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Thursday, January 14, 2010

और वो चला गया,बिना मुड़े....(लघु उपन्यास )--4



(नेहा स्कूल की प्रिंसिपल है.अपने केबिन में अचानक शरद को आते देख चौंक जाती है.और उसे शरद से अपनी पहली मुलाकात याद आने लगती हैं.यह भी कि किशोरावस्था में वह कितनी शैतान थी.सबको कैसे तंग करती रहती थी.शरद ने जब उसके साथ एक छोटी बच्ची की तरह बर्ताव किया तो बहुत नाराज़ हुई थी वह.पर धीरे धीरे शरद से दोस्ती हो गयी और शरद ने घर का बोझिल वातावरण बदलने में बहुत मदद की)

गतांक से आगे

कॉलेज खुला तो इतने दिनों से छूटी सहेलियों का ख्याल आया। बातें... बातें और बस बातें... सबों के पास इतना कुछ था कहने को... और वक्त इतना कम। अनजाने ही शायद शरद के सारे कारनामे सुना गई वह। यह भी ध्यान तब आया जब स्वस्ति ने टोका - ‘तेरी बातों से तो ऐसा लगता है, जैसे शरद आठ दिन नहीं, आठ महीने रहकर गया है।‘

‘अरे! वह सुबह से रात तक कोई न कोई गुल खिलाते रहता था... और सब तो ठीक था, पर मुझ पर ही बहुत रौब जमाता था... क्या करती... मम्मी डैडी ने भी इतना सर चढ़ा रखा था कि बस।‘

और यह शरद हर पंद्रह दिन बाद रौब जमाने पहुंच जाता... ट्रेनिंग सेंटर पास ही था। इस बार भैया के आने पर ‘वाटर फाल‘ जाने का प्रोग्राम बना। वह मन ही मन चाह रही थी कि डैडी न जाएं तो अच्छा। डैडी भी कहां तैयार थे... हमेशा की तरह कहा -‘इस संडे तो जरा मैं बीजी हूँ, तुमलोग घूम आओ।‘

पर शरद अड़ गया -‘एक दिन का समय...अपने लिए निकालिए न,अंकल,...अच्छा लगेगा, हमलोग तो मौज-मस्ती करें और आप फाइलों से जूझते रहें। नहीं अंकल... सोचेंगे कुछ नहीं... आप चल रहे हैं।‘

और डैडी ने हथियार डाल दिए -‘अच्छा अब तुमलोगों का इतना मन है तो समय निकालना ही होगा, पर फिर सेटरडे मैं बहुत देर से घर आऊंगा...अपनी आंटी से कह दो... फिर कोई शिकायत नहीं करेंगी।‘ और प्रस्ताव सर्व सम्मति से पास हो गया। डैडी को भी अब यह सब रास आने लगा था। वैसे तो उसने भी खूब जिद की थी... लेकिन सच कहे तो अंर्तमन से नहीं चाहती थी कि डैडी के साथ जाना पड़े। उतनी फ्रीडम कहाँ रहेगी? कितने भी खुल गए हों तो क्या... शरारतें करने की छूट तो नहीं मिली। हँसते-खेलते समय भी, एक सहम सी व्याप्त रहती है। कहीं सीमा का अतिक्रमण न हो जाए। और पहाड़ी पर चढ़ने को जब सीढ़ियों का सहारा लेना पड़े तो क्या मजा?

लेकिन उसकी शंका निर्मूल सिद्ध हुई। डैडी, इतने खुशमिजाज हैं और इतने लतीफे उन्हें याद हैं, किसी को भी पता नहीं था - रास्ते भर अपने संस्मरण और लतीफे सुना-सुना कर हँसाते रहे सबको।

जब वे लोग डैडी के साथ धीरे-धीरे चलने लगे तो उन्होंने उत्फुल्लता से कहा, ‘...आह! हम बूढ़ों के साथ क्यों घिसट रहे हो तुमलोग... गो अहेड...एन्जॉय योरसेल्फ।‘

‘अंकल... शरद ने शायद कुछ प्रतिवाद में कहा था पर यहां सुनने की फुर्सत किसे थी। वह तो उछलती, कूदती दूर निकल आई थी। पर डैडी ने छूट दे दी तो क्या... शरद तो उसकी पहरेदारी को मौजूद था। मम्मी ने एक बार कह क्या दिया कि ‘तुम झरने के पास मत जाना, एक मिनट स्थिर नहीं रहती हो, कहीं पैर रपट गया तो लेने के देने पड़ जाएंगे।‘ - बस बात गाँठ बाँध ली।

