़ा था "
उसने बताया , कि प्रिंसिपल को भी ऐसा मेल भेजा जा चुका है...."कौन हो सकता है?"...उन्होंने पूछा...
"क्या पता..."
उसके जबाब पर वो खुद ही बोले..."मुझे तो वीरेंद्र साहब ही लगते हैं...आजकल नाराज़ चल रहे हैं आपसे..जिधर देखो..आपके गुण गाते चलते हैं.."
"अच्छा...आपको भी  पता चल गया..".हंस पड़ी वो..
"हम अपनी तस्वीरों की दुनिया में रहते हैं..पर यहाँ की खबर  हमें भी होती है..आपकी शान में कसीदे तो पढ़ते ही रहते हैं...और दूसरी महिला लेक्चरर्स के सामने तो जैसे अगरबत्ती, धूप जला,बस दंडवत को तैयार."
"ह्म्म्म..." 
"वो ठीक है...उनकी अपनी मर्जी...पर जरूरी है कि एक की  बुराई करके ही दूसरे की तारीफ़ की जाए?"
"यही तो मैं सोचती हूँ.....ठीक है...मेरे सारे काम में त्रुटियाँ हैं...पर उन्हें  क्या फर्क पड़ रहा है...मुझे मेरे हाल पर छोड़ दें,ना "
"तब मजा नहीं ना...जबतक दूसरों के लिए गाए  आरती -भजन आपके कानो में ना पड़ें..क्या मजा उनका...घंटी की टुनटुनाहट तेज करनी ही पड़ती  है..." मुस्कुराते हुए कहा मिस्टर जुनेजा ने.

उसे जोर की हंसी आ गयी...मिस्टर जुनेजा आगे बोले, "फ़िक्र ना करें....अगर ये फेक मेल भेजने वाली, हरकत जारी रही तो कुछ किया जाएगा."
"फ़िक्र कैसी....अगर वे नहीं संभले तो  तो असलियत तो सामने आ ही जायेगी "

और यही हुआ..धीरे-धीरे जो भी नेट पर सक्रिय थे ..सबके पास वो इमेल और उसके साथ ही उस जैसे कई इमेल्स पहुँचने लगे. पता नहीं कहाँ से सबके इमेल आइ.डी. भी पता कर लिए थे...उसने सोचा, 'दूसरा कोई काम तो है नहीं. खाली  दिमाग शैतान का घर...करे भी क्या. कोई जुगत लगाई होगी '

उसे भी इमेल्स  मिलते .पर वो तो डर कर घर पर चेक भी नहीं करती अगर शैलेश ने देख लिया तो फिर तूफ़ान मचा देंगे. वे चुप नहीं बैठने वाले. तुरंत ही आइ.पी. एड्रेस पता कर एक्शन ले डालते..और बेकार का कॉलेज में एक चर्चा का विषय बन जाता. सोच में पड़ गयी वह....घर से बाहर निकल कर काम करने वाली औरतों को कितना कुछ सहना पड़ता है..कैसी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है...और उसे वे  'मजबूर' घर में भी शेयर नहीं कर पातीं.

शायद उसकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया ना देख . वीरेंद्र की हताशा बढती गयी और उन्होंने करण दोषी को भी ऐसे मेल भेज दिए .करण तुरंत हरकत में आ गया... पच्चीस  साल का लड़का...जोश से भरा...कुछ नया करने को मिला. सीधा उसके पास आया...किसकी हरकत हो सकती है??...और उसने अपना शक बता दिया...वो तुरंत काम में लग गया.
क्लास लेकर निकल ही रही थी कि शकुंतला जी मिल गयीं....उनका फिर से वही प्रश्न.." वीरेंद्र जी  इतने  नाराज़ क्यूँ है आपसे..."

अब कहाँ से लाए वो कोई वजह...जो थी फिर से दुहरा दी. तभी पीछे से करण ने जोर से आवाज़ दी...."सरिता मैडम"

उसके कदम रूक गए.....शकुंतला जी को देख  कर थोड़ा हिचकिचाया..पर उसने कहा.."ये सब जानती हैं...बोलो क्या पता चला?"

"मैडम ये वही वीरेंद्र जोशी हैं ना ...उन्होंने अपनी  आइ.डी. मेरे सामने ही तो  बनाई थी...आप ही तो लेकर आयीं थीं...उन्हें.....दोनों आइ. डी . का आइ.पी.एड्रेस एक ही है..."
"ओह्ह.." बस इतना ही बोल पायी...शक तो उसे था ही...पर प्रमाण मिल जाने पर सच में एक बार चौंक गयी..शकुंतला जी के चेहरे पर भी आश्चर्य के भाव थे.

उसे चुप देख..करण बोल  पड़ा.
"ये क्या तरीका है...अगर नाराज़ हैं....कोई शिकायत है  तो सामने से बोलो ना.... यूँ फेक आइ.डी. बना कर पीछे से वार क्यूँ....मुझे तो बहुत गुस्सा आ रहा है.."

"बस बस...काबू  रखो गुस्से पर ...ये सब चलता रहता है....और थैंक्यू सो मच...इतना बड़ा काम किया आपने....चलो अपनी क्लास देखो..बाद में बात करते हैं.

शकुंतला जी ने सब सुना....पर बोला कुछ नहीं....उसने ही कहा..." देखिए बिना किसी बात के ...कितनी बात बढ़ गयी "

"अब क्या कहा जाए...गलत तो है ही ये सब "  बस इतना ही कहा उन्होंने. पर उसे संतोष था उनके सामने करण ने यह बात बतायी...अब तो कृष्णा,नीलिमा सबको पता चल जायेगा और उन्हें विश्वास भी करना पड़ेगा.

पर सबके ठंढे रिस्पौंस पर उसे बड़ा दुख हुआ. कृष्णा से भी उसे खुद  ही कहना पड़ा..." सुना ना तुमने....वो फेक इमेल वाले वीरेंद्र ही थे..."

"हाँ....जो भी हुआ बहुत गलत हुआ..." बस इतना ही कहा उसने.

वीरेंद्र  का उसके डिपार्टमेंट में आना बदस्तूर जारी था. अब सबको इमेल वाली  बात मालूम हो गयी थी..अकेले में सब इसकी निंदा कर गए थे पर वीरेंद्र से उसी गर्मजोशी से मिलते. हर्षल को भी देखती...बड़े प्यार से दूर से पुकारता..' कैसे हैं.. वीरेंद्र  स्साब" ऐसा लगता जैसे सब विशेष चेष्टा कर यह दिखाने को आमादा हैं कि उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता...

