आँखें खुलीं तो पाया आँगन में चटकीली धूप फैली है. हडबडाकर खाट से तकरीबन कूद ही पड़ा. लेकिन दूसरे ही क्षण लस्त हो फिर बैठ गया.कहाँ जाना है उसे? किस चीज़ की जल्दबाजी है भला? आठ के बदले ग्यारह बजे भी बिस्तर छोडे तो क्या फर्क पड़ जायेगा? पूरे तीन वर्षों से बेकार बैठा नकारा आदमी. अपने प्रति मन वितृष्णा से भर उठा. डर कर माँ की ओर देखा,शायद कुछ कहें, लेकिन माँ पूर्ववत चूल्हे में फूँक मारती जा रहीं थीं और आंसू तथा पसीने से तरबतर चेहरा पोंछती जा रहीं थीं .यही पहले वाली माँ होती तो उसे उठाने की हरचंद कोशिश कर गयीं होतीं और वह अनसुना कर करवटें बदलता रहता. लेकिन अब माँ भी जानती है कौन सी पढाई करनी है उसे और पढ़कर ही कौन सा तीर मार लिया उसने? शायद इसीलिए छोटे भाइयों को डांटती तो जरूर हैं पर वैसी बेचैनी नहीं रहती उनके शब्दों में.
थोडी देर तक घर का जायजा लेता रहा. आँगन में नीलू जूठे बर्तन धो रही थी. जब जब नीलू को यों घर के कामो में उलझे देखता है एक अपराधबोध से भर उठता है. आज जो नीलू की उंगलियाँ स्याही के बदले राख से सनी थीं और हाथों में कलम की जगह जूठे बर्तन थमे थे उसकी वजह वह ही था.. एक ही समय उसे भी फीस के लिए पैसे चाहिए थे और नीलू को भी.(वरना उसका नाम कट जाता) उसी महीने लोकमर्यादा निभाते दो दो शादियाँ भी निपटानी पड़ी थीं. एक ही साथ इतने सारे खर्चों का बोझ ,पिता के दुर्बल कंधे सँभालने में असमर्थ थे. और नीलू की पढाई छुडा दी गयी. प्राइवेट परीक्षाएं दो. बुरा तो उसे बहुत लगा था पर सबके साथ साथ उसके मन में भी आशा की एक किरण थी कि उसका तो यह अंतिम वर्ष है. अगले वर्ष वह खुद अपने पैरों पे खडा हो सकेगा और नीलू की छूटी पढाई दुबारा जारी करवा सकेगा. किन्तु उस दिन को आज तीन साल बीत गए और ना तो वह ऑफिस जा सका ना नीलू स्कूल.
जबकि पिता बदस्तूर राय क्लिनिक से सदर हॉस्पिटल और वहां से आशा नर्सिंग होम का चक्कर लगाते रहे. सोचा था, नौकरी लगने के बाद पहला काम अपने पिता की ओवरटाइम ड्यूटी छुड़वाने की करेगा. पर ऐसे ही जाने कितने सारे मनसूबे अकाल मृत्यु को प्राप्त होते चले गए और वह निरुपाए खडा देखते रहने के सिवा कुछ नहीं कर सका. क्या क्रूर मजाक है? स्वस्थ युवा बेटा तो दिन भर खाट तोड़ता रहे और गठिया से पीड़ित पिता अपने दुखते जोडों सहित सड़कें नापते रहें. जब जब रात के दस बजे पिता के थके क़दमों की आहट सुनता है, मन अपार ग्लानि से भर उठता है, जी करता है --काश आज बस सोये तो सोया ही रह जाए. पर यहाँ तो मांगे मौत भी नहीं मिलती. कई बार आत्महत्या के विचार ने भी सर उठाया लेकिन फिर रुक जाता है. जी कर तो कोई सुख दे नहीं पा रहा. मर कर ही कौन सा अहसान कर जाएगा? बल्कि उल्टे समाज के सिपहसलारों के व्यंगवाणों से बींधते रहने को अकेला छोड़ जायेगा अपने निरीह माता पिता को.
