Monday, September 27, 2010

हैप्पी बर्थडे ... मन का पाखी

'मन का पाखी' ने एक वर्ष की उड़ान भर ली और अब तक थका हो...ऐसा महसूस तो होता नहीं. वैसे भी मन के पाखी को इस  ब्लॉग आकाश की खबर बहुत दिनों बाद चली. और गलती मेरी थी, पिछले 5 साल से नेट  पर सक्रिय हूँ पर हिंदी ब्लोग्स   के बारे में मालूम नहीं था. बस कभी कभार 'चवन्नी चैप' पढ़ लिया करती थी. एक बार वहाँ हिंदी फिल्मो से सम्बंधित किसी के संस्मरण पढ़े और मेरा भी मन हो आया कि अपने अनुभवों को कलमबद्ध करूँ. मैने भी अपने  संस्मरण लिख कर अजय(ब्रहमात्मज) भैया को भेज दिए  (.हाँ, वे मेरे भैया भी हैं.) उन्हें पसंद आई और उन्होंने पोस्ट कर दी. उस पोस्ट पर काफी  कमेंट्स आए पर उस से ज्यादा लोगों ने  उन्हें फोन कर के बोला,कि 'बहुत अच्छा लिखा है.' मैने बेवकूफी भरा प्रश्न पूछ लिया कि "जब इतने लोगों को अच्छा लगा तो उन्होंने कमेंट्स क्यूँ नहीं लिखे?" और अजय भैया ने बताया "सबलोग कमेंट्स नहीं लिखते" (अब तो मैं भी यह बात बहुत अच्छी तरह जान गयी हूँ...इसलिए मेरे ब्लॉग के Silent Readers आप सबो का भी बहुत आभार,मेरा लिखा ,पढ़ते रहने के लिए:) )

अजय भैया ने मुझे अपना ब्लॉग बनाने की सलाह दे डाली . पर मैं  बहुत आशंकित थी. यूँ तो पहले भी मैं पत्रिकाओं में लिखती थी.पर लिखने और छपने के बीच एक एडिटर होता था. यहाँ खुद ही निर्णय लेना था,क्या लिखना है? पर अजय भैया रोज ही पूछने लगे थे. उन्हें ऑनलाइन देख मैं डर जाती. उन्हें पता था,मैने कहानियां लिख रखी हैं.कहने लगे कम से कम एक जगह एकत्रित  करने की सोच ही ब्लॉग बना डालो. और मैने ब्लॉग बना कर अपनी एक कहानी पोस्ट कर दी.,चंडीदत्त शुक्ल ,आशीष राय,रेखा श्रीवास्तव ,कुश, ममता ये लोग पहली पोस्ट से ही मेरे ब्लॉग के पाठक  बन गए और लगातार उत्साहवर्द्धन  करते रहें. आप सबका शुक्रिया .

दूसरी पोस्ट पर भी कई नए लोगों के कमेंट्स आए.उसके बाद तो मुझमे आत्मविश्वास आ गया,और किसी भी विषय पर लिखने लगी. आज जब पुरानी पोस्ट पर नज़र डाली तो कुछ नाम देख हैरान रह गयी.उड़न तश्तरी , डिम्पल, निर्मला कपिला, रश्मि प्रभा,दिलीप कवठेकर, कमल शर्मा, प्रवीण शाह,  सुलभ सतरंगी, रंगनाथ सिंह, पंकज उपाध्याय, गिरीश बिल्लोरे, दर्पण शाह , अपूर्व, विजय कुमार सप्पति, शमा, अनिल कांत, रंजना भाटिया, जाकिर अली, सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, नीरज गोस्वामी, सुरेश चिपलूनकर, डा. दराल ये लोग शुरू से ही टिप्पणी देकर  मेरी हौसला  अफजाई करते रहें हैं ('जी' सबमे कॉमन है :))  आप सबो का शुक्रिया.

निर्मला जी ने जब लिखा "तुम्हारी शैली बहुत प्रभावित करती है" और अगले कमेंट्स में कई लोगों ने उसका अनुमोदन किया तो मैने आश्चर्य से सोचा, "अच्छा ! मेरी कोई शैली भी है. " ऐसे ही दीपक मशाल ,अजय झा,राज भाटिया जी, विवेक रस्तोगी जी  और कई लोगों ने कहा 'आपके लेखन में सहज प्रवाह  है" तो मन में संतोष हुआ. मुझे किसी भी लेख में सबसे ज्यादा उसका फ्लो पसंद आता है...और थोड़ा बहुत मेरे लिखने में भी आ गया है, अच्छा लगा,जान. नीरज गोस्वामी जी का ये कहना ,"आपके विचार बहुत स्पष्ट हैं" और गौतम राजरिशी का बार बार उल्लेखित करना कि "आप का विषय चयन अचंभित कर देता है '...हैरान कर देता, इतना कुछ दिख गया ,इनलोगों को मेरे लेखन में और मुझे कुछ पता ही नहीं था.

एक शाम  अमिताभ बच्चन के ब्लॉग में पढ़ा, कि वे मिडिया द्वारा ब्लॉग को महत्व नहीं दिए जाने से बहुत दुखी हैं और मैने एक पोस्ट लिख डाली  ,अमिताभ और ब्लॉग जगत का साझा दर्द उस पोस्ट पर काफी लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया दीं अविनाश वाचस्पति, स्मित अजित गुप्ता, हरकीरत हकीर, गिरश बिल्लोरे, मुफलिस,रंजना ,शाहिद मिर्ज़ा शाहिद, कुलवंत हैप्पी,अर्क्जेश ,सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी,  दिगंबर नासावा, किशोर चौधरी,  डा.प्रवीण चोपड़ा,.इनमे से कुछ लोग तो  नियमित रूप से मेरी पोस्ट्स पढ़ते हैं. सबका आभार.

पर मैं हैरान थी, लोगों को मेरी पोस्ट के बारे में पता कैसे चल जाता है? अजय भैया के  कहने पर  मैने ब्लॉग वाणी पर रजिस्टर कर लिया था .पर ना मुझे वहाँ कुछ देखना आता था ना ही मैं कभी वहाँ 'लॉग इन' करती. ऐसे में  एक पोस्ट पर नमूदार हुए 'महफूज़ अली'. और गूगल  ने हमें दोस्त बना दिया.'हॉट  लिस्ट','चटका' ,वहाँ से दुसरो की पोस्ट पर कैसे जा सकते हैं, यह सब महफूज़ ने समझाया. महफूज़ की दोस्ती जिन्हें मिली है, उन्हें पता है कि सारी दुनिया आपके विरुद्ध हो जाए पर आप,महफूज़ को अपने साथ खड़ा पाएंगे. और महफूज़ अपने दोस्तों की कही किसी  बात का बुरा नहीं मानते. मैने दो,तीन बार किसी और की पोस्ट पर दिए ,महफूज़ के कमेन्ट पर  पब्लिकली बड़े कड़े शब्दों में आपत्ति प्रकट की है. महफूज़ की जगह कोई और होता तो मैं शब्दों में हेर-फेर कर माइल्ड बना देती.पर मुझे पता था,इस से महफूज़ से मेरी दोस्ती के इक्वेशन पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा..और ऐसा ही हुआ. बस महफूज़,अपना उतावलापन जरा कम कर लो, और जल्दी से अपनी गृहस्थी बसा लो, अपने आप स्थिरता आ जाएगी.शुभकामनाएं.

महफूज़ ने अदा और शिखा को मेरे ब्लॉग से परिचित करवाया. अदा से आंचलिक  भाषा में टिप्पणियों के आदान-प्रदान को मैने बहुत एन्जॉय किया. अदा, इतनी व्यस्त रहने के बावजूद,अपने दोस्तों की प्रशंसा कर उन्हें आसमान पर बिठाना , नव-वर्ष और जन्मदिन पर शुभकामनाएं देना नहीं भूलती. सीखने पड़ेंगे ये सारे गुण.

शिखा और मैं तो अक्सर इनविजिबल मोड में रहकर पोस्ट लिखते रहते हैं और  डिस्कस भी करते रहते हैं. कमियां भी बताते हैं और एक दुसरे को आश्वस्त भी करते हैं,"न एडिट की जरूरत नहीं,रहने दो" शिखा से जाना कि ये 'फौलोवर लिस्ट' और 'डैश बोर्ड' क्या बला है. उसकी बहुत अच्छी आदत है कोई भी कमेन्ट करे वो उन्हें थैंक्स बोलती है,उनका ब्लॉग चेक करती है,फौलो करती है और कमेन्ट भी कर आती है. मैं बहुत कोशिश करती हूँ ये सब सीखने की,पर मेरी  लम्बी किस्तों को टाइप करने की थकान और कुछ मेरा laid back  attitude  आड़े आ जाता है. (शिखा, बहुत कुछ जमा हो गया है तुमसे सीखने को :))

शिखा और अदा के साथ वाणी गीत और संगीता स्वरुप जी भी मेरा ब्लॉग पढने लगीं. ये लोग इतनी सारगर्भित टिप्पणी देती हैं कि मेरी पोस्ट इनकी टिप्पणियों के बिना अधूरी रहती है. वाणी बहुत ही अच्छी सहेली है और उसके बेबाक विचार और सुन्दर लेखन शैली की तो फैन हूँ मैं.

मैने ब्लॉग जगत में कई जगह बहसों में जम कर हिस्सा लियाऔर खुल कर अपने विचार रखे. शायद
यही देख, ,रचना जी ने नारी ब्लॉग पर लिखने का निमंत्रण  दिया.और मैने वहाँ ,'मोनालिसा स्माइल फिल्म के बारे में लिखा,जो अब भी मेरे प्रिय पोस्ट में से एक हैं.एक पूरा सन्डे 'बेनामी  जी' के ब्लॉग पर बहस में व्यतीत  हुआ और मुझे पता भी नहीं था कि मेरी 'विवाह-संस्था' पर इतनी आस्था है. दूसरे पक्ष की वकालत ,'गिरिजेश राव जी, अमरेन्द्र त्रिपाठी, लवली गोस्वामी,दिव्या श्रीवास्तव जैसी शख्सियत कर रहें थे और मैं अकेले 'मोर्चा संभाले  थी. जब अंत में सबकी खिंचाई करने वाले, बेनामी जी ने कहा' आपकी सोच में एक सफाई है ,जो नमन मांगती है ' तो मेरा सन्डे बर्बाद होने का सारा मलाल चला गया. चिट्ठा चर्चा पर  भी अपनी असहमति जताने में मैने हिचक नहीं बरती.

पर चिट्ठा चर्चा ने एक बहुत ही प्यारी सहेली दी.'वंदना  अवस्थी दुबे' ,उस से बातें करते तो लगता है.'कॉलेज के नहीं स्कूल के दिन लौट आए हैं.बात बात पे कहती है,"विद्या कसम" जो मैने स्कूल के बाद अब तक नहीं सुना था .मेरे लेखन की सजग पाठक है और किसी भी कमी की तरफ तुरंत इंगित करती है. 'विद्या कसम' ,वंदना ऐसी ही पैनी नज़र रखना मेरे लिखे पर:)

पापा की सर्विस में उनकी पोस्टिंग के समय हुए कुछ रोचक (और भयावह भी ) घटनाओं पर लिखे संस्मरण और मुंबई की लोकल ट्रेन के संसमरण लोगों को खूब पसंद आए.चंडीदत्त जी ने सलाह दी कि, "संस्मरण, शब्द चित्र और रेखा चित्र " पर ज्यादा कंसंट्रेट करूँ. शरद जी के आश्वासन पर ,डायरी में कैद अपनी कुछ  कविताएँ भी पोस्ट करने की हिम्मत कर डाली. बच्चों के लिए खेल की अनिवार्यता..... काउंसलिंग की आवश्यकताऔर बाल मजदूर की त्रासदी पर भी लिखे मेरे पोस्ट, पसंद आए सबको. कई लोगों ने  मुझे बच्चों से संबंधित विषयों पर लिखने की सलाह दी. विजय कुमार सपत्ति जी शिवकासीमें काम कर रहें बाल मजदूरों  की दशा  के बारे में पढ़कर इतने  द्रवित हो गए कि मुझसे 'नुक्कड़ ब्लॉग' से जुड़ने का आग्रह किया ताकि मानस के मोती के जरिये , पोस्ट सब तक पहुँच सके. आप सबका आभार,मेरे लेखन पर इतनी बारीक नज़र रखने के लिए.

अलग-अलग  विषयों  पर लिखना जारी था और ममता कुमार (मेरी भाभी ) मुझसे पूछती रहतीं, "कहानी कब पोस्ट कर रही हैं?" प्रथम पोस्ट से अब तक की हर पोस्ट वे पढ़ती हैं और जहाँ सहमत ना हों,आपत्ति जताने से भी नहीं चूकती ,  इनके जैसे ही कुछ नॉन-ब्लॉगर सौरभ हूँका,आलोक, आदि कुछ अंग्रेजी पढने-लिखने -बोलने वाले लोग हैं पर मेरा लिखा बड़े शौक से पढ़ते हैं. शुक्रिया दोस्तों.

मैने कहानी की किस्तें डालनी  शुरू कर दीं.अब कई लोग नेट पर लम्बी कहानी पढने के आदी नहीं हैं. मैने भी दूसरे आलेखों  के लिए दूसरा ब्लॉग बना लिया.जिन्हें कहानियों का शौक था, बस  वे लोग ही इस ब्लॉग  पर आते रहें. पहले  लघु उपन्यास की  अंतिम किस्त पर आचार्य सलिल जी ,डा.अमर कुमार जी, रवि रतलामी जी, ज्ञानदत्त पण्डे जी, ताऊ रामपुरिया जी, इन लोगों की टिप्पणी से पता चला ये लोग भी मेरा लिखा पढ़ रहें थे.

