मोबाइल पर एक अनजाना नंबर देख,बड़े बेमन से फोन उठाया.पर दूसरी तरफ से छोटी भाभी की आवाज़ सुनते ही ख़ुशी से चीख पड़ी. इतने सारे सवाल कर डाले कि उन्हें सांस लेने का मौका भी नहीं दिया.मेरे सौ सवालों के बीच वो सिर्फ इतना बता पायीं कि इसी शहर में हैं,अपने बेटे के पास आई हुई हैं और मुझसे मिलना चाहती हैं.
फोन रखते ही मैं जल्दी जल्दी काम निबटाने लगी और उसी रफ़्तार से मानसपटल पर पुराने दृश्य उभरने और मिटने लगे.
पड़ोस में रहने वाली ,मेरी सहेली सुधा के छोटे भैया की शादी हुई तो जैसे उनका घर रोशनी से नहा गया.अपने नाम किरण के अनुरूप ही,छोटी भाभी कभी सूरज की किरणें बन घर में उजास भर देतीं तो कभी चंद्रमा की किरण बन शीतलता बिखेरतीं.लम्बे काले बाल,दूध और शहद मिश्रित गोरा रंग,पतली छरहरी देह और उसपर जब हंसतीं तो दांतों की धवल पंक्ति बिजली सी चमक जाती.उन्हें देखकर ही जाना कि असली हंसी क्या होती है?उनकी हंसी सिर्फ होठों तक ही सीमित नहीं रहती बल्कि आँखों में उतर कर सामने वाले के दिल में घर कर लेती थी.
फोटो तो हम सबने पहले ही देख रखी थी.उसपर से सुना फर्स्ट क्लास ग्रेजुएट हैं. थोड़ा डर से गए थे. इतनी सुन्दर और इतनी पढ़ी लिखी हैं,जरूर घमंड भी होगा.ठीक से बात भी करेंगी या नहीं.पर अपने प्यारे व्यवहार से उन्होंने घर भर का ही नहीं.सुधा की सारी सहेलियों का भी मन मोह लिया.
हम इंतज़ार करते रहते कब क्लास ख़त्म हो और हम सब सुधा के घर जा धमकें.अक्सर छत पर हमारी गोष्ठी जमती और हम यह देख दंग रह जाते,साहित्य,राजनीति,खेल,फिल्म,संगीत,सब पर भाभी की अच्छी पकड़ थी.नयी नवेली बहू को सुधा की माँ तो कुछ नहीं कहतीं पर शाम के पांच बजते ही वे, किचेन में बड़ी भाभी की हेल्प करने चली जातीं.
छोटे भैया भी उनका काफी ख़याल रखते.अक्सर शाम को ऑफिस से लौट वे भाभी को कभी दोस्तों के घर ,कभी मार्केट तो कभी फ़िल्में दिखाने ले जाते.जब स्कूटर पर भैया भाभी की जोड़ी निकलती तो सारे महल्ले की कई जोड़ी आँखें,खिडकियों से ,बालकनी से या छत से झाँकने लगतीं.सब यही कहते कैसी,राम सीता सी जोड़ी है.
समय के साथ वे एक प्यारे से बच्चे की माँ भी बनीं.अब तो छोटे बच्चे के बहाने, मैं जैसे उनके घर पर ही जमी रहती.पर नन्हे से ज्यादा आकर्षण भाभी की बातों का रहता.वे भी जैसे मेरी राह देखती रहतीं. उन्होंने भी मुझे कभी सुधा से अलग नहीं समझा.
सब कुछ अच्छा चल रहा था,फिर हुआ वह वज्रपात.जाड़े के दिन थे,अल्लसुबह भैया किसी मित्र को लाने स्टेशन जा रहें थे.और कोहरे की वजह से उनके स्कूटर का एक्सीडेंट हो गया.भैया का निर्जीव शरीर ही घर आ पाया,नन्हे सिर्फ चार महीने का था,उस वक़्त.
भाभी को उनके मायके वाले ले गए.मुझे भाभी से बिछड़ने का गम तो था. पर मुझे विश्वास था कि भाभी,अपने घर की इकलौती बेटी हैं,दो भाइयों की छोटी लाडली बहन हैं,पिता भी प्रगतिशील विचारों वाले हैं.जरूर उन्हें आगे पढ़ा कर या अच्छा सा कोर्स करवा कर नौकरी के लिए प्रोत्साहित करेंगे.मैं मन ही मन प्रार्थना करने लगी,हे भगवान्! भाभी की दूसरी शादी भी करवां दें,कैसे काटेंगी अकेली ये पहाड़ सी ज़िन्दगी. पर तब मुझे दुनियादारी की समझ नहीं थी.नहीं जानती थी कि एक विधवा या परित्यक्ता बेटी के लिए मायके में भी जगह नहीं होती.जिस घर मे वह पली बढ़ी है, अब उस घर में ही फिट नहीं हो पाती.जिन माँ-बाप का गला नहीं सूखता ,यह कहते कि,उसके ससुराल वाले तो छोड़ते ही नहीं ..दो दिन में ही बुलावा आ जाता है.पर अगर बेटी हमेशा के लिए आ जाए तो भारी पड़ जाती है. दो महीने के बाद ही भाभी के पिता यह कहते हुए उन्हें ससुराल छोड़ गए कि यह नन्हे का अपना घर है , उसे इसी घर में बडा होना चाहिए.