एक दिन स्टाफरूम में कोई नहीं था .... यही सब सोचते ,यूँ ही चुप सी बैठी थी. नज़र खिड़की के अंदर आ गए बोगनवेलिया के लतरों पर जमी थीं. मिस्टर कुमार के आने का  उसे पता ही नहीं चला...
"क्या हुआ भाई..यहाँ यूँ खामोशी से क्यूँ  बैठी हैं...आज ब्रश-वर्श  नहीं किया क्या.."
"मतलब.." वो अबूझ सा देखती रही
तो फिर बोले,"ओह! लगता है ब्रश करने गयी तो दाँत सिंक में ही गिरा आयीं...इसीलिए नहीं दिख रहें "
हंस पड़ी वो..."ओह, अब समझी...कैसी भूलभुलैया भरी बातें करते हैं..आप भी"
"हाँ... आप ऐसी ही हंसती हुई अच्छी लगती हैं..पर हुआ क्या..ऐसा मूड क्यूँ है आज.."
"कुछ ख़ास नहीं"
"अब बता भी दीजिये "
"आपने मेरी तारीफ़ में कसीदे नहीं सुने क्या...कोई मेरी तारीफ़ में पुलिंदे लिखे जा रहा है.."
"ना..वरना मैं भी कुछ अपनी तरफ से जोड़ देता...कौन हैं ये भलामानुष"
अब वो चुप नहीं रह सकी...और सब बता दिया कि कैसे वीरेंद्र हर जगह उसकी बुराई करते फिर रहें हैं..कैसे फेक इमेल भेज रहे हैं..सबको"
"पर वे तो आपके मित्र थे,ना..हुआ क्या "
"बताया ना...कहने को तो कुछ  भी नहीं हुआ"
"ओके... मैं बात करता हूँ "
"नोsssss    वेsss "..वो जैसे चिल्ला ही पड़ी.
"अरे..मैं अपने तरीके  से बात करूँगा..."
"नहीं प्लीज़.. कुमार....आप रहने दीजिये.." वो घबरा गयी थी..."क्यूँ जिक्र किया आपसे "
"मैं इधर आ रहा था तो उन्हें साइंस डिपार्टमेंट की तरफ जाते देखा है....बीच रास्ते में ही पकड़ता हूँ..वरना वे अकेले नहीं मिलेंगे...डोंट वरी....मैं  बड़े तरीके से बात करूँगा"
और  कुमार तो यह जा वह जा...वे थे ही इतने जल्दबाज .
वह मायूस सी बैठी रह गयी....यह क्या कर दिया उसने ...पता नहीं कुमार क्या बात करें और वीरेंद्र  क्या समझे कि उसने भेजा है...अब क्या कर सकती थी.एकदम उदास सी बैठी थी कि दस मिनट बाद ही कुमार वापस आ गए. वो गुस्से में भरी बैठी थी. पर कुमार तो हँसते हुए बगल की कुर्सी पर जैसे ढह से गए  और पेट पकड़ कर हंसने लगे.
उसने घूर कर देखा तो बोले, "बताता हूँ...."और फिर हंसने लगे .
उसका घूरना जारी रहा तो किसी तरह हंसी रोक बोले, "शांत देवी..शांत ..पर आप ये बताइये इन जनाब से आपकी दोस्ती कैसे हो गयी."
"कहाँ की दोस्ती...आपने ना कुछ सुना ना कुछ जाना और चल दिए...महान बनने..कहा क्या आपने उनसे?"
"मैने इतना ही पूछा कि आपको सरिता जी से क्या प्रॉब्लम है...आप उनको यूँ क्रिटीसाईज  क्यूँ करते फिर रहें हैं...तो वे तो ..वे तो..".कुमार फिर हंसने लगे....फिर हंसी थाम कर बोले ..."सॉरी टू से ..पर वे तो बिलकुल औरतों की तरह बात करते हैं...नाक फुला कर कहने लगे, 'सरिता जी ने मेरा अपमान किया है...मैने कहा ..'तो उनसे जाकर  क्लियर कीजिये...यूँ दुसरो से उनकी बुराई करने का और ये फेक मेल भेजने का क्या मतलब ...तो बोले 'मैंने किसी से कोई बुराई नहीं की ..बल्कि उन्होंने मेरी इन्सल्ट की है...मैं बहुत हर्ट हूँ...हा...हा.. ही इज नॉट वर्थ इट...यु आर बेटर ऑफ हिम...शुक्र मनाइए  जान छूटी..

"मैने हर्ट किया है.....कैसे भला....पूछा नहीं,आपने??"..आवाज़ तेज हो गयी थी,उसकी.

"अरे पूछना क्या...वे खुद ही भरे बैठे थे...कहने लगे...मुझे इग्नोर करती हैं....मुझे एवोयेड करती है...ये बहुत अपमानजनक है मेरे लिए...यही सब कह रहें थे....बाप रे..कैसे गाँव की औरतों की तरह नखरे के साथ बोलते हैं....मैं तो पांच मिनट ना झेल पाऊं ऐसे आदमी को...आपकी इनसे दोस्ती कैसे हो गयी...कई बार आपके डिपार्टमेंट में बैठे देखा है ,इन्हें .."

" इसीलिए तो कह रही थी..आपको कुछ पता नहीं...वे मेरे दोस्त नहीं उनकी पत्नी मेरी सहेली थी.." फिर उसने सारी कहानी बतायी.

तो कुमार हाथ झटक कर बोले ..."बस आपका काम ख़त्म हुआ...आपने अपना कर्तव्य निभाया.इसे यहीं  छोड़ दीजिये और जरा भी चिंता मत कीजिये...आपको पूरा कॉलेज  ज्यादा अच्छी तरह जानता है..वो भोंपू लेकर भी चिल्लाये ना..कोई असर नहीं होने वाला...चाय पीनी है..खूब मीठी सी ...यू विल फील बेटर "

"ना एम आलरेडी फिलिंग बेटर आफ्टर टाकिंग टु यू ..थैंक्स.अ मिलियन ."
'एनिटायीम..बस आप ब्रश करने जाएँ तो ध्यान रखें ..दाँत सिंक में ना गिरा दें..." और दोनों जोर से  हंस पड़े.
***
कुमार से बात करके सचमुच बड़ा हल्का हो आया मन. सच में इतनी तरजीह देने की क्या जरूरत...कितने दिन बोलेंगे. ये बस एक अटेंशन सीकर बेहवियर है. निगेटिव तरीके से ध्यान खींचने की कोशिश . वो कुछ रेस्पौंड ही नहीं करेगी तो खुद ही चुप हो जाएंगे और दोस्ती का क्या..शायद उसकी भूमिका यहीं तक थी...कृष्णा और वीरेंद्र की दोस्ती करवाने के लिए ही ईश्वर ने उसे चुना था. वीरेंद्र को यहाँ स्थापित करवाने और सबसे परिचय करवाने तक की जिम्मेवारी ही उसकी थी. . और अब उसकी जिम्मेवारी पूरी हुई,बस....कैसा गम.

फेस्टिवल  भी अब समाप्ति की ओर  था. सारे इवेंट्स अच्छी तरह संपन्न हो रहें थे. बीच-बीच में हल्की-फुलकी  गड़बड़ियां भी होती  रहीं . डिबेट्स में दूसरे कॉलेज के आए स्टुडेंट्स ने बड़ा हंगामा किया . उसके कॉलेज के सारे डिबेटर्स  को हूट कर दिया. फोर्थ इयर की ज्योति को इतनी अच्छी तरह तैयार किया था . गोल्ड मेडल कहीं जानेवाला नहीं था.पर उन लडको को देखते  ही वह घबरा गयी. काफी कुछ तो भूल ही गयी...जो बोला वो भी डर-डर के. सबको अच्छा नहीं लगा, उसके कॉलेज में आकर दूसरे कॉलेज के बच्चे मेडल  ले गए.पर अब क्या किया जा सकता है.

