Thursday, December 17, 2009
पीक आवर्स" में मुंबई लोकल ट्रेन में यात्रा
कोई मुंबई में हो और उसका कभी,लोकल ट्रेन से साबका ना पड़े ,ऐसा तो हो ही नहीं सकता.मुझे वैसे भी लोकल ट्रेन बहुत पसंद हैं.कार की यात्रा बहुत बोरिंग होती है,अनगिनत ट्रैफिक जैम...सौ दिन चले ढाई कोस वाला किस्सा.इसलिए जब भी अकेले जाना हो या सिर्फ बच्चों के साथ,ट्रेन ही अच्छी लगती है. और वैसे समय पर जाती हूँ जब ट्रेन में आराम से जगह मिल जाती है चढ़ने उतरने में परेशानी नहीं होती.
वैसे जब बच्चे छोटे थे तो अक्सर काफी एम्बैरेसिंग भी हो जाता था.एक बार अकेले ही बच्चों के साथ जा रही थी.बच्चे अति उत्साहित.हर स्टेशन का नाम जोर जोर से बोल रहें थे..शरारते वैसे हीं और सौ सवाल, अलग.छोटे बेटे कनिष्क ने बगल वाली कम्पार्टमेंट करीब करीब खाली देख पूछा "वो कौन सी क्लास है?".
मैंने कहा,"फर्स्ट क्लास".
"हमलोग उसमे क्यूँ नहीं बैठे"
"उसका किराया,ग्यारह गुना ज्यादा है. और यहाँ आराम से जगह मिल गयी है"(सेकेण्ड क्लास का अगर ७ रुपये होता है तो फर्स्ट क्लास का ७७ रुपये ,पास बनवाने पर बहुत सस्ता पड़ता है और ऑफिस ,कॉलेज जाने वाले,पास लेकर फर्स्ट क्लास में ही सफ़र करते है)
फिर उसने पूछा,'ये कौन सी क्लास है.?"
मैंने कहा "सेकेण्ड"
"थर्ड क्लास कहाँ है?"
"थर्ड क्लास नहीं होता"
कुछ देर सोचता रहा फिर चिल्ला कर बोला,"ओह्हो! थर्ड क्लास में तो हमलोग पटना जाते हैं",(उसका मतलब थ्री टीयर ए.सी.से था )पर मैंने कुछ नहीं कहा,सोचने दो लोगों को कि मैं थर्ड क्लास में ही जाती हूँ.अगर एक्सप्लेन करने बैठती तो ४ सवाल उसमे से और निकल आते.
जब मैंने 'रेडियो स्टेशन' जाना शुरू किया तो नियमित ट्रेन सफ़र शुरू हुआ..मेरी रेकॉर्डिंग
हमेशा दोपहर को होती,मैं आराम से घर का काम ख़त्म कर के जाती और ४ बजे तक वापसी की ट्रेन पकडती.स्टेशन से एक सैंडविच लेती,एक कॉफ़ी और आराम से हेडफोन पे गाना सुनते,कोई किताब पढ़ते.एक घंटे का सफ़र कट जाता.
एक दिन मेरी दो रेकॉर्डिंग थी.अक्सर जैसा होता है..लेट हो रही थी,मैं...आलमीरा खोला तो एक 'फुल स्लीव' की ड्रेस सामने दिख गयी.सोचा,चलो वहां का ए.सी.तो इतना चिल्ड होता है कोई बात नहीं.'शू रैक' खोला और सामने जो सैंडल पड़ी थी,पहन कर निकल गयी.ऑटो में बैठने के बाद गौर किया कि ये तो पेन्सिल हिल की सैंडल है.पर फिर लगा..स्टेशन से १० मिनट का वाक ही तो है.और मुझे कभी ऊँची एडी की सैंडल में परशानी नहीं होती.इसलिए चिंता नहीं की.