घर में प्रवेश करते ही,भाभी ने अपनी स्थिति स्वीकार कर ली थी.उनका अपना कमरा अब उनका नहीं था. किचन से लगे एक छोटे से कमरे में उन्हें जगह मिली थी.जहाँ बस एक तख़्त पड़ा था.उनके दहेज़ के सामान में से बस एक आलमीरा उन्हें मिला था.उनके कमरे,उनके ड्रेसिंग टेबल,टू-इन-वन,सब पर अब सुधा का कब्ज़ा था.छोटी भाभी की अनुपस्थिति में उनके पलंग पर सुधा,और बड़ी भाभी के बच्चे सोते थे.वही व्यवस्था उनके लौटने के बाद भी कायम रही.उनका कमरा देख मेरा कलेजा मुहँ को आ गया.एक रैक पर नन्हे के कपड़ों के साथ बस एक कंघी पड़ी थी.एक आईना तक नहीं.तर्क होगा,जब श्रृंगार नहीं करना,फिर आईने की क्या जरूरत.
नन्हे को तो सुधा की माँ ने जैसे अपने संरक्षण में ले लिया था.उस बच्चे में वह अपने खोये हुए बेटे को देखतीं.उसका सारा काम खुद किया करतीं.एक मिनट भी उसे खुद से अलग नहीं करती....बस भाभी को आवाजें लगातीं....बहू,जरा..नन्हे की दूध की बोतल दे जाओ...कपड़े दे जाओ...उसके नहलाने का इंतज़ाम करो...और भाभी आँगन में पटरा गरम पानी तौलिया,साबुन सब रखतीं.पर बच्चे को नहलाने का सुख.माता जी ले जातीं.भाभी नन्हे की धाय माँ भी नहीं रह गयी थीं.
फिर भी भाभी ने अपनी मुस्कराहट जिंदा रखी थी.शायद यही उनके जीने का सम्बल था.पर अब उनकी हंसी बस होठों तक ही सीमित रहती,आँखों से नहीं छलकती थी.
छोटी भाभी के घर आते ही,बड़ी भाभी को पता नहीं किन काल्पनिक रोगों ने धर दबोचा.आज उनके पैर में दर्द रहता,कल पीठ में तो परसों कमर में.सारा दिन पलंग पर आराम फरमाया करतीं.और पड़े पड़े ही छोटी भाभी को निर्देश दिया करतीं.उन्होंने अपना वजन भी खूब बढा लिया था.मैं सोचती,आज तो ये काम से बचने के लिए बहाने कर रही हैं...इतने आराम से कल इन्हें ये सारे दर्द सचमुच झेलने पड़ेंगे.
घर का सारा बोझ छोटी भाभी के कंधे पर आ गया था.सुबह उठकर बड़ी भाभी के बच्चों के टिफिन बनाने से लेकर,रात में सबके कमरे में पानी की बोतल रखने तक उनका काम अनवरत चलता रहता.बस दोपहर को थोड़ी देर का वक़्त उनका अपना होता.जब वे घर वालों के कपड़े समेट आँगन में धोने बैठती.सबलोग अपने कमरे में आराम कर रहें होते और वे मुगरी से कपड़ों पर प्रहार करती रहतीं और उसी के लय पर उनके मधुर स्वर में लता के दर्द भरे नगमे गूंजते रहते..मैं उस समय किताबें लिए छत पे होती. मुझे उनकी आवाज़ के कम्पन से पता चल जाता कि वे रो रही हैं और उनकी दर्द भरी आवाज़ सुन, मेरे भी आंसू झर झर किताबों पे गिरते रहते पर मैंने भाभी को कभी नहीं बताया...उनका ये एकमात्र निजी पल मैं उनसे नहीं छीनना चाहती थी. शायद इसी एक घंटे में वे अपने अंतर का सारा कल्मष निकाल देतीं और बाकी के २३ घंटे हंसती मुस्काती नज़र आतीं.
शायद इसी मूक पल ने जैसे कोई मूक रिश्ता स्थापित कर दिया था,हमारे बीच.मैं भाभी की तरफ देखती और भाभी नज़रें झुका लेतीं और जल्दी से काम में लग जातीं.उन्हें डर था जैसे मैं नज़रों से उनका दर्द पढ़ लूंगी.हमारी गोष्ठी अब इतिहास हो चुकी थी.मुझे अब उनके यहाँ जाना भी अच्छा नहीं लगता.क्यूंकि सुधा जिस तरह उनसे व्यवहार करती वो मुझसे देखा नहीं जाता.
एक दिन एक सहेली के घर जाना था.सुधा के घर उसे लेने गयी तो देखा,सुधा, भाभी के ऊपर चिल्ला रही है,"मेरा पिंक वाला कुरता कहाँ है?" जब भाभी ने कहा ,'इस्त्री के लिए गयी है" तो बिफर उठी वह ,"अब क्या पहनूं? कहा था ना आपको,नीरा के बर्थडे में जाना है.फिर क्यूँ दिया आपने इस्त्री में?"
भाभी ने चतुराई से बात संभालने की कोशिश की.आलमारी से ब्लू रंग का कुरता निकाल कर प्यार से बोलीं,"अरे ये क्यूँ नहीं पहनती? इस रंग में कितना रंग खिलता है तुम्हारा.बहुत अच्छी लगती है तुम पर."
