Thursday, December 10, 2009

गावस्कर के 'स्ट्रेट ड्राईव' का राज़ !!



हमारे देश को सुष्मिता सेन के रूप में पहली विश्व सुंदरी मिलीं.पर विश्व सुंदरी का खिताब एक भारतीय बाला को बहुत पहले ही मिल गया होता अगर उन्होंने अपने दिल की नहीं सुन...पोलिटिकली करेक्ट जबाब दिया होता.मशहूर मॉडल 'मधु सप्रे' फाईनल राउंड में पहुँच गयी थीं. फाईनल राउंड में 3 सुंदरियाँ होती हैं और एक ही प्रश्न तीनो से पूछे जाते हैं.जिसका जबाब सबसे अच्छा होता है,उसे मिस यूनिवर्स घोषित कर दिया जाता है.सवाल था 'अगर एक दिन के लिए आपको अपने देश का राजाध्यक्ष बना दिया गया तो आप क्या करेंगी?" बाकी दोनों ने भूख,गरीबी दूर करने की बात कही....हमारी मधु सप्रे ने कहा,"वे पूरे देश में अच्छे खेल के मैदान बनवा देंगी"...जाहिर है उन्हें खिताब नहीं मिला....बहुत पहले की बात है,पर मुझे भी सुनकर बहुत गुस्सा आया था की ये कैसा जबाब है.हमारे देश को एक विश्व सुंदरी मिलने से रह गयी.पर आज जब मैं खुद मुंबई में हूँ तो मुझे उनकी बात का मर्म पता चल रहा है.मधु सप्रे मुंबई की ही हैं और एक अच्छी एथलीट थीं

इस कंक्रीट जंगल में बच्चे खेलने को तरस कर रह जाते हैं.बिल्डिंग के सामने थोड़ी सी जगह में खेलते हैं पर हमेशा अपराधी से कभी इस अंकल के सामने कभी उस आंटी के सामने हाथ बांधे,सर झुकाए खड़े होते हैं.क्यूंकि यहाँ घर के शीशे नहीं कार का साईड मिरर ज्यादा टूटता है.कई बार दो सोसाईटी के बीच झगडा इतना बढ़ जाता है (तुम्हारी बिल्डिंग के बच्चे ने मेरी बिल्डिंग के कार के शीशे तोड़े) की नौबत पुलिस तक पहुँच जाती है.फूटबाल खेलने जितनी जगह तो होती नहीं,क्रिकेट ही ज्यादातर खेलते हैं.मै खिड़की से अक्सर देखती हूँ....इनके अपने नियम हैं खेल के...अगर बॉल ऊँची गयी...'आउट'...दूर गयी...'आउट'.....पार्किंग स्पेस में गयी ..'आउट' सिर्फ स्ट्रेट ड्राईव की इजाज़त होती है.बच्चे जमीन से लगती हुई सीधी बॉल सामने वाली विकेट की तरफ मारते हैं और रन लेने भागते हैं.एक ख्याल आया, 'सुनील गावसकर' का पसंदीदा शॉट था 'स्ट्रेट ड्राईव' और उन्हें बाकी शॉट्स की तरह इसमें भी महारत हासिल थी.कहीं यही राज़ तो नहीं??.क्यूंकि अपनी आत्म कथा 'सनी डेज़' में उन्होंने जिक्र किया था कि वे बिल्डिंग में ही क्रिकेट खेला करते थे...और कोई आउट करे तो अपनी बैट उठा, घर चल देते थे (सिर्फ गावस्कर के पास ही बैट थी).. इसी से उन्हें विकेट पर देर तक टिके रहने की आदत पड़ गयी.क्या पता स्ट्रेट ड्राईव में महारत भी यहीं से हासिल हुई हो.....सचिन और रोहित शर्मा भी मुंबई के हैं और आक्रामक खिलाड़ी हैं पर सचिन शिवाजी पार्क के सामने रहते थे और रोहित.MHB ग्राउंड के सामने...उन्हें जोरदार शॉट लगाने में कभी परेशानी नहीं महसूस हुई होगी.