खुद तो आराम से भैया के साथ पानी में पैर डाले बैठा था... वह आ ही रही थी कि दूर से ही चिल्लाया... ‘नहीं नेहा, अब आगे नहीं... वहीं से देखो।‘- वह परवाह न करते हुए आगे बढ़ती रही तो वहीं से डपट दिया -‘कह रहा हूँ न, वहीं से देखो, मना किया जा रहा है, सुनाई नहीं दे रहा’

.इतना बुरा लगा। अपमान से आँसू निकल आए। उल्टे पाँव लौट पड़ी।


चुपचाप एकांत में आ बैठ गई, किसी को फिक्र भी क्या... सबकी अपनी जोड़ियाँ हैं, एक वह ही तो अकेली है... किसी को उसकी परवाह भी नहीं।

जब नाश्ता निकाला गया तो उसकी खोज हुई... आकर चुपचाप बैठ गई। सब आपस में बातें किए जा रहे हैं। उसकी ओर किसी का ध्यान ही नहीं। तभी शरद भारी आवाज में जोर से बोला -‘मैं बहुत नाराज हूँ, कोई नहीं बोलेगा, मुझसे?‘

सबकी दृष्टि उसकी ओर उठ गई। डैडी हँसते हुए बोले -‘क्या हुआ भई, बिटिया रानी इतनी चुप क्यों है?‘

‘डैडी देखिए, खुद तो इतने पास जाकर पानी में पैर डाले बैठे थे दोनों जन और मुझे कितनी दूर पर ही रोक दिया - शिकायती स्वर में बोली वह। आँखें छलछला आईं।‘

’तो क्या गलत किया, हमलोग चुपचाप बैठे थे या तुम्हारी तरह उछलकूद कर रहे थे।’ भैया ने तरफदारी की तो एकदम सुलग उठी वह -‘भैय्या, तुम्हारी ही शह पर इतना मन बढ़ा हुआ है, किस तरह डाँट दिया मुझे। कितने सारे लोग थे वहाँ।‘

‘अच्छा... अच्छा...‘ -डैडी ने बीचबचाव किया। ‘तुझे देखना ही है न, जा देख आ, लेकिन संभल के।‘

‘येल्लो ऽऽऽ‘ - अपनी जीत पर इतनी खुश हुई कि एकदम से मुहँ चिढ़ा दौड़ पड़ी। कूदती-फाँदती चली जा रही थी कि मम्मी जोर से चिल्लाई -‘नहीं नेहा, इस तरह नहीं... चलो लौट आओ... नहीं जाना है।‘

ओफ्! इतना गुस्सा आया, खुद पर। इसी कारण वो सब जाने से मना कर रहे थे। कैसे भूल गई वह? मुँह फुलाए वहीं पत्थर पर बैठ गई। अब शरद उठा -‘मैं साथ में चला जाता हूं, अंकल।‘

नहीं जाएगी,...वह बिल्कुल नहीं जाएगी। यही तो चाह रहा था, वह... अहसान जताने का मौका मिले।

‘चलिए, महारानी जी, मुलाजिम सैर करा लाए आपको।‘

उसने मुँह घुमा कर बिल्कुल अनसुना कर दिया। शरद धीरे से पीछे की तरफ झाँककर बोला -‘यहाँ से वे लोग दिख तो नहीं रहे, बिल्कुल... हूंऽऽऽ ऐसे ही चुपचाप बैठी रहना... इसी बहाने मैं घूम आऊँ, एक बार।‘

और वह जब सचमुच मुड़ गया तो एकदम से उठ गई वह... ‘एक तुम ही चालाक हो न।‘

‘ना... ना... मेरा नम्बर तो दूसरा है।‘

छोड़ो... इन बातों में वह यह मौका नहीं खोएगी। चलो, ये लोग अकेले नहीं जाने देंगे तो ऐसे ही सही।

