Tuesday, October 13, 2009

बारूद की ढेर में खोया बचपन


दीवाली बस दस्तक देने ही वाली है.सबकी तरह हमारी भी शौपिंग लिस्ट तैयार है.पर एक चीज़ कुछ बरस पहले हमारी लिस्ट से गायब हो चुकी है और वह है--'पटाखे'. मेरे बेटे को भी हर बच्चे की तरह पटाखे का बहुत शौक था.दस दिन पहले से उसकी लिस्ट बननी शुरू हो जाती.पटाखे ख़रीदे जाते.दो दिन पहले से उन्हें धूप दिखाना,गिनती करना,सहेजना...जैसा सारे बच्चे करते हैं.दिवाली के दिन वह शाम से ही बैग में सारे पटाखे डाले,एक कमर पर हाथ रखे मुझे एकटक घूरता रहता क्यूंकि मैं लक्ष्मी पूजा हुए बिना, उसे नीचे जाकर पटाखे चलाने की इजाज़त नहीं देती थी.जैसे ही पूजा ख़त्म हुई,वह बैग संभाले नीचे भागता.मुझे जबरदस्ती उसे पकड़, प्रसाद का एक टुकडा मुहँ में डालना पड़ता.लेकिन जब वह ९-१० साल का था, उसके स्कूल में एक डॉक्युमेंटरी दिखाई गयी,जिसमे दिखाया गया कि 'सिवकासी' में किस अमानवीय स्थिति में रहते हुए छोटे छोटे बच्चे, पटाखे तैयार करते हैं.इसका उसके कोमल मन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उसने और उसके कुछ दोस्तों ने कभी भी पटाखे न चलाने का प्रण ले लिया.इनलोगों ने छोटे छोटे बैच भी बनाये SAY NO TO CRACKERS वह दिन है और आज का दिन है इन बच्चों ने पटाखों को हाथ नहीं लगाया.

'सिवकासी' चेन्नई से करीब 650 km दूर स्थित है.भारत में जितने पटाखों की खपत होती है,उसका 90 % सिवकासी में तैयार किया जाता है.और इसे तैयार करने में सहयोग देते हैं, 100000 बाल मजदूर.करीब 1000 करोड़ का बिजनेस होता है,यहाँ.
8 साल की उम्र से ये बच्चे फैक्ट्रियों में काम करना शुरू कर देते हैं.दीवाली के समय काम बढ़ जाने पर पास के गाँवों से बच्चों को लाया जाता है.फैक्ट्री के एजेंट सुबह सुबह ही हर घर के दरवाजे को लाठी से ठकठकाते हैं और करीब सुबह ३ बजे ही इन बच्चों को बस में बिठा देते हैं.करीब २,३, घंटे की रोज यात्रा कर ये बच्चे रात के १० बजे घर लौटते हैं.और बस भरी होने की वजह से अक्सर इन्हें खड़े खड़े ही यात्रा करनी पड़ती है.
रोज के इन्हें १५-१८ रुपये मिलते हैं.सिवकासी की गलियों में कई फैक्ट्रियां बिना लाइसेंस के चलती हैं और वे लोग सिर्फ ८-१५ रुपये ही मजदूरी में देते हैं.ये बच्चे पेपर डाई करना,छोटे पटाखे बनाना,पटाखों में गन पाउडर भरना, पटाखों पर कागज़ चिपकाना,पैक करना जैसे काम करते हैं.
जब भरपेट दो जून रोटी नहीं मिलती तो पीने का पानी,बाथरूम की व्यवस्था की तो कल्पना ही बेकार है.बच्चे हमेशा सर दर्द और पीठ दर्द की शिकायत करते हैं.उनमे कुपोषण की वजह से टी.बी.और खतरनाक केमिकल्स के संपर्क में आने की वजह से त्वचा के रोग होना आम बात है.
गंभीर दुर्घटनाएं तो घटती ही रहती हैं.अक्सर खतरनाक केमिकल्स आस पास बिखरे होते हैं और बच्चों को उनके बीच बैठकर काम करना पड़ता है.कई बार ज्वलनशील पदार्थ आस पास बिखरे होने की वजह से आग लग जाती है.कोई घायल हुआ तो उसे ७० कम दूर मदुरै के अस्पताल में ले जाना पड़ता है.बाकी बच्चे आग बुझाकर वापस वहीँ काम में लग जाते हैं.

कुछ समाजसेवी इन बच्चों के लिए काम कर रहें हैं और इनके शोषण की कहानी ये दुनिया के सामने लाना चाहते थे.पर कोई भारतीय NGO या भारतीय फिल्मनिर्माता इन बच्चों की दशा शूट करने को तैयर नहीं हुए.मजबूरन उन्हें एक कोरियाई फिल्मनिर्माता की सहायता लेनी पड़ी.25 मिनट की डॉक्युमेंटरी 'Tragedy Buried in Happiness कोरियन भाषा में है जिसे अंग्रेजी और तमिल में डब किया गया है.इसमें कुछ बच्चों की जीवन-कथा दिखाई गयी है जो हजारों बच्चों का प्रतिनिधित्व करती है.
12 साल की चित्रा का चेहरा और पूरा शरीर जल गया है.वह चार साल से घर की चारदीवारी में क़ैद है,किसी के सामने नहीं आती.पूरा शरीर चादर से ढँक कर रखती है,पर उसकी दो बोलती आँखे ही सारी व्यथा कह देती हैं.
14 वर्षीया करप्पुस्वामी के भी हाथ और शरीर जल गए हैं.फैक्ट्री मालिक ने क्षतिपूर्ति के तौर पर कुछ पैसे दिए पर बदले में उसके पिता को इस कथन पर हस्ताक्षर करने पड़े कि यह हादसा उनकी फैक्ट्री में नहीं हुआ.
10 साल की मुनिस्वारी के हाथ बिलकुल पीले पड़ गए हैं पर मेहंदी रचने की वजह से नहीं बल्कि गोंद में मिले सायनाइड के कारण.भूख से बिलबिलाते ये बच्चे गोंद खा लिया करते थे इसलिए क्रूर फैक्ट्री मालिकों ने गोंद में सायनाइड मिलाना शुरू कर दिया.चिपकाने का काम करनेवाले सारे बच्चों के हाथ पीले पड़ गए हैं.
10 साल की कविता से जब पूछा गया कि वह स्कूल जाना मिस नहीं करती?? तो उसका जबाब था,"स्कूल जाउंगी तो खाना कहाँ से मिलेगा.?'"..यह पूछने पर कि उसे कौन सा खेल आता है.उसने मासूमियत से कहा--"दौड़ना" उसने कभी कोई खेल खेला ही नही.
जितने बाल मजदूर काम करते हैं उसमे 80 % लड़कियां होती हैं.लड़कों को फिर भी कभी कभी पिता स्कूल भेजते हैं और पार्ट टाइम मजदूरी करवाते हैं.पर सारी लड़कियां फुलटाईम काम करती हैं.13 वर्षीया सुहासिनी सुबह 8 बजे से 5 बजे तक 4000 माचिस बनाती है और उसे रोज के 40 रुपये मिलते हैं (अगली बार एक माचिस सुलगाते समय एक बार सुहासिनी के चेहरे की कल्पना जरूर कर लें)

सिवकासी के लोग कहते हैं साल में 300 दिन काम करके जो पटाखे वे बनाते हैं वे सब दीवाली के दिन 3 घंटे में राख हो जाते हैं.दीवाली के दिन इन बाल मजदूरों की छुट्टी होती है. पर उन्हें एक पटाखा भी मयस्सर नहीं होता क्यूंकि बाकी लोगों की तरह उन्हें भी पटाखे खरीदने पड़ते हैं.और जो वे अफोर्ड नहीं कर पाते.