मुंबई में कई सारे खुले मैदान हैं पर उनपर किसी ना किसी क्लब का कब्ज़ा है.मेरे घर के पास ही एक म्युनिस्पलिटी का मैदान था...सारे बच्चे खेला करते थे...कुछ ही दिनों बाद एक क्लब ने खरीद लिया...मिटटी भरवा कर उसे समतल किया.और ऊँची बाउंड्री बना एक मोटा सा ताला जड़ दिया गेट पर.सुबह सुबह कुछ स्थूलकाय लोग,अपनी कार में आते हैं.एक घंटे फूटबाल खेल चले जाते हैं.बच्चे सारा दिन हसरत भरी निगाह से उस ताले को तकते रहते हैं.कई बार सुनती हूँ...अरे फलां जगह बड़ी अच्छी गार्डेन बनी है...देखती हूँ,मखमली घास बिछी है,फूलों की क्यारियाँ बनी हुई हैं...सुन्दर झूले लगे हुए हैं....चारो तरफ जॉगिंग ट्रैक बने हुए हैं.पर मुझे कोई ख़ुशी नहीं होती...यही खुला मैदान छोड़ दिया होता तो बच्चे खेल तो सकते थे.एकाध खुले मैदान हैं भी तो पास वाले लोग टहलने के लिए चले आते हैं और बच्चों को खेलने से मना कर देते हैं .एक बार एक महिला ने बड़ी होशियारी से बताया कि 'मैंने तो उनकी बॉल ही लेकर रख ली,हमें चोट लगती है' .मैंने समझाने की कोशिश भी की..'थोड़ी दूर पर जो गार्डेन सिर्फ वाक के लिए बनी है...वहां चल जाइए'...उनका जबाब था..";अरे, ये घर के पास है,हम वहां क्यूँ जाएँ?"...हाँ,..वे क्यूँ जाएँ? इनलोगों के बच्चे बड़े हो गए हैं,अब इन्हें क्या फिकर.जब बच्चे छोटे होंगे तब भी उनकी खेलने की जरूरत को कितना समझा होगा,पता नहीं.

कभी कभी इतवार को बिल्डिंग के बच्चे स्टड्स,स्टॉकिंग पहन पूरी तैयारी से फूटबाल खेलने जाते हैं और थके मांदे लौटते हैं...बताते हैं तीन मैदान पार कर, जाकर उन्हें एक मैदान में खेलने की जगह मिली.कभी कभी ये लोग शैतानी से गेट के ऊपर चढ़कर जबरदस्ती किसी कल्ब के ग्राउंड में खेलकर चले आते हैं.मेरे बच्चे भी शामिल रहते हैं...पर मैं नहीं डांटती....एक तो सामूहिक रूप से ये जाते हैं और फाईन करेंगे तो पैसे तो दे ही दिए जायेंगे...दो बातें सुनाने का मौका भी मिलेगा...कि अपना शौक पूरा करने के लिए वे बच्चों से उनका बचपन छीन रहें हैं.


एक बार राहुल द्रविड़ से जब एक इंटरव्यू में पूछा गया कि" क्या बात है,आजकल छोटे शहरों से ज्यादा खिलाड़ी आ रहें हैं"..इस पर द्रविड़ का भी यही जबाब था कि महानगरों में खेलने की जगह बची ही नहीं है.खेलना हो तो कोई स्पोर्ट्स क्लब ज्वाइन करना होता है.उन्होंने अपने भाई का उदाहरण दिया कि वो 8 बजे रात को घर आते हैं. इसके बाद कहाँ समय बचता है कि बच्चे को लेकर क्लब जाएँ.हर घर की यही कहानी है.मेरा बेटा खुद छुट्टियों में दो बस बदल कर फूटबाल खेलने जाता है.मैं कहती भी हूँ कि ऑटो से चले जाओ तो कहता है...120 रुपये सिर्फ एक घंटे के खेल के लिए खर्च करना ठीक नहीं.

कमोबेश हर शहर की यही कहानी है और फिर हम शिकायत करते हैं कि बच्चे आलसी होते जा रहें हैं.उनमे मोटापा बढ़ रहा है. उन्हें सिर्फ टी.वी.और कंप्यूटर गेम्स में ही दिलचस्पी है.

34 comments:

shikha varshney said...