एक रेकॉर्डिंग के बाद.रेडियो ऑफिसर ने यूँ ही पूछा, "आप कुछ ज्यादा वक़्त निकाल सकती हैं,रेडियो स्टेशन के लिए?"मैंने कहा..."हाँ..अब बच्चे बड़े हो गए हैं तो काफी वक़्त है मेरे पास".मुझे लगा कुछ और असाईनमेंट देंगे.उन्होंने कहा,"फिर प्रोडक्शन असिस्टेंट के रूप में ज्वाइन कर लीजिये.क्यूंकि हमारे प्रोडक्शन असिस्टेंट ने किसी वजह से रिजाइन कर दिया है.आप अब यहाँ के सारे काम समझ गयी हैं".मैं कुछ सोचने लगी.ये मौका तो बडा अच्छा था.मुझे यहाँ के लोग और माहौल भी अच्छा लगता था. समय भी था.पर एक समस्या थी मेरा बेटा दसवीं में आ गया था.बोर्ड के एक्जाम के वक़्त यूँ घर से दूर रहना ठीक होगा?...यही सब सोच रही थी कि उन्होंने मेरी ख़ामोशी को 'हाँ' समझ लिया (मेरे बेटे का फेवरेट डायलौग ,जब भी उसकी किसी अन्रिज़नेबल डिमांड पर गुस्से में चुप रहती हूँ तो कहता है.'आपकी ख़ामोशी को मैं हाँ समझूं ?")..यहाँ भी मेरी चुप्पी को हाँ समझ लिया गया.श्रुति नाम की एक अनाउंसर से उन्होंने रिक्वेस्ट किया,इन्हें जरा 'लाइब्रेरी','ट्रांसमिशन रूम'.'ड्यूटी रूम' सब दिखा दो.मुंबई का आकाशवाणी भवन काफी बडा है.दो बिल्डिंग्स हैं.स्टूडियो और ऑफिस अलग अलग.एक तिलस्म सा लगता है.श्रुति ने भी बताया कि जब वे लोग ट्रेनिंग के लिए आए थे तो एक लड़के ने आग्रह किया था,"प्लीज, हमें सबसे पहले ऑफिस का एक नक्शा दे दीजिये.पता ही नहीं चलता कौन सा दरवाजा खोलो और सामने क्या आ जायेगा.लिफ्ट,स्टूडियो,या ऑफिस."
श्रुति के साथ घूमते हुए अब मेरे पेन्सिल हिल ने तकलीफ देनी शुरू कर दी थी.और स्टूडियो भ्रमण जारी ही था.ट्रांसमिशन रूम में देखा,ऍफ़,एम् की एक 'आर. जे.'एक गाना लगा,सर पे हाथ रखे किसी सोच में डूबी बैठी है.मैंने सोचा ,अभी गाना ख़त्म होगा और ये चहकना शुरू कर देगी.सुनने वालों को इल्हाम भी नहीं होगा,अभी दो पल पहले की इसकी गंभीर मुखमुद्रा का.
राम राम करके स्टूडियो भ्रमण ख़त्म हुआ, तो मेरी जान छूटी. मेरी रेकॉर्डिंग रह ही गयी.अब तो मन हो रहा था.सैंडल उतार कर हाथ में ही ले लूँ..नज़र दौड़ाने लगी कहीं कोई 'शू इम्पोरियम' दिख जाए तो एक सादी सी चप्पल खरीद लूँ.पर ये 'ताज' और 'लिओपोल्ड कैफे' का इलाका था.यहाँ बस बड़े बड़े प्रतिष्ठान ही थे.कोई टैक्सी वाला भी इतनी कम दूरी के लिए तैयार नहीं होता.(इस इलाके में ऑटो नहीं चलते)खैर ,दुखते पैर लिए किसी तरह स्टेशन पहुंची और आदतन एक सैंडविच और कॉफ़ी ले ट्रेन में चढ़ गयी.सारी सीट भर गयीं थी.सोचा चलो कुछ देर में कोई उतरेगा तो सीट मिल ही जाएगी..मैं आराम से पैसेज में एक सीट से पीठ टिका खड़ी हो गयी.यह ध्यान ही नहीं रहा कि ये ऑफिस से छूटने का समय है,भीड़ का रेला आता ही होगा.क्षण भर में ही कॉलेज और ऑफिस की लड़कियों से एक एक इंच जगह भर गयी.मैं तो बीच में पिस सी गयी..हाथ की सैंडविच तो धीरे से बैग में डाल दिया.पर कॉफ़ी का क्या करूँ?चींटी के सरकने की भी जगह नहीं थी कि दरवाजे तक जाकर फेंक सकूँ.उस पर से डर की कहीं गरम कॉफ़ी किसी के ऊपर एक बूँद,छलक ना जाए.फुल स्लीव में गर्मी से बेहाल.पसीने से तर बतर मैंने गरम गरम कॉफ़ी गटकना शुरू कर दिया.मुंबई के लोग कभी भी किसी को नहीं टोकते.वरना देखने वालों के मन में आ ही रहा होगा,'ये क्या पागलपन कर रही है'.पर सबने देख कर भी अनदेखा कर दिया.अब ग्लास का क्या करूँ.?धीरे से बैग में ही डाल लिया.बैग में दूसरी स्क्रिप्ट पड़ी थी.पर होने दो सत्यानाश.कोई उपाय ही नहीं था.