मैंने भी हाँ में हाँ मिलाई,"हाँ सुधा,बहुत अच्छी लगती है तुम पर ये ड्रेस."
"हाँ ,अब और चारा भी क्या है?"..कहती सुधा,भाभी के हाथों से वो ड्रेस ले बदलने चली गयी.
मैंने ऐसे सर झुका लिया,जैसे मेरी ही गलती हो.भाभी ने भी भांप लिया और बात बदलते हुए,मेरी पढ़ाई के बारे में पूछने लगीं.पर जब हमारी आँखें मिलीं तो सारे बहाने ढह गए और भाभी की आँखें गीली हो आयीं,जिन्हें छुपाने वे जल्दी से कमरे से बाहर चली गयीं.
मैंने रास्ते में सुधा को समझाने की कोशिश की पर मेरी सहेली कैसी भावनाहीन हो गयी थी,देख आश्चर्य हुआ.उल्टा मुझपर बरस पड़ी,"उनको और काम ही क्या है,इतना भी ध्यान नहीं रख सकतीं"
मन हुआ उसे रास्ते से नीचे धकेल दूँ.हाँ उस बिचारी का पति नहीं रहा...अब चौबीस घंटे तुमलोगों की चाकरी और तुम्हारे नखरे उठाने के सिवा उसके पास काम ही क्या है.मैंने बोला तो कुछ नहीं पर सुधा मेरी नाराज़गी समझ गयी.हमारी दोस्ती के बीच एक दरार सी आ गयी जो समय के साथ बढती ही चली गयी.
नन्हे अब बोलने लगा था.पर बड़ी भाभी के बच्चों की तरह वो छोटी भाभी को 'छोटी माँ' कह कर ही बुलाया करता.मैंने टोका तो भाभी ने हंस कर बात टाल दी,"अरे बच्चे जो सुनते हैं वही तो बोलना सीखते हैं" पर र्मैने पाया घर में भी कोई उसे 'छोटी माँ' की जगह मम्मी कहना नहीं सिखाता.बल्कि सबको मजे लेकर यह बात बताया करते.हर आने जाने वाले को भाभी को दिखाकर,नन्हे से पूछते,'ये कौन है' और जब नन्हे अपनी तोतली जुबान में कहता,'चोटी मा' तो जैसे सबको हंसी का खज़ाना मिल जाता.नन्हे भी अपने छोटे छोटे हाथों से ताली बजा,हंसने लगता.उसे लगता उसने कोई बडा काम कर लिया.ऐसे में भाभी जिस कौशल से हंसी के पीछे अपना दर्द छुपातीं.बड़ी से बड़ी ऑस्कर अवार्ड पाने वाली अभिनेत्रियाँ भी नहीं कर पाएंगी.
नन्हे पर उसके दादा,दादी,चाचा सब जान छिड़कते थे.उसके भविष्य की पूरी चिंता थी...कहाँ पढ़ाएंगे, कैसे पढ़ाएंगे...सारी योजनायें बनाते रहते. यूँ वे छोटी भाभी से भी कोई दुर्वयवहार नहीं करते थे. सिर्फ काम मशीनों वाला लेते थे,वरना कोई अपशब्द या कटाक्ष या व्यंग नहीं करते थे.पर दुर्वयवहार ना करना,सद्व्यवहार की गिनती में तो नहीं आता.मनुष्य की जरूरतें सिर्फ,खाने कपड़े और छत की ही नहीं होती.छोटी भाभी को भी एक सामान्य जीवन जीने का हक़ था.हंसने बोलने,बाज़ार,फिल्मे जाने का समारोह,उत्सवों में भाग लेने का हक़ था...जो अब वर्जित हो गया था,उनके लिए.
फिर मेरी शादी हो गयी.पर जब भी मायके जाना होता.कहने को तो मैं सुधा के घरवालों से मिलने जाती पर मन तड़पता रहता,भाभी से मिलने को.नन्हे अब बडा हो रहा था और जैसे धीरे धीरे उसपर असलियत खुल रही थी.क्यूंकि हंसने खलने वाला महा शरारती बच्चा,अब बिलकुल शांत हो गया था.वह अपनी माँ की स्थिति समझ रहा था.उन्हें अब 'छोटी माँ' कहकर नहीं बुलाता पर जैसे माँ कहने में भी उसे हिचक होती.वह कुछ कहता ही नहीं.इन सबसे बचने के लिए उसने किताबों की शरण ले ली थी.हर बार उसके कामयाबी के नए किस्से सुना करती और दिल गर्व से भर जाता.चलो भाभी का त्याग व्यर्थ नहीं गया.नन्हे के रूप में गहरे काले बादल की ओट से सुनहरी किरणें झाँक रही थीं अब भाभी के जीवन में पूरा प्रकाश फैलने में देर नहीं थी.
सुना नन्हे ने इंजीनियरिंग में टॉप किया है.और एक बड़ी मल्टीनेशनल कम्पनी में अच्छी नौकरी मिल गयी है.भाभी को फोन पर मुबारकबाद दी तो वे ख़ुशी से रो पड़ीं.नन्हे की शादी में बड़े प्यार से बुलाया था,भाभी ने.पर अपनी घर गृहस्थी में उलझी मैं,नहीं जा सकी.
और आज जब फोन पर सुना,नन्हे इसी शहर में है तो मन ख़ुशी से झूम उठा.