झरने को बिल्कुल पास से देखने का अपना ही आनंद है। हरीतिमा से आच्छादित काले-काले पत्थर और उनके बीच छलछलाता पिघले चांदी सा पानी। मानो काली चमकीली केशराशि पर हरी चूनर ओढ़े कोई चाँद सी दुल्हन हँसी से दोहरी हुई जा रही हो... या सफेद मलमल की खूब फ्रिल लगी फ्रॉक पहने कोई शरारती बच्ची, अपनी माँ की पकड से छूट... खिलखिलाते हुए बड़ी वेग से दौड़ी चली आ रही हो। जो समतल पर आ कर बांकी चाल वाली गंभीर युवती में बदल गई हो। जहाँ पानी गिर रहा था वहाँ दूर-दूर तक बस झाग ही झाग नजर आ रहा था... जैसे मनों डिटरजेंट पाउडर उलट दिया गया हो।

मंत्रमुग्ध सी जाने कब तक यह मनमोहक दृश्य निहारती रही। सच, सब कुछ इतना खुशगवार लग रहा था कि सारा अपमान, गुस्सा सब भूलभाल किलक उठी -‘एई, शरद!! कितना अच्छा लग रहा है न।‘

‘अँ ऽ ऽ ऽ‘ - शरद भी जैसे किसी दूसरी दुनिया में खोया था। लौट कर खोयी-खोयी सी दृष्टि उसपर टिका दी... ये ऐसे क्यों देख रहा है... पहचान नहीं रहा क्या... या शायद सोच रहा होगा अब इस बात को कैसे काटे... कुछ दिनों से एक अजीब सी बात देख रही है... सबके सामने तो लड़ता-झगड़ता रहता है, चिढ़ाता-खिझाता रहता है पर जब भी अकेला हो, जुबान जाने कहाँ गुम हो जाती है.....उदास सा कहीं खो जाता है, हिम्मत जो नहीं पड़ती होगी...वहाँ तो दूसरों के बल पर उछलता रहता है। अकेले में लोहा ले तब न।

कल रात की ही बात है, अगर मम्मी या भैय्या होते तो बिना अपनी टें, टें किए न रहता।

चाँदनी रात, देख तो जैसे वह पागल हो जाती है। इतना पसंद है उसे कि जी चाहता है कि कोई जादू की छड़ी घुमा उसे रात भर के लिए किसी पेड़ या पौधे में बदल दे... फिर जी भर कर नहाती रहेगी चाँदनी में। जब स्कूल कैम्प के लिए गई थी तो वह और स्वस्ति टीचर की नजर बचा एक चक्कर लगा ही आती थी फील्ड का... घर में फील्ड कहाँ मयस्सर पर छत तो है।

कल भी जब खिड़की के बाहर ऐसी चाँदनी बिखरी देखी तो चुपके से दरवाजा खोल टैरेस पर आ गई। रेलिंग पर झुकी पी ही रही थी इस सुहानी छटा को कि एक ट्रक की हेड-लाईट बड़े जोरों से चमकी... उसकी चौंध से बचने को जो आँखें फेर सर घुमाया तो चीख निकलते-निकलते रह गई। थोड़ी ही दूर पर एक और आकृति रेलिंग के सहारे टिकी खड़ी थी। डर से काँप ही रही थी कि पहचान गई... ये तो शरद है। अब तो इसे गोल्डेन चांस मिल गया... लगाएगा एक झाड़ कि रात में यहाँ खड़ी क्या कर रही हो। उसे क्या मालूम कि इस ‘आर्मी मैन‘ को भी महत्व पता है, चाँदनी का।

जबाब सोच ही रही थी... लेकिन यह कुछ बोलता क्यों नहीं... हेड लाईट की रोशनी में तो निश्चय ही देख लिया है, उसे। लेकिन यह तो वैसे ही खड़ा है... अब क्या मजा आएगा... यमदूत की तरह उसकी हर खुशी का गला घोंटने पहुँच जाता है। अपने कमरे की तरफ लौट पड़ी... करीब से गुजरी तो पलट कर दूसरी दिशा में बढ़ गया। इसे समझना भगवान के भी वश की बात नहीं। जी में आएगा तो छोटी-छोटी बातों पर डाँट खिलाता रहेगा... स्वस्ति के यहाँ से लौटने में सात बज गए तो कैसा भैय्या को चढ़ा दिया और भैय्या भी तुरंत बातों में आ जाते हैं... क्या पहले नहीं लौटी वह सात बजे तक। पर आज शरद के चढ़ाने पर डाँट दिया -‘हमेशा तो चार घंटे बैठती हो वहाँ, फिर और पहले ही क्यों नहीं गई... ये वक्त है घर लौटने का?‘ ...मन ही मन भुनभुनाई, पर कहीं अच्छा भी लगा, चलो कुछ ख्याल तो है... पहले तो कहीं भी आओ या जाओ... कुछ भी करो। न तो प्रशंसा ही मिलेगी न कोई आलोचना ही करेगा।

