Friday, August 12, 2011

हाथों की लकीरों सी उलझी जिंदगी. ..(2)

( नाव्या कॉलेज में पढनेवाली एक धनाढ्य पिता की पुत्री है....ख़ूबसूरत है....पढ़ने में अव्वल है....किन्तु अकेलापन उसका साथी है. सबकी प्रशंसात्मक नज़रों की आदी नाव्या को एक किताब के दुकानवाले की अपने प्रति उदासीनता सोच में डाल देती है) 


चैटर्जी सर ने ऑर्गेनिक केमिस्ट्री में टी. शर्मा की किताब लेने को कहा...उस दुकान के सामने पहुंचते ही...वो यंत्रवत ड्राइवर से  बोल उठी...." यहाँ रोकना जरा..." 
दरवाजे के हैंडल पर हाथ रखा ही था कि याद आया..."उसे तो नहीं जाना ना.."
हाथ हटा लिया..."ना ड्राइवर से ही मंगवा लेती है"

लेकिन ड्राइवर क्या जानने गया..."ऑर्गेनिक या फिजिकल केमिस्ट्री..कहीं उसे बेवकूफ बनाने को दूसरी पुस्तक पकड़ा दी तो?...गाड़ी तो पहचान ही गया होगा...और एक ही झटके से गाड़ी से उतर कर जोर से दरवाज़ा बंद कर दिया...." हुंह ! वो क्यूँ परवाह करे किसी की ..."

और खटाखट सीढियां चढ़, हाथ बांधे, चेहरे पर अतिव्यस्तता का मुखौटा लगाए, पूरी गंभीरता से बोली..."टी शर्मा की  ऑर्गेनिक केमिस्ट्री है क्या?"



वह किताबों के बीच कुछ ढूंढ रहा था....हलके से चौंक कर मुडा...पल-भर को निगाहें मिलीं....ओफ्फ़!! किस कदर उदास हैं ये आँखें....ये बस जन्म से ऐसी ही हैं...या इनके पीछे कोई कहानी छुपी हुई है. किसका सीना ना चाक कर दे ..उदासी के गह्वर में डूबी ये आँखें..चेहरे पर बच्चों सी मासूमियत...और आँखें ऐसीं जैसे ना जाने कितने वसंत देख चुकी हों ...और आज तक बस खोया ही खोया हो. उसकी तनी हुई नसें थोड़ी ढीली पड़ने लगीं कि ख्याल आया उसे तो नाराज़गी दिखानी है...फिर से अकड़ कर सीधी खड़ी हो गयी.


वह कुछ क्षणों तक होठों को तर्जनी से थपथपाता रहा, फिर बड़ी नम्रता से बोला...."आsssप एक मिनट ठहरें....मैं बगल से मंगवा दे रहा हूँ. "अरे ये क्या सचमुच टेलीपैथी का कोई अस्तित्व है?....इसे कैसे खबर हो गयी...उसके मूड की...आज तक तो कभी इतनी रियायत नज़र नहीं आई. 'नहीं' शब्द छोड़कर आज तक दूसरा सुना ही नहीं...और आज तो ये पूरा वाक्य बोल गया. अगर किताब होती तो उसे से नहीं..दुकान में काम करने वाले लड़कों से कहता....निकाल कर देने को...और नहीं होती तो सिर्फ एक 'सपाट' नहीं .
उसके चेहरे की  कठोरता कम पड़ने लगी लेकिन उसने जल्दी से फिर से वही सख्त भाव ओढ़ लिए और कड़क कर पूछा, "देर लगेगी?"

"नहीं..नहीं.." उसने फिर बड़ी नम्रता से सर हिलाकर कहा..जैसे किसी दूसरे जहां से बोल रहा हो..." बिलकुल पास ही है...रामेश्वर देखना तो चौधरी बुक डिपो में हो शायद....थी मेरे पास भी..पर ख़त्म हो गयी..." वैसे ही होठों को तर्जनी से थपथपाता अपनी जगह खड़ा रहा...ना तो उसने  कोई किताब उठायी ना ही खुद को कहीं और व्यस्त किया.

उसका सारा तनाव ढीला पड़ गया....हल्का सा दीवार का सहारा लिए पीठ टिका दी....हाथ...सामने कौर्निस पर रखा और तुरंत ही समेट लिए..क्या पता...सोचे अपने लम्बे-लम्बे पेंटेड नाखून दिखा रही है..."

वो वैसे ही दीवार से पीठ टिकाये....छत से घूमते पंखे को देखती रही...और वो सामने सड़क पर नज़रें जमाये खड़ा रहा...लगा,जैसे आस-पास के  सारे दृश्य पिघल कर रंग-बिरंगे लहरों में तब्दील हो उनके चारों तरफ चक्कर काट रहे हैं ..और दोनों ही अपने-अपने वृत्त में घिरे...ठिठके से खड़े हैं...उसके सहायक ने आकर जैसे उन लहरों को छू दिया और लहरें स्थिर हो गयीं...सबकुछ अपनी जगह वापस लौट आया...वे दोनों भी.

उसने बिना कुछ बोले ...झुक कर किताब उसकी तरफ बढाया और नाव्या ने  बिना कीमत पूछे...पांच सौ का नोट काउंटर पर रख दिया...उसने चेंज वापस काउंटर पर रखा और दराज़ में झुक कर कुछ ढूँढता रहा. नाव्या पैसे उठाकर गिनने लगी..तो उसने आँखें ऊपर उठाईं और बड़ी आश्चर्य भरी भरपूर निगाह  डाली, उसके चेहरे पर. 
आज तक कभी,लौटाए पैसे वह गिनती नहीं थी...आरक्त चेहरे से पैसे और किताबें समेट वह दौड़ती हुई सीढियां उतर गयी. लगा, पीछे उसकी आँखें हंस रही हैं.

रोज़ गाड़ी उसके दुकान के सामने से गुजरती...पर जैसे उसे अब जाने में संकोच सा होता....अब तक जिन नज़रों में  अपनी पहचान देखना चाहती थी...अब जैसे उन्ही नज़रों से आँखें चुराने लगी थी...फिर भी एक बार नज़र उसकी तरफ उठ  ही जाती...कभी, बस उसके घुंघराले बाल नज़र आते...कभी उसकी चौड़ी  पीठ तो कभी बस एक हाथ...जिसमे झूलते कड़े को देख,एक अव्यक्त चिढ से भर उठती...पता नहीं...सुसंस्कृत लोगों में भी ये चवन्नीछाप बनने की लालसा क्यूँ बनी रहती है...होगा फैशन..पर उसे नहीं पसंद...और जब उसे नहीं पसंद तो उसे पसंद आने वालों को उसकी पसंद का ख्याल तो रखना चाहिए....और जैसे  खुद की चोरी ही पकड़ लेती...उसकी पसंद??..फिर अपने ऐसे किसी ख़याल से बचने को  घबरा कर....किसी पत्रिका के पन्ने पलटने लगती. 

पर अब पत्रिकओं से भी दूरी बढानी थी...इम्तहान निकट आ रहे थे. अपनी फर्स्ट पोजीशन बरकरार रखने को मेहनत तो करनी ही पड़ती थी. कभी-कभी सोचती,अच्छा होता वो पढ़ने में बिलकुल फिसड्डी होती ,फिर शायद माँ या डैडी कुछ ध्यान देते. कितना अच्छा लगता, उसे ले चिंतित हो बातें करते उसके विषय में...माँ घर पर रहने की कोशिश करतीं...ताकि वो ध्यान से पढ़ाई करे. पापा अपने दोस्तों से उसके गिरते मार्क्स की चिंता करते...लेकिन क्या करे....अब जानबूझकर तो फेल नहीं हुआ जा सकता. कभी भूले-भटके कोई अंकल-आंटी, उसकी पढ़ाई के विषय में पूछ लेते तो माँ-डैडी दोनों एक स्वर में कहते..":अरे! हमें कभी फ़िक्र नहीं करनी पड़ी....बिटिया शुरू से ही तेज है,पढ़ने में...फर्स्ट आती रही है,हमेशा" 

इम्तहान के दिनों में वो सब कुछ भूल जाती...गीतों-ग़ज़लों-फिल्मो के सी डी धूल खाते रहते....किताबें उदास सी एक दूसरे से सिमटी शेल्फ में कैद रहतीं...और उसके कमरे में टेबल से लेकर बिस्तर...खिड़की ..जमीन हर जगह पन्ने ही पन्ने बिखरे होते. हाँ, कभी-कभी..उन पन्नों के बीच ही कोई आकृति उभर आती...तो कभी कोई आंसर याद करते वक्त , अचानक लगता किसी ने आश्चर्य से उसे देखा है...कभी याद  करके लिखे डेफिनिशंस को दुबारा पढ़ती तो कहीं कहीं लिखा हुआ पाती...'मिटटी का माधो" और एक गहरी मुस्कराहट छा जाती चेहरे पर....और किसी को ख्यालों में ही मुहँ चिढ़ा उठती..."हाँ! पत्थर बनेंगे...ये नहीं मालूम कि निर्मल झरना भी तो पत्थरों के बीच  से ही निकलता है."

पेपर आशानुकूल ही जा रहे थे...अंतिम पेपर देकर लौट रही थी...परीक्षा ख़त्म होने की ख़ुशी भी थी और मन कुछ उदास सा भी था.... क्या करेगी अब इन खाली-खाली लम्बे  दिन और रातों का. तभी एक छोटा सा बच्चा, सड़क पार करते  ट्रैफिक में बुरी तरह से घिर गया  और जो ड्राइवर ने उसे बचाने के लिए अचानक ब्रेक मारी तो पीछे से आती हुई कार बुरी तरह टकरा गयी उसकी कार से. उसे बस इतना याद रहा कि वो उछल सी पड़ी..और सर बड़ी जोर से दरवाजे से टकराया...फिर क्या हुआ उसे कुछ याद नहीं. थोड़ी देर बाद लगा किसी ने सर के नीचे हाथ लगा, उठाया है उसे....मुश्किल से तन्द्रिल आँखें खोलने की कोशिश की ....सब धुंधला सा नज़र आया.....पर ये गालों पर पानी सा क्या फिसल रहा है...आँसू....लाल-लाल आँसू...और फिर उसकी आँखें मुंद गयीं.

जब होश आया तो खुद को एक बिस्तर पर लेटा हुआ पाया...ऐसा लगा...बड़ी दूर कुछ लोग बातें कर रहे हैं...बड़ी हल्की सी आवाज़ आ रही थी. हाथ उठाना चाहा...लेकिन हाथों ने कहा मानने से इनकार कर दिया. आँखें खोलने की कोशिश की तो लगा मन- मन  भर के बोझ रखे हों पलकों पर. बड़े जोरों की  प्यास महसूस हुई. सर में भयंकर दर्द हो रहा था...पानी माँगने  की कोशिश की  पर गले से कोई स्वर नहीं निकला. सारी शक्ति लगाकर आँखें खोलीं..पर दूसरे ही पल फिर आँखें मुंद गयीं. लगा, जैसे कोई झुका है, उसपर. बालों पर सहलाहट सी महसूस हुई. धीरे-धीरे फिर से आँखें खोलने की कोशिश की.  पलकों की झिरी से देखा...जाना -पहचान चेहरा लग रहा था ....पर याद नहीं आ रहा. दिमाग पर जोर डाला लेकिन थक गयी. 

अचानक वे आँखें आयीं नज़रों की हद में और कुछ याद आया....आँखें...उदास आँखें...किसकी...मि... मि ...मिटटी के माधो की...और एकबारगी ही पलकें पूरी लम्बाई में खुल गयीं. हाँ, उसपर झुका चेहरा 'मिटटी के माधो' का ही था...लेकिन आज ना आँखें खोयी खोयी सी थीं और ना ही उदास...बल्कि बड़ी व्यग्रता झलक रही थी उनमे. चपल मछलियों सी पुतलियाँ ...उन झील सी आँखों में इधर से उधर तैर रही थीं.

उसे होश आया देख, कुछ ठहराव आया उनमे. एक तरलता झलकी और स्निधता फ़ैल गयी..चेहरे पर...हाथ उसके सर पर थे.."कैसा लग रहा है?" सुन तो नहीं पायी सोचती है..यही पूछा होगा. और एकदम से प्यास याद आ गयी. सूखे होठों पर जीभ फेर कर कर कहा...'.पाsssssss नी......पाssssssss नी ' पर शायद आवाज़ बहुत धीमी थी..उसे सुनाई नहीं दी.....वह सुनने को  झुका.. उसने फिर दुहराया.....'.पाsssssss नी.' पर वो सुन नहीं पाया...और अचानक ढेर सारे घुंघराले बाल छा गए उसके चेहरे पर.... उसके कान उसके होठों से मुश्किल से दो इंच की दूरी पर थे.  दूसरे ही क्षण वो तेजी उठ गया...'नर्स..नर्स...पानी.." 

"होश... आ गया? .." एक पतली सी पर तेज आवाज़ आई. और फिर तो कई अजनबी चेहरों ने उसे घेर लिया. उन चेहरों में नवीन अंकल भी थे और नवीन अंकल पर नज़र पड़ते ही डैडी याद आए और फिर माँ.... बंद पलकों पर मोटी-मोटी बूंदें उभर आयीं..'माँ..माँ...डैडी..कहाँ हैं आपलोग?...ये क्या हो गया...मैं यहाँ  कैसे पहुँच गयी...ये लोग कौन हैं...?"..'सवालों के झंझावात उसे झकझोरे जा रहे थे.

नवीन अंकल उसके सर पर हाथ फेर रहे थे.."आँखें खोलो बेटे...अब कैसा लग रहा है?'

"म्माँ...माँ....डैडी...बुला दीजिये उन्हें..."

"वे लोग आते ही होंगे..दोनों लोगो को खबर कर दी गयी है...आपके पापा जो भी पहली फ्लाईट मिलेगी...उस से आ रहे हैं...माँ, पास के गाँव में गयी हुई थीं... बस पहुँच ही रही होंगी....लीजिये पानी पी लीजिये.." एक गूंजती सी आवाज़ एक सांस में सब कह गयी....