.ट्रेन अपनी रफ़्तार से दौड़ी जा रही थी.हर स्टेशन पर उतरने वालों से दुगुने लोग चढ़ जाते,मैं थोड़ी और दब जाती.और सीटों पर बैठे लोग तो सब अंतिम स्टॉप वाले थे.मेरी स्टाईलिश सैंडल के तो क्या कहने.जब असह्य हो गया तो मैंने धीरे से सैंडल उतार दी.पर मुंबई कि महिलायें अचानक मेरी हाईट डेढ़ इंच कम होते देख भी नहीं चौंकीं.पता नहीं नोटिस किया या नहीं.पर चेहरा सबका निर्विकार ही था.तभी मेरे बेटे का फोन आया.और हमारी बातचीत में दो तीन बार रेकॉर्डिंग शब्द सुन,पता नहीं पास बैठी लड़की ने क्या सोचा.झट खड़ी होकर मुझे बैठने की जगह दे दी.(शायद मुझे कोई गायिका समझ बैठी:)..मैं थोडा सा ना नुकुर कर बैठ गयी.और सैंडल धीरे से सीट के अन्दर खिसका दिया.मेरा भी अंतिम स्टॉप ही था.सब लोग उतरने लगे पर मुझे बैठा देख,चौंके तो जरूर होंगे,पर आदतन कुछ कहा नहीं.सबके उतरते ही मैंने झट से सैंडल निकाले और पहन कर उतर गयी.
पर मेरा ordeal यहीं ख़त्म नहीं हुआ था.स्टेशन से बाहर एक ऑटो नहीं.बस स्टॉप की तरफ नज़र डाली तो सांप सी क्यू का कोई अंत ही नज़र नहीं आया.मेरे साथ एक एयर होस्टेस भी खड़ी थी.उसे भी मेरी तरफ ही जाना था.संयोग से किसी कार्यवश कार की जगह 'पीक आवर्स' में लोकल से आना पड़ा था,उसे..बेजार से हम खड़े थे सारे ऑटो तेजी से निकल जा रहें थे. एक पुलिसमैन पर नज़र पड़ते ही,उस एयर होस्टेस ने शिकायत की.पर उसने एक शब्द कुछ नहीं कहा.मुझे बडा गुस्सा आया,ये लोग तो हमारी सहायता के लिए हैं.और इनकी बेरुखी देखो.पर जैसे ही 'ग्रीन सिग्नल' हुआ.उस पुलिसमैन ने बड़ी फ़िल्मी स्टाईल में चश्मा उतार जेब में रखा और एक रिक्शे को हाथ दिखा रोका,और आँखों से ही हमें बैठने का इशारा किया.बोला फिर भी एक शब्द नहीं.
दूसरे दिन का किस्सा भी कम रोचक नहीं.मैंने घर आकर हर पहलू से विचार किया और सोचा,इस ऑफर को स्वीकार नहीं कर सकती.यहाँ कामकाजी महिलायें बच्चों के बोर्ड एक्जाम आते ही एक महीने की छुट्टी ले,घर बैठ जाती हैं.और मैं अब ज्वाइन करूँ? रेडियो में इतनी छुट्टी तो मिल नहीं सकती.लिहाज़ा ये अवसर भी खो देना पड़ा..दूसरे दिन बिलुक सादी सी चप्पल और आरामदायक कपड़े पहन,कर ना कहने को गयी.एक 'एलीट' स्कूल के बच्चे आए हुए थे और एक नाटक की रेकॉर्डिंग चल रही थी.मुझे देखते ही उस ऑफिसर ने थोडा बहुत समझाया और मुझ पर सारी जिम्मेवारी सौंप चलता बना. मुझे मुहँ खोलने का मौका ही नहीं दिया.इन टीनेजर्स बच्चों ने २५ मिनट के प्ले की रेकॉर्डिंग में ३ घंटे लगा दिए.एक गलती करता सब हंस पड़ते.दस मिनट लग जाते,शांत कराने में..फिर बीच में किसी को खांसी आती,छींक आती,प्यास लगती तो कभी बाथरूम जाना होता.जब अपनी रेकॉर्डिंग ख़त्म करके, मैंने इस ऑफर को स्वीकार करने में अपनी असमर्थता जताई तो वे हैरान रह गए,'पहले क्यूँ नहीं बताया.?'क्या कहती,आपने मौका कब दिया.?'कोई बात नहीं' कह कर मन ही मन कुढ़ते अपनी दरियादिली दिखा दी.
आज फिर पीक आवर्स था.पर इस बार अपनी ड्यूटी ख़त्म कर श्रुति भी साथ थी.मैं स्टेशन पर उसे बता ही रही थी कि महिलायें भी चलती ट्रेन में दौड़कर चढ़ती हैं.श्रुति ने कहा,',हाँ चढ़ना ही पड़ता है,वरना सीट नहीं मिलती' तभी ट्रेन आ गयी...और श्रुति भी दौड़ती हुई चलती ट्रेन में चढ़ गयी.मेरी हिम्मत तो नहीं थी,पर ईश्वर को कुछ दया आ गयी.और ट्रेन रुकने पर चढ़ने के बावजूद मुझे बैठने कि जगह मिल गयी.पर श्रुति से मैं बिछड़ गयी थी और हमने नंबर भी एक्सचेंज नहीं किया था.दरअसल, मैं अक्सर अपना प्रोग्राम ही सुनना भूल जाती हूँ.श्रुति ने कहा था.अनाउंस करने से पहले वो sms कर याद दिला देगी.पर मुझे इतना पता था कि स्टेशन आने से एक स्टेशन पहले ही गेट के पास खड़ा होना पड़ता है क्यूंकि ट्रेन सिर्फ १/२ मिनट के लिए रूकती है.अगर आप गेट के पास ना खड़े हों तो नहीं उतर पाएंगे.एक स्टेशन पहले मैं भी गेट के पास पहुँच गयी और नंबर एक्सचेंज किया.श्रुति ने जोर से जरा आस पास वालों को सुनाते हुए ही कहा...'हाँ आपके प्रोग्राम की अनाउन्समेंट से पहले,फ़ोन करती हूँ आपको'.मैं मन ही मन मुस्कुरा पड़ी.चाहे कितने भी मैच्योर हो जाएँ हम.आस पास वालों की आँखों में अपनी पहचान देखने की ललक ख़त्म नहीं होती.