मेरे लेखन ने,आचार्य सलिल जी, ज्ञानदत्त जी, सारिका,आलोक, डा. अमर कुमार, डा.तरु ...... कई लोगों को  (शायद भावनाओ की रौ में)  दिग्गज साहित्यकारों के लेखन  और उनकी कृतियों  की याद दिला दी. शायद मैं सातवें आसमान पर पहुँच जाती पर चंडीदत्त  जी, शरद जी, शहरोज़ भाई, अनूप शुक्ल जी,राजेश उत्साही जी  की टिप्पणियों ने हमेशा धरातल पर रखा. इन लोगों ने मेरा उत्साहवर्धन भी कम नहीं किया. पर यदा-कदा बताते भी रहें कि,यहाँ शिल्प की  कमी है,या साहित्यिक शब्दों की कमी खलती है,वगैरह.

प्रारम्भ से जिन लोगों  ने मेरी पोस्ट्स पढनी शुरू की,अब तक अपना स्नेह बनाये रखा है . बाद में कुछ नए नाम भी शामिल हो गए.
प्रथम उपन्यास से वंदना गुप्ता, सतीश पंचम जी, हरि शर्मा जी, दीपक शुक्ल जी, मनु जी,मुदिता, पूनम, शुभम जैन,  विनोदकुमार पाण्डेय, अबयज खान,पाबला जी हर किस्त पर  साथ बने रहे. खुशदीप भाई ने तो मुझे सीरियल में स्क्रिप्ट लेखन की कोशिश की सलाह भी दे डाली.

दूसरे लघु उपन्यास से , मुक्ति, संजीत त्रिपाठी, हिमांशु मोहन जी जुड़ गए और अपनी समीक्षात्मक  टिप्पणियों  से मेरी मेहनत  सार्थक करते रहें. अनूप शुक्ल जी ने कुछ अंशों को बॉक्स  में उद्धृत करने की तकनीकी सलाह भी दी.पर मैं नाकाम रही. (अब उन्हें सलाह देने के लिए थैंक्यू बोलूं या मेरे अमल ना कर पाने के लिए सॉरी, समझ में नहीं आता :))

तीसरा लघु उपन्यास तो इन्हीं पाठकों के साथ ने लिखवा ली.साधना वैद्य जी और शोभना चौरे , इंदु पूरी जी, प्रवीण पाण्डेय जी, घुघूती बासूती जी   ने भी पढ़ा और  ख़ास नज़र रखी,इस उपन्यास पर.

पिछली दो कहानियों पर अली जी  की समीक्षात्मक टिप्पणी ने अपनी ही लिखी कहानी को समझने में मदद की.  अभी और रोहित  की संवेदनशीलता भी कहीं गहरे छू गयी.

एक उल्लेख और करना चाहूंगी, "पराग, तुम भी.." में पहली बार मैने अपने लेखन में थोड़ी बोल्डनेस दिखाई (अपने स्टैण्डर्ड से ) दरअसल दिखानी पड़ी क्यूंकि वो 2010 की कहानी है ,और आज लड़के-लड़की साथ मिलकर सिर्फ चाँद और फूल नहीं देखते. किसी ने मुझे आगाह भी किया कि ये ब्लॉग जगत है, ज्यादातर लोग , सिर्फ उन्हीं उद्धरणों को कोट करके अपनी प्रतिक्रिया देंगे. पर एक भी पाठक ने ऐसा नहीं किया और कहानी के मूल स्वरुप को ही समझने की कोशिश की. सच , मुझे गर्व हो आया,पाठकों पर. और ब्लॉग जगत से कोई शिकायत नहीं ,यहाँ काफी  अच्छे लोग हैं जो बहुत अच्छा लिखते हैं और प्रोत्साहित भी करते हैं,अच्छा लिखने को..

सभी पाठकों का बहुत बहुत शुक्रिया, जिनके साथ और उत्साहवर्द्धन ने इस एक साल की ब्लॉग यात्रा को इतना खुशनुमा बनाए रखा.

मन के पाखी की, स्वच्छंद विचरण की यही जिजीविषा बनी रहें और थकान,ऊब, निराशा उसके पास भी ना फटके...बस यही  कामना है.

कुछ ऐसी टिप्पणियाँ, जो बेहतर लिखने को उत्साहित करती हैं और जिम्मेवारी का अहसास भी 

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल जी 
http://mankapakhi.blogspot.com/2009/10/blog-post_13.html 
ज्ञानदत पाण्डेय जी
http://mankapakhi.blogspot.com/2010/03/4.html
अविनाश वाचस्पति जी,
http://mankapakhi.blogspot.com/2010/02/blog-post_11.html 
खुशदीप भाई
http://mankapakhi.blogspot.com/2010/01/blog-post_30.html
शहरोज़ भाई
http://mankapakhi.blogspot.com/2009/12/blog-post_17.html
हिमांशु  मोहन जी,
http://mankapakhi.blogspot.com/2010/05/blog-post.html
प्रवीण शुक्ल प्रार्थी जी,
http://mankapakhi.blogspot.com/2009/12/blog-post_17.html

Tuesday, August 31, 2010

आँखों का अनकहा सच

(ये  वो कहानी नहीं, जिसका जिक्र मैने अपनी पिछली पोस्ट  में  किया था....वो तो किस्तों वाली होगी...कुछ दिन चलेगी....यह भी थोड़ी लम्बी तो है..पर एक पोस्ट में ही समेट दिया है )


दोनों बच्चे शोर कर रहें हैं...आपस में कुछ ना कुछ बहस झगडा चल रहा है...शालिनी  मुश्किल से उन्हें, आँखें दिखा कर  चुप कराती है ,उसकी तो सारी इन्द्रियाँ सिमट कर बस कान बन गए हैं...फ्लाईट के पायलट का नाम अनाउंस होने ही वाला है....और धड़कन एक पल को रुक जाती है...और फिर थकी सी ठंढी सांस वापस निकल जाती है...उसका नाम नहीं था...पता नहीं कभी यह रुकी सांस उल्लासित होकर बाहर आएगी भी या नहीं. वापस शिथिल हो कर सर पीछे को टिका देती हैं...बच्चों का झगड़ना फिर शुरू हो गया है...करने दो...एयर होस्टेस अभी आँखें दिखायेगी  तो खुद ही चुप हो जाएंगे.

जब से यहाँ वहाँ  से उड़ती हुई खबर उसके कानों तक पहुंची है कि मानस ने डोमेस्टिक एयरलाइन्स   ज्वाइन की है.हर बार कैप्टन का नाम ध्यान से सुनती है कि शायद वही हो जबकि उसे पता भी नहीं कौन सी एयरलाइन्स ज्वाइन की  है. एयरपोर्ट पर भी बच्चे और ट्रॉली  संभालते भी खोजी निगाहें दौड़ती रहती हैं. और लगता अभी किसी तरफ से मानस का हँसता चेहरा सामने आ जायेगा. हर सोशल नेट्वर्क पर भी उसे ढूंढ्ने की कोशिश की पर निराशा ही हाथ आयी.पर क्यूं, किसलिए  उसे ढूँढने  की कोशिश कर रही थी?? यह सवाल खुद से भी कई बार पूछ चुकी पर जबाब कोई नही मिलता.

और अपनी बेवकूफी पर हंस भी पड़ती है...मानस का  छठी कक्षा वाला चेहरा ही सबसे पहले ध्यान में आता है...जब वह पहली बार उस पर इतना हंसा था...पर तब तो वह कित्ता  रोई थी.

इंग्लिश के नए टीचर आए थे.आते ही डस्टर पटका और रौबीली आवाज़ में, सबको नोटबुक निकालने को कहा. फिर बहुत सारे कठिन ग्रामर के लेसन दिए हल करने को. सबकी  कापियाँ  जमा कर लीं चेक करने के लिए.. उनसे डर तो गए थे सब पर कितनी देर शांत रह पाते.देर शांत रहते..धीरे धीरे बातें शुरू हो गयीं.शालिनी,  रीता और शर्मीला भी सर जोड़े नई फिल्म की कहानी सुनने लगीं जो पिछले हफ्ते ही शर्मीला अपने नए जीजाजी  और दीदी के साथ देख कर आई थी. उसे कितनी कोफ़्त होती...वो क्यूँ सबसे बड़ी है? उसकी भी कोई बड़ी दीदी होती तो वो भी शर्मीला जैसी  उनलोगों के साथ फिल्म देखकर आती और कहानियाँ सुनातीं.पर अभी तो बस सुननी पड़ती थीं. बेच बीच में सर के चिल्लाने कि आवाज़ आती रहती.पर वे लोग तो इतना धीरे बोल रही थीं. सर शायद पीछे बैठे लड़कों पर नाराज़ हो रहें थे .अचानक जोर का एक चॉक  का टुकड़ा उसके सर से टकराया.उसने सर उठाया..और सर चिल्ला पड़े,"क्या गपाश्टक हो रहा है...चलो बेंच पर खड़ी  हो जाओ" तब , इंग्लिश के सर भी हिंदी में ही बाते करते थे और कई बार तो लेसन भी हिंदी में ही एक्सप्लेन कर जाते. उसे तो काटो तो खून नहीं. आजतक कभी डांट भी नहीं पड़ी और सीधा बेंच पर खड़ी हो जाओ. वो  हतप्रभ मुहँ खोले देखती रहीं तो फिर से चिल्लाये..."मुहँ क्या देख रही हो....स्टैंड अप ऑन द बेंच (इस बार अंग्रेजी  में बोले)

वो सर झुकाए खड़ी हो गयी. और आँखों से धार बंध चली. पूरा क्लास सकते में था.इसलिए नहीं कि सर चिल्ला रहें थे.इसलिए कि वह बेंच पर खड़ी  थी. सारे बच्चे ,मुहँ खोले उसे देख रहें थे.
सर, वापस कॉपियाँ चेक करने में लग गए थे.एक एक कॉपी चेक करते...बच्चे का नाम पुकारते...उस बच्चे को  डांटते  और फिर कॉपी उसकी तरफ फेंक देते. किसी ने अच्छा नहीं किया था. यह देख उसका रोना और बढ़ता जा रहा था .अब सर के सामने उसकी कॉपी थी. उनका बडबडाना बदस्तूर चालू था..."कोई भी  नहीं पढता...किसलिए स्कूल आते हो तुमलोग"...फिर माथे पर चढ़ी भृकुटी थोड़ी शिथिल हुई.."अँ.. ये तो सही हैं....हम्म ये भी सही है...ओह ये भी सही है.."अब आश्चर्य का भाव था,चेहरे पर...."हम्म क्या बात है...ये भी राईट..हम्म..पंद्रह में से बारह राईट..." अब थोड़ी सी मुस्कान तिर आई थी उनके चहरे पर....नाम देख पुकारा..."शालिनी कौन है ?" वो चुप रही.

" हू इज शालिनी?" (फिर से अंग्रेजी पर आ गए )

इस बार मानस  ने हँसते हुए कहा..'सर वो जो बेंच पर खड़ी रो रही है,ना..वही है शालिनी"

"ओह्ह!! सिट डाउन..... सिट डाउन...ले जाओ अपनी कॉपी...गुड़, यू हैभ  डन बेल "

वो उतर तो गयी थी...पर इतने अपमान के बाद कॉपी लेने नहीं गयी. वे स्वर को कोमल बना कर

बोले.."ले जाओ अपनी कॉपी"

वो भी हठी की  तरह खड़ी रही.

इस बार मानस उठ कर बोला.."सर मैं दे आऊं??" और हंस पड़ा.

"क्यूँ..."

"ही ही ही.. वो नहीं जा रही ना..."

"तुम्हार क्या  नाम है?...."

"मानस"

"कितने नंबर  मिले तुम्हे?"

"पांच"..मुस्कराहट अब भी वैसे ही जमी थी उसके चहरे पर.

"और हंस रहें हो..शर्म नहीं आती...खड़े हो जाओ बेंच पर..."डांट कर कहा ...और फिर उसी स्वर में उसे भी बोला.."ले जाओ आपनी कॉपी.
सहम  कर वो चुपचाप अपनी कॉपी ले आई.पर मानस बेंच पर खड़ा भी हँसता ही रहा.

घंटी बजी और सर के जाते ही,सब भाग लिए दरवाजे की तरफ. अंतिम पीरियड था. वो शर्म से सर झुकाए,धीरे धीरे बढ़ रही थी कि आवाज़ आई 'रोनी बिल्ली" खूनी आँखों से देखा तो मानस और उसके चार-पांच शैतान  दोस्त हंस रहें थे. बस वहीँ विष बेल के बीज पड़ गए.
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फिर तो मानस कोई मौका नहीं छोड़ता, उसे चिढाने का. उसी की  कॉलोनी में चार घर छोड़ कर रहता था. साथ खेलने  वाले सारे बच्चों को पता चल गया था. उसे बेंच  पर खड़े होने की सजा मिली थी और वह रोई थी. खेल में भी मानस इतना तंग करता कि वह रो ही देती. लुक्का-छिपी खेलते तो पता नहीं कहाँ , छुपा रहता और फिर उसे धप्पा कर देता...बार-बार उसे ही चोर बनना पड़ता अंत में तंग आ वह रो देती.तो फिर उसे चिढाने का बहाना  मिल जाता. कोई भी खेल शुरू करने के पहले कहता..'मैं नहीं खेलता, हारने पर लोग रोने लगते हैं..."

