Tuesday, October 13, 2009
बारूद की ढेर में खोया बचपन
दीवाली बस दस्तक देने ही वाली है.सबकी तरह हमारी भी शौपिंग लिस्ट तैयार है.पर एक चीज़ कुछ बरस पहले हमारी लिस्ट से गायब हो चुकी है और वह है--'पटाखे'. मेरे बेटे को भी हर बच्चे की तरह पटाखे का बहुत शौक था.दस दिन पहले से उसकी लिस्ट बननी शुरू हो जाती.पटाखे ख़रीदे जाते.दो दिन पहले से उन्हें धूप दिखाना,गिनती करना,सहेजना...जैसा सारे बच्चे करते हैं.दिवाली के दिन वह शाम से ही बैग में सारे पटाखे डाले,एक कमर पर हाथ रखे मुझे एकटक घूरता रहता क्यूंकि मैं लक्ष्मी पूजा हुए बिना, उसे नीचे जाकर पटाखे चलाने की इजाज़त नहीं देती थी.जैसे ही पूजा ख़त्म हुई,वह बैग संभाले नीचे भागता.मुझे जबरदस्ती उसे पकड़, प्रसाद का एक टुकडा मुहँ में डालना पड़ता.लेकिन जब वह ९-१० साल का था, उसके स्कूल में एक डॉक्युमेंटरी दिखाई गयी,जिसमे दिखाया गया कि 'सिवकासी' में किस अमानवीय स्थिति में रहते हुए छोटे छोटे बच्चे, पटाखे तैयार करते हैं.इसका उसके कोमल मन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उसने और उसके कुछ दोस्तों ने कभी भी पटाखे न चलाने का प्रण ले लिया.इनलोगों ने छोटे छोटे बैच भी बनाये SAY NO TO CRACKERS वह दिन है और आज का दिन है इन बच्चों ने पटाखों को हाथ नहीं लगाया.
'सिवकासी' चेन्नई से करीब 650 km दूर स्थित है.भारत में जितने पटाखों की खपत होती है,उसका 90 % सिवकासी में तैयार किया जाता है.और इसे तैयार करने में सहयोग देते हैं, 100000 बाल मजदूर.करीब 1000 करोड़ का बिजनेस होता है,यहाँ.
8 साल की उम्र से ये बच्चे फैक्ट्रियों में काम करना शुरू कर देते हैं.दीवाली के समय काम बढ़ जाने पर पास के गाँवों से बच्चों को लाया जाता है.फैक्ट्री के एजेंट सुबह सुबह ही हर घर के दरवाजे को लाठी से ठकठकाते हैं और करीब सुबह ३ बजे ही इन बच्चों को बस में बिठा देते हैं.करीब २,३, घंटे की रोज यात्रा कर ये बच्चे रात के १० बजे घर लौटते हैं.और बस भरी होने की वजह से अक्सर इन्हें खड़े खड़े ही यात्रा करनी पड़ती है.
रोज के इन्हें १५-१८ रुपये मिलते हैं.सिवकासी की गलियों में कई फैक्ट्रियां बिना लाइसेंस के चलती हैं और वे लोग सिर्फ ८-१५ रुपये ही मजदूरी में देते हैं.ये बच्चे पेपर डाई करना,छोटे पटाखे बनाना,पटाखों में गन पाउडर भरना, पटाखों पर कागज़ चिपकाना,पैक करना जैसे काम करते हैं.
जब भरपेट दो जून रोटी नहीं मिलती तो पीने का पानी,बाथरूम की व्यवस्था की तो कल्पना ही बेकार है.बच्चे हमेशा सर दर्द और पीठ दर्द की शिकायत करते हैं.उनमे कुपोषण की वजह से टी.बी.और खतरनाक केमिकल्स के संपर्क में आने की वजह से त्वचा के रोग होना आम बात है.
गंभीर दुर्घटनाएं तो घटती ही रहती हैं.अक्सर खतरनाक केमिकल्स आस पास बिखरे होते हैं और बच्चों को उनके बीच बैठकर काम करना पड़ता है.कई बार ज्वलनशील पदार्थ आस पास बिखरे होने की वजह से आग लग जाती है.कोई घायल हुआ तो उसे ७० कम दूर मदुरै के अस्पताल में ले जाना पड़ता है.बाकी बच्चे आग बुझाकर वापस वहीँ काम में लग जाते हैं.
