Saturday, August 20, 2011

हाथों की लकीरों सी उलझी जिंदगी. ..(3)

(नाव्या का एक्सीडेंट हो जाता है...और उसे हॉस्पिटल लेकर रितेश नामक एक युवक आता है...जिसकी किताबों की दुकान से वो किताबें लिया करती थी पर रितेश की आँखों में उसके लिए कोई पहचान नहीं उभरती थी. )


दूसरे दिन से ही जैसे जैसे लोगो को पता चलता गया...लोगो का हुजूम उसके अस्पताल के कमरे में जमा होता गया. सुबह से डैडी के दोस्तों का...रिश्तेदारों का जमघट लगा रहा...ऑफिस जाने से पहले...सब लोग हॉस्पिटल का एक चक्कर लगाते जा रहे थे....माँ रटे-रटाये से सारे वाकये दुहराए जा रही थी...और बार-बार भगवान का शुक्र अदा कर रही थी...साथ में रितेश का जिक्र भी जरूर कर जाती....और वो होठों पर अनायास आए ,मुस्कान को...जबरन छुपाने की कोशिश में लग जाती..कहीं किसी की नज़र ना पड़ जाए.

ग्यारह बजे के बाद से....माँ की सहेलियों...पास-दूर के रिश्तेदार महिलाओं....पापा के दोस्त की पत्नियों का आना शुरू हो गया. खीझ होने लगी उसे....यहाँ विजिटिंग आवर्स के नियम भी तो नहीं...कि लोग-बाग़ बस समय पर ही आएँ....बीच बीच में नर्स सबको बाहर कर देती....पर उनलोगों के सामने...नाश्ता करना -खाना सब भी बड़ा अजीब लगता. कई बार तो वो आँखें मूंदें सोने का बहाना करती रहती. पर फिर देखती...वो तो उपेक्षित सी ही पड़ी है...दो-दो तीन के ग्रुप में आंटियां आतीं और माँ के साथ गप्प में मशगूल हो जातीं. बस मुश्किल से पांच मिनट उसकी बात होती...फिर दुनिया जहान के किस्से....और वो थोड़ी देर तो ओह-आह करती,फिर भी कोई ध्यान नहीं देता...तो माँ से झूठ-मूठ को कभी पानी पिलाने के लिए कहती,तो कभी चादर ठीक कर देने को.

तीन बज रहे थे....अभी कोई नहीं था, कमरे में. माँ भी पास के कॉट पर लेटी हुई थीं....शायद उन्हें नींद आ गयी थी...बहुत ही हलके खर्राटे गूँज रहे थे...माँ आराम से सो भी तो नहीं पा रहीं. उसे नींद नहीं आ रही थी...यूँ देर तक सीधे लेटे  रहना बहुत ही कष्टकर लग रहा था. पता नहीं और कितने दिन लग जायेंगे ठीक होने में...अच्छी भली मुसीबत हो गयी...फिर सोचती चलो जाने दो...उसे थोड़ी सी चोट ही आई....कुछ असुविधा हो रही है..पर वो बच्चा तो बच गया....कहीं उसे कुछ हो जाता तो क्या वो पूरी जिंदगी चैन की नींद सो पाती?...पता नहीं कितना बड़ा बच्चा था...कौन था...उसने तो बस होश आने के बाद लोगो की बातों से जाना...पर उसके बच जाने की सोच एक सुकून सा महसूस हुआ और दर्द कम होता सा लगा. 
तभी, कमरे का पर्दा हटा कर किसी ने झाँका....हाथों में छोटा सा गुलाबों का गुलदस्ता था. पहले तो फूलों पर ही नज़र पड़ी...फिर नज़रें ऊपर कीं...तो देखा..रितेश था. कमरे में ऐसी खामोशी और हल्का सा अँधेरा देख वो असमंजस सा दरवाजे पर ही खड़ा था. उसने ही हाथों से थोड़ी चादर सरकाई...और कहा.."आ जाइए..मैं जाग ही रही हूँ"

दबे कदमो से उसके बिस्तर के पास आया और झिझकते हुए से गुलदस्ता थमा...एक धीमा सा 'हाय ' कहा.

वो भी फूल थामते हुए..प्रत्युत्तर में बस.."थैंक्स" ही कह पायी. फूल बगल में रखते हुए उसने कुर्सी की तरफ बैठने का इशारा किया.
'ना ठीक हूँ मैं.".. कहते हुए...उसने बेड के सिरहाने की तरफ हाथ टिकाया..और पूछा.."अब कैसी हैं आप?"