सबकी आँखें उसकी तरफ उठ जातीं. फिर सब मानस को मनाने में लग जाते और शालिनी गुस्सा पीते हुए खुद में ही सिमट जाती.

वह उसे गुस्से मे घूरती और वह दाँत दिखाता रह्ता.पर इस बार गुस्से मे घूरने की बारी मानस की थी जब सिक्स मंथली  एक्ज़ाम मे वह फ़र्स्ट आई थी और मानस को बहुत कम नम्बर मिले थे. हर शाम की तरह वह शोभा के साथ, बाहर घूम रही थी. मानस के घर के सामने से गुजरते हुए, शोभा ने बताया कि आज अचानक वह मानस के घर गयी तो देखा, चाची मानस  को आंगन में दौडा दौडा कर मार रही हैं और बोलती जा रही हैं "वह लड़की होकर भी फर्स्ट आ गयी ...इतने अच्छे नंबर लेकर आई...और तुम मुश्किल से पास हुए...अब भागते किधर हो?."
 उस दृश्य की  कल्पना कर वह दोनो हंस पड़ीं..उसी  वक्त मानस घर से बाहर आ गया. दोनो अचकचा कर चुप हो गयीं पर मानस  समझ गया कि वे दोनों  उसी पर हंस रही थीं. उसे इतने गुस्से से  घूरा  कि अगर किसी देव ने कभी प्रसन्न होकर उसे  कोई वर दिये होते तो वो वहीं भस्म हो जाती. उस विषबेल पर अब पत्ते निकल आये थे.

और अब माँ की मार का बदला वह रोज उसे स्कूल में तंग कर के लेता. अक्सर इंग्लिश टीचर उसे रीडींग डालने को बोलते और मानस जोर से चिल्ला कर बोलता, "सर सुनायी नहीं दे रहा". कभी कभी तंग आ कर टीचर, उसे, शालिनी की  बराबर वाली बेन्च पर बिठा देते, तब भी वह बाज नहीं आता. कान को हाथ की ओट मे लेकर सुनने की एक्टिंग करता.सारा क्लास मुँह छुपा कर हंसता रह्ता.और शालिनी का  ध्यान भंग हो जाता. अगर टीचर ,उसे बोर्ड पर कोई सवाल हल करने को देते तब भी चिल्लाता, "सर कुछ दिखाई नहीं दे रहा." वह उचक उचक कर और बडा लिखने की कोशिश करती और इस चक्कर मे सब टेढा मेढा हो जाता.

उसे बस आश्चर्य इस बात का होता, इतनी शैतानी करने पर भी सारे टीचर उसे इतना  मानते कैसे थे? ऑफिस  से रजिस्टर लाना हो, किसी को बुलाना हो, हमेशा मानस को ही बुलाते. शायद रेस मे हमेशा जीतता था, इसी लिये. स्पोर्ट्स डे के दिन मानस का ही बोलबाला रह्ता.सौ मीटर, चार सौ मीटर रेस, लौन्ग जम्प, हाई जम्प, सब मे वह ढेर सारे कप्स जीतता. अपने लाल हो आए चेहरे से पसीना पोंछते ,वह उसे एक बार गर्वीली नज़र से जरूर देख लेता.वो मुहँ घुमा  लेती. बाकी सब तो"माss नस ...माss नस"  का नारा  लगाते, रह्ते, उसे बधाई देते.शर्मीला,,रीता, मीना  सब जातीं , पर वो दूर ही  खडी रह्ती. मानस तो कभी उस से बात भी नहीं करता,और इतना परेशान करता वो क्यूं जाये बधाई देने? विष-बेल अब बढती जा रही थी.

धीरे धीरे मानस ने शाम को उन सबके साथ खेलना छोड दिया. अब वह मैदान में बडे बच्चों के साथ क्रिकेट और फ़ुटबाल खेलने जाता.क्लास पर क्लास बढते गये पर स्कूल मे तंग करना वैसे ही जारी रहा. मानस की ड्राईंग बहुत अच्छी थी,जबकि,उसकी कम्जोर. फिज़िक्स के ड्राईंग तो वह फिर भी कर लेती पर बायोलोजि के ड्राइंग मे उसकी जान निकल जाती. कुछ भी ठीक से नहीं बना पाती. जब प्रैक्टिकल बुक जमा होती करेक्शन के लिये, वह सोचती बस मानस की नज़र ना पड़े,पर मानस किसी न किसी की बुक ढूंढ्ने के बहाने देख ही लेता और देख कर उपहास के ऐसे ऐसे मुहं बनाता कि उसकी झुकी गर्दन शर्म से और झुक जाती.

फ़ेयरवेल के दिन परम्परानुसार सबने साडी पहनी, उसे देख्ते ही मानस बोला, "कोई शादी है क्या...लोग इतना सज धज कर आ रहे हैं." उसका सारा तैयार होना व्यर्थ हो गया.

और इसी डर के मारे, कौलोनी मे अनीता दी की शादी मे जब उसने सब की ज़िद पर साडी पहनी तो पूरे समय मानस के सामने पडने  से बचती रही. एक बार जब एकदम से सामने आ गया तो उसने जल्दी से मुहँ फ़ेर लिया.और वह धीमे से उसे सुना कर बोलता चला ही गया,"पता नहीं इतना घमंड किस बात का है?"

शालिनी सोचती रह जाती , कब किया उस ने घमंड? फ़र्स्ट आना क्या घमंड करने जैसा है? अब वह उसकी खुशी के लिये फ़ेल तो नहीं हो सकती. और उस ने मुहँ बिचका दिया.खाता रहे जितनी मार खानी हो अपनी माँ से. उसकी बला से.

वह गर्ल्स कॉलेज में  आ गयी तो मानस से पीछा छूटा.पर कहीं उसके तानों की इतनी आदत पड गयी थी कि क्लास मे सब सूना सूना  लगता. मानस के घर के बिल्कुल बगल मे एक शर्मा अंकल ट्रांस्फ़र हो कर आये थे.उनकी तीन लड्कियाँ थीं, तीनों का मानस के घर मे आना जाना था. उनसे हमेशा मानस को हँस कर बातें करते देखती तो आश्चर्य होता, उसे तो लगता था, मानस को लड़कियों  से     ही चिढ है.पर उसे क्या, जिस से मर्जी हो उस से बात करे.

एक बार शर्मा अन्कल के यहाँ गयी थी, बाहर ही उनकी बेटी निशा मिल गई, वो ऊन की सलाइयाँ, मानस की माँ को देने जा रही  थी. उसे भी कहा, "चल मेरे साथ"

"मैं नहीं जाती मानस के यहाँ"

"क्यूँ?"

"ऐसे ही उस के यहाँ कोई लडकी भी नहीं."

"तो क्या हुआ...वो तो तुम्हारे ही क्लास मे था,स्कूल मे?...पर तुम लोग कभी बात भी नहिं करते...झगडा है क्या, उस से?"

"नहीं,झगड़ा क्यूँ होगा.?"

"अरे..झगडा तो किसी भी बात पर हो सकता है...वैसे मानस घर पर है नही..अभी अभी उसे बाहर जाते देखा है...बता ना...झगडा है उस से??

"नहीं बाबा...कोई झगडा नहीं...चलो चलती हूँ....." उसकी बातों से बचने को वो साथ चल दी."

वो हर कमरे मे चाची चाची कह्ती घूमने लगी पर चाची कहीं नहीं थीं. तुम यहिं रुको, मै छ्त पर देख कर आती हूँ, वह मानस का कमरा  था. वह उसकी मेज़ पर आकर उसकी किताबें, उलट पलट कर देखने लगी.’देखूं कुछ पढ़ता भी है या,सब वैसे ही कोरी हैं"

पहली नोटबुक जो खोली , देखा, सुन्दर सा एक फ़ूल बना हुअ है...’ह्म्म ठीक ही सोचा था उसने ,अब भी नहीं पढ़ता.यही चित्रकारी करता रह्ता है’ पर तभी ध्यान से जो देखा तो देखा फ़ूल के बीच मे बड़ी खूबसूरती से लिखा हुअ है, ’शालिनी’. उस के दिल की धड़्कन अचानक बढ़ गई. फ़िर तो जल्दी जल्दी कई नोटबुक  पलट  डाले और तकरीबन  सबमे, फ़ूल पत्ती, बेल बने हुये थे और बीच बीच मे लिख हुअ था, शालिनी.

एकदम से डर गई वह.पसीने से नहा गई. जल्दी से बाहर निकल आई. चेहरा , लाल पड़ गया था और दिल धौंकनी की तरह चल जोर जोर से धड़क रहा था.निशा के सामने पड़ने की हिम्मत नहीं थी उसमे. आंगन से ही आवाज़ लगाई उसने ,"निशा...मैं जा रही हूँ"

"अरे रुक मैं बस आ गई..." निशा की आवाज़ भी उसने बाहर निकलते निकलते सुनी. 

घर आकर सीधा छ्त पर भाग गई, निशा क्या किसी का सामना करने की हिम्मत नहीं थी उसमे. साँस जब सम पर आई तब दिमाग कुछ सोचने लायक हुआ. पर वह इतना घबरा क्यूँ रही है,क्या अकेली शालिनी है वो दुनिया मे? उसके कॉलेज मे लड़्कियाँ भी तो पढ़ती हैं. उन मे से ही कोई होगी या क्य पता, जिन प्रोफ़ेसर के यहाँ ट्यूशन पढने  जाता है, उनकी बेटी का नाम  हो शालिनी. उसका नाम कैसे हो सकता है? उसके पढाई मे तेज़ होने के कारण. उस से तो वह बचपन से ही नफ़रत करता है, स्कूल मे रीता,शर्मिला सबसे बातें करता है, कॉलोनी  में भी शोभा, निशा से कितना खुलकर बात करता है. एक सिर्फ़ उस से दूर रहता है, दूर ही  नहीं हमेशा  नीचा दिखाने की कोशिश , अब उसका नाम कैसे लिख सकता है..नामुमकिन. उस विष-बेल में अमृत धारा कैसे बह सकती है?

और अगर सच मे लिखा हो तो....न... न वह इतना हैंन्डसम है, इतन स्मार्ट, और वह कितनी छुई मुई सी है, बस कीताबी कीड़ा...ना..उसे तो कोई अपने जैसी स्मार्ट लड़की ही पसन्द आयेगी.जो जिसे चाहे मुहँ पर जबाब दे दे ,उसकी तो किसी को देखते ही जुबान तालु से चिपक जाती है. बेकार मे सपने बुन रही है वह.

और फ़िर जैसे खुद को ही पहली बार जाना. सपने??...तो क्या, उसे मानस से कोई नराज़गी नहीं.पहले तो उसे बड़ा गुस्सा आता था, उस पर...हाँ आता तो था,पर जब से कॉलेज  अलग हुये हैं,उसकी कमी बहुत खलती है. तो क्या वह...ना ना...ये सोचने का  भी क्या फ़ायदा...वो कभी मानस की पसन्द हो ही नहीं सकती,ये जरूर कोई और शालिनी  है, नहीं  तो क्या  अब तक वह एक बार भी नज़र उठा उसे देखता भी नहीं. इतनी सारी लड़कियों से बात करता है, सिवाय उसके. इसका मतलब वो उसे पसंद नहीं करता...हाँ, उसे तो उसके जैसा ही कोई पढ़ाकू पसंद करेगा....मोटी कांच के चश्मेवाला, चिपके बाल....पूरी बाहँ की शर्ट, गले तक बंद बटन....यक... और जैसे अपनी कल्पना से ही घबराकर उठ कर नीचे भाग गयी.

शुक्र है,माँ घर में नहीं थीं..वरना उसका बदहवास चेहरा देख पूछ ही बैठतीं,क्या हुआ?...उसने सोफे
पर लेट, टी.वी. ऑन कर दिया...कुछ तो ध्यान बंटे...पर स्क्रीन पर तो एक सुन्दर सा फूल दिख रहा था, जिसके अंदर लिखा था, शालिनी. घबरा कर आँखें बंद कीं तो पलकों में भी वही फूल मुस्करा उठा. उसने कुशन उठा कर जोरो से आँखों पर भींच लिया.

पर इसके बाद से वह काफी डर गयी थी. बालकनी में खड़ी रहती और दूर से भी मानस को आते देखती तो धडकनें तेज़ हो जातीं और वह झट से छुप जाती. लगता जैसे, सबकी नज़रें उन दोनों को ही देख रही हैं. निशा कितनी बार बुलाने आती..चलो बाहर टहलते  हैं..पर वो उसे छत परले जाती,  कहीं मानस से सामना ना हो जाए. कभी आते-जाते मानस सामने पड़ भी जाता तो पसीने से नहा उठती और जल्दी से कतरा कर निकल आती. जबकि बार बार खुद से कहती..."वो शालिनी कोई और है...वो तो हो ही नहीं सकती"

मानस दिखता भी कम...निशा बताती...बहुत मेहनत  से पढ़ाई कर रहा है..उसका मन होता कहे, 'जरा उसकी कॉपियाँ पलट कर देखो..पढता है या ड्राइंग करता है' पर जब बारहवीं का रिजल्ट आया तो सब हैरान रह गए, मानस  को 'फर्स्ट क्लास'  मिली थी. उसके बराबर में आ गया था वह...जो पापा को शायद अच्छा नहीं लगा था,  बार बार कहते.."लड़कों का कुछ पता नहीं,कब पढने की लगन जाग  जाये.."
माँ बहुत खुश थी,कहतीं.." मानस की माँ की चिंता दूर हो गयी...हमेशा कहती थीं..."तुम्हारी तो बिटिया  है..वो भी इतनी तेज है..और मानस तो ..लड़का होकर भी नहीं पढता....कैसे मिलेगी, नौकरी?"

