उसकी दुकान नाव्या के कॉलेज के रास्ते में थी. एक दिन, वो केमिस्ट्री प्रैक्टिकल की किताब लेने पहुंची तो पाया ,अरे!! ये तो हुबहू उसके एक पसंदीदा कलाकार सा दिखता है. पर उसके विपरीत बेहद संजीदा. एक पुस्तक पर झुका था. नाव्या को देख भी उस शख्स का चेहरा निर्विकार सा ही रहा. अपने सहायक को पुस्तक निकालने के लिए कहकर, पुनः अपनी किताब पर झुक गया. नज़रें झुकाए-झुकाए ही पैसे लिए और बाकी पैसे काउंटर पर रख दिए. उसे कहीं झटका सा लगा. इस छोटे से शहर में उसकी 'होंडा सीटी' ही बहुत रुतबा जमा जाती थी और उस पर उसकी खूबसूरती की कोई अवहेलना कर सकता था,भला. इसके बाद भी जतन से संवारा गया सुरुचिपूर्ण रूप किसी की भी आँखों को झपकने में कुछ समय लगा ही देता था. प्रोफेसर्स तक एटेंडस लेते वक़्त एक नज़र उस पर जरूर डाल लेते. उसे भी उन सबकी इस आदत की खूब खबर थी...और वो 'येस सर' बोलते ही अदा से सर घुमा...खिड़की के बाहर देखने लगती या फिर झुक कर किसी सहेली से बातें करने लगती. किसी भी दुकान पर उसकी कार रुकती और दुकान वालों में हड़बोंग मच जाती...."ये देखिए मैडम बिलकुल आज ही आया है....आपके लिए ही रख छोड़ा था...किसी को दिखाया तक नहीं...बस आपके लिए ही है"
और ये मिटटी का माधो!!....निगाहें चुरा कर देखा..कौन सी किताब है ऐसी भला...जिसने उसकी निगाहें इस तरह चस्पां कर रखी हैं. जरूर कोई जासूसी नॉवेल होगा ...लेकिन पाया कि वो तो बिजनेस मैनेजमेंट की कोई बोरिंग सी किताब थी. तो फिर??...वो चौंकी..हुहँ तो ये बात है...उसे नज़रंदाज़ कर रहा है....ठीक है..देखती है वो भी...और हर चार दिन बाद उसके रैक में कोई नई किताब नज़र आने लगती ... एक सहूलियत यह भी थी कि उसकी दुकान में कोर्स बुक से अलग, दूसरी किताबें भी थीं. वैसे जब उसे कुछ नहीं सूझता तो डिक्शनरी ही खरीद कर ले आती. अब उसके जेब खर्च का बड़ा हिस्सा किताबों पर ही खर्च होने लगा...पर वो चिकना घड़ा...चिकना घड़ा ही बना रहा. वही किताबों पर झुकी, काली घुंघराली लम्बी पलकें...(सोचती किसी लड़की की ऐसी पलकें होतीं तो ना जाने कितने गीत लिख दिए होते किसी ने, उस पर ....और कितना समय लगाती वो उन्हें काजल की रेखाओं से संवारने में ) और ख़ुदा ना खास्ते कभी उसके हाथों में किताब नहीं होती तो सामने सड़क पर देखते हुए...गंभीरता से जबाब देता. वो जरा रौब से बोलती..."ये किताब नहीं है..?"
"नहीं..."...एक सपाट सा स्वर आता.
इधर उधर नज़रें घुमा खीझ भरे स्वर में बोलती..."अजीब बात है.....इतनी सारी किताबें हैं...पर जो मैं ढूंढ रही हूँ...वो नहीं है..."
