
एक बार लगातार चार दिन,मुझे एक ऑफिस में जाना पड़ा.वहां मैंने गौर किया कि एक लड़का 'लंच टाईम' में भी अपने कंप्यूटर पर बैठा काम करता रहता है, लंच के लिए नहीं जाता.तीसरे दिन मैंने उस से वजह पूछ ही ली.उसने बताया कि उसे कभी लंच की आदत, रही ही नहीं क्यूंकि वह दस साल की उम्र से अपने स्कूल के लिए क्रिकेट खेलता था.मुंबई की रणजी टीम में वह ज़हीर खान और अजित अगरकर के साथ खेल चुका है.(उनके साथ अपने कई फोटो भी दिखाए, उसने)क्रिकेट की प्रैक्टिस और मैच खेलने के दौरान वह नाश्ता करके घर से निकलता और रात में ही फिर खाना खाता.
उसने एक बार का वाकया बताया कि किसी क्लब की तरफ से खेल रहें थे वे.वहां खाने का बहुत अच्छा इंतजाम था. लंच टाईम में सारे खिलाड़ियों ने पेट भर कर खाना खा लिया और फिर कैच छूटते रहें,चौके,छक्के लगते रहें.कोच से बहुत डांट पड़ी और फिर से इन लोगों का पुराना रूटीन शुरू हो गया बस ब्रेकफास्ट और डिनर.
भारतीय भोजन गरिष्ठ होता है...पर उसकी जगह सलाद,फल,सूप,दूध,जूस का इंतज़ाम तो हो ही सकता है.पर नहीं ये सब उनके 'फौर्मेटिव ईअर' में नहीं होता,तब होता है जब ये भारतीय टीम में शामिल हो जाते हैं.
मैं यह सोचने पर मजबूर हो गयी कि सारे खिलाड़ियों का यही हाल होगा.क्रिकेट मैच तो पूरे पूरे दिन चलते हैं.अधिकाँश खिलाड़ी,मध्यम वर्ग से ही आते हैं.साधारण भारतीय भोजन,दाल चावल,रोटी,सब्जी ही खाते होंगे.दूध,जूस,फल,'प्रोटीन शेक' कितने खिलाड़ी अफोर्ड कर पाते होंगे.? हॉकी और फुटबौल खिलाड़ियों का हाल तो इन क्रिकेट खिलाड़ियों से भी बुरा होगा.हमारे इरफ़ान युसूफ,प्रवीण कुमार,गगन अजीत सिंह सब इन्ही पायदानों पर चढ़कर आये हैं.भारतीय टीम में चयन के पहले इन लोगों ने भी ना जाने कितने मैच खेले होंगे...और इन्ही हालातों में खेले होंगे.

क्या यही वजह है कि हमारे खिलाड़ियों में वह दम ख़म नहीं है?वे बहुत जल्दी थक जाते हैं...जल्दी इंजर्ड हो जाते हैं...मोच..स्प्रेन के शिकार हो जाते हैं क्यूंकि मांसपेशियां उतनी शक्तिशाली ही नहीं.विदेशी फुटबौल खिलाड़ियों के खेल की गति देखते ही बनती है.हमारा देश FIFA में क्वालीफाई करने का ही सपना नहीं देख सकता.टूर्नामेंट में खेलने की बात तो दीगर रही.हॉकी में भी जबतक कलाई की कलात्मकता के खेल का बोलबाला था,हमारा देश अग्रणी था पर जब से 'एस्ट्रो टर्फ'पर खेलना शुरू हुआ.हम पिछड़ने लगे क्यूंकि अब खेल कलात्मकता से ज्यादा गति पर निर्भर हो गया था.ओलम्पिक में हमारा दयनीय प्रदर्शन जारी ही है.
इन सबके पीछे.खेल सुविधाओं की अनुपस्थिति के साथ साथ क्या हमारे खिलाड़ियों का साधारण खान पान भी जिम्मेवार नहीं.??ज्यादातर भारतीय शाकाहारी होते हैं.जो लोग नौनवेज़ खाते भी हैं, वे लोग भी हफ्ते में एक या दो बार ही खाते हैं.जबकि विदेशों में ब्रेकफास्ट,लंच,डिनर में अंडा,चिकन,मटन ही होता है.शाकाहारी भोजन भी उतना ही पौष्टिक हो सकता है, अगर उसमे पनीर,सोयाबीन,दूध,दही,सलाद का समावेश किया जाए.पर हमारे गरीब देश के वासी रोज रोज,पनीर,मक्खन मलाई अफोर्ड नहीं कर सकते.हमारे आलू,बैंगन,लौकी,करेला विदेशी खिलाड़ियों के भोजन के आगे कहीं नहीं ठहरते.उसपर से कहा जाता है कि हमारा भोजन over cooked होने की वजह से अपने पोषक तत्व खो देता है. केवल दाल,राजमा,चना से कितनी शक्ति मिल पाएगी?

प्रसिद्द कॉलमिस्ट 'शोभा डे' ने भी अपने कॉलम में लिखा था कि एक बार उन्होंने देखा था ३ घंटे कि सख्त फिजिकल ट्रेनिंग के बाद खिलाड़ी.,फ़ूड स्टॉल पर 'बड़ा पाव' ( डबल रोटी के बीच में दबा आलू का बडा,मुंबई वासियों का प्रिय आहार) खा रहें हैं.इन
सबका ध्यान खेल आयोजकों को रखना चाहिए...अन्य सुविधाएं ना सही पर खिलाड़ियों को कम से कम पौष्टिक आहार तो मिले.

स्कूल के बच्चे 'कप' और 'शील्ड' जीत कर लाते हैं.स्कूल के डाइरेक्टर,प्रिंसिपल बड़े शान से उनके साथ फोटो खिंचवा..ऑफिस में डिस्प्ले के लिए रखते हैं.पर वे अपने नन्हे खिलाड़ियों का कितना ख़याल रखते हैं??बच्चे सुबह ६ बजे घर से निकलते हैं..लम्बी यात्रा कर मैच खेलने जाते हैं..घर लौटते शाम हो जाती है.स्कूल की तरफ से एक एक सैंडविच या बड़ा पाव खिला दिया और छुट्टी.मैंने देखा है,मैच के हाफ टाईम में बच्चों को एक एक चम्मच ग्लूकोज़ दिया जाता है, बस. बच्चे मिटटी सनी हथेली पर लेते हैं और ग्लूकोज़ के साथ साथ थोड़ी सी मिटटी भी उदरस्थ कर लेते हैं.बच्चों के अभिभावक टिफिन में बहुत कुछ देते हैं अगर कोच इतना भी ख्याल रखे कि सारे बच्चे अपना टिफिन खा लें तो बहुत है.पर इसकी तरफ किसी का ध्यान ही नहीं जाता.बच्चे अपनी शरारतों में मगन रहते हैं.और भोजन नज़रंदाज़ करने की नींव यहीं से पड़ जाती है.यही सिलसिला आगे तक चलता रहता है.