हम बड़े लोग ऐसी खबरे रोजाना पढ़ते हैं और नज़रंदाज़ कर देते हैं.पर बच्चों के मस्तिष्क पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है.यही सब देखा होगा,उस डॉक्युमेंटरी में, अंकुर और उसके दोस्तों ने और पटाखे न चलाने की कसम खाई जिसे अभी तक निभा रहें हैं.सिवकासी के फैक्ट्रीमालिकों ने सिर्फ उन बच्चों का बचपन ही नहीं छीना बल्कि अंकुर और उसके दोस्तों से बचपन की एक खूबसूरत याद भी छीन ली.देखनेवाले बहुत प्रभावित होते हैं और तारीफ़ करते हैं पर जब मैं दीवाली के दिन अपने बेटे को पटाखे चलाते सारे बच्चों से दूर एक तरफ पीछे हाथ बांधे खड़े देखती हूँ तो देश की एक जागरूक नागरिक की जगह सिर्फ एक माँ रह जाती हूँ.कभी कभी यह भी कह देती हूँ"तुम्हारे अकेले के करने से क्या बदलेगा' और वह बड़े बूढों की तरह कहता है "किसी को तो शुरू करना पड़ेगा,न"

(आप सब को दीपावली की ढेर सारी शुभकामनाएं. मुझे आपकी दीपावली का मजा किरिकिरा करने का कोई इरादा नहीं था....पर सच से आँखें कैसे और कब तक चुराएं?

Saturday, October 10, 2009

मानसिक विकलांगता से कहीं बेहतर है,शारीरिक विकलांगता

दो दिनों से ब्लोग्वानी पर 'साहित्य मंच'के 'विकलांग विशेषांक' में रचनाएं भेजने का आमंत्रण देख रही हूँ.मैंने अभी तक इस विषय पर कुछ लिखा नहीं और जबतक अन्दर से आवाज़ न आये,मैं कुछ लिख भी नहीं पाती. .लिहाजा सोचा मैं तो कुछ भेज भी नहीं सकती,कुछ लिखा ही नहीं है.

पर आज टी.वी.पर एक दृश्य देख मन परेशान हो गया.यूँ ही चैनल फ्लिक   कर रही थी तो देखा सोनी चैनल पर IPL के तर्ज़ पर DPL यानि 'डांस प्रीमियर लीग' का ऑडिशन चल रहा था.म्यूजिक और डांस प्रोग्राम मुझे हमेशा अच्छे लगते हैं.ऑडिशन भी अक्सर रियल प्रोग्राम से ज्यादा मजेदार होते हैं,इसलिए देखती रही.

भुवनेश्वर शहर से एक विकलांग युवक ऑडिशन के लिए आया था.दरअसल मैं यह सोच रही थी,इसे विकलांग क्यूँ कह रहें हैं या किसी को भी विकलांग कहते ही क्यूँ हैं? क्यूंकि अक्सर मैं देखती हूँ,वे लोग भी वे सारे काम कर सकते हैं,जो हमलोग करते हैं.और कई बार तो ज्यादा अच्छा करते हैं.और वो इसलिए क्यूंकि वे जो भी काम करते हैं पूरी द्रढ़ता औ दुगुनी लगन से करते हैं.साधारण भाषा में जिन्हें नॉर्मल या पूर्ण कहा जाता है,उनका ज़िन्दगी के प्रति एक लापरवाह रवैया रहता है.वे सोचते हैं,हम तो सक्षम हैं,हम सारे काम कर सकते हैं इसलिए ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं समझते जबकि जिन्हें हम विकलांग कहते हैं, वे अपनी कमी को पूरी करने के लिए पूरी जी जान लगाकर किसी काम को अंजाम देते हैं और हमलोगों से आगे निकल जाते हैं.

अभी हाल ही में ,अखबार में एक खबर पढ़ी कि एक मूक बधिर युवक ने
वह केस जीत लिया है,जो पिछले 8 साल से सुप्रीम कोर्ट में चल रहा था.उसने 8 साल पहले UPSC की परीक्षा पास की थी पर उसे नियुक्ति पत्र नहीं मिला था.अब उसे एक अच्छी पोस्ट पर नियुक्त कर दिया गया है.कितने ही हाथ,पैर,आँख,कान,से सलामत लोग आँखों में IAS का सपना लिए PRELIMS भी क्वालीफाई नहीं कर पाते.रोज सैकडों उदाहरण हम अपने आस पास देखते हैं या फिर अखबारों या टी.वी. में देखते हैं कि कैसे उनलोगों ने अपने में कोई कमी रहते हुए भी ज़िन्दगी कि लड़ाई पर विजय हासिल की.

पर उनलोगों के प्रति हमारा रवैया कैसा है?हमलोग हमेशा उन्हें हीन दृष्टि से देखते हैं और कभी यह ख्याल नहीं रखते कि हमारे व्यवहार या हमारी बातों से उन्हें कितनी चोट पहुँचती है.
आज ही टी.वी. पर देखा,उस लड़के के दोनों हाथ बहुत छोटे थे.पर वह पूरे लय और ताल में पूरे जोश के साथ नृत्य कर रहा था.नृत्य गुरु 'शाईमक डावर' भी जोश में उसके हर स्टेप पर सर हिलाकर दाद दे रहें थे.पर जब चुनाव करने का वक़्त आया तो दूसरे जज 'अरशद वारसी' ने जो कहा, उसे सुन शर्म से आँखें झुक गयीं.उनका कहना था ''अगर भगवान कहीं मिले तो मैं उस से पूछूँगा,उसने आपको ऐसा क्यूँ बनाया (अगर कहीं हमें भगवान मिले तो हम पूछना चाहेंगे ,उसने 'अरशद वारसी' को इतना कमअक्ल क्यूँ बनाया.??)तुम हमलोगों से अलग हो और यह हकीकत है,इसलिए तुम्हे दूसरे राउंड के लिए सेलेक्ट नहीं कर सकते." बाकी दोनों जजों की भी यही राय थी.शाईमक ने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की पर नाकामयाब रहें.