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49 comments:
आह बहुत सारे रोचक किस्से थे...पर मजा आया पढने में.और लोकल की भीड़ के वाकये में तो लगा की हम भी वहीँ कहीं फंसे पड़े हैं :) बहुत अच्छा संस्मरण है, मुंबई की लोकल का हाल बताता हुआ.शुभकामनाये.
अरे वाह! धाराप्रवाह...अब तक तो जी हम मर्दुए ही सैंडिलों से (सच कहूं, तो उनकी मार से...) डरते थे, (किसी को बताइएगा नहीं)आज बड़ी राहत मिली ये जानकर कि सैंडिल्स महिलाओं को भी डराती हैं। हा हा हा ...मज़ा आ गया। अद्भुत मस्त लेखन है आपका. एक बार फिर दोहराऊंगा ...संस्मरण लिखा कीजिए, बल्कि रेखाचित्र भी...यादों के समंदर में से मोती चुनने में आपको महारत है. बधाइयां एक करोड़ दस लाख!
धत तेरे कि खत्म हो गया ...मैं क्या मजे मजे में पढ्ता जा रहा था .....आज सच कहूं तो लगा कि हां ये है विशुद्ध ब्लोग पन्ना आपकी अपनी डायरी से निकल कर हमारे सामने ...बंबई की लोकल, बच्चे, उनकी पढाई ,हाई हील सेंडल ,रेडियो का स्टूडियो और आपकी प्रोड्यूशरशिप ..और अंत में आपकी सखी का जोर से कहना ...सब का सब धारा प्रवाह दिलचस्प .....बहुत ही आनंद आया ..॥
बहुत रोचकता से बयान की गई आपबीती। लोकल के तजुर्बे तो अपने आप में बेजोड होते ही हैं।
बढिया पोस्ट।
ओहो हम तो पढ़े ही जा रहे थे कब खत्म हो गया पता ही नहीं चला...
मुंबई की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में आपाधापी के बीच आपकी कहानी कब ख़त्म हो गई, पता ही नहीं चला... हमें तो इंतज़ार था... कि आगे क्या हुआ.. लोकल ट्रेन का सफ़र... रेडियो में रिकॉर्डिंग और बच्चों की ज़िम्मेदारी... आपने बहुत ही ख़ूबसूरती से पिरोया है...
बहुत रोचक किस्सा है। अब शायद ही लोकल में जाने का साहस कर पाऊँ। बहुत सालों पहले कभी कभार जाती थी।
मुम्बई की लोकल में हाई हील्स! कभी नहीं पहनी जा सकतीं। यहाँ तो स्पोर्ट्स शूज ही बेहतर रहेंगे।
घुघूती बासूती
मैं तो मुंबई इसलिये नहीं जाता. और कोई उपाय भी नहीं है लोकल के अलावा. और मैं जब भी फंसा हूँ पीक अवर्स में ही.
रोचक किस्से। आपके बच्चा समझदार है जो कहता है--- आपकी चुप को मैं हां समझूं!
रश्मि बहना,
मुंबई की लाइफलाइन लोकल पर जॉनी वाकर का ये गीत बरबस याद आ जाता है...
ज़रा बचके, जरा हटके
ये है बॉम्बे मेरी जान....
बड़े ही दिलचस्प ढंग से संस्मरण सुनाया है...वैसे ऊंची हील वाले सैंडल पर गुरुदेव समीर लाल जी बड़ी अच्छी पोस्ट
लिख चुके हैं...मुझे भी समझ नहीं आता कि आधी दुनिया को उनके पसंद की सैंडल कभी क्यों नहीं मिल पाती...बस
कोई भी सैंडल या चप्पल खरीदी जाए, बस यही कहा जाता है जैसी मैं चाह रही थी वो तो नहीं है, चलो इसी से काम
चला लूंगी...और वो जो मन में सैंडल की तस्वीर बनी हुई है वो दिल्ली की तरह दूर ही बनी रहती है....और इस चक्कर में सैंडल पर सैंडल खरीदे जाते रहते हैं..,
जय हिंद...
