Saturday, October 24, 2009

DDLJ:अच्छा है कि 'राज' हमारी यादों में जिंदा एक फिल्म किरदार है

'चवन्नीचैप' हिंदी का मशहूर ब्लॉग है,जिसमे पहली बार मैंने 'हिंदी टाकिज' सिरीज़ के तहत हिंदी सिनेमा के अपने अनुभवों को लिखा....सबको बहुत पसंद आया और अजय जी ने मुझे अपना ब्लॉग शुरू करने की सलाह दे डाली....बहुत हिचकिचाते और डरते हुए मैंने अपना ब्लॉग बनाया....और आपलोगों के स्नेह और उत्साहवर्धन ने लिखते रहने के लिए प्रेरित किया.जब अजय जी ने 'दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे' के १४ साल पूरे होने पर इस फिल्म से जुड़े कुछ अपने अनुभव लिखने को कहा तो उनका आदेश सर माथे.....


डीडीएलजे से जुड़ी मेरी यादें कुछ अलग सी हैं. इनमे वह किशोरावस्था वाला अनुभव नहीं है,क्यूंकि मैं वह दहलीज़ पार कर गृहस्थ जीवन में कदम रख चुकी थी.शादी के बाद फिल्में देखना बंद सा हो गया था क्यूंकि पति को बिलकुल शौक नहीं था और दिल्ली में उन दिनों थियेटर जाने का रिवाज़ भी नहीं था.पर अब हम बॉम्बे(हाँ! उस वक़्त बॉम्बे,मुंबई नहीं बना था) में थे और यहाँ लोग बड़े शौक से थियेटर में फिल्में देखा करते थे.एक दिन पति ने ऑफिस से आने के बाद यूँ ही पूछ लिया--'फिल्म देखने चलना है?'(शायद उन्होंने भी ऑफिस में डीडीएलजे की गाथा सुन रखी थी.) मैं तो झट से तैयार हो गयी.पति ने डी.सी.का टिकट लिया क्यूंकि हमारी तरफ वही सबसे अच्छा माना जाता था.जब थियेटर के अन्दर टॉर्चमैन ने टिकट देख सबसे आगेवाली सीट की तरफ इशारा किया तो हम सकते में आ गए.चाहे,मैं कितने ही दिनों बाद थियेटर आई थी.पर आगे वाली सीट पर बैठना मुझे गवारा नहीं था.यहाँ शायद डी.सी.का मतलब स्टाल था.मुझे दरवाजे पर ही ठिठकी देख पति को भी लौटना पड़ा.पर हमारी किस्मत अच्छी थी,हमें बालकनी के टिकट ब्लैक में मिल गए.
फिल्म शुरू हुई तो काजोल की किस्मत से रश्क होने लगा...सिर्फ सहेलियों के साथ लम्बे टूर पर जाना. साथ-साथ मेरी कल्पना के घोडे भी दौड़ने लगे,काश!हमें भी ऐसा मौका मिला होता तो कितना मजा आता.शाहरुख़ खान के राज़ का किरदार तो जैसे दिल मानने को तैयार नहीं--'ऐसे लड़के भी होते हैं? एक अजनबी लड़की का इतना ख्याल रखना ...आरामदायक कमरा छोड़ इतनी ठंड में बाहर सोना..और उस पर से उसकी डांट....ना,ऐसा तो सिर्फ फिल्मों में ही हो सकता है'.पर जब उनका टूर ख़तम हो गया तो उनके बीच जन्म लेते नए कोमल अहसास बिलकुल सच से लगे. 'तुझे देखा तो ये जाना सनम...."इस गीत के पिक्चाराइजेशन ने भी इस अहसास को बड़ी खूबसूरती से उकेरा है.
फिल्म जब पंजाब में काजोल की शादी की तैयारियों तक पहुंची तो 'राज' का चेहरा किसी के चेहरे के साथ गडमड होने लगा.वह चेहरा था मेरे छोटे भाई 'विवेक' का.बिलकुल 'राज' की तरह ही वह उस शादी के घर में बिलकुल अजनबी था.लेकिन छोटे-बड़े, नौकर-चाकर, नाते-रिश्तेदार सबकी जुबान पर एक ही नाम होता था--'विवेक'
विवेक मेरे दूर का रिश्तेदार है,मेरी मौसी के देवर का बेटा...पर है बिलकुल मेरे सगे छोटे भाई सा. मैं छुट्टियों में अपनी मौसी के यहाँ गयी थी,वहीँ विवेक से मुलाक़ात हुई.हम दोनों में अच्छी जम गयी.वह दिन भर मुझे चिढाता रहता और मैं किसी से भी उसका परिचय यूँ करवाती--"ये विवेक हैं,जिनकी विवेक से कभी मुलाक़ात नहीं हुई"