ऐसे ही  फैन्सी ड्रेस कम्पीटीशन का उसने और फिलौसोफी की मंजुला ने नया कांसेप्ट सोचा था. कोई स्टेज नहीं बनाया...कॉलेज कैम्पस में ही तरह-तरह के वेश धरे स्टुडेंट्स आते रहें. प्रिंसिपल ने दो पीरियड ऑफ देकर इस इवेंट को और्गनाइज़ करने की अनुमति दी थी.पर बच्चो  ने इतना एन्जॉय किया कि दो पीरियड की अवधि समाप्त हो जाने के बाद भी क्लास में नहीं गए. कैम्पस  में ही ही हाहा  करते रहें. जिन प्रोफेसर्स  की क्लास थी..उनलोगों ने थोड़ी नाराज़गी जताई...हालांकि एन्जॉय उनलोगों  ने भी कम नहीं किया.

आज अंतिम दिन था और प्राइज़ डिस्ट्रीब्यूशन  भी था. प्रिंसिपल ने प्रोग्राम की समाप्ति पर उसका अलग से उल्लेख कर उसे धन्यवाद कहा और भूरी-भूरी  प्रशंसा  की. वो तो इतना असहज महसूस कर रही थी कि सर भी नहीं उठा पायी.

सब अच्छी तरह संपन्न हो जाने के बाद अब जी-जान से छूटी पढ़ाई में जुटी थी. पूरे दिन लाइब्रेरी में या स्टाफ-रूम में बैठे नोट्स तैयार करती रहती. उस दिन क्लास ख़त्म हो जाने के बाद मंजुला ने मार्केट चलने का इसरार किया. उसे कुछ शॉपिंग करनी थी. वो बोली, "ठीक है चलो..जरा ये नोट्स और किताबें मैं डिपार्टमेंट में अपने लॉकर  में रख आऊं. "

डिपार्टमेंट तक पहुंची कि उसे ख्याल  आया, "अरे मोबाइल तो ..मेज पर ही छूट गया "
उसने मंजुला को अपना बैग ,,किताबे थमायी  और तेज कदमो से वापस लौट पड़ी. जब मोबाइल लेकर आई तो देखा, मंजुला दरवाजे के पास ही गंभीर मुद्रा में खड़ी है , उसने पूछा..तो उसे होठो पे अंगुली रख चुप हो सुनने का इशारा किया .

अंदर वीरेंद्र  की आवाज गूँज रही थी.."पता नहीं लोगो ने सरिता जी को इतना सर क्यूँ चढ़ा रखा है...किस बात की तारीफ़ कर रहें थे प्रिंसिपल...बटरिंग करती होंगी प्रिंसिपल की...पहले तो सारी जिम्मेवारी दे दी उन्हें...उन्हें ही क्यूँ??..और लोग  नहीं हैं, कॉलेज में...कृष्णा जी हैं...नीलिमा जी हैं..इतने एफिशिएंट लोंग हैं...कितना हंगामा मचा रहा..पूरे प्रोग्राम के दौरान...डिबेट का मेडल दूसरे कॉलेज वाले ले गए...फैन्सी ड्रेस वाले दिन देखा...कोई डिसिप्लीन  ही नहीं..कृष्णा जी एकदम शान्ति से सुचारू रूप से सब करवातीं. सरिता जी को ना तो पढ़ाने का ढंग है..ना क्लास में शान्ति रखने का.....एक काम भी उनका सही नहीं होता..फिर भी लोगो  को देखिए बिना वजह की तारीफ़ करते रहते हैं..."

"अरे जमाना ऐसा ही है....वीरेंद्र  जी" किसने कहा..ये देखने को कमरे के अंदर झाँका तो पाया, वहाँ  तो उसके सारे ही तथाकथित दोस्त भरे पड़े हैं..कृष्णा, शकुंतला जी, नीलिमा तो हमेशा की तरह थी हीं पर उसे आश्चर्य हुआ , मनीषा दी को देख. वे उसकी बड़ी दीदी की सहेली  थीं....उनसे घर जैसा रिश्ता था. हमेशा, उसे मेरी छोटी बहन कह लाड़ लगाती रहतीं. वे भी चुपचाप वीरेंद्र का ये अनर्गल  प्रलाप सुन रही थीं. एक शब्द नहीं कहा उन्होंने कुछ. भले ही ना कहतीं..पर कम से कम वहाँ से हट तो सकती थीं. यह सब सुनने की क्या मजबूरी थी,उनकी? उतना ही आश्चर्य हर्षल को देख भी हुआ. नया -नया उसके हिस्ट्री डिपार्टमेंट  आया था. उसे दीदी कहते उसकी जुबान नहीं थकती . उसका सबसे बड़ा खैरख्वाह बनता था .इतना एग्रेसिव था ,किसी से भी लड़ पड़ने को तैयार. कितनी बार रोका था उसे. और यहाँ, वह भी सब चुपचाप सुन रहा  था.

उसकी आँखे झलझला  आई थीं. मंजुला ने महसूस किया और उसका हाथ पकड़ कर बोली.."चलो..यहाँ से चलते हैं"
उसके लाख मना करने पर भी उसे शॉपिंग  के लिए ले गयी..."अरे मूड ठीक होगा..घर जाओगी तो यही सब सोचते बैठोगी. घर पर कोई है भी नहीं...कि ध्यान बंटेगा..चलो मेरे साथ."

  हँसते-बतियाते..ढेर सारी शॉपिंग की....उसे भी लगा ..अब वो नॉर्मल  है सब भूल गयी है. पर घर की तरफ आते ही जैसे बाँध  की पानी की मानिंद  उन बातों का सैलाब उमड़ पड़ा....और थके-बोझिल कदमो से उसने दरवाज़ा खोल अंदर कदम रखा.

खिड़की के पास खड़ी ...उन्ही बातों के बहाव के साथ मन हिचकोले ले रहा  था .बिजली अभी तक नहीं आई थी.लगता था कुछ मेजर ब्रेकडाउन हो गया है. बाहर फैला घना अँधेरा उसके अंदर भी फैलता जा रहा था. सामने शर्मा जी के बंगले का चौकीदार अपनी लाठी ठक-ठक करता हुआ गेट के पास बैठ गया था.अब पता था वो ऊँची वाल्यूम में अपना ट्रांजिस्टर ऑन करेगा. और अगले ही पल फिजा को गुंजाते हुए  स्वरलहरियां फ़ैल गयीं..गाना बज रहा था,

"कसमे वादे प्यार वफ़ा
सब बातें हैं बातों का क्या
कोई किसी का नहीं
ये रिश्ते नाते हैं, नातों का क्या"

वो ऐसे चौंक उठी जैसे उसकी  ही चोरी पकड़ ली हो किसी ने...उसके मनोभाव का इन गाना प्ले करने वालों  को कैसे चल गया? क्या सचमुच ऐसी ही है दुनिया...ये रिश्ते-नाते क्या कच्चे बखिए से हैं...बिन प्रयास के ही उधड़ जाते हैं. कैसे किसी पर विश्वास करे....हर चेहरे के अंदर एक चेहरा है...जबतक नकाब पड़ी रहें तभी तक दुनिया ख़ूबसूरत है...उसे लगता था ..सबकुछ देख -जान चुकी है...अब कुछ भी बाकी नहीं..दुनिया के हर पैंतरे से वाकिफ है वह... पर इतना  कुछ देखने के बाद भी कितन कुछ अनदेखा -असमझा बाकी रह जाता है...

अनायास ही उसकी नज़र आकाश की तरफ उठ गयी. सुदूर कोने में एक मध्यम सा तारा था . उसकी नज़र पड़ते ही झिलमिलाया ,लगा उसने आँखे झिपझिपा कर हामी भरी हो.