भाभी जैसे मेरे इंतज़ार में ही थीं.कॉलबेल पर हाथ रखा और दरवाजा खुल गया.भाभी को देख,मैं ठगी सी रह गयी.लगा पच्चीस साल पहले वाली भाभी खड़ी हैं.चेहरे पर वही पुरानी हंसी लौट आई थी.जो होठों से चलकर आँखों तक पहुँचती थी.नन्हे की पत्नी रुचिका बहुत ही प्यारी लड़की थी.रुचिका को भाभी ने बेटी सा प्यार दिया तो रुचिका ने भी उन्हें माँ से कम नहीं समझा.'माँ' सुनने को तरसते भाभी के कान जैसे रुचिका की माँ की पुकार सुन थक नहीं रहें थे.गुडिया सी वह लड़की पूरे समय हमारी खातिरदारी में लगी रही.बिना माँ से पूछे उसका एक काम नहीं होता. भाभी भी दुलार से भरी उसकी हर पुकार पे दौड़ी चली जातीं.दोनों को यूँ घुलमिल कर सहेलियों सी बातें करते देख जैसे दिल को ठंढक पड़ गयी.मैंने आँखें मूँद धन्यवाद दिया ईश्वर को,सच है भगवान् तुम्हारे यहाँ देर हैं अंधेर नहीं.
दोनों मुझे टैक्सी तक छोड़ने आयीं.तभी रुचिका ने कुछ कहा और भाभी खिलखिला कर हंस पड़ीं.मैं मंत्रमुग्ध सी निहारती ही रह गयी.रुचिका ने ही मेरे लिए आगे बढ़ कर टैक्सी रोकी और दोनों को हाथ हिलाता देख,लग रहा था,दो सहेलियां मुझे विदा कह रही हैं.टैक्सी चलते ही मैंने सीट पर सर टिका आँखें मूँद लीं.कुछ देर आँखें बंद कर इस ख़ूबसूरत अहसास को अन्दर तक महसूस करना चाहती थी.
60 comments:
आह दिल खुश कित्ता जी !......सच कहूँ तो जिस तरह से कहानी बढ़ रही थी और जो विषय था ..मुझे जहाँ एक और अपने सामाजिक परिवेश पर गुस्सा आ रहा था वहीँ ये दुःख भी हो रहा था की ये कहानी भी दुखांत ही होगी...एक विधवा जीवन की करुण कहानी....पर अंत तक आते आते मुस्कान आ गई होटों पर...कितना सुखद लगता है चलो उसकी तपस्या और त्याग कुछ तो रंग लाया....
बहुत खुबसूरत कहानी लिखी है ...अलग अंदाज पसंद आया
कहानी की शुरुआत 25 साल पहले होती है । उस समय स्त्री के लिये ऐसी परिस्थितियों में विद्रोह करना बहुत कठिन होता था । वह अपने कष्टों को अपनी नियति मानकर उन्हे स्वीकार कर लेती थी और आजीवन उनका बोझ सहन करते हुए जैसे तैसे ज़िन्दगी गुज़ार देती थी ।
कहानी हैप्पी एंड के साथ समाप्त होती है और एक नई कहानी की शुरुआत भी यहाँ होती है । लेखिका ने बीच के उन तमाम प्रसंगों के बारे में सोचने के लिये पाठक को स्वतंत्र कर दिया है जिनमें नन्हे की परवरिश का वर्णन हो सकता था ।
आपकी भाषा बहुत सहज एवं सम्प्रेषणीय है और छोटी भाभी के रूप का वर्णन करती पंक्तियाँ तो बहुत ही काव्यात्मक हैं । बधाई ।
अंत भला तो सब भला.....आखिर में किरण को बहु के रूप में बेटी और सहेली मिल ही गयी....और ये भी सह है की भगवान के घर देर है अंधेर नहीं.....बहुत ही अच्छी कहनी....सोचने पर विवश करती हुई की यदि जीवन में किसी के साथ ऐसी दुर्घटना हो जाये तो लोगों का क्या ऐसा व्यवहार करना उचित है ?
सच में क्यों ऐसा होता है कि माँ-बाप के लिए भी बेटी बोझ बन जाया करती है ,वे भी तो उनके ही संतान है .
घर में महिलाएं भी दुसरे महिलाओं कि मनः स्तिथि क्यों नहीं भांपती ,क्यों इतना तड़पाती है ?
सुधा जैसी ही - औरतों के अनादर का कारण बनती है . मुझे अगर औरतों के प्रति कभी बुरा लगता है तो सिर्फ ऐसे ही आचरण मुख्य कारण है .
लेखिका कि प्रस्तुति अंत में दिल को शुकून पहुंचाने में सफल रही है , शुरू में दिल पर जितने भी बोझ पड़े अंत होते-२ एक सुखद अनुभूति
में बदल गयी .
भाभी और गुडिया जैसी औरतों का मै दिल से आदर करूँगा , काश सभी महिलाएं ऐसी ही होती !
रश्मि जी आपकी सभी लेखनी दिल को छूती ही नहीं बल्कि गहरायिओं तक उतर जाती है .
बहुत-बहुत धन्यवाद रश्मि जी .
अच्छी सुखान्त कथा ....
सुधा के रूप में एक आदर्श स्त्री की कहानी प्रस्तुत किया आपने जिसने जीवन की सच्चाई को महसूस किया की किस कि क्या ज़रूरत है और प्यार के बदले प्यार कैसे पाया जाता है..शुरुआती दौर में घर परिवार में व्यस्त होने के वजह से स्वभाव में बदलाव आ जाता है..बढ़िया कहानी रश्मि जी..धन्यवाद
बहुत सुन्दर कहानी. मार्मिक लेकिन आशावादी रचना. बधाई.