कुछ समाजसेवी इन बच्चों के लिए काम कर रहें हैं और इनके शोषण की कहानी ये दुनिया के सामने लाना चाहते थे.पर कोई भारतीय NGO या भारतीय फिल्मनिर्माता इन बच्चों की दशा शूट करने को तैयर नहीं हुए.मजबूरन उन्हें एक कोरियाई फिल्मनिर्माता की सहायता लेनी पड़ी.25 मिनट की डॉक्युमेंटरी 'Tragedy Buried in Happiness कोरियन भाषा में है जिसे अंग्रेजी और तमिल में डब किया गया है.इसमें कुछ बच्चों की जीवन-कथा दिखाई गयी है जो हजारों बच्चों का प्रतिनिधित्व करती है.
12 साल की चित्रा का चेहरा और पूरा शरीर जल गया है.वह चार साल से घर की चारदीवारी में क़ैद है,किसी के सामने नहीं आती.पूरा शरीर चादर से ढँक कर रखती है,पर उसकी दो बोलती आँखे ही सारी व्यथा कह देती हैं.
14 वर्षीया करप्पुस्वामी के भी हाथ और शरीर जल गए हैं.फैक्ट्री मालिक ने क्षतिपूर्ति के तौर पर कुछ पैसे दिए पर बदले में उसके पिता को इस कथन पर हस्ताक्षर करने पड़े कि यह हादसा उनकी फैक्ट्री में नहीं हुआ.
10 साल की मुनिस्वारी के हाथ बिलकुल पीले पड़ गए हैं पर मेहंदी रचने की वजह से नहीं बल्कि गोंद में मिले सायनाइड के कारण.भूख से बिलबिलाते ये बच्चे गोंद खा लिया करते थे इसलिए क्रूर फैक्ट्री मालिकों ने गोंद में सायनाइड मिलाना शुरू कर दिया.चिपकाने का काम करनेवाले सारे बच्चों के हाथ पीले पड़ गए हैं.
10 साल की कविता से जब पूछा गया कि वह स्कूल जाना मिस नहीं करती?? तो उसका जबाब था,"स्कूल जाउंगी तो खाना कहाँ से मिलेगा.?'"..यह पूछने पर कि उसे कौन सा खेल आता है.उसने मासूमियत से कहा--"दौड़ना" उसने कभी कोई खेल खेला ही नही.
जितने बाल मजदूर काम करते हैं उसमे 80 % लड़कियां होती हैं.लड़कों को फिर भी कभी कभी पिता स्कूल भेजते हैं और पार्ट टाइम मजदूरी करवाते हैं.पर सारी लड़कियां फुलटाईम काम करती हैं.13 वर्षीया सुहासिनी सुबह 8 बजे से 5 बजे तक 4000 माचिस बनाती है और उसे रोज के 40 रुपये मिलते हैं (अगली बार एक माचिस सुलगाते समय एक बार सुहासिनी के चेहरे की कल्पना जरूर कर लें)
सिवकासी के लोग कहते हैं साल में 300 दिन काम करके जो पटाखे वे बनाते हैं वे सब दीवाली के दिन 3 घंटे में राख हो जाते हैं.दीवाली के दिन इन बाल मजदूरों की छुट्टी होती है. पर उन्हें एक पटाखा भी मयस्सर नहीं होता क्यूंकि बाकी लोगों की तरह उन्हें भी पटाखे खरीदने पड़ते हैं.और जो वे अफोर्ड नहीं कर पाते.