उसका इतना निकट होना, अजीब सा लग रह था.....बहुत ही असहज महसूस कर रही थी..कहा, "ठीक हूँ" 

अब दोनों ही चुप थे. दीवारें शांत....परदे खींचे हुए थे...कमरे में घड़ी भी नहीं थी...कि उसकी टिक-टिक ही कम से कम इस सन्नाटे में कॉमा ..फुलस्टॉप  लगाती रहे. अपनी साँसों की आवाज़ भी सुन पा रही थी ,एक बार लगा......कहीं रितेश को भी तो नहीं सुनायी पड़ रही हैं...और धीमी कर ली साँसें....थोड़ी देर यूँ ही चुप्पी छाई  रही..शायद उसे भी समझ नहीं आ रहा था...क्या बोले..क्या पूछे....आखिरकार उसने ही गला साफ़ करते हुए कहा, "आप प्लीज़ बैठिये ना....यूँ खड़े क्यूँ हैं"

उसने भी उसकी बात मान..एकदम धीमे से बड़े एहतियात से कुर्सी खिसका कर उसके बेड के करीब लाने की कोशिश की . पर इतनी धीमी आवाज़ ने भी माँ की झपकी में खलल डाल दी..और वे हडबडा कर उठ बैठीं...फिर रितेश को देखते ही जैसे खिल  गयीं...."अरे तुम कब आए... बेटा?"

अरे वाह...'बेटा' का संबोधन..बस एक ही मुलाकात में...मन ही मन चौंकी वो..पर माँ के उठ जाने से जैसे दोनों को राहत मिल गयी....रितेश के चेहरे पर भी एक चौड़ी मुस्कान खींच गयी.."बस आंटी अभी आया ही था...आपको जगा दिया ना....आप आराम कीजिए ना प्लीज़...थक गयी होंगी  "

शुक्र है..माँ ने उसकी बात नहीं सुनी..वर्ना फिर दोनों अकेले पड़ जाते..और फिर बात क्या करते..."अरे नहीं...बैठे-बैठे क्या थकना..." बोलीं माँ.

"तुम तो बस हमारे लिए जैसे भगवान के दूत ही बन कर आए हो...."

"ओह! आंटी....फिर मत शुरू कीजिए....कोई भी मेरी जगह होता...तो यही करता.."

"अरे नहीं बेटे...मैने ज़माना देखा है...लोग मजमा लगाए खड़े होते हैं...ऐसा नहीं कि कुछ करना नहीं चाहते...पर आगे कौन बढे...कैसे क्या करे...ये लोगो की समझ में नहीं आता...क्विक डिसीज़न बहत जरूरी होता है...और वो तुमने किया..तो तुम्हे श्रेय तो मिलना ही चाहिए"

"क्या कहते हैं डा. ...कोई गंभीर चोट तो नहीं.." रितेश ने एकदम से बात बदल दी.
'गंभीर तो नहीं बता रहे..पर इसका बुखार नहीं जा रहा....शायद एक दो दिन लगे संभलने में...पूरा शरीर हिल गया ना..अंदर तक दहल गयी होगी...समय तो लगेगा ही"
लो फिर उसे सब भूल गए...यहाँ सब आते हैं,उसे देखने...पर उसे ही भूल जाते हैं...फिर से उसने अपनी तरफ ध्यान खींचने  को जोर से कहा.."माँ...ये फूल उधर टेबल पर रख दो ना..चुभ रहे हैं.."

"फूल भी...चुभ रहे हैं?...." एक शैतानी भरी मुस्कराहट के साथ रितेश ने धीमे से कहा...अच्छा तो ये मिटटी का माधो नहीं है...बोलना भी आता है...इसे..

"और क्या..यहाँ पास में पड़ा हुआ.....अनकम्फर्टेबल लग रहा है ना...और फिर मुरझा भी तो जायंगे.."और उनके बीच की जमी बर्फ पिघल गयी....

रितेश मुस्कुरा कर चुप हो गया.

माँ ने फूल लेकर टेबल पर रख दिया..."अरे बेटा...इस  फॉरमेलिटी की क्या जरूरत थी...." ..ये माँ भी ना....जैसे उनके लिए लेकर आया है...पहली बार तो जिंदगी में किसी ने उसे फूल दिए हैं...और फिर रुआंसी हो गयी...'वो भी हॉस्पिटल में.."