कहानी एक कटु सत्य है। जिसमें व्यंग्य के भी रंग दिखलाई पड़ते हैं। रश्मि जी सफल कहानीकार भी हैं,अगर वे व्यंग्य नहीं लिखती हैं तो उन्हें व्यंग्य में भी अपना कीबोर्ड अवश्य आजमाना चाहिए। गोष्ठी का इतिहास होना और जब श्रृंगार नहीं करना,फिर आईने की क्या जरूरत. का प्रयोग और नीचे वाला पूरा वाक्य -
'ऐसे में भाभी जिस कौशल से हंसी के पीछे अपना दर्द छुपातीं.बड़ी से बड़ी ऑस्कर अवार्ड पाने वाली अभिनेत्रियाँ भी नहीं कर पाएंगी.'।
सच्चाई यही है कि आज तो ये काम से बचने के लिए बहाने कर रही हैं...इतने आराम से कल इन्हें ये सारे दर्द सचमुच झेलने पड़ेंगे.
अंत में यही कहना चाहूंगा कि स्त्री ही स्त्री की सदा से शत्रु रही है। इस नियति को बदलने की आवश्यकता है और इसे बदलना भी स्त्री को ही है। रश्मि रविजा जी को सफल कहानीकार कहने में मुझे तनिक भी गुरेज नहीं है। उनके बेहतर आज के साथ भविष्य की बेहतरीन लेखन की मैं मंगलकामनाएं करता हूं।
मार्मिक कहानी।
भाभी की मुस्कराहट और उन्मुक्त हंसी का वर्णन बहुत सच्चा प्रतीत हुआ।
सकारात्मक इतिश्री।
ओह मेरी दीदी क्या कहूँ आपके बारे में क्या लिखा है आपने लाजवाब । कहानी पढ़ते समय लगा कि इन सबका यतार्थ चित्रण हो रहा है, शायद यही जिन्दंगी है , गम के बाद मिलने वाली खुशी का एहसास ही कुछ खास होता है , हो भी क्यों ना इन्तजार जो होता है । मैं तो चाहूंगा कि आप कहानी के फलसफे को यूँ ही आगे बढ़ाईये और ज्यादा कहानियाँ प्रकाशित करिये ।
बहुत स्वस्थ और सुंदर कहानी, बहुत सुखद एहसास.
रामराम.
main sharad ji ki baton se poori hi tarah sahmat hoon isliye use dohrana uchit nahi samjhi ,aapki rachna ki tarif apne mitr se kafi suni hai tabhi aana hua isme koi do rai nahi ,coffee ke saath mulakat karne ka andaj hame aapka kafi pasand aaya ,main to yahi kahoongi rashmi with tea ya coffee .
aap aai bahut khushi hui .aabhari hoon .
रश्मि ...
तुम्हारी इस कहानी के सुखांत ने बहुत खुश कर दिया है ...जो लोग स्त्री को स्त्री का दुश्मन बता रहे हैं ..उन्होंने छोटी भाभी और रुचिका का रिश्ता नहीं देखा क्या ...काश हर छोटी भाभी को रुचिका मिल जाए ...छोटी भाभी का कुछ नाम भी था क्या ...?
अच्छी कहानी के साथ प्रवाह भी अच्छा . सुखान्त !!
अब मुझे समझ आया कि बाद मे कमेट करना कभी कभी कैसे बेकार की कसरत हो जाता है. जो जो चर्च के बिन्दु मैने बताये थे वो सब टिप्पणी मे बताये थे अब उनका दोहराव करना ही भाग्य मे रह गया है
चलो ऐसा करत हू थोदा सा अन्श वही चरचा से यहा चिपका देता हू.
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ismai 2-3 mudde hai
ek to ye kijis bahoo ko bahut hee armaano se aur laad se ghar me laate hai uske prati itnee berukhee kaise ho jaatee hai
doosre ye ki mata pitaa shaadee ko apne kartavya kee itishree man lete hai. padhee likhee ko thodaa saa maansik sambal bhee nahee de sake
aur teesraa ye ki khushee hui ki ek aurat ne doosree aurat ke bhoge hue kashto ko samjhaa aur bahoo ke roop me unhe khoob aona[an diya jo aam taur pe nahee miltaa. sabhee jagah aisaa hee ho rahaa hai
aur ye bat hee tamaam naareevaad ke nare se itar mahilaa ke jevan me purush ke roop me pato ke mahatva ko rekhankit kartee hai. jitnee bhee mahilaaye hai (bahoo ke alaavaa ) vo sab to khud shadyantrakaaree hai aur aise shadyantrakaree hamaare parivaaro se hee swatah nikal aate hai. unme se bhee jo shikshit hai
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आपने इसे सुखान्त बनाकर ताज़ा हवा का सन्चार किया है. शरद कोकस से सहमत कि बेटे की परिवरिश की तपस्या पर भी खूब लिखा जा सकता है पर साहित्य लेखक का माध्यम है और जो लिखने के लिये कलम चलना शुरु करते है वहे लिखा जाता है लेकिन हा इसे ही लघु उपन्यास मे तो बदल ही जा सकता है भविष्य मे.