सबसे अच्छा लगा मुझे,अरशद से उसका सवाल करना.उसने मासूमियत से पूछा-- "मैं साईकल,स्कूटी,कार,चला लेता हूँ,पढ़ा लिखा हूँ,एक डांस स्कूल चलाता हूँ,लोगों को डांस सिखाता हूँ,फिर आपलोगों से अलग कैसे हूँ?"अरशद के पास कोई जबाब नहीं था. वे वही पुराना राग अलापते रहें--"तुम इस प्रतियोगिता में आगे नहीं बढ़ सकते,इसलिए तरस खाकर तुम्हे नहीं चुन सकता"...किस दिव्यदृष्टि से उन्होंने देख लिया की वह आगे नहीं बढ़ सकता,जबकि शाईमक को उसमे संभावनाएं दिख रही थीं.और उन्हें तरस खाने की जरूरत भी नहीं थी क्यूंकि वह जिस कला को पेश करने आया था,उसमे माहिर था,अरशद ने एक और लचर सी दलील दी कि 'मैं नाटे कद का हूँ तो मैं ६ फीट वाले लोगों की प्रतियोगिता में नहीं जाऊंगा.इसलिए तुम भी प्रतोयोगिता में भाग मत लो...डांस सिखाते हो वही जारी रखो"..तो क्या उसे आगे बढ़ने का कोई हक़ नहीं? उसकी दुनिया भुवनेश्वर तक ही सीमित रहनी चाहिए? अरशद वारसी ऐसी कोई हस्ती नहीं जिनका उल्लेख किया जाए.पर वह एक नेशनल चैनल के प्रोग्राम में जज की कुर्सी पर बैठे थे.इसकी मर्यादा का तो ख्याल रखना था. करोडों दर्शक उन्हें देख रहें थे.ज्यादातर ये प्रोग्राम बच्चे देखते हैं,उन पर क्या प्रभाव पड़ेगा?वो भी यहो सोचेंगे,ये लोग हमलोगों से हीन हैं,और ये हमारे समाज में शामिल नहीं हो सकते .पर क्या पता...अरशद ने जानबूझकर कंट्रोवर्सी के के लिए यह कहा हो ....'बदनाम हुआ तो क्या, नाम न हुआ'

मुझे तो लगता है किसी विकलांग और नॉर्मल व्यक्ति में वही अंतर होना चाहिए जो किसी गोरे-काले, मोटे-पतले, छोटे-लम्बे, में होता है.जिनके पैर में थोडी खराबी रहती है वह ठीक से चल नहीं पाते.कई,बहुत मोटे लोग भी ठीक से चल नहीं पाते तो हम उन्हें विकलांग तो नहीं कहते?अगर हम इनमे भेदभाव करते हैं और इन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं तो ये हमारी 'मानसिक विकलांगता' दर्शाती है

Friday, October 9, 2009

दरीचे से झांकती....कुछ मीठी ,कुछ कसैली, यादें

आजकल मुंबई में चुनाव की गहमागहमी है. नेतागण अपनी आरामगाह छोड़कर धूप में सड़कें नाप रहें हैं. जब भी चुनाव का जिक्र आता है, एक पुरानी घटना, स्मृति के सात परदों को चीरती हुई बरबस ही आँखों के सामने आ जाती है.

मेरे पिताजी एक सरकारी पद पर कार्यरत थे. वे एक ईमानदार अफसर थे लिहाज़ा उनका ट्रांसफ़र कभी भी और कहीं भी हो जाता था. कभी कभी तो चार्ज संभाले ६ महीने भी नहीं होते और कोई न कोई शख्स अपना काम रुकता देख, उनका ट्रांसफ़र कहीं और करवा देता और पापा चल पड़ते अपने गंतव्य की ओर. ज़ाहिर है, मुझे और मेरे छोटे भाइयों को अपनी पढाई पूरी करने के लिए हॉस्टल की शरण में जाना पड़ा.

पापा की पोस्टिंग एक छोटी सी जगह पर हुई थी और मैं हॉस्टल से छुट्टियों में घर आई हुई थी. ७,८ कमरों का बड़ा सा घर,आँगन इतना बड़ा कि आराम से क्रिकेट खेली जा सके.सामने फूलों की क्यारी ,मकान के अगल बगल हरी सब्जियां लगी थी...पीछे कुछ पेड़ और उसके बाद मीलों फैले धान के खेत. एक कमरे को मैंने अपनी पेंटिंग के लिए चुन लिया, कितना सुकून मिलता था उन दिनों.जब जी चाहे , ब्रश उठाओ,थोडा पेंट करो... और जब मन करे ,ब्रश, पेंट,तेल सब यूँ ही छोड़ चल दो ..फिर चाहे एक घंटे में वापस आओ या चार घंटे में चीज़ें उसी अवस्था में पड़ी मिलतीं. .आज मेरे दोस्त,रिश्तेदार यहाँ तक कि बच्चे भी शिकायत करते हैं--'पेंटिंग क्यूँ नहीं करती??'अपने 2BHK फ्लैट में पहले तो थोडी, खाली जगह बनाओ फिर सारी ताम झाम जुटाओ.और जैसे ही ब्रश हाथ में लिया कि दरवाजे या फ़ोन की घंटी बज उठेगी.वहां से निजात पायी तो घर का कोई काम राह तक रहा होगा...फिर सारी चीज़ें समेटो. उसपर से घर के लोग हवा में बसी केरोसिन की गंध की शिकायत करेंगे.,सो अलग.(केरोसिन तेल,ब्रश से पेंट साफ़ करने के लिए उपयोग में लाया जाता है) लिहाजा अब साल में एक पेंटिंग का रिकॉर्ड भी नहीं रहा.ऐसे में बड़ी शिद्दत से याद आता है,बिना ए.सी.,बिना पंखे(क्यूंकि बिजली हमेशा गुल रहती थी) वाला वो बेतरतीब कमरा.

घर से पापा का ऑफिस दस कदम की दूरी पर था लेकिन दोपहर का खाना खाने वे ४ बजे से पहले, घर नहीं आया करते.और जब आते तो साथ में आता लोगों का हुजूम. उनलोगों को 'लिविंग रूम' में चाय पेश की जाती और अन्दर की तरफ बरामदे में लगे टेबल पर पापा जल्दी जल्दी खाना ख़त्म कर रहें होते. बरामदा,आँगन जैसे शब्द तो लगता है, अब किस्से,कहानियों में ही रह जायेंगे. और शहरों ,महानगरों में पनपने वाली पौध के लिए तो ये शब्द हमेशा के लिए अजनबी बन जायेंगे क्यूंकि 'हैरी पॉटर' और 'फेमस फाईव' में उलझे बच्चों का हिंदी पठन पाठन बस पाठ्य पुस्तकों तक ही सीमित है.उसकी सुध भी उन्हें बस परीक्षा के दिनों में ही आती है.