"वो तो आंटी बस ऐसे ही..." 

"अच्छा बताओ बेटा.. क्या करते हो....?"..माँ तो सब भूल जाती हैं..... बताया तो था कि किताबो की दुकान है उसकी.

"आंटी मैने...सिविल सर्विसेज़ का इम्तहान दिया है..रिटेन तो क्वालीफाई कर गया हूँ...अभी इंटरव्यू बाकी  हैं"

उसने एकदम से मुड कर उसे देखा....और रितेश ने भी उसी पल उसकी तरफ देखा...आँखें मिलीं...और जैसे आँखों में ही बात हो गयी..जैसे उसकी आँखों ने कहा हो.....'अच्छा! मैं तो तुम्हे...किताब की दुकान वाला समझती थी"...और रितेश की आँखों ने जबाब दिया हो.."मुझे पता था...तुम मुझे एक दुकानदार ही समझ रही थी.."

फिर उसने नज़र सामने कर ली...रितेश ने भी माँ की तरफ चेहरा घुमा लिया और जैसे उसकी जिज्ञासा पूरी तरह शांत करने के लिए बोला..."ये मेरे चाचा जी की किताबों की दुकान है...चाचा इन दिनों कुछ बीमार हैं...तो मैं आजकल दुकान पर बैठता हूँ...किताबों की दुकान में ज्यादा भीड़ तो होती नहीं...सो बैठ कर पढता रहता हूँ.."


"बहुत बढ़िया बेटा...तुम्हारे इतने अच्छे कर्म  हैं....तुम जरूर कामयाब होगे...दिल से मेरी दुआ है..तुम सफल हो जाओ."


"बस आंटी...बड़ों की दुआ चाहिए और क्या..."

फिर दरवाजे पर खटखट हुई...और जीवन काका हाथों में बास्केट लिए अंदर  आए..."कैसी हो बिटिया...कैसा चेहरा मुरझा गया है...ताज़ा जूस निकाल कर लाया हूँ..तुम्हारे लिए..पी लो..तबियत हरी  हो जायेगी"
और वो बास्केट से फ्लास्क निकालने लगे...मालकिन आपके लिए थर्मस में चाय भी लाया हूँ.."


"हाँ मैं सोच ही रही थी कि अब आपको आ जाना चाहिए.."

"अरे हम तो मुला घड़ी ही देखत रहे...लछमी भी गैस अगोर कर ही बैठी थी..चाय बनाने  को.."
"नाव्या... तुम जूस पी लो..फिर हमलोग चाय पीते हैं.."
"अभी नहीं..."
"अब यहाँ हॉस्पिटल में नखरे नहीं...जब जो दिया जाए....खा लिया करो.."..माँ ने सख्ती से कहा.
"अच्छा तो ये नखरे भी करती हैं..." रितेश दबी हुई मुस्कान के साथ बोला..
"अरे पूछो मत....जब भी खाने के लिए पूछो....सिर्फ एक ना..."..माँ अपनी ही धुन में बोले जा रही थीं.

मन हुआ बोले..' माँ खाना छोड़कर तुमने आजतक और किसी चीज़ के लिए पूछा है,कभी....वो भी चुपचाप खा लेती...तो फिर कोई संवाद ही नहीं होता,हमारे बीच....इस ना...और तुम्हारी डांट के साथ दो चार जुमले तो हमारे बीच बोले जाते कम से कम.

उसे यूँ सोच में डूबे देख..रितेश बोल पड़ा..." जूस पीने से इतना क्यूँ डर रही हैं..एम श्योर..कोई करेले का जूस नहीं होगा.."

"यक..सुन कर ही मुहँ कड़वा हो गया...कैसे पीते हैं लोग.." इतने सहज रूप से बात हो रही थी...लगा ही नहीं अभी कुछ समय पहले दोनों...शब्दों के अभाव में छत और दीवारें तक रहे थे.

रितेश ने बेड ऊपर करने में माँ की सहायता की...वो संकोच से गडी जा रही थी...अधलेटे होकर उसने जूस का ग्लास थाम लिया और जीवन काका से उनलोगों के लिए चाय निकालने के लिए कहा..

