आजकल चलन है,फिल्म रिलीज़ होने के बाद ' Making of the Film ' दिखाए जाते हैं उसी तर्ज़ पर मैंने सोचा, Making of this novel ' भी क्यूँ ना लिख डालूं जब कई रोचक बातें जुडी हुई हैं इस नॉवेल से.
मैंने नॉवेल पोस्ट करने के पहले ही सोचा था, ये सब शेयर कर लूँ.,फिर सोचा सबलोग फिर उसी नज़र से देखेंगे.अब जब लोगों ने पढ़ लिया है और पसंद भी किया है तब बता सकती हूँ कि यह नॉवेल मैंने तब लिखा था,जब मैं सिर्फ १८ बरस की थी.और यह मेरा दूसरा लघु उपन्यास है. पहला नॉवेल लिखा ,तो जैसा अक्सर होता है, सहेलियां उसकी नायिका से मेरी तुलना करने लगीं जबकि नायिका एम्.ए. की छात्रा थी और मैं इंटर में थी उस वक़्त.दरअसल रचनाकार थोड़ा बहुत अपने हर किरदार में होता है और ऐसे ही उसके संपर्क में आनेवाले लोगों की थोड़ी थोड़ी झलक हर चरित्र में मिल जाती है.
शायद यही साबित करने की चाह होगी और मेरे सबकॉन्शस ने ये सब लिखवा लिया.क्यूंकि अभी तक सोच समझ कर नही लिखा,कभी..(आगे का नहीं जानती) उन दिनों मैं हॉस्टल से घर आई हुई थी,घर मेहमानों से भरा था...मैं कभी छत पर छुप कर लिखती,कभी सब दोपहर में सो रहें होते तो उतनी गर्मी में बरामदे में बैठकर लिखती.
इंटर से लेकर एम्.ए.तक छात्र-छात्राओं के बीच ये दोनों नॉवेल इतना घूमा कि मुझे तीन बार फेयर करनी पड़ी.कोई भी अनजान लड़की मांग कर ले जाती और करीबी सहेलियां डांट लगातीं,ऐसे कैसे दे देती हो,कहीं नहीं लौटाया तो?....पर कैसे मना करूँ और ये मेरा विश्वास किसी ने नहीं तोडा.कई मजेदार घटनाएं भी हुईं.इंग्लिश ऑनर्स पढनेवाली,'मीता त्रिपाठी' बड़े शान से पढाई का बहाना कर मेरा नॉवेल पढ़ रही थी.माँ के पूछने पर रजिस्टर बढा दिया देखो,पढ़ रही हूँ.और उसकी माँ ने पूछा,' इंग्लिश ऑनर्स' हिंदी में कब से पढ़ाई जाने लगी??और फिर वे खुद वो नॉवेल लेकर चली गयीं पढने.आंटी ने एक प्यारा सा नोट लिख कर दिया था,मुझे जो मैंने बहुत दिन तक संभाल कर रखा था.
एक बार कैंटीन में सुनीता और विभा के बीच बहस चल रही थी,पूछने पर पता चला,दोनों लड़ रही हैं कि "मैं अपनी बेटी का नाम "नेहा नवीना' रखूंगी"...नहीं मैं रखूंगी"...दोनों कजिन थीं.
उन दिनों धारावाहिक कहानियों का चलन था.पर मैंने कहीं भी भेजने कि हिम्मत नहीं की.एक तो पैरेंट्स का डर,'क्या सोचेंगे...यही सब चलता रहता है इसके दिमाग में"..दूसरा पत्रों का डर,इतने रूखे सूखे विषयों पर लिखने पर तो इतने पत्र मिलते थे.ऐसी कहानी छपने पर पता नहीं कैसे कैसे पत्र आयेंगे.