मानस का अच्छा रिजल्ट उसे इस शहर  से भी दूर ले गया. वह बड़े शहर में पढने चला गया.जाने के एक दिन पहले, कई बार मानस को उसके घर के सामने से आते-जाते देखा....पर हर बार वह ओट में हो जाती. हिममत  ही नहीं हुई सामने आने की.

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उसने भी खुद को पढ़ाई में झोंक दिया.अपने भविष्य की रूपरेखा भी तय कर ली, ग्रेजुएशन के बाद कम्पीटीशन देगी...और फिर एक बढ़िया सी नौकरी. बड़ी सी मेज़ होगी...फाइलों से लदी. सामने चपरासी हाथ बांधे खड़ा रहेगा...वाह क्या रुआब होगा.

पर उसे कहाँ पता था, वह तो परीक्षा की तैयारियों में उलझी है...घर वाले किसी और तैयारी में. यूँ ही पढ़ाई से ब्रेक लेने किचेन में कुछ डब्बे टटोलने आई तो बरामदे में बैठी  माँ और पड़ोस वाली, सिन्हा चाची  का स्वर कानो में पड़ा. " अब लड़की के भाग्य हैं और क्या..घर बैठे तुम्हे इतना अच्छा लड़का मिल गया " सिन्हा चाची थीं.

"हाँ , वो तो है...हमने अभी कहाँ कुछ सोचा था, वो तो इसकी बुआ आई थीं उन्होंने ही बताया  उनकी  पड़ोस में एक बहुत अच्छा लड़का है. उनलोगों को बस अच्छे घर की गोरी,पढने में तेज़ लड़की चाहिए..."

"अरे तेज़ लड़की...मतलब?..नौकरी करवाएंगे क्या??  लड़का अच्छा कमाता तो है...?"

"सच कहूँ तो मैं भी ऐसे ही हैरान हो गयी थी, पर सुषमा जी ने जब बताया सुन कर कुछ अजीब ही लगा....लड़की पढने में तेज़ होनी चाहिए..ताकि बच्चे मेधावी हों...क्या क्या नखरे  होते जा रहें है लड़केवालों..के..पर इनकी दहेज़ की ज्यादा मांग नहीं और शालिनी को तो दूर से बाज़ार में देख कर ही पसंद कर लिया...वरना आप शालिनी को तो जानती हैं , ना??...वह कभी तैयार होती 'लड़की दिखाने को"?? दिमाग में क्या फितूर भरा हुआ है..बहुत पढना है....कम्पीटीशन देना है..ऑफिसर बनना है....पर हमें तो ,बिना चप्पल घिसे अच्छा लड़का मिल गया...हम तो गंगा नहा लिए."...माँ थीं.

वो घड़े से पानी ले रही थी, मन हुआ ग्लास दे मारे घड़े पर और सारा पानी फ़ैल जाए,किचेन के साथ साथ उनके मंसूबों पर भी.

पर कुछ नहीं कर सकी और अनजान बन वापस कमरे में लौट आई...बस किताब उठा जोर से दूर  फेंक दी ..और बरसती आँखें ,तकिये में छुपा लीं.

पढने का भी मन नहीं होता...पर मन को बहलाने का कोई दूसरा साधन भी नहीं था...नोटबुक खोलती तो बार-बार मानस के उकेरे फूल पत्ती दिखने लगते...पर खुद को ही डांट देती...पता नहीं, किस शालिनी का नाम वह लिखता रहता है.. और वह दिवास्वप्न देख रही है.

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इम्तहान ख़त्म हो गए और उसकी शादी की तैयारियां शुरू हो गयीं. घर जिस तेजी से मेहमान से भरने लगा,उतनी तेजी से ही उसके दिल में खालीपन घर करने लगा....कोई उत्साह,उमंग मन में जागती ही नहीं. उसने इस जीवन की कल्पना तो कभी नहीं की थी?? उसके मन की इच्छा को भली-भांति जानते हुए भी अगर  माता-पिता  एक बोझ समझ दूसरे हाथ में सौंप गंगा नहा लेना चाहते हैं..तो ऐसा ही सही.

मन इतना अवसाद से घिर चुका था, मानस का भी ख़याल नहीं आता, आता तो यही कि उसे कम से कम जिसकी चाहना है वो,उसे  मिल जाए.

आज उसकी  शादी थी और उसे पीली साड़ी पहना,आँखों में काजल लगा, एक कमरे में बिठा दिया गया था. सारे भाई-बहन, मेहमान, चहकते हुए रंग-बिरंगे कपड़ों में सजे इधर से उधर दौड़ते रहते. पल भर को हमउम्र बहने पास आ बैठतीं फिर ही ही करती हुई बाहर चल देतीं. वो वीतराग  सी चुपचाप एक चटाई पर बैठी रहती. तभी माँ का तेज़ स्वर कानों में पड़ा..."अरे मानस की माँ कहाँ,जा रही हैं?? खाना खा कर जाइये. " कुछ दिनों से घर में  सब चिल्ला चिल्ला कर बातें करते. धीरे बोलना सब भूल ही गए थे जैसे. पिछले दो दिन से  ज्यादा करीबी लोगों का खाना शालिनी के  घर ही होता था. बस समय समय पर वे लोग कपड़े बदल कर आ जाते.

" बस थोड़ी देर में आती हूँ...मानस की ट्रेन का टाइम हो चला है...वो आने ही वाला होगा..."

"अच्छा मानस आ रहा है??...आप तो कह रही थीं...उसकी छुट्टी नहीं"

"हाँ पहले तो उसने यही कहा था...पर कल कहा कि दो दिनों के लिए आ रहा है..."

"बहुत अच्छा हुआ...कॉलोनी के लड़के ही काम नहीं संभालेंगे तो कौन  संभालेगा..जल्दी आइये उसे साथ लेकर"

शालिनी को जैसे  जोर का चक्कर आ गया...क्यूँ आ रहा है मानस?...क्यूँ उसके लिए सबकुछ इतना मुश्किल बना रहा है?....क्या पहले ही यह राह कम दुष्कर नहीं. पर रोक नहीं सकी खुद को...खिड़की पर जा खड़ी हुई. कोई घंटे भर, खड़े रहने के बाद, जब पैर दुखने लगे...तब जाकर, उसकी नज़रों के फ्रेम में एक आकृति नमूदार हुई और वह घबराकर चटाई पर आकर वापस बैठ  गयी. सर घुटनों में छुपा लिया.

बरामदे में मानस के पदचाप के साथ....उसकी आवाज़...नमस्ते चाची..प्रणाम दादी..सुन रही थी. जरूर ,छोटू को ढूंढ रहा होगा. पर उसकी पदचाप तो कमरे तक आती जा  रही थी और परदा उठा वह भीतर दाखिल हो गया..उसकी झुकी गर्दन और झुक गयी.

'शालिनी"...इतने दिनों में पहली बार मानस ने बिना किसी व्यंग्य के उसका नाम पुकारा. पर उसका झुका सर उठ नहीं सका.

"शालिनी..." इस बार मानस की  आवाज़ थरथरा रही थी....और उसकी आँखों से दो बूँद...पानी टपक गए.

"शालिनी....क्या हमेशा नाराज़ ही रही होगी..." गीली हो आई थी मानस की आवाज़ और उसके आँखों से आंसुओं की धार बंध चली.

"ओक्के .. नो प्रॉब्लम....इट्स फाइन  ...यू टेक केयर.." और बहुत ही भारी थके क़दमों से वह बाहर निकल  गया.
उसने जल्दी से सर उठा..'मानस' पुकारना चाहा..पर तब तक वह परदे उठा बाहर कदम रख चुका था....उसकी थमती रुलाई दूने वेग से उमड़ पड़ी.

बाहर माँ की आवाज़ सुनाई दी.." आ गए बेटा..बहुत अच्छा किया...तुमलोगों को ही तो सब संभालना है. पर तुम मेरा एक काम करो....मेरा कैमरा तुम संभालो. फोटोग्राफर तो हैं ही..पर वो सबको पहचानता नहीं ना.....तुम मेरे कैमरे से, सारे करीबी लोगों की अच्छी अच्छी फोटो लेना...सारे रस्मों की... हाँ.."

और माँ कमरे में आ गयीं.."शालिनी जरा आलमारी से कैमरा निकाल दो तो..."

उसने बिजली की फुर्ती से कैमरा निकाल कर दे दिया...और साथ में चार रील भी. माँ ने सारी तैयारी कर रखी  थी.

मानस के हाथों में कैमरा देखना था कि बच्चों की फरमाईश शुरू हो गयी, एक हमारी फोटो लो ना भैया.." उधर से लड़कियों का झुण्ड खिलखिलाता हुआ आया..."भैया एक फोटो हमारी भी"...तभी मामियों ,चाचियों का ग्रुप टोकरी में कुछ सामान लिए उसके कमरे तक आता दिखा,और साथ में मानस को हिदायत..."अंदर चलो....रस्म   होने वाली है...उसकी फोटो ले लेना..."

कैमरा संभालता मानस अंदर दाखिल हो गया. इसके पहले भी इन चाची,मौसी,मामी,बुआ, दादी का ग्रुप उसे अक्सर घेरे रहता और अजीब  अजीब से रस्म करवाता रहता, 'यहाँ चावल चढाओ' .'यहाँ टीका करो.' वह कठपुतली सी बिना किसी अहसास के रस्म निभाये जाती पर आज थोड़ी सी अनकम्फर्टेबल थी... पूरे समय लगता रहा,एक जोड़ी आँखें उसपर टिकी हुई हैं. रस्म ख़त्म होते होते....उसके पैर सुन्न पड़ गए थे. उसने आशा भरी आँखों से उनलोगों की तरफ देखा, पर वे लोग खुद में ही मगन  थीं..."अरे ये तो लाल कपड़े में बाँधा जाता है"...."सुपारी नहीं रखी?"..."पान के पत्ते भी चाहिए थे"..."क्या जीजी अभी तो आपने बेटी की शादी की है...और सब भूल गयीं "
किसी का ध्यान उसकी तरफ नहीं था. और एक हाथ उसके आँखों के सामने आया, नज़रें उठाईं तो देखा, 'मानस ने सहारे के लिए हाथ बढाया है' वह उसकी आँखों का आग्रह समझ गया था. कैसे नहीं समझता ,'बचपन से बस आँखों की भाषा ही तो जानी है'

उसका हाथ थाम, उठते  हुए लड़खड़ा सी गयी..और मानस ने एकदम से थाम लिया,..'अरे संभल के' ..कितना स्वाभाविक सा लग रह है सब कुछ ...जैसे कितने पुराने ,गहरे दोस्त हों. वो बीच में फैली विष-बेल कहाँ विलीन हो गयी थी.

महिलाओं का सारा ग्रुप कोई मंगल गीत गाते हुए ,आँगन की तरफ चला गया कोई और रस्म निभाने. और जैसे उसे होश आया, अपनी पसीजती हथेली  उसने मानस के हाथों से छुड़ा ली.

कमरे में सिर्फ मानस और वह थे, और थी बड़ी ही असहज करती हुई सी चुप्पी.उसने ही चुप्पी तोड़ी.."खाना खाया?"
"हाँ"
"झूठ"..हंसी आ गयी उसे..."जब से आए हो कैमरा संभाले खड़े हो...खाना कब खा लिया?"....फिर से एकदम सहज हो उठा सब कुछ.
मानस भी मुस्कुरा पड़ा...फिर थोड़ा रुक कर पूछा, "तुमने खाया?"
"नहीं....मेरा  उपवास है...मुझे कुछ भी नहीं खाना.."
"अरे क्यूँ?"
"लड़कियों को शायद पहले से ही ट्रेनिंग दी जाती है कि आदत बनी रहें...क्या पता वहाँ जाकर कुछ खाने  को मिले या नहीं...या पता नहीं कब मिले.." हंस दी वह.
"बेकार की बातें हैं सब.....मैं ले आऊं?...कुछ खाओगी?..भूख लगी है?"
"नहींssss...." उसने जरा जोर से ही कह दिया..मानो ये थोड़ा सा एकांत मिला है...इसे गंवाना नहीं चाहती हो.

फिर से दोनों चुप हो गए. इस बार मानस ने ही थोड़ी देर अपनी हथेलियों को घूरते हुए कहा, "बड़ी जल्दी थी, तुम्हे शादी की"

उसने एक नज़र मानस को देखा, और नज़रें खिड़की से बाहर टिका दीं..."किसी ने कहा ही नहीं इंतज़ार करने को.."

"कैसे कहता...वह कुछ बन तो जाता पहले...तुम कहाँ इतनी तेज़....टॉपर....और मैं नकारा..किसी तरह पास होने वाला." कहने की रौ में मानस भूल गया था कि इशारे में बातें हो रही थीं.

"तुम स्कूल के..कॉलोनी के.... कॉलेज के हीरो थे" एक एक शब्द पर जोर देते हुए कहा,उसने.

"मुझे सिर्फ एक का हीरो बनना था"

"तुम उसके हीरो थे" जरा जोर देकर कहा उसने तो मानस एकदम से पूछ बैठा...

"सच??.." मानस  के दिल की धड़कन बढ़ गयी थी.

शालिनी ने एक नज़र मानस को देखा और नज़रें खिड़की के बाहर आम के पेड़ की  फुनगी पर टिका दीं...जहाँ कुछ गुलाबी कोमल पत्ते उग आए थे.ऐसा ही कुछ कोमल सा उनके बीच भी उग रहा था...पर इन  नवजात कोंपलों की उम्र कितनी कम थी. वो पेड़ के कोंपल की तरह प्रौढ़ हरे पत्ते में बदल पायेंगे कभी?