का हो रश्मि बहना,
कौनो जनम का रिश्ता-उश्ता है का...जो सब बाते मिलता है...इ ऊंचा एडी का सैडल इ रेडियो स्टेशन का चक्कर ...इ धाराप्रवाह बोली-बचन......माने लगता है हर बार कि ब्लाग तुम्हारा है और कथा तुम हमरा बांच रही हो...ज़रूर कोई न कोई चक्कर है....कहीं तुम कुम्भ का मेला में खोयी हुई हमरी कोई जुदुवां बहिन तो नहीं....और कहीं बायाँ गाल में कोई तिल तो नहीं..??? नहीं है न ?? फिर ठीक है हमरा भी नहीं है...
बहुत ही बढियां लगा पढ़ कर...बोले तो ....एकदम मस्त...
रश्मि जीआप की सभी रचनाये बहुत अच्छी होती है मगर यहाँ मै तीन मुख्य बाते जो आप की रचना में मुझे अच्छी लगती है वो है ,, प्रथम तो आप की सभी रचनायों में एक सरसता रहती है चाहे वो कविता हो या फिर कोई संस्मरण या फिर कुछ और आप अपनी रचनायों में दार्शनिकता न दर्शा कर इतने सरल तरीके से अपनी बात रखती है की दिल को छू जाती है , और अपनी सी लगने लगती है , दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात जो मै हमेशा से कहना चाहता रहा हूँ वह है धारा प्रवाहशुरू से लेकर अंतिम शब्द तक आप की रचना कड़ी नुमा होती है आप की यही खासियत पाठक को शुरू से अंत तक बाधे रखती है , आप इसे यूँ समझ सकते है आप की रचना का उद्देश्य पूरी रचना पढने के बाद ही समझ आता है , तीसरी जो सबसे अहम् चीज है वो है रचना का विषय आप की हर रचना का विषय आम जन से जुड़ा होता जिससे पाठक पढ़ते हुए आसानी से रचना को आत्म सत कर लेता है
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084
kya likhati ho, yani ki jo rang utha liye to tasveer gadh di aur kalam utha li to itihaas likh di.
आपसे मिलकर ऐसा लगा ही नहीं कि आपसे मिला हूं। असली मिलना तो यह है। एक बार काफी बरस पहले मैं भी मुंबई की भीड़ के मजे लूट चुका हूं। इसलिए इस बार एक सफर वी टी से कुर्ला तक का मैंने ग्यारह गुना किराया देकर किया और शुक्र मनाया कि टैक्सी से कम ही रहा होगा। दूसरा भीड़ के जाम से भी बचा सो अलग। इसलिए महंगा नहीं कहा जा सकता।
आपके इस रेडियो वाले पक्ष के बारे में तो जानकारी नहीं मिली थी। पर अच्छा लगा कि इतने सारे आयाम हैं - जो कि सबके जीवन में होते हैं पर कौन कितनी खूबी से बयान कर पाता है। यह तो पढ़ने के बाद ही पता चलता है। खैर ...
पोस्ट लिखकर चाहे इकट्ठी ही रख लिया करें पर पोस्ट ब्रेक लगा लगाकर ही किया करें, पढ़ने में आसानी रहती है।
Ek saral aur dhara pravah bhasa me likhi gayi, muskarane ko majboor karne wali post. Mumbai ki jeevan rekha local ki yatra ka umda vivran. ek do bar humne bhi dhakke khaye hai local me uske bad tauba kar li. post jaldi aane se pahli wali post par comment nahi kar saka.
शहर की ज़िन्दगी और मुंबई जैसा मुल्क का वाहिद मेट्रो !!!! इस अनाम सी लेखिका ने इतनी बारीक-बिनी के साथ चित्रण किया है.की धीरेन्द्र भाई साहब भी चकित हो जाएँ!!जो वहीँ रहते हैं.और मुद्दत से वहाँ की ज़िन्दगी पर लिख रहे हैं...यूँ देखने में इस संस्मरण में कुछ नहीं हैं....जब आप गहरे जाते हैं तो मासूमियत भरी जिज्ञासा, विडम्बनाओं से भरे रास्ते और विसंगतियां स्पष्ट दीखती हैं.
रश्मि रविजा लेखक बन गयी हैं..लोगों हिंदी साहित्य के मठा धीशों ज़रा हम ब्लागरों पर भी नज़र सानी करो!!
मुबारकबाद कबूल कीजिये!!!
This was great.I remembered all my days of local and ohhh what a feeling it was!Your simple and capturing style of writing is very very alluring,Congrats!
सरलता में समरसता वाह
आपको नए साल (हिजरी 1431) की मुबारकबाद !!!
इसे कहते है खांटी ब्लागिंग/चिट्टाकारिता । सच में, शुरू से अंत तक पढ़ते ही गये, और क्या लिखूँ ।
बहुत रोचकता से पूरा वर्णन किया है. लगा रहा था कि वहीं कहीं ट्रेन रेडियो स्टेशन पर हैं.
बेहतरीन प्रवाहमयी शैली. बाँधे रखा.