उन दिनों चुनाव की सरगर्मी चल रही थी और चुनाव का दिन भी आ ही गया. हमलोग पापा का खाने पर इंतज़ार कर रहें थे.पता था, आज तो कुछ और देर होनी है. ५ बजे के करीब पापा खाना खाने आये.और जाते वक़्त बस इतना ही कहा--"तुमलोग बाहर कहीं मत जाना ,मैंने आज एक क्रिमिनल को अर्रेस्ट किया है" पापा पुलिस में नहीं थे पर चुनाव के दिनों में कई सारे अधिकार गैर पुलिस अधिकारीयों को भी प्रदान किये जाते हैं.हमलोग
सोचते ही रह गए,ऐसा क्यूँ कहा? हमलोग तो कहीं जाते ही नहीं थे.वहां तो हमारी दुनिया बस कैम्पस तक ही सीमित थी.कभी बाज़ार का भी मुहँ नहीं देखा.शौपिंग करने जाना हो तो जीप पर सवार हो, पास के शहर जाया करते थे. हमें लगा,शायद अतिरिक्त सावधानी के इरादे से कहा हो.

रात में भी पापा काफी देर से आये और आते ही सुबह ही पास के शहर जाने की तैयारी करने लगे क्यूंकि मतगणना होने वाली थी. उन दिनों 'इलेक्ट्रानिक मशीनों' के द्वारा नहीं बल्कि मतगणना 'मैनुअल' हुआ करती थी.एक एक मत हाथों से गिना जाता था.जबतक मतगणना पूरी न हो जाए कोई भी बाहर नहीं जा सकता था.करीब २४ घंटों तक मतगणना जारी रहती थी और अधिकारियों को अन्दर ही रहना पड़ता था.

हमें पता था ,पापा रात में,घर वापस नहीं आने वाले हैं.हमेशा की तरह बिजली भी गुल थी. मैं करीब १० बजे अपने कमरे में सोने चली गयी. अभी बिस्तर तक पहुंची भी नहीं थी कि घर के बाहर कुछ लोगों की "हो..हो" करके जोर से चिल्लाने की आवाज आई.मैं मम्मी के कमरे की तरफ दौडी. मम्मी पत्ते की तरह काँप रही थीं.उनको कंधे से थामा पर हम बिना आपस में एक शब्द बोले ही समझ गए, ये जरूर उसी बदमाश के आदमी हैं और अब बदला लेने आये हैं.दिमाग तेजी से दौड़ने लगा,बचने के क्या रास्ते हैं?पर तुंरत ही हताश हो गया. कोई भी रास्ता नहीं.सरकारी आवासों के दरवाजे तो ऐसे होते हैं कि एक बच्चा भी जोर से धक्का दे तो खुल जाए.और मजबूत कद काठी वाले ने अगर धक्का दिया तो किवाड़ ही खुलकर अलग गिर पड़ेंगे.पीछे की तरफ एक दरवाजा था तो,पर भागा कहाँ जा सकता था.चारों तरफ खुले खेत.पीछे की तरफ प्यून और सर्वेंट क्वाटर्स थे...पर कुछ दूरी पर थे.सामने वाला आवास एक डाक्टर अंकल का था,पर वे लोग किसी शादी में गए हुए थे.और अगर होते भी तो क्या मदद कर पाते?कहीं कोई उपाए नज़र नहीं आ रहा था.घर में कोई हथियार तो होते नहीं.और एक सब्जी काटने वाले चाकू से ४,५, लोगों का मुकाबला करना ,नामुमकिन था.तभी मुझे पापा की शेविंग किट याद आई और किशोर मन ने आखिरी राह सोच ली.मैंने सोच लिया,अगर उनलोगों ने दरवाजे पर हाथ भी रखा तो बस मैं शेविंग किट से 'इरैस्मिक ब्लेड' निकाल अपनी कलाई की नसें काट लूंगी. किशोर मन पर,देखे गए फ़िल्मी दृश्यों का प्रभाव था या इसे छोड़ सचमुच कोई राह नहीं थी,आज भी नहीं सोच पाती. मम्मी शायद देवी,देवताओं की मनौतियाँ मनाने में लगीं थीं.

हमने खिड़की से देखा कुछ देर की खुसफुसाहट के बाद, वे लोग बगल की तरफ एक दूसरे अफसर के घर की तरफ बढे.वे अंकल, अकेले रहते थे और पापा के साथ ही मतगणना के लिए गए हुए थे.बस घर में उनके प्यून 'राय जी' थे. इलोगों ने उन्हें जगाया और थोडी देर बाद, राय जी हाथों में लालटेन लिए हमारे घर की तरफ आते दिखे.उन्होंने दरवाजा खटखटाया.मम्मी ने किसी तरह हिम्मत जुटा,कड़क आवाज़ में पूछा--"कौन है?...क्या काम है?"तब राय जी ने बताया ये लोग सादे लिबास में पुलिस वाले हैं और इनलोगों को हमारी हिफाज़त के लिए पुलिस अधिकारी ने भेजा है.और ये लोग जोर से चिल्लाकर अपनी उपस्थिति जता रहें थे ताकि लोग समझ जाएँ कि हमलोग अकेले नहीं हैं.

यह जान, हलक में अटकी हमारी साँसे वापस लौटीं. रायजी ने कुछ दरी निकाल देने और एक लालटेन देने को कहा और वे लोग बाहर के बरामदे में सो गए.मैं तो यह सब सुन आराम से सो गयी लेकिन मेरी मम्मी की रात आँखों में कटी. उन्हें डर लग रहा था, क्या पता ये लोग झूठ बोल रहें हों और उसी बदमाश के आदमी हों. पर मम्मी की शंका निर्मूल निकली.

Monday, October 5, 2009

गीले कागज़ से रिश्ते....लिखना भी मुश्किल,जलाना भी मुश्किल


पिछले दिनों मुंबई और पुणे पर 'स्वाईन फ्लू' का कहर था. मेरे परिचितों में कोई 'स्वाईन फ्लू' से पीड़ित तो नहीं था पर काफी लोग बीमार चल रहें थे. पता नहीं कौन से कुग्रह चल रहें थे कि एक समय तो मेरे जाननेवालों में से छह लोग हॉस्पिटल में थे. किसी की माँ, किसी के पिता,किसी की पत्नी तो किसी के पति...बाकी सारे लोग तो स्वस्थ हो कर हॉस्पिटल से घर आ गए. पर मेरे सामने वाली फ्लैट में रहने वाली आंटी इतनी खुशकिस्मत नहीं रहीं. पास के नर्सिंग होम वाले,'वायरल' और फिर 'मलेरिया' समझ कर इलाज करते रहें और जब नानावटी में भर्ती किया गया तो पता चला 'डेंगू' है और १७ दिन आई.सी.यू में रहने के बाद वो साँसों की लडाई हार गयीं. ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे.