सारी मुसीबत इनकी निरीहता को लेकर ही है. क्यूँ नहीं ये लोग भी उपेक्षा भरा व्यवहार अपनाते? क्यूँ इनकी निगाहें इतनी सहानुभूति भरी हैं? क्यूँ नहीं ये लोग भी औरों की तरह उसके यूँ निठल्ले बैठे रहने पर चीखते चिल्लाते..क्यूँ नहीं पिता कहते कि वह अब इस लायक हो गया है कि अपना पेट खुद पाल सके,कब तक उसका खर्च उठाते रहेंगे?..क्यूँ नहीं माँ कहती कि 'रमेश,विपुल,अभय सब अपनी अपनी नौकरी पर गए, वह कब तक बैठा रोटियां तोड़ता रहेगा?'...क्यूँ नहीं कोई काम बताने पर नीलू पलट कर कहती 'क्या इसलिए पढाई छुडा घर बैठा दिया था कि जब चाहो काम करवा सको.'..पर ये लोग ऐसा कुछ नहीं कहते बल्कि उसके दुःख को अपना दुःख समझ दुखी हो जाते हैं. पूरे समय सिर्फ यही कोशिश करते हैं कि भूले से भी उसे अपनी बेरोजगारी का भान न हो.हर बात संभाल संभाल आकर पूछी जाती है कि उसे अपनी बेचारगी का बोध न हो. पर उन्हें इस बात का जरा भी इलहाम नहीं कि उसमें किस कदर आम्त्न्हीनता भर गयी है . बात बात में आत्महीनता से ग्रट्स हो उठता है, कहाँ चला गया ,उसका वो पुख्ता आत्मविश्वास .वह बेलौस व्यवहार .हर किसी से अनाखें चुराता फिरता है. आखिर क्यूँ, सारे दोष खुद में ही नज़र आते हैं. महसूस होता है , कोई गहरी कमी है ,उसके व्यक्तित्व में .लेकिन यह सच होता तो स्कूल से लेकर यूनिवर्सिटी तक उसका नाम कैसे रहता सबकी जुबान पर . आज भी पुराने प्रोफेसर्स मिलते हैं तो कितने प्यार से बातें करते हैं . लेकिन वह है कि ठीक ढंग से जबाब तक नहीं दे पाता .बातें करते हुए लगता है, कब तलें ये लोग. वरना रितेश से कतरायेगा ,ऐसा सपने में भी सोच सकता था भला ??
सामने से रितेश आ रहा था और उसकी अनाखें किसी शरणस्थल की तलाश में भटकने लगीं . लेकिन सामने तो सीधी,सपाट,सूनी सड़क फैली थी .गली तो दूर , कोई दरख़्त भी नहीं, जिसके पीछे छुप पीछा छुड़ा सके. इसी उहापोह में था कि रितेश सामने आ गया और 'हेल्लोss अभिषेक ,कैसे हो ?" कहते गर्मजोशी से हाथ बढ़ाया .जबाब में वह बस दांत निपोर कर रह गया .
"इधर दिखते नहीं यार...कहीं बाहर थे क्या ?"
"अंss ..नहीं...यहीं तो था .."किसी तरह वो बोल पाया .
और अगला सवाल वही हुआ, जिससे बचने के लिए पैंतरे बदल रहा था .
क्या आकर रहे हो आजकल ? रितेश ने पूछा
क्या बताए वह, बेरोजगार शब्द एक गाली सा लगता है.
जब चुप रहा तो रितेश ने कहा , "चलो कॉफ़ी पिलाते हैं ,तुम्हे ...फिर ऑफिस भी जाना है "
"हम्म..नहीं फिर कभी ...एक दोस्त को सी ऑफ करने जाना है ,उसके ट्रेन का टाइम हो चला है ..." झूठ सच जो मुहं में आया ,कह पीछा छुडाया उसने .
पर रितेश के जाने के बाद जी भर कर गालियाँ दीं खुद को .(आजकल यही एक काम तो जोर शोर से हो रहा है ) इस तरह हीन भावना से ग्रस्त होने की क्या जरूरत थी. रितेश ही तो था वही पिद्दी सा रितेश जो कॉलेज में हर वक़्त उसके मजाक का निशाना बना रहता था ,फिर भी उसके आगे पीछे घूमा करता था . दोस्त तो उसे उसका चमचा कह कर ही बुलाते थे . पर बड़े बाप का बेटा था .पिता की पहुँच थी .अह्छी कंपनी में नौकरी लग गयी है तो अब तो . कॉफ़ी की दावत देगा ही .पर कुर्सी मिल जाने से बुद्धि भी थोड एही आ गए एहोगी...सुनाता रहता वही बॉस और उनकी सेक्रेटरी के घिसे पिटे किस्से पर रितेश स्मार्ट लग रहा था , आज उसके झुके कंधे चौड़े हो गए थे .नौकरी ने चेहरे पर आत्मविश्वास की चमक बिखेर दी थी .
और खुद पर ध्यान चला गया उसका, तो क्या वह देखने में भी अच्छा नहीं रहा ?? नहीं नहीं,,शारीरिक सौष्ठव में तो वह अभी भी किसी से कम नहीं .पर चेहरे का क्या करेगा , जिसपर हर वक़्त मनहूसियत की छाप लगी रहती है. और वही सारे भेद खोल देती है .