आँखें खोल,आवाज़ के मालिक को देखने का यत्न किया तो उसके शर्ट का गहरा लाल रंग आँखों में चुभ गया. घबरा कर आँखें बंद कर लीं. 

"लीजिये... पानी पी लीजिये...." फिर वही आवाज़...हाथ भी उसी का होगा.

कराहती हुई...उसने सर हिला .."नईssssss.....माँ को बुला दीजिये..." 

" पी लो बेटे...माँ बस आ ही रही हैं...." नवीन अंकल का स्नेहिल स्वर उभरा.

उसने जिद से सर हिला दिया...'नईssss"

आँखें जरूर इधर-उधर भटकीं...पर सूनी ही रहीं...सर घुमा देखना चाहा . पर पट्टियों से बंधा सर हिला भी नहीं. रोष उभर आया उसे...ये मिटटी का माधो..सचमुच मिटटी का माधो ही है...ये अनजान लोग तीमारदारी में जुटे हैं और वो खुद किधर है? इन्हें ही कहा था उसने पानी पिलाने को??...पर इस से ज्यादा तनाव दिमाग बर्दाश्त नहीं कर पाया...निढाल सी पड़ गयी. गहरी क्लान्ति छा गयी...थकी पलकें मुंदने लगीं...ह्रदय अतल गहराइयों में डूबने लगा...और जब अंकल ने कहा..".मुहँ खोलो बेटे..." तो उसने ऑटोमेटीकली  मुहँ खोल दिए...इतने में ही इतना थक गयी थी....दो घूँट पानी पीते ही फिर से सो गयी. 
***
बहुत दिनों का भुला हुआ स्पर्श....सर पर गालों पर....हाथों पर महसूस हुआ...और उसने हडबडाकर आँखें खोल दीं..माँ उसपर झुकी हुई थीं...आँखें सुर्ख लाल लग रही थीं. उस से आँखें मिलते ही पलकों पर आँचल रख दूर हट गयीं. पर हाथों का स्पर्श वैसा ही बना रहा...तो ये हाथ किसके हैं...दूसरी तरफ नज़रें घुमाईं...तो पाया डैडी की डबडबाई  सी आँखें उस पर ही टिकी हैं....एक आवेग सा उमड़ा और वो बिलकुल पांच वर्ष की नन्ही सी नाव्या बन फूट पड़ी...."डैडी...ओह.. डैडी...." 

डैडी की  आँखें भी छलकने को हुईं पर रोक लिया खुद  को.."ना बच्चा ना....हम सब यहाँ हैं ना...सब ठीक हो जाएगा..."

माँ भी पास आ गयीं..." रोते नहीं बेटा...जल्दी ही ठीक हो जाओगी....भगवान का लाख-लाख शुक्र, ज्यादा सीरियस कुछ नहीं है"

"पर हुआ क्या...मैं यहाँ कैसे आ गयी.....मुझे तो कुछ भी नहीं याद.....मेरी तो आँख खुलती है..और मैं सो जाती हूँ ...तुमलोग भी कब आए पता ही नहीं चला...जाने कब तक सोती रही मैं..."उसने कुछ शिकायती लहजे  में कहा.

"कार का एक्सीडेंट हो गया बेटे...पर भगवान ने बचा लिया..ज्यादा चोट नहीं आई "

"और रमण अंकल?...वे कैसे हैं..." अब उसे ड्राइवर का ख्याल आया.

"वो भी ठीक है.......इसी हॉस्पिटल में है.."
 "थैंक गौड'.. वे  ठीक हैं.." कहकर उसने आँखें मूँद लीं......मम्मी-पापा उसकी बेड के दोनों तरफ कुर्सियों पर बैठे  थे...डैडी का हाथ उसके सर पर  था और माँ उसके हाथ सहला रही थीं. उनकी ये छवि बूँद-बूँद महसूसने की कोशिश कर रही थी...पिछली बार कब हुआ था ऐसा?... कब उसके बेड के आस-पास माँ और डैडी दोनों जन थे?...याद करने पर भी याद नहीं आ रहा. वो सर का भारीपन...हाथ-पैरों पर जगह-जगह लगी खरोंचे....पैरों पर कसकर बाँधा हुआ क्रेप बैन्डेज़
...वो सारे कष्ट थोड़ी देर को भूल ही गयी. ..हे भगवान! इस क्षण को अनंतकाल के लिए स्थिर कर दो...ओह! उसका एक्सीडेंट...दो साल..चार साल...छः साल.. पहले ही क्यूँ ना हुआ...यूँ माँ-डैडी सब छोड़  उसके पास चले आते.

किसी की धीमी पदचाप कमरे में आई और डैडी अभ्यर्थना में उठ खड़े हुए , बोले..
"बेटा.. भगवान की असीम कृपा  तो है ही...पर थैंक्स  इनका भी करो..." और उन्होंने एक युवक के कंधे पर हाथ रख...उसे आगे किया..."बेटे ये हैं..रीतेश...ये ही तुम्हे समय पर हॉस्पिटल  ले आए....और तब से देखभाल कर रहे हैं...नवीन अंकल  भी पता चलते ही आ गए फिर भी सारी जिम्मेवारी इन्होने ही उठायी.."

आगंतुक की  आँखों में गहरी आत्मीयता झलक रही थी...और आँखों  में हल्का स्मित. मुस्कुरा पड़ी वो..सिरचढ़ी  छोटी सी बच्ची की तरह इठला कर बोली...." मैं तो जानती हूँ, इन्हें...अग्रवाल बुक डिपो इनकी ही तो है...कई बार किताबें ली हैं,वहाँ से..." माँ ने होठों पर ऊँगली रख दी.."धीरे नाव्या...और ज्यादा मत बोलो...कमजोरी और बढ़ेगी" 

कमजोरी?? अब कमजोरी का उसके रास्ते में क्या काम....इतना उत्साह तो उसे कभी महसूस नहीं हुआ...इतनी ख़ुशी तो उसे कभी नहीं मिली....अगर इन पट्टियों  ने ना जकड़ा हुआ होता तो अभी उठ कर....क्या करती?..हाँ, क्या करती?...पता नहीं..पर कुछ करती तो जरूर. अभी तो बस उसकी आँखों को ही पूरी अभिव्यक्ति की इजाज़त थी...शरीर इस लायक नहीं था कि हिले-डुले भी..और बोलने पर कभी माँ तो कभी डैडी टोक ही देते. 

वह डैडी के पास खड़ा एकटक नज़रें जमाये था उसके चेहरे पर...एक स्निग्ध तरलता फैली थी चेहरे पर और इतनी मुखर आँखें ,उसने तो नहीं देखीं कभी. उसने भी फीकी सी मुस्कान सजा रखी थी होठों पर...लेकिन अपने एपियरेंस पर उसे बड़ी कोफ़्त हो रही थी...ये माथे पर बंधी बड़ी सी पट्टी...ना जाने, चेहरा  कैसा लग रहा है...कितनी अजीब सी दिख रही होगी वो. 

माँ-डैडी बार-बार अपनी कृतज्ञता प्रगट कर रहे थे और वो विनम्रता से दुहरा हुआ जा रहा था.."ऐसा कुछ ख़ास नहीं किया मैने...मेरी जगह कोई भी होता...तो यही करता...बस संयोग कहिए कि...मैं वहाँ तुरंत पहुँच गया.."

"वो सब ठीक है बेटा..पर जो भी करता हम तो उसके ही एहसानमंद हो जाते...अभी तो तुम्हारे ही हैं"

पता चला..पास ही उसका घर है...माँ से कह रहा था...कुछ भी जरूरत हो तो तुरंत बता दिया करें....माँ ने भी ने बार-बार कहा..."मिलते रहना बेटा...मेरी बेटी की जान तो तुमने ही बचाई है..इसे हम कभी नहीं भूलेंगे"

शायद डैडी और माँ की इन बातों से वो बहुत ही असहज महसूस कर रहा था...बार-बार कभी हाथ पीछे की तरफ बांधता...तो कभी बालों को हाथ लगाता...कभी इस पैर पर शरीर का वजन डालता... तो कभी उस पैर पर....और इन बातों से  बचने को ही शायद बाहर जाने को उद्धत हो उठा..."अच्छा आंटी..चलता हूँ...किसी चीज़ की भी जरूरत हो...तो प्लीज़ संकोच मत कीजियेगा...बिलकुल दो कदम पर ही मेरा घर है. कल फिर आऊंगा..." और झुक कर माँ-डैडी को उसने हाथ जोड़ दिए. एक मुस्कान उसकी तरफ उछाला जिसे पलकें झपका कर उसने लपक लिया और वो दरवाजे से बाहर हो गया.

रितेश के जाने के थोड़ी ही देर बाद डा. समीर आ गए...हाँ! उस लाल शर्ट वाले का यही नाम था. छः फुट लम्बा कद...इकहरा शरीर..गूंजती सी आवाज़ और उस पर चेहरे पर धूप खिली मुस्कान. ओह! एक डॉक्टर का ऐसा व्यक्तित्व...तभी उसकी एक पुकार पर कई-कई नर्सें यूँ दौड़ी चली आती हैं....किन उपायों से  बचता होगा...अरे ,बचना क्या...भरपूर जिंदगी जीता होगा....वो यही सब सोच रही थी और डा. समीर उसकी फ़ाइल पर नज़रें जमाये...नर्स से उसके हाल-चाल का ब्यौरा ले रहे थे. थोड़ी देर बाद फ़ाइल नर्स को थमा और उसे कुछ निर्देश दे ...डैडी की तरफ मुड़े ...डैडी से हाथ मिला कर अपना परिचय दिया..फिर माँ की तरफ देख मुस्कराए "आप ज्यादा चिंता ना करें...ज्यादातर तो सुपरफिशियल इन्जरीज़ ही हैं....पैर में थोड़ा स्प्रेन है...और माथे पर कुछ स्टिचेज़ लगाने पड़े हैं...इन्हें  बुखार भी है...तो देखते हैं.,..कितनी जल्दी हम इन्हें छुट्टी दे सकते हैं..."

फिर उसकी तरफ मुड़े..." सो... हाउ आर यू फीलिंग नाउ ?"

अपने सूखे होठों पर जीभ फेरकर इतना ही कह पायी.."फाइन"..डर लगा...कुछ दर्द बताएगी..तो कहीं नर्स को कोई इंजेक्शन लगाने को ना कह दें.

"या..या....यू हैव टु बी.....हमारी हॉस्पिटल में जो हैं आप....बेस्ट इन द सीटी...." डा. समीर ने उसकी नब्ज़ देखी...आँखें देखी...जीभ दिखाने को कहा...वो यंत्रवत करती रही...और अंदर अंदर डरती भी रही....शायद  उसका डर पढ़ लिया उन आँखों ने...और उसे सहज  करने को...उसकी माँ की तरफ मुड़ कर पूछा..."किस क्लास में पढ़ती हैं ये"

"कॉलेज में है...बी-ए फाइनल का एग्जाम दिया है....आज लास्ट पेपर था"

"क्याsssss " ....... नाटकीय सी मुद्रा अपनाई उन्होंने..."मुझे तो लगा..किसी प्राइमरी स्कूल में हैं...जिस तरह से सुबह जिद कर रही थीं...." माँ को बुलाओ..पानी नहीं पीना...ओह!! परेशान  कर दिया था....और जरा सा पैर क्या मुडा हुआ था..'फ्रैक्चर..फ्रैक्चर...डा. मेरा पैर फ्रैक्चर हो गया है'..चिल्लाए  जा रही थी"..ऐसे मुहँ बना कर कहा कि
माँ-डैडी के होठों पर भी एक स्मित-रेखा खिंच गयी.

" फ्रैक्चर वाली बात कब कही मैने...??"..गुस्से में चिल्ला सी ही पड़ी....भूल गयी कि अभी इसी डा. से कितना डर रही थी वो.

"मैम यू डोंट नो...कितनी परेशानी हो रही थी, हमें ..आपको संभालने में....एक तो माँ के नाम की जिद...और दूसरे...आपका यूँ पैनिक होना...आधी बेहोशी में थीं आप....और फ्रैक्चर भी हो गया तो क्या...ठीक नहीं होता क्या वो"..हंस दिया वह.

"मुझे फ्रैक्चर नहीं चाहिए..."..उसने नाक फुला कर कहा.

"लाइक यू हैव च्योयास ..बट लकी यू आर....नहीं हुआ फ्रैक्चर... अब आराम कीजिए...ज्यादा एग्ज़र्शन ठीक नहीं....फिर नर्स की तरफ  मुड़ कर कहा...मेक श्योर...ये जल्दी दवा लेकर सो जाएँ..."

माँ-डैडी को आँखों में ही,सर हिला कर  'ओके'  कहा...और उस पर बिना एक नज़र डाले बाहर हो गया. 

रुआंसी हो गयी वो..सच्ची सचमुच उसे बच्ची ही समझता है.
(क्रमशः )

Wednesday, August 10, 2011

हाथों की लकीरों सी उलझी जिंदगी...