क्या बात है! मज़ा आ गया. मुझे अपने आकाशवाणी के दिन याद आ गये. रोचक शैली.
रेडियो स्टेशन की यात्रा का बहुत रोचक सरस विवरण ...एक दो बार मुंबई की लोकल ट्रेन की भीड़ भाड़ झेली है ...अब तो शायद लोकल में चढ़ने की हिम्मत ही नहीं जुटा सके ...हाँ ...यदि वही रहना होता तो मजबूरीवश पारंगत हो जाते ...
ये ऊँची हील की सेंडिल बहुत दुःख देती हैं लम्बा पैदल चलना हो तो ..भोग चुके हैं एक दो बार हम भी ...इसलिए अब सीधी तरह से सपाट चप्पल पर उतर आये हैं ...इज्ज़त बनी रहे ..ज्यादा से ज्यादा कोई नाटा ही तो कहेगा ....
अरे ये सिर्फ लोकल की यात्रा का ही नहीं रश्मि जी के अन्दर छिपी अपरिमित क्षमता का भी खुलासा है और एक जिम्मेदार माँ द्वारा लिया गया वेहतरीन फैसला भी. आप ममी क्षमता है तो मौके और भी मिलेंगे लेकिन बच्चो की पढ़ाई का ये दौर वाकई बहुत महत्त्वपूर्ण है. आगे से हील बाली सेंडिल पहनकर जाना हो तो टैक्सी से ही जाए.
http://hariprasadsharma.blogspot.com/2009/12/18122009.html
well let me tell you i was an ardent hindi lit. reader in my school and college days right from dharmyug, to suman saurav and prem chand and all aur abb aapka ye blog padh ker dil garden garden ho jata hai the legacy is kept alive by few writers like you:D
enjoyed reading ur post again :D
कॉफी का डिस्पोसेबल मग .एक हाथ मे ,एक हाथ में सण्डविच या फ्रैंकी लेकर आप लोकल में चढ़ जाती हैं .. अगर ओलम्पिक मॆ इस तरह का कोई खेल होता तो मुम्बई की लड़कियों को गोल्डमेडल ज़रूर मिलता । कितनी सहजता से लिख रही है आप अपने संघर्षों के बारे में । यही है ज़िन्दगी । और हाँ किसी ने आपको लेखिका बनने की बधाई दी है ..उन्हे पता नही है शायद,, आप तो हैं ।
रोचक लेखन शैली
रोजमर्रा की बातों को भी इतनी खूबसूरती से लिखा गया है कि पढ़ता चला गया।
-बधाई.
@ शिखा,अजय,मनोज,सतीश,विवेक,घुघूती-बासूती,अभिषेक,रेखा,सलीम,महेश,आशीष चन्दन,समीर जी,देवन्द्र....सबका बहुत बहुत शुक्रिया...इस पोस्ट को पसंद करने और हौसला अफजाई के लिए कमेंट्स करने की जहमत उठाने के लिए.
@अनूप जी,आपका कमेंट्स बिलकुल समझ नहीं आया...सुधि पाठकों से पूछा भी पर वे भी नाकाम रहें,समझाने में...वैसे शुक्रिया..मेरे ब्लॉग पर पधारने के लिए.
@खुशदीप जी,दरअसल नीलिमा और समीर जी की पोस्ट मैंने पढ़ी थी...उसका उल्लेख भी करना था,इस पोस्ट में पर लिखने की रौ में छूट ही गया...बहुत अच्छा लिखा था..'चप्पलों' पर उन दोनों ने.
@प्रवीन जी,आपके द्वारा मेरे लेखन का विश्लेषण बहुत पसंद आया.
@अविनाश जी,आपकी सलाह जरूर अपनाने की कोशिश करुँगी.
@शहरोज़ जी,औ,शरद जी ..ऐसे सपने ना दिखाएँ की आँखें बस खुली ही रह जाएँ
@वंदना जी,आकाशवाणी है ही ऐसी जगह,यादें जाती हीं नहीं.
@वाणी,ये मेरी फेवरेट सैंडल है...पार्टी और रेस्टोरेंट में बड़े शौक से पहन कर जाती हूँ...उस दिन जल्दबाजी में बस ध्यान नहीं दिया और परिणाम भुगत लिया.(वैसे परिणाम सुखद ही रहा,एक पोस्ट लिख डाली :) )
@हरीश जी...ख़ुशी की तरह अवसर भी शायद एक बार ही द्वार खटखटाती है...एक बार SNDT कॉलेज में पेंटिंग सिखाने का ऑफर मिला था...बच्चों की वजह से ही नहीं स्वीकार कर पायी ...और दुबारा फिर नहीं आया मौका...टैक्सी
में जाने की सलाह देने का शुक्रिया...पर वजह मैं ऊपर बता चुकी
@Alok n Mamta,..both of u had liked my first post n had given nice comments too...Alok i dint know that u still read my posts n like it so much..thanx aton
Mamta i was missing allot ur appropriate comments...where have u been?...its nice to see u here again,..thanx dear.