रश्मि जी ! इस सार्थक लेख के लिए ढेरों बधाई ,विषय जितना समायिक और गंभीर है ,उतना ही आपके लेखन के कुछ रोचक हिस्सों ने इसे मनोरंजक भी बना दिया है.
जैसे -

"इस कंक्रीट जंगल में बच्चे खेलने को तरस कर रह जाते हैं.बिल्डिंग के सामने थोड़ी सी जगह में खेलते हैं पर हमेशा अपराधी से कभी इस अंकल के सामने कभी उस आंटी के सामने हाथ बांधे,सर झुकाए खड़े होते हैं"
और -

"मै खिड़की से अक्सर देखती हूँ....इनके अपने नियम हैं खेल के...अगर बॉल ऊँची गयी...'आउट'...दूर गयी...'आउट'.....पार्किंग स्पेस में गयी ..'आउट' सिर्फ स्ट्रेट ड्राईव की इजाज़त होती है"
और अंत में -

"कमोबेश हर शहर की यही कहानी है और फिर हम शिकायत करते हैं कि बच्चे आलसी होते जा रहें हैं.उनमे मोटापा बढ़ रहा है. उन्हें सिर्फ टी.वी.और कंप्यूटर गेम्स में ही दिलचस्पी है. "

कितना सही और सटीक लिखा है...काश उन लोगों तक ये बात पहुँच जाये ,जहाँ पहुंचनी चाहिए.

अनिल कान्त said...

आजकल बड़े शहरों का हाल बुरा हो गया है, ज़रा सा खुला मैदान मिला नहीं, बिल्डिंग, अपार्टमेंट्स खड़े कर दिए जाते हैं. बच्चों को बस इंजिनियर और डॉक्टर बनाना है. दे दिया जाता है कंप्यूटर या वीडियो गेम, अब ऐसे में कहाँ से वो खेल सकते हैं और क्या क्षमता रह पाएगी खेलने की जब बात क्लब जोइन करने की आ जाए तो. इसी लिए छोटे शहर इस मामले में बेहतर हैं.

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

आजकल बड़े शहरों में बिल्डरों ने ज़मीनों पे कब्ज़ा कर लिया है.... जहाँ खाली ज़मीन दिखी नहीं की..... कब्ज़ा हो गया..... और सरकार भी मुनाफे के चक्कर में इन बिल्डरों को सहारा देती है..... हर जगह दलाली खा के और खिला के ज़मीनों पे कब्ज़ा किया जीता है..... कमोबेश यह छोटे शरों में नहीं है क्यूंकि वहां ज़मीनों के दाम आसमान नहीं छूते हैं..... जिस दिन यह छोटे शहरों में भी हो गया... वहां भी खेलने के मैदान नहीं बचेंगे.....

बहत ही सार्थक पोस्ट .... इस सार्थक पोस्ट के लिए बधाई स्वीकार करें....

Unknown said...

Bohot achha likha aapne kaki... aaj ki date mein sab ye bolte hain ki "aajkal ke bachho ka dhyaan sirf t.v aur computer games ki taraf hai.. aur hamare zamaane mein hum outdoor games zyada khela karte the jis wajah se hum fit bhi rehte the." but kabhi kisi ne is baat ka khaayal nahin kiya ki bachho ka rujhaan aaj t.v n video games ki taraf kyun hai.. wo isliye kyunki unhe wo khula aakash , wo khula maidan nahin mil pata jahan wo khul kar angraai le sake, apne nanhe man ke sapnoo ko saarthak kar saken.. apne bachpan ko ji sake.. aur isliye unki duniya ghar ki chaar-diwari mein hi simat kar reh gayi hai..jahan unke manoranjan ke liye sirf aadhunik yantra hi hain....
Aapne is tathya ko bakhubi ubhaara hai.. umeed hai ki un logo tak ye sandesh pohoch jaaye jo bachho ke t.v n games khelne par naaraz hote hai ya phir unhe "addicted" ki upadhi dete hain:D

Chandan Kumar Jha said...

इसी तरह का एक वाकया मुझे याद आ रहा है । जब आसनसोल में रहता था तब घर के पास हीं एक बड़े से मैदान में खेलने जाया करता था । यह मैदान ECL (EASTEN COAL FIELD LTD.)का था । इस मैदान को बाद में बिल्डर्स के हाथो बेच दिया गया । अपना खेल जारी रखने के लिये हमें नयी जगह खोजने में बहुत ही मुश्किले आयी । क्रिकेट मेरा प्रिय खेल था । पर धीरे धीरे इस खेल में रुचि कम होती गयी, और आज क्रिकेट देखता भी नहीं, कारण नहीं जानता ।

Chandan Kumar Jha said...