उसकी दुकान नाव्या  के कॉलेज के रास्ते में थी. एक दिन, वो  केमिस्ट्री प्रैक्टिकल की किताब लेने पहुंची तो पाया ,अरे!! ये तो हुबहू उसके एक पसंदीदा कलाकार सा दिखता  है. पर उसके विपरीत बेहद संजीदा. एक पुस्तक पर झुका था. नाव्या को देख भी उस शख्स का चेहरा निर्विकार सा ही रहा. अपने सहायक को पुस्तक निकालने के लिए कहकर, पुनः अपनी किताब पर झुक गया. नज़रें झुकाए-झुकाए ही पैसे लिए और बाकी पैसे काउंटर पर रख दिए. उसे कहीं झटका सा लगा. इस छोटे से शहर में उसकी 'होंडा सीटी'  ही बहुत रुतबा जमा जाती थी और उस पर उसकी खूबसूरती की कोई अवहेलना कर सकता था,भला. इसके बाद भी जतन से संवारा गया सुरुचिपूर्ण रूप किसी की भी आँखों को झपकने में कुछ समय लगा ही देता था. प्रोफेसर्स तक एटेंडस लेते वक़्त एक नज़र उस पर जरूर डाल लेते. उसे भी उन सबकी इस आदत की खूब खबर थी...और वो 'येस सर' बोलते ही अदा से सर घुमा...खिड़की के बाहर देखने लगती या फिर झुक कर किसी सहेली से बातें करने लगती. किसी भी दुकान पर उसकी कार रुकती और दुकान वालों में हड़बोंग मच जाती...."ये देखिए मैडम बिलकुल आज ही आया है....आपके लिए ही रख  छोड़ा था...किसी को दिखाया तक नहीं...बस आपके लिए  ही है"

और ये मिटटी का माधो!!....निगाहें चुरा कर देखा..कौन सी किताब है ऐसी भला...जिसने उसकी निगाहें इस तरह चस्पां कर रखी हैं. जरूर कोई जासूसी नॉवेल होगा ...लेकिन पाया कि वो  तो बिजनेस मैनेजमेंट की कोई बोरिंग सी किताब थी. तो फिर??...वो चौंकी..हुहँ तो ये बात  है...उसे नज़रंदाज़ कर रहा है....ठीक है..देखती है वो भी...और हर चार दिन बाद उसके रैक में कोई नई किताब नज़र आने लगती ... एक सहूलियत यह भी थी कि उसकी  दुकान में कोर्स बुक से अलग, दूसरी किताबें भी थीं. वैसे जब उसे कुछ  नहीं सूझता तो डिक्शनरी ही खरीद कर ले आती. अब उसके जेब खर्च का बड़ा हिस्सा किताबों पर ही खर्च होने लगा...पर वो चिकना घड़ा...चिकना घड़ा ही बना रहा. वही किताबों पर झुकी, काली घुंघराली लम्बी पलकें...(सोचती किसी लड़की की ऐसी पलकें होतीं  तो ना जाने कितने गीत लिख दिए होते किसी ने, उस पर ....और कितना समय लगाती वो उन्हें काजल की रेखाओं से संवारने में ) और ख़ुदा ना खास्ते कभी उसके हाथों में किताब नहीं होती तो सामने सड़क पर देखते हुए...गंभीरता से जबाब देता. वो जरा रौब से बोलती..."ये किताब नहीं है..?"

"नहीं..."...एक सपाट सा स्वर आता.

इधर उधर नज़रें घुमा खीझ भरे स्वर में बोलती..."अजीब बात है.....इतनी सारी किताबें हैं...पर जो मैं ढूंढ रही हूँ...वो नहीं है..."

उसकी इन बातों पर भी वह कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करता. जैसे उसका कोई सरोकार नहीं है,इन सबसे. भावहीन चेहरा लिए सामने देखता रहता. अपमानित सी ..बात संभालने को वो किसी और किताब का नाम पूछ बैठती....यदि वो किताब होती,..तो अपने सहायक को आवाज़ दे ,निकालने को कहता...या फिर वैसे ही सामने नज़रें जमाये कहता.,.."नहीं है"

कभी कभी दिनों तक नहीं जाती. सोचती...'देखती हूँ..इतने दिनों बाद जाने पर कोई भाव तो उसके चेहरे पर दिखने चाहिए. उल्लासित सी सीढियों पर अपनी पेन्सिल हील जोरों से खटखटाती .....चौंक कर देखेगा..तो आँखों में अनायास आए भाव जरूर पकड़ में आ जायेंगे. आहट सुन,चौंकता तो जरूर पर आँखें उसी गहरी उदासी में डूबी हुई सी लगतीं. ..जैसे इस दुनिया का वासी नहीं है,वह...उसे कोई सरोकार नहीं,अपने आस-पास से...सब कुछ एक असम्पृक्त भाव से देखता हुआ. लेकिन वह भी हार नहीं मानने वाली...उसे इस दुनिया में वापस लौटने को मजबूर करके रहेगी....हालांकि अब बुरी तरह ऊब चुकी थी वो..हर हफ्ते एक नई किताब लाती और जोर से पलंग पर पटक देती....मानो इन किताबों का ही कुसूर हो...इतने दिन उसके आस-पास रहकर भी उसे कुछ नहीं सिखा सके. मन ही मन खीझ उठती...' सोचता होगा...देखें कबतक आती है?....देखते रहो बच्चू .. चाहूँ..तो तुम्हारी सारी दुकान खरीद लूँ...समझते क्या हो...शाहर के सबसे अमीर लोगों में से एक हैं. डैडी....'

लेकिन ये अमीरी ही तो अभिशाप है उसके लिए...डैडी से तो खैर उनके व्यस्त समय का एक टुकड़ा पाने की चाह भी आकाशकुसुम सी है..पर माँ!!...अगर डैडी को दोनों हाथों से धन बटोरने का शौक था तो माँ को लुटाने का. जाने कितनी ही सामाजिक संस्थाओं की सदस्या  या अध्यक्षा  थीं माँ....हमेशा कोई ना कोई कार्यक्रम चलता रहता...आज नेत्र चिकित्सा का शिविर लगा है...तो कल बालिकाओं की शिक्षा  सम्बन्धी...,माँ बढ़-चढ़ कर सबमे हिस्सा लेतीं...उसे कहीं अच्छा भी लगता...'माँ..सिर्फ साड़ियों-जेवरों और पार्टियों में ना उलझ कर अपने समय का सार्थक उपयोग कर रही हैं.' पर उसके हिस्से का समय भी इन सब कार्यक्रमों की भेंट चढ़ जाता ....ये कसक उसके मन में बनी रहती. 

वह माता-पिता के बीच पेंडुलम सी डोलती रहती. डैडी के सामने कभी पड़ जाती तो डैडी पूछ बैठते..."कुछ चाहिए बेटे...पैसे हैं?? मैं...( कलकता,दिल्ली,बैंगलोर ) जा रहा हूँ...कुछ मंगवाना है वहाँ से.."

"नहीं डैडी...कुछ नहीं चाहिए..." वो मीठी सी मुस्कराहट के साथ कह देती...पर  मन तिक्त हो जाता....ये नहीं कह पाती...'डैडी थोड़ा सा आपका समय चाहिए...आपके साथ अखबार की ख़बरें डिस्कस करनी है....कॉमेडी शो देखकर हँसना है....साथ में बगीचे में पानी देना है...सुबह की भीगी घास पर टहलते  हुए..या छत पर ठंडी हवा के झोंको के साथ....आपसे, आपके स्कूल-कॉलेज..आपके बचपन...के किस्से सुनने हैं.." और ये सब सोचते रोष उमड़ आता...डैडी बस सोचते हैं..'रुपये दे दिया...उनकी जिम्मेवारी ख़तम....जी में आता जितने भी पैसे हैं पास में...दे मारे फर्श पर...क्या करेगी वो रुपयों का...बड़े शहर में होती तो शायद इनके सहारे ही कुछ झूठी हंसी-मुस्कुराहटें ही खरीदने की कोशिश करती...कितना कहा..'हॉस्टल में रहकर पढूंगी'..लेकिन नहीं..इकलौती लाडली बेटी को कैसे दूर रखेंगे भला...दूर??..क्या दूरी सिर्फ मीलों ..किलोमीटर में ही नापी जाती हैं....हज़ारों किलोमीटर दूर विदेश में बसे उसके दोस्त जितना करीब हैं उसके...एक ही छत के नीचे रहते ये परम स्नेहिल माता-पिता हैं??
माँ ...बगल के कमरे से जिनकी साँसें भी सुन सकती हैं...वो माँ ही कितने करीब हैं उसके? अनाथाश्रम में  कितनी ही बिन माँ की बच्चियों के हर सुख-दुख का ख्याल रखती हैं...पर उनकी अपनी बेटी किस अकेलेपन से जूझती है..इसका ख्याल कभी आता है,उनके मन में? .......महीनो....जो घंटों-दिनों-हफ़्तों की शक्लों में खींचते चले जाते हैं...जब भी नज़र पड़े...माँ का एक ही सवाल होता....."खाना खाया"...चाहे दिन के तीन बज रहे हों या  रात के ग्यारह...और वो मारे गुस्से के दो-दो दिन सिर्फ कड़वी कॉफी पर काट देती.
कभी-कभी बड़ी विह्वलता से सोचती...काश! उसके भी कोई भाई-बहन होता तो शायद इस घर में रहना उसके लिए आसान हो जाता. पर फिर सोचती...कितनी स्वार्थी है वह...उस बेचारे को भी तो यही सब भुगतना पड़ता.

कोई सच्ची दोस्त भी तो नहीं बनती उसकी.....कहने को तो ढेरों सहेलियाँ उसे घेरे रहती हैं...उसकी हर बात पे हंसी की लहरें मचल; पड़ती हैं. पर असलियत उसे पता है..सबके बीच उसकी सबसे अच्छी सहेली दिखाने की होड़ लगी होती है.. सब चापलूसी भरे स्वर में उसकी हाँ में हाँ मिलाती उसके आगे-पीछे घूमती रहती हैं. स्टेटस की बात छोड़ भी दें तो उसके मानसिक स्तर तक भी पहुंचन सबके लिए मुमकिन नहीं....अधिकांश लडकियाँ पढ़ाई को टाईमपास की तरह लेतीं....किसी ऊँचे ओहदे  पर कार्यरत लड़के को पाने के लिए एक डिग्री लेने की चाह में थी, उनकी  ये पढ़ाई. कुछ पढ़ाई में गंभीरता से रूचि लेने वाली थीं भीं तो वे बस किताबी कीड़ा ही थीं. उन्हें बाहर की दुनिया की कोई खबर नहीं होती . जबकि उसे दुनिया की हर गतिविधि में रूचि थी...और ऐसे में बड़ी शिद्दत से याद आती कृतिका...बस इंटर में ही उसका साथ था. दो साल के लिए उसके पिता का ट्रांसफर इसी शहर में हुआ था. कृतिका बिलकुल उस जैसी थी...किताबें पढना...गज़लें सुनना..फिल्मे देखना...और पढ़ाई भी करना...कृतिका के साथ ने ही उसे उसकी अपनी  हंसी से परिचय कराया...उसे पता ही नहीं था..इतना खुलकर हंस सकती है वो. 

उसकी निर्झर सी हंसी देख कृतिका....छेड़ जाती..."बस औरों के सामने ना हँसना यूँ...चारो तरफ से छन-छन की आवाजें आने लगेंगी.."

वो अबूझ सी भृकुटी चढ़ा पूछती ,तो कृतिका कह उठती...'दिलों के टूटने की आवाज़ स्टुपिड.."

'हह..दिल होते हैं आजकल  लोगो के पास...जो टूटें.."

"समय आने पर पता चलेगा..मैम..और तब पूछूंगी.."

कृतिका के साथ समय पंख लगा कर उड़ जाता..पर पता नहीं था...उन पंखों की गति इतनी तेज़ थी कि वो उनके साथ के समय को ही उड़ा कर ले जाएगा. कृतिका चली गयी....कुछ दिनों तक..फोन...इंटरनेट के सहारे दोस्ती बनी रही...पर समय के साथ कृतिका को नए दोस्त मिल गए....उसका उत्साह वैसा ही बना रहता..पर कृतिका की ओर से ठंढेपन का अहसास होता और सारे तार तोड़ लिए उसने...नहीं चाहिए किसी की हमदर्दी भरी दोस्ती....उसके पास अकेलापन है....लेकिन है तो है...वो जबरदस्ती तो किसी को बाँध कर नहीं रख सकती. वह बराबर जमीन पर ही मिलना चाहती है ,किसी से....ना चाहती है कि एक सीढ़ी भी नीची रहे...ना ही एक सीढ़ी ऊपर रहने की ही कोई ख्वाईश है. 

जाने क्यूँ ,आज बड़ी तीव्रता से  याद आ रहा था, सब कुछ....गले के नीचे कुछ चिपचिपाहट  सी लगी. सर उठा कर तकिये पर हाथ फेरा....ओह!! ना जाने कब से आँसू बह-बह कर तकिया गिला कर रहे थे.

झटके से उठी और सीधा शॉवर  के नीचे जाकर खड़ी हो गयी. देर तक ठंढे  पानी कि बौछारें पड़ती रहीं...तब दिमाग कुछ सोचने समझने लायक हुआ...ओह! तो अब घुटन इतनी बढ़ गयी है कि ये आँसू हमराह हो गए हैं,अब उसके. अब तक ..गाहे-बगाहे..ऐसे ख्याल आते तो रहे  हैं पर एक अनाम गुस्सा ही पलता रहता  भीतर. जी में आता...सब तोड़-फोड़ डाले...तहस नहस कर दे...वे किताबें...वो फूल दान...वो सी डी...पर इस तरह असहाय होकर कभी रोई तो नहीं. फिर आज क्यूँ...क्यूँ आखिर....कहीं उस किताबवाले की बेरुखी ने तो असर नहीं कर डाला...और सर झटक डाला,उसने...'नॉनसेंस..इट्स औल रब्बिश......ही कैन गो टू हेल...उसकी परवाह करेगी वो??..उस जैसे छोटे आदमी की??... उसे बहुत शान है क्या....कि सबसे बड़ी दुकान उसकी ही  है, इस शहर में.....और उस पर 'एच .पी. शाही'. जैसी नामी गिरामी हस्ती की बेटी यूँ दौड़ दौड़ कर आती है. हुंह! माइ फुट!..अब एक बार भी नहीं जायेगी...बहुत जरूरी हुआ तो किसी फ्रेंड के मार्फ़त मंगवा लेगी...ना हो..ड्राइवर से मंगवा लेगी, पर पैर नहीं रखेगी उसकी दुकान पर.

चैटर्जी सर ने ऑर्गेनिक केमिस्ट्री में टी. शर्मा की किताब लेने को कहा...उस दुकान के सामने पहुंचते ही...वो यंत्रवत ड्राइवर से  बोल उठी...." यहाँ रोकना जरा..." 
दरवाजे के हैंडल पर हाथ रखा ही था कि याद आया..."उसे तो नहीं जाना ना.."
हाथ हटा लिया..."ना ड्राइवर से ही मंगवा लेती है"

लेकिन ड्राइवर क्या जानने गया..."ऑर्गेनिक या फिजिकल केमिस्ट्री..कहीं उसे बेवकूफ बनाने को दूसरी पुस्तक पकड़ा दी तो?...गाड़ी तो पहचान ही गया होगा...और एक ही झटके से गाड़ी से उतर कर जोर से दरवाज़ा बंद कर दिया...." हुंह ! वो क्यूँ परवाह करे किसी की ..."