बहुत लम्बा सफ़र था....होठों से आँखों तक... परिस्थितियों वश ....कहानी के लय को बहुत खूबसूरती से संभाला है आपने.....
मैं आ गया हूँ वापस लखनऊ....
rashmi ji
shayad itni der se aayi hun ki sabne hi sab kuch kah diya aur mere liye kuch bacha hi nhi .........magar kahani ne shuru se ant tak baandhe rakha.........aaj ke samay mein isi badlaav ki jaroorat hai aur aapne uska bahut hi achcha prayog kiya hai.........nari ko nari ka dost banna hi padega tabhi samaj mein sudhar aa sakta hai.
महापावन पर्व महाशिवरात्री की आप सभी को बहुत बहुत शुभकामनाएं. संजय भास्कर
अच्छी कहानी के साथ प्रवाह भी अच्छा . सुखान्त !!
बड़ी मार्मिक कहानी है, घटनाएं तो बहुत होती हैं लेकिन उनको उतनी गहराई से सहेज कर शब्दों में पिरोना ही तो कलाकार की सहजता और ममार्मिकता को प्रस्फुटित करता है.
kahani puri mat sunaya karo, taki utsukta bani rahe......kitaab nikalwao, bechain log kharidte jayenge
Hi..
Jo kuchh bhi, dil main aaya..
Wo sabne hi, likha hai..
Aisa nahi ki, kuchh bhi..
Baki nahi bacha hai..
Hothon se aankhon tak ka..
Ye safar jo sunaya..
Ek ankaha sa rishta..
Humne bhi tha banaya..
Bhabhi jo tere sang main..
Jab jab bhi muskarayin..
Ye padh ke aakhen apni bhi..
Sang jagmagayin..
Babhi ke dukh ko padhkar..
Hum bhi dukhi hue hain..
Aakhen hamari jhilmil..
Chup-chup se hum rahe hain..
Patjhad ke baad bhi to..
Mausam vasant ka aaya..
Bhabhi ne 'CHHOTI MAA' se..
'MAA' ka bhi maan paya..
Hothon ki hansi, aankhon..
main fir utar jo hai aayi..
Ye padh ke sukun pahuncha..
Raahat si humne payi..
Gar paatr ye kahani..
Ke hi bhale hon chahe..
Unki hamesha khushiyan..
Hum sab hain man se chahen..
Aapki kahani ke sang humne ek jeevan jee liya..
Aapne apni 'Chhoti
bhabhi' ka 'Chhoti Maa' se 'MAA' tak ke safar ko ek Rochak kahani main dhala hai..
Har kahani ki safalta es baat par nirbhar karti hai ki pathak us kahani ke patron ko aatmsaat karke uske sukh athwa dukh se prabhavit hote hon.. Joki shayad sabhi hue hain..
Nihsandeh ek nari ka dard ek nari hi samajh sakti tabhi aap apni Chhoti Bhabhi ki murkurahat ke dard ko sahi rup main samajh payin.. sath hi apne bachhe ko nahlane, use paalne ka sukh, aur ye adhikar chhinne ke dukh ko ek maa hi samajh sakti hai.. Ek maa hone ke naate hi aap es marm ko bhi bata payin.., par ye bhi shashwat satya hai ki ek Nari hi Nari ki dushman hoti hai.. Aapki kahani main bhi ek taraf aap thin, ek Nari, ek Nari ke dard ko samajhti hui, aur dusri taraf unki saas aur kutila nanad..
Barhal..ek sundar kahani ke liye meri badhai sweekar karen..
DEEPAK..
Aapki kahani ne aadi se aant tak humen bandhe rakha.. Aur aapki Choti bhabhi ke hansi aur dukh main hum sabko ek had tak sareek kar diya..
सच कहूँ ,आँखें अपने आप बह चली...भला हो कि कहानी के अंत ने सम्हाल लिया ........ सहज सम्प्रेश्नीय बहुत ही सुन्दर कथा लिखी है आपने...गहरे मन को छूती और झकझोरती है...
kehani ne baandhe rakha ant tak..well done :)
मैं आहाल्दित हूँ कि सबको यह कहानी इतनी अच्छी लगी....कहानी के सुखान्त होने का महत्त्व अब पता चल रहा है....कहानी पढने के बाद कोई बेचैनी नहीं एक सुखद अहसास सा होता है....इसलिए शायद सबको ज्यादा ही पसंद आई...बहुत बहुत शुक्रिया सबों का...
फिर भी ये वादा नहीं है कि अगली कहानियां सुखान्त ही होंगी क्यूंकि मुझे भी नहीं पता होता,लिखते वक़्त कि कहानी क्या मोड़ लेगी?
@वाणी
लगता है सुबह सुबह बहुत जल्दी में होती हो..कई सारे पोस्ट निबटाने होते हैं.:)...ध्यान नहीं दिया.?..शुरुआत में ही है,'अपने नाम किरण के अनुरूप ही.....".
.छोटी भाभी का नाम किरण था,संगीता जी ने अपने कमेन्ट में जिक्र भी किया है..
तुम्हारी इस बात से मैं बिलकुल सहमत हूँ कि ज्यादातर पुरुष यह कह बैठते हैं कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है".और क्या पुरुष उनका साथ नहीं देते?...वे अन्याय होते देख क्यूँ नहीं विरोध करते.?अक्सर देखा गया है,जिसका पलड़ा भारी हो,पुरुष उसकी तरफ हो जाते हैं. अगर माँ दबंग है तो माँ की तरफ...पत्नी दबंग है तो पत्नी की तरफ....फिर भी यही कहूँगी...ना तो सब पुरुष एक जैसे हैं...और ना सब नारियां..अच्छे बुरे का सम्मिश्रण दोनों में है.