मैं अपने चाचा की बेटी की शादी में गयी थी और वहां विवेक मुझसे मिलने आया.बिलकुल 'राज' की तरह वह बाकी लोगों से ऐसे घुल मिल गया जैसे बरसों की जान पहचान हो.मुझे याद नहीं कि किसी ने विवेक को शादी में फोर्मली इनवाइट किया हो पर जरूरत भी नहीं समझी,जैसे मान कर चल रहें हों,वह तो आएगा ही.और शादी के दिन सुबह से ही विवेक तैनात.आजकल तो स्टेज,मंडप की साज सज्जा,खाना पीना सब contract पर दे देते हैं पर उन दिनों हलवाई के सामने बैठकर खाना बनवाना,बाज़ार से राशन लाना,मंडप सजाना सब घर के लोग मिलकर ही करते थे.ऐसे में विवेक के दो अतिरिक्त उत्साही हाथ बहुत काम आ रहें थे.भैया का तो वह जैसे दाहिना हाथ ही हो गया था.
डी डी एल जे के राज की तरह वह किसी मकसद के तहत लोगों को खुश नहीं कर रहा था. बल्कि यह उसके स्वभाव में शामिल था.फिल्म की तरह गान बजाना तो उन दिनों नहीं होता था.पर 'राज' की तरह ही वह जब मौका मिलता बच्चों से घिरा रहता.और जहाँ कोई मामा,चाचा,दिख जाते कहता--"बच्चों, बोलो मामा की जय'.बच्चे भी गला फाड़ कर चिल्लाते.फिर वह मामा,चाचा से कहता,"पैसे निकालिए ,ये इतनी जयजयकार कर रहें हैं.".वे लोग भी हंसते-हंसते सौ पचास रुपये पकडा देते.और वह मुझे थमा देता,'जमा करो,सब मिलकर चाट खाने जायेंगे'
अमरीश पुरी की तर्ज़ में कई बड़े-बूढे उसे यूँ काम करता देख, ऐनक उठा,सीधे ही पूछ लेते."तुम किसके बेटे हो?"और वह मुझे इंगित कर कहता,"मैं इनका छोटा भाई हूँ"..क्या परिचय देता कि मैं लड़की की चाची की बहन के देवर का बेटा हूँ.
शादी की सुबह जब दूल्हा शेव कर तैयार होने लगा तो विवेक पहुच गया,"अरे आप दूल्हा हैं,खुद शेव करेंगे?..लाइए मैं शेव कर देता हूँ." और शेव करने के बाद बोला,"अब नेग निकालिए" लड़के ने भी मुस्कुराते हुए कुछ नोट पकडा दिए जो मेरे पास जमा हो गए.इस बार आइसक्रीम खाने के लिए
मेरे चाचा दिखने में तो अमरीश पुरी की तरह रौबदार नहीं थे.पर उनके बच्चों के साथ साथ हमलोग भी उनसे बहुत डरते थे.उस पर से जब बाराती छत पर पंगत में खाना खाने बैठे तो विवेक ने उनकी चप्पलें छुपा दीं.जब चप्पलें ढूंढी जाने लगी तो चाचा की क्रोधाग्नि में भस्म होने का हम सबको पूरा अंदेशा था.हमने विवेक को आगे कर दिया,तुम्हारा आइडिया था,तुम भुगतो.और वह चाचा से बहस करता रहा,'इनलोगों ने जनवासे में हमें कितना परेशान किया है,पहले सॉरी बोलें"पूरी शादी में पहली बार चाचा के चेहरे पर मुस्कान दिखी और उन्होंने विवेक को मनाया,चप्पलें वापस करने को.
विदा होते समय रूबी जोर-जोर से रो रही थी.भाई शायद पूरे साल बहन से झगड़ता हो,पर विदाई के समय बहन को रोते देख उसका दिल दो टूक हो जाता है,भैया ने विवेक को बोला,'तुम कार में साथ में बैठ जाओ,रास्ते में जरा उसे हंसाते हुए जाना."विवेक बोला..'अरे मेरे कपड़े नहीं हैं,कोई तैयारी नहीं है,ऐसे कैसे चला जाऊं?"...भैया ने बोला,'कोई बात नहीं,मैं कल लेता आऊंगा'और विवेक दुल्हन के साथ दूसरे शहर चला गया,जहाँ पहुँचने में कम से कम ८ घंटे लगते थे.