कॉलेज के बाद ये कहानियाँ.बंद ही पड़ी रहीं..कभी कभी पन्ने खुलते जब मेरी कोई कजिन मेरे पास आती.पर मेरी एक मलयाली सहेली,'राज़ी' जो अंग्रेजी पत्रिका "Society " में सह संपादक थी और जिसने बीस साल से हिंदी में कुछ नहीं पढ़ा था,उसने बड़ी मेहनत से पढ़ी.जब अजय भैया (अजय ब्रह्मात्मज) के पी.ए. ने टाइप करके भेजी तब नेट पर कई दोस्तों ने पढ़ी.और पढ़ी,मेरी ममता भाभी ने...जो बरसों पहले हमारे परिवार में शामिल हो गयी थीं ..और भाभी से ज्यादा मेरी सहेली हैं ...पर उन्हें अब तक पता ही नहीं था कि मैं कभी लिखती भी थी...उन्होंने बहुत सराहा और बढ़ावा दिया...ये ब्लॉग शुरू करने के लिए भी उन्होंने काफी प्रोत्साहित किया...और अब मेरी रचनाओं की एक सजग पाठक हैं.
और अब ब्लॉग के साथियों ने.कई लोगों ने कहा छपवा लो.पर जो संतोष ब्लॉग पर पोस्ट करके मिला.पुस्तक के रूप में नहीं मिलता.खुद ही बताओ लोगों को और फिर सकुचाते हुए पूछो कि कैसी लगी??
और हाँ,इस नॉवेल का नाम था,'दीपशिखा'...ब्लॉग पर डालते हुए बदल दिया..ये शीर्षक जरा Hep लगा(Hep की हिंदी नहीं मालूम,वैसे भी ब्लॉग पर अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग की बहुत लिबर्टी ले लेती हों,बुरा लगे किसी को तो क्षमा )...और मैंने नॉवेल में कहीं नहीं स्पष्ट किया है कि शरद और उर्मिला की शादी हो गयी.पर यहाँ सबने ऐसा ही समझा...फिर मैंने सोचा...Why Not?? निश्छल प्रेम,अटूट दोस्ती के साथ 'विधवा विवाह' का एंगल भी सही.
मेरी कहानी इतने धैर्य से पढने के लिए सबका बहुत बहुत शुक्रिया.सबसे पहले तो चंडीदत्त शुक्ल जी का शुक्रिया,जिन्होंने इस पूरे नॉवेल को यूनिकोड में परिवर्तित कर के भेज दिया.
वरना मुझे एक एक शब्द टाइप करने पड़ते.(अब दूसरी कहानियाँ तो टाइप करनी ही पड़ेंगी :( )
मैं इसे 'उपन्यासिका' कहने वाली थी पर 'हरि शर्मा' जी ने सलाह दी कि जेंडर बहस शुरू हो जाएगी बेहतर है,लघु उपन्यास कहें.
विनोद पाण्डेय जी,राज भाटिया जी,समीर जी,मनु जी,प्रवीण जी,मिथिलेश,अबयज़ जी सबलोगों का बहुत बहुत शुक्रिया...आमतौर पर पुरुष इस तरह का उपन्यास नहीं पढ़ते.पर आप सबों ने बहुत धैर्य से पढ़ा,शुक्रिया.
शिखा,अदा,वाणी,वंदना अवस्थी,वंदना गुप्ता.सारिका जी,संगीता जी,रश्मि प्रभा जी,निर्मला जी,रंजू जी,हरकीरत जी.आप सबलोग भी लगातार उत्साह बढाती रहीं...शुक्रिया.
शिखा का बच्चों कि तरह जिद करना कि 'नेहा'और शरद' को प्लीज़ अलग मत करो...और धमकी भी दे डाली कि 'वरना मैं अंत बदल कर अपने ब्लॉग पे पोस्ट कर दूंगी,(हा हा नॉट अ बैड आइडिया,शिखा)
वंदना जी हर बार मासूमियत से पूछतीं ..आखिर ऐसा क्या हुआ होगा जो दोनों अलग हो गए....प्यार भी है,परिवार वाले भी तैयार हैं....उनके इस कथन से ही 'फ्लैश बैक' का महत्त्व पता चला,पाठक की उत्कंठा बनी रहती है.