@शरद जी एवं हरि जी
यह पहली कहानी है जो मैंने डिमांड पे लिखी है.२ महीने पहले रेडियो स्टेशन से फोन आया कि एक कहानी चाहिए.मुझे बहुत गुस्सा भी आया, ऐसे कोई डिमांड पर र्कैसे लिख सकता है?कहानी तो अपने आप उपजती है.ये कोई वार्ता तो है नहीं.तभी एक मेरी छोटी 'मौसी कम सहेली' का फोन आया और मैंने यह जिक्र कर डाला और कहा,मेरी कुछ हेल्प करो...उन्होंने बोला कि तुम्हे लिखते देख ही मैंने भी अपने कॉलेज पत्रिका में एक कहानी लिखी थी कि कैसे एक सुन्दर चुलबुली लड़की की ज़िन्दगी विधवा होने क बाद पूरी तरह बदल जाती है.
और ये पूरी कहानी उसी एक पंक्ति से आगे बढती गयी.वैसे अब मुझे पता है..कहानी के प्लाट चाहिए होंगे तो कहाँ पूछना चाहिए..इतने सुधि पाठक जो हैं,यहाँ.
मैंने रफ में यह कहानी लिख ली.फिर ९ मिनट में इसे समेटने में बहुत काट-पीट (एडिट) करनी पड़ी.( कभी मौका लगा,तो सुनवाउंगी भी आप सबों को) ब्लॉग पर डालने के लिए सोचा तो एकाध पन्ने गायब.स्मरण से जितना याद था,लिखा पर इस चक्कर में एक पूरा पैराग्राफ छूट गया.शरद जी कि टिप्पणी और हरि जी के अनुमोदन ने मेरा ध्यान उस तरफ खींचा...सुधि पाठक यह तो कल्पना कर ही लेते कि 'नन्हे की पढाई कैसे पूरी हुई?"पर मुझे एक विधवा के फिल्म जाने,बाज़ार जाने,शादी समारोहों में भाग न ले पाने की बात भी लिखनी थी सो वह अंश जोड़ दिया है.(देखिये टिप्पणी का कितन महत्व है...और लोग कतराते हैं,टिप्पणियाँ करने से)
बहुत बहुत शुक्रिया शरद जी एवं हरि जी.
@शुक्रिया दीपक जी,
पूरी कहानी का सार आपने एक कविता में रच डाला..बहुत सुन्दर
कहानी बहुत अच्छी लगी. सच है, लगन लगाने वालों की कभी हार नहीं होती. जैसी इनकी भई तैसी सब काहू की होय!
@
तेरा गला दबा दूंगी ...
मैं सुबह सुबह ज्यादा पोस्ट नहीं पढ़ती आजकल ...कुछ को ही बार- बार पढ़ती हूँ :):)...एक जरा सी चूक क्या हुई ...कैसे तिल का ताड़ बनाया है ....
ये एकता कपूर समेत सीरियल निर्माता दुनिया भर में कहानियों के लिए मारे-मारे फिरते हैं, इन्हें मुंबई में रश्मि रविजा के घर का पता बताने वाला कोई नहीं मिलता क्या...
अब देर मत करो बहना जी, पहल करो और छा जाओ सोप ऑपेरा और बॉलीवुड में स्क्रिप्ट लेखन के आकाश पर...
जय हिंद...
संवेदनाओं को कुरेदने का काम किया कहानी ने... रुलाया भी और अंत तक पहुँचते पहुँचते उन्ही तकलीफ के आंसुओं को खुशी के आंसुओं में तब्दील भी कर दिया.. अनूठा मिश्रण..
जय हिंद... जय बुंदेलखंड...
Hi..
Dhanyawad aapke shabdon ne mera maan badha dia.. Vaise aapki kahani padhkar jo dil main aaya wo likhta chala gaya aur anjane ek kavita ban gayi..
Ese padhne aur alag se tippni ke layak samjha.. eske liye tahe dil se shukria..
Haan Khushdeep ji ka kahna sahi hai.. Aakhir Ekta kapur ko aapke ghar ka pata kisi ne kyon na bataya..haha..
बडी भाभी जेसी ओरते आज भी अलग अलग रुपो मे मिलती है, आप ने बहुत सुंदर ओर सटीक शव्दो मै कहानी को बांधे रखा, बहुत सुंदर
धन्यवाद
aआप की कहानी पढ़ कर समाज में व्याप्त असमानता के प्रति दिल घर्णा से भर जाता है आप की कहानी बस कहानी है मगर आत्म कथानक में लिखी है इसी लिए दिल को छू जाती है
सादर ३
प्रवीण पथिक
9971969084
देर से आई हूँ, कहानी पढने के लिए थोडा सही समय और मूड चाहिए होता है...सुबह ४ बजे उठ कर पढ़ी है कहानी...पढ़कर फिल्म आराधना की याद आई...शर्मीला का चेहरा याद आया..
बहुत सुन्दर लिखा है..भाषा भाव सब कुछ बाँध कर रख गया...
एक बार फिर बधाई...