और खटाखट सीढियां चढ़, हाथ बांधे, चेहरे पर अतिव्यस्तता का मुखौटा लगाए, पूरी गंभीरता से बोली..."टी शर्मा की  ऑर्गेनिक केमिस्ट्री है क्या?"

वह किताबों के बीच कुछ ढूंढ रहा था....हलके से चौंक कर मुडा...पल-भर को निगाहें मिलीं....ओफ्फ़!! किस कदर उदास हैं ये आँखें....ये बस जन्म से ऐसी ही हैं...या इनके पीछे कोई कहानी छुपी हुई है. किसका सीना ना चाक कर दे ..उदासी के गह्वर में डूबी ये आँखें..चेहरे पर बच्चों सी मासूमियत...और आँखें ऐसीं जैसे ना जाने कितने वसंत देख चुकी हों ...और आज तक बस खोया ही खोया हो. उसकी तनी हुई नसें थोड़ी ढीली पड़ने लगीं कि ख्याल आया उसे तो नाराज़गी दिखानी है...फिर से अकड़ कर सीधी खड़ी हो गयी.

वह कुछ क्षणों तक होठों को तर्जनी से थपथपाता रहा, फिर बड़ी नम्रता से बोला...."आsssप एक मिनट ठहरें....मैं बगल से मंगवा दे रहा हूँ. "अरे ये क्या सचमुच टेलीपैथी का कोई अस्तित्व है?....इसे कैसे खबर हो गयी...उसके मूड की...आज तक तो कभी इतनी रियायत नज़र नहीं आई. 'नहीं' शब्द छोड़कर आज तक दूसरा सुना ही नहीं...और आज तो ये पूरा वाक्य बोल गया. अगर किताब होती तो उसे से नहीं..दुकान में काम करने वाले लड़कों से कहता....निकाल कर देने को...और नहीं होती तो सिर्फ एक 'सपाट' नहीं .
उसके चेहरे की  कठोरता कम पड़ने लगी लेकिन उसने जल्दी से फिर से वही सख्त भाव ओढ़ लिए और कड़क कर पूछा, "देर लगेगी?"

"नहीं..नहीं.." उसने फिर बड़ी नम्रता से सर हिलाकर कहा..जैसे किसी दूसरे जहां से बोल रहा हो..." बिलकुल पास ही है...रामेश्वर देखना तो चौधरी बुक डिपो में हो शायद....थी मेरे पास भी..पर ख़त्म हो गयी..." वैसे ही होठों को तर्जनी से थपथपाता अपनी जगह खड़ा रहा...ना तो उसने  कोई किताब उठायी ना ही खुद को कहीं और व्यस्त किया.

उसका सारा तनाव ढीला पड़ गया....हल्का सा दीवार का सहारा लिए पीठ टिका दी....हाथ...सामने कौर्निस पर रखा और तुरंत ही समेट लिए..क्या पता...सोचे अपने लम्बे-लम्बे पेंटेड नाखून दिखा रही है..."
(क्रमशः) 

Sunday, April 10, 2011

आखिर कब तक ??

{सबसे पहले तो क्षमाप्राथी हूँ ,पाठकों...बहुत दिनों बाद कोई कहानी लिखी है...जबकि महीनो पहले खुद से और आप सबसे, एक लम्बी कहानी  लिखने का वायदा भी किया था...कहानी रोज ही दस्तक देती है...पर दूसरे ब्लॉग ने कुछ इतना व्यस्त कर रखा है...कि लिख ही नहीं पा रही. वो तो भला हो आकाशवाणी वालों का कि तकाज़ा कर के कहानी लिखवा ही लेते हैं और unedited version जो पहले पन्नो में ही दबी रह जाती थी..अब यहाँ पोस्ट कर सकती हूँ....अग्रिम शुक्रिया, सबका :) }

वह घर में सबसे छोटी थी...तितली की तरह सबके आस-पास मंडराती हुई...चिड़िया की तरह फुदक कर कभी घर के अंदर आती तो कभी बाहर. घर वालों की  ही नहीं...पड़ोसियों की भी प्यारी. उसके  कॉलेज से घर आते ही शर्मा चाची अक्सर कभी गरम हलवे , कभी गरम पोहे की प्लेट भेज देतीं. जब पूछती, "आपको कैसे पता चल जाता है....मैं घर आ गयी??"...

"अरे तेरे पंचम सुर के आलाप से पता  चल जाता है...जितनी  देर घर में तू होती है...तेरे गाने की मीठी आवाज़ आती  रहती है."

"एक दिन धोबी भी आ जायेगा ...अपने गधों को ढूंढते हुए "....ये उस से दो साल  बड़े भाई की आवाज़ थी.

"भैया sss." कह कर झपटी तो उसकी चोटी आ गयी  भैया के हाथो में...."बोल और झपटेगी ..कटखनी बिल्ली...."वह उसकी  चोटी थोड़ी और खींचता और वो चिल्ला पड़ती.."माँ sss "

माँ की आवाज़ सुनते ही भैया चोटी छोड़...किताब में आँखे गड़ा लेता....शर्मा चाची के बच्चे बड़े थे और नौकरी पर दूसरे शहर चले गए थे...उन्हें उन सबकी ये शरारत बड़ी अच्छी  लगती...माँ दोनों को डाँटती तो शर्मा चाची  ,उन्हें समझातीं..."जाने दो..शिवानी की माँ रौनक बनी रहती है..एक दिन मेरे जैसे तरसोगी कि लड़ने को ही सही बच्चे पास तो होते"....और वो भैया को जीभ चिढ़ा कर भागती तो भैया  फिर से किताबे फेंक उसके पीछे  भागता....माँ सर पे हाथ रख लेतीं..."ओह!!  कोई किसी से कम नहीं "

भैया हमेशा  चिढ़ता-खिझाता रहता पर उसे कॉलेज के लिए देर होती तो बाइक से झट कॉलेज छोड़ आता. रात में उसके साथ बैठकर उसे मैथ्स समझाता. अगर भैया की पेन उसके हाथों गुम हो गयी तो पापा जी  से शिकायत कर देता. पापा की यूँ तो वो सबसे लाडली थी पर न्याय करने के लिए पापा उसे झूठ-मूठ का भी डांट देते तो भैया को ही बुरा लग जाता , फिर उसके लिए चॉकलेट जरूर लेकर आता.

दीदी तो जैसे उसकी फ्रेंड-फिलौस्फार-गाइड ही थी...बचपन से उसके किताबो पर कवर लगा देना...उसकी किताबों की  रैक ठीक कर देना ....अपने दुपट्टे से ,उसकी गुड़िया की  सुन्दर साड़ी बना  देना . होमवर्क में मदद करना. उसकी शैतानियों को हमेशा छुपाना...दीदी ये सारा कुछ उसके लिए करती.  सहेली  से लड़ाई हो जाए तो आँसू भी दीदी ही पोछती.
 
बुआ जब भी यहाँ आती...माँ को समझाती..."भाभी  इसे भी  कुछ रसोई का काम सिखाओ  कल को पराये घर जाएगी...क्या कहेंगे सब...कि घर वालों ने कुछ सिखाया ही नहीं है. खानदान का नाम कटवा देगी,लड़की"

माँ, बुआ  की बात रखने को उसे किचन में भेज देती...और दीदी को आवाज़ लगाती " शिवानी!  आज सारा काम गुड़िया से ही करवाना "

उसका अच्छा भला नाम था स्नेहा, पर सब गुड़िया ही कहते...जब दोस्त उसे चिढाते तो उसे बहुत गुस्सा आता पर घर वालों को कौन समझाये...कॉलेज  में पढनेवाली लड़की को भी गुड़िया ही बुलाते. वो किचन में जाती तो जरूर पर दरवाजे की ओट में नॉवेल  पढ़ती रहती और दीदी भी मुस्कुरा कर कुछ नहीं कहती...बल्कि माँ की आहट सुनते  ही उसे आगाह कर देती और वो झूठ-मूठ बर्तन उठाने-रखने लगती. माँ को कुछ दाल में काला नज़र आता ,वो उसे अविश्वास से देखती तो वो पलट कर पूछती.."क्या हुआ.....तुमने कहा ना...किचन में काम करो..तो कर रही  हूँ....कल  क्लास टेस्ट है...इतना पढना है पर जाने दो, कम नंबर आए तो क्या....किचन का काम सीखना ज्यादा जरूरी है...आखिर खानदान की नाक का सवाल है "

माँ कहती.."अच्छा बाबा जा....बहुत काम कर लिया...जा तू पढ़ ,मैं शिवानी का हाथ बटाती हूँ "

वो चुपके से  नॉवेल उठा...दीदी की तरफ  एक मुस्कराहट फेंक भाग जाती .

दीदी की शादी हो गयी तो जैसे उसपर प्यार न्योछावर करनेवाले एक और जन की बढ़ोत्तरी  हो गयी. जीजाजी  की कोई छोटी बहन नहीं थी...वे अपनी छोटी बहन का सारा शौक उसके जरिये ही पूरी करते. अब कॉलेज में सहेलियाँ, उसका नया बैग....नई सैंडल....नई ड्रेस सब हैरानी से देखतीं और वो इतरा  कर कहती.."मेरे जीजाजी  लाए हैं...बम्बई  से  "

***

अभी बी.ए. पास किया कि बुआ एक रिश्ता ले आयीं...."बड़े अच्छे  लोग हैं...लड़का अफसर है....ज्यादा मांग नहीं उनकी...बस देखे-भाले  घर की लड़की चाहते हैं...मुझसे बरसों का परिचय है. मैने गुड़िया की बात चलाई तो झट मान गए "

पिता जी को लगता था...अभी बहुत छोटी है...भैया उसे और आगे पढ़ने देने और किसी नौकरी के बाद ही, शादी के पक्ष में था...पर बुआ, पिताजी से बड़ी थीं...माँ की तरह पाला था...पिताजी की एक ना चली ,उनके सामने .
दीदी की तो शादी होते ही जैसे यह घर पराया हो गया था...यहाँ के मामलो में वह मुहँ नहीं खोलती...उसने जब थोड़ा डरते हुए  हुए दीदी को फोन किया

" दीदी वहाँ,  सबसे बड़ी हो जाउंगी मैं...कैसे सम्भालूंगी...??"

"संभालना क्या है...कोई छोटे बच्चे थोड़े ही हैं वे सब....अच्छा साथ रहेगा....खुश रहेगी तू...यहाँ पर  देख तेरे जीजाजी  ऑफिस चले जाते हैं..तो सारा दिन मैं अकेले पड़ी रहती हूँ...ज्वाइंट   फॅमिली में समय अच्छा कट जाता है "

दीदी के समझाने पर उसके मन का डर भी जाता रहा. कहीं ये भी लग रहा था...क्या रौब होगी..बड़ी भाभी बनेगी वह ..यहाँ तो सबसे छोटा समझ सब बस लाड़-प्यार ही लुटाते हैं...कोई गंभीरता से लेता ही नहीं.  
 पर ससुराल वालों की गंभीरता का अंदाजा उसे एंगेजमेंट से ही होने लगा. पास में बैठे अजनबी ने जैसे बस एक उचटती नज़र डाली उस पर. वरना कई कजिन्स को देख चुकी थी...लड़के जैसे बात करने के बहाने ही ढूंढते रहते.

शादी के रस्मो में भी होने वाले पति को गंभीर मुखमुद्रा में ही देखा. सहेलियों को ज्यादा मजाक करने की हिम्मत भी नहीं  हुई.

माँ ने समझाया था...ससुराल में जल्दी से उठ कर चाय बना देना....यहाँ की तरह आठ बजे तक मत सोती रहना. उसे भी दिखाना था...वह अपने घर की छोटी-लाडली है तो क्या जिम्मेवारियाँ संभालना  खूब आता है,उसे. सुबह ही उठ, नहा-धो किचन में पहुँच गयी. चाय बना कर ट्रे लेकर निकल  ही रही थी कि सासू माँ ने टोक दिया..."बहू पल्ला रखो सर पर "

अब थोड़ी देर वो इसी में उलझी रही..पल्लू  रख जैसे ही  ट्रे थामे, पल्लू  गिर जाए. फिर से पल्लू संभाले...सासू माँ गौर से ये सब देखती रहीं पर कहा नहीं कि 'रहने दो'...आखिरकार उसने पल्लू ठुड्डी से दबाया और किसी तरह, आगे बढ़ी तो लगे कि साड़ी अभी पाँव में उलझ जायेगी और वो गिर जाएगी...किसी तरह मैनेज किया. ससुर जी के सामने ट्रे रखी...सोचा ससुर जी खुश हो जाएंगे...और दो घड़ी पास बैठा बातें करेंगे ...पर उन्होंने अखबार हटा कर एक बार देखा और फिर अखबार में नज़रें गड़ा लीं....जब उसने बड़ी नम्रता से पूछा, "चीनी कितनी चम्मच?" सपाट स्वर में उत्तर मिला.."एक चम्मच "

वह निराश सी बाहर चली आई. फिर भी, कोशिश नहीं छोड़ी....खाने के समय पास खड़ी रहती..पूछती रहती ..."और सब्जी दूँ...रायता दूँ..".कोई ना कोई बात शुरू कर देती..आज गर्मी बहुत है...आपको ऑफिस से आते वक्त ज्यादा ट्रैफिक तो नहीं मिला....एक दिन ससुर जी ने रूखे स्वर में कह दिया..."जो चाहिए कह दूंगा...प्लीज़ डोंट डिस्टर्ब..." शायद ससुर जी को अपने रूटीन में बदलाव पसंद ना था. वे घर में किसी से भी बहुत कम बातें किया करते  थे.

ससुर जी की ही आदत उनके बड़े बेटे को भी थी....घर में सिर्फ खाने-कपड़े से ही मतलब था....दोनों बाप-बेटे टी.वी. पर समाचार देखते और जैसे ही सासू जी के सीरियल देखने  का वक्त होता....दोनों उठकर अपने-अपने कमरे में चले जाते. वह असमंजस में पड़ जाती..पति के साथ,कमरे में बैठे  या सासू माँ के साथ सीरियल देखे. पति तो अपने लैप टॉप पर दफ्तर का कोई काम लिए बैठे होते...वह कमरे...ड्राइंग  रूम और किचन का चक्कर लगाती रहती.