'अच्छा बिटिया."..कह कर वो बढे ही थे कि माँ ने जरा जोर से ही कहा.."ना पहले तुम जूस ख़त्म करो...फिर हम चाय पियेंगे"

"माँ, बीमार हूँ, मैं ...और तुम इतना डांट कर  बात कर रही हो....प्यार से बोलो ना....":उसने झूठे गुस्से से थोड़ा ठुनक कर कहा...

"ओहो!! मेरी रानी बेटी..जूस पी लो.. "..माँ ने इतनी नाटकीयता से कहा...कि वो और रितेश साथ ही हंस पड़े...माँ भी हंसने लगी.

और उसी वक़्त डा. समीर ने कमरे में ये कहते प्रवेश किया..."क्या बात है...सीम्स माइ पेशेंट इज डूइंग वेल..गुड़..गुड़.."

समीर को देखते  ही वो सहम कर चुप हो गयी और नज़रें झुका ली...

"ये क्या बात हुई...आप इतना डर क्यूँ जाती हैं...आज इसीलिए मैं राउंड पर निकलने से पहले यहाँ आया...इस तरह डरती रहेंगी तो हमारी दवा असर नहीं करेंगी...और फिर ज्यादा दिन रहना पड़ेगा यहाँ"

"नहीं...मुझे दवाइयां...इंजेक्शन...हॉस्पिटल..डॉक्टर..सबसे बहुत डर लगता है"....डर सचमुच उसकी आवाज़ में उतर आया था.

"हा हा...ओके ओके..." कहते गले में पड़ा स्टेथोस्कोप डा. समीर ने उतार कर हाथों में नीचे ले लिया..."अब तो नहीं दिखता मैं डा.?...ठीक है?"

उनकी इस हरकत पर उसके होठो पर मुस्कराहट आ गयी....

"दैट्स  लाइक अ गुड़ गर्ल ...डॉक्टर भी इंसान ही हैं....हमेशा इंजेक्शन ही नहीं लगाते रहते"

"चाय लेंगे ..डॉक्टर साब.."..माँ ने पूछा...जीवन काका ने चाय प्यालों में निकाल ली थी.

डा.समीर माँ की तरफ मुड़े...और थर्मस और प्याले पर नज़र पड़ते ही..बोल उठे.."अरे वाह!! घर की चाय...क्यूँ नहीं...घर की बनी किसी चीज़ को मैं कभी ना नहीं कहता...सालों से घर से बाहर हूँ..कप में चाय पीने की आदत ही जाती रही.."

रितेश ने मना कर दिया...तो माँ से पहले...डा.समीर ही बोल पड़े..."अरे हमारा साथ दीजिये..आंटी, इतने प्यार से पूछ रही हैं...क्यूँ काका चाय है ना सबके लिए"

"अरे बहुत है ,सर ..पाँच कप से ज्याद ही  होगा...हमको पता था...हॉस्पिटल  में तो लोग मिलने को आते ही रहते हैं..तो मालकिन,अकेले कैसे पियेंगी....ए ही सोच थर्मस भर कर लाए हैं.." जीवन काका किसी को भी इज्जत देने के लिए सर कह कर बुलाते थे...और इस पर वह उनकी बहुत खिंचाई करती थी..पर अभी चुप रही.

"तब तो मैं एक कप और पिऊंगा..."डा-समीर ने हँसते हुए कहा...और वो हैरान रह गयी...शायद रोज़ इतने लोगो के   संपर्क   ने इतना बेतकल्लुफ बना दिया है, इन्हें...या फिर ये उनके स्वभाव में शामिल है...इनकी तो बातों से ही मरीज़ की आधी बीमारी दूर हो जाती होगी.इतनी आत्मीयता से अजनबियों से भी बाते करते हैं... उसका भी डर धीरे-धीरे जाता महसूस हुआ.

चाय पीते...डा. समीर ने रितेश से पूछा.."और आप कैसे हैं?...उस दिन तो आपकी  घबराहट देख लग रहा था....हॉस्पिटल में एक बेड आपके नाम भी करनी होगी हमें.."