@और अब अदा उर्फ़ सपना...हमको भी इहे लगता है,पर कुम्भ्वा के मेले में नाही ,सायद हम फिरायालाल चौक पर बिछुड़े रहें ...अ तिल तो नाही है,गाल पर मगर संवेदानसील दील जरूरे जुड़वां है....जहाँ कुछो अनीति दिखत है....हम दुनो पहुँच जात हैं...और एक्के भासा में बोलत हैं....बहुत गड़बड़ है बहना ...ई ब्लॉग जगत्वा तो परेसान हो जाएगा हम दुनो से...हुआ करे..हमका का..अपना बोलिबचन तो धाराप्रवाहे रहेगा.
क्या बोलूँ.... उपरे का पहला पैरा पढ़ कर ऐसा लगा कि मैं अपनी मम्मी के साथ हूँ..... बिलकुल ऐसे ही सवाल मैं किया करता था.... दूसरे पैरा में रेडियो स्टेशन का ज़िक्र बिलकुल ऐसे लग रहा था कि सब कुछ सामने ही हो रहा है.... और बाकी पैरा में मुंबई कि ज़िन्दगी को जिस तरह से आपने बताया है....वैसा हमने सिर्फ फिल्मों में ही देखा है.... बहुत ही खूबसूरती से आपने ज़िन्दगी का खाका खींचा है......
बहुत अच्छी लगी संस्मरणात्मक पोस्ट.....
रश्मि बहन हम तो अभ्यस्त हो चले हैं इस मुंबइया जीवन शैली के लेकिन आपकी तरह कभी बयान करने का मौका नहीं लगा। जैसे कोई सांसों के बारे में न लिखे कि कब तेज रहती हैं कब मंद रहीं और कब रुक गयी धक्क से दिल रह गया बस वैसी ही है हमारी मुंबई की जिंदगी। सुन्दर और खूब सारा लिखा है आनंद आया
सैकंड क्लास लोकल की फर्स्ट क्लास पोस्ट.. हाँ एक दो बार ट्रेक से उतरी. पर वापस ट्रेक पर आ गयी.. अच्छा हुआ जो मैंने भागकर सीट ले ली..
रश्मि जी, पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ है। आकर अच्छा लगा।
मुंबई की रोज़मर्रा की भागदौड़ की जिंदगी का बहुत अच्छा और रोचक विवरण दिया है आपने।
आपकी बाकी पोस्ट्स पर लगी फोटोस को देखकर लगता है की आपको भी फोटोग्राफी का शौक है।
अपने ब्लॉग पर आपके विचार पढ़कर अच्छा लगा। आभार।
बहुत रोचक और जीवंत संस्मरण...मुंबई को बिलकुल उतार ही दिया अपने तो इस पोस्ट में.................
बहुत ही रोचक, मुझे तो ऎसा लगा पढ कर जेसे मै यह सब अपनी आंखो से देख रहा हुं, ओर यह ऊंची ऎडी की सेंडिल ओर ऎ सी का सोच कर 'फुल स्लीव" मजा आ गया,वेसे हमारे संग भी कई बार ऎसा हुआ कि गये बन ठन के ओर आगे जा कर लेने के देने पढ गये, कभी हम भी देखेगे बम्बे की लोकल ट्रेन, सुना तो बहुत है
@अनूप जी,आपका कमेंट्स बिलकुल समझ नहीं आया...सुधि पाठकों से पूछा भी पर वे भी नाकाम रहें,समझाने में...वैसे शुक्रिया..मेरे ब्लॉग पर पधारने के लिए.
@ रश्मिजी, आपने लिखा था---मेरे बेटे का फेवरेट डायलौग ,जब भी उसकी किसी अन्रिज़नेबल डिमांड पर गुस्से में चुप रहती हूँ तो कहता है.'आपकी ख़ामोशी को मैं हाँ समझूं ?"
मैंने टिप्पणी की थी-- रोचक किस्से। आपके बच्चा समझदार है जो कहता है--- आपकी चुप को मैं हां समझूं!
इसमें मेरी समझ में कोई गूढ़ बात नहीं थी जिसे आपने समझने के लिये सुधी पाठकों से पूछताछ की। मेरा कहने का सीधा सा मतलब था और अब भी है कि आपकी पोस्ट रोचक है। आपका बच्चा समझदार है जो आपकी चुप को हां में (अपने मतलब के अनुसार ) लेता है। आजकल के बच्चे सच में बहुत समझदार (मेरा मतलब स्मार्ट होते हैं)अपने मन की कराना जानते हैं।
आप बहुत अच्छा लिखती हैं। ऐसे ही अपने संस्मरण लिखतीं रहें। पाठकों की टिप्पणियों के जबाब देने का आपका अंदाज बहुत अच्छा है।
मेरी टिप्पणी ने आपको उलझाया उसके लिये खेद है मुझे।लेकिन ऐसा मेरा कोई मन्तव्य न था।
@अनूप जी,...आप जैसे असाधारण (इसमें कोई व्यंग नहीं है :)) लेखक से इतने साधारण टिप्पणी की उम्मीद नहीं थी,ना...इसीलिए उसमे निहित अर्थ ढूँढने लगी..:)..और सच कहा,बच्चे तो आजकल येन केन प्रकारेण.अपने मन की करवा ही लेते हैं.