शादी से पहले ,इतनी खुश थी....हमउम्र देवर और ननदें हैं...बढ़िया वक्त कटेगा....उसने सोचा ननद की कोई बहन नहीं वो सार प्यार उंडेल देगी...पर ननद कॉलेज से सीधी अपने कमरे में जाती और सेल फोन से चिपक जाती. एकाध बार उसने जबदस्ती कमरे में जा बात करने की कोशिश भी की ..तो ननद ने बड़े अनमने भाव से उत्तर दिया....और वो पलट कर दरवाजे तक भी नहीं पहुंची थी कि  ननद पीठ फेरे...किसी को फोन पे कह रही थी..."अरे भाभी थीं...कॉलेज से आओ नहीं कि बहाने से आ जाती हैं कमरे में....इत्मीनान से फोन पे बात भी ना कर सको..."

उसने ननद से दोस्ती बढाने की कोशिश छोड़ ही दी...उसे लगा था, देवर हमेशा भाभियों के प्यारे होते हैं...एक दिन देवर अपने दोस्त के साथ सिनेमा देखने गए थे. सास और पति के मना करने के बावजूद वो उसका इंतज़ार करती रही...ड्राइंग रूम में चैनल बदल कर समय काटती रही...देवर ने अपनी चाबी से दरवाज़ा खोला...और उसे ड्राइंगरूम में देख एक मिनट के लिए हेडफोन निकाला और पूछा..."अरे भाभी नींद नहीं आ रही आपको...या भैया से लड़ाई हो गयी...हाँ " और फिर से हेडफोन कान में लगाए गाने पर झूमता सर हिलाता अपने कमरे में चला गया.

उसने ही  कमरे के दरवाजे पर जाकर पूछा, "खाना गरम करती हूँ....जल्दी से हाथ मुहँ धोकर आ जाइए..."
"ओह! क्या भाभी....आप कितनी ओल्ड फैशंड हैं....मुझे खाना होगा...तो माइक्रोवेव में गरम कर लूँगा..वैसे अक्सर मैं खाना खा कर ही आता हूँ...गुड़ नाईट भाभी एंड  थैंक्स फॉर आस्किंग .."..कह कर वापस हेडफोन लगा...झूमना शुरू कर दिया.

इस घर का  रंग-ढंग अलग सा था...सब एक छत के नीचे रहते थे...पर सबकी दुनिया अलग थी...वो सबकी दुनिया में कदम रखने  की कोशिश करती...पर दरवाज़ा बंद पाती...और फिर बंद दरवाजे से टकरा बार-बार उसका मन लहु-लुहान हो जाता.

पति को घूमने -फिरने का शौक  नहीं था...उनका देखा-जाना अपना शहर था...कोई उत्साह नहीं रहता ,कहीं जाने का. शुरू-शुरू में वो ही जिद कर बाहर जाने पर मजबूर करती. पति बड़े बेमन से, गंभीर चेहरा  बनाए साथ हो लेते ....पर हर जगह कोई ना कोई परिचित मिल जाता और फिर तो पति की मुखमुद्रा बिलकुल बदल  जाती..इतने गर्मजोशी से मिलते और बातों का वो सिलसिला शुरू होता कि उसकी उपस्थिति ही भूल  जाते. धीरे-धीरे बाहर घूमने जाने का उसका सारा उत्साह ठंढा पड़ गया.

बस एक सहारा दीदी और सहेलियों के फोन का रहता..फोन पर बात करते वो अपने आस-पास का  पूरा परिवेश भूल, जाती..लगता वही कॉलेज का लॉन है या फिर घर की छत. ऐसे ही एक दिन देर तक बातें की थी दीदी से...दीदी ने उन्हें बम्बई बुलाया था और पतिदेव ने भी हामी भर दी थी...मन इतना खुश-खुश था...बाथरूम में देर तक गुनगुनाते हुए नहाती रही....बाहर निकली तब भी गीले बालों को झटकते गाना जारी रहा....कुछ  देर बाद जब लम्बे बाल पीछे की तरफ फेंक सामने देखा तो दरवाजे पर खड़े पति गौर से देख रहे थे. एक सल्लज मुस्कान फ़ैल गयी उसके चहरे पर...ये ध्यान भी आया, यहाँ  आकर तो वह गाना ही भूल गयी है...पति ने पहली बार उसका गाना सुना है...शायद अभी आकर बाहों में भर लेंगे और कहेंगे, "कितनी मीठी आवाज़ है तुम्हारी...हरदम क्यूँ नहीं गाती?" .इंतज़ार में जैसे साँसे भी रुक गयी थीं...पर कोई आहट नहीं हुई..नज़रें उठा कर देखा तो पति अखबार उठा कुर्सी की तरफ जा रहे थे...उसे अपनी तरफ देखता पाकर बोले..."इतनी जोर से गा रही हो...बगल के कमरे में ही माँ- पापा हैं ...कुछ तो सोचा करो..." और अखबार फैला लिया सामने. मन तो हुआ, वो भी पैर पटकती हुई  बाहर चली जाए. पर फिर सोचा..आज इतवार है और दिन बस शुरू ही हुआ है..सारा दिन अबोला रह जाएगा. किसी तरह आँसू ज़ज्ब करते हुए , स्वर को सामान्य बनाते हुए , पूछा..."दीदी ने बुलाया है....आपने भी हाँ कहा..कब चलेंगे ?"

"छुट्टी कहाँ है??...इतना काम है दफ्तर में...कैसे जा सकता हूँ??...अब वो , हाँ तो कहना ही पड़ता है...बाद में कोई बहाना  बना देंगे " और कहते अखबार में डूब गए.

वो जैसे आसमान से गिरी....कितनी खुश थी  वह... कितनी ही योजनायें बना डालीं . अब अपने आँसू रोकना मुश्किल हो गया. किचन में जाकर ढेर सारे प्याज काट डाले. सास ने आश्चर्य से पूछा..."इतने सारे प्याज??"
ऑंखें नाक पोंछते हुए इतना ही कहा..."हाँ, आज सोचा आलू दोप्याज़ा बना दूँ  "

***
 उसने तय कर लिया, अगर घर वालों  की अपनी दुनिया है तो वो भी अपनी अलग दुनिया बसा लेगी और खुश रहेगी,उसमे. और खाली वक्त में अखबारों के कॉलम देखने  लगी..या तो नौकरी करेगी या फिर कोई बढ़िया सा कोर्स. अभी यह तलाश जारी ही थी  कि माँ बनने की खुशखबरी मिली. लगा  अब घर का माहौल बदल  जाएगा.
नन्हे बेटे की किलकारी ने घर में रौनक तो ला दी. पर उसकी दिनचर्या में ज्यादा बदलाव  नहीं आया , बल्कि  नई जिम्मेवारियाँ और शुमार हो गयीं. बेटे को तो सब खूब खिलाते...सार दिन घर का कोई ना कोई सदस्य गोद में उठाये फिरता. पर काम सारा उसके जिम्मे था..."स्नेहा जरा,इसके कपड़े बदल  दो "  दूध  का टाइम  हो गया है..दूध पिला दो."..."लगता  है नींद आ रही है..सुला दो.." वो नींद में ही उसके पास आता. कभी-कभी उसे लगने लगता कहीं बड़ा होकर ये ना सोचे माँ सिर्फ काम के लिए ही होती है..और बाकी सबलोग साथ खेलने को.

मितभाषी पति भी बेटे के साथ खूब खेलते....एक दिन प्रैम  खरीद कर ले आए ,वो  बहुत खुश हुई...अब
प्रैम में बेटे को लिटा..दोनों पति-पत्नी पार्क में उसे घुमाने के लिए ले जाया करेंगे. लेकिन दूसरे दिन  ही पति ने ऑफिस से आते ही जल्दी से कपड़े बदले...और बोले...'इसे तैयार कर दो..जरा मैं घुमा कर ले  आता हूँ "
 

वो मन मसोस कर रह गयी. 'हाँ..उसे तो किचन देखना है...वो कैसे जा  सकती है??' 

***
जब देवर की भी शादी तय हो गयी तो सबसे ज्यादा ख़ुशी उसे ही हुई ...एक सहेली मिल जाएगी उसे...वो भी तो दूसरे घर से आएगी...यहाँ के तौर-तरीके से अनभिग्य . तय कर लिया ,उसे वो कभी अकेलापन  नहीं महसूस होने देगी.

पर उसने पाया ...देवरानी ने तो कोई कोशिश ही नहीं की इस घर में घुलने-मिलने की. पहले दिन ही
इतनी देर तक सोती रही कि सासू जी को ननद को भेजना पड़ा,उसे जगाने . और जब उसे नहा धोकर नाश्ते के लिए बाहर आने के लिए कहा गया तो कह दिया..."अभी तो तैयार होने में बहुत समय लगेगा...दोनों जन का नाश्ता कमरे में ही भिजवा दी जाए." ननद पैर पटकती हुई अपने कमरे में चली गयी...."मेरे हाथों भेजने की सोचना भी मत "

सासू जी ने असहाय हो  उसकी तरफ देखा तो वो भाग कर कामवाली को बुला लाई...शुक्र है, उसने उसे अतिरिक्त पैसे का वायदा कर दिन भर  के लिए रोक लिया था......वरना उसे ही सेवा में हाज़िर होना पड़ता.
देवरानी ने बाद में भी कभी जल्दी उठने की कोशिश नहीं की..बल्कि उसे ही कहती.."आप कैसे इतनी जल्दी उठ जाती हैं....मेरी तो आँख ही नहीं खुलती" क्या बताये वो...'मायके में वो भी देर तक सोया करती थी."

देवर के ऑफिस जाने के बाद ही वो नहा धोकर बाहर आती....सासू माँ को कुछ टोकने का मौका ही नहीं मिलता और तब तक किचन का सारा काम सिमट गया होता. थोड़ी देर इधर-उधर घूम फिर अपने कमरे मे चली जाती. अपने कपड़े -जेवर -चूड़ियाँ सम्हालती  रहती. कमरे को सजाती रहती. सास-ननदें भी तारीफ़  करतीं. 'कितने सुंदर ढंग से सजा कर अपना कमरा रखती है'
वो इशारा समझ जाती...पर कह  नहीं पाती कि 'मैं तो सारा घर ही संभालती रहती थी...अपने कमरे की बारी ही नहीं आती '

देवरानी दिन में सो जाती और सोकर उठते ही तैयार होना शुरू कर देती. देवर ऑफिस से आ बमुश्किल चाय पीते और पत्नीश्री को लेकर घूमने निकल  जाते. सास भी स्नेह से निहारते हुए कहतीं, "एकदम राम-सीता सी जोड़ी है...दोनों के ही एक से शौक, निलय घूमने-फिरने का शौक़ीन....बहू भी वैसी ही मिली है....निशांत तो  अपना भोले राम है...उसे कभी भी घूमने -फिरने का शौक नहीं रहा "

उनके शौक ना होने की  वजह से वो कितना घुटती रही...इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता.

देवरानी किसी दिन घूमने नहीं जाती और किचन में आ कभी सब्जी बना देती तो पूरे घर में शोर हो जाता...खाने की टेबल पर सासू जी इंगित करतीं.."आज तो सब्जी ,छोटी बहू ने बनाई है...." और हमेशा मौन रहकर खाना खाने वाले ससुर जी...भी बोल पड़ते, "अच्छाss थोड़ी और दो...बहुत बढ़िया बनी है..." पतिदेव को लगता ,उन्हें भी हाँ में हाँ मिलानी चाहिए...वे भी स्वाद लेते हुए बोलते..."सचमुच बहुत बढ़िया बनी है..." देवर इस प्रशंसा पर ऐसे फूलते, जैसे उनकी ही तारीफ़ हो रही हो.

***

आज वो बेटे को थपकते-थपकते  खुद भी लेट गयी थी...पर नींद आँखों से कोसों दूर थी...शारीरिक थकान से ज्यादा मानसिक  थकान थी, शायद. वह अपने  दिन याद कर रही थी,जब नई-नई इस घर में आई थी...सबके आस-पास मंडराती रहती पर कोई नोटिस भी नहीं लेता बल्कि अक्सर उपेक्षा ही झेलनी पड़ती और आज यही देवरानी....अपने कमरे में ही बनी रहती है...तो पति -ससुर सब पूछ लेते हैं....'अंकिता नहीं दिख रही...उसकी तबियत तो ठीक है...?"

उस से तो किसी ने नहीं पूछा, कभी...पर उसने कभी मौका ही नहीं दिया...बुखार में भी गोलियाँ ले कर काम में लगी रहती. क्या ये ठीक किया ??
मायके में किसी ने  उसे कभी सामने बिठा कर नहीं समझाया पर उम्र की सीढियां पार करते हुए, कहानियों में, धर्मग्रंथों में पढ़कर.....फिल्मो में देखकर..अपनी दादी-नानी-बुआ-मौसी-माँ को देखकर यह  अहसास अपने आप मन में घर करता गया कि लड़की को त्याग करना चाहिए...अपनी इच्छा के ऊपर दूसरों की इच्छा सर्वोपरि  रखनी चाहिए...सबको खुश रखना चाहिए...सारा दुख हँसते-हँसते सह जाना चाहिए....ससुराल के नियम-कायदे बिना ना-नुकुर के अपना लेने चाहिए.  और उसने इन सबमे कुछ ज्यादा ही  बहादुरी दिखाई...खुद आगे बढ़कर सारे काम अपने ऊपर ले लिए...और अब दो साल  में तो ससुर जी की दवाई....सासू जी की धूप -अगरबत्ती...ननद का डियो...देवर की जींस...पति की तो कोई भी  चीज़ अगर ना मिले तो सब एक ही पुकार लगाते हैं....और वो भी दौड़-दौड़ कर सबकी जरूरतें पूरी करती रहती है.