सारिका जी और वाणी हमेशा तकाज़ा करतीं कि अगली किस्त कब आएगी?...सारिका जी तो कमेन्ट भी कर जातीं..'इंतज़ार है,अगली पोस्ट का"
दीपक मशाल का मन होता था,पढ़ते जाएँ...understandable है उनकी उम्र ही है ऐसे नॉवेल पसंद करने की :)
खुशदीप जी का चिंतित होना कि अक्सर आर्मी ऑफिसर कहानी या फिल्मों में शहीद ही हो जाता है...इसे दुखांत मत बनाना.वे पढने की रौ में यह भूल ही गए कि कहानी फ्लैशबैक में चल रही है.
हरकीरत जी और मनु जी ने टाइपिंग त्रुटियों कि ओर ध्यान दिलाया...शुरू में मैंने लापरवाही बरती थी पर बाद में थोड़ी मेहनत की.
अजय झा जी ने लिंक लगाने की सलाह दी..मैंने कभी लगाया, कभी नहीं अलग बात है.
सबसे ज्यादा मुझे डर था ,'मेजर गौतम राजरिशी जी' से. पता नहीं...क्या टेक्नीकल गलतियां नज़र आ जाएँ.आखिर एक आर्मी ऑफिसर की कहानी थी.ये लिखते हुए कि 'हर स्टेशन पे युद्ध से लौटते हुए जवानो की आरती उतारी जाती,उपहार दिए जाते."..मैं असमंजस में थी,पता नहीं ऐसा होता है या नहीं..फिर सोचा नहीं होता तो होना चाहिए...और गौतम जी ने तो यह बताकर कि "शायद आपको पता नहीं हो, किंतु एक ऐसी ही घटना हो चुकी है बिल्कुल कि जब एक आफिसर की शहादत के बाद उसी युनिट के एक जुनियर ने शहीद हुये आफिसर की विधवा का हाथ थामा...." कहानी और सत्य के फर्क को मिटा ही दिया बिलकुल.
ज्ञानदत्त पांडे जी,ताऊ रामपुरिया जी,रविरतलामी जी...इनलोगों के कमेंट्स अंतिम किस्त पर ही आए...मुझे पता भी नहीं था,ये लोग पढ़ रहें हैं,इसे...
आप सबों ने मिलकर इस नॉवेल को पोस्ट करने के लम्हों को बहुत खुशनुमा बना दिया...हाँ शुक्रिया उनलोगों का भी...जिन्होंने कमेन्ट नहीं किया,पर पढ़ा...अब उन्हें पसन्द आया या नहीं...मालूम नहीं..पर पढ़ा तो सही :)
30 comments:
वाह जी वाह ! आप तो एकदम ही प्रोफेशनल हो गईं...अब इस उपन्यास का भाग दो भी लिख डालो उसका भी बहुत फैशन है आजकल :) ....इस बहाने अंत भी बदल जायेगा ही ही ही ...कैसा आईडिया है?..इसकी सफलता के लिए बधाई और अगले के लिए शुभकामनाये.
लगता है , पढने का समय निकालना पड़ेगा।
बहुत सुन्दर समापन कथन. इसे धारावाहिक के रूप मे प्रस्तुत करके आपने इसे एक नई ऊचाई प्रदान की है.
ऐसे समय मे बच्चन लिखित समापन छ्द याद आता है
बडे बडे नाजो से मैने पली है साकी बाला
कलित कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला
नाज दुलारो से ही रखना मेरी इस सुकुमारी को
विश्व तुम्हारे हाथो मे अब सौप रहा हू मधुशाला.
आगे भी आप ऐसे ही साहित्यिक लेखन करते रहे. शुभकामना.
रश्मि ,
अपने लघु उपन्यास के पाठकों को धन्यवाद देने का बहुत शानदार तरीका खोजा है....एक तो इससे पता चला कि ये कब तुम्हारे मन मस्तिष्क की उपज है ...बहुत अच्छा कथानक और लेखन शैली लगी ...वैसे अंत भी बहुत अच्छा लगा...क्योंकि कुछ अलग था...पाठक चाहें तो उनको एक कर सोच सकते हैं या फिर अलग भी...