77 comments:

vandana gupta said...

सच कहा …………सब रिश्ते कच्चे बखिये से उधड जाते हैं जिन्हे भी हम अपना समझते हैं और ये सब हमे बहुत देर से समझ आता है आज हर चेहरे पर एक नकाब ही तो है असली चेहरे अब कहाँ मिलते हैं इसी पर एक रचना लिखी हुयी है कभी लगाऊँगी तब पढना लगेगा जैसे इसी कहानी के लिये लिखी गयी है।

मनोज कुमार said...

संबंधों की निजता और उष्णता आज के दौर-दौरा में हम गंवा रहे है, इसका संकेत इस कहानी का देय है और यह चेतावनी भी कि जो खोया जा चुका है, उसे वापस नहीं लाया जा सकता। एक दम सहज और बिना किसी आवेग के चलती यह कहानी अंततः अपने पाठक को एक गहरा चिंतन आवेग सौंपती है जिसके स्पंदन से पाठक बच नहीं पाता।

कहानी द्वारा कोई बना-बनाया निर्णय पाठकों को नहीं थमाना चाहिए, बल्कि पाठक को एक मद्धिम आंच देता हुआ विचार नियामक सौंप दिया जाए, इस नीति का पालन करते हुए आपकी यह कहानी कोई ठोस निर्णायक उपसंहार देकर समाप्त नहीं होती बल्कि पाठक के हिस्से यह बेचैनी छोड़ कर चुप हो जाती है।

कहानी में तल्ख़ वास्तविकता – को सहज ढ़ंग से बेपर्द तो किया गया है पर घिस चुके रिश्ते के उधरे बखिए पर पैबंद लगाने की कोशिश नहीं की गई है, यह जंचा।

मनोज कुमार said...

और हां, ... जहां
“will be visible after blog owner approval.”
होता है वहां मैं
“बहुत अच्छी प्रस्तुति लिखता हूं।”

rashmi ravija said...

मजबूरी है,मनोज जी...ताकि पाठकों का ध्यान भटक किसी बेकार की बहस में ना उलझ जाए...दूसरे ब्लॉग पर मॉडरेशन हटा कर भी देखा....यूँ कोई कुछ नहीं लिखता पर मॉडरेशन हटाते ही एक टिप्पणी टपक पड़ती है. एक साल तो निकाल लिया बिना मॉडरेशन के पर अंततः लगाना ही पड़ा. :(

कविता रावत said...

"मैने इतना ही पूछा कि आपको सरिता जी से क्या प्रॉब्लम है...आप उनको यूँ क्रिटीसाईज क्यूँ करते फिर रहें हैं...तो वे तो ..वे तो..".कुमार फिर हंसने लगे....फिर हंसी थाम कर बोले ..."सॉरी टू से ..पर वे तो बिलकुल औरतों की तरह बात करते हैं...नाक फुला कर कहने लगे, 'सरिता जी ने मेरा अपमान किया है...मैने कहा ..'तो उनसे जाकर क्लियर कीजिये...यूँ दुसरो से उनकी बुराई करने का और ये फेक मेल भेजने का क्या मतलब ...तो बोले 'मैंने किसी से कोई बुराई नहीं की ..बल्कि उन्होंने मेरी इन्सल्ट की है...मैं बहुत हर्ट हूँ...हा...हा.. ही इज नॉट वर्थ इट...यु आर बेटर ऑफ हिम...शुक्र मनाइए जान छूटी..

"मैने हर्ट किया है.....कैसे भला....पूछा नहीं,आपने??"..आवाज़ तेज हो गयी थी,उसकी.
... prabhavpurn dhang se aapne kahani ke madhyam se vartmaan parivesh ke bakhubi chitran kiya hai...
aam bolchal mein english ke shabdon ka swabhwabik prayog kahane mein sahaj roop mein hua hai, jo vastitkta character ke bahut nikat pahuchakar man ko udelit karta hai...

प्रवीण पाण्डेय said...

कहानी लम्बी थी, पढ़ डाली। पता नहीं, कभी कभी क्यों संदेह सा होता है कि किसी जीवन से जुड़ी है यह।

मुकेश कुमार सिन्हा said...

kahani lambi hai lekin damdaar...:)

rishto pe ek umda rachna...

Sarika Saxena said...

कहानी पूरी पढ़कर एक लम्बी सांस लेने के बाद सोंच रहे हैं सही लिखा है आपने दुनिया ऐसी ही होती है....

shikha varshney said...

सचमुच कच्चे बखिए से ही होते हैं रिश्ते.एक धागा खींचा और बस उधड़ जाते हैं.

उपेन्द्र नाथ said...

रश्मि जी कहानी बहुत ही इंटरेस्टिंग है. कभी कभी रिश्तों को समझाना बहुत ही मुश्किल हो जाता है. जैसा की विरेन्द्र को लेकर है उन्हें इतना झेलने की जरूरत सरिता को नहीं थी तथा ऐसे आदमी से पहले ही दूरी बना लेनी चाहिए थी. मगर एक बात है की किसी के इग्नोरेंस और नेगटिव वे को अगर उत्तर न दिया जाय तो कुछ दिन में वाह खुद ही शांत हो जाता है. मेरे एक दोस्त के इ मेल पर काफी नेगटिव मेल आ रहे थे इसलिए वो बहुत परेशान था. मगर जब उसने इस मेलों को देखना और रिएक्ट करना बंद कर दिया तो अपने आप ही सब कुछ शांत हो गया.

वन्दना अवस्थी दुबे said...

आज दोनों अंक एक साथ पढे. सुन्दर मनोवैज्ञानिक कथा. होता है, कई बार ऐसा होता है, कि हम जिसे अपने बहुत नजदीक समझते हैं, वही उस रिश्ते को अपमानित करने लगता है.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

यह पूरी कहानी एक पात्र की सोच पर आधारित है ...सरिता ने जिस रूप में भी जिससे मित्रता की या जो भी उसने सोचा , यह उसका अपना दृष्टिकोण है ...सरिता की नज़र से देखें तो यह कहानी सरिता के मन में उठी भावनाओं का ज्वार है ...और अपनी ही सोच से रिश्तों के कच्चेपन को भी उसने महसूस किया है ...
अंत में पाठक के मन में कई सवाल उठते हैं ...

तल्खी के साथ आम बोल चाल की भाषा प्रभावित करती है ..

वाणी गीत said...

हाँ ...मेरे सोचे से कुछ अलग था ...
मगर दुनिया की इस कडवी हकीकत को मैंने बहुत करीब से बार -बार देखा है, वास्तविक दुनिया में भी और आभासी में भी ...

कुछ दोस्त कहलाने वाले तो ऐसे भी होते हैं की यदि आप उनके सामने अपनी ख़ुशी बांटते हुए छोटी सी उपलब्धि बता दें , तो खुश होने के बजाय वे झट से अपनी महान गाथा दुहराने लगते हैं ...सोचना पड़ता है कई बार की क्या वाकई ये दोस्त कहलाने लायक है ...किसी को अपना मित्र कह कर मिलवाओ तो वे उसे आपका दुश्मन बना कर ही मानते हैं ...

होता है ...होता है , ऐसा भी होता है !
बहुत अच्छी कहानी , बिलकुल दिल के करीब से निकली , दिल तक पहुंची ..!