घर वाले सहानुभूति रखते हैं पर दुनिया उसके घर वालों की तरह तो नहीं... नुक्कड़ के बनवारी चाचा हों या कलावती मौसी, नज़र पड़ते ही एक ही सवाल.."कहीं कुछ काम बना?" घर से निकलने का मन ही नहीं होता...और आजकल तो निकलना और भी दूभर क्यूंकि रूपा मायके आयी हुई थी वही रूपा जिसके साथ जीने मरने की कसमे खाई थीं. रूपा में तो बहुत हिम्मत थी....इंतज़ार करने... साथ भाग तक चलने को तैयार थी. पर वही पीछे हट गया ,कोई फिल्म के हीरो हिरोइन तो नहीं थे दोनों कि जंगल में वह लकडियाँ काट कर लाता और सजी धजी रूपा उसके लिए खाना बनाती. रूपा की शादी हो गयी ,एक नन्हा मुन्ना भी गोद में आ गया, कई मौसम बदल गए पर नहीं बदला रूपा की आँखों का खूनी रंग...आज भी कभी उसपर नज़र पड़ जाए तो रूपा की आँखे अंगारे उगलने लगती हैं.
शुक्र है, उसे हर तरफ से नकारा पाकर भी माँ पिता की आँखे प्यार से उतनी ही लबरेज रहती हैं. हर बार कोई नया फार्म या परीक्षा देने के लिए राह खर्च मांगते समय कट कर रह जाता है पर पिता उतने ही प्यार से पूछते हैं. "कितने चाहिए." और दस पांच ऊपर से पकडा देते हैं "रख लो जरूरत वक़्त काम आएंगे "..वह तो तंग आ चुका है इंटरव्यू देते देते. लेकिन इंटरव्यू का नाम सुनते ही परिवार में उछाह उमंग की एक लहर सी दौड़ जाती है. नीलू दरवाजे के पास पानी भरी बाल्टी रख देती है. नमन भागकर हलवाई के यहाँ से दही ले आता है. पिता बार बार दुहराते हैं. सामान का ध्यान रखना. चलती ट्रेन में भूलकर भी न चढ़ना. जैसे वह अब भी कोई छोटा सा बच्चा हो . माँ टीका करती हैं. वार के अनुसार राई , धनिया, गुड देती है . अगर वह पहले वाला अभिषेक होता तो इन सारे कर्मकांडों की साफ़ साफ़ खिल्ली उड़ा चलता बनता . पर अब सर झुकाए ,सब स्वीकार कर लेता है, शायद यही सब मिलकर उसके रूठे भाग्य को मना सकें . पर उसका भाग्य हठी बालक सा अपनी जगह पर अड़ा रहता है. .
वह इन सारे हथियारों से लैस होकर जाता है और हथियार डालकर चला आता है. पता चलता है ,चुनाव तो पहले ही कर लिया गया था. इंटरव्यू तो मात्र एक दिखावा था. लेकिन अब आजीज़ आ गया है. जब भी कोई नया इंटरव्यू कॉल आता है , सबके चेहरे पर आशा अकी चमक आ जाती है. जब बुझा मन लिए लौटता है तो सामने से तो कोई नहीं पूछता , पर सब उसके चेहरे से भांपने की कोशिश करते हैं . नीलू, नमन, माँ सब आस पास मंडराते रहते हैं . आखिर वह सच्चाई बताता है और परिवारजनों की आँखों में जलती आशा ,अपेक्षा की लौ दप से बुझ जाती है.
माँ के गहरा निश्वास लेती हैं , पिता दोनों हाथ उठा कर कहते हैं ,:होइहे वही जो राम रची राखा " नहीं अब और नहीं ..इन सारी स्थितियों का अंत करना ही होगा. किसी को कुछ नहीं बतायेगा .बार बार खुद को अपराधबोध से ग्रसित होने की मजबूरी से बचाना ही होगा. की अब घर में तभी बताएगा जब पहला वेतन लाकर माँ की हथेली पर रख देगा.
ट्यूशन लेकर लौटा तो नीलू की जगह माँ ने खाना परोसा.और देर तक वहीँ बैठीं रहीं तो लगा कुछ कहना चाहती हैं.खुद ही पूछ लिया --"क्या बात है,माँ?..परेशान लग रही हो ?"
"नहीं ...बात क्या होगी "...माँ कुछ अटकती हुई सी बोल रही थीं..."अगले हफ्ते से नीलू के दसवीं के इम्तहान हैं. सेंटर दूसरे शहर पड़ा है.रहने की तो कोई समस्या नहीं,चाचाजी वहां हैं ही पर लेकर कौन जाए? यही मुसीबत है . पिताजी को छुट्टी मिलेगी नहीं...मैं साथ चली भी जाऊं पर वहां नीलू को एक्जाम सेंटर रोज लेकर कौन जायेगा...मेरे लिए वो शहर नया है...तेरा कोई इम्तिहान
तो नहीं ...तू जा सकता है?"