बहुत ही बढ़िया लिखा है आपने दीदी । यह अंधानुकरण न जाने हमें कहां लेकर जयेगा । पर अभी भी देर नहीं, बस जरूरत है एक सार्थक पहल की ।

rashmi ravija said...

प्रज्ञा जैसे तुमने, अपने दिल की बात खोल कर रख दी...सच तुम बच्चों का क्या कसूर...हम बड़े ही तुम्हे वो खुला आसमान और दूर तक फैली धरती नहीं दे पाते हैं.

सतीश पंचम said...

विनोद कांबली के बारे में सुना है कि वह चाल में रहते थे। आसपास के घरों में गेंद न लगे इसलिये गेंद को उंचा उठाकर मारते थे और शायद यही राज था कि कांबली ज्यादातर ऐसे ही शॉट खेलते देखे गये।
बढिया पोस्ट।

Sudhir (सुधीर) said...

ज्वलंत विषय और सार्थक चिंतन....साधू

वाणी गीत said...

आपका सवाल बिल्कुल जायज़ है ...हम बच्चों के आलसी होने और कंप्यूटर पर बैठे रहने की शिकायत करते हैं ...जब कि खुद हमने उनके खेलने के अवसर सीमित कर दिए हैं ...मेरे घर के सामने एक पार्क है ...शाम को छोटे बच्चों की बहुत रौनक हो जाती है ...मगर इधर कॉलोनी मे वहाँ एक मंदिर बनाने की बात की जा रही है...हालाँकि मैने और कुछ महिलाओं ने इस पर अपना विरोध दर्ज करा दिया है ... आगे देखते हैं क्या होता है ...!!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

कमोबेश हर शहर की यही कहानी है और फिर हम शिकायत करते हैं कि बच्चे आलसी होते जा रहें हैं.उनमे मोटापा बढ़ रहा है. उन्हें सिर्फ टी.वी.और कंप्यूटर गेम्स में ही दिलचस्पी है.

अच्छा विषय है...एक समस्या को उठाता लेख.आज हर शहर में बच्चों के लिए खेलने के मैदानों
की कमी है. गंबीर विषय को कलात्मक शैली में लिखा है....बधाई

अजय कुमार said...

यहां मुम्बई में मैंने देखा कि एक मैदान में एक साथ क्रिकेट के कई मैच चल रहे होते हैं। इसकी बाउंड्री उसमें,उसकी बाउंड्री इसमें । सच है खुले जगहों की बहुत कमी है , मजबूरी में बच्चे इनडोर गेम खेलते हैं । जो उनके सर्वांगीण विकास में बाधक है ।

कुश said...

हमने भी बचपन में सिर्फ स्ट्रेट शोट्स ही लगाये है.. अपराधी की तरह हाथ जोड़ कर छुपे भी है.. और एक ही घर में तीन लाईट्स तोड़ने के बाद भागे भी है.. लेकिन वो सब पुरानी बाते है.. एक लम्बे अरसे से मैंने गली में किसी को खेलते हुए नहीं देखा.. आपकी पोस्ट पढने से पहले कभी इस तरफ ध्यान ही नहीं गया था..वाकई कंक्रीट के जंगलो में खेल के मैदान गुम होते जा रहे है..

मधु सप्रे वाली बात पता नहीं थी.. लेकिन बात कितनी सही थी ये समझ सकता हूँ.. वाकई बहुत उम्दा लेख है..

Ashish said...

Samajik vishayo aur samsayo par apki lekhni khub chalti hai , jo ki aaj ke jarurat hai aur sare prabuddh nagriko ka kartvaya bhi. Sarkar ko bhi ek din aise samsayo ko sangyan me lete hue karwai karni hogi agar wo humare desh ki aanewale nagriko ke swasthya ki raksha karna chahati hai.

RAJ SINH said...

रश्मि जी ,
आपने मुंबई का दर्द बता दिया .यह शहर मेरा बचपन और काफी जवानी तक रहा , आज फिर है .मैं ५५ की मुंबई में खेलने को नहीं तरसा ,काफी मैदान थे .आज की मुंबई ने तो बच्चों से उनका बचपन ही हड़प लिया है ,जिस तंत्र की तहत यह षड्यंत्र हुआ है आपने उसे उजागर कर दिया. पर किया क्या जाये ?