लंबे-लंबे आलेख में रोचकता कैसे बरकरार रखनी है, कोई आपसे सीखे....और उसके बाद समस्त टिप्पणियों को इतनी धर्य से जवाब देना...बाप रे! कैसे कर लेती हैं आप? फुरसतिया देव को दुबारा आना पड़ा स्पष्टिकरण हेतु।
मुम्बई लोकल से मेरा वास्ता तो नहीं पड़ा है, लेकिन हाँ मेरी दीदी हावड़ा में रहती हैं तो वहाँ की दृश्य में साम्य है।
कहाँ गौतम जी,..पहली बार जबाब दिया है टिप्पणियों का,..हर बार बस सोचती रह जाती हूँ.
और आपलोगों की ही "रोचक है"...सुन सुन कर लम्बे आलेख से नहीं कतराती...'कुश' की हर बार शिकायत होती है...पर वो भी पढ़ ही लेते हैं.
रश्मि जी जानतीं हैं इस पोस्ट में सबसे बढ़िया बात क्या लगी .....आपकी सादगी और साफगोई .....!!
आपने इतनी सच्चाई से सारी बातों को रोचकता के साथ सामने रखा कि आपके लिए इज्ज़त और बढ़ गई .....और जानकर खुशी हुई कि आप एक सम्मानीय पद पर कार्यरत हैं ......!!
Apne apne shabdon ki jadugari me aise sammohit kar baandh diya ki laga ,aapke har kshan ke saath pratyaksha aapke saath the ham...Bahut hi majedaar....
बहुत सरलता से आपने बात को कह दिया अंत तक रोचकता बनी रही .आपका लेखन बहुत प्रभावशाली है शुक्रिया
बहुत देर से आयी हूँ मगर बहुत रोचक पोस्ट है आज इतना ही बधाई
आम तौर पर मैं लम्बी पोस्ट पढ़ नहीं पाता। ऊबन सी होने लगती है। पर पता नहीं क्यों आपकी पूरी की पूरी पोस्ट बिना रुके पढ़ी। यह आपकी लेखनी का ही कमाल है जो शायद पाठकों को बांधे रखती है।
मजेदार और रोचक पोस्ट।
॥दस्तक॥|
गीतों की महफिल|
तकनीकी दस्तक
अरे वाह क्या बात है , क्या खुब लिखा है आपने , शुरुआत में तो देख के लगा कि पोस्ट कुछ ज्यादा ही लम्बी है ,लेकिन आखिर में जाकर लगा कि कुछ और बड़ा होता तो और भी अच्छा लगता पढकर । आपने शुरु से लेकर अन्त तक बाँध कर रखा , उम्दा रचना रही आपकी । बधाई
bahut hi rochak sansmaran hai.........vaise mumbai kilocal to apne inhi karnamo ke liye bahut hi famous hai vaise ab yahi haal yahan delhi mein bhi hone laga hai magar abhi utna nhi pahucha magar lagta hai yahi haal ho jaroor jayega.
बहुत ही रोचक तरीके से आपने अपनी दिनचर्या का ये हिस्सा बयाँ किया है....पढते-पढते पता ही नहीं चला कि कब खत्म हो गया ...
आज शायद पहली या दूसरी बार आपका लिखा पढ़ रहा हूँ...अब लगता है कि बार-बार...बारम्बार आपके ब्लॉग पर आना होगा.... इतनी बढ़िया लेखिका से मिलने के लिए शरद कोकास जी का बहुत-बहुत धन्यवाद कि उन्होंने अपनी पोस्ट में आपकी इस पोस्ट का लिंक दिया
आज शरद कोकस जी के लिंक से आपके इस आलेख तक पहूंची हूँ
बहुत बढ़िया लिखा है --पढ़ते ही
बंबई की याद आ गयी और मेरे पापा जी अकसर आकाशवाणी भवन जाया करते थे वो भी
याद आ गया -
[ पापा जी पण्डित नरेंद्र शर्मा आकाशवाणी के पितृ पुरुष कहलाते हैं ]
स स्नेह,
- लावण्या
सरलता इतनी सरल है और इतना लुभाती है इसके बावजूद पता नहीं लोग ब्लॉगिंग में क्यों उलझी हुई और क्लिष्ट बातें लिखते रहते हैं। ऐसी दो चार पोस्ट रोज मिल जाए तो लगेगा कि दिमाग को पर्याप्त भोजन मिल गया हो।
साफ और प्रवाहमयी लेख के लिए आभार..
लिखती रहिए...
नियमित पाठक बनना चाह रहा हूं इसलिए यह आग्रह...
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