"हाँ सच...पर तुम तो पता नहीं किस शालिनी के नाम की माला जप रहें थे...
अपनी नोटबुक में उसका नाम ही लिखते रहते थे..." उलाहना भरा स्वर था उसका.

"व्हाटssss ????       .." बुरी तरह चौंक गया वह.

उसकी असहजता पर मुस्कुरा पड़ी वह, "हाँ मानस एक बार निशा के साथ मैं तुम्हारे घर गयी  थी...देखा..नोटबुक में फूल-पत्तियों के बीच किसी शालिनी का नाम लिख रखा है...मैं देखते ही भाग आई..."

"ये...ये... तो बहुत गलत है...यूँ चोरी..चोरी किसी की किताब कॉपियाँ..देखना...बैड मैनर्स... वेरी वेरी बैड, मैनर्स " मानस का चेहरा लाल पड़ते जा रहा था, बोला,"...और मैं  दूसरी किस शालिनी को जानता हूँ...? "...फिर एकदम से उसकी नज़रों में सीधा देखते हुए कहा ..."अगर ऐसा होता तो आज मैं यहाँ आता??...मुझे तो जैसे ही माँ ने बताया....बस दिमाग में एक ही बात थी...'मुझे यहाँ पहुंचना है...हर हाल में..क्यूँ, कैसे मैं कुछ नहीं जानता...दो कपड़े बैग में डाले और सीधा स्टेशन आ गया....रात भर जाग कर टॉयलेट के पास एक रुमाल बिछा कर बैठ कर आया हूँ....और तुम कह रही हो..कोई और शालिनी होगी" दर्द से भीग आया स्वर उसका.

उसकी भी आँखें भर आयीं....अब क्या फायदा मानस...तुमने जरा सी हिम्मत नहीं  की...और कोई संकेत भी नहीं दिया..उल्टा उसे हमेशा चिढाते,खिझाते ही रहें , और चिढाने की बात से सब पिछला याद आ गया, रोष उमड़ आया....आज उसे सारा हिसाब लेना ही होगा. एकदम से बोल पड़ी..."तुम मुझे इतना चिढाते, रुलाते क्यूँ थे?"

"तुम्हारी अटेंशन पाने को..इतना भी नहीं समझती थी तुम"

"हाँ, नहीं समझती थी...और जब समझने लगी....तुम दूर चले गए "..हताश होकर बोली वह.

"पता नहीं, मुझे क्यूँ तुम हमेशा डरी-सहमी सी लगती थी...लगता था तुम्हे किसी की सुरक्षा की जरूरत है...तुम्हे याद है..हमेशा मैं तुम्हारे पीछे आता था और किसी को आवाज़ देकर जता देता था की मैं पीछे ही हूँ....पर  तुमने कभी एक बार मुड कर भी नहीं देखा"

"क्या देखती...मैं तो डर जाती थी...अब फिर कुछ चिढ़ाओगे..."

"बुध्दू हो तुम..बिलकुल...स्कूल में और किसी  लड़के ने कभी कुछ कहा?...तंग किया?...परेशान किया??...क्यूंकि सब जानते थे...तुम्हे परेशान करने का अधिकार सिर्फ मेरा है..वरना वो तुम्हारी सहेलियाँ...रीता, शर्मीला..याद है..कितना परेशान करते थे लड़के, उन्हें??..." और जैसे उसे कुछ याद आ गया, हंस पड़ा...."वो उचक उचक कर बोर्ड पर 'सम' बनाती तुम...और वो बेंच पर खड़ी हो कर रोती हुई...एकदम रोनी बिल्ली लगती थी.."

"अच्छा और क्लास में मुर्गा बने तुम कैसे दिखते थे...शर्मा  सर तो तुम्हारी पीठ पर किताबें भी रख देते थे और तुम उन्हें गिरा देते....सर तुम्हे आधे घंटे और खड़ा रखते...."उसके भी होठों पर मुस्कान तिर आई.

"उन्हीं सब से तो दूर जाना था., मैं तुम्हारे काबिल बनना चाहता था...जी-जान लगा दी थी मैने पढ़ाई में...अब क्या पढूंगा...सब छोड़ दूंगा..." झुंझला गया वह.

"बेवकूफी की बातें मत करो....मेरी पढ़ाई तो अकारथ गयी....तुम बहुत बड़े आदमी बनना  ,मानस..मुझे अच्छा लगेगा."

"तुमने इतनी जल्दी शादी के लिए  'हाँ'  क्यूँ कहा,शालिनी....??" मानस ने आजिजी से कहा.

"किसने पूछा मानस??...हम लड़कियों से कभी पूछते हैं??....बता देते हैं,बस..कई बार तो तुरंत बताते भी नहीं...दूसरों से पता चलता है कि उनकी शादी ठीक  हो गयी है...." गला भर आया उसका.

मानस भी चुप हो आया, फिर शायद उसे थोड़ा सहज करने के लिए मुस्कुराता हुआ बोला, "चलो..भाग चलते हैं "

वह उसका प्रयास समझ गयी थी...उसमे शामिल होती हुई बोली, "ड्राइविंग आती है?.."

"ना"

"बाइक है?"

"उह्हूँ "..मानस ने भी साथ देते हुए सर हिला दिया.

"कोई दोस्त है...गाड़ी लेकर खड़ा...?"

"ना "

'फिर कैसे भागेंगे?..पैदल??...पकडे जाएंगे ...भागना कैंसल..पहले से सब प्लान करना था ना"

"हाँ, अब तो कैंसल ही करना पड़ेगा....कैसे कुछ प्लान करता....तुम तो ऊँची डाली पर लगी उस फूल के समान थी,जहाँ तक पहुँचने के लिए मैं इतनी मशक्कत कर सीढ़ी तैयार कर रहा था ...और तुम बीच में ही किसी और की झोली...में..." आगे के शब्द मानस ने अधूरे छोड़ दिए.

इतनी महेनत से हल्की-फुलकी बात करने की कोशिश की थी उसने पर फिर से उदासी ने अपने घेरे में ले लिया, दोनों को.

"वैसे , हू इज दिस लकी चैप ....मैने माँ से कुछ पूछा ही नहीं..."

"क्या पता "

"व्हाट डू यू मीन ...क्या पता....मिली नहीं हो?"

"ना...और कोई इंटरेस्ट भी नहीं....जो भी हो...पति परमेश्वर मानना होगा उसे"

"अरे चाचा जी ने बहुत अच्छा लड़का ढूँढा होगा...मस्ट बी अ गुड़ कैच..वरना तुम्हारी पढ़ाई ,तुम्हारा कैरियर यूँ बीच में नहीं छुडवा देते.. बहुत काबिल होगा..."..उदासी घिर आई  थी उसके स्वर में , जिसने उसे भी कहीं गहरे छू लिया.

"मानस, मुझे बहुत डर लग रहा है.." अनायास ही थरथरा आई आवाज़ उसकी.

मानस का मन हुआ उसे आगे बढ़ ,गले से लगा कर उसके अंदर का  सारा डर  सोख ले. एक आवेग सा उमड़ा...पर उसकी पीली साड़ी और मेहंदी  रचे हाथ दिख गए...जो किसी और के नाम के थे. वैसे ही जड़ बना बैठा रहा.

और तभी निशा और शोभा ने ये कहते ,कमरे में कदम रखा...."शालिनी चलो..मंडप में तुम्हे बुला रहें हैं तुम्हे... "  मानस को देखकर एकदम से चौंक गयी.

"अरे तुम कब आए....हम्म बेस्ट फ्रेंड की शादी में तो सब आते हैं...पर पक्के दुश्मन की शादी में आते पहली बार देखा किसी को..." शोभा की आवाज़ में चुहल थी.

मानस और शालिनी की नज़रें मिलीं....और सारा अनकहा सिमट आया, क्या थे वे...दोस्त..दुश्मन..या क्या.

निशा की नज़र मानस के हाथ में थमे कैमरे पर पड़ी और वह मचल उठी..'मानस शालिनी के साथ हमारी फोटो लो ना".

दोनों उससे लग कर खड़ी हो गयीं और जब निशा ने उसे कंधे से घेर गीली आवाज़ में  कहा, "कितना मिस करेंगे तुम्हे...कैसे रहेंगे  हमलोग तुम्हारे बिना..." शालिनी का इतनी देर से रुका आंसुओं का सैलाब बह चला....दोनों सहेलियाँ भी आँखें  पोंछने लगीं और उसे पता था कैमरे के पीछे भी किसी की आँखें गीली हैं.

वह मानस से पहली और आखिरी आत्मीय बातचीत थी. बड़ी दीदियाँ,उसे तैयार करने.., संवारने ले गयीं...मानस भी नहीं दिखा फिर. जब स्टेज पर जयमाल के लिए, सब  लेकर जा रहें थे ...देखा,मानस कैमरा लिए बिलकुल सामने खड़ा है...नज़रें मिलीं और वहीँ जम कर रह गयीं. एक टीस सी उठी दिल में, अब वह किसी और के पहलू में बैठने जा रही है. उसके कदम लड़खड़ा से गए, 'अरे संभालो..." सबको लगा, भारी लहंगा पैरों में फंस गया है. स्टेज पर उसका दूल्हा बैठा था...नज़र उठा कर भी नहीं देखा उसे...अब तो सारी ज़िन्दगी यही चेहरा देखना..है और स्टेज के नीचे खड़ा चेहरा शायद फिर कभी  ना मिले देखने को.

स्टेज पर तो सब यंत्रवत करती रही...लोगों की तालियाँ, हंसी ठहाकों , कैमरे के लिए बार बार वो माला पकड़ना , सबके आग्रह पर मुस्काराना ...सब मशीनवत चलता रहा पर जब कन्यादान के समय उसे माता-पिता के बगल से उठा उस अजनबी के पास बिठाया जाने लगा तो जैसे अंदर कुछ जोर का दरक गया. सामने निगाहें उठाईं तो पाया, मानस की नज़रें उस पर ही जमी हैं...उसने मानस की ओर देखा और उसकी नज़रों में इतनी शिकायत,इतना उलाहना भरा था कि मानस उसके नज़रों कि ताब सह नहीं सका. उसने गर्दन  झुका कैमरा किसी और को पकडाया  और वहाँ से चला गया. और वह एक अनजान व्यक्ति के पास बिठा दी गयी, अब उसका हाथ किसी और के हाथों में सौंप दिया गया था.
उसे पता था, अब मानस नहीं आएगा...और वह उसकी विदाई तक नहीं आया.

शालिनी के पापा, सिर्फ शालिनी की पढ़ाई की वजह से अपना ट्रांसफर कई बार रुकवा चुके थे, अब शालिनी की शादी के बाद,उन्होंने भी ट्रांसफर दूसरी जगह ले लिया और मानस फिर कभी नहीं मिला.

'प्लीज़ टाई योर सीट बेल्ट' की उद्घोषणा से उसकी तन्द्रा भंग हुई. बच्चों की सीट बेल्ट बाँधी...उन्हें जगाया...प्लेन लैंड होने वाली थी.
फिर से एयरपोर्ट पर निगाहें इधर-उधर भटकने लगी थी.

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शालिनी को  कहाँ पता था, उसी समय देश के किसी दूसरे एअरपोर्ट पर यूँ ही एक जोड़ी निगाहें उसके लिए भटक रही थीं.  जब से मानस की  माँ को वाया वाया किसी से पता चला था  कि शालिनी अब  छुट्टियों में बच्चों को लेकर प्लेन से ही मायके आती है. उन्होंने यूँ ही मानस से एक बार पूछ लिया, "तुम्हे कभी मिली शालिनी?..." और आगे खुद ही जोड़ दिया..."मिल भी गयी तो पहचानेगा कहाँ ....अब तक कितनी  बदल गयी होगी."

मानस ने मन ही मन कहा, "माँ, वो अस्सी साल की भी हो जाए तब भी पहचान लूँगा... उसकी आँखें और मुस्कुराहट तो नहीं बदलेंगी....और तब से स्कूल की छुट्टियां शुरू होते ही, मानस की नज़रें, एयरपोर्ट पर किसी को ढूंढती रहती हैं. उसकी एयर  होस्टेस पत्नी को भी पता है, कि बचपन की अपनी फ्रेंड को वह ढूंढता रहता है.

कभी कभी मजाक भी करती है, "क्या बात है...कुछ प्यार व्यार का चक्कर तो  नहीं था.."

"व्हाट रब्बिश....हमलोग स्कूल  में साथ थे....वी वर जस्ट किड्स "

उनलोगों  के बीच जो भी था, उसे वह कोई नाम दे सकता है,क्या?

"फिर क्यूँ, इस तरह उसे ढूंढते रहते हो? "....रोज़ा  उसे थोड़ा और चिढाती है.

यही तो सैकड़ों बार खुद से भी पूछता रहता है,... क्यूँ...किसलिए.....पर जबाब कोई नहीं मिलता .