स्वप्न मञ्जूषा said...

रश्मि,
बहुत ही बड़ी समस्या की और इशारा किया है तुम्हारे आलेख ने...
आज का यह सबसे बड़ा सच है...बिल्डरों ने अपना वर्चस्व इस कदर हावी कर रखा है बड़े बड़े शहरों में कि जिसका कोई हिसाब बही....
यहाँ तक की आम आदमी भी अब बिल्डर्स के तरह ही सोचता हैं..चलो बाप दादा के बनाये हुए घर तो तोड़ते हैं एक बहुत मजिल इमारत बनाते हैं और बेचते हैं...यही बातें अब घर घर में होतीं हैं...दिल्ली में लोगों ने फूल-पौधों के लिए एक इंच भी जगह छोड़ता क्रिमिनल की श्रेणी में रखा हुआ है....
लोग खेलों और पौधों से विमुख होते जा रहे हैं...
बहुत ही अच्छा लिखा है तुमने...

रेखा श्रीवास्तव said...

रश्मि,

बहुत अच्छी बात सोची है, कहाँ कि बात कहाँ तक ले गयीं. वैसे बहुत सही बात है. हम बच्चों को क्यों दोष दें.
न खुली हवा , न खेल के लिए जगह, उनके बहुमुखी विकाश कि बातें करें वाले लोग इस taraph भी कभी सोचते हैं. सिर्फ अपने लिए सोचते हैं. काश ! ये सोच कुछ और logon को मिल जाए.

सागर said...

पाल से एक रोग नादाँ - गौतम जी से होता हुआ यहाँ आया...
क्रिकेट सम्राट वाली पोस्ट भी अच्छी लगी... वो एक साहसिक और अच्छा कदम था... कुछ कदम की अहमियत हम अपने तक ही समझते हैं...
बर्बाद सी जिंदगी में खेलकूद को अब मिस करना भी बंद कर दिया है... गोया मिस करने का दौर भी लिमिटेड ही होता है... एक समय था DD -1 पर स्वाभिमान ख़तम होते ही मैदान में विकेट्स लग जाते... और एक कोसको की बाल के लिए खून खराबा भी हुआ है... पिच कोड़ने से लेकर अपनी सलामी 'उनके' बालकनी में सिक्स मारकर पहुँचाने तक का भी खेल खेला है... बहुत से रोचक किस्से याद आ रहे हैं.. पटना का विमेंस कॉलेज उससे जुडा है... खैर...

DDLJ वाली पोस्ट पसंद आई... चवन्नी चंप का मैं भी फैन हूँ... DDLJ वाली सीरिज मैं भी पढता था... और बहुत सा ज्ञान भी उससे मिला... राज़ में एक आदर्श बेटा, भाई, आशिक, दोस्त और पता नहीं क्या-क्या था... बारिश अगर आज भी राजकपूर- नर्गिस की याद दिलाती है तो सरसों के खेत राज़ और सिमरन की... अब सिमरन से भी कुछ याद आया... क्या मिस करने का दौर लिमिटेड ही होता है?

चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345 said...

अच्छा लिखा आपने. शायर का दर्द था--दो गज ज़मीन भी ना मिली कूचे दयार में. सच है--जहां दफ्न के लिए जगह ना मिले, वहां खेलने की ख़ातिर कैसे मिलेगी? लालची बिल्डरों (सभी नहीं)की चले, तो वो फ़न को दफ्न ही कर दें. मामला सीरियस इसलिए भी है, क्योंकि बात सिर्फ fun की ही नहीं, फन (हुनर) में माहिर होने की भी है.

अर्कजेश said...

बहुत अहम बात उठायी आपने अब तो छोटे कस्‍बें और गांवों में भी सार्वजनिक जगहों पर अतिक्रमण के कारण खेल के मैदान गायब होते जा रहे हैं ।

आपने सही कहा फिर कहा जाता है कि बच्चे आलसी होते जा रहें हैं.उनमे मोटापा बढ़ रहा है. उन्हें सिर्फ टी.वी.और कंप्यूटर गेम्स में ही दिलचस्पी है.

Udan Tashtari said...