ये बुजुर्ग तमिल दंपत्ति अकेले ही रहते थे. एक ही बेटा है जो मर्चेंट नेवी में है. बहुत ही धार्मिक महिला थीं वो. कामवाली के सफाई करके जाने के बाद भी घर के बाहर,सीढियों पर और कभी कभी तो लिफ्ट में भी पोछा लगातीं. दरवाजे के बाहर रोज रंगोली बनातीं.जब सुबह मैं छः बजे 'मॉर्निंग वाक्' के लिए निकलती तो देखती वो लम्बे से स्टूल पर चढ़ कर दरवाजे के ऊपर लगे 'लक्ष्मी गणेश' की तस्वीर पर फूल चढा कर दीपक दिखाती होतीं. मैं अपने दरवाजे के ऊपर लगी 'लक्ष्मी गणेश' जी की तस्वीर से रोज मन ही मन माफ़ी मांग लेती.

आंटी को हिंदी,अंग्रेजी बिलकुल नहीं आती थी और तमिल भाषा मेरे लिए अजनबी थी. पाषाणयुग की तरह हम कभी कभी इशारों में ही बाते कर लिया करते. पर ज्यादातर अकेलापन ही उनका साथी था..कभी कभी उन्हें पास की बिल्डिंग की तमिल औरतों से बतियाते देखती पर ज्यादातर वो कभी गार्डन में तो कभी सीढियों पे अकेली बैठी ही दिखतीं.

आठ नौ साल पहले उन्होंने अपने बेटे की शादी की थी. पुत्रवधू,मुंबई की ही थी.हंसमुख चेहरा था. जब भी मिलती दो बातें कर लेती और मैं भी उसे झट चाय की दावत दे डालती. एक दिन मेरे बहुत जोर देने पर वो आई तो, पर ५ मिनट बाद ही चली गयी. पर एक दिन उसके सास ससुर बाहर गए तो वह मेरे घर आई और जो कुछ भी कहा,सुन कर विश्वास नहीं हुआ. पता चला.उससे कोई बात नहीं करता,उसे घर का काम भी नहीं करने देते,किचेन में नहीं जाने देते. फ़ोन छूने की भी इजाज़त नहीं. .अपनी माँ,बहनों को फ़ोन करना हो तो उसे पी.सी.ओ.जाना पड़ता है. मुझे दूसरे पक्ष की बात तो नहीं मालूम थी फिर भी उसकी बाते सच लगीं क्यूंकि एक बार मेरा मोबाइल और चाभी घर के अन्दर ही रह गए थे और गलती से दरवाजा बंद हो गया तो मैंने आंटी से एक फ़ोन करने की इजाज़त मांगी. फ़ोन उनके बेडरूम के कोने में रखी एक आलमारी के ऊपर रखा था.मुझे कुछ अजीब लगा,पर मैंने ध्यान नहीं दिया अब पता चला,बहू से फ़ोन दूर रखने के लिए यह व्यवस्था थी. मैं उसे दिलासा देती रही. उसने यह भी बताया, जब मेरे यहाँ वह ५ मिनट के लिए आई थी तो जाने के बाद दोनों जन पूछते रहें...क्या क्या बात हुई? लिहाज़ा मैंने भी उसे टोकना छोड़ दिया,कि मेरी वजह से वह कोई परेशानी में न पड़ जाए.

करीब छह महीने बाद उनका बेटा शिप पर से आया तो मुझे लगा,चलो अब उसके दिन बदले. पर एक घटना देख मुझे हंसी भी आई और उनके बेटे पर तरस भी आया. मैं बाहर से आ रही थी ,देखा उनके बेटे ने वाचमैंन को कुछ नए पेकेट्स थमाए.और मुझे देख जल्दी से चला गया. वाचमैंन इतने 'ज्यूसी गॉसिप' का मौका कैसे जाने देता. बिना पूछे ही बोल पड़ा--"लगता है अपनी वाईफ के लिए कुछ लाये हैं .बोले हैं रात में ११-१२ बजे लेकर जायेंगे,हमेशा ऐसे ही करते हैं." मैं 'हम्म ' कहती हुई जल्दी से आगे बढ़ गयी,अगर जरा भी इंटेरेस्ट दिखाया तो रोज ही मुझे रोक कर पता नहीं किसके किसके किस्से सुनाया करेगा.

काफी दिनों तक वह नहीं दिखी फिर एक बार उसका फ़ोन आया कि वे लोग उसे उसकी बहन के पास छोड़ गए हैं. उसके पिता नहीं हैं,माँ भी बहन के पास ही रहती थी,.उसे बहन पर बोझ बनना अच्छा नहीं लगता....इत्यादि ,वह माँ भी बनने वाली थी. मैं बधाई और दिलासा देने के सिवा और क्या कर सकती थी सो वही किया. कुछ दिनों बाद वह यहाँ आई तो एक नन्ही परी गोद में थी. आंटी की तो सारी दुनिया ही बदल गयी लगती थी. फ्लैट का दरवाजा हमेशा खुला रहता. कभी वे बच्ची की मालिश करती दिखतीं . कभी खाना खिलाते दिखतीं तो कभी लोरी गातीं मिलती. मुझे भी यह देख,बड़ा अच्छा लगा चलो अब सब ठीक हो गया है.

पर एक दिन जब वह नीचे अकेले में मिली तो फिर से रोने लगी कि बच्ची को तो बहुत प्यार करती हैं पर उसके साथ वैसा ही पहलेवाला व्यवहार है. इस बार जब बेटा घर आया तो उसे कुछ फैसले लेने पड़े और शिप पर जाने से पहले वो दुसरे टाउनशिप में एक फ्लैट ले पत्नी और बच्ची को वहां छोड़ आया. पिछले सात सालों में छः महीने में बेटा जब भी शिप पर से आता. माँ बाप से अक्सर मिलने तो जरूर आता,घर के बहुत सारे काम भी निपटाता पर रुकता वहीँ था जो स्वाभाविक भी था. इस दौरान एक और नन्ही परी उनके बेटे के घर तो आई पर इनलोगों का घर सूना ही रहा.

जब भी आंटी को अकेले देखती, मन में यही आता अगर दोनों पोतियाँ उनके साथ होतीं तो उनका जीवन कितना अलग और खुशमय होता. और आज जब आंटी इस दुनिया से विदा ले चुकी हैं तो अंकल की देखरेख के लिए बहू को दोनों बेटियों के साथ यहीं शिफ्ट होना पड़ा. दिन भर दोनों बच्चियों की शरारतों,खिलखिलाहटों, धमाचौकडी की आवाजें आती रहती हैं. अंकल के चेहरे पर भी हमेशा एक खिली मुस्कान होती और कभी वे बड़ी तो कभी छोटी का हाथ पकडे उनकी किसी न किसी शरारत का जिक्र करते रहते हैं. मुझे भी अपने सामने का फ्लैट यूँ गुलज़ार देख बहुत अच्छा लगता है पर फिर एक टीस सी उठती है 'काश आंटी भी ये सब देख पातीं' यह लिखते हुए ग्लानि सी हो रही है पर विधि की ये कैसी विडम्बना है कि किसी के जाने के बाद तो घर सूना हो जाता है और यहाँ.....