वह तो माँ के पूछने के पहले ही खुद को प्रस्तुत कर देना चाहता था ,पर एक समस्या थी ।एक .कम्पनी में वेकेंसी थी ।वह चुपचाप इंटरव्यू दे आया था ।घर पर कुछ नहीं बताया था ।इंटरव्यू काफी अच्छा हुआ था ।एक क्षीण सी आशा थी ...शायद यहाँ कुछ बात बन जाए . ...पर अब क्या करे...बता देगा तो फिर वही अपेक्षाएं ,आशाएं सर उठाने लगेंगी जिनसे बचना चाह रहा था..और नीलू के भी बोर्ड के इम्तहान हैं .पहले ही उसकी वजह से वह तीन साल से स्कूल छोड़ घर बैठी हुई थी. तय कर लिया कुछ नहीं बतायेगा माँ की आँखे उसपर टिकी थीं.बोला--"चिंता मत करो माँ, मैं लेकर जाऊंगा "
अटैची में कपड़े सम्भालते भी कई बार मन में आया जाकर बता दे ।एकाध बार दरवाजे तक गया भी पर फिर जी कडा कर लौट आया ।ना क्या फायदा , कुछ नहीं होने वाला ।इतने इंटरव्यू दे चूका है , कुछ हुआ क्या ।फिर वही होगा , नौकरी किसी सिफारिश वाले को मिल जायेगी। और गजर वाले नाहक परेशान होते रहेंगे ।और वह नीलू को इम्तहान दिलवाने चला गया ।
दस दिन बाद लौटा ।नीतू के एग्जाम अच्छे हुए थे ।वह बहुत खुश थी । माँ भी उसे खुश देख उत्साह से भर गईं ।उन दोनों को पानी देकर चाय बनाने चली गईं ।फिर बीच में ही भागती हुई आईं,' अरे ...तेरे कुछ कागज़ आये थे ' और कुछ लिफाफे उसके हाथों में थमा दिए ।उस कम्पनी का भी एक लिफाफा था ।कांपते हाथों से खोला,' कागज़ पर उभरे सतरों पर नज़र पड़ते ही उसका चेहरा सफेद पड़ गया ।कागज़ हाथों से गिर पड़ा ।वह पास पड़ी कुर्सी पर गिर पड़ा ।माँ घबराई हुई पूछ रही थीं ,' क्या हुआ बेटा...क्या लिखा था कागज़ में ?' कैसे बताये उन्हें,' नौकरी का कागज़ था पर ज्वाइन करने का डेट बीत गया उसका "
थोडी देर तक घर का जायजा लेता रहा. आँगन में नीलू जूठे बर्तन धो रही थी. जब जब नीलू को यों घर के कामो में उलझे देखता है एक अपराधबोध से भर उठता है. आज जो नीलू की उंगलियाँ स्याही के बदले राख से सनी थीं और हाथों में कलम की जगह जूठे बर्तन थमे थे उसकी वजह वह ही था.. एक ही समय उसे भी फीस के लिए पैसे चाहिए थे और नीलू को भी.(वरना उसका नाम कट जाता) उसी महीने लोकमर्यादा निभाते दो दो शादियाँ भी निपटानी पड़ी थीं. एक ही साथ इतने सारे खर्चों का बोझ ,पिता के दुर्बल कंधे सँभालने में असमर्थ थे. और नीलू की पढाई छुडा दी गयी. प्राइवेट परीक्षाएं दो. बुरा तो उसे बहुत लगा था पर सबके साथ साथ उसके मन में भी आशा की एक किरण थी कि उसका तो यह अंतिम वर्ष है. अगले वर्ष वह खुद अपने पैरों पे खडा हो सकेगा और नीलू की छूटी पढाई दुबारा जारी करवा सकेगा. किन्तु उस दिन को आज तीन साल बीत गए और ना तो वह ऑफिस जा सका ना नीलू स्कूल.
जबकि पिता बदस्तूर राय क्लिनिक से सदर हॉस्पिटल और वहां से आशा नर्सिंग होम का चक्कर लगाते रहे. सोचा था, नौकरी लगने के बाद पहला काम अपने पिता की ओवरटाइम ड्यूटी छुड़वाने की करेगा. पर ऐसे ही जाने कितने सारे मनसूबे अकाल मृत्यु को प्राप्त होते चले गए और वह निरुपाए खडा देखते रहने के सिवा कुछ नहीं कर सका. क्या क्रूर मजाक है? स्वस्थ युवा बेटा तो दिन भर खाट तोड़ता रहे और गठिया से पीड़ित पिता अपने दुखते जोडों सहित सड़कें नापते रहें. जब जब रात के दस बजे पिता के थके क़दमों की आहट सुनता है, मन अपार ग्लानि से भर उठता है, जी करता है --काश आज बस सोये तो सोया ही रह जाए. पर यहाँ तो मांगे मौत भी नहीं मिलती. कई बार आत्महत्या के विचार ने भी सर उठाया लेकिन फिर रुक जाता है. जी कर तो कोई सुख दे नहीं पा रहा. मर कर ही कौन सा अहसान कर जाएगा? बल्कि उल्टे समाज के सिपहसलारों के व्यंगवाणों से बींधते रहने को अकेला छोड़ जायेगा अपने निरीह माता पिता को.