बहुत आवश्यक और सार्थक विषय उठाया है आपने.

बच्चों के लिए खेल के मैदान/पार्क आदि का प्रावधान आबादी के अनुपात में आवश्यक करना होगा, तभी समस्या का निदान होगा अन्यथा तो कांक्रिट के जंगल सघन दर सघन होते जा रहे हैं.

Udan Tashtari said...

आजकल तो स्कूलों में भी खेल के मैदान नदारद हैं.

Dileepraaj Nagpal said...

Dr. Dushyant Ki Bade Shahron Me Aksar...yaad Aa Gayi...Shukriya

प्रवीण शुक्ल (प्रार्थी) said...

रश्मि जी बहुत ही दर्दनाक विषय उठाया है आप ने शहरो की दुश्बार होती जिन्दगी का एक पहलू दिखने का जो प्रयाश आप ने किया है,बहुत ही सार्थक है ,, यहाँ ये ध्यान रखने योग्य बात है केवल आदर्शो की लम्बी चौड़ी बाते करने से भावी पीढ़ी का विकास (जिससे देश का का विकाश भी सम्मिलित है ) संभव नहीं है उसके लिए यथार्थ कीप्रष्ठ भूमि पर रह कर सोचना होगा

सादर
प्रवीण पथिक
९९७१९६९०८४

विवेक रस्तोगी said...

सही बात पकड़ी है हमने भी बचपन भले ही छोटे शहर में बिताया परंतु खेलना घर में ही पड़ता था, छोटी सी जगह पर क्रिकेट, कि एक टप्पा कैच आऊट और भी पता नहीं क्या क्या नियम बनाये थे हम लोगों ने, और अब यहाँ मुंबई में फ़्लेट अभी हमने बदला है तो यह देखकर कि कम से कम बच्चे के लिये बगीचा हो और साईकिल चलाने की जगह हो, क्रिकेट या फ़ुटबाल तो यहाँ सपने की बात है, पर फ़िर भी फ़ुटबाल और क्रिकेट खेल ही लेता है हमारा बेटा छोटे से बगीचे में, कभी कभी हम भी हमारा शौक पूरा कर लेते हैं उसी छोटे बगीचे में।

हम भी मधु सप्रे की बात का समर्थन करते हैं।

शरद कोकास said...

रश्मि जी , इस नज़रिये से तो हम लोगों ने देखा ही नहीं कभी कि बड़े शहर में रहने वाले बच्चे किस तरह खेल से वंचित हो रहे हैं । छोटे शहरों की भी लगभग यही समस्यायें है क्योंकि अब खेल (कूद) को गौण माना जा रहा है । खेल मंत्रालय शायद ही कभी इस ओर ध्यान दे । मधु सप्रे के जवाब पर हमे गर्व है भले ही उन्हे विश्व सुन्दरी का खिताब न मिला हो । इस विषय पर यह चिंतन अच्छा लगा ।

Unknown said...

बात मधु सप्रे से शुरु होकर खेल के मैदान तक गयी. एक ऐसा मुद्दा आपने बहुत जोरदार ढन्ग से उठाया है पर समाधान शायद यही है कि गावो की ओर लौटो. शहरीकरन और शहरो तक सिमटा विकास धनबल और सत्ता बल को ही रास आता है व्यक्तिगत रूप से क्रिकेट मेरा प्रिय खेल रहा है लेकिन मेरा मानना है कि यह खेल आम हिन्दुस्तानी के विकास और सहज उपलब्धता के पैमाने पर खरा नही उतरता है. मुझे हमेशा ये लगता है कि क्रिकेट मे कौशल का महत्व तो है पर शारीरिक विकास और स्फ़ूर्ती के लिये बहुत जगह नही है.

Khushdeep Sehgal said...

रश्मि बहना,
बड़ा अच्छा मुद्दा उठाया आपने...हम महानगरों में बच्चों को कोसते हैं कि घर पर बैठे रहते हो बाहर खुले में खेलने
क्यों नहीं जाते...लेकिन वो खेलने जाएं भी तो जाएं कहां...मैं अपने घर के पास पार्क देखता हूं...लेकिन वहां गेम
खेलने की तो दूर बच्चों को दौड़ने तक की इजाज़त नहीं होती...