रश्मि प्रभा... said...

eksaath puri kahani padh gai... rishte ughadte jate , per is kahani ne mujhe baandhe rakha...

Patali-The-Village said...

बहुत अच्छी कहानी , बिलकुल दिल के करीब से निकली|

इस्मत ज़ैदी said...

रश्मि जी ,
कैसे लिख लेती हैं आप ऐसा ??
मैं तो २ लाइन के बाद ही सोचने लगती हूं कि अब क्या लिखूं?
पूरी कहानी पाठक को बांध कर रखती है ,
हां ऐसे लोग भी होते हैं ,पर दूसरी ओर वे भी हैं जो नायिका की सहायता करते हैं , वो भी निस्वार्थ भाव से ,
इस संसार में सब तरह के लोग होते हैं,हमारा अनुभव कैसा रहा ये निर्भर करता है
बधाई !

सतीश पंचम said...

जिस तरह उदय प्रकाश की लंबी कहानियाँ अपने नैरेशन और मानवीय रिश्तों की उधेड़बुन को लेकर एक कसाव लिये रहती हैं, ठीक उसी तरह का अनुभव होता है इस कहानी को पढ़ते हुए।

शानदार कहानी है।

Avinash Chandra said...

क्या कहानी लम्बी थी?
पढने के बाद नापना पड़े तो 'कहानी' थी.
नापने के बाद पढनी पड़े तो 'लम्बी कहानी' थी.
ये मेरे लिए 'अच्छी कहानी' थी.

शुक्रिया!
इस बार इन्तजार नहीं करना पड़ा.

Sadhana Vaid said...

बहुत असरदार कहानी रही रश्मि जी ! बहुत पसंद आई ! दुनिया में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो दूसरों की सज्जनता, सहृदयता और सद्भावना को सीढ़ी बना अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ती करना चाहते हैं ! उन्हें दूसरों की सहायता के बिना अपने बलबूते पर दो कदम भी चलना नहीं आता या यूँ कहिये कि गवारा नहीं होता ! ऐसे में सामने वाला यदि किसी जेनुइन समस्या के चलते कभी मनवांछित सहयोग ना दे पाये तो वे आगबबूला हो जाते हैं और ज़माने भर में अपने दोस्त की आलोचना और निंदा कर उसे बौना साबित करने में जी जान से जुट जाते हैं ! बाकी तथाकथित सतही 'दोस्त' मुफ्त के इस ड्रामे का रसास्वादन चटखारे ले ले कर करते हैं ! आपकी कहानी के सभी पात्र वास्तविक लगते हैं और उनकी भावनाओं का चित्रण बहुत ही सजीव और स्वाभाविक है ! यही इस कहानी की सफलता का परिचायक है ! मैं कुछ देर से पहुँच पाई ! इसलिए क्षमाप्रार्थी हूँ ! लेकिन कहानी सीधे दिल में उतर गयी ! इतनी सुन्दर प्रस्तुति के लिये आभार एवं शुभकामनायें

ज्ञानचंद मर्मज्ञ said...

संबंधों में सहजता और विश्वास दोनों का होना जरुरी है !
कभी कभी इसे समझ पाना और निर्वाह करना कठिन हो जाता है !
मानवीय रिश्तों की बड़ी ही सूक्ष्मता से पड़ताल करती है यह कहानी !
नव वर्ष मंगलमय हो !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

@ .मनपसंद काम करने से भी थकान तो होती है...लेकिन लोग उसके विषय में एक शब्द सुनना नहीं पसंद करते...अगर अपनी इच्छानुसार कोई काम करो तो फिर होठ सी लो..दर्द पी लो...जुबान पे कुछ ना लाओ..वरना सुनने को मिलेगा..." किसने कहा ,करने को .
सही बात

@ ..छोटे से कस्बे से ,कभी महिलाओं से ज़िन्दगी में बात की नहीं...और यहाँ पत्नी की सहेली की वजह से मिले अवसर का खूब फायदा उठा रहे थे.
जाण दीजिए! छोटे क़स्बे वाले भी खूब बातें करते हैं। एकाध ही ऐसे होते हैं जो हरकतों से बदनाम कर दिया करते हैं।

@ यहाँ ज्यादातर..इंग्लिश,हिंदी,, जोग्रोफी वाले प्रोफ़ेसर बैठते थे. पर सुखद आश्चर्य हुआ उसे ,पहले क्यूँ नहीं आई .....अपने विचार दूसरे पर थोपने की कोशिश नहीं करते.
जाने क्यों यह जगह अपनी देखी हुई सी लगती है।

@दोषी,जुनेजा,कुमार,हर्षल - इंटरेस्टिंग लगे यह लोग।

@उसे लगता था ..सबकुछ देख -जान चुकी है...अब कुछ भी बाकी नहीं..दुनिया के हर पैंतरे से वाकिफ है वह... पर इतना कुछ देखने के बाद भी कितन कुछ अनदेखा -असमझा बाकी रह जाता है..
सही कही।

इतने पात्रों को सँभालने की कला सबको नहीं आती। बढ़िया कहानी।

smshindi By Sonu said...

NAYA SAAL 2011 CARD 4 U
_________
@(________(@
@(________(@
please open it

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/”**I**”/
/ “MISS” /
/ “*U.*” /
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“LOVE”
“*IS*”
”LIFE”
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/ “LIFE” /
/ “*IS*” /
/ “ROSE” /
@======@
“ROSE”
“**IS**”
“beautifl”
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/”beautifl”/
/ “**IS**”/
/ “*YOU*” /
@======@

Yad Rakhna mai ne sub se Pehle ap ko Naya Saal Card k sath Wish ki ha….
मेरी नई पोस्ट पर आपका स्वागत है !

प्रेम सरोवर said...

नववर्ष-2011 की हार्दिक शुभकामनाएं। ऱिश्तों की खुशबू अब मन को नही भाती है। इसका रूप शैली और अंदाज सब कुछ बदलता जा रहा है। इन परिवर्तित परिस्थतियों को समझने में हमें देर हो जाती है तब ये रिशते दर्द का अनुभव करा जाते हैं। अच्छा पोस्ट। सादर।

रवि धवन said...

कितने अजीब रिश्ते हैं यहां पे...।
हर चेहरे के अंदर एक चेहरा है...जबतक नकाब पड़ी रहें तभी तक दुनिया ख़ूबसूरत है...
यही सत्य है और कुछ भी नहीं।

और हां दीदी, ऐसी स्थितियों से डरना नहीं बल्कि और ज्यादा खुश होना चाहिए। खुश रहने दो ऐसों को...। रब की मेहर से अच्छा हुआ टाइम पर पता चल गई असलियत।
मेरे हिसाब से तो अब कहानी के पात्र को अगली शाम काली काफी में खूबसूरत रस तलाशने चाहिए अपने बच्चों के साथ।

पर मैं बहुत दुखी हूं, आपका ब्लॉग मेरे यहां अपडेट नहीं हो रहा। क्या किसी ने कुछ छेड़छाड़ की या तकनीकी खामी। मगर अभी तो टेंशन में ही हूं।

सहज समाधि आश्रम said...

आपके जीवन में बारबार खुशियों का भानु उदय हो ।
नववर्ष 2011 बन्धुवर, ऐसा मंगलमय हो ।
very very happy NEW YEAR 2011
आपको नववर्ष 2011 की हार्दिक शुभकामनायें |
satguru-satykikhoj.blogspot.com

उम्मतें said...