रश्मि जी, कहानी पढ़ी और सबकी टिप्पणियां भी। मुझे कभी लगता है कि मैं जिस वातावरण में रही हूँ शायद वो कुछ अलग था। बहुओं को इतना तिरस्कृत मैंने कभी नहीं देखा। हो सकता है कि मैं शत-प्रतिशत गलत हूँ, लेकिन फिर भी परिवारों में इतनी घृणा देखने को नहीं मिलती। मेरी आँखों के सामने भी ऐसी कितनी ही भाभियां नाच गयी लेकिन ऐसी स्थिति किसी की भी दिखायी नहीं पड़ी। लेकिन कहानी में जो भी आवश्यकत तत्व होते हैं उनको आपने पूरा किया है। अच्छा लेखन है।
hoton se aankho tak ka safar aachha laga
सुखद अहसास!
rashmi ji
aap kahani bhi likhti hai , ye mujhe pata nahi tha.. aaj ye katha padhi , bahut der tak main maun me raha .. main bahut kuch kahna chahta hoon , lekin shabd nahi hai mere paas... bas aapki lekhni ko salaam karunga ji ..
vijay
www.poemsofvijay.blogspot.com
एक बहुत ही अच्छी कहानी मैम।....एक आम-सा प्लाट को आपने अपनी लेखनी से एक खूबसूरत कहानी में बदल दिया। बहुत खूब। बगैर किसी भाषाई जादूगरी या शिल्प की अतिशय गूढ़ता के कहानी की रोचकता और पात्रों की संसेदना को इस कदर बुना है कि उफ़्फ़्फ़!
कहीं छपनी चाहिये थी इस कहानी को। सोचता हूँ कि काश कि दुनिया की सारी किरणों को ऐसी ही रुचिका मिल पाती...
संसेदना = संवेदना
badhiya kahani hai...achcha likha hai apne
सब दिन होत न एक समान!
बहुत अच्छी लगी कहानी।
very interesting story...
अंत भला तो सब भला... बदलते हुए नन्हे वाला पैराग्राफ दिल को छू गया.
किरण भाभी अब फिर प्रकाश फैलसा रहीं हैं ये सुखद अहसास के साथ कथा समाप्त कर आपने कुशलता का परिचय दिया है
लिखती रहीये
स स्नेह,
- लावण्या
Lovely story!
देर से आयी हूँ क्षमा चाहती हूँ आजकल अपनी पोस्ट भी देर से लिखने लगी हूँ। अब कहानी के लिये क्या कहूँ इतना कुछ सब ने कह दिया । मै तो शिल्प और शैली देख कर मुग्ध हूँ सब ने सही कहा है तुम्हारे शब्दों और शैली ने कहानी मे जान डाल दी । आम कहानी को भी खास बनाने की तुम मे क्षमता है। बधाई स्वीकारो। आशीर्वाद इसी तरह लिखती रहो।
कुछ देर आँखें बंद कर इस ख़ूबसूरत अहसास को अन्दर तक महसूस करना चाहती थी.
प्रभावशाली रचना
मन को भिगो सी गयी ये रचना। बधाई।
होली की हार्दिक शुभकामनाएँ।।
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कुछ खाने-खिलाने की भी तो बात हो जाए।
किसे मिला है 'संवाद' समूह का 'हास्य-व्यंग्य सम्मान?
ghane kaale baadlo ke baad suraj ki mithi kirne phooti to sab dukh bhool jate hai...
bahut acchhi kahani.
holi ki shubhkaamnaye.
कहानी तो बेमिसाल लगी ही पर वो चित्र अद्भुत है जाने क्या क्या कहता और जाने क्या क्या खामोश सा सुनता भी है
एक कमज़ोरी सी है मेरी कि 'औरत औरत की दुश्मन होती है' जैसे दुष्प्रचार के ख़िलाफ़ लिखा सब अच्छा लगता है…इसीलिये शायद यह कहानी भी अच्छी लगी…
बहुत अच्छी कहानी मन से जुड़े रिश्तों को बयां करती हुई
आपको कितने अवार्ड मिल चुके हैं अब तक कहानियों के लिए?
अगर नहीं मिले तो बोलिए मैं एक अवार्ड रख दूँ खास आपके लिए :)
आपकी कहानी पढ़ कर एक सच्ची बात याद आ गई. यहाँ भी माँ ने जीवन भर विधवा होने का दुख झेला है और मायके और ससुराल में भटकती रही है. बेटे ने अपनी पसंद की शादी की है पर उसके बाद उन्हें एक स्थायी घर मिल गया है.
रश्मिजी,
कहानी पढ़ भी ली। मेरी बात शरद जी ने कह दी है। फिर भी एक बात कहना चाहता हूं कि कहानी को आप यहां भी खत्म कर सकती थीं - नन्हे के रूप में गहरे काले बादल की ओट से सुनहरी किरणें झाँक रही थीं अब भाभी के जीवन में पूरा प्रकाश फैलने में देर नहीं थी.-
आकाशवाणी वाले संस्करण में तो यह हो ही सकता था। ताकि कहानी का थोड़ा और कहानीपन उसमें रह जाता।
बहरहाल बधाई तो बनती ही है।
"भाभी ने अपनी मुस्कराहट जिंदा रखी थी.शायद यही उनके जीने का सम्बल था" अवसाद की स्थिति निर्मित नहीं हुई. अच्छी लगी.आभार.
दुखांत वाला तो हम नहीं पढेंगे
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