सारी मुसीबत इनकी निरीहता को लेकर ही है. क्यूँ नहीं ये लोग भी उपेक्षा भरा व्यवहार अपनाते? क्यूँ इनकी निगाहें इतनी सहानुभूति भरी हैं? क्यूँ नहीं ये लोग भी औरों की तरह उसके यूँ निठल्ले बैठे रहने पर चीखते चिल्लाते..क्यूँ नहीं पिता कहते कि वह अब इस लायक हो गया है कि अपना पेट खुद पाल सके,कब तक उसका खर्च उठाते रहेंगे?..क्यूँ नहीं माँ कहती कि 'रमेश,विपुल,अभय सब अपनी अपनी नौकरी पर गए, वह कब तक बैठा रोटियां तोड़ता रहेगा?'...क्यूँ नहीं कोई काम बताने पर नीलू पलट कर कहती 'क्या इसलिए पढाई छुडा घर बैठा दिया था कि जब चाहो काम करवा सको.'..पर ये लोग ऐसा कुछ नहीं कहते बल्कि उसके दुःख को अपना दुःख समझ दुखी हो जाते हैं. पूरे समय सिर्फ यही कोशिश करते हैं कि भूले से भी उसे अपनी बेरोजगारी का भान न हो.हर बात संभाल संभाल आकर पूछी जाती है कि उसे अपनी बेचारगी का बोध न हो. पर उन्हें इस बात का जरा भी इलहाम नहीं कि उसमें किस कदर आम्त्न्हीनता भर गयी है . बात बात में आत्महीनता से ग्रट्स हो उठता है, कहाँ चला गया ,उसका वो पुख्ता आत्मविश्वास .वह बेलौस व्यवहार .हर किसी से अनाखें चुराता फिरता है. आखिर क्यूँ, सारे दोष खुद में ही नज़र आते हैं. महसूस होता है , कोई गहरी कमी है ,उसके व्यक्तित्व में .लेकिन यह सच होता तो स्कूल से लेकर यूनिवर्सिटी तक उसका नाम कैसे रहता सबकी जुबान पर . आज भी पुराने प्रोफेसर्स मिलते हैं तो कितने प्यार से बातें करते हैं . लेकिन वह है कि ठीक ढंग से जबाब तक नहीं दे पाता .बातें करते हुए लगता है, कब तलें ये लोग. वरना रितेश से कतरायेगा ,ऐसा सपने में भी सोच सकता था भला ??
सामने से रितेश आ रहा था और उसकी अनाखें किसी शरणस्थल की तलाश में भटकने लगीं . लेकिन सामने तो सीधी,सपाट,सूनी सड़क फैली थी .गली तो दूर , कोई दरख़्त भी नहीं, जिसके पीछे छुप पीछा छुड़ा सके. इसी उहापोह में था कि रितेश सामने आ गया और 'हेल्लोss अभिषेक ,कैसे हो ?" कहते गर्मजोशी से हाथ बढ़ाया .जबाब में वह बस दांत निपोर कर रह गया .
"इधर दिखते नहीं यार...कहीं बाहर थे क्या ?"
"अंss ..नहीं...यहीं तो था .."किसी तरह वो बोल पाया .
और अगला सवाल वही हुआ, जिससे बचने के लिए पैंतरे बदल रहा था .
क्या आकर रहे हो आजकल ? रितेश ने पूछा
क्या बताए वह, बेरोजगार शब्द एक गाली सा लगता है.
जब चुप रहा तो रितेश ने कहा , "चलो कॉफ़ी पिलाते हैं ,तुम्हे ...फिर ऑफिस भी जाना है "
"हम्म..नहीं फिर कभी ...एक दोस्त को सी ऑफ करने जाना है ,उसके ट्रेन का टाइम हो चला है ..." झूठ सच जो मुहं में आया ,कह पीछा छुडाया उसने .
पर रितेश के जाने के बाद जी भर कर गालियाँ दीं खुद को .(आजकल यही एक काम तो जोर शोर से हो रहा है ) इस तरह हीन भावना से ग्रस्त होने की क्या जरूरत थी. रितेश ही तो था वही पिद्दी सा रितेश जो कॉलेज में हर वक़्त उसके मजाक का निशाना बना रहता था ,फिर भी उसके आगे पीछे घूमा करता था . दोस्त तो उसे उसका चमचा कह कर ही बुलाते थे . पर बड़े बाप का बेटा था .पिता की पहुँच थी .अह्छी कंपनी में नौकरी लग गयी है तो अब तो . कॉफ़ी की दावत देगा ही .पर कुर्सी मिल जाने से बुद्धि भी थोड एही आ गए एहोगी...सुनाता रहता वही बॉस और उनकी सेक्रेटरी के घिसे पिटे किस्से पर रितेश स्मार्ट लग रहा था , आज उसके झुके कंधे चौड़े हो गए थे .नौकरी ने चेहरे पर आत्मविश्वास की चमक बिखेर दी थी .