 पर इन सबमे उसकी स्थिति उस अदृश्य  हवा की तरह हो गयी ...जिसके बिना कोई जी नहीं सकता...सबको उसकी जरूरत है. पर हवा  दिखाई नहीं देती... हवा के लिए कुछ करने की जरूरत नहीं महसूस होती.....उसका ख्याल रखने की जरूरत नहीं पड़ती...ना ही उसकी अहमियत समझ में आती है. क्यूंकि वो तो हमेशा अपने आस-पास बनी हुई है.

खुद को  मिटा कर वह इस घर में इस तरह घुल-मिल गयी है कि उसका कोई अस्तित्व ही नहीं बचा....आज जब अंकिता अलग-थलग बनी हुई है तो सब उसका अस्तित्व महसूस तो कर रहे हैं. क्या जग की यही रीत है??...सामने झुके लोगों की ही उपेक्षा की जाती है. और अगर  कोई आपकी ही उपेक्षा करने लगे तब जाकर उसका अस्तित्व महसूस होता है.

अचानक घड़ी पर जो नज़र गयी तो देखा पांच बज गए हैं...एकदम से हडबडा कर उठ बैठी....अभी तो पानी आनेवाला होगा...सब जगह उसे पानी स्टोर करना है. घर में आते ही उसने ये काम सासू जी से अपने हाथों में ले लिया था. दौड़-दौड़ कर किचन बाथरूम...सब जगह पानी भरती और ये जिम्मेवारी उस पर आ पड़ी. ननद और सासू दोनों अपने अपने कमरे में आराम करती रहतीं और पानी आने के समय का ख्याल उसे ही रखना  पड़ता. सोचती..चलो,सासू जी ने तो इतने वर्षों तक ये सब किया है..ननद तो छोटी है...कॉलेज से थकी हुई आई है...ये सब उसे ही करना चाहिए.

पर अब तो घर में देवरानी भी है . वो भी कर सकती है...और वो दुबारा लेट गयी...जाने दो आज देखती है....कोई और उठता  है या नहीं,पानी भरने...अगर कोई पानी नहीं भरता तो होने दो थोड़ी मुश्किल...कह देगी, उसकी आँख लग गयी....आखिर वो भी इंसान ही है...कोई मशीन नहीं.

और फिर 'आहान' को तैयार कर पति के आने से पहले ही पार्क में ले जायेगी...कह देगी...रो रहा था...बहलाने को ले गयी...जब पति को नहीं महसूस होता कि ऑफिस से आकर कुछ समय पत्नी के साथ बिताएं तो वो ही क्यूँ पानी का ग्लास और चाय का कप  पकडाने को इंतज़ार करती रहे. खुद से लेकर पानी पी सकते हैं. बहन, माँ, अंकिता...कोई भी चाय बना कर दे सकती  है. चाहें तो बाद में पार्क में आ सकते हैं. और ना तो ना सही....अब उसे थोड़ा समय खुद के लिए भी निकालना  ही होगा...वरना उसका वजूद ही मिटता जा रहा है ....वो सिर्फ किसी की बेटी-बहू-माँ बन कर ही रह जायेगी.

यह फैसला करते ही एकदम हल्का हो आया मन और सालों बाद भुला हुआ सा पसंदीदा गीत होठों पर आ गया...गुनगुना उठी...
 

अजीब दास्ताँ है ये...कहाँ शुरू कहाँ ख़तम
ये मंजिलें हैं कौन सी...ना वो समझ सके...ना हम

Monday, December 27, 2010

कच्चे बखिए से रिश्ते (समापन किस्त )

(सरिता,अपनी सहेली के पति को अपने कॉलेज में ही लेक्चरर के पद पर नियुक्त करवाने में सहायता करती है. कुछ ही दिनों बाद उसकी सहेली की मृत्यु हो जाती है और उसके पति वीरेंद्र, कॉलेज में ज्यादातर समय ,सरिता के डिपार्टमेंट में बिताने लगते  हैं. पर सरिता को वीरेंद्र की कम्पनी रास नहीं आती फिर भी वह सहानुभूतिवश , उन्हें यह अहसास नहीं होने देती.)


गतांक से आगे

मुश्किल ये थी कि वीरेंद्र फिजिक्स  के प्रोफ़ेसर थे .और साइंस के अधिकतम छात्र, कोचिंग क्लास जाया करते लिहाजा..बहुत कम छात्र ही नियमित क्लास अटेंड किया करते.वीरेंद्र  भी  क्लास  में बीस मिनट बाद जाते और दस मिनट पहले निकल आते. कोई जिम्मेवारी  भी नहीं थी. वो कहती भी, "जो बच्चे..क्लास में ,बैठते हैं..शायद वे क्लोचिंग क्लास नहीं अफोर्ड कर पाते हैं..उन्हें ही मन से पढाया करिये .पर वे  गुस्से में बोल उठते,
"वे लोग  ऐसे भी नहीं पढने वाले...बहुत कमजोर हैं,पढने में ....साइंस  उनसे चलेगी नहीं..फेल होने वालो के उपर क्यूँ  मेहनत करूँ.." वह सोचती, तब तो दुगुनी मेहनत करनी चाहिए. पर सहेली के पति का ख्याल कर कुछ बोलती नहीं.
वीरेंद्र की निराशावादी बातें उसे परेशान कर देतीं...पर लिहाजवश वो कुछ भी ,रूडली नहीं बोल पाती. यूँ भी साइंस में नोट्स बनाने की जरूरत नहीं पड़ती. समय ही समय होता उनके पास. जबकि उसे सैकड़ो काम होते...नोट्स बनाने होते. लाइब्रेरी जाना होता..अपने साथी प्रोफेसर्स के साथ विचार-विमर्श..बहस भी नहीं हो पाती. सबसे जैसे वो कटती जा रही थी. वीरेंद्र की उपस्थिति से सब कन्नी काटने लगते और किसी बहाने उठ कर चले जाते.वीरेंद्र  को यूँ भी जिस से भी उसकी दो बातें हो जाती ...थोड़ी मित्रता होती....वे लोग  पसंद नहीं आते. मिस्टर जुनेजा को फोटोग्राफी का बेतरह शौक था...वे हमेशा कैमरा अपने पास रखते. उसकी भी फोटोग्राफी और पेंटिंग सीखने की दिली तमन्ना थी पर अवसर नहीं मिल पाया..नहीं सीख पायी..और अब तो जी के सौ जंजाल थे . उसका वह शौक अनुकूल,हवा,पानी खाद के अभाव में मृतप्राय हो गया था . जुनेजा  जी के खींचे चित्र देख जैसे  उसमे नव-जीवन संचार हो उठता . वे भी नई  तस्वीरें अपलोड करते ही उसे कंप्यूटर लैब में बुला ले जाते. कर्टसीवश वीरेंद्र को भी  बुला ले गए वे. पर वीरेंद्र ने इतनी आलोचना की "ये भी कोई तस्वीरें है..कीड़े-मकोड़ों की...टूटी झोपडी...गन्दी बस्ती की..फोटो तो सुन्दर दृश्यों के लेने चाहिए. " ढलते-सूरज, नदी-झरने झील की. " वो उनसे बहस नहीं करती .बात बदल देती.

अंग्रेजी के एक युवा प्रोफ़ेसर मिस्टर कुमार से उसका किताबो का आदान-प्रदान खूब होता. कई बार खड़े-खड़े ही किसी पुस्तक के किसी कैरेक्टर पर घंटो चर्चा हो जाती. पर मिस्टर कुमार एक विशेष विचारधारा को मानेवाले थे. वीरेंद्र, इस बात को मुद्दा बना उस से बहस कर बैठते .वह कितना भी कहती.."वो उनके विचार है...उसे उस से क्या लेना-देना...वो तो इतर विषय पर बात करती है." उस वक्त कुछ नहीं कहते,पर मौका ढूंढ अक्सर कह बैठते.."वो ये कह रहा था...उसे ऐसा कहते सुना मैने...मुझे बिलकुल नहीं पसंद " परेशान हो गयी थी वह. कॉलेज का कोई भी प्रोफ़ेसर उन्हें अच्छा नहीं लगता...खासकर अगर उनसे उसकी  अच्छी पहचान हो. वह उनकी मनःस्थिति समझती थी...वे परेशान थे, और इस तरीके ही अपनी खीझ ,फ्रस्ट्रेशन निकालना चाहते थे.  पर वो क्या करे. अपनी परिस्थिति से समझौते की कोशिश उन्हें खुद ही करनी थी. वे एक परिपक्व उम्र के इंसान थे. वो बस उनका साथ दे सकती थी,जिसकी वह भरसक कोशिश कर रही थी. पर इसके एवज में उसे अपना मानसिक संतुलन बनाये रखना कठिन हो जाता. घर, पति,बच्चे ,कॉलेज की हज़ारो जिम्मेदारियां और उस पर से वीरेंद्र का यह अनर्गल प्रलाप. वह एकदम से किनारा भी नहीं कर सकती थी. इस शहर में वही एकमात्र वीरेंद्र की परिचित थी और वीरेंद्र दूसरे लोगो से मिलने-जुलने, दोस्त बनाने को उत्सुक भी नहीं दिखते. उसने समय के सहारे खुद को छोड़ दिया था.

इन सबका कोई हल नज़र नहीं आ रहा था और ऐसे में टाइम-टेबल में बदलाव, उसके लिए एक सुखद बयार लेकर  आया. अब टाइम-टेबल कुछ ऐसा बना था जिसमे उसकी सहेली, कृष्णा और उसे एक साथ ऑफ पीरियड मिलते. उसे सुकून मिल गया.  वीरेंद्र तो उसे खाली  देखते आ ही जाएंगे ,इतना उसे पता था पर कम से कम कृष्णा  का साथ तो रहेगा. अब सब, इतना बोझिल तो नहीं होगा. उसने कृष्णा  से परिचय  करवाया और आश्चर्य...किसी से दोस्ती नहीं करनेवाले वीरेंद्र ने लपक कर उस से दोस्ती का हाथ बढाया. उसे सुकून मिला..चलो कुछ बोझ तो बँटा. शुरू में तो कृष्णा  भी उसपर  झल्लाई रहती..."कहाँ से उसके सर पर बिठा दिया..कितना अच्छा वे दोनों हंसी-मजाक दुनिया भर की बातें किया करते थे.' वीरेंद्र की  उपस्थिति थोड़ी असहज बना देती.  पर धीरे-धीरे उसने नोटिस किया.....वीरेंद्र, कृष्णा से काफी बातें करने लगे.

वैसे भी  कॉलेज फेस्टिवल्स अब नजदीक आ रहें थे और तमाम तरह के कम्पीटीशन होने वाले थे. हमेशा की तरह प्रिंसिपल ने उसे बुलाकर कई चीज़ों का इंचार्ज बना दिया था. डिबेट का पूरा कार्यक्रम उसे देखना था. फेस्टिवल के अलग-अलग डिपार्टमेंट्स के हेड भी स्टूडेंट्स  में से उसे ही नियुक्त करने थे . उसे काफी काम होता. डिपार्टमेंट में भी वो आती तो ढेर सारे पेपर वर्क करती  रहती. वीरेंद्र पहले की तरह कुर्सी खींच ...बैठ जाते और कोई ना कोई टॉपिक  शुरू  करने की कोशिश करते. वह भरसक प्रयास करती की उनकी बातो को ध्यान से सुने पर अब उसे  समय ही नहीं मिलता  और ये भी सोचती अब वे नितांत अकेले भी नहीं...कृष्णा से तो उनकी बात-चीत होती ही रहती है. हाँ-हूँ में जबाब देती तो वे चिढ कर उठ जाते. कभी उनके  यूँ अचानक उठ कर चले जाने पर बुरा भी लगता पर वो मजबूर थी.

कृष्णा भी जब भी अकेले में मिलती, कहती "क्या मुसीबत है,जैसे वे घड़ी देखते होते हैं...क्लास ख़त्म कर ,जैसे ही रजिस्टर रख कर जरा सा दम लो और पहुँच जाते हैं, ' नमस्ते कृष्णा  जी..कैसी हैं आप?' अब रोज भला कैसी होउंगी मैं...अच्छी मुसीबत, गले  डाल दी है तुमने "

"अरे,बेचारे अकेले हैं...थोड़ा झेल लो..मैने क्या कम झेला है इतने दिनों...फिर मिलकर उनकी शादी करवा देते हैं...अपनी नई पत्नी के साथ फोन पे चिपके रहेंगे ..हमें छुटकारा मिल जायेगा.."..हंस पड़तीं दोनों

"हाँ, ये ठीक रहेगा..जल्दी करो कुछ...वरना हम अपनी  बातें तो कर ही नहीं पाते.".... ये सच था कृष्णा और उसकी कितनी सारी गर्लिश टॉक अब  वीरेंद्र की  उपस्थिति के चलते गए दिनों की बात हो गयीं  थीं. कितने ही दिन हो गए और उन दोनों ने स्टुडेंट्स की बातें भी नहीं शेयर कीं. आजकल के स्टुडेंट्स,में गुरु-शिष्य वाली  भावना का लेशमात्र नहीं था. एक तो उनकी कच्ची  उम्र और उसपर अनुशासन का अभाव और फिल्मो,टी.वी. के प्रभाव ने काफी उच्छृंखल बना दिया था, छात्रों को.  महिला लेक्चरर्स की तो मुसीबत ही थी. कभी कोई लड़का लेक्चर के दौरान एकटक चेहरे पर देखता रहता. कुछ उसे कहा भी नहीं जा सकता. कह देता,"मैं तो ध्यान से सुन रहा हूँ" कभी कॉपी करेक्शन को दें तो उसमे हीरो हिरोइन की तस्वीरें या फिर कोई मनचला सा गीत लिखा होता. एकाध बार तो क्लास से बाहर निकलते  ही लड़कों  ने मोबाइल से तस्वीर भी खींच ली. डांटने पर बेशर्मी से कह देते ,"मैडम आप अच्छी लगती  हैं" एकाध बार उनके मोबाइल भी सीज किए पर कुछ दिन बाद खुद ही जाकर लौटाना पड़ा, महंगे मोबाइल्स थे..पता नहीं पैरेंट्स ने कितने खून पसीने की कमाई लगा दी होगी और ये आज के ढीठ बच्चे ,वापस मांगने भी नहीं आते. पर ये सब सत्र की शुरुआत में ही होता..धीरे- धीरे  जैसे टीचर-स्टुडेंट्स एक दूसरे को समझने लगते और एक रिश्ता सा बन जाता...फिर तो अपनी कितनी सारी समस्याएं  भी लेकर आते, जिसे वो और कृष्णा आपस में डिस्कस कर सुलझाने की कोशिश करते. पर अब  वीरेंद्र के सामने ये सब बातें करना मुश्किल हो गया था.

