Friday, January 8, 2010
और वो चला गया,बिना मुड़े...
दो दिनों की लगातार बारिश के बाद चैंधियाती धूप निखरी थी सफेद कमीज और लाल निक्कर में सजे छोटे-छोटे बच्चों की चहचहाहट से मैंदान गूंज रहा था। अपने केबिन में बैठे इन सबकी प्यारी-प्यारी उछलकूद देखना बड़ा ही भला गल रहा था। इनमें ही खो सी गई थी कि प्यून ने आकर किसी का विजिटींग कार्ड थमाया... ‘कर्नल एस. के. मेहरोत्रा‘ यूं ही सरसरी निगाह डाल मशीनी ढंग से कह डाला -‘भेज दो।‘
‘मे आय कम इन‘ - की रौबीली आवाज सुन... -‘येस कम इन‘ भी यंत्रवत ही कह डाला। नजरें तो फील्ड में धींगामुश्ती करते दो बच्चों पर ही टीकी थीं और आंखें बड़ी बेचैनी से तलाश रही थीं कि कोई टीचर इन पर नजर रखने केा है या नहीं। मिस शारदा की उनकी तरफ बढ़ते देख चैन की सांस ली और आगंतुक की ओर जो घुमायीं तो पल भर की आंखें झपकाना ही भूल गई। चित्रलिखे सी जड़वत अवाक देखती रह गई। ये क्या देख रही है वह या काफी देर तक धूप में देखते रहने से आकृति स्पष्ट नजर नहीं आ रही। दो तीन बार आंखें झिपझिपा कर खोलीं तब भी शरद का मुस्कुराता चेहरा ही सामने था जो बड़ी आतुरता से अपनी बात कहने की प्रतीक्षा कर रहा था। साथ में सहमा-सहमा सा नौ-दस साल का बच्चा भी खड़ा था।
आगंतुक से नजरें बचाते हुए उसने अपने बालों की ओर हाथ बढ़ाया और चोर नजरों से आलमीरे की ओर देख लिया। जिसके शीशे लगे दरवाजे में चेहरा भी साफ नजर आ रहा था। सही है... उसके चेहरे ने अपनी सारी मासूमियत खो दी थी। और अब उस पर एक दबंग, कठोर, कर्मठ महिला का चेहरा चस्पां हो गया था। मोटे फ्रेम के चश्मे और बालों में झिलमिलाते चाँदी के तारों ने चेहरे को गरिमायुक्त बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। फिर भी यह बदलाव क्या इतना था कि जिसके तले उसकी पुरानी छवि ने यों दम तोड़ दिया। ‘नेहा कपूर‘ के व्यक्तित्व ने क्या ‘नेहा नवीना‘ को इस कदर आच्छन्न कर लिया कि पहचान की सारी कड़ियाँ ही शेष हो गईं। समय के गर्त ने शायद उसके अतीत को सदा के लिए अपने अंक में समेट लिया। नही ंतो क्या शरद की आँखों में कुछ नहीं कौंधता। उन नीली आँखों के सागर में कोइ्र लहर तरंगायित नहीं होती।
हालांकि उसने तो चेहरे पे झलक रहे प्रौढ़ता के गांभीर्य... माथ पे झूलती लट की जगह उलट कर संवारे गए बाल और कनपटियों पर कुछ सफेद बाल (जैसे शेव के बाद थोड़े से साबुन के झाग अनधुले रह गए हों) सहित शरद को एक नजर में ही पहचान लिया था। लेकिन उसका क्या... उसने तो तब शरद को बिना कभी देखे ही पहचान लिया था।
सुबह का वक्त था... सूरज की किरणों और फूलों की पंखुड़ियों के बीच मान-मनौव्वल चल ही रहा था। पंखुड़ियों ने अभी अपना घूँघट पूरी तरह नहीं सरकाया था और न अपने आंसू ही पोंछे थे। वह अपने गीले बाल पीठ पर छितराए लाॅन में टलह रही थी कि... गेट को हल्का सा धक्का दे, कंधे पर एयरबैग लटकाए, एक नौजवान ने बड़ी लापरवाही से प्रवेश किया। कुछ ही क्षणों में पहचान लिया उसने... भैय्या के एलबम में फोटो देखी थी। बस इतना लिंक काफी था वरना उसे तो जाने-अनजाने लोगों का किसी ना किसी से चेहरा मिलाते रहने का व्यसन सा था। अपने आस-पास उसने बड़े-बड़े नामों वाले चर्चित चेहरों का अच्छा-खासा हुजूम जुटा लिया था। उसके सामने वाले बंगले में अशोक कुमार रहा करते थे तो अमजद खान उसकी काॅलोनी में पहरा देते थे। निरूपा राय उसके यहाँ सब्जी बेचने आती तो संदीप पाटील नुक्कड़ पे पान बेचता था।
शरद को देखते ही उसके चुलबुले दिमाग में शरारत का कीड़ा रेंगने लगा। थी ही इतनी शराती इतनी चंचल कि लोग पनाह मांगते थे। एक मिनट स्थिर बैठने की तो जैसे कसम थी उसे। हर पल उछल-कूद मचाते रहना सबको छेड़ते रहना उसकी दैनिक आदतों में शुमार था। और उसकी ‘छेड़छाड‘़से ‘छेड़छाड के लिए जाने जाने वाले महानुभाव भी बरी नहीं थे। राह चलते किसी भी चवन्नी छाप हीरो की हिम्मत नहीं थी कि एक भी जुमला उछाल सके। शुरूआत में जरूर कुछ ने तेजी दिखाने की कोशिश की लेकिन उहें ऐसी अजीबो-गरीब स्थिति का सामना करना पड़ा कि तौबा कर ली सबने।
‘डिबेट‘ में मारे गए फस्र्ट प्राइज इतना तो तय कर ही देते थे कि तर्क में उसे कोई भी परास्त नहीं कर सकता। बात खत्म भी न हुई कि जवाब हाजिर।
चैराहे पर सिगरेट का कश लगाते दो चार लड़कों ने उसे लाल ड्रेस में गुजरते देख आवाज कसी थी - ‘वो ऽऽ देखो! लाल परी‘ और वह त्वरित वेग से मुड़ उनकी बिल्कुल पास पहुँच पूछ बैठी थी -‘जी! आपने मुझसे कुछ कहा, कभी देखी है परी? मैं तो बचपन से ढँूंढ़ रही हूँ, नहीं दीखी मुझे... आपने देख ली... कहाँ है परी?‘
उसके इस अप्रत्याशित हमले के लिए तैयार नहीं थे... बिलकुल घबरा से गए।
आसपास खड़ी भीड़ विस्फारित नेत्रों से देख रही थी और जबतक लड़के इस आकस्मिक हमले से सम्भल कुछ कहने की स्थिति में होते... वह बड़े शान से लौट पड़ी थी।
अब तो उसकी हरकतों ने उसकी सहेलियों में भी काफी आत्मविश्वास भर दिया था। (हालांकि उसे आत्मविश्वास दिया था उसकी ‘जूडो कराटे‘ की ट्रेनिंग ने) इनका इस्तेमाल करने की जरूरत तो नही ंपड़ी लेकिन इसने इतनी हिम्मत जरूर दे दिया कि ईंट का जवाब पत्थर से दे सके। और तब जाना कि लड़के भी छुई-मुई सी कतरा कर निकल जाने वाली... लेकिन इस कतराने के क्षण में भी जतन से सँवारे अपने रूप की एक झलक देने का मोह रखनेवाली लड़कियों को ही निशाना बनाते हैं। किसी ने स्वच्छंदता से खुल कर सामना करने की कोशिश की नहीं कि भीगी बिल्ली बन जाते हैं।
और इस सारे बदलाव का श्रेय नेहा नवीना यानी उसे दिया जाता है जबकि यह सब तो अनजाने में हो गया किसी योजना के तहत उसने कुछ नहीं किया। किसी भी चीज को गंभीरता से लेना तो उसके स्वभाव में शामिल ही नहीं। भले ही माली काका और उनकी पत्नी या रघु और मंगल के बीच झगड़े सुलझाती वह बड़ी धीर गंभीर नजर आए। लेकिन गंभीरता से उसका कोसों दूर का नाता नहीं। सावित्री काकी के अंदर जाते ही बिल्कुल नन्हीं नेहा बन ठुनकने लगती -‘माली दादा, तुम्हें तो अब इलायची अदरक डाली बढ़िया चाय मिल जाएगी... मुझे भी अपनी पसंद की चीज चाहिए।‘
माली दादा उसकी शरारत समझ जाते पीले गुलाब के गुच्छे वे हर शाम डैडी के कमरे में सजाते थे - क्योंकि उनका सबसे प्रिय इसी रंग का यही फूल था। वह उसी की फर्माईश कर बैठती और पूरी नहीं करने की दशा में तरह तरह के गुलदस्ते बनवाती। और ढेर सारे कच्चे अमरूद तुड़वाती। माली काका भी खुश-खुश उसकी फर्माईशें पूरी करते जाते और बतरस का आनंद भी लेते रहते। उसे वह नन्हीं नेहा ही समझते -‘अच्छा कच्चे अमरूद खाओगी और पेट में दरद होगा, तब?‘
‘अच्छा होगा न, फिर सावित्री काकी से खट्टा-मीठा चूरण भी खाने को मिलेगा।‘ वह अमरूद पर दाँत गड़ाती बालती।
‘पता नहीं हमारी बिटिया कब बड़ी होगी?‘ - मनोयोग से गुलदस्ता बनाते माली काका जैसे अपने-आप से ही बोलते। तो वह आँखें चैड़ी कर कह उठती -‘मैं बताऊँ... बारह तारीख को बारह बज कर बारह मिनट पर।‘
माली दादा अनी ठेंठ अलीगढ़ी अंदाज में हो हो कर हँस पड़ते। फिर बड़ी संजीदगी से कहते -‘इतना लगी रहती है, बिटिया, चली जाएगी तो ये घर बाग-बगीचा सब सूना हो जाएगा।‘
‘कहाँ चली जाऊँगी?‘ - वह इठला कर पूछती तो क्षोभ उतर आता माली काका के स्वर में - ‘अरे! वहीं जहाँ पाँच बरस पहले जाना चाहिए था।... क्या कहूं ... सहर में रहकर छोटे मालिक की बुद्धि भरमा गई है... नही ंतो अपने यहां तेरहवां लगते ही लड़की अपने घरबार को हो जाती थीं‘
‘बस फिर वहीं गंदी बात... अभी बताती हूँ‘ - और वह दौड़कर कोई तितली हाथों में कैद कर लेती। यह माली काका को निरस्त करने का सबसे कारगर हथियार था।
एक बार उसने बताया था कि कैसे उसकी सहेलियाँ तितलियों को किताबों के बीच दबा कर मार देती हैं। और फिर उन्हें ग्रीटींग कार्ड सजाने के काम में लाती हैं। माली काका ने कानों पर हाथ रख लिया -‘राम-राम बिटिया ऐसा भी कहीं होता है।‘
‘क्यों नहीं होता, खूब होता है... अब यहाँ भी होगा... मैं भी सजाऊँगी ऐसे ही।‘
रोश उमड़ आया था उनके स्वर में, याद नहीं कभी इतनी झिड़की भरी आवाज सुनी हो... ‘ना... ना बिटिया ऐसा जघन्य काम नहीं होने देंगे हम... जीव हत्या सबसे बड़ा पाप है... जो चीज हम जो चीज हम दे नहीं सकते उसे लेने का क्या हक है?‘... सीधे सादे शब्दों में उन्होंने अपना दर्शन रख दिया था।
लेकिन वह उन्हें खिझाती रहती... ‘क्या हुआ एक न एक दिन तो सबको मरना ही है। अच्छा है न जितनी जल्दी इसे कीड़े वाली योनि से छुटकार मिल जाए‘ - फिर बड़े राजदार ढंग से बोलती -‘क्या जाने काका इसे मनुष्य जन्म मिले।‘
‘हाँ हाँ! देवता का मिलेगा, पहले तू छोड़ इसे‘ - फिर खूब मिन्नतें करवा तितली को आजाद करती।
उस दिन भी उनके हाथों में काले-पीले रंगों वाली एक खूबसूरत तितली फड़फड़ाती देख माली दादा अधबना गुलदस्ता छोड़ उसकी ओर भागे थे। वह कुछ और दूर जाती हुई बोली थी -‘क्यों अब और बोलोगे जाना है?‘
असमंजस में खड़े रहते माली काका -‘तूने तो बड़ी धरमसंकट में डाल दिया बेटी... कैसे कहूँ कि नहीं जाना है।‘
‘ठीक है कहेा‘... मुँह फुलाए कहती वह और हाथों में फड़फड़ाती तितली से बोलती ’’तितली रानी, अब तो तुम हमेशा मेरे साथ रहोगी... मिनट-दो मिनट देश लो इस दुनिया को।‘’
उसका अभिप्राय जान बड़ी अजीजी से कहते माली दादा... ‘अच्छा, अब नहीं कहँूगा, छोड़ दे बिटिया, इसे।‘
‘कभी नहीं कहोगे कि जाना है...‘
‘कभी नहीं।‘ ... वे बड़ी मरी सी आवाज में बोलते।
और वह एक बारगी ही तितली को हवा में उड़ा झूठे रोश से पैर पटकने लगती -‘हाँ, हाँ... क्यों कहोगे... रामकली को तो कब का भेज दिया अपने ससुराल... मुझे कहते हो... यहीं रहना है, हमेशा।‘
मुस्करा पड़ते माली दाद... ‘तुझसे बातों में कौन जीत सकता है बिटिया... इसी से तो कहता हूं... चली जाएगी तो कैसे रहेंगे, हमलोग?‘
‘ऐ हे ऐ... फिर कहा... चली जाएगी‘ - छूटते ही बोलती वह और खिखिलाकर हँस पड़ते दोनों।
नित नई शरारतें ईजाद करना और हर किसी की खिंचाई करते रहना तो जैसे उसकी हाॅबी ही थी। लेकिन इसमें मात्र एक बाल सुलभ भोलापन और उसकी खिलंदड़ी तबियत ही थी। किसी किस्म की दुर्भावना नहीं। जान-बूझकर किसी का दिल नहीं दुखाया... अगर कभी अनजाने में ऐसे कर भी बैठी तो सच्चे दिल से माफी माँगने में भी देर नहीं की।
क्रमशः (ये एक लघु उपन्यास है,जरा धीरज धरना होगा :) )
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27 comments:
सुंदर लेखनी
रश्मि ! आपकी लेखनी का ये रूप भी मोहक है ...बीच बीच में छोटी छोटी चुटकियाँ कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करती सी प्रतीत होती हैं..आगे की कड़ी का इंतज़ार है
aage badhne ke liye utsaahit karta hai ye hissa
जारी रहिये..इत्मिनान से पढ़ रहे हैं..
आप की लेखनी ने तो बांधे रखा, बहुत सुंदर
सरल भाशा, मोहक अन्दाज़ बस पढते ही जाओ
पर ब्रेक के बाद
इन्तजार रहेगा आगे की कहानी का
कहानी बेहद ही रोचक शैली में आगे बढ़ रही है ...अगली कड़ी का इन्तजार है ..
ब्लोगिंग करते हुए बहुत धीरज हो गया है..आप निश्चिंत रहे..!!
लेखनी प्रशस्त है, बांधती है, भाषा पठनीय है। रचना को पूरी पढ़ने की रुचि जगाती है। आपको साधुवाद।
शानदार... मज़ा आ गया.. लड़की छेड़ने पर जो जवाब दिया वो तो बेहद शानदार था...
रश्मि बहना,
गुरुदेव समीर का अनुसरण करते हुए धारावाहिक उपन्यास में अध्ययनरत हूं...
बाकी न जाने क्यों इस कड़ी को पढ़ने के बाद अपनी अधपकी कलमों का ख्याल आ गया...
जय हिंद...
'नेहा नवीना' तो बहुत पसंद आई :) अब नेहा कपूर तक बनाने की कहानी रोचक होगी.
...सुबह का वक्त था... सूरज की किरणों और फूलों की पंखुड़ियों के बीच मान-मनौव्वल चल ही रहा था। पंखुड़ियों ने अभी अपना घूँघट पूरी तरह नहीं सरकाया था और न अपने आंसू ही पोंछे थे।...
.... यह वर्णन काफी रोचक बन पड़ा है. आप यूं ही लिखती रहें हम धैर्य से पूरा पढ़ेगे।
धीरज को संदेश दे दिया है ...मगर गुजारिश कर रहा है कि ज्यादा दिन तक नहीं रह पाऊंगा ...वैसे उसकी भी बात ठीक है अब ऐसी पोस्ट को पढने के बाद ....कौन रुकना चाहेगा ...तो फ़िर कब ???????
धीरज हा, बडी दुर की कडी लगती है अब तो ये । बेहद उम्दा प्रस्तुति रही , वैसे आपको बता दूँ कि इस नाम में कुछ राज भी है । अगली कडी की प्रतिक्षा ।
nice writing! keep it up.
एक गीत प्रवाही आलेख शुक्रिया
आज पहली बार देखा मोहक शैली बधाई
रश्मि,
तुम्हारी भाषा, शैली, भाव, कथन इन सबकी तारीफ करना अब हमारे वश में नहीं रहा काहे कि..हम कुछ भी कहेंगे न....वह कम ही लगेगा...
किसी भी कहानी लेखन विधा की सफलता का मानक यही होता है कि पाठक ने बीच में सांस तो नहीं ले ली ....तो हम यही कहेंगे कि इस कहानी को एक ही सांस में पढ़ा मैंने....और यह तुम्हारी सफलता है...
अगली कड़ी की प्रतीक्षा हैं...और जैसा कि वाणी ने कहा ...अब हम लोग बहुत ढीठ हो चुके हैं.....इंतज़ार कर ही लेंगे..तो फिर मिलते हैं आपसे अगली बार इसी जगह नयी कड़ी के साथ..तब तक के लिए आज्ञा दीजिये नमस्कार...
पूरे धैर्य के साथ मैं खड़ी हूँ,फिर क्या हुआ?
सुन्दर , सरल भाषा , कहानी ने बांधा हुआ है....धीरज रखना ही होगा....इंतज़ार है आगे की कहानी का.....
bahut hi badhiya chal raha hai upanyaas........agli kadi ka besabri se intzaar hai.
रश्मि जी हर बार की तरह एक बार फिर कहूँगा बहुत ही बेहतरीन रचना अगली कड़ी का इन्तजार रहेगा , प्रबाह बाधने बाल है और शैली उबाऊ नहीं लगती सुरु से अंत तक पूरी कहानी जैसे कड़ीयों में पिरोई गयी है , इस बेहतरीन रचना के लिय्वे बधाई
सादर
प्रवीण पथिक
धीरज धरे हुए हैं....
good that i've already read the story otherwise how can one wait after reading such fascinating stuff and not die for the rest.
आपकी इस कहानी ने बाँध कर रखा... है.... वर्णन ज़बरदस्त है.... तन्मयता कहीं टूटी नहीं.... अब अगली कड़ी पर चलूँ.....
धैर्य की बात कह रही हैं आप..लीजिये हमने फिर से शुरु से पढ़ना शुरु किया है।
"जैसे शेव के बाद थोड़े से साबुन के झाग अनधुले रह गए हों"...गुड आवजर्बेशन मैम आय मस्ट से....
एक जोरदार एवं भाव पूर्ण कहानी
बहुत बहुत आभार
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