Friday, August 20, 2010

जब पाठकों ने लिखवा ली कहानी

ये कहना जरा भी अतिशयोक्ति नहीं होगी  कि यह  लम्बी कहानी सचमुच पाठकों ने ही लिखवा ली. जैसा कि पहले भी मैने जिक्र किया ,छः पेज की कहानी को ४ पेज में कर के , सिर्फ ९ मिनट में समेटी थी ..... और सोचा ,अब तो अपना ब्लॉग है. Unedited version  ब्लॉग पर डाल दूंगी.पर मन में एक शंका थी,यह बहुत ही सीधी सादी कहानी थी,कोई नाटकीयता नहीं...अप्रत्याशित  मोड़ नहीं.  सब कहेंगे दो नॉवेल लिख लिया ,अब रश्मि का लेखन चुक गया है. पर अपना लिखा एक जगह इकट्ठा करने की ख्वाहिश  भी थी. सो बड़ी हिचकिचाहट के साथ पहली किस्त पोस्ट कर दी.



टिप्पणियों  और मेल में लोगों की प्रतिक्रिया देख सुखद आश्चर्य हुआ, गाँव की पृष्ठभूमि पर लिखी इस  कहानी की पहली किस्त खूब  पसंद आई  थी लोगों को...किसी ने थोड़ा व्यंग्य भी किया कि "छः बच्चे ?कहीं परिवार नियोजन वाले ना दुखी हो जाएँ" पर मैं चुप रही, छः बच्चे इसलिए थे कि मुझे छः अलग अलग जिंदगियां दिखानी थीं...कुछ ने कमेंट्स में कहा भी कि हम भी छः भाई-बहन हैं....कहीं हमारी कहानी तो नहीं,मतलब यह इतनी अनहोनी बात भी नहीं.

फिर भी मुझे लगा, कि ३,४ किस्त में सिमट जायेगी. पर  पाठको का प्यार और उत्साहवर्द्धन लिखवाता गया और मैं लिखती गयी. शिखा, वाणी गीत, वंदना अवस्थी, वंदना गुप्ता, मुक्ति,सारिका, दीपक, आशीष,शुभम जैन,संजीत त्रिपाठी, मुदिता, रेखा दी, संगीता स्वरुपजी, घुघूती जी,राज भाटिया जी,समीर जी,  निर्मला दी, रश्मि दी,शमा जी,  हमेशा की तरह ये लोग पहली किस्त से ही साथ हो लिए, और बहुत ही सजगता से कहानी पर नज़र रखी थी. और भरोसा भी देते गए कि कहानी सत्य के करीब है.

इस कहानी से कुछ नए नाम जुड़े...साधना वैद्य जी और  शोभना चौरे जी, ...उनकी टिप्पणियाँ हमेशा एक नया जोश देती रहीं. राधा-कृष्ण के सिले कपड़े, शादी के बाद भी नैनों से ही प्रेमलीला, मनिहारिन,बच्चों के माध्यम से ससुर जी से बात करना और बड़े-बूढों का खांस कर घर में घुसना...मेरे साथ साथ बहुतों को याद आ गया.

मुक्ति और वाणी का हर किस्त पर ये कहना कि ऐसा उनके गाँव में भी होता था, शिखा,वंदना गुप्ता  संगीता जी ,घुघूती जी का गाँव की एक एक बात ध्यान से पढना ,क्यूंकि इन लोगों ने ग्राम्य-जीवन पास से देखा ही नहीं, बरबस मुस्कराहट ला देता. वंदना अवस्थी,संजीत त्रिपाठी  ने आश्चर्य भी किया कि शहर में रहकर इतने वास्तविकता के करीब कैसे लिखा?...मैने गाँव के जीवन को जिया नहीं पर देखा तो जरूर है...बरसों पहले ही सही.. थोड़ा डर तो था,न्याय कर पाउंगी या नहीं पर कुछ अपनी कल्पना की छौंक भी लगाती रही.शिखा एवं आशीष जी में शर्त लग गयी की मुझे भोजपुरी नहीं आती....जबकि बखूबी  आती है. दीपक मशाल ने शिकायत भी की , सारी लड़कियां हिरोइन और लड़के विलेन..ऐसा क्यूँ??

प्रवीण पाण्डेय जी, डॉक्टर दराल, अनामिका जी,रचना दीक्षित जी, इस्मत जैदी जी , ताऊ रामपुरिया जी,रवि धवन जी, जाकिर अली, विनोद पाण्डेय, रोहित, सौरभ , हिमांशु मोहन जी  ये लोग भी समय मिलने पर कहानी पढ़ते रहें और अपनी टिप्पणियों से उत्साहवर्धन करते रहें.हिमांशु जी ने अंतिम  किस्त पर बहुत ही ख़ूबसूरत टिप्पणी की.

दूसरी किस्त में ममता  की शादी कि बात पढ़ ,सबको लगा ये ममता की कहानी है..टिप्पणियों में ममता की कहानी आगे बढ़ने का सबको इंतज़ार था पर अब तो कहानी स्मिता पर आ गयी.शोभना जी ने बताया,स्मिता जैसी ही ज़िन्दगी देखी थी उन्होंने मुंबई में.  इस कहानी की पात्र नमिता का चरित्र सबको खूब पसंद आया. सब इंतज़ार करने लगे, कि नमिता शायद  अब घर में बदलाव लाएगी. टिप्पणियाँ पढ़, मुझे लगता, 'मैं कुछ गलत कर रही हूँ क्या..? हमेशा पाठकों के अनुमान के विपरीत जा रही हूँ.' पर कहानी की रूप-रेखा तो पहले ही बन चुकी थी.

प्रमोद और प्रकाश की कहानी के बाद सबको अनुमान हो गया कि ये अलग-अलग पात्रों की कहानी है. जब प्रकाश की पत्नी पूजा का कहानी में प्रवेश हुआ, तो बिंदास पूजा का चरित्र भी सबको बहुत पसंद आया. घुघूती जी ने कहा 'अब नमिता और पूजा मिल कर बदल देंगी घर को' पर एक बार फिर मैने निराश किया,अपने पाठकों को.और पूजा को विदेश भेज दिया. अब तक कहानी बिलकुल धरातल पर पैर जमा चल रही थी ,मैने  पूजा के बहाने ,कल्पना को थोड़ी उड़ान दी. इंदु जी ने भले ही कभी टिप्पणी नहीं की पर उनकी पैनी नज़र थी,कहानी पर.तुरंत टोक दिया, "काश! गाँव ऐसे होते" .


इस कहानी का सबसे बड़ा झटका था, 'नमिता' का घर छोड़ कर चले जाना. इसे पाठकों का संस्कारी मन स्वीकार नहीं कर पा रहा था. उनकी प्रतिक्रियाएँ देख, मुझे भी दुख होता,पर मैं यह भी दिखाना चाह रही थी कि 'कैसे शिक्षित, मृदु स्वभाव वाले पिता भी,बेटी का अन्तर्जातीय विवाह स्वीकार नहीं कर पाते.'

समापन किस्त पर भी सबकी प्रतिक्रिया ने चौंकाया...सबको मार्मिक लगी वो कड़ी...और करीब-करीब सबने आँखें नम होने की बात लिखी. मैं तो पोस्ट करके सो गयी थी. सुबह कमेंट्स पढ़े तो अपराध-बोध से भर गयी. कभी कभी कैसी विवशता हो जाती है, कहानी की मांग ही ऐसी होती है कि पाठकों को दुखी करने का अपराध अपने सर लेना पड़ता है.

यह कहानी लिखते वक़्त जाना कि गाँव की यादें इतनी सुरक्षित हैं, मेरे मन-मस्तिष्क में. सचमुच दिल से शुक्रिया सभी पाठको का...उन लम्हों को फिर से जीने का मौका दिया और एक लम्बी कहानी मेरी झोली में डाल दी.

आगे भी ऐसे ही स्नेह,मार्गदर्शन,चौकस नज़र बनाएं रखें....अगली कहानी में उसकी ज्यादा जरूरत है क्यूंकि कागज़ पर उसे लिखना शुरू किया था (ब्लॉग बनाने से पहले) पर आधे के बाद नहीं लिख पायी. ये अहसास रहें कि कुछ लोग साथ हैं तो शायद पूरी कर पाऊं.

Monday, May 24, 2010

राम राम करके उपन्यास पूरा हुआ ,अब शुक्रिया कहने की बारी



यह उपन्यास या लम्बी कहानी(   आयम स्टिल वेटिंग फॉर यू, शची) जो भी कहें...ख़त्म होने के बाद ही सबका शुक्रिया अदा करने का विचार था ,पर कई अडचनें आ गयीं..और टलता रहा शायद ये टल ही जाता हमेशा के लिए अगर सारिका सक्सेना ने 'मेकिंग ऑफ द नॉवेल ' की डिमांड नहीं की होती और मुझपर इल्जाम भी है कि मैं mukti और सारिका को लेकर थोड़ा पक्षपात करती हूँ,अब दोनों दीदी कहती हैं तो इतना हक़ तो है ही उनका.(.हाँ, दीपक,पी.डी., सौरभ  तुम्हारा भी है...dnt b jealous :))

उन दोस्तों का  तहेदिल से शुक्रिया  जिन्होंने  बड़े धैर्य से यह लम्बा नॉवेल  पढ़ा जो 5 मार्च को शुरू होकर 13 मई को ख़त्म हुआ. नॉवेल के सफ़र की शुरुआत में ही मेरे लेखन के  कुछ नियमित पाठक साथ हो लिये. पहली किस्त पर तो बस शुरुआत  थी,सबने 'रोचक है' कह कर उत्साह बढाया.

दूसरी किस्त से कहानी ने थोड़ा जोर पकड़ा, दूसरी किस्त का ये डायलॉग "हर पढ़ी-लिखी लड़की थोड़ी फेमिनिस्ट तो ही जाती है हमेशा अपनी जाति के लिए सतर्क. कहीं कोई उनके अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण ना कर दे." सबको खूब भाया.  Pankaj Upadhyay  ने अभी अभी ये उपन्यास पढना बस शुरू ही किया है. इतवार की सुबह की चाय वे शची,अभिषेक के साथ लेते हैं,उनका कहना था कि उनके शहर  का शॉर्ट फॉर्म LMP है ,यानि लखीमपुर खीरी जबकि नॉवेल में LMP का अर्थ है,लव,मुहब्बत,प्यार.(उनका शहर  भी बिना शर्त यही बांटता होगा शायद)

तीसरी किस्त में दीपक 'मशाल' को अपने कॉलेज की बातें याद आ गयीं और जैसे वे फ्लैशबैक में जीने लगे उनका कहना था "आज से १०-११ साल पहले के अपने माज़ी की परते खोलने को भेज दिया.".  (दीपक हमें भी ले चलये कभी वहाँ :) .अभिषेक ओझा ने कहा ... 'खोकर पढता हूँ मैं तो, कैरेक्टर का नाम भी तो अपना ही है'.PD ने तीनो  किस्त एक साथ पढ़ी  और बाकी के सारे किस्त उन्हें मेल में चाहिए थी.उन्होंने धमकी भी दे डाली,'भेजिए वरना घर आ जाऊंगा और बैगनभी नहीं खाऊंगा ."

चौथी  किस्त में HARI SHARMA  जी ने इस डायलौग को उद्धृत  कर सारे युवा जगत से एक अपील कर डाली,कि ध्यान रहें , "व्हेन अ गर्ल इज इन लव,शी बिकम्सा क्लेवर बट व्हेन अ बॉय इज इन लव,ही बिकम्स अ फूल".shikha varshney ने सलाह दे डाली कि 'आपको युवा मनोविज्ञान पर एक किताब लिखनी चाहिए' सारिका सक्सेना ने भी इसका अनुमोदन किया कि आप युवा मनोविज्ञान को बहुत अच्छी तरह समझती हैं. दरअसल हर कोई ही इस दौर से गुजरता है.बस जरूरत है रुक कर एक बार उनके जैसा सोच कर देखने की'

शरद कोकास जी ने पांचवी किस्त तक एक बैठक में ही पढ़ी,और कहा,"साहित्यिक भाषा की कमी ज़रूर लग रही है लेकिन अब लिख ही लिया है तो क्या किया जा सकता है । बाकी प्रवाह बहुत बढ़िया है और रोचकता भी बरकरार है ।  उनकी शिकायत बिलकुल जायज है.एक तो मैं पूरी कोशिश करती हूँ कि नॉवेल के चरित्र बिलकुल बोलचाल की भाषा में ही संवाद करें.कोई क्लिष्ट शब्द आए भी तो उसे आसान से शब्द में बदल देती हूँ. पर सबकी अपनी पसंद होती है,उन्हें शायद इसकी कमी इतनी खली कि आगे की किस्तें उन्होंने पढ़ी ही नहीं :) (व्यस्तता भी एक वजह हो सकती है ). इसी किस्त में अभिषेक का ये कहना' आश्चर्यचकित तो वह भी था कि इतनी आसानी से फ्लर्ट कर सकता है वो. परन्तु शायद हर पुरुष में इस किस्म का चरित्र मौजूद रहता है. और मौका पाते ही अपनी झलक दिखा जाता है' दीपक मशाल और दीपक शुक्ल ने इस कथन पर गहरी आपत्ति की.:) (जैसे ये झूठ हो, हा हा )

छठी किस्त में sangeeta swarup ने कहा ... कहानी के सारे पत्रों के मनोभावों को बहुत मनोवैज्ञानिक तरीके से उजागर किया है....नायक के मन में कुछ और लेकिन अपनी इगो को सर्वोपरि रखते  हुए जिस तरह का आचरण दिखाया है बहुत सटीक है..' 
सातवीं किस्त में  वन्दना अवस्थी दुबे का कहना था  ... ' अपने स्वभाव के विरुद्ध जब हम कोई काम करते हैं, तो अभिषेक जैसी ही दशा होती है.' ,मुक्ति की मनपसंद पंक्ति लाईन थी
"किन्तु कॉमन रूम ही शायद सबसे निरापद जगह है. एक ही साथ कोलाहल और एकांत दोनों अस्श्चार्य्जनक रूप से रहते हैं यहाँ."
आठवीं किस्त खुशदीप सहगल ने ये शंका जता  डाली ... " रश्मि बहना, उपन्यास का क्लाईमेक्स क्या होगा, कहीं इस पर सट्टा ही लगना शुरू न हो जाए...'
नंवी किस्त में ज्ञानदत्त पाण्डेय जी के धीर गंभीर व्यक्तित्व से अलग  एक सुकोमल पक्ष भी नज़र आया जब उन्होंने कहा,नायक की जगह मैं होता तो शची का इन्तजार करता और वह इन्तजार पुनर्जन्म के आगे भी जाता, अगर आवश्यकता होती तो! '