और खुद पर ध्यान चला गया उसका, तो क्या वह देखने में भी अच्छा नहीं रहा ?? नहीं नहीं,,शारीरिक सौष्ठव में तो वह अभी भी किसी से कम नहीं .पर चेहरे का क्या करेगा , जिसपर हर वक़्त मनहूसियत की छाप लगी रहती है. और वही सारे भेद खोल देती है .
घर वाले सहानुभूति रखते हैं पर दुनिया उसके घर वालों की तरह तो नहीं... नुक्कड़ के बनवारी चाचा हों या कलावती मौसी, नज़र पड़ते ही एक ही सवाल.."कहीं कुछ काम बना?" घर से निकलने का मन ही नहीं होता...और आजकल तो निकलना और भी दूभर क्यूंकि रूपा मायके आयी हुई थी वही रूपा जिसके साथ जीने मरने की कसमे खाई थीं. रूपा में तो बहुत हिम्मत थी....इंतज़ार करने... साथ भाग तक चलने को तैयार थी. पर वही पीछे हट गया ,कोई फिल्म के हीरो हिरोइन तो नहीं थे दोनों कि जंगल में वह लकडियाँ काट कर लाता और सजी धजी रूपा उसके लिए खाना बनाती. रूपा की शादी हो गयी ,एक नन्हा मुन्ना भी गोद में आ गया, कई मौसम बदल गए पर नहीं बदला रूपा की आँखों का खूनी रंग...आज भी कभी उसपर नज़र पड़ जाए तो रूपा की आँखे अंगारे उगलने लगती हैं.
शुक्र है, उसे हर तरफ से नकारा पाकर भी माँ पिता की आँखे प्यार से उतनी ही लबरेज रहती हैं. हर बार कोई नया फार्म या परीक्षा देने के लिए राह खर्च मांगते समय कट कर रह जाता है पर पिता उतने ही प्यार से पूछते हैं. "कितने चाहिए." और दस पांच ऊपर से पकडा देते हैं "रख लो जरूरत वक़्त काम आएंगे "..वह तो तंग आ चुका है इंटरव्यू देते देते. लेकिन इंटरव्यू का नाम सुनते ही परिवार में उछाह उमंग की एक लहर सी दौड़ जाती है. नीलू दरवाजे के पास पानी भरी बाल्टी रख देती है. नमन भागकर हलवाई के यहाँ से दही ले आता है. पिता बार बार दुहराते हैं. सामान का ध्यान रखना. चलती ट्रेन में भूलकर भी न चढ़ना. जैसे वह अब भी कोई छोटा सा बच्चा हो . माँ टीका करती हैं. वार के अनुसार राई , धनिया, गुड देती है . अगर वह पहले वाला अभिषेक होता तो इन सारे कर्मकांडों की साफ़ साफ़ खिल्ली उड़ा चलता बनता . पर अब सर झुकाए ,सब स्वीकार कर लेता है, शायद यही सब मिलकर उसके रूठे भाग्य को मना सकें . पर उसका भाग्य हठी बालक सा अपनी जगह पर अड़ा रहता है. .
वह इन सारे हथियारों से लैस होकर जाता है और हथियार डालकर चला आता है. पता चलता है ,चुनाव तो पहले ही कर लिया गया था. इंटरव्यू तो मात्र एक दिखावा था. लेकिन अब आजीज़ आ गया है. जब भी कोई नया इंटरव्यू कॉल आता है , सबके चेहरे पर आशा अकी चमक आ जाती है. जब बुझा मन लिए लौटता है तो सामने से तो कोई नहीं पूछता , पर सब उसके चेहरे से भांपने की कोशिश करते हैं . नीलू, नमन, माँ सब आस पास मंडराते रहते हैं . आखिर वह सच्चाई बताता है और परिवारजनों की आँखों में जलती आशा ,अपेक्षा की लौ दप से बुझ जाती है.
माँ के गहरा निश्वास लेती हैं , पिता दोनों हाथ उठा कर कहते हैं ,:होइहे वही जो राम रची राखा " नहीं अब और नहीं ..इन सारी स्थितियों का अंत करना ही होगा. किसी को कुछ नहीं बतायेगा .बार बार खुद को अपराधबोध से ग्रसित होने की मजबूरी से बचाना ही होगा. की अब घर में तभी बताएगा जब पहला वेतन लाकर माँ की हथेली पर रख देगा.
ट्यूशन लेकर लौटा तो नीलू की जगह माँ ने खाना परोसा.और देर तक वहीँ बैठीं रहीं तो लगा कुछ कहना चाहती हैं.खुद ही पूछ लिया --"क्या बात है,माँ?..परेशान लग रही हो ?"