उसकी इन बातों पर भी वह कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करता. जैसे उसका कोई सरोकार नहीं है,इन सबसे. भावहीन चेहरा लिए सामने देखता रहता. अपमानित सी ..बात संभालने को वो किसी और किताब का नाम पूछ बैठती....यदि वो किताब होती,..तो अपने सहायक को आवाज़ दे ,निकालने को कहता...या फिर वैसे ही सामने नज़रें जमाये कहता.,.."नहीं है"
कभी कभी दिनों तक नहीं जाती. सोचती...'देखती हूँ..इतने दिनों बाद जाने पर कोई भाव तो उसके चेहरे पर दिखने चाहिए. उल्लासित सी सीढियों पर अपनी पेन्सिल हील जोरों से खटखटाती .....चौंक कर देखेगा..तो आँखों में अनायास आए भाव जरूर पकड़ में आ जायेंगे. आहट सुन,चौंकता तो जरूर पर आँखें उसी गहरी उदासी में डूबी हुई सी लगतीं. ..जैसे इस दुनिया का वासी नहीं है,वह...उसे कोई सरोकार नहीं,अपने आस-पास से...सब कुछ एक असम्पृक्त भाव से देखता हुआ. लेकिन वह भी हार नहीं मानने वाली...उसे इस दुनिया में वापस लौटने को मजबूर करके रहेगी....हालांकि अब बुरी तरह ऊब चुकी थी वो..हर हफ्ते एक नई किताब लाती और जोर से पलंग पर पटक देती....मानो इन किताबों का ही कुसूर हो...इतने दिन उसके आस-पास रहकर भी उसे कुछ नहीं सिखा सके. मन ही मन खीझ उठती...' सोचता होगा...देखें कबतक आती है?....देखते रहो बच्चू .. चाहूँ..तो तुम्हारी सारी दुकान खरीद लूँ...समझते क्या हो...शाहर के सबसे अमीर लोगों में से एक हैं. डैडी....'
लेकिन ये अमीरी ही तो अभिशाप है उसके लिए...डैडी से तो खैर उनके व्यस्त समय का एक टुकड़ा पाने की चाह भी आकाशकुसुम सी है..पर माँ!!...अगर डैडी को दोनों हाथों से धन बटोरने का शौक था तो माँ को लुटाने का. जाने कितनी ही सामाजिक संस्थाओं की सदस्या या अध्यक्षा थीं माँ....हमेशा कोई ना कोई कार्यक्रम चलता रहता...आज नेत्र चिकित्सा का शिविर लगा है...तो कल बालिकाओं की शिक्षा सम्बन्धी...,माँ बढ़-चढ़ कर सबमे हिस्सा लेतीं...उसे कहीं अच्छा भी लगता...'माँ..सिर्फ साड़ियों-जेवरों और पार्टियों में ना उलझ कर अपने समय का सार्थक उपयोग कर रही हैं.' पर उसके हिस्से का समय भी इन सब कार्यक्रमों की भेंट चढ़ जाता ....ये कसक उसके मन में बनी रहती.
वह माता-पिता के बीच पेंडुलम सी डोलती रहती. डैडी के सामने कभी पड़ जाती तो डैडी पूछ बैठते..."कुछ चाहिए बेटे...पैसे हैं?? मैं...( कलकता,दिल्ली,बैंगलोर ) जा रहा हूँ...कुछ मंगवाना है वहाँ से.."
"नहीं डैडी...कुछ नहीं चाहिए..." वो मीठी सी मुस्कराहट के साथ कह देती...पर मन तिक्त हो जाता....ये नहीं कह पाती...'डैडी थोड़ा सा आपका समय चाहिए...आपके साथ अखबार की ख़बरें डिस्कस करनी है....कॉमेडी शो देखकर हँसना है....साथ में बगीचे में पानी देना है...सुबह की भीगी घास पर टहलते हुए..या छत पर ठंडी हवा के झोंको के साथ....आपसे, आपके स्कूल-कॉलेज..आपके बचपन...के किस्से सुनने हैं.." और ये सब सोचते रोष उमड़ आता...डैडी बस सोचते हैं..'रुपये दे दिया...उनकी जिम्मेवारी ख़तम....जी में आता जितने भी पैसे हैं पास में...दे मारे फर्श पर...क्या करेगी वो रुपयों का...बड़े शहर में होती तो शायद इनके सहारे ही कुछ झूठी हंसी-मुस्कुराहटें ही खरीदने की कोशिश करती...कितना कहा..'हॉस्टल में रहकर पढूंगी'..लेकिन नहीं..इकलौती लाडली बेटी को कैसे दूर रखेंगे भला...दूर??..क्या दूरी सिर्फ मीलों ..किलोमीटर में ही नापी जाती हैं....हज़ारों किलोमीटर दूर विदेश में बसे उसके दोस्त जितना करीब हैं उसके...एक ही छत के नीचे रहते ये परम स्नेहिल माता-पिता हैं??
माँ ...बगल के कमरे से जिनकी साँसें भी सुन सकती हैं...वो माँ ही कितने करीब हैं उसके? अनाथाश्रम में कितनी ही बिन माँ की बच्चियों के हर सुख-दुख का ख्याल रखती हैं...पर उनकी अपनी बेटी किस अकेलेपन से जूझती है..इसका ख्याल कभी आता है,उनके मन में? .......महीनो....जो घंटों-दिनों-हफ़्तों की शक्लों में खींचते चले जाते हैं...जब भी नज़र पड़े...माँ का एक ही सवाल होता....."खाना खाया"...चाहे दिन के तीन बज रहे हों या रात के ग्यारह...और वो मारे गुस्से के दो-दो दिन सिर्फ कड़वी कॉफी पर काट देती.