दसवीं किस्त के लम्बे लम्बे डायलॉग सबको ज्यादा पसंद नहीं आए, Sanjeet Tripathi ने बेबाकी से कहा.." hmmm, sach kahu to aaj lambe dilogs ne thoda bore kiya..."  अनूप शुक्ल   जी ने भी चुटकी ले डाली कि
"नायिका को अपनी सेहत का ख्याल रखना चाहिये। छोटे-छोटे डायलाग बोलने चाहिये!" उनकी टिप्पणी बस इसी किस्त में उदय हुई और वहीँ अस्त भी हो गयी. ज़माने  में गम और भी हैं,ये नॉवेल पूरा करने के सिवा.
संजीत जी की ये भी डिमांड थी..."happy ending mangta hai, tipical indian ishtyle me...;) "
ग्यारहवीं  किस्त में दीपक मशाल,दीपक शुक्ल और  हरि शर्मा 'शची को कहे गए अभिषेक के  क्रूरतापूर्ण शब्दों से  काफी नाराज़ हो गए... जबकि महिलायें इसे प्रेम का ही एक रूप मान रही थीं.वाणी गीत तो इतनी भावुक हो गयी कि कह डाला, "आंसू भरी धुंधलाती आँखों से पढ़ यह सब कुछ ..कितने दिलों की ख़ामोशी को तुम कितनी आसानी से बयान कर देती हो .मन बहुत भर आया है ...आज तो जी कर रहा है कि फूट -फूट कर रो लूं ..." मुझे उसे समझाना पड़ा कि यह एक कहानी है..शची-अभिषेक एक काल्पनिक पात्र हैं.वह इन पात्रों से इतना जुड़ गयी थी गयी थी कि एक कविता भी लिख डाली..

जिनलोगों  ने हैरी पौटर फिल्म देखी हो उन्हें याद होगा, वहाँ बच्चों के नाम जब उनके पैरेंट्स के नाराज़गी भरे ख़त आते हैं तो वह ख़त डाइनिंग हॉल में चीखता हुआ आता है,जिसे howler कहते हैं ऐसा ही एक चीखता हुआ मेल आया Saurabh Hoonka का," cheating.... cheating.... this is cheating"  दरअसल उन्होंने उपन्यास शुरू किया और दो घन्टे तक पढने के बाद पता चला कि अभी तक क्रमशः ही  चल रहा है.फिर तो रोज उनका एक मेल आता और खीझ कर कहते, लगता है मेरे पोते भी इस नॉवेल को पढेंगे किस्त 102, किस्त 103   जब नॉवेल ख़त्म हो गया तो उनका कमेन्ट था
At last i just want to say one thing................ (Sorry Abhishek but...) I am in love with Shachi..........and I am still waiting for you Shachi...
अजय झा को टफ कम्पीटीशन है  क्यूंकि इस नॉवेल पर तो एक टिप्पणी नहीं की पर पर बाकी हर जगह वे शची के वेट कराने की ही चर्चा करते रहें.

आगे की किस्तों में वन्दना ने कहा ,".आखिर यथार्थ मे जीना सीख ही लिया अभिषेक ने……………उसके द्वंद का बखूबी चित्रण किया है "
रेखा श्रीवास्तव का भी कहना था ,... कहानी में मोड़ बहुत बढ़िया दिया है, अब आगे कि कल्पना कहाँ ले जने वाली है, वैसे उम्र के हिसाब से इंसान कि सोच बहुत बदल जाती  है. इसी को कहते हैं.
परिपक्वता और समय के साथ साथ चलना".खुशदीप भाई का कहना था,.. "बड़े गौर से पढ़ा इस कड़ी को...निष्कर्ष ये निकाला कि मेरे समेत हर पुरुष में एक अभिषेक है और हर नारी में एक शचि...कुछ समझौते को जीवन मान लेते हैं और कुछ जीवन को"
 हिमान्शु मोहन जी का कुछ अलग सा कमेन्ट था," लघु-उपन्यास देखा - सोचा निकल लेता हूँ चुपके से - लम्बी रचना - वो भी ब्लॉग पर - पढ़ ही नहीं पाऊँगा। फिर पढ़ गया पूरी किस्त। फिर पिछ्ली पढ़ी, फिर और  पिछली…"
.मुदिता ,(roohshine) बड़े ध्यान से पढ़ती थीं और एक बार बड़ी मुस्तैदी से याद दिलाया कि मैं क्रमशः लिखना भूल गयी हूँ...और पाठक समझेंगे यही अंत है नॉवेल का.

समीर जी(Udan Tashtari ) माफ़ करें पर उनकी टिप्पणी मैं हमेशा दो,तीन बार गौर से  से पढ़ती थी कि क्या वे सचमुच इतना लम्बा उपन्यास पढ़ रहें हैं  क्यूंकि औसतन १०० टिप्पणी तो वे रोज ही करते हैं..पर जब एक किस्त में उन्होंने कहा ,"शब्द  चित्रण बहुत प्रभावी होता जा रहा है."  तब मुझे यकीन हो गया कि वे सचमुच पढ़ते हैं.पर लिख तो मैं जाती लेकिन ये शब्द चित्र क्या बला है,मैने मुक्ति से पूछा,उसके बाद से तो मुक्ति ने जैसे हर किस्त में उनकी तरफ ध्यान दिलाने की जिम्मेवारी ही ले ली (वैसे मुक्ति पहली किस्त से ही चुनिन्दा पंक्तियाँ उद्धृत करती आई है.) शिखा,वाणी,वंदना भी यह बीड़ा उठाती थीं.
राज भाटिय़ा जी ने बहुत बड़ी बात कह दी  कि, 'उनके भी टीनेज़ बच्चे हैं, और यह उपन्यास पढ़ उन्हें उनकी मानसिकता समझने में मदद मिलती हैं.'
@ नेहा की बेसब्री उसके कमेन्ट में झलक जाती, वो बार बार ब्लॉग खोल के देखती...कि अगला किस्त आया या नहीं.Deepak Shukla ने  भी बड़े मनोयोग से हर किस्त पर उस अंश का सार समेटते हुए लम्बी टिप्पणियाँ कीं.

रवि धवन,ताऊ रामपुरिया,विनोद पांडे,अदा, पूनम, शाहिद मिर्ज़ा,भूतनाथ, शमा जी, ममता,जाकिर अली,रचना दीक्षित,आकांक्षा...  ये लोग भी बीच बीच में यह उपन्यास पढ़ते रहें.वंदना सिंह का आखिरी किस्त पे लम्बा woww हमेशा याद रहेगा :)
नॉवेल का सुखान्त होना सबको बहुत भाया ,रश्मि प्रभा... जी ने कहा, ab jake aaya mere bechain dil ko karar

कुछ टिप्पणियाँ ऐसी मिलीं जो आह्लादित तो कर गयीं,पर एक  बहुत बड़ी जिम्मेवारी भी सौंप गयीं, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी का ये कहना ".. बहुत दिनों बाद गद्य भी पद्य की तरह प्रवाहमय लगा. स्व. शिवानी जी को महारथ थी ऐसे लेखन में. आप कि कलम भी उसी दिशा में जा रही है" और  ज्ञानदत्त जी का ये कमेन्ट, . "स्तरीय किशोर/युवा वर्गीय साहित्य की हिन्दी में बहुत कमी है। उसे भरने का आपमें बहुत पोटेंशियल है." हिमांशु  मोहन जी ने कहा सूर्यबाला जी और शिवानी जी की कथाओं का मज़ा मिला। डा० अमर कुमार जी को ये   नॉवेल  उषा प्रियंवदा की 'रुकोगी नहीं राधिका' की  याद दिला गयी , और डा. तरु(Neeru) को 'गुनाहों का देवता' की.(ओह ,दोनों ही डॉक्टर हैं,पर साहित्य प्रेमी).  मैने तो कानों को हाथ लगा लिया...अगर उनलोगों  के लेखन के  शतांश क्या हजारवें अंश की  भी जरा सी झलक मिल जाये मेरे लेखन में तो धन्य समझूँ खुद को.

सभी पाठको का बहुत बहुत  से शुक्रिया,अपना किमती वक़्त जाया कर इस लघु उपन्यास को इतने मन से पढ़ा. और यही स्नेह बनाए रखियेगा...अभी बहुत कुछ लिखनेवाली हूँ.

(मुक्ति आजकल बहुत दुखी है,उसने अपनी प्यारी पप्पी  "कली" को हमेशा के लिए खो दिया है,मुक्ति हम सब तुम्हारे दुख में शामिल हैं ,आप सबसे भी आग्रह है दुआ कीजिये कि मुक्ति को ये अपूर्णीय क्षति सहन करने की हिम्मत मिले )
शुक्रिया सबका

Thursday, February 11, 2010

होठों से आँखों तक का सफ़र (कहानी)


मोबाइल पर एक अनजाना नंबर देख,बड़े बेमन से फोन उठाया.पर दूसरी तरफ से छोटी भाभी की आवाज़ सुनते ही ख़ुशी से चीख पड़ी. इतने सारे सवाल कर डाले कि उन्हें सांस लेने का मौका भी नहीं दिया.मेरे सौ सवालों के बीच वो सिर्फ इतना बता पायीं कि इसी शहर में हैं,अपने बेटे के पास आई हुई हैं और मुझसे मिलना चाहती हैं.

फोन रखते ही मैं जल्दी जल्दी काम निबटाने लगी और उसी रफ़्तार से मानसपटल पर पुराने दृश्य उभरने और मिटने लगे.

पड़ोस में रहने वाली ,मेरी सहेली सुधा के छोटे भैया की शादी हुई तो जैसे उनका घर रोशनी से नहा गया.अपने नाम किरण के अनुरूप ही,छोटी भाभी कभी सूरज की किरणें बन घर में उजास भर देतीं तो कभी चंद्रमा की किरण बन शीतलता बिखेरतीं.लम्बे काले बाल,दूध और शहद मिश्रित गोरा रंग,पतली छरहरी देह और उसपर जब हंसतीं तो दांतों की धवल पंक्ति बिजली सी चमक जाती.उन्हें देखकर ही जाना कि असली हंसी क्या होती है?उनकी हंसी सिर्फ होठों तक ही सीमित नहीं रहती बल्कि आँखों में उतर कर सामने वाले के दिल में घर कर लेती थी.

फोटो तो हम सबने पहले ही देख रखी थी.उसपर से सुना फर्स्ट क्लास ग्रेजुएट हैं. थोड़ा डर से गए थे. इतनी सुन्दर और इतनी पढ़ी लिखी हैं,जरूर घमंड भी होगा.ठीक से बात भी करेंगी या नहीं.पर अपने प्यारे व्यवहार से उन्होंने घर भर का ही नहीं.सुधा की सारी सहेलियों का भी मन मोह लिया.

हम इंतज़ार करते रहते कब क्लास ख़त्म हो और हम सब सुधा के घर जा धमकें.अक्सर छत पर हमारी गोष्ठी जमती और हम यह देख दंग रह जाते,साहित्य,राजनीति,खेल,फिल्म,संगीत,सब पर भाभी की अच्छी पकड़ थी.नयी नवेली बहू को सुधा की माँ तो कुछ नहीं कहतीं पर शाम के पांच बजते ही वे, किचेन में बड़ी भाभी की हेल्प करने चली जातीं.

छोटे भैया भी उनका काफी ख़याल रखते.अक्सर शाम को ऑफिस से लौट वे भाभी को कभी दोस्तों के घर ,कभी मार्केट तो कभी फ़िल्में दिखाने ले जाते.जब स्कूटर पर भैया भाभी की जोड़ी निकलती तो सारे महल्ले की कई जोड़ी आँखें,खिडकियों से ,बालकनी से या छत से झाँकने लगतीं.सब यही कहते कैसी,राम सीता सी जोड़ी है.

समय के साथ वे एक प्यारे से बच्चे की माँ भी बनीं.अब तो छोटे बच्चे के बहाने, मैं जैसे उनके घर पर ही जमी रहती.पर नन्हे से ज्यादा आकर्षण भाभी की बातों का रहता.वे भी जैसे मेरी राह देखती रहतीं. उन्होंने भी मुझे कभी सुधा से अलग नहीं समझा.

सब कुछ अच्छा चल रहा था,फिर हुआ वह वज्रपात.जाड़े के दिन थे,अल्लसुबह भैया किसी मित्र को लाने स्टेशन जा रहें थे.और कोहरे की वजह से उनके स्कूटर का एक्सीडेंट हो गया.भैया का निर्जीव शरीर ही घर आ पाया,नन्हे सिर्फ चार महीने का था,उस वक़्त.