और अब जब सचमुच डाँटने की बात है तो चुप लगा गया या क्या जाने, कल सबके सामने बोलेगा और सबसे डाँट सुनवाएगा... पता नहीं कैसी दुश्मनी है उससे... सोचती, सहमती जाने कब सो गई... लेकिन शरद ने तो फिर कोई चर्चा तक नहीं की।

और अभी कैसे घूर रहा है, खा ही जाएगा जैसे। मन नहीं था तो क्यों आया? नहीं ले आता, तो कोई मर तो नहीं जाती वह... जोर से बोली, ‘तुम्हें अच्छा नहीं लग रहा क्या?‘

अब जैसे अपने में लौटा वह... वही पुरानी अकड़... ‘हाँ! हाँ! बहुत अच्छा लग रहा है... सारे कपड़े भीग जाएंगे न तो और भी अच्छा लगेगा... चलो अब, बहुत हुआ प्रकृति-दर्शन।‘ -उपहास भरे स्वर में बोला।

‘हे, भगवान! उसने तो ध्यान ही नहीं दिया। हवा के झोंकों के सहारे झरने से पानी की फुहारें सी पड़ रही थीं दोनों पर... कपड़े हल्के-हल्के सिमसमा आए थे।‘

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‘तू उस दिन पार्टी में क्यो नहीं आई... तेरे इंतजार में कितनी देर तक केक नहीं काटा था मैंने।‘- स्वस्ति ने शिकायत की।

‘अरे! उसी शरद महाराज का काम था, गाड़ी खराब थी। भैया को तो जानती ही है, मेरी सहेलियों के घर के तो जैसे ‘एलसेशियन-डॉग' रहते हैं, काट ही लेंगे उसे। और बस शरद ने चढ़ा दिया मम्मी को... ‘रात में अकेले कैसे जाएगी।‘ - कितनी मिन्नते की... बस आधे घंटे में चली आऊँगी पर नही तो बस नहीं। मैंने तो तेरे लिए जगजीत-चित्रा की सी॰डी॰ भी सुबह ही ले ली थी।‘

‘अरे तू और गजल... कब से?‘ - उछल पड़ी स्वस्ति।

‘क्यों?‘

‘अरे! पहले तो तुझे बड़ी बोरिंग लगती थी?‘

'पहले समझती जो नही थी'

‘अय... हयऽऽ‘ नेहा गजलों में दिलचस्पी हो गई है, आपकी... क्या बात है, मैडम..?.‘ स्वस्ति ने शोखी से कहा तो मासूमियत से पूछ बैठी वह - ‘क्या बात होगी?‘

उसका भोलापन देख आगे कुछ नहीं कहा स्वस्ति ने। पुरानी बात पर लौट आई -

‘खैर, सफाई तो मैंने सुन ली, पर शरद के साथ तो आ सकती थी।‘

‘अह! चल उस लंगूर के साथ‘ - उसने तेजी से कहा तो एकदम से उसकी आँखों में देख, स्वस्ति पूछ बैठी -‘एक बात पूछूं?‘

‘क्या?‘

‘ना, पहले बोल।‘

‘कोई मैंने मना किया है।‘

‘चाहे छोड़।‘

‘ना... अब तो पूछना ही पड़ेगा।‘

‘छोड़, पूछना क्या, मेरी बात का जवाब तेरी आँखें दे रही हैं... चल छत पे चलते हैं कितना सुहाना मौसम है।‘

‘स्वस्ति, तेरी यही पहेलियोंवाली बातें, मेरी समझ में नहीं आती।‘

स्वस्ति ने प्यार से नाक पकड़ हिला दी और गाल थपथपा दिए - ‘अब, सब समझने लगोगी, मैडम!‘

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