पर एक पाठक की हैसियत से मेरा मन बार बार यही कह रहा था की अंत में दोनों मिल जाएँ...शरद के दोस्त ने शरद को उसके परिवार की ज़िम्मेदारी दी थी पर ये तो नहीं था न कि वो उसकी पत्नी से विवाह ही करे ....शरद की याद में नेहा इंतज़ार करे और जब शरद से मुलाक़ात हो तब वो उस उम्र में भी एक दूसरे के प्रति समर्पित रहें ..
ये तो मैंने अपने मन की बात कही..लेकिन जिस तरह तुमने अंत किया..उस पर पाठक सोचता रह जाता है..ऐसा होता..वैसा होता ...
आगे भी ऐसी कहानियों और रचनाओं का इंतज़ार रहेगा ...शुभकामनायें
क्षमा --- कुछ गलत लिख दिया था ..अत: फिर से पोस्ट किया है
हा हा हा ..
हाँ सिकुअल बना दो 'वो मुड़ कर लौट आया'
बहुत बढ़िया लगा तुम्हारा ये 'उपसंहार'....
कितने दिनों बाद ये शब्द लिखा है ....ठीक वैसे ही जैसे 'लतखोर' याद है न ??
अब आगे का इंतज़ार है..
keep up the good work girl..!!
ये भी खूब रही..पहली बार ऐसा समापन देखा. :)
बहुत ख़ुशी हुई कि संगीता जी मुझसे सहमत हुई ...
और ये क्या बात है कि वाणी ने सिर्फ अगली किस्त के लिए ही पूछा ....बहुत नाइंसाफी है ...इतना मगज पचा कर कमेन्ट करो और उसपर ये सुनने को मिले ...हा हा हा ....!!
मेकिंग पूरा पढ़ा.... कहानी अब पूरी पढ़ रहा हूँ.... एक सांस में.... बाहर था ना.... इसलिए नेट पर नहीं आना हो पाया... अभी प्रिंट आउट निकाल रहा हूँ.... औफिस ले जा कर इत्मीनान से पढ़ता हूँ.... थोड़ी कहानी पढ़ ली है... अब पूरी पढनी बाकी है... आपने अपनी कहानी में बाँध कर रखा है.... सिर्फ यह हुआ कि मैं बीच में ही बाहर चला गया.....
नोट: लखनऊ से बाहर होने की वजह से .... काफी दिनों तक नहीं आ पाया ....माफ़ी चाहता हूँ....
rashmi ji
zindagi mein sab kuch chaha huaa ho jaye to zindagi sugam na ho jaye aur kahani ka end kaho ya zindagi ka hamesha hatkar hi hota hai, manchaha kabhi nhi hota..........prastuti to lajawaab thi hi aur hamein bhi yaad kiya uske liye aapki shukrgujar hun.
@संगीता जी,दरअसल...मैं अपने एक और मित्र का जिक्र करना चाह रही थी,पर छोड़ दिया,(पोस्ट लम्बी हो जाने के डर से) उन्होंने भी स्कूल के बाद पहली बार ,हिंदी में कोई उपन्यास पढ़ा था.वे जाने माने मनोवैज्ञानिक हैं...उनसे मैंने चर्चा की थी कि नॉवेल के अंत के बारे में mixed reactions मिल रहें हैं,उन्होंने कहा...था,यही तो नॉवेल की सफलता है कि नॉवेल ख़त्म होने के बाद भी लोग सोचें कि ऐसा नहीं, ऐसा होना चाहिए था...या ऐसा होता तो कैसा होता...और उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया बड़े intersting way में दी थी ....Great take off...Great landing And the flight was beautiful too....पर ये उनके विचार हैं...मुझे ये सब पता नहीं....आपलोगों ने मौका दे ही दिया उनको भी इसी बहाने थैंक्स बोलने का.