भाभी को उनके मायके वाले ले गए.मुझे भाभी से बिछड़ने का गम तो था. पर मुझे विश्वास था कि भाभी,अपने घर की इकलौती बेटी हैं,दो भाइयों की छोटी लाडली बहन हैं,पिता भी प्रगतिशील विचारों वाले हैं.जरूर उन्हें आगे पढ़ा कर या अच्छा सा कोर्स करवा कर नौकरी के लिए प्रोत्साहित करेंगे.मैं मन ही मन प्रार्थना करने लगी,हे भगवान्! भाभी की दूसरी शादी भी करवां दें,कैसे काटेंगी अकेली ये पहाड़ सी ज़िन्दगी. पर तब मुझे दुनियादारी की समझ नहीं थी.नहीं जानती थी कि एक विधवा या परित्यक्ता बेटी के लिए मायके में भी जगह नहीं होती.जिस घर मे वह पली बढ़ी है, अब उस घर में ही फिट नहीं हो पाती.जिन माँ-बाप का गला नहीं सूखता ,यह कहते कि,उसके ससुराल वाले तो छोड़ते ही नहीं ..दो दिन में ही बुलावा आ जाता है.पर अगर बेटी हमेशा के लिए आ जाए तो भारी पड़ जाती है. दो महीने के बाद ही भाभी के पिता यह कहते हुए उन्हें ससुराल छोड़ गए कि यह नन्हे का अपना घर है , उसे इसी घर में बडा होना चाहिए.

घर में प्रवेश करते ही,भाभी ने अपनी स्थिति स्वीकार कर ली थी.उनका अपना कमरा अब उनका नहीं था. किचन से लगे एक छोटे से कमरे में उन्हें जगह मिली थी.जहाँ बस एक तख़्त पड़ा था.उनके दहेज़ के सामान में से बस एक आलमीरा उन्हें मिला था.उनके कमरे,उनके ड्रेसिंग टेबल,टू-इन-वन,सब पर अब सुधा का कब्ज़ा था.छोटी भाभी की अनुपस्थिति में उनके पलंग पर सुधा,और बड़ी भाभी के बच्चे सोते थे.वही व्यवस्था उनके लौटने के बाद भी कायम रही.उनका कमरा देख मेरा कलेजा मुहँ को आ गया.एक रैक पर नन्हे के कपड़ों के साथ बस एक कंघी पड़ी थी.एक आईना तक नहीं.तर्क होगा,जब श्रृंगार नहीं करना,फिर आईने की क्या जरूरत.

नन्हे को तो सुधा की माँ ने जैसे अपने संरक्षण में ले लिया था.उस बच्चे में वह अपने खोये हुए बेटे को देखतीं.उसका सारा काम खुद किया करतीं.एक मिनट भी उसे खुद से अलग नहीं करती....बस भाभी को आवाजें लगातीं....बहू,जरा..नन्हे की दूध की बोतल दे जाओ...कपड़े दे जाओ...उसके नहलाने का इंतज़ाम करो...और भाभी आँगन में पटरा गरम पानी तौलिया,साबुन सब रखतीं.पर बच्चे को नहलाने का सुख.माता जी ले जातीं.भाभी नन्हे की धाय माँ भी नहीं रह गयी थीं.

फिर भी भाभी ने अपनी मुस्कराहट जिंदा रखी थी.शायद यही उनके जीने का सम्बल था.पर अब उनकी हंसी बस होठों तक ही सीमित रहती,आँखों से नहीं छलकती थी.

छोटी भाभी के घर आते ही,बड़ी भाभी को पता नहीं किन काल्पनिक रोगों ने धर दबोचा.आज उनके पैर में दर्द रहता,कल पीठ में तो परसों कमर में.सारा दिन पलंग पर आराम फरमाया करतीं.और पड़े पड़े ही छोटी भाभी को निर्देश दिया करतीं.उन्होंने अपना वजन भी खूब बढा लिया था.मैं सोचती,आज तो ये काम से बचने के लिए बहाने कर रही हैं...इतने आराम से कल इन्हें ये सारे दर्द सचमुच झेलने पड़ेंगे.

घर का सारा बोझ छोटी भाभी के कंधे पर आ गया था.सुबह उठकर बड़ी भाभी के बच्चों के टिफिन बनाने से लेकर,रात में सबके कमरे में पानी की बोतल रखने तक उनका काम अनवरत चलता रहता.बस दोपहर को थोड़ी देर का वक़्त उनका अपना होता.जब वे घर वालों के कपड़े समेट आँगन में धोने बैठती.सबलोग अपने कमरे में आराम कर रहें होते और वे मुगरी से कपड़ों पर प्रहार करती रहतीं और उसी के लय पर उनके मधुर स्वर में लता के दर्द भरे नगमे गूंजते रहते..मैं उस समय किताबें लिए छत पे होती. मुझे उनकी आवाज़ के कम्पन से पता चल जाता कि वे रो रही हैं और उनकी दर्द भरी आवाज़ सुन, मेरे भी आंसू झर झर किताबों पे गिरते रहते पर मैंने भाभी को कभी नहीं बताया...उनका ये एकमात्र निजी पल मैं उनसे नहीं छीनना चाहती थी. शायद इसी एक घंटे में वे अपने अंतर का सारा कल्मष निकाल देतीं और बाकी के २३ घंटे हंसती मुस्काती नज़र आतीं.

शायद इसी मूक पल ने जैसे कोई मूक रिश्ता स्थापित कर दिया था,हमारे बीच.मैं भाभी की तरफ देखती और भाभी नज़रें झुका लेतीं और जल्दी से काम में लग जातीं.उन्हें डर था जैसे मैं नज़रों से उनका दर्द पढ़ लूंगी.हमारी गोष्ठी अब इतिहास हो चुकी थी.मुझे अब उनके यहाँ जाना भी अच्छा नहीं लगता.क्यूंकि सुधा जिस तरह उनसे व्यवहार करती वो मुझसे देखा नहीं जाता.

एक दिन एक सहेली के घर जाना था.सुधा के घर उसे लेने गयी तो देखा,सुधा, भाभी के ऊपर चिल्ला रही है,"मेरा पिंक वाला कुरता कहाँ है?" जब भाभी ने कहा ,'इस्त्री के लिए गयी है" तो बिफर उठी वह ,"अब क्या पहनूं? कहा था ना आपको,नीरा के बर्थडे में जाना है.फिर क्यूँ दिया आपने इस्त्री में?"
भाभी ने चतुराई से बात संभालने की कोशिश की.आलमारी से ब्लू रंग का कुरता निकाल कर प्यार से बोलीं,"अरे ये क्यूँ नहीं पहनती? इस रंग में कितना रंग खिलता है तुम्हारा.बहुत अच्छी लगती है तुम पर."
मैंने भी हाँ में हाँ मिलाई,"हाँ सुधा,बहुत अच्छी लगती है तुम पर ये ड्रेस."
"हाँ ,अब और चारा भी क्या है?"..कहती सुधा,भाभी के हाथों से वो ड्रेस ले बदलने चली गयी.
मैंने ऐसे सर झुका लिया,जैसे मेरी ही गलती हो.भाभी ने भी भांप लिया और बात बदलते हुए,मेरी पढ़ाई के बारे में पूछने लगीं.पर जब हमारी आँखें मिलीं तो सारे बहाने ढह गए और भाभी की आँखें गीली हो आयीं,जिन्हें छुपाने वे जल्दी से कमरे से बाहर चली गयीं.

मैंने रास्ते में सुधा को समझाने की कोशिश की पर मेरी सहेली कैसी भावनाहीन हो गयी थी,देख आश्चर्य हुआ.उल्टा मुझपर बरस पड़ी,"उनको और काम ही क्या है,इतना भी ध्यान नहीं रख सकतीं"
मन हुआ उसे रास्ते से नीचे धकेल दूँ.हाँ उस बिचारी का पति नहीं रहा...अब चौबीस घंटे तुमलोगों की चाकरी और तुम्हारे नखरे उठाने के सिवा उसके पास काम ही क्या है.मैंने बोला तो कुछ नहीं पर सुधा मेरी नाराज़गी समझ गयी.हमारी दोस्ती के बीच एक दरार सी आ गयी जो समय के साथ बढती ही चली गयी.

नन्हे अब बोलने लगा था.पर बड़ी भाभी के बच्चों की तरह वो छोटी भाभी को 'छोटी माँ' कह कर ही बुलाया करता.मैंने टोका तो भाभी ने हंस कर बात टाल दी,"अरे बच्चे जो सुनते हैं वही तो बोलना सीखते हैं" पर र्मैने पाया घर में भी कोई उसे 'छोटी माँ' की जगह मम्मी कहना नहीं सिखाता.बल्कि सबको मजे लेकर यह बात बताया करते.हर आने जाने वाले को भाभी को दिखाकर,नन्हे से पूछते,'ये कौन है' और जब नन्हे अपनी तोतली जुबान में कहता,'चोटी मा' तो जैसे सबको हंसी का खज़ाना मिल जाता.नन्हे भी अपने छोटे छोटे हाथों से ताली बजा,हंसने लगता.उसे लगता उसने कोई बडा काम कर लिया.ऐसे में भाभी जिस कौशल से हंसी के पीछे अपना दर्द छुपातीं.बड़ी से बड़ी ऑस्कर अवार्ड पाने वाली अभिनेत्रियाँ भी नहीं कर पाएंगी.

नन्हे पर उसके दादा,दादी,चाचा सब जान छिड़कते थे.उसके भविष्य की पूरी चिंता थी...कहाँ पढ़ाएंगे, कैसे पढ़ाएंगे...सारी योजनायें बनाते रहते. यूँ वे छोटी भाभी से भी कोई दुर्वयवहार नहीं करते थे. सिर्फ काम मशीनों वाला लेते थे,वरना कोई अपशब्द या कटाक्ष या व्यंग नहीं करते थे.पर दुर्वयवहार ना करना,सद्व्यवहार की गिनती में तो नहीं आता.मनुष्य की जरूरतें सिर्फ,खाने कपड़े और छत की ही नहीं होती.छोटी भाभी को भी एक सामान्य जीवन जीने का हक़ था.हंसने बोलने,बाज़ार,फिल्मे जाने का समारोह,उत्सवों में भाग लेने का हक़ था...जो अब वर्जित हो गया था,उनके लिए.


फिर मेरी शादी हो गयी.पर जब भी मायके जाना होता.कहने को तो मैं सुधा के घरवालों से मिलने जाती पर मन तड़पता रहता,भाभी से मिलने को.नन्हे अब बडा हो रहा था और जैसे धीरे धीरे उसपर असलियत खुल रही थी.क्यूंकि हंसने खलने वाला महा शरारती बच्चा,अब बिलकुल शांत हो गया था.वह अपनी माँ की स्थिति समझ रहा था.उन्हें अब 'छोटी माँ' कहकर नहीं बुलाता पर जैसे माँ कहने में भी उसे हिचक होती.वह कुछ कहता ही नहीं.इन सबसे बचने के लिए उसने किताबों की शरण ले ली थी.हर बार उसके कामयाबी के नए किस्से सुना करती और दिल गर्व से भर जाता.चलो भाभी का त्याग व्यर्थ नहीं गया.नन्हे के रूप में गहरे काले बादल की ओट से सुनहरी किरणें झाँक रही थीं अब भाभी के जीवन में पूरा प्रकाश फैलने में देर नहीं थी.

सुना नन्हे ने इंजीनियरिंग में टॉप किया है.और एक बड़ी मल्टीनेशनल कम्पनी में अच्छी नौकरी मिल गयी है.भाभी को फोन पर मुबारकबाद दी तो वे ख़ुशी से रो पड़ीं.नन्हे की शादी में बड़े प्यार से बुलाया था,भाभी ने.पर अपनी घर गृहस्थी में उलझी मैं,नहीं जा सकी.

और आज जब फोन पर सुना,नन्हे इसी शहर में है तो मन ख़ुशी से झूम उठा.

भाभी जैसे मेरे इंतज़ार में ही थीं.कॉलबेल पर हाथ रखा और दरवाजा खुल गया.भाभी को देख,मैं ठगी सी रह गयी.लगा पच्चीस साल पहले वाली भाभी खड़ी हैं.चेहरे पर वही पुरानी हंसी लौट आई थी.जो होठों से चलकर आँखों तक पहुँचती थी.नन्हे की पत्नी रुचिका बहुत ही प्यारी लड़की थी.रुचिका को भाभी ने बेटी सा प्यार दिया तो रुचिका ने भी उन्हें माँ से कम नहीं समझा.'माँ' सुनने को तरसते भाभी के कान जैसे रुचिका की माँ की पुकार सुन थक नहीं रहें थे.गुडिया सी वह लड़की पूरे समय हमारी खातिरदारी में लगी रही.बिना माँ से पूछे उसका एक काम नहीं होता. भाभी भी दुलार से भरी उसकी हर पुकार पे दौड़ी चली जातीं.दोनों को यूँ घुलमिल कर सहेलियों सी बातें करते देख जैसे दिल को ठंढक पड़ गयी.मैंने आँखें मूँद धन्यवाद दिया ईश्वर को,सच है भगवान् तुम्हारे यहाँ देर हैं अंधेर नहीं.

दोनों मुझे टैक्सी तक छोड़ने आयीं.तभी रुचिका ने कुछ कहा और भाभी खिलखिला कर हंस पड़ीं.मैं मंत्रमुग्ध सी निहारती ही रह गयी.रुचिका ने ही मेरे लिए आगे बढ़ कर टैक्सी रोकी और दोनों को हाथ हिलाता देख,लग रहा था,दो सहेलियां मुझे विदा कह रही हैं.टैक्सी चलते ही मैंने सीट पर सर टिका आँखें मूँद लीं.कुछ देर आँखें बंद कर इस ख़ूबसूरत अहसास को अन्दर तक महसूस करना चाहती थी.