हम बड़े लोग ऐसी खबरे रोजाना पढ़ते हैं और नज़रंदाज़ कर देते हैं.पर बच्चों के मस्तिष्क पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है.यही सब देखा होगा,उस डॉक्युमेंटरी में, अंकुर और उसके दोस्तों ने और पटाखे न चलाने की कसम खाई जिसे अभी तक निभा रहें हैं.सिवकासी के फैक्ट्रीमालिकों ने सिर्फ उन बच्चों का बचपन ही नहीं छीना बल्कि अंकुर और उसके दोस्तों से बचपन की एक खूबसूरत याद भी छीन ली.देखनेवाले बहुत प्रभावित होते हैं और तारीफ़ करते हैं पर जब मैं दीवाली के दिन अपने बेटे को पटाखे चलाते सारे बच्चों से दूर एक तरफ पीछे हाथ बांधे खड़े देखती हूँ तो देश की एक जागरूक नागरिक की जगह सिर्फ एक माँ रह जाती हूँ.कभी कभी यह भी कह देती हूँ"तुम्हारे अकेले के करने से क्या बदलेगा' और वह बड़े बूढों की तरह कहता है "किसी को तो शुरू करना पड़ेगा,न"
(आप सब को दीपावली की ढेर सारी शुभकामनाएं. मुझे आपकी दीपावली का मजा किरिकिरा करने का कोई इरादा नहीं था....पर सच से आँखें कैसे और कब तक चुराएं?
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20 comments:
What to say?......You have left me speechless.Very sensitive writing.
aapne maza nahi kirkira kiya, ek sahi drishtikon de gayi hain.......nihshabd hun
महत्वपूर्ण मुद्दा सबके सामने रखा है आपने ..मुझे इस बारे में इतना ज्ञात नही था पर फिर भी बचपन में पढ़ा था की पटाखों से ध्वनि प्रदुषण होता है और बारूद के जलने से वायु प्रदूषित होती है तब से पटाखों को हाँथ नही लगाया है ..एक कटु सत्य सब के समक्ष रखा है आपने, बधाई.
Avoid crackers, spread love and cheer on Dewali.
मैं क्या कहूँ जी , पढ़कर रोंगटे खड़े हो गए है .. मुझे मालुम तो था की वहां बच्चो से काम करवाया जाता है पर इन स्थितियों में और इतनी ख़राब हालत में ... मेरा मन बैचेन हो गया है , अभी मानी मदुरै में अपने एक मित्र से इस बारे में बात की ,उसका कहना है ये सालो से चला आ रहा है , सरकार को मुनाफा होता है [ पहुँचाया जाता है ] शिवकाशी से सिर्फ फटाको के बल पर revenue ,generate होता है ..और वहां के गाँव और तालुका के पदाधिकारी सब इस दारुण कथा को जानते है ...गरीबी एक बहुत बड़ा अभिशाप है और वहां के मालिक इस बात को exploite करते है , जरुरत है CRY जैसे NGOs की जो की आगे आकर सरकार से इस बारे में बात करे ..
आपने इतनी बड़ी बात को इस पोस्ट के द्वारा बताया है , इसके लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूँ और ये भी कहूँगा की इस पोस्ट के material /link को आप अपने facebook और orkut प्रोफिलेस में डाले ,ताकि अधिक से अधिक लोगो को इसकी जानकारी मिले..
विजय जी,....अमूमन मैं ऐसा नहीं करती....आजतक कोई लिंक नहीं डाला था, फेसबुक या ऑरकुट पर....लेकिन इस लिंक को डाला है क्यूंकि यह विषय मेरे दिल के बहुत करीब है.
man ko dravit karne wala
aur bhi industries me ye ho raha hai
बहुत सी मार्मिक अनुभूतियाँ इस पोस्ट से अपने अन्दर भी उपजी हैं। इन लोगों की दीन हीन दशा के बारे मे जान कर भी बहुत दुख हुया। और अस्पताल की नौकरी मी ऐसे कितने हाद्से देखे जो आज भी मन के किसी कोने मे घर किये हुये हैण फिर भी पता नहीं लोग क्यों नहीं समझते आपके बेटे ने सही कहा है किसी न किसी को तो शुरूआत करनी ही है आप अकेली नहीं हैं बहुत से लोग ऐसा सोचने लगे हैं। परयावरण के लिये भी ये जरूरी हो गया है। सब को इस काम के लिये प्रेरित करने के लिये बधाई । दीपावली की भी बहुत बहुत शुभकामनायें
बहुत सही मुद्दा उठाया है आपने. सशक्त ढंग से भी. मेरे घर मे भी आतिशबाजी को कोई स्थान नही है. विद्यालय मे शिक्षक होने के कारण Say No To Crackers मुहिम का सक्रिय भागीदार रहा हूँ. सफलता भी अर्जित हुई है पर अभी भी मंजिल दूर है.