@ संगीता स्वरुप जी ,
अगर पूरी कहानी एक पात्र सरिता की सोच पर आधारित है तो बाकी के पात्रों की भूमिका/संवाद /क्रियाकलाप/प्रतिक्रियायें भी इसी पात्र की ख्याली उपज होना चाहिए ? है ना ?
वैसे हम तो सोचते थे कि कहानी और उसके पात्र ,कहानीकार की सोच या उसके भोगे हुए यथार्थ की देन होते हैं :)
तो क्या सरिता जी ?

@ गिरिजेश जी ,
आपने इतना सारा कह डाला कि अब मैं क्या कहूं चिंता में पड़ गया हूं ? :)

@ रश्मि जी ,
देर से आने के लिए खेद पर कहानी बड़ी जानी पहचानी सी लगी ! सरिता को रिश्तों की समझ देर से हुई पर हुई तो सही ! मेरे ख्याल से पत्नी के बिछोह से पीड़ित वीरेंद्र के इरादे नेक नहीं थे और सरिता से सतत नैकट्य की असफलता ने उसे खलनायकत्व प्रदान कर दिया है ! सरिता द्वारा ठुकराए जाने से आहत होकर ही वो विषवमन कर रहा है ! कृष्णा की चाटुकारिता करते हुए वो एक (मनोवैज्ञानिक चाल) पासा फेंकता है और साथ ही फेक आई डी से सरिता को नीचा दिखाने की कोशिश भी करता है ! लेकिन ...सच कहूं तो इस गेम में वो केवल कृष्णा का स्तुति गान करने वाला क्रीत दास बन कर ही रह जाता है इसलिए उस पर दया की जाना चाहिए !
अब बात कृष्णा की ,पता नहीं क्यों आपने इस कैरेक्टर को दागदार नहीं किया ,व्यक्तिगत रूप से कहानी पढते हुए ये चरित्र मुझे बड़ा ही वैम्पिश लगा ! कुछ ऐसा कि जिसे दोस्तों के बजाये , अगरबत्तियां घुमाने / घड़ियाल बजाने / घृत / सिन्दूर आफर करने वाले चारण ही रास आते हों ? दोस्तों की संगति में आलोचनाएं भी सुनना होती हैं जिन्हें बर्दाश्त करना उसका मूल स्वाभाव नहीं लगता !
इस कहानी के ज्यादातर महिला पात्र यशकामी और सेफ गेम खेलने वाले लगे :)
वीरेंद्र को छोड़ कर कहानी के शेष पुरुष पात्रों को काफी सकारात्मक शेड में रखा है आपने ? :)

फिर भी ...मेरा ख्याल है कि कहानी को ओवर आल पांच स्टार दिए जा सकते हैं :)

फ़िरदौस ख़ान said...

रश्मि जी
क़ाबिले-तारीफ़...रिश्ते बहुत नाज़ुक होते हैं...उन्हें संभालकर रखना पड़ता है.... कहानी मन को छू गई...

Er. सत्यम शिवम said...

रिश्ते होते ही है ऐसे.....
नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाए...

*काव्य- कल्पना*:- दर्पण से परिचय

*गद्य-सर्जना*:-जीवन की परिभाषा…..( आत्मदर्शन)

एस एम् मासूम said...

बहुत सही कहा है आपने...आज यह प्लास्टिक smile के ज़माने मैं , सब कुछ बदलता रहता है.जिसे दोस्त समझो वो बदल जाता है, जिसे अपना समझो वो दूर चला जाता है..

निर्मला कपिला said...

रश्मि इस पर मनोज जी से अच्छा कोई कमेन्ट नही म्है उसे मेरा ही कमेन्ट मानो दिन पर दिन कमाल कर रही हो कहानियों मे। लाजवाब सुन्दर कहानी के लिये बधाई। कहानी का नाम कहानी की विषयवस्तु को साबित करता है। कच्चे बखिये से रिश्ते---- काश कि रिश्ते ऐसे न होते। अगर देखा जाये तो असल ज़िन्दगी मे ऐसे ही होते हैं रिश्ते हम कहानी के लिये भले ही सकारात्मक कर लें। मनोज जी ने सही कहा कि
कहानी में तल्ख़ वास्तविकता – को सहज ढ़ंग से बेपर्द तो किया गया है पर घिस चुके रिश्ते के उधरे बखिए पर पैबंद लगाने की कोशिश नहीं की गई है, यह जंचा।
बधाई इस कहानी के लिये।

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

रविता जी, मन सम्‍बंधों को आपने बहुत ही सार्थक तरीके से कहानी में पिरो दिया। हार्दिक बधाई।

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पति को वश में करने का उपाय।

स्वप्न मञ्जूषा said...

प्यारी रश्मि,
कहते हैं हर कहानी किसी घटना से जन्म लेती है....यहाँ भी शायद ऐसा ही कुछ प्रतीत होता है...मैं मनोवैज्ञानिक नहीं हूँ लेकिन जीवन की तल्खियों से कुछ ज्यादा ही गुज़र चुकी हूँ...और एक ही सीख सीखा है...ख़ुद की नज़रों में स्वयं को बचाए रखना...बाक़ी दुनिया जाए भाड़ में...ईश्वर की बड़ी कृपा रही है...मैं ख़ुद से आँखें मिला कर बात कर पाती हूँ...जहाँ तक हो सके मैं संबंधों की शुरुआत सामनेवाले को १०००% देकर करती हूँ...अब ये सामनेवाले पर है की वो उसे ५००० % कर ले या कि (-)१०००%...अपना काम है ईमानदारी से रिश्ता निभाना, जहाँ तक हो सके...
वैसे भी कोई भी रिश्ता कम से कम दो लोगों के बीच होता है...और हर रिश्ते पर दोनों को काम करना पड़ता है...दोस्ती करना बहुत आसान है..लेकिन निभाना आग का दरिया है...वैसे भी जहाँ मानसिकता नहीं मिलती वहाँ रिश्ते निभाये नहीं जाते हैं...रिश्ते ढोए जाए हैं...
ये वीरेंद्र, कृष्णा, हर्षल जैसे लोग हर किसी के जीवन में आते हैं...और आते ही रहेंगे...बिना रीढ़ के लोगों से सम्बन्ध बचा कर भी क्या करना है...
कहानी बहुत सुन्दर लगी...कहीं अन्दर तक छू गई हैं....सच कहूँ तो कुछ सीख ही दे गई है....होशियार रहने की...

P.N. Subramanian said...

बहुत सुन्दर लेकिन बहुत लम्बा खिंच गया. हम जब चावल की बोरी (२५ किलो वाली) लाते हैं, उस्की सिलाई पल भर में उधड जाती है. बस एक सिरा खींचो.

Dimple Maheshwari said...

जय श्री कृष्ण...आप बहुत अच्छा लिखतें हैं...वाकई.... आशा हैं आपसे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा....!!

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

सचमुच बहुत नाजुक होते हैं रिश्‍ते, इनके जोड़ों की मजबूती को कहानी में बडे सलीके से गूंथ दिया है आपने। बधाई।


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ज्‍योतिष,अंकविद्या,हस्‍तरेख,टोना-टोटका।
सांपों को दूध पिलाना पुण्‍य का काम है ?

amrendra "amar" said...

bakhubi bayan kiya hai risto ko ............http://amrendra-shukla.blogspot.com

SATYA said...