कभी-कभी बड़ी विह्वलता से सोचती...काश! उसके भी कोई भाई-बहन होता तो शायद इस घर में रहना उसके लिए आसान हो जाता. पर फिर सोचती...कितनी स्वार्थी है वह...उस बेचारे को भी तो यही सब भुगतना पड़ता.
कोई सच्ची दोस्त भी तो नहीं बनती उसकी.....कहने को तो ढेरों सहेलियाँ उसे घेरे रहती हैं...उसकी हर बात पे हंसी की लहरें मचल; पड़ती हैं. पर असलियत उसे पता है..सबके बीच उसकी सबसे अच्छी सहेली दिखाने की होड़ लगी होती है.. सब चापलूसी भरे स्वर में उसकी हाँ में हाँ मिलाती उसके आगे-पीछे घूमती रहती हैं. स्टेटस की बात छोड़ भी दें तो उसके मानसिक स्तर तक भी पहुंचन सबके लिए मुमकिन नहीं....अधिकांश लडकियाँ पढ़ाई को टाईमपास की तरह लेतीं....किसी ऊँचे ओहदे पर कार्यरत लड़के को पाने के लिए एक डिग्री लेने की चाह में थी, उनकी ये पढ़ाई. कुछ पढ़ाई में गंभीरता से रूचि लेने वाली थीं भीं तो वे बस किताबी कीड़ा ही थीं. उन्हें बाहर की दुनिया की कोई खबर नहीं होती . जबकि उसे दुनिया की हर गतिविधि में रूचि थी...और ऐसे में बड़ी शिद्दत से याद आती कृतिका...बस इंटर में ही उसका साथ था. दो साल के लिए उसके पिता का ट्रांसफर इसी शहर में हुआ था. कृतिका बिलकुल उस जैसी थी...किताबें पढना...गज़लें सुनना..फिल्मे देखना...और पढ़ाई भी करना...कृतिका के साथ ने ही उसे उसकी अपनी हंसी से परिचय कराया...उसे पता ही नहीं था..इतना खुलकर हंस सकती है वो.
उसकी निर्झर सी हंसी देख कृतिका....छेड़ जाती..."बस औरों के सामने ना हँसना यूँ...चारो तरफ से छन-छन की आवाजें आने लगेंगी.."
वो अबूझ सी भृकुटी चढ़ा पूछती ,तो कृतिका कह उठती...'दिलों के टूटने की आवाज़ स्टुपिड.."
'हह..दिल होते हैं आजकल लोगो के पास...जो टूटें.."
"समय आने पर पता चलेगा..मैम..और तब पूछूंगी.."
कृतिका के साथ समय पंख लगा कर उड़ जाता..पर पता नहीं था...उन पंखों की गति इतनी तेज़ थी कि वो उनके साथ के समय को ही उड़ा कर ले जाएगा. कृतिका चली गयी....कुछ दिनों तक..फोन...इंटरनेट के सहारे दोस्ती बनी रही...पर समय के साथ कृतिका को नए दोस्त मिल गए....उसका उत्साह वैसा ही बना रहता..पर कृतिका की ओर से ठंढेपन का अहसास होता और सारे तार तोड़ लिए उसने...नहीं चाहिए किसी की हमदर्दी भरी दोस्ती....उसके पास अकेलापन है....लेकिन है तो है...वो जबरदस्ती तो किसी को बाँध कर नहीं रख सकती. वह बराबर जमीन पर ही मिलना चाहती है ,किसी से....ना चाहती है कि एक सीढ़ी भी नीची रहे...ना ही एक सीढ़ी ऊपर रहने की ही कोई ख्वाईश है.
जाने क्यूँ ,आज बड़ी तीव्रता से याद आ रहा था, सब कुछ....गले के नीचे कुछ चिपचिपाहट सी लगी. सर उठा कर तकिये पर हाथ फेरा....ओह!! ना जाने कब से आँसू बह-बह कर तकिया गिला कर रहे थे.
