Saturday, October 10, 2009

मानसिक विकलांगता से कहीं बेहतर है,शारीरिक विकलांगता

दो दिनों से ब्लोग्वानी पर 'साहित्य मंच'के 'विकलांग विशेषांक' में रचनाएं भेजने का आमंत्रण देख रही हूँ.मैंने अभी तक इस विषय पर कुछ लिखा नहीं और जबतक अन्दर से आवाज़ न आये,मैं कुछ लिख भी नहीं पाती. .लिहाजा सोचा मैं तो कुछ भेज भी नहीं सकती,कुछ लिखा ही नहीं है.

पर आज टी.वी.पर एक दृश्य देख मन परेशान हो गया.यूँ ही चैनल फ्लिक   कर रही थी तो देखा सोनी चैनल पर IPL के तर्ज़ पर DPL यानि 'डांस प्रीमियर लीग' का ऑडिशन चल रहा था.म्यूजिक और डांस प्रोग्राम मुझे हमेशा अच्छे लगते हैं.ऑडिशन भी अक्सर रियल प्रोग्राम से ज्यादा मजेदार होते हैं,इसलिए देखती रही.

भुवनेश्वर शहर से एक विकलांग युवक ऑडिशन के लिए आया था.दरअसल मैं यह सोच रही थी,इसे विकलांग क्यूँ कह रहें हैं या किसी को भी विकलांग कहते ही क्यूँ हैं? क्यूंकि अक्सर मैं देखती हूँ,वे लोग भी वे सारे काम कर सकते हैं,जो हमलोग करते हैं.और कई बार तो ज्यादा अच्छा करते हैं.और वो इसलिए क्यूंकि वे जो भी काम करते हैं पूरी द्रढ़ता औ दुगुनी लगन से करते हैं.साधारण भाषा में जिन्हें नॉर्मल या पूर्ण कहा जाता है,उनका ज़िन्दगी के प्रति एक लापरवाह रवैया रहता है.वे सोचते हैं,हम तो सक्षम हैं,हम सारे काम कर सकते हैं इसलिए ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं समझते जबकि जिन्हें हम विकलांग कहते हैं, वे अपनी कमी को पूरी करने के लिए पूरी जी जान लगाकर किसी काम को अंजाम देते हैं और हमलोगों से आगे निकल जाते हैं.

अभी हाल ही में ,अखबार में एक खबर पढ़ी कि एक मूक बधिर युवक ने
वह केस जीत लिया है,जो पिछले 8 साल से सुप्रीम कोर्ट में चल रहा था.उसने 8 साल पहले UPSC की परीक्षा पास की थी पर उसे नियुक्ति पत्र नहीं मिला था.अब उसे एक अच्छी पोस्ट पर नियुक्त कर दिया गया है.कितने ही हाथ,पैर,आँख,कान,से सलामत लोग आँखों में IAS का सपना लिए PRELIMS भी क्वालीफाई नहीं कर पाते.रोज सैकडों उदाहरण हम अपने आस पास देखते हैं या फिर अखबारों या टी.वी. में देखते हैं कि कैसे उनलोगों ने अपने में कोई कमी रहते हुए भी ज़िन्दगी कि लड़ाई पर विजय हासिल की.

पर उनलोगों के प्रति हमारा रवैया कैसा है?हमलोग हमेशा उन्हें हीन दृष्टि से देखते हैं और कभी यह ख्याल नहीं रखते कि हमारे व्यवहार या हमारी बातों से उन्हें कितनी चोट पहुँचती है.
आज ही टी.वी. पर देखा,उस लड़के के दोनों हाथ बहुत छोटे थे.पर वह पूरे लय और ताल में पूरे जोश के साथ नृत्य कर रहा था.नृत्य गुरु 'शाईमक डावर' भी जोश में उसके हर स्टेप पर सर हिलाकर दाद दे रहें थे.पर जब चुनाव करने का वक़्त आया तो दूसरे जज 'अरशद वारसी' ने जो कहा, उसे सुन शर्म से आँखें झुक गयीं.उनका कहना था ''अगर भगवान कहीं मिले तो मैं उस से पूछूँगा,उसने आपको ऐसा क्यूँ बनाया (अगर कहीं हमें भगवान मिले तो हम पूछना चाहेंगे ,उसने 'अरशद वारसी' को इतना कमअक्ल क्यूँ बनाया.??)तुम हमलोगों से अलग हो और यह हकीकत है,इसलिए तुम्हे दूसरे राउंड के लिए सेलेक्ट नहीं कर सकते." बाकी दोनों जजों की भी यही राय थी.शाईमक ने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की पर नाकामयाब रहें.