"ओह! मैं बुरी तरह हिल गया था....इस तरह एक्सीडेंट..खून..देखने का पहला मौका था...ड्राइवर और इन्हें दोनों को इस हालत में देख बहुत घबरा गया था...वो तो आप डॉक्टर लोग तय करते हैं कि चोट कितनी गहरी है...खून बहता देख..हमारी तो हालत खराब हो जाती है"

"हाँ...और खासकर जब अपनों का हो.." ..समीर आगे कुछ और कहते कि माँ बोल पड़ी..." ना डॉक्टर साब...इन जैसे लोगो से ही इंसानियत पर विश्वास बना रहता है...ये तो नाव्या को जानते भी नहीं थे...फिर भी इतना किया हम सबके लिए"

हठात ही रितेश और उसकी नज़रें मिल गयीं...'क्या सचमुच वे एक-दूसरे को नहीं जानते थे...हल्की सी मुस्कराहट जैसे आँखों में ही तैर गयीं...और दोनों ने अपनी निगाहें लौटा लीं.

"पहले तो आप....मुझे ये डॉक्टर साब बोलना बंद कीजिए...कोई जब ऐसा कहता है तो खुद ही मेरे हाथ बालों पर चले जाते हैं..लगता है..जरूर बाल  पक  गए हैं और बुड्ढा दिखने लगा हूँ..." और फिर कप रख रितेश की तरफ हाथ बढाया..."इट्स रियली कमेंडेबल  दोस्त....दोस्त कह सकता हूँ ना...मुस्कुरा कर जरा सा रुके..फिर गर्मजोशी से उसका हाथ हिलाते हुए बोले," आप जैसे लोगो की बड़ी जरूरत है...आपलोग हमारा काम आसान कर देते हैं...ऐसे में समय की बड़ी कीमत होती है..और अक्सर डॉक्टर्स   के पास एक्सीडेंट केसेज़ लाने में लोग इतना टाइम  वेस्ट कर देते हैं कि...हमें दुगुनी मेहनत करनी पड़ती है और पेशेंट को रिकवर होने में भी काफी समय लग जाता है...इट्स रियली नाइस टु नो यू"

"अब भागना होगा आंटी..थैंक्स फॉर द लवली टी....पर चाय तो काका ने बनाई हैं ना....धन्यवाद काका.."
काका ने अभिभूत होकर हाथ जोड़ दिए..

" एंड यू ट्राई टु बी अ गुड गर्ल..तंग ना किया करें आंटी को...नर्स बता रही थी...आप दवा लेने में बड़ी नखरे  करती हैं...और इंजेक्शन में तो बच्चों सा शोर मचाती हैं"

"हैं, भी तो इतनी सारी...बड़ी-बड़ी सी ...निगली ही नहीं जाती.." उसने मुहँ बनाया.

" सिर्फ इंजेक्शन चलेगा...?" हंस कर बोला...और फिर एकदम गंभीर हो गया..."देखिए...वूंड हील करने के लिए, दवा  तो सारी की सारी लेनी पड़ेंगी और इंजेक्शन भी....ओके...अच्छा चलूँ..." माँ और रितेश की तरफ हाथ हिलाया...और चला गया. 

अपने नाम के अनुरूप ही खुशबू के एक झोंके सा  आया और सबके मन पर अपनी उपस्थिति दर्ज कर चला गया. इतने कम समय में ही उसने कमरे में उपस्थित चारो लोगो से बातें की..सबको समान महत्त्व  दिया...हम्म सीखना पड़ेगा ये सब..

"अच्छा लड़का है..." माँ थीं..

"या..नाइस चैप एंड अ वेरी गुड डॉक्टर...उस दिन मैने इन्हें देखा...इतनी अच्छी तरह सब संभाला...यु आर इन सेफ हैंड्स...."...रितेश उसकी तरफ मुड कर बोला...और वो सोचने लगी..इन दो दिनों में उसकी दुनिया कितनी बदल गयी....अपनी साँसों के  के लिए वो इन दो अजनबियों की कर्ज़दार हो गयी. 

इन्ही ख्यालों में गुम थी कि हैरान-परेशान सी...नीना, प्रियंका, अर्चना कमरे में दाखिल हुईं. तीनो एक साथ बोल रही थीं.."अरे क्या हुआ...कब हुआ..कैसे हुआ.....मुझे तो आज पता चला....इतनी परेशान  हो गयी...मैं"  वो मन ही मन मुस्कुरा उठी..फिर से तीनो में होड़ शुरू हो गयी कि किसे उसकी सबसे ज्यादा चिंता है...माँ ही बता रही थीं...वो थक सी गयी थी....उसने माँ को कहा...लेटना चाहती है...जरा नीचे कर दे बेड. रितेश ने ही आगे बढ़ कर किया और फिर वहीँ से.."चलता हूँ आंटी..फिर आऊंगा...और उसकी तरफ आँखे झुका कर बाय कहा....और चला गया.