अभी दो दिन पहले देखा, कबाडी वाला आया हुआ है और बोरे में सामान भर भर कर ले जा रहा है. मुझे देखते ही अंकल ने कहा--'इतने बरसों से वाईफ ने संभाल कर रखा था पर इनका इस्तेमाल भी नहीं होता और अब घर में जगह भी नहीं है.बेटे के फ्लैट का भी सारा सामान एडजस्ट करना है.अब घर में ३ टी.वी.है ,दो फ्रीज है, इतनी सारी आलमारी है ,कहाँ रखूं?..इसीलिए निकाल रहा हूँ".....
मन सोचने लगा, पुरानी बेजान चीज़ों को तो हम इतनी जतन से संभाल कर रखते हैं अगर इस से आधी मेहनत भी रिश्ते सहेजने में लगाएं तो ज़िन्दगी का सफ़र कितना आसन और ख़ूबसूरत हो जाए"

Wednesday, September 30, 2009

कुछ खुशनुमा यादें !!

पिछले पोस्ट की चर्चाएं कुछ संजीदा और बोझिल सी हो चली थी.और हवा में से नवरात्र की खुशबू भी अभी पूरी तरह नहीं धुली है.लिहाज़ा सोचा नवरात्र की कुछ रोचक यादों का जिक्र बेहतर रहेगा.

वह मुंबई में मेरा पहला नवरात्र था. चारों तरफ गरबा और डांडिया की धूम थी.मैंने भी इसका जायका लेने की सोची और 'खार जिमखाना' द्वारा आयोजित समारोह में पति और बच्चों के साथ पहुँच गयी.चारो तरफ चटख रंगों की बहार थी.शोख रंगों वाले पारंपरिक परिधानों में सजे लोग बहुत ही ख़ूबसूरत दिख रहें थे.दिन में जो लडकियां जींस में घूमती थीं,यहाँ घेरदार लहंगे में ,दोनों हाथों में ऊपर तक मोटे मोटे कड़े पहने और सर से पाँव तक चांदी के जेवरों से लदी, गुजरात की किसी गाँव की गोरीयाँ लग रही थीं. चमकदार पोशाक और सितारों जड़ा साफा लगाए लड़के भी गुजरात के गबरू जवान लग रहें थे..स्टेज के पास कुछ जगह घेरकर प्रतियोगिता में भाग लेने वालों के लिए जगह सुरक्षित कर दी गयी थी.इसमें अलग अलग गोल घेरा बनाकर लड़के लड़कियां बिजली की सी तेजी से गरबा करने में मशगूल थे.इतनी तेजी से नृत्य करते हुए भी उनके लय और ताल में गज़ब का सामंजस्य था. पता चला ये लोग नवरात्रि के ३ महीने पहले से ही ३-४ घंटे तक रोज अभ्यास करते हैं. और क्यूँ न करें,ईनाम भी तो इतने आकर्षक होते हैं.प्रथम पुरस्कार यू.के.की १० दिनों की ट्रिप. द्वीतीय पुरस्कार सिंगापूर के १० दिनों की ट्रिप,बाकी पुरस्कारों में टी.वी.,वाशिंग मशीन, मोबाइल फोन्स की भरमार रहती है.

मेरा कोई ग्रुप तो था नहीं और बच्चे भी छोटे थे लिहाज़ा मैं घूम घूम कर बस जायजा ले रही थी.सुरक्षित घेरे के बाहर अपने छोटे छोटे गोल बनाकर लोग परिवार के साथ, दोस्तों के साथ कभी गरबा तो कभी डांडिया में मशगूल थे.यहीं पर मुझे डांडिया और गरबा में अंतर पता चला. गरबा सिर्फ हाथ और पैर की लय और ताल पर करते हैं और डांडिया छोटे छोटे डांडिया स्टिक को आपस में टकराते हुए की जाती है.स्टेज पर से मधुर स्वर में गायक,गायीकाएं एक के बाद एक मधुर गीतों की झडी लगा देते हैं.यह भी उनकी एक परीक्षा ही होती है.जैसे ही उन्हें लगता है लोग थकने लगे हैं,वे कोई धीमा गीत शुरू कर देते हैं.सैकडों लोगों का एक साथ धीमे धीमे इन गीतों पर लहराना बताने वाली नहीं बस देखने वाली बात है.

एक जगह मैंने देखा,एक अधेड़ पुरुष अपनी दो किशोर बेटियों और पत्नी के साथ एक छोटा सा अपना घेरा बना डांडिया खेल रहें थे.बहुत ही अच्छा लगा ये देखकर .हम उत्तरभारतीय तो अदब और लिहाज़ का लबादा ओढे ज़िन्दगी के कई ख़ूबसूरत क्षण यूँ ही गँवा देते हैं..हम इसी में बड़प्पन महसूस करते हैं कि हम तो पिताजी के सामने बैठते तक नहीं,उनसे आँख मिलाकर बात तक नहीं करते.सम्मान जरूरी है पर कभी कभी साथ मिलकर खुशियों को एन्जॉय भी करना चाहिए.खैर अगली पीढी से ये तस्वीर कुछ बदलती हुई नज़र आ रही है.

मैं सबका नृत्य देखने में खो सी गयी थी कि अचानक संगीत बंद हो गया.स्टेज से घोषणा हुई 'महिमा चौधरी' तशरीफ़ लाईं हैं.उन दिनों वे बड़ी स्टार थीं.उन्होंने सबको नवरात्रि की शुभकामनाएं दीं और कहा कि 'मैं दिल्ली से हूँ इसलिए मुझे डांडिया नहीं आती,आपलोगों में से कोई दो लोग स्टेज पर आएं और मुझे डांडिया सिखाएं'...मैं यह देखकर हैरान रह गयी पूरे १० मिनट तक कोई अपनी जगह से हिला तक नहीं बल्कि म्यूजिक बंद होने पर सब अपनी नापसंदगी ज़ाहिर कर भुनभुना रहें थे.बाद में शायद आयोजकों को ही शर्म आयी और वे लोग दो छोटी लड़कियों को पकड़कर स्टेज पर ले गए.मैं सोचने लगी,अगर यही बिहार या यू.पी.का कोई शहर होता तो इतने लोग दौड़ पड़ते, 'महिमा चौधरी' को डांडिया सीखाने कि स्टेज ही टूट गयी होती.