सबसे अच्छा लगा मुझे,अरशद से उसका सवाल करना.उसने मासूमियत से पूछा-- "मैं साईकल,स्कूटी,कार,चला लेता हूँ,पढ़ा लिखा हूँ,एक डांस स्कूल चलाता हूँ,लोगों को डांस सिखाता हूँ,फिर आपलोगों से अलग कैसे हूँ?"अरशद के पास कोई जबाब नहीं था. वे वही पुराना राग अलापते रहें--"तुम इस प्रतियोगिता में आगे नहीं बढ़ सकते,इसलिए तरस खाकर तुम्हे नहीं चुन सकता"...किस दिव्यदृष्टि से उन्होंने देख लिया की वह आगे नहीं बढ़ सकता,जबकि शाईमक को उसमे संभावनाएं दिख रही थीं.और उन्हें तरस खाने की जरूरत भी नहीं थी क्यूंकि वह जिस कला को पेश करने आया था,उसमे माहिर था,अरशद ने एक और लचर सी दलील दी कि 'मैं नाटे कद का हूँ तो मैं ६ फीट वाले लोगों की प्रतियोगिता में नहीं जाऊंगा.इसलिए तुम भी प्रतोयोगिता में भाग मत लो...डांस सिखाते हो वही जारी रखो"..तो क्या उसे आगे बढ़ने का कोई हक़ नहीं? उसकी दुनिया भुवनेश्वर तक ही सीमित रहनी चाहिए? अरशद वारसी ऐसी कोई हस्ती नहीं जिनका उल्लेख किया जाए.पर वह एक नेशनल चैनल के प्रोग्राम में जज की कुर्सी पर बैठे थे.इसकी मर्यादा का तो ख्याल रखना था. करोडों दर्शक उन्हें देख रहें थे.ज्यादातर ये प्रोग्राम बच्चे देखते हैं,उन पर क्या प्रभाव पड़ेगा?वो भी यहो सोचेंगे,ये लोग हमलोगों से हीन हैं,और ये हमारे समाज में शामिल नहीं हो सकते .पर क्या पता...अरशद ने जानबूझकर कंट्रोवर्सी के के लिए यह कहा हो ....'बदनाम हुआ तो क्या, नाम न हुआ'

मुझे तो लगता है किसी विकलांग और नॉर्मल व्यक्ति में वही अंतर होना चाहिए जो किसी गोरे-काले, मोटे-पतले, छोटे-लम्बे, में होता है.जिनके पैर में थोडी खराबी रहती है वह ठीक से चल नहीं पाते.कई,बहुत मोटे लोग भी ठीक से चल नहीं पाते तो हम उन्हें विकलांग तो नहीं कहते?अगर हम इनमे भेदभाव करते हैं और इन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं तो ये हमारी 'मानसिक विकलांगता' दर्शाती है

15 comments:

M VERMA said...

वाकई तय करना होगा कि विकलांग कौन है

हिन्दी साहित्य मंच said...

रश्मि जी , सबसे पहले तो मैं आपको बधाई देना चाहूँगा कि आपने ऐसे मुद्दे पर लिखा । आपकी बात पर गौर करें तो इसमें काफी सच्चाई नजर आती है । आज विकलंगता अभिशाय नहीं है .....................हम सभी को कई ऐसे दृश्य देखने के मिलते हैं जहां पर दुख होता है पीड़ा होती है । सभी को मिलकर काम करना चाहिए । आपसे यही उम्मीद आप " हिन्दी साहित्य मंच " पर ऐसे लेखों को प्रेषित कर अपनी भागीदारी अवश्य ही देगी ।

डिम्पल मल्होत्रा said...

bahut achhe vishey pe likha hai..unhe bhi aaage badne ka haq hai..mouka milna chihye.....

गौतम राजऋषि said...