वाणी...एक मजेदार बात बताऊँ,मैंने एक मजेदार चीज़ नोटिस की है...जो लोग २५ से कम उम्र के हैं...उन्हें अंत अच्छा लगा...और २५ से ज्यादा उम्र के लोगों की थोड़ी सी असहमति थी...यह बात जब मैंने कुछ फ्रेंड्स को कहानी मेल की ,तब पता चली क्यूंकि उसके पहले तो बस कॉलेज वालों ने ही पढ़ा था इसे...मैंने इसका विश्लेषण भी किया...कि शायद उस उम्र में आदर्शवाद ज्यादा हावी होता है...उतनी परिपक्वता नहीं होती सोच में...नेहा,शरद भी उसी उम्र के हैं...और मैं भी तब उसी उम्र की थी....लेकिन यहाँ धर्मवीर भारती का एक कथन याद आ रहा है,"आज जब "गुनाहों का देवता' पढता हूँ तो बहुत सारी कमियाँ नज़र आती हैं पर अगर मैं इसे आज भी दोबारा लिंखुं तो उन्हीं कमियों के साथ लिखूंगा."(यहाँ कोई तुलना नहीं है,बाबा)....मुझे लगा शायद ऐसा इसलिए क्यूंकि जब आप लिखते हो तो उनकी मानसिकता में चले जाते हो..और दिमाग उन्ही की तरह सोचने लगता है... एनीवे थैंक्स मैडम ...आपके बहाने इतना कुछ सोच लिया :)
xआप के पूरे उपन्यास ने बाधे रखा शुरू से लेकर अंतिम कड़ी तक मैंने पढी हाँ कमेन्ट कभी कभी नहीं दे पाया उसके लिए माफ़ी चाहता हूँ ,, उपन्यास का समापन भी उपन्यास की ही तरह बहुत आकर्षक है
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084
उपन्यास का समापन भी उपन्यास की ही तरह बहुत आकर्षक है
अच्छा लगा समापन का ये तरीका। वैसे शुक्रिया तो आपका करना है कि आपने इतनी अच्छी कहानी लिखी और हम सब से बांटी। वैसे कहानी लिखने की प्रेरणा हमें आपके इस लघु उपन्यास पढने के बाद ही मिली। इतना सहज है आपका लेखन!
और अब आपके झोले में से अगला क्या निकलने वाला है।
रश्मि धन्यवाद मेरी भी एक कहानी का नाम दीप शिखा है । इस बार वही पोस्ट करूँगी। शुभ्कामनायें
rashmi ,
lagu upnyas ke liye badhai,achche kathanak ho tab
banaye gaye tane bane behtar katha kahte hai .
badhai.
हम भी आपके बहुत शुक्रगुजार हैं एक बेहतर उपन्यांस समकक्ष रखने के लिए , अपने आपको पंक्ति में देखकर अच्छा लगा, साथ ही आपसे विनम्र निवेदन है कि आप अपनी रचनाओं के अन्तर्गत अंग्रेजी शब्दो का प्रयोग कम करें अच्छा नहीं लगता आखों मे चूभता है ये राय नहीं निवेदन है ।
wah...thanx
मैंने आज जाकर इस लघु उपन्यास को पूरा किया है। बीच में जिस दिन आपसे चैटिंग की थी उसके अगले दिन एक किश्त पढी थी और आज बची हुई सभी किश्तें।
यहां आप को शायद एक शंका है कि गौतम जी किसी टेक्निकल चीज की गलती को पकड लेंगे, जो कि वाजिब है। लेकिन जैसा कि आपने इस उपन्यास को एक हल्का सा मिलीट्री टच देकर पूरा किया है वह काबिले तारीफ है। मैं हल्का सा मिलिट्री टच इसलिये कह रहा हूं कि जहां भी मैंने पढा है उसमें ज्यादा डीप में आप नहीं गई जैसे मेजर और सार्जेण्ट आदि के बीच संवाद या किसी अफसर का किसी मुद्दे पर फैसला आदि लेते समय अपना स्टैण्ड रखना जिसमें जाने पर कुछ खामियों का आने की संभावना बनी रहती ( चूंकि आप 18 की उम्र में यह उपन्यास लिख रही थीं तब शायद NCC से आगे का मिलिट्री एक्सपिरियंस ज्यादा नही मिलता) ऐसे समय में यह सब पढ सुन यह उपन्यास एक सुलझे हुए लेखन को इंगित कर रहा है।
बहुत उम्दा लेखन है। बधाई।
यहां मेजर और सार्जेण्ट,किसी मुद्दे आदि पर स्टैण्ड लेना आदि से तात्पर्य एक आम मिलिट्री उपन्यास में आने वाले उदाहरणों से है।
'मेकिंग ऑफ द नॉवेल' भी नॉवेल जितनी दिलचस्प...