झटके से उठी और सीधा शॉवर के नीचे जाकर खड़ी हो गयी. देर तक ठंढे पानी कि बौछारें पड़ती रहीं...तब दिमाग कुछ सोचने समझने लायक हुआ...ओह! तो अब घुटन इतनी बढ़ गयी है कि ये आँसू हमराह हो गए हैं,अब उसके. अब तक ..गाहे-बगाहे..ऐसे ख्याल आते तो रहे हैं पर एक अनाम गुस्सा ही पलता रहता भीतर. जी में आता...सब तोड़-फोड़ डाले...तहस नहस कर दे...वे किताबें...वो फूल दान...वो सी डी...पर इस तरह असहाय होकर कभी रोई तो नहीं. फिर आज क्यूँ...क्यूँ आखिर....कहीं उस किताबवाले की बेरुखी ने तो असर नहीं कर डाला...और सर झटक डाला,उसने...'नॉनसेंस..इट्स औल रब्बिश......ही कैन गो टू हेल...उसकी परवाह करेगी वो??..उस जैसे छोटे आदमी की??... उसे बहुत शान है क्या....कि सबसे बड़ी दुकान उसकी ही है, इस शहर में.....और उस पर 'एच .पी. शाही'. जैसी नामी गिरामी हस्ती की बेटी यूँ दौड़ दौड़ कर आती है. हुंह! माइ फुट!..अब एक बार भी नहीं जायेगी...बहुत जरूरी हुआ तो किसी फ्रेंड के मार्फ़त मंगवा लेगी...ना हो..ड्राइवर से मंगवा लेगी, पर पैर नहीं रखेगी उसकी दुकान पर.
चैटर्जी सर ने ऑर्गेनिक केमिस्ट्री में टी. शर्मा की किताब लेने को कहा...उस दुकान के सामने पहुंचते ही...वो यंत्रवत ड्राइवर से बोल उठी...." यहाँ रोकना जरा..."
दरवाजे के हैंडल पर हाथ रखा ही था कि याद आया..."उसे तो नहीं जाना ना.."
हाथ हटा लिया..."ना ड्राइवर से ही मंगवा लेती है"
लेकिन ड्राइवर क्या जानने गया..."ऑर्गेनिक या फिजिकल केमिस्ट्री..कहीं उसे बेवकूफ बनाने को दूसरी पुस्तक पकड़ा दी तो?...गाड़ी तो पहचान ही गया होगा...और एक ही झटके से गाड़ी से उतर कर जोर से दरवाज़ा बंद कर दिया...." हुंह ! वो क्यूँ परवाह करे किसी की ..."
और खटाखट सीढियां चढ़, हाथ बांधे, चेहरे पर अतिव्यस्तता का मुखौटा लगाए, पूरी गंभीरता से बोली..."टी शर्मा की ऑर्गेनिक केमिस्ट्री है क्या?"
वह किताबों के बीच कुछ ढूंढ रहा था....हलके से चौंक कर मुडा...पल-भर को निगाहें मिलीं....ओफ्फ़!! किस कदर उदास हैं ये आँखें....ये बस जन्म से ऐसी ही हैं...या इनके पीछे कोई कहानी छुपी हुई है. किसका सीना ना चाक कर दे ..उदासी के गह्वर में डूबी ये आँखें..चेहरे पर बच्चों सी मासूमियत...और आँखें ऐसीं जैसे ना जाने कितने वसंत देख चुकी हों ...और आज तक बस खोया ही खोया हो. उसकी तनी हुई नसें थोड़ी ढीली पड़ने लगीं कि ख्याल आया उसे तो नाराज़गी दिखानी है...फिर से अकड़ कर सीधी खड़ी हो गयी.
वह कुछ क्षणों तक होठों को तर्जनी से थपथपाता रहा, फिर बड़ी नम्रता से बोला...."आsssप एक मिनट ठहरें....मैं बगल से मंगवा दे रहा हूँ. "अरे ये क्या सचमुच टेलीपैथी का कोई अस्तित्व है?....इसे कैसे खबर हो गयी...उसके मूड की...आज तक तो कभी इतनी रियायत नज़र नहीं आई. 'नहीं' शब्द छोड़कर आज तक दूसरा सुना ही नहीं...और आज तो ये पूरा वाक्य बोल गया. अगर किताब होती तो उसे से नहीं..दुकान में काम करने वाले लड़कों से कहता....निकाल कर देने को...और नहीं होती तो सिर्फ एक 'सपाट' नहीं .
उसके चेहरे की कठोरता कम पड़ने लगी लेकिन उसने जल्दी से फिर से वही सख्त भाव ओढ़ लिए और कड़क कर पूछा, "देर लगेगी?"
"नहीं..नहीं.." उसने फिर बड़ी नम्रता से सर हिलाकर कहा..जैसे किसी दूसरे जहां से बोल रहा हो..." बिलकुल पास ही है...रामेश्वर देखना तो चौधरी बुक डिपो में हो शायद....थी मेरे पास भी..पर ख़त्म हो गयी..." वैसे ही होठों को तर्जनी से थपथपाता अपनी जगह खड़ा रहा...ना तो उसने कोई किताब उठायी ना ही खुद को कहीं और व्यस्त किया.