उसकी व्यस्तता बढती ही जा रही थी. अभी भी वीरेंद्र नियमित उसके डिपार्टमेंट में आते उसे नमस्ते जरूर कहते..दो मिनट बैठते..पर फिर विषय के अभाव में बात आगे नहीं बढती...'आज गर्मी है... 'लगता है बारिश होगी'...' आज तो मौसम अच्छा लग रहा  है..' बस..इसके आगे कुछ सूझता ही नहीं...
उस दिन भी सोच ही रही थी कि अगला वाक्य क्या कहे कि वीरेंद्र बोले..."कृष्णा जी नज़र नहीं आ रहीं....ये पत्रिका उनके यहाँ से लाई थी...लौटानी थी"

"कृष्णा के यहाँ से ?? " वो कुछ समझी नहीं.

"हाँ, वो बताया था ना आपको, एक मामा भी इसी शहर में हैं...वे कृष्णा जी के घर के पास ही रहते हैं...जब उनसे मिलने जाता हूँ...तो कृष्णा जी के यहाँ भी चला जाता हूँ."

"अच्छा....हाँ,मामाजी की बात तो आपने बतायी थी...कृष्णा के यहाँ की नही..."
"बस पांच-दस मिनट तो बैठता हूँ...क्या बताना  इसमें.."

"ओके .." कहने को तो उसने कह दिया...पर सोचती रही...एक-एक बात बताते हैं...और ये बात गोल कर गए...और कृष्णा ने भी नहीं बताया कुछ...जबकि  वीरेंद्रसे सम्बंधित तो हर बात बताती है...शिकायत ही सही...जिक्र तो रोज उनका  हो ही जाता है.
और करीब दो महीने बाद  जाकर, कृष्णा ने  एकदम कैजुअली कहा.." उस दिन वीरेंद्र घर आए तो बता रहे थे उनका कुक अब तक नहीं लौटा  गाँव से""
"वो तुम्हारे घर भी  जाते हैं?"
"अरे..कभी कभार...वो भी दस- पंद्रह  मिनट के लिए.."
"पर तुमने कभी बताया नहीं..."
"इसमें बताने जैसा क्या..था..."
"हाँ ये भी है......." कह तो दिया उसने पर सोचती रह गयी...वे दोनों   तो कॉलेज से सम्बंधित हर घटना का जिक्र एक दूसरे से जरूर करते थे. किसी प्रोफ़ेसर ने उसे लिफ्ट देने की  पेशकश की...या पहली बार हलो कहा...या किसी ने काम्प्लीमेंट  दिए....छोटी से छोटी कोई बात बताना नहीं भूलती पर वीरेंद्र  के घर पर आने वाली  बात, बतानी  उसने जरूरी नहीं समझी.

उसकी व्यस्तता बढती जा रही थी...और वीरेंद्र की नाराज़गी  भी. सारे खाली पीरियड्स ...स्टुडेंट्स के साथ मीटिंग्स...फेस्टिवल की तैयारियों  में निकल  जाते. डिपार्टमेंट में बैठना भी बहुत कम हो गया था उसका. कभी जाती तो देखती....वीरेंद्र, कृष्णा के पास की कुर्सी पर बैठे हैं. कभी कभी तो उसके हलो को भी नज़रअंदाज़  कर जाते. कृष्णा जरूर पूछती..."कितना बिजी रहने लगी हो.."
"अरे... पूछो मत...बस ये फेस्टिवल निकल जाए...तो चैन मिले."
"नहीं पसन्द, तो करती क्यूँ हैं... इतना काम..." अब वीरेंद्र फूटते
"करना पड़ता है...किसी को तो करना पड़ेगा ही ना...एंड आइ  एन्जॉय डूइंग इट "
"फिर शिकायत मत किया कीजिये...जरा विद्रूपता से कहा उन्होंने....उसे बुरा तो बहुत लगा...पर कुछ कह नहीं पायी "
ऐसा अक्सर लोग  कह जाते हैं...मनपसंद काम करने से भी थकान तो होती है...लेकिन लोग  उसके विषय में एक शब्द सुनना नहीं पसंद करते...अगर अपनी इच्छानुसार कोई काम करो तो फिर होठ  सी लो..दर्द पी लो...जुबान पे कुछ ना लाओ..वरना सुनने को मिलेगा..." किसने कहा ,करने को .

मन खिन्न हो आया. आजकल वीरेंद्र सिर्फ उसे इरिटेट करनेवाली  बाते ही किया करते थे. अक्सर सोचती..ये कृष्णा से उनकी इतनी कैसे बनने लगी?.आखिर किन विषयो पर बात करते हैं.?.क्यूंकि वीरेंद्र के पास तो कोई विषय ही नहीं थे और उसे लगता था ,कृष्णा बिलकुल उस जैसी थी......पर शायद दोनों की वेवलेंथ मिलती हो...एक जैसी पसंद नापसंद हो...

वीरेंद्र जरा थे भी भोंदू किस्म के  ..छोटे से कस्बे से ,कभी महिलाओं से ज़िन्दगी में बात की नहीं...और यहाँ पत्नी की सहेली की वजह से मिले अवसर का खूब  फायदा उठा रहे थे. प्रैक्टिकल क्लासेज़ में उनकी उपस्थिति अनिवार्य थी. पर वो भी लैब असिस्टेंट के भरोसे छोड़, यहाँ जमे रहते. उनसे सहानुभूति वश कोई सवाल नहीं करता. पर साइंस फैकल्टी के लोग उसे  ही सुना जाते, "अपने काम को तो सीरियसली लेना चाहिए ..आखिर रोटी वहीँ से मिलती है." उन्हें लगता,उसकी सिफारिश पर वीरेंद्र को यह लेक्चररशिप मिली है,तो कुछ जिम्मेवारी उसकी भी बनती है.
  वह क्या कह  सकती थी ? अब वीरेंद्र के बैठने की जगह भी बदल  गयी थी. पहले वे उसकी दायीं तरफ बैठते थे...कृष्णा से परिचय करवाया तो दोनों के बीच की कुर्सी पर बैठने लगे..अब देखती , कृष्णा की बायीं  तरफ  बैठते हैं...वो डिपार्टमेंट में आती ही कम...और जब आती भी तो देखती...साइकोलोजी वाली नीलिमा और संस्कृत पढ़ाने वाली शकुंतला जी भी बैठी हैं...और गप्पो के दौर चल रहें हैं...मुस्कराहट आ जाती,उसके  चेहरे पर...दोस्त बनाने से अरुचि रखनेवाले वीरेंद्र को महिला दोस्त बनाने से कोई परहेज नहीं था.

अब पता नहीं क्यूँ ,अपने डिपार्टमेंट में जा कर बैठना ,उसे अच्छा नहीं लगता. उनकी गप्पे चलती रहतीं... इंट्रूडर जैसा लगता. उसने स्टाफरूम में बैठना शुरू कर दिया. यहाँ ज्यादातर..इंग्लिश,हिंदी,, जोग्रोफी वाले प्रोफ़ेसर बैठते थे. पर सुखद आश्चर्य हुआ उसे ,पहले क्यूँ नहीं आई, इनके सान्निध्य में. बड़े नौलेजेबल लोंग थे. किसी किताब की यूँ मीमांसा करते कि वो मुग्ध सुनती रह जाती. बात-बात पे कोटेशन्स..गीता, रामायण..उपनिषदों से उद्धरण ...रोज ही कुछ नया सीखने को मिलता. स्वस्थ बहस भी होती..कभी-कभी तीखी भी पर एक दूसरे के विचारों का सम्मान करते सब. अपने विचार दूसरे पर थोपने की कोशिश नहीं करते.

फिर भी उसे अपने डिपार्टमेंट में तो जाना ही पड़ता. कृष्णा एक औपचारिक 'हलो' कहती.वीरेंद्र, अगर होते तो वो भी नहीं कहते. दूसरी तरफ देखते रहते. कभी सामने पड़ गए...तो वो 'नमस्ते' कह देती..और वे सिर्फ सर हिला कर चले जाते. अजीब लगता उसे. पर सोचने की फुरसत कहाँ थी..अब डिबेट्स के इनिशियल राउंड शुरू हो गए थे. उसमे पूरी तरह मुब्तिला थी वो. कभी- कभी उसकी क्लास भी छूट जाती. पर ऐसा तो हर वर्ष होता...वो बाद में एक्स्ट्रा क्लास ले सिलेबस पूरा कर देती.पर उसके कानो में कुछ  अजीब सी बात पड़ी...जब केमिस्ट्री  की रीमा कपूर ने कहा, ' "वीरेंद्र जी  आपके मित्र हैं ना..."
"हाँ..क्यूँ.."
"कुछ नाराज़ हैं क्या आपसे...?"
"नहीं तो..क्या हुआ.." उसे लग तो रहा  था,पर वो दुसरो के सामने क्यूँ स्वीकारे ये सब. 
"पता नहीं...कल आपको बहुत क्रिटीसाईज  कर रहें थे...कह रहें थे...'ये क्या बात हुई..क्लास में इतना शोर हो रहा है..कॉलेज में तो पढाना पहला धर्म होना चाहिए...ये डिबेट्स वगैरह ,सब तो ऑफ टाइम में होना चाहिए....आपकी सहेली  भी वहीँ थीं..."

"हम्म...होगा कुछ...मैं बात कर लूंगी ..चलूँ अभी...कुछ काम है " वो ज्यादा बढ़ावा  नहीं देना चाहती थी.

फिर तो अक्सर ही कोई ना कोई कह जाता...' वीरेंद्र जी इतना नाराज़ क्यूँ हैं,आपसे...आपके पढ़ाने के तरीके की बड़ी बुराई कर रहें थे कि उनकी क्लास में कितना शोर होता है..स्टुडेंट-टीचर का रिलेशन पता ही नहीं चलता...वे बहुत फ्रेंडली हो जाती हैं...स्टुडेंट के मन में हमेशा टीचर का डर होना चाहिए...और कृष्णा जी की बड़ी तारीफ़ कर रहें थे कि कितनी शान्ति होती है क्लास में...कोई शोर-शराबा नहीं...टीचर तो ऐसी होनी चाहिए"

" अब इसमें क्या कहा जाए...उन्हें कृष्णा का पढ़ाना अच्छा लगता होगा.." कह कर वो बात ख़त्म कर देती.

कृष्णा और उसका पढ़ाने का ढंग अलग  था . कृष्णा नोट्स बना कर ले जाती. क्लास में पढ़कर थोड़ा एक्सप्लेन कर चली आती.  स्टुडेंट्स खुश होते,बना बनाया नोट्स मिल जाता. जिसे रटकर वे परीक्षा में अच्छे नंबर ले आएँ. जबकि वो कोशिश करती कि बिना किसी नोट्स के पढाये...और विषय समझाने की कोशिश करे कि क्लास में ही कुछ तो उनके दिमाग में रह जाए. इस चक्कर में काफी सवाल जबाब होते और बाहर वालो  को लगता शोर हो रहा है.पर और किसी ने तो कभी शिकायत नहीं की.पता नहीं वीरेंद्र को उस से क्या प्रॉब्लम  हो गयी है. शायद उन्हें लगा वो जान-बूझकर इग्नोर कर रही है. पर सबकुछ तो सामने ही था .वो वीरेंद्र से तो  कुछ भी नहीं पूछ्नेवाली ..इतना कुछ किया है उनके  लिए ,उसका सिला जब वे ,ये दे रहें हैं ,तो क्या बच जाता है पूछने को. उनकी मर्जी.

पर उसने  कृष्णा से इसकी चर्चा करने की सोची.

कृष्णा ने छूटते  ही कहा.."क्या पता तुमलोगों के बीच क्या मिसअंडरस्टैंडिंग है . वीरेंद्र जी बहुत हर्ट हैं"

"अच्छा इसीलिए सब जगह मेरी बुराई करते चल  रहें हैं....और सब तो तुम्हारे सामने ही है ना...कैसी मिसअंडरस्टैंडिंग??...तुम्हे तो सब पता है, मैं बिजी रहने लगीहूँ.....उनसे ज्यादा बात नहीं कर पाती, अब " मन कसैला हो आया उसका. उसकी  इतने दिनों की सहेली भी बात समझने की कोशिश नहीं कर रही .

"अब मुझे क्या पता....तुम दोनों के बीच क्या हुआ है...कह रहे थे, सरिता जी अब बात नहीं करतीं...."

"अरे, तुम्हारे सामने तो कितनी बार हलो कहा है...और उन्होंने जबाब भी नहीं दिया...अजीब बात है...हाँ,बाद में मैने भी छोड़ दिया...मैं भी इतनी फालतू नहीं"

"अब मुझे क्या पता....और मुझे क्या मतलब इन सब बातों से....ये तुम दोनों के बीच की बात है....पर वे बहुत हर्ट हैं  "

"हम्म..ठीक  है जाने दो.." वो समझ गयी, जब वीरेंद्र उसकी प्रशंसा के पुल बांधते फिर रहें हैं तो उसे उनका कोई दोष कैसे नज़र आएगा. चाशनी का ड्रम ही सामने उंडेल दिया गया हो तो पैर तो वहीँ चिपक जाएंगे ना.

एक दिन क्लास लेकर निकली ही थी कि प्यून बुलाने आया..."प्रिंसिपल साहब ने आपको अपने ऑफिस में बुलाया है"

चौंक गयी वो.."अब तो फेस्टिवल ख़तम हो गए...अब कौन सा काम आ पड़ा"

प्रिंसिपल बड़े इत्मीनान में दिखे ,उसे बिठाया ,इधर-उधर की बातें करने लगे ....वो समझ नहीं पा रही थी उनके बुलाने का प्रयोजन क्या है...फिर अचानक उन्होंने पूछा, "आपकी किसी से कोई नाराज़गी कोई बहस हुई है क्या...?"