आपकी टिप्पणियां, आपकी शुभकामनायें मेरी दवाओं संग मिलके अतिरिक्त टानिक का काम कर रही हैं...आज समय निकाल कर खिंचा चला आया आपके पन्ने पर। प्रोफाइल पढ़ कर मुस्कुराता रहा और आपकी लेखनी का अंदाज भा गया...
एक अछूते विषय को उठाने के लिये बधाई...

and please remove this word-verification thing from your comment-box setting.believe me, it doesn't help at all...rather discourages the readers.

रश्मि प्रभा... said...

bahut shandaar prastuti

Unknown said...

mausi seriousl its owsome baut achi hai

प्रवीण शुक्ल (प्रार्थी) said...

रश्मी जी सबसे पहले आप को बहुत बहुत आभार और धन्यवाद जो आप इंतनी संवेदन द्र्स्टी रखती है और आस पास की पीडा को समझने की और उसे आत्म सत करके देखने की क्षमता रखती है बहुत ही सार्थक विषय है ,,,, असली विकलांग कौन ये तो अरसद वारशी जी के कथन ने ही स्पस्ट कर दिया ,,,,संस्क्रत में एक श्लोक है ,, श्लोक तो याद नहीं मगर भावार्थ जरूर पता है (जो व्यक्ति शरीर के रूप सौन्दर्य से ज्ञान का आकलन करता है वो शीघ्र ही मूर्खो में सम्मिलित होने बाला है )

सादर
प्रवीण पथिक
९९७१९६९०८४

mamta said...

A sensitive and heart felt article.Though I'm not a big fan of these so called reality shows but while flicking channels whatever I've seen I feel that judges are there to humiliate the contenders only.The idea is never for the participants to realise their strenght but to be shown how lacking in all aspects they are.These are nothing but a platform for all the has-beens of show-world.Why do we even think that they can say anything sensible?

निर्मला कपिला said...

रश्मि जी बहुत सही कहा आपने । मैने भी ये प्रोग्राम देखा था दुख हुया था मगर इन बडे लोगों की आँखों पर पट्टी बंधी एाहती है बहुत सही विश्य पर कलम चलाई है वो भी सश्क्त तरीकी से बधाई और आशीर्वाद्

कुश said...

बिलकुल ठीक कहा आपने.. किसी भी रूप में वे कोई अलग नहीं.. मैं उन्हें अलग समझता भी नहीं..
पर इस तरह के आलेखों की ही जरुरत है.. एक व्यक्ति भी इसे पढ़कर यदि ऐसा सोचने लगे तो आपका लेखन सार्थक हो जायेगा.. बहुत बहुत आभार इस पोस्ट के लिए..

vijay kumar sappatti said...

आपने बहुत ही संवेदनशील और सही मुद्दा उठाया है रश्मि जी ..

मैं आपकी बात से सहमत हूँ की अरसद वारसी जज तो बन गए ,लेकिन उनमे जजों वाली गरिमा नहीं आ पायी .. जो कला को पारखियों की नज़र से देख नहीं पाता , वो जज कैसे बन सकता है ..आपकी इस पोस्ट के लिए मैं आपको बहुत धन्यवाद देता हूँ..

Unknown said...

बहुत ही घटिया काम किया अरशद वारसी ने, वैसे एक बात तो बताईये, अरशद वारसी का हिन्दी फ़िल्मो और भारतीय नृत्य कला में कोई विशिष्ट योगदान पता है आपको? पता चले तो मुझे अवश्य बताईयेगा… साथ ही "जज" की गरिमा क्या होती है, यह अरशद को, मराठी के सारेगामापा में जज बने सुरेश वाडकर और पं हृदयनाथ मंगेशकर से सीखना चाहिये…

अनिल कान्त said...

मैं आपसे बिलकुल सहमत हूँ
इस तरह के लेख लिखने कि बहुत आवश्यकता है

Ashish said...

Ek jaruri aur unchhuwe vishay par sarthak vichar. prasansa yogya kadam. Sadhuvad.

Manish Kumar said...

अगर किसी को छाँटना ही है तो उसके नृत्य से जुड़े गुण दोष की विवेचना कर उसे बताना चाहिए ताकि वो उसमें सुधार ला सके। जेसा सत्यमेव जयते में साफ दिखा विकलांग ना तो तरस की अपेक्षा रखते हैं ना उसे पसंद करते हैं।