उसका सारा तनाव ढीला पड़ गया....हल्का सा दीवार का सहारा लिए पीठ टिका दी....हाथ...सामने कौर्निस पर रखा और तुरंत ही समेट लिए..क्या पता...सोचे अपने लम्बे-लम्बे पेंटेड नाखून दिखा रही है..."
(क्रमशः)
25 comments:
प्यार या पैसा, हर स्तर पर एक कशमकश मची है। दुविधा का सुन्दर चित्रण।
कहानी का यह भाग रोचक है। ऐसी जगह आपने ब्रेक दिया है कि अगले भाग का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा।
दूसरा भाग यथा शीघ्र आना चाहिए ...
:)
कितने दिनों बाद आख़िरकार एक नयी कहानी..
लव स्टोरी लग रही है इस बार..
नाम बहुत पसंद आया मुझे - नाव्या!!
Aage kee bahut utsukta hai!
अक्सर चिराग तले ही अँधेरा होता है । अमीर घरों में यही होता होगा । लेकिन अमीर लड़कियों को इतना असहाय तो नहीं देखा । शायद छोटे शहरों में ऐसा होता हो ।
फ़िलहाल कहानी धाराप्रवाह चल रही है । दिलचस्प !
हाथों की लकीरों सी उलझी ज़िन्दगी का सच है यहाँ ... इसे कहानी कहने को जी नही चाहता... :)
सुन्दर चित्रण ........
कहानी दिलचस्प लग रही है रश्मि जी ! अति धनाढ्य घरों में जहाँ माता पिता का वक्त बिजनेस और सामाजिक सरोकारों के नाम समर्पित होता है बच्चों को इसी तरह माता पिता के प्यार, समय और संरक्षण की चाह में घुटते हुए देखा है ! कहानी के नायक का विरक्तिपूर्ण आचरण भी उत्सुकता जगा रहा है ! अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी ! आशा है बहुत इंतज़ार नहीं करवायेंगी !
बहुत रोचक.अगले भाग की प्रतीक्षा है.
घुघूती बासूती
suspense me chod de aapne kahani
aankhen bhar aayi hamari bhi
बेहतरीन रोचकता के साथ शुरु हुई है कहानी....
रोचक कहानी की शुरुआत !
कहानी अच्छी चल रही थी पर अचानक ब्रेक ने तारतम्य बिगाड़ दिया. अब जल्दी से बाकी भी पोस्ट कर डालो.
रश्मी जी,
आपके इस कहानी "हाथों की लकीरों सी उलझी जिंदगी..." की चंद पंक्तियों को काव्य मंच पर लिंक किया गया है |
काफी इंतज़ार के बाद नयी कहानी.... शुरुआत काफी अच्छी लगी, देखें आगे क्या होता है...
paise se simti zindagi... ab aage
तुम्हारी कहानियो के तो हम कद्रदान है ही जानती हो बस ये बताओ अगला भाग कब लगा रही हो…………तुम्हे पता है सब्र नही होता जल्दी लगाना।
बहुत रोचक कहानी लिख रही हैं आप, अगले भाग की प्रतीक्षा रहेगी>
वैसे प्रेम कहानियां लिखने और पढ़ने का अपना ही मजा है न
Nice story.......please don't make it a tragedy.
बहुत रोचक कहानी लगी यह ....आगे क्या हुआ जानने का इन्तजार है ....पैसा आज कल महान है ...
can't wait to see what happens next.
बहुत ही रोचक कहानी लगती है ......
hmmmmmmmmmmm.........तो पोस्ट कर ही दी कहानी. मैं सोच ही रही थी कि अब तुम्हें कहानी पोस्ट करने के लिये मनाने की शुरुआत कर दूं :)
फिलहाल कमेंट पढ के जा रही हूं. कहानी पढना अभी बाकी है मेरे दोस्त :):)
रात को इत्मीनान से पढती हूं.
उलझी जिंदगी कैसे सुलझेगी इसकी प्रतीक्षा है...
धनाड्य परिवारों के बच्चों का साझा दुख है ये. इन परिवारों की महिलाएं हमेशा समाज-सेवा में ही व्यस्त रहती हैं और बच्चे उपेक्षित हो जाते हैं. जहां एक अकेला बच्चा हो, वहां समस्या बढ जाती है. बहुत सटीक चित्रण किया है तुमने नव्या के अकेलेपन का.
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