बहुत सुन्‍दर.

Akhilesh pal blog said...

sundar kahaani

केवल राम said...

मनोविज्ञान के धरातल पर रची गयी कहानी का कथानक अत्यंत सशक्त है ..पात्र सयोजन और संवाद इस कहानी को जीवंत बनाते हैं ..कुल मिलाकर कहानी के तत्वों पर आपकी कहानी खरी उतरती है .......लेकिन भाषा को पात्र अनुकूल बनाये रखना ...शुक्रिया आपका

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

सचमुच बहुत नाजुक होते हैं रिश्‍ते

DR. ANWER JAMAL said...

Nice post.
यदि आप 'प्यारी मां' ब्लॉग के लेखिका मंडल की सम्मानित सदस्य बनना चाहती हैं तो कृपया अपनी ईमेल आई डी भेज दीजिये और फिर निमंत्रण को स्वीकार करके लिखना शुरू करें.
यह एक अभियान है मां के गौरव की रक्षा का .
मां बचाओ , मानवता बचाओ .
http://pyarimaan.blogspot.com/2011/02/blog-post_03.html

मुकेश कुमार सिन्हा said...

udharte reeshte ki dastaan..:)

vijaymaudgill said...

rashmi ji kahani bahut hi sundar hai aur uske liye apko bahut bahut badhai. pata nahi jo kehne laga hu vo sahi hai ya galat. par main comment ko sirf tipni matr hi nahi karna chahta hu isliye keh raha hu.

apki kahani main pravaaah hai jo kahani ko lambi hone k bavjood dheela nahi parne deti aur uske sath-sath mujhe jo feel hua vo ye hai ki kahani main kush shades aur hone chahiye the. dosra jab sarita end main saari baat-cheet sunti hai aur uski dost use vaha se le kar chali jati hai to yaha kush aur hona chahiye tha. jana matr kahani k end k liye mujhe kaafi nahi laga. aise to centre kirdaar bhatakta hi reh jayega. jo shuru se hi bhatak raha hai. kush aur bhi hai mere maan main par mujhe kehna nahi aa raha hai.

agar kush galat likha gaya ho to maffi chahta hu. par as a reader mere andar jo vichaar aya kahani ko parh kar maine keh diya. shukriya

mukti said...

दी, आज पूरी कहानी पढ़ी तो 'उस' पूरे प्रसंग का भी पता चल गया. कभी-कभी मैं भी खुद को ठगा सा महसूस कर चुकी हूँ, जब अपने ही किसी साथी को पीठ पीछे अपनी बुराई करते हुए पाया है. ऐसा हॉस्टल के दिनों में खूब होता था. कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो बात करने पर सिर चढ़ जाते हैं और ज़रा सा भी इन्गोंर करने पर दुश्मन बनकर बुराइयाँ करने लगते हैं.
कहानी के शिल्प पर गिरिजेश जी और अली जी पहले ही बहुत कुछ कह चुके हैं. मेरे ख्याल से कहानी में ज्यादातर लोगों को अपनी आपबीती दिखाई दी होगी. आपकी यही तो विशेषता है :-)

Udan Tashtari said...

अब थोड़ा नार्मल हो रहे हैं ...आते हैं.

वृक्षारोपण : एक कदम प्रकृति की ओर said...

डॉ. दिव्या श्रीवास्तव ने विवाह की वर्षगाँठ के अवसर पर किया पौधारोपण
डॉ. दिव्या श्रीवास्तव जी ने विवाह की वर्षगाँठ के अवसर पर तुलसी एवं गुलाब का रोपण किया है। उनका यह महत्त्वपूर्ण योगदान उनके प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता, जागरूकता एवं समर्पण को दर्शाता है। वे एक सक्रिय ब्लॉग लेखिका, एक डॉक्टर, के साथ- साथ प्रकृति-संरक्षण के पुनीत कार्य के प्रति भी समर्पित हैं।
“वृक्षारोपण : एक कदम प्रकृति की ओर” एवं पूरे ब्लॉग परिवार की ओर से दिव्या जी एवं समीर जीको स्वाभिमान, सुख, शान्ति, स्वास्थ्य एवं समृद्धि के पञ्चामृत से पूरित मधुर एवं प्रेममय वैवाहिक जीवन के लिये हार्दिक शुभकामनायें।

आप भी इस पावन कार्य में अपना सहयोग दें।
http://vriksharopan.blogspot.com/2011/02/blog-post.html

Tamil Home Recipes said...

Very very good blog is yours.

निर्मला कपिला said...

रिश्तों का ताना बाना जब मजबूती से न बुना जाये तो उधद ही जाते हैं। लोगों की फितरत को दर्शाती कहानी बहुत अच्छी लगी आज पूरी पढी कुछ रह गयी थी पहले। बधाई।

sumeet "satya" said...

aaj ki sacchayi hai aap ki ye kahani.....badhiya

जयकृष्ण राय तुषार said...

रश्मि जी बहुत सुंदर पोस्ट |आप जो कुछ लिखती है रोचक लगता है |बधाई

Ravi Rajbhar said...

bahut khoob...
pura nahi padh paya ... jitna padha dil ko bha gaya, kal pura padhunga.

Rajeysha said...

बहसबाजी में नहीं पड़ना चाहि‍ये, कहानी को कहानी की तरह लेना चाहि‍ये, अपने जीवन की कहानी से तुलना नहीं करनी चाहि‍ये।

Unknown said...

वाह.. रश्मि जी... पढ़कर निःशब्द रह गया.. जीवन और रिश्तों के सच को जिस सहज तरीके से आपने सामने रखा है, लाजवाब है.. बहुत सहज-सरल शब्दों में इतना कुछ लिख डाला आपने..
सच कई बार जीवन में ऐसा देखने को मिल जाता है, जब बहुत से भरोसेमंद रिश्ते चटकते से लगते हैं, और भावनाएं दरकती सी लगती हैं..
यह इस भागती -दौड़ती ज़िन्दगी का ठहरा हुआ सच है..

VIVEK VK JAIN said...

pahli baar blog per aya aur ek hi baar me poori kahani padh gya.....bahut hi achhi lagi.

Smart Indian said...

सशक्त चित्रण। किसी "बेचारे" को हर्ट होने का रोग लगा हो तो सहकर्मी क्या करा सकते हैं? दुःख की बात है कि ऐसे "बेचारे" अपने दुष्कृत्यों के बावज़ूद सारी सहानुभूति भी ले जाते हैं। लेकिन जब उनकी बीमारी दूसरों की ज़िंदगी में अनुचित दखल देने लगे तब तो कार्यवाही करनी ही पड़ेगी।

नीरज मुसाफ़िर said...

ऐसा ही होता है।

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

man ko baandhe rakhne me saksham, manviy sambandhon ka sookshm vishleshan karti pravahyut kahani.

Mohinder56 said...

मानवीय संवेदना को आपने बडी कुशलता से शब्दों में बांधा है. कहानी का प्रवाह इसकी सशक्ता को प्रमाणित करता है

Sawai Singh Rajpurohit said...

आज मंगलवार 8 मार्च 2011 के
महत्वपूर्ण दिन "अन्त रार्ष्ट्रीय महिला दिवस" के मोके पर देश व दुनिया की समस्त महिला ब्लोगर्स को "सुगना फाऊंडेशन जोधपुर "और "आज का आगरा" की ओर हार्दिक शुभकामनाएँ.. आपका आपना

हरीश सिंह said...

आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा. हिंदी लेखन को बढ़ावा देने के लिए तथा पत्येक भारतीय लेखको को एक मंच पर लाने के लिए " भारतीय ब्लॉग लेखक मंच" का गठन किया गया है. आपसे अनुरोध है कि इस मंच का followers बन हमारा उत्साहवर्धन करें , साथ ही इस मंच के लेखक बन कर हिंदी लेखन को नई दिशा दे. हम आपका इंतजार करेंगे.
हरीश सिंह.... संस्थापक/संयोजक "भारतीय ब्लॉग लेखक मंच"
हमारा लिंक----- www.upkhabar.in/

Rajendra Rathore said...

bahut sundar

Anil said...

bilku sach kaha aapne ...

Santosh Pidhauli said...

होली की अपार शुभ कामनाएं...बहुत ही सुन्दर ब्लॉग है आपका....मनभावन रंगों से सजा...

Neha said...

kahani bahut hi acchi thi...par kya wo kahani hi thi...vastav me hum sabhi kamkaji mahilaon aur mahilaon hi kyun purushon ko bhi aisi stithi ka samna karna padta hai...par shayad hum mahilayen kisi bhi chote-bade rishte ko zyada gambhirta se letin hain..aur isi liye humen zyada thes lagti hai aur zyada dukh bhi hota hai...

rajesh singh kshatri said...

आपको एवं आपके परिवार को होली की हार्दिक शुभकामनायें!

ghughutibasuti said...

दुष्ट के साथ दुष्टता शायद उतनी मंहगी नहीं पडती जितनी भलाई.कुपात्र का भला न करना ही बेहतर है.
घुघूती बासूती

amrendra "amar" said...

कहानी पूरी पढ़कर सोंच रहे हैं सही लिखा है आपने दुनिया ऐसी ही होती है....बहुत अच्छी प्रस्तुति

जयकृष्ण राय तुषार said...

खूबसूरत समापन किश्त रश्मि जी बधाई और सुंदर लेखन के लिए शुभकामनाएं |

Patali-The-Village said...

सही लिखा है आपने दुनिया ऐसी ही होती है| धन्यवाद|

लाल कलम said...

आप का लेखकीय कौशल बहुत अच्छा है, बस भगवान् से प्रार्थना है आप अपने लेखन कार्य में रत रहें
शुभकामना सहित
दीपांकर पाण्डेय

rashmi ravija said...

GG Shaikh अपनी टिप्पणी नहीं पोस्ट कर पा रहे...

उनकी मेल से प्राप्त टिप्पणी


रश्मि जी,
सभी चरित्रों को उनकी खूबियों और कमियों के साथ तुम कहानी में उभर पाई हो.
सपाट बयानी पर प्रस्तुति की सरलता पढ़ने वाले को बराबर बांधे रखे. बिना बोर किए...
सरिता का संयत और सक्षम चित्र उभरा है कहानी में, जिनके प्रति हमारे मन में
भी अनुकंपा, संवेदना और पक्षधरता रही है. सरिता में कटुता और उद्वेग नहीवत..तभी तो
उनके व्यक्तित्व की गरिमा बनी है. .. और यहाँ पर तुम भी सफल रही हो... बतौर
लेखिका.

कहानी में, वीरेंदर, कृष्णा और अन्य सभी उन्ही के अपने-अपने परिप्रेक्ष में देखे पहचाने जा सके.
शिक्षण जगत की अंदरूनी विडम्बनाएँ, टोर्चर्स, पोलिटिक्स, दिखावटी संबंध, ईर्ष्या-द्वेष इत्यादि की
बारीकियां यहाँ उजागर हुई है...जोकि कहानी में कॉलेज-केम्पस के वैसे माहौल की कुछ-कुछ
कमी भी रही...पर किस्सागोई लयबद्ध और तरल...

कुंठित, मर्यादित, प्रतिभाहीन, लाघुताग्रंiथी ग्रस्त, कूपमंडूक... ऐसे लोगों का किसी अन्य ग्रुप और
जमावड़े में होना स्वाभाविक है, वही उनके छिपने के ठिकाने हैं...आज भी हम देखते हैं कि
ऐतिहासिक-धार्मिक सच्चारित्रों कि सुबह-शाम हम पूजा करें, पर अपने आसपास सह-जीवन जी
रहे वैसे ही चरित्र वाले व्यक्ति को न तो हम पहचान पाए, और ना हीं उनका उचित सहयोग कर
पाएँ या उन्हें पुरस्कृत करें...

अपना एकाकीपन, अपनी जीवन सोच की गरिमा, अपना आनंद, अपना इंटरेस्ट
बनाए रखे...शायद यहाँ कहीं-कभी अपना सा कोई दोस्त भी मिल जाए. और अगर
न भी मिले तो भी हमारे अपने जीवन यापन में क्या फर्क पड़े ?

अपनी बात सफलता से to the point रखी है...
यह क्या कम है !!! धन्यवाद !

मीनाक्षी said...

बेशक सभी रिश्ते.... कच्चे बखिए से होते हैं... हम ही हैं जो उनके पक्का होने का भ्रम पाल लेते हैं...

SM said...

nice thoughtful story

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

पूजा ने अपनी नइ पोस्ट में लिखा है कि कवि नहीं लिखता कविता को बल्कि कविता लिखती है कवि को। आज यह कहानी पढ़ने के बाद फिर पूजा की बात याद आ गयी। और मैं पूरे भरोसे के साथ कह सकता हूँ कि रश्मि ने नहीं लिखी यह कहानी बल्कि कहानी ने लिखा है रश्मि को।

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

@ बेशक सभी रिश्ते.... कच्चे बखिए से होते हैं... हम ही हैं जो उनके पक्का होने का भ्रम पाल लेते हैं...
ऐसा मत कहिये मीनाक्षी जी! सारे रिश्ते एक से नहीं होते क्योंकि सारे लोग एक से नहीं होते। सरदार भगत सिंह का इस देश के साथ जो रिश्ता था उसे कच्चा कहेंगे क्या? सारे तो नहीं पर कुछ हैं ऐसे जो ताउम्र रिश्तों की मर्यादा बना कर रखते हैं।

प्रियंका गुप्ता said...

एक साँस में दोनों किस्तें पढ़ डाली कहानी की...| बहुत सहज प्रवाह था...मनोद्वंद...राजनीति...दोहरा चरित्र...सब साफ़ नज़र आया इसमें...| पहली पंक्ति से अंतिम तक बांधे रही कहानी...इसके लिए बधाई...दिल से...|
रिश्ते हर तरह के मिलते हैं...| बहुत बार जिसे दिल से बहुत अपना माँ लो, वही पीठ में छुरा घोंपने के लिए लाइन में सबसे आगे खडा नज़र आता है...| पर फिर भी मेरा अपना मानना है कि चंद लोगों की वजह से हम सच्चे रिश्तों के लिए मन में शक नहीं ला सकते...| बाकी तो वक़्त असली-नकली का भेद खोल ही देता है...|
एक बार फिर अपने सशक्त लेखन पर मेरी बधाई...|

Unknown said...

Aise logo se paala na hi pare to behtar hai..Mai Virendra ko 2 naam dena chahungi.."Chipku aur behuda"...Ghinn aa rahi hai us character se mujhe...