फिर बरसों बाद विवेक से मिलना हुआ.मेरे मन में उसकी वही शरारती छवि विद्यमान थी.पर १२वीं में पढने वाला वह लड़का, अब धीर गंभीर बैंक ऑफिसर बन चुका था,शादी भी हो गयी थी.मैंने पति से परिचय करवाया."ये विवेक है"(पर दूसरी पंक्ति कि 'जिसकी विवेक से कभी मुलाक़ात नहीं हुई' कहते कहते रुक गयी.) अच्छा है कि 'राज' एक फिल्म किरदार है और हमारी यादों में जिंदा है वरना १४ साल बाद उसके हाथ में भी होता 'माऊथ ओरगन' की जगह एक लैपटॉप और चेहरे पर सदाबहार खिली मुस्कान की जगह चिंताओं का रेखाजाल.

17 comments:

अनिल कान्त said...

आपकी जुबानी इस फिल्म के बारे में पढना अच्छा लगा
और विवेक के बारे में भी जानने का अवसर मिला

डिम्पल मल्होत्रा said...

vivek ke bare me jaanke achha lga...nahi to raj sirf filmo me hi hota hai....asli me nahi...

PD said...

बहुत अच्छा किया.. वैसे मैं ये चवन्नी पर पहले ही पढ़ चूका हूँ.. पढ़कर अच्छा भी लगा था.. :)

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

bahut achcha laga padh kar...

रश्मि प्रभा... said...

raj aur vivek.....raj kalpnik , vivek ki baaten dil ko chhu gayin.....

चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345 said...

वाह रश्मि! कितना सरस...अद्भुत भाव-संरचना, यादों से रू-ब-रू करा दिया आपने...विवेक से मिलकर बहुत अच्छा लगा. ऐसे ही लिखती रहें. संस्मरण में कथात्मकता कूट-कूटकर भरी है. महज़ कंकरीली, आंसुओं से भीगी हुई यादों से अलग, एक अनूठा संसार. पुनः बधाई.

Anonymous said...

DDLJ हमने अपने कॉलेज के दिनों में क्लास से बंक मार कर देखा था, कॉलेज स्टार्ट ही किया था उन दिनों...... अच्छा लगा पढ़ कर, पुरानी यादें ताजा हो गयी !!

Anonymous said...

डी डी एल जे के राज की तरह वह किसी मकसद के तहत लोगों को खुश नहीं कर रहा था. बल्कि यह उसके स्वभाव में शामिल था.
.....अच्छा है कि 'राज' एक फिल्म किरदार है और हमारी यादों में जिंदा है वरना १४ साल बाद उसके हाथ में भी होता 'माऊथ ओरगन' की जगह एक लैपटॉप और चेहरे पर सदाबहार खिली मुस्कान की जगह चिंताओं का रेखाजाल।