इस महत्वपूर्ण मुद्दे को सबके सामने रखने के लिए शुक्रिया.
थोडा बहुत पता तो था लेकिन इतनी बुरी स्थिति है इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता कोई.
एक जरुरी मुद्दा..विचारणीय.
शिवकाशी की इन हृदयविदारक घटनाओं के बारे में जानता तो था मैं, लेकिन इसका इतना विभत्स रूप होगा ये न समझता था। अच्छा लिखा है आपने और बेटे की इतनी छोटी उम्र में ऐसी परिपक्व सोच यकीनन प्रभावित करती है। नाम क्या रखा है आपने उसका?
फिर ये सब पढ़कर और उस लड़की की बात सुनकर कि स्कूल जाऊंगी तो खाना कहाँ से मिलेगा...एक आवारा-सी सोच का उन्वान बनता है, एक दूसरा पहलु ये भी उभर कर आता है कि "say no to crackers" कह लेने के बाद उन परिवारों का क्या जिनकी रोटी ही इन पटाखों की वजह से आती है?
किंतु आपका यूं पोस्ट-दर-पोस्ट इन अनछुये पहलुओं को लिखना प्रशंअसनीय है।
पढ़कर रोंगटे खड़े हो गए .. बहुत मार्मिक अनुभूति.
katu satya ...kaash ham sab is haqiiqat ko jaan payein...
रश्मि जी आंखे नम है , ह्रदय को झ्झकोर्ता हुआ एक शसक्त लेख .अब किसी कम्पनी को दोष दूँ या फिर उन निरीह बच्चो के भाग्य अथवा प्रशासन को ,,,मन दुखी है पटाखे न चलाने काप्रण लेते हुए दो शब्द कहूंगा
कर्तव्य की दुर्वलता हर तरफ झलक रही है ,
छाया हुआ है हर तरफ पैसा पैदा करने का उन्माद ,
आस्तित्व मिटा कर जो आत्मसंतुस्टी मिले ,,,
जो हो निशब्द रक्त से धुली ,,,
क्या वह स्वीकार्य है,,,
चंद से ठहाके गर चीत्कार से निकले ,,
क्या वो अपरिहार्य है ,,,,
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084
सुंदर व्यंजनाएं।
दीपपर्व की अशेष शुभकामनाएँ।
आप ब्लॉग जगत में महादेवी सा यश पाएं।
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आइए हम पर्यावरण और ब्लॉगिंग को भी सुरक्षित बनाएं।
This is not the first time when I am learning this....
..It's so ridicluios inspite of the fact that we are trying to be the 5th nation to land on moon yet we are unable to provide even the basic infrastructure.
Who should be blamed?
These Children?
Parentes of these children?
Government?
We the 'aam junta'?
Good Thoughtful Post !!
...leading to several 'Yet Unanswered' Question...
"Yahan har ek manzar ka virodhabaas hota hai,
Kahi kapde nahi milte, koi tan ko bhi rota hai."
good article, wish u to keep up ur prolific writings, happy deepawali..
बच्चों से दूर एक तरफ पीछे हाथ बांधे खड़े देखती हूँ तो देश की एक जागरूक नागरिक की जगह सिर्फ एक माँ रह जाती हूँ.कभी कभी यह भी कह देती हूँ"तुम्हारे अकेले के करने से क्या बदलेगा' और वह बड़े बूढों की तरह कहता है "किसी को तो शुरू करना पड़ेगा,न"
आपके लेख ने तो सब की आंखें खोल दीं। आपके प्रिय बेटे को उस की इतनी गहरी सोच के लिये बहुत बहुत आशीष एवं प्यार। कल के सुंदर संसार की नींव ऐसे बच्चे ही हैं।
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