किसी भी हिट चीज़ से जुड़े संस्मरण भी हिट ही होते हैं, ये हमारी बहना ने साबित किया है...
आज राहुल बाबा मुंबई आ रहे हैं, कुछ इस पर लिखो तो अच्छा लगेगा...
जय हिंद...
अब मेकिंग की तर्ज पर पार्ट 2 भी लिख डालिए
वाह क्या बात है रश्मि जी. मेकिंग ऑफ़....पढते-पढते खो गई अपने किशोर दिनों में..तब मैं भी लिखने के बाद ऐसे ही छुपाते घूमती थी. शानदार तरीके से सबका धन्यवाद किया आपने, मेरा भी जिसके लायक मैं नहीं थी. हां अब इसे पुस्तक रूप प्रदान करें ताकि ये हमारी व्यक्तिगत लायब्रेरी की शोभा बढा सके. सफ़ल लेखन के लिये बधाई और शुभकामनायें.
kya Di.. kaan kheenchtee to samajh bhi aata aapne to leg pulling start kar di.. :)
बिल्कुल नहीं पढ़ा है परन्तु जल्दी ही समय मिलते ही अवश्य पढूंगा और अपने जैसे भी होंगे विचार अवश्य प्रकट करूंगा। पढ़ लूं और मौन रहूं , ऐसा मैं नहीं हूं। मानता हूं कि मैंने अभी पढ़ा ही नहीं है और बिना पढ़े राय देना संभव नहीं है।
वाह, ये भी खूब रही। लाजवाब आइडिया था ये पोस्ट का।
एक बात कहनी थी। आपने और लगभग सभी टिप्पणीकारों ने इस रचना को "लघु उपन्यास" की संज्ञा दी है। अपनी तुच्छ जानकारी के हिसाब से मुझे ये ठीक नहीं लगा। मेरे ख्याल से ये एक लंबी कहानी है। उपन्यास की विधा अपने फलक और कई अन्य वजहों कहानी से भिन्न होता है। उदाहरणस्वरुप यदि हम उदय प्रकाश के "पीली छतरी वाली लड़की" की ही लें...अपनी लंबाई की वजह से वो किसी उपन्यास से कम नहीं, किंतु उसकी गणना हमेशा "कहानी" में ही की जाती है।
इस बार रंग लगाना तो.. ऐसा रंग लगाना.. के ताउम्र ना छूटे..
ना हिन्दू पहिचाना जाये ना मुसलमाँ.. ऐसा रंग लगाना..
लहू का रंग तो अन्दर ही रह जाता है.. जब तक पहचाना जाये सड़कों पे बह जाता है..
कोई बाहर का पक्का रंग लगाना..
के बस इंसां पहचाना जाये.. ना हिन्दू पहचाना जाये..
ना मुसलमाँ पहचाना जाये.. बस इंसां पहचाना जाये..
इस बार.. ऐसा रंग लगाना...
(और आज पहली बार ब्लॉग पर बुला रहा हूँ.. शायद आपकी भी टांग खींची हो मैंने होली में..)
होली की उतनी शुभ कामनाएं जितनी मैंने और आपने मिलके भी ना बांटी हों...
Hi rashmi, im a software engineer. hardly get time to read somthing else technology books but take my words, i add ur url to my favorites, so that i will never miss a chance to read ur Novel.
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