धीरे धीरे मुंबई में मेरी पहचान बढ़ी और हमारा भी एक ग्रुप बन गया जिसमे २ बंगाली परिवार और एक-एक राजस्थान ,पंजाब .महाराष्ट्र ,यू.पी.और बिहार के हैं.आज भी हम हमेशा होली और नव वर्ष वगैरह साथ में मनाते हैं. हमलोगों ने मिलकर फाल्गुनी पाठक के शो में जाने की सोची,फाल्गुनी पाठक डांडिया क्वीन कही जाती हैं.यहाँ भी वही माहौल था,संगीत की लय पर थिरकते सजे धजे लोग.मैंने कॉलेज में एक बार डांडिया नृत्य में भाग लिया था,लिहाजा मुझे कुछ स्टेप्स आते थे और मुंबई के होने के कारण महाराष्ट्रियन कपल्स भी थोडा बहुत जानते थे. बाकी लोगों को भी हमने सादे से कुछ स्टेप्स सिखाये और अपना एक गोल घेरा बनाकर डांडिया खेलना शुरू किया. इसमें पुरुष और महिलायें विपरीत दिशा घुमते हुए डांडिया टकराते हुए आगे बढ़ते रहते हैं.थोडी देर में दो लड़कियों ने मुझसे आकर पूछा,क्या वे हमारे ग्रुप में शामिल हो सकती हैं.मेरे हाँ कहने पर वे लोग भी शामिल हो गयीं.जब घूमते हुए वे मि० सिंह के सामने पहुंची तो उन्होंने घबराकर अपना डांडिया नीचे कर लिया और विस्फारित नेत्रों से चारो तरफ घूरने लगे.अपने सामने एक अजनबी चेहरा देखकर उन्हें लगा वे गलती से किसी और ग्रुप में आ गए हैं. बाद में देर तक इस बात पर उनकी खिंचाई होती रही.

इसके बाद भी कई बार डांडिया समारोह में जाना हुआ.पर दो साल पूर्व की डांडिया तो शायद आजीवन नहीं भूलेगी.मेरे पास की बिल्डिंग में ३ दिनों के लिए डांडिया आयोजित की गयी.संयोग से उस बिल्डिंग में मेरी कोई ख़ास सहेली नहीं है.बस आते जाते ,हेल्लो हाय हो जाती है.अलबत्ता बच्चे जरूर आपस में मिलकर खेलते हैं.उनलोगों ने मुझे भी आमंत्रित किया.दो दिन तो मैं नहीं गयी पर अंतिम दिन उनलोगों ने बहुत आग्रह किया तो जाना पड़ा.फिर भी मैं काफी असहज महसूस कर रही थी,लिहाज़ा एक सिंपल सा सूट पहना और चली गयी.

मैं कुर्सी पर बैठकर इनलोगों के गरबा का आनंद ले रही थी पर कुछ ही देर में इनलोगों ने मुझे भी खींच कर शामिल कर लिया.और थोडी ही देर बाद,बारिश शुरू हो गयी.कुछ लोगों ने अपने कीमती कपड़े बचाने के ध्येय से और कुछ लोग भीगने से डरते थे...लिहाजा कई लोग शेड में चले गए.पर हम जैसे कुछ बारिश पसंद करने वाले लोग बच्चों के साथ,बारिश में भीगते हुए गोल गोल घूमते दुगुने उत्साह से गरबा करते रहें.थोडी देर बाद आंधी भी शुरू हो गयी और जोरों की बारिश होने लगी...बच्चों को जैसे और भी जोश आ गया,उनलोगों ने पैरों की गति और तेज कर दी. आस पास के पेडों से सूखी डालियाँ गिरने लगीं.अब गरबा की जगह डांडिया शुरू हो गया. डांडिया स्टिक कम पड़ गए तो लड़कियों और बच्चों ने सूखी डालियों को ही तोड़कर डांडिया स्टिक बना लिया और नृत्य जारी रखा.इस आंधी पानी में पुलिस भी अपनी गश्त लगाना भूल गयी और समय सीमा पार कर कब घडी के कांटे साढ़े बारह पर पहुँच गए पता ही नहीं चला.किसी ने पुलिस को फ़ोन करने की ज़हमत भी नहीं उठायी. वरना एक दूसरी बिल्डिंग के स्पीकर्स कई बार पुलिस उठा कर ले जा चुकी थी.किसी को सचमुच परेशानी होती थी या लोग सिर्फ मजा लेने के लिए १० बजे की समय सीमा पार हुई नहीं कि पुलिस को फ़ोन कर देते थे.और पुलिस भी मुस्तैदी से अपना कर्त्तव्य निभाने आ जाती थी.

मन सिर्फ आशंकित था कि इतनी देर भीगने के बाद कहीं कोई बीमार न पड़े.पर कुदरत की मेहरबानी,बुखार तो क्या किसी को जुकाम तक नहीं हुआ.

Tuesday, September 29, 2009

विसंगतियां ज़माने की

खुशियाँ बिखेरता,प्यार लुटाता नवरात्र चला गया. अगले वर्ष इसके आगमन का सबको बेसब्री से इंतज़ार रहेगा और इस इंतज़ार में शामिल रहेंगी कुछ 'डिटेक्टिव एजेंसियां' भी. क्यूंकि नवरात्र में उनका बिजनेस चरम सीमा पे होता है.पहले पहल यह खबर पढ़कर मैं हैरान रह गयी थी कि गुजरात में संपन्न माता-पिता अपने बच्चों की गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए गुप्तचर संस्थाओं का सहारा लेते हैं.मुंबई और गुजरात में नवरात्र में गरबा और डांडिया की धूम रहती है. देर रात तक किशोर,किशोरियां अपने दोस्तों के साथ डांडिया खेलने जाते हैं.मुंबई में तीन साल पहले सार्वजनिक रूप से रात १० बजे के बाद तेज़ संगीत बजाने पर पाबंदी लगा दी गयी है.इस से नवरात्रि कि रौनक तो फीकी पड़ गयी है पर मुंबई के अभिभावक चैन की नींद सोने लगे हैं.

लेकिन गुजरात में चैन की नींद सोने के लिए अभिभावक हजारों रुपये खर्च कर गुप्तचर नियुक्त करते हैं जो उनके बच्चों के कार्यकलापों पे नज़र रखते हैं और सारी जानकारी माँ-बाप को मुहैया करवाते हैं.इस वर्ष तो एक नए सॉफ्टवेर के ईजाद ने इनकी मुश्किल कुछ और आसान कर दी है.इस सॉफ्टवेर को मोबाइल में इंस्टाल करने पर,किस नंबर पे फ़ोन किया गया,किस नंबर से रिसीव किया गया,फोन की लोकेशन क्या है....सब पता चल जाता है.यह अभिभावकों में बहुत ही लोकप्रिय हो गया क्यूंकि इस सॉफ्टवेर की कीमत ५००रुपये और इंस्टाल करने की १००० रुपये है जबकि गुप्तचरों की फीस ५०००रुपये से १०.०००० तक होती है.

पर मन यह सोचने पर मजबूर हो गया कि आखिर ऐसी नौबत आयी ही क्यूँ? माँ-बाप को इतना भी भरोसा नहीं, अपने बच्चों पर ?और अगर भरोसा नहीं है तो फिर उन्हें देर रात तक बाहर भेजते ही क्यूँ हैं? बच्चों को वो जाने से नहीं रोक पाते यानि कि बच्चों पर उनका वश भी नहीं.
जाहिर है उनकी परवरिश में कोई कमी रह गयी.अच्छे संस्कार नहीं दे पाए.अच्छे बुरे को पहचानने कि समझ नहीं विकसित नहीं कर पाए. वे अपने काम में इतने मुब्तिला रहें कि बच्चे नौकरों और ट्यूशन टीचरों के सहारे ही पलते रहें.उन्हें अच्छी बातें बताने,उनकी परेशानियां सुनने, उनकी उलझने सुलझाने का वक़्त ही नहीं रहा उनके पास.और जब आज बच्चे पहुँच से बाहर हो गए हैं ,तो वे गुप्तचरों का सहयोग लेने पर मजबूर हो गए हैं.यह कहीं उनकी बड़ी हार है.