"नहीं ...बात क्या होगी "...माँ कुछ अटकती हुई सी बोल रही थीं..."अगले हफ्ते से नीलू के दसवीं के इम्तहान हैं. सेंटर दूसरे शहर पड़ा है.रहने की तो कोई समस्या नहीं,चाचाजी वहां हैं ही पर लेकर कौन जाए? यही मुसीबत है . पिताजी को छुट्टी मिलेगी नहीं...मैं साथ चली भी जाऊं पर वहां नीलू को एक्जाम सेंटर रोज लेकर कौन जायेगा...मेरे लिए वो शहर नया है...तेरा कोई इम्तिहान
तो नहीं ...तू जा सकता है?"
वह तो माँ के पूछने के पहले ही खुद को प्रस्तुत कर देना चाहता था ,पर एक समस्या थी ।एक .कम्पनी में वेकेंसी थी ।वह चुपचाप इंटरव्यू दे आया था ।घर पर कुछ नहीं बताया था ।इंटरव्यू काफी अच्छा हुआ था ।एक क्षीण सी आशा थी ...शायद यहाँ कुछ बात बन जाए . ...पर अब क्या करे...बता देगा तो फिर वही अपेक्षाएं ,आशाएं सर उठाने लगेंगी जिनसे बचना चाह रहा था..और नीलू के भी बोर्ड के इम्तहान हैं .पहले ही उसकी वजह से वह तीन साल से स्कूल छोड़ घर बैठी हुई थी. तय कर लिया कुछ नहीं बतायेगा माँ की आँखे उसपर टिकी थीं.बोला--"चिंता मत करो माँ, मैं लेकर जाऊंगा "
अटैची में कपड़े सम्भालते भी कई बार मन में आया जाकर बता दे ।एकाध बार दरवाजे तक गया भी पर फिर जी कडा कर लौट आया ।ना क्या फायदा , कुछ नहीं होने वाला ।इतने इंटरव्यू दे चूका है , कुछ हुआ क्या ।फिर वही होगा , नौकरी किसी सिफारिश वाले को मिल जायेगी। और गजर वाले नाहक परेशान होते रहेंगे ।और वह नीलू को इम्तहान दिलवाने चला गया ।
दस दिन बाद लौटा ।नीतू के एग्जाम अच्छे हुए थे ।वह बहुत खुश थी । माँ भी उसे खुश देख उत्साह से भर गईं ।उन दोनों को पानी देकर चाय बनाने चली गईं ।फिर बीच में ही भागती हुई आईं,' अरे ...तेरे कुछ कागज़ आये थे ' और कुछ लिफाफे उसके हाथों में थमा दिए ।उस कम्पनी का भी एक लिफाफा था ।कांपते हाथों से खोला,' कागज़ पर उभरे सतरों पर नज़र पड़ते ही उसका चेहरा सफेद पड़ गया ।कागज़ हाथों से गिर पड़ा ।वह पास पड़ी कुर्सी पर गिर पड़ा ।माँ घबराई हुई पूछ रही थीं ,' क्या हुआ बेटा...क्या लिखा था कागज़ में ?' कैसे बताये उन्हें,' नौकरी का कागज़ था पर ज्वाइन करने का डेट बीत गया उसका "
26 comments:
रविजा, आप बहुत ही अच्छा लिखती है. कलम का ये पैनापन बनाये रखियेगा.
रश्मि...कहानी का अंत आंखें भिगो गया...बेचैनी, निराशा, खुद के कुछ ना होने का बोध, हारा-थका-झुका प्रेमी...क्या नहीं है वो! आपका कथानायक....कुछ जगह टाइपिंग की त्रुटियां हैं, उन्हें आप वक्त के साथ ठीक कर लेंगी, यही उम्मीद है। अच्छी कहानी है। अब तो मान लीजिए...`वही शक्ति, वही कलात्मकता, ऊँचे से ऊँचे उड़ने की वही आकांक्षा बरकरार है' आपमें...जो पहले थी (साभार...आपकी प्रोफाइल से)। ढेर सारी बधाई। आगे बढ़ें...मस्त रहें...व्यस्त रहें।
rashmi ji bahut achchi prastuti hai.
कहानी से ज्यादा किरदार पसंद आये.. इस पर तो हिंदी फिल्म भी बनायीं जा सकती है.. पहली ही पोस्ट से बढ़िया एंट्री ली है आपने.. शुभकामनाये
very well written,but does it have to be so sad.Next time I'll be waiting for a happy ending.You really have a flair for writing.All these years of being house bound have done nothing to dull your skill.Keep writing.Waiting for the next post
are vaah tabiyat khush kar di, kya baat hai. der aaye durust aaye.
badhai ho, apane blog banane par.
outstanding written, very close to real life - yes, can feel the charactar - keep it up - hats off -
Man ka Panchi Kare Shor, Rashmiji Likho Aur
"Ravija" ki Rashmirathi,Nayi Kiran,Bhagaye Tamas Ghanghor.