हम्म तो ये बात है..पर इन तक वीरेंद्र की बात किसने पहुंचाई होगी ?

उसे नकारात्मक सर हिलाते देख उन्होंने कहा.."ऐसी कोई सीरियस बात नहीं... एक इमेल आया है...उसमे आपके खिलाफ काफी बातें कही गयीं है...मैं  सोचने लगा, आप तो इतनी डेडिकेटेड हैं अपने काम के प्रति...किसे शिकायत होगी...कोई पारिवारिक दुश्मनी  तो नहीं...किसी से?"

पर मन काँप गया ,उसका.."कैसी बुराई...क्या कहा गया है?"

" खुद देख लीजिये....आइ डी  भी फेक सा ही लगता है कुछ 'वी' से है ."...कहते उन्होंने लैपटॉप उसकी तरफ कर दिया....एक नज़र देखा उसने, बचकानी बातें थीं..." सरिता तो प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने लायक भी नहीं....उन्हें कॉलेज में कैसे रख लिया आपने..पढ़ाने से ज्यादा उनका मन दूसरी चीज़ों में लगता है...वगैरह..वगैरह..." इतनी गलत अंग्रेजी लिखी थी कि उसे पढने में भी वितृष्णा सी हो रही थी. इस गलत अंग्रेजी और 'वी'  के इनिशियल ने उसका शक यकीन में बदल  दिया..ये वीरेंद्र ही थे..पर उसने कुछ कहा नहीं.

उसे विचार मग्न देख, प्रिंसिपल ने आश्वस्त किया.."इतनी चिंता की बात नहीं..मैने सिर्फ इसलिए बता दिया कि आप  सावधान हो जाएँ....क्या पता, आप जिन्हें दोस्त समझ रही हों...उनमे से ही कोई हो"..उनका अनुभव बोल रहा था.

"थैंक्यू सो मच सर...अगर और इमेल्स आएँ तो बताएं...फिर कोई एक्शन लेना पड़ेगा.."

"हाँ वो तो मैं खुद ही पता लगा लूँगा...बस आपको सावधान करने को यह बताया..."

फिर से  थैंक्स कहती वो बाहर चली आई....मन हो रहा था 'कंप्यूटर लैब में जाकर एकबार अपना मेल भी चेक कर ले...क्या पता उसे भी कुछ भला-बुरा कहा हो. पर वो लास्ट पीरियड था. क्लास रूम्स बंद होने शुरू हो गए थे. शैलेश टूर पर गए हुए थे ,वरना रात में उनके लैप टॉप पर ही चेक कर लेती...

अगर ये वीरेंद्र ही हैं..पर उनके सिवा और कौन होगा...तो कितनी बड़ी गलती की  उसने, उनसे  लैपटॉप खरीदने की सलाह देकर.....वीरेंद्र बिलकुल तैयार नहीं थे..."मुझे क्या काम...मुझे इसकी क्या जरूरत"
उसने समझाया था.."अकेलेपन का बढ़िया साथी है"...कहकर  इंटरनेट के सारे गुण उनके सामने गा डाले थे.

उन्हें कुछ नहीं आता था..उसे भी ज्यादा कहाँ पता था...पर उसने कम्प्यूटर टीचर ' करण दोषी ' से अपनी पहचान  का फायदा उठाया. कॉलेज फेस्टिवल के समय, स्पौन्सर्स से इमेल के  आदान-प्रदान का भार,उसने करण दोषी  पर ही डाल रखा था. हंसमुख और कर्मठ लड़का था, अपने ऑफिशियल काम से कितने ही इतर काम करने को हमेशा तैयार रहता था. वीरेंद्र  ने लैप टॉप  के उपयोग  की सारी जटिलताएं उस से सीख लीं, थीं.
दूसरे दिन पहला क्लास लेकर आई ही थी कि मिस्टर जुनेजा...भागते हुए उसके पास आए..."चलिए जरा आपको कुछ दिखाना है.."

उसने सोचा..."तस्वीरें होंगी...पर उन्होंने अपना मेल बॉक्स खोला...और वही मेल उनके इन्बौक्स में भी पड़ा था "
उसने बताया , कि प्रिंसिपल को भी ऐसा मेल भेजा जा चुका है...."कौन हो सकता है?"...उन्होंने पूछा...
"क्या पता..."
उसके जबाब पर वो खुद ही बोले..."मुझे तो वीरेंद्र साहब ही लगते हैं...आजकल नाराज़ चल रहे हैं आपसे..जिधर देखो..आपके गुण गाते चलते हैं.."
"अच्छा...आपको भी  पता चल गया..".हंस पड़ी वो..
"हम अपनी तस्वीरों की दुनिया में रहते हैं..पर यहाँ की खबर  हमें भी होती है..आपकी शान में कसीदे तो पढ़ते ही रहते हैं...और दूसरी महिला लेक्चरर्स के सामने तो जैसे अगरबत्ती, धूप जला,बस दंडवत को तैयार."
"ह्म्म्म..." 
"वो ठीक है...उनकी अपनी मर्जी...पर जरूरी है कि एक की  बुराई करके ही दूसरे की तारीफ़ की जाए?"
"यही तो मैं सोचती हूँ.....ठीक है...मेरे सारे काम में त्रुटियाँ हैं...पर उन्हें  क्या फर्क पड़ रहा है...मुझे मेरे हाल पर छोड़ दें,ना "
"तब मजा नहीं ना...जबतक दूसरों के लिए गाए  आरती -भजन आपके कानो में ना पड़ें..क्या मजा उनका...घंटी की टुनटुनाहट तेज करनी ही पड़ती  है..." मुस्कुराते हुए कहा मिस्टर जुनेजा ने.

उसे जोर की हंसी आ गयी...मिस्टर जुनेजा आगे बोले, "फ़िक्र ना करें....अगर ये फेक मेल भेजने वाली, हरकत जारी रही तो कुछ किया जाएगा."
"फ़िक्र कैसी....अगर वे नहीं संभले तो  तो असलियत तो सामने आ ही जायेगी "

और यही हुआ..धीरे-धीरे जो भी नेट पर सक्रिय थे ..सबके पास वो इमेल और उसके साथ ही उस जैसे कई इमेल्स पहुँचने लगे. पता नहीं कहाँ से सबके इमेल आइ.डी. भी पता कर लिए थे...उसने सोचा, 'दूसरा कोई काम तो है नहीं. खाली  दिमाग शैतान का घर...करे भी क्या. कोई जुगत लगाई होगी '

उसे भी इमेल्स  मिलते .पर वो तो डर कर घर पर चेक भी नहीं करती अगर शैलेश ने देख लिया तो फिर तूफ़ान मचा देंगे. वे चुप नहीं बैठने वाले. तुरंत ही आइ.पी. एड्रेस पता कर एक्शन ले डालते..और बेकार का कॉलेज में एक चर्चा का विषय बन जाता. सोच में पड़ गयी वह....घर से बाहर निकल कर काम करने वाली औरतों को कितना कुछ सहना पड़ता है..कैसी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है...और उसे वे  'मजबूर' घर में भी शेयर नहीं कर पातीं.

शायद उसकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया ना देख . वीरेंद्र की हताशा बढती गयी और उन्होंने करण दोषी को भी ऐसे मेल भेज दिए .करण तुरंत हरकत में आ गया... पच्चीस  साल का लड़का...जोश से भरा...कुछ नया करने को मिला. सीधा उसके पास आया...किसकी हरकत हो सकती है??...और उसने अपना शक बता दिया...वो तुरंत काम में लग गया.
क्लास लेकर निकल ही रही थी कि शकुंतला जी मिल गयीं....उनका फिर से वही प्रश्न.." वीरेंद्र जी  इतने  नाराज़ क्यूँ है आपसे..."

अब कहाँ से लाए वो कोई वजह...जो थी फिर से दुहरा दी. तभी पीछे से करण ने जोर से आवाज़ दी...."सरिता मैडम"

उसके कदम रूक गए.....शकुंतला जी को देख  कर थोड़ा हिचकिचाया..पर उसने कहा.."ये सब जानती हैं...बोलो क्या पता चला?"

"मैडम ये वही वीरेंद्र जोशी हैं ना ...उन्होंने अपनी  आइ.डी. मेरे सामने ही तो  बनाई थी...आप ही तो लेकर आयीं थीं...उन्हें.....दोनों आइ. डी . का आइ.पी.एड्रेस एक ही है..."
"ओह्ह.." बस इतना ही बोल पायी...शक तो उसे था ही...पर प्रमाण मिल जाने पर सच में एक बार चौंक गयी..शकुंतला जी के चेहरे पर भी आश्चर्य के भाव थे.

उसे चुप देख..करण बोल  पड़ा.
"ये क्या तरीका है...अगर नाराज़ हैं....कोई शिकायत है  तो सामने से बोलो ना.... यूँ फेक आइ.डी. बना कर पीछे से वार क्यूँ....मुझे तो बहुत गुस्सा आ रहा है.."

"बस बस...काबू  रखो गुस्से पर ...ये सब चलता रहता है....और थैंक्यू सो मच...इतना बड़ा काम किया आपने....चलो अपनी क्लास देखो..बाद में बात करते हैं.

शकुंतला जी ने सब सुना....पर बोला कुछ नहीं....उसने ही कहा..." देखिए बिना किसी बात के ...कितनी बात बढ़ गयी "

"अब क्या कहा जाए...गलत तो है ही ये सब "  बस इतना ही कहा उन्होंने. पर उसे संतोष था उनके सामने करण ने यह बात बतायी...अब तो कृष्णा,नीलिमा सबको पता चल जायेगा और उन्हें विश्वास भी करना पड़ेगा.

पर सबके ठंढे रिस्पौंस पर उसे बड़ा दुख हुआ. कृष्णा से भी उसे खुद  ही कहना पड़ा..." सुना ना तुमने....वो फेक इमेल वाले वीरेंद्र ही थे..."

"हाँ....जो भी हुआ बहुत गलत हुआ..." बस इतना ही कहा उसने.

वीरेंद्र  का उसके डिपार्टमेंट में आना बदस्तूर जारी था. अब सबको इमेल वाली  बात मालूम हो गयी थी..अकेले में सब इसकी निंदा कर गए थे पर वीरेंद्र से उसी गर्मजोशी से मिलते. हर्षल को भी देखती...बड़े प्यार से दूर से पुकारता..' कैसे हैं.. वीरेंद्र  स्साब" ऐसा लगता जैसे सब विशेष चेष्टा कर यह दिखाने को आमादा हैं कि उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता...

एक दिन स्टाफरूम में कोई नहीं था .... यही सब सोचते ,यूँ ही चुप सी बैठी थी. नज़र खिड़की के अंदर आ गए बोगनवेलिया के लतरों पर जमी थीं. मिस्टर कुमार के आने का  उसे पता ही नहीं चला...
"क्या हुआ भाई..यहाँ यूँ खामोशी से क्यूँ  बैठी हैं...आज ब्रश-वर्श  नहीं किया क्या.."
"मतलब.." वो अबूझ सा देखती रही
तो फिर बोले,"ओह! लगता है ब्रश करने गयी तो दाँत सिंक में ही गिरा आयीं...इसीलिए नहीं दिख रहें "
हंस पड़ी वो..."ओह, अब समझी...कैसी भूलभुलैया भरी बातें करते हैं..आप भी"
"हाँ... आप ऐसी ही हंसती हुई अच्छी लगती हैं..पर हुआ क्या..ऐसा मूड क्यूँ है आज.."
"कुछ ख़ास नहीं"
"अब बता भी दीजिये "
"आपने मेरी तारीफ़ में कसीदे नहीं सुने क्या...कोई मेरी तारीफ़ में पुलिंदे लिखे जा रहा है.."
"ना..वरना मैं भी कुछ अपनी तरफ से जोड़ देता...कौन हैं ये भलामानुष"
अब वो चुप नहीं रह सकी...और सब बता दिया कि कैसे वीरेंद्र हर जगह उसकी बुराई करते फिर रहें हैं..कैसे फेक इमेल भेज रहे हैं..सबको"
"पर वे तो आपके मित्र थे,ना..हुआ क्या "
"बताया ना...कहने को तो कुछ  भी नहीं हुआ"
"ओके... मैं बात करता हूँ "
"नोsssss    वेsss "..वो जैसे चिल्ला ही पड़ी.
"अरे..मैं अपने तरीके  से बात करूँगा..."
"नहीं प्लीज़.. कुमार....आप रहने दीजिये.." वो घबरा गयी थी..."क्यूँ जिक्र किया आपसे "
"मैं इधर आ रहा था तो उन्हें साइंस डिपार्टमेंट की तरफ जाते देखा है....बीच रास्ते में ही पकड़ता हूँ..वरना वे अकेले नहीं मिलेंगे...डोंट वरी....मैं  बड़े तरीके से बात करूँगा"
और  कुमार तो यह जा वह जा...वे थे ही इतने जल्दबाज .
वह मायूस सी बैठी रह गयी....यह क्या कर दिया उसने ...पता नहीं कुमार क्या बात करें और वीरेंद्र  क्या समझे कि उसने भेजा है...अब क्या कर सकती थी.एकदम उदास सी बैठी थी कि दस मिनट बाद ही कुमार वापस आ गए. वो गुस्से में भरी बैठी थी. पर कुमार तो हँसते हुए बगल की कुर्सी पर जैसे ढह से गए  और पेट पकड़ कर हंसने लगे.
उसने घूर कर देखा तो बोले, "बताता हूँ...."और फिर हंसने लगे .
उसका घूरना जारी रहा तो किसी तरह हंसी रोक बोले, "शांत देवी..शांत ..पर आप ये बताइये इन जनाब से आपकी दोस्ती कैसे हो गयी."
"कहाँ की दोस्ती...आपने ना कुछ सुना ना कुछ जाना और चल दिए...महान बनने..कहा क्या आपने उनसे?"
"मैने इतना ही पूछा कि आपको सरिता जी से क्या प्रॉब्लम है...आप उनको यूँ