पोस्ट बढ़िया लगी। हम नें भी यह पोस्ट भायखला से जे जे हास्पीटल जाते वकत रास्ते में एक थियेटर आता है, वहां पर ही देखी थी. बंबई सैंट्रल में रहते थे ---बिल्कुल मराठा मंदिर के बाजू में एक गगनचुंबी इमारत में -----और अगले पांच साल तक जब तक वहां रहे ---इस फिल्म का पोस्टर मराठा मंदिर में दिखता रहता था ---- ।।
और हां, जब फिल्म में अमरीश पुरी अपने परिवार समेत पंजाब आ रहा होता है तो हरे भरे खेत, मुस्कुराते लोग और वह बढ़िया सा गाना --- घर आ जा परदेसी तेरी याद सतावे वे -----मुझे बहुत ही पसंद था और उस ज़माने में मैं यही सोचा करता था कि हम लोग कब अपने घर जाएंगे।
बहरहाल, एक बहुत ही अच्छी साफ़ सुथरी फिल्म थी।

वैसे विवेक जैसे किरदार लगता है हर परिवार में मिल जाएंगे। ऐसी रब्बी शख्शियतें भी इस परमपिता परमात्मा की नुमांइदगी करती ही दिखती है, वरना आज कौन इतनी ज़हमत लेने की सोचता है। हिप हिप हुर्रे, हिप हिप हुर्रे...हिप हिप हुर्रे ----फॉर विवेक, ऑफ कोर्स...

kishore ghildiyal said...

jaankar khushi hui ki real life me bhi raaj(vivek) jaise log hote hain
bahut bahut shukriya
http/jyotishkishore.blogspot.com

निर्मला कपिला said...

रविज़ा मैं भी कई दिन से अस्वस्थ सी च रही हूँ अधिक देर कम्पयूटर पर नहीं बैठ पाती इस लिये तुम्हारी ये पोस्ट नहीं पढ पाई थी। ब्लोग जगत मे 5-6 लोग ऐसे हैं जिनको पढना मुझे बहुत अच्छा लगता है तुम्हारी शैली की कायल हूँ । विवेक जी जैसे लोग आज भी हैं मगर अच्छाई सामने कम आती है बुराई ढोल पीट 2 कर अपना एहसास करवाती है। काश कि विवेक जैसे सब लोग बन जायें तो दुनिया कितनी सुन्दर हो जाये\ विवेक जी और आपको बहुत बहुत आशीर्वाद्

mamta said...

Interesting,light reading.Though it's always a pleasure to read your posts,this one was different as instead of forcing us to think something ,it just made one smile.Carry on,we are waiting for the next one.

Ashish said...

Mujhe bahut accha laga , vevek se prabhavit bhi hua.lekin mai raj se prabhawit nahi hoo lekin aisa q hai, is vishay par nahi jana chahta. mujhe logo ki Tippadiya padhne me accha lagta hai, aur apne aap ko dhanya manta hoo ki bachpan ke bad(jab mai mahadeviji, raghupati sahay ke god me khelta tha )Abhi itne murdhanya logo ke sanidhya me hoo(tipaddiyo ke beech me hi sahi).

rashmi ravija said...

ashish,u mean Firaq Gorakhpuri n Mahadevi Verma??...woww...kabhi un anubhavon ko hamse baantye..

दर्पण साह said...

uff...
ye nostalgia....
Raj ji ki baat se aseh amt hoon !!
kyunki filmein aur samaj ek doosre ka darpan hoti hain....

PS:Waise Simran asal zindagi main hoti hai ya nahi? pata nahi !!
:)

गौतम राजऋषि said...

ddlj....इकलौती फिल्म जिसे मैंने लगातार दो शो देखा पुणे के हाल में। nda के सिनियर सत्र वाले दिन शुरू हो चुके थे..."राज" तो हम खुद ही थे...’सिमरन" ढूंढ़े न मिल रही थी।

बहुत ही दिलचस्प शैली मैम...विवेक से परिचय अच्छा लगा।

कुश said...

फिल्म रंग दे बसंती का एक डायलोग है.. पहले हम ज़िन्दगी को नचाते थे अब ज़िन्दगी हमें नचाती है.. टिम लक लक लक ते टिम लक लक लक
ज़िन्दगी की आपाधापी में राज विवेक बन ही जात है.. वाकई शुक्र है कि राज सिर्फ एक फिल्म का किरदार है

Mithilesh dubey said...

आपके द्वारा इसको सूनना बढिया एहसास रहा ।