बेहतर प्रस्तुति । आभार ।
बढ़िया कहानी, हकीकत से रूबरू कराती हुई.
हार्दिक बधाई. यूँ ही लिखती रहे..........
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
well written rashmi ,waise humme to aapki yeh kahani live sunne ki saubhagya prapt hui thi ..n tht was gr888 listng ,anywys no doubt u write well with good command on language all the best dear n as sme1 above said derr aaye par durust aaye so keep going our wishes alwys with u..............
badhiya laga ki aakhir tum apane kavach se bahar aai. likhan aur padhana dono sath ho to rachnatmakata aur bhi badh jati hai. All the best!
अच्छा है आज बस इतना ही आगे और भी लिखुगा.कहानी पर
haan ji rashmiji, bahut badhiya. kya entry maari hai aapne. wah wah. badhaaiyan badhaaiyan. aise hi chalte chalo mat lekin. isse bahut uncha jaana hai aapko. keep your kite flying high. :)
सुनना अच्छा लगा लेकिन पढने मै ज्यादा मजा आया ओर्समय भी कम लगा :) बहुत अच्छी लगी आप की यह कहानी, यह आज के बहुत से नोजवानो की कहानी हे, काश यह बच्चे कोई छोटा मोटा काम ही शुरु कर ले जब तक इन्हे मनपसंद नोकरी ना मिले, ताकि अपना ओर अपने परिवार का सहारा तो बन सके
ओह!! ज्वाईंग डेट बीत गई...बहुत दुख हुआ...ऐसा अंत देख.
-भावपूर्ण..कहानी बहुत अच्छी लगी. बधाई
यही ज़िन्दगी है।
बहुत शानदार कहानी है रश्मिजी ! पढ़ कर बहुत आनंद आया ! कहानी के सारे पात्र कितने सच्चे लगते हैं ! वात्सल्य से परिपूर्ण माँ, बेटे के कैरियर के प्रति सतर्क और चिंतित पिता और घर परिवार के हालात को समझते हुए भाई के लिये बिना कोई उफ़ किये अपनी पढ़ाई और सपनों को कुर्बान कर देने वाली संवेदनशील बहन, लगता है ये सब हमारे आस पास से उठाये हुए चरित्र हैं ! कहानी ने मन को अंदर तक भिगो दिया ! देर से पढ़ पाई इसका दुःख है ! लेकिन आपकी रचनाओं को सतही तौर पर नहीं पढ़ा जा सकता इसीलिये आज तक के लिये इंतज़ार कर रही थी ! बहुत ही प्राणवान प्रस्तुति है आपकी ! आभार !
रश्मि जी कहानी पढने के बाद और टिप्पणी करने बाद आपकी आवाज़ में उसे सुनने का लोभ संवरण नहीं कर पाई तो सुनी भी ! प्रिंट मटीरियल और ऑडियो के मटीरियल में काफी अंतर है ! प्रिंट मटीरियल में कहानी का अंत अधूरा है शायद ! आप चेक करियेगा ! वह बहन को परीक्षा दिला कर लौटता है और उसकी नौकरी की जोइनिंग डेट निकल जाती है इसका ज़िक्र प्रिंट मटीरियल में नहीं है ! आपकी आवाज़ में कहानी बहुत ही जीवंत और सम्पूर्ण लग रही है ! मेरी बधाई स्वीकार करें ! अपनी कहानी के प्रिंट मटीरियल को अवश्य चेक कर लें !
पहले सोचा सुन ही लूं फिर डर गया कि शहद सी आवाज कहानी के प्रति मुझे फेयर ना रहनें दे तो ? बस लिंक क्लिक किया और एक अरब आबादी के सत्य को अपनी आंखों पर चुभता हुआ पाया ! ये सब बड़ा ही यातनादाई लगता है पर सच तो है ही ! फिलहाल दोबारा...
वापस जा रहा हूं कुछ कड़वाहट कम करनें की गरज से फिर से कहानी सुनने :)
आपकी लेखनी प्रवाह मयी है और आपकी कथन शैली भी बहुत अच्छी लगी
पर जैसे कि साधना जी ने कहा कहानी यहां पूरी नही छपी ।
अगल-बगल घट रहे का चित्रण, घटनारहित होकर भी अवसादपूर्ण प्रभाव उत्पन्न करने वाला.
हजारो युवाओं की कहानी है यह.. वर्षो से.. बहुत सधी हुई कहानी.. देर से आया आपके ब्लॉग पर अफ़सोस रहेगा.. लेकिन अब नियमित भी रहूँगा..
bahut dino baad kuchh sensible kahani padhi.....thanku.
Bahut Khoob.
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