चैन की सांस ली,उसने..अभी उसकी सहेलियाँ आपस में ही उलझी थीं..रितेश को उन्होंने उसका कोई रिश्तेदार समझ लिया..अगर पूछताछ शुरू करतीं  तो फिर उसे जबाब देते नहीं बनता. और उन्हें उसे छेड़ने का एक बहाना मिल जाता. पर पता नहीं  उसका बात करने का मन नहीं हो रहा था...रितेश..डा. समीर की बातें....बार-बार रिप्ले हो रही थीं...मन में...और उसने आँखें  मूँद लीं...माँ ने कहा...काफी देर से बैठी थी..लगता है...थक गयी हैं. सहेलियाँ आपस में ही बातें करती ताहीं..और फिर आने का वायदा कर चली गयीं.
(क्रमशः)

15 comments:

आपका अख्तर खान अकेला said...

bhtrin prstuti bqaaya hisse kaa intizaar hai .akhtar khan akela kota rajsthan

प्रवीण पाण्डेय said...

लम्बी कहानी है, सुकून से पढ़ते हैं।

मीनाक्षी said...

मौका पाते ही यहाँ आना न हो..यह हो नही सकता...कहानी चलचित्र सी सजीव आँखों के सामने घट रही हो जैसे... आगे का इंतज़ार...

kshama said...

Ham maze lete jaa rahe hain!

मनोज कुमार said...

कहानी अपनी समग्रता में अपने विकास पर है। इसके पूर्ण होने पर ही कोई समीक्षात्मक टिप्पणी देना उचित होगा ... इसलिए अगले अंक की प्रतीक्षा में ...!

वाणी गीत said...

कहानी पढ़ते हुए लगता है जैसे इन सारे वाक्यों के साक्षी ही हैं हम...
रोचक !

Neelkamal Vaishnaw said...

.कहानी चलचित्र सी सजीव आँखों के सामने घट रही हो जैसे... आगे का इंतज़ार...
आप भी जरुर आये मेरी छोटी सी दुनिया में
MITRA-MADHUR: ज्ञान की कुंजी ......

रश्मि प्रभा... said...

aas paas ko yun padhna janna aur us par sochna ... aapke patron ke sang hamesha bahut kuch deta gaya hai

Rahul Paliwal said...

पूरा लेख तो नहीं पढ़ पाया, पर सोचा गुजरा हूँ तो सलाम करता चलू

वन्दना अवस्थी दुबे said...

बेहद नाज़ुक, मासूम सी प्रेमकथा है रश्मि. अभी तो बस पढते जाने का मन है.

Sadhana Vaid said...

कहानी बहुत दिलचस्प लग रही है ! अस्पताल के माहौल को हू ब हू क्रिएट कर दिया आपने ! वही औपचारिक बातें और उनके बीच आकार लेता एक गुमनाम सा रिश्ता ! सच में पढ़ कर बहुत अच्छा लग रहा है ! आगे की कड़ी का इंतज़ार है !

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

आज कुशल कूटनीतिज्ञ योगेश्वर श्री किसन जी का जन्मदिवस जन्माष्टमी है, किसन जी ने धर्म का साथ देकर कौरवों के कुशासन का अंत किया था। इतिहास गवाह है कि जब-जब कुशासन के प्रजा त्राहि त्राहि करती है तब कोई एक नेतृत्व उभरता है और अत्याचार से मुक्ति दिलाता है। आज इतिहास अपने को फ़िर दोहरा रहा है। एक और किसन (बाबु राव हजारे) भ्रष्ट्राचार के खात्मे के लिए कौरवों के विरुद्ध उठ खड़ा हुआ है। आम आदमी लोकपाल को नहीं जानता पर, भ्रष्ट्राचार शब्द से अच्छी तरह परिचित है, उसे भ्रष्ट्राचार से मुक्ति चाहिए।

आपको जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं एवं हार्दिक बधाई।

रचना दीक्षित said...

सच ही बहुत कुछ उलझा हुआ है हर किसी की जिन्दगी में.कहानी अपनी ही गति से बढ़ रही है अच्छा लगा उसे पढना

abhi said...

मजेदार चल रही है कहानी..लव स्टोरी बहुत स्वीट सी लग रही है :)

Unknown said...

Di..Update the next please..