और ये गुप्तचर या नया सॉफ्टवेर भी उनकी कितनी मदद कर पाएंगे??अगर बच्चे समारोह में न जाकर किसी दोस्त के यहाँ या कहीं और चले जाते हैं तो गुप्तचर इसकी सूचना उनके माता पिता को दे देते हैं.नया सॉफ्टवेर भी सिर्फ कॉल डीटेल्स और लोकेशन ही बता सकता है.कुछ अघटित घटने में समय ही कितना लगता है.?उसे रोका तो नहीं जा सकता.हाँ, पूरा ब्यौरा पाकर माँ बाप बच्चों से जबाब तलब जरूर कर सकते हैं.बच्चों ने भी 'तू डाल डाल ,मैं पात पात' के अंदाज़ में नयी तरकीबें खोज निकाली. एक लड़की ने कहा,वो घर से बाहर जाते ही अपना इंस्ट्रूमेंट ही बदल देती थी .एक लड़का बहाने से अपना फोन घर पे ही छोड़ देता था.

इन सबसे तो बेहतर है कि माता पिता चाहे कितने भी व्यस्त हों,कुछ क्वालिटी टाइम निकालें.उनके साथ कुछ समय बिताएं,उन्हें अच्छे,बुरे की पहचान करने में मदद करें.उनमे इतना आत्मविश्वास जगाये,उनके चरित्र को सुदृढ़ बनाने की कोशिश करे ताकि वे किसी भी स्थिति का सामना कर सकें और किसी भी स्थिति में खुद पर संयम रख सकें.

मुंबई में जन्मी,पली,बढ़ी मेरी कई सहेलियां बताती हैं कि वे लोग नवरात्रि के दिनों में डांडिया खेलकर सुबह ४ बजे घर आया करती थीं.साथ में होता था कालोनी के लड़के ,लड़कियों का झुण्ड. उन सबके माता पिता ने उनपर कैसे विश्वास किया?...लोग कहेंगे अब ज़माना खराब है.पर ज़माना हमसे ही तो है. इस ज़माने में रहकर ही,खुद को कैसे महफूज़ रखें, अपना चरित्र कैसे सुदृढ़ रखें,अपने संस्कारों को न भूलें.यह जरूरी है न कि किसी गुप्तचर के साए की दरकार है.

मेरे पड़ोस की मध्यम वर्ग की दो लड़कियां २० साल की कच्ची उम्र में उच्च शिक्षा के लिए विदेश गयी हैं.कभी लिफ्ट में मिल जातीं तो हलके से मुस्करा कर हेल्लो कहतीं.स्मार्ट हैं, पर कभी उन्हें उल्टे सीधे फैशन करते या बढ़ चढ़कर बांते करते नहीं सुना.मैं सुनकर चिंता में पड़ गयी थी,वे लोग वहां अकेले कैसे रहेंगी? पर उनके माता पिता को अपनी परवरिश पर पूरा भरोसा है.

एक बार टी.वी.पर यह खबर देखी कि आजकल बच्चे भी अपने माता पिता की गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए गुप्तचरों का सहारा लेने लगे हैं.गुप्तचर संस्था के संचालक बता रहें थे कि बेचारे बड़े दुखी मन से कभी माँ के तो कभी अपने पिता क अफेएर का पता लगाने आते हैं.यह स्थिति तो और भी शर्मनाक है.

शायद यही सब देख किसी शायर मन ने कहा...."ये पत्थरों का है जंगल,चलो यहाँ से चलें
हमारे पास तो, गीली जमीन के पौधे हैं"

Friday, September 25, 2009

सच से कैसे आँखें चुराएं ??

मेरे कुछ दोस्तों को मेरी लिखी कहानी तो अच्छी लगी ,पर उनका कहना है, यह इतनी दुखभरी क्यूँ है?...एक शायर की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं.उन्हें यहाँ कहना इसलिए भी जरूरी है,क्यूंकि मेरी दूसरी पोस्ट देखकर भी मेरे दोस्त यही सवाल दुहारायेंगे.....

गुल की, खुशबु की, फिजा की बात करते हो
अमां तुम किस वतन के हो,कहाँ की बात करते हो
भूले से भी न करना चर्चा, कभी इन सिसकती हवाओं का
अगरचे लौट भी जाओ ,जहाँ की बात करते हो

खैर, तस्वीर इतनी भी बुरी नहीं. चाहे परिस्थिति कैसी भी हो, हम सबको ख़ुशी के दो पल चुरा लेना बखूबी आता है और यही जीवन है.जबतक दुःख का स्वाद न चखें, ख़ुशी कितनी लजीज है ,इसका पता कैसे लगेगा?? दुःख किसी न किसी रूप में हर एक के जीवन में आता ही है,इस से आँखें तो नहीं चुरा सकते हम. इसे दवा की कड़वी घूँट की तरह निगलना ही पड़ता है.

हिमांशु एवं ममता इतना निराश होने की जरूरत नहीं ..क्या पता कथानायक को इस से भी अच्छी नौकरी मिल जाए और उसके जीवन में रूपा जैसी किसी लड़की का आगमन भी हो जाए. दुःख या सुख कुछ भी चिरस्थायी नहीं पर हाँ अवश्यम्भावी जरूर हैं. खुद के बारे में यही कह सकती हूँ,शायद मैं ख़ुशी एन्जॉय करती हूँ और दुःख गहराई से महसूस करती हूँ.इसीलिए रचनाओं में वह झलक जाता है.सायास कभी कुछ नहीं लिखा.दिल ने जो कहा कलम ने बात मानी,दिमाग को बीच में आने ही नहीं दिया.
प्रस्तुत है इस बार मेरी लिखी कुछ पंक्तियाँ

"लावारिस पड़ी उस लाश और रोती बच्ची का क्या हुआ,
मत पूछ यार इस देश में क्या क्या न हुआ

जल गयीं दहेज़ के दावानल में, कई मासूम बहनें
उन विवश भाइयों की सूनी कलाइयों का क्या हुआ

खाकी वर्दी देख क्यूँ भर आयीं, आँखें माँ की
कॉलेज गए बेटे और इसमें भला क्या ताल्लुक हुआ

तूफ़ान तो आया बड़े जोरों का लगा बदलेगा ढांचा
मगर चाँद पोस्टर,जुलूस और नारों के सिवा क्या हुआ

हर मुहँ को रोटी,हर तन को कपडे,वादा तो यही था
दिल्ली जाकर जाने उनकी याददाश्त को क्या हुआ

जब जब झलका आँखों में व्यर्थ सा पानी 'रविजा'
कलम की राह बस एक किस्सा बयाँ हुआ