आज धोनी साल के पचास करोड़ कमा रहा है...इसलिेए मां-बाप भी बच्चों को क्रिकेटर ही बनाना चाहते हैं...और
क्रिकेट आज मैदान में खेला ही कहां जाता है वो तो टीवी पर खेला जाता है...बाज़ार के लिए...टीवी एड्स के लिए...
और इस क्रिकेट के चक्कर में देश में और किसी खेल की पूछ नहीं रह गई है...जितने नेता हैं, उन्हें भी अब चुनाव
के साथ ही क्रिकेट का पदाधिकारी बनने की ही फिक्र रहती है...वजह है सिर्फ मोटा पैसा...

देश की बदकिस्मती है कि गांवों में हमारे पास खुले मैदान हैं...लेकिन सरकार या समाज वहां ठेठ देसी खेलों को
बढ़ावा देने के लिए कोई कारगर कदम नहीं उठाते...दौड़, खेल कूद जैसे शारिरिक दमखम वाले खेलों को हम बढ़ावा
दे तो शायद ओलंपिक में बेहतर कारगुजारी दिखा सकें...यही त्रासदी है कि गांवों में मैदान हैं, खिलाड़ी नहीं...शहरों
में खिलाड़ी हैं, मैदान नहीं...

जय हिंद...

निर्मला कपिला said...

बहुत सही मुद्द उठाया है सच मेआपने सही कहा फिर कहा जाता है कि बच्चे आलसी होते जा रहें हैं.उनमे मोटापा बढ़ रहा है. उन्हें सिर्फ टी.वी.और कंप्यूटर गेम्स में ही दिलचस्पी है.। सही बात है मगर हम लोग फिर भी कुछ नहीं कर पा रहे। तुम्हारी पोस्ट बहुत कुछ सोचने के लिये मजबूर कर रही है जिसका बस जवाब एक भी नहीं मिल रहा\ शुभकामनायें

गौतम राजऋषि said...

आपका विषय-चयन इस बार भी अचंभित कर गया मुझे।
मधु सप्रे के जवाब ने उन दिनों मुझे भी हैरान किया था जब मैंने अपनी दीदी के मुँह से ये बात सुनी। सोच रहा था कि कितनी अजीब लड़की है ये मधु सप्रे...आज इतने दिनों बाद आपने खुलासा किया।
खेल-कुद कितना अहम है हमसब के लिये, काश कि हम भारतीय इस बात को समझ पाते। लेकिन हमारा खेलकूद का कंसेप्ट बस क्रिकेट तक सीमित होकर रह जाता है।

हरकीरत ' हीर' said...

'' कभी कभी इतवार को बिल्डिंग के बच्चे स्टड्स,स्टॉकिंग पहन पूरी तैयारी से फूटबाल खेलने जाते हैं और थके मांदे लौटते हैं...बताते हैं तीन मैदान पार कर, जाकर उन्हें एक मैदान में खेलने की जगह मिली....''

सचमुच खेल-कूद से बच्चों के मानसिक विकास के लिए बहुत जरुरी है और स्कूल की भारी भारी किताबों की थकान भी मिट जाती है इससे ...पर महानगरों की अपनी समस्याएं हैं ...शहर को खुबसूरत बनाने के लिए इस तरह के मैदानों को पार्क का रूप दे दिया जाता है ....पर आपने बड़ा अहम् मुद्दा उठाया ....अब तो गुवाहाटी में जिन फ्लैटों का निर्माण हो रहा है उनमें इन सब चीजों का ध्यान रखा जा रहा है .....!!

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

वाह रश्मि जी,
वाकई आपने अपने ब्लॉग मंच को जिम्मेदार लेखन की और मोड़ा है. समाज हित में यह सन्देश सभी के लिए सोचनीय है.
चलिए अब से नियमित आने की कोशिश करूँगा.

Mithilesh dubey said...

क्या बात है , पता नहीं आप कैसे ऐसे मुद्दे को चुन लेती है ,और सबसे बड़ी बात तो यह होती है आपका विश्लेषण देखने लायक होता है ,सच में लाजवाब ।

विजय कुमार झा said...

बढिय़ा लिखती हैं आप। कुछ दिनों पहले मैं भी इस अनुभव से रूबरू हुआ, तो बच्चे के खातिर कमरा पार्क की जगह ले लिया। आपने दिल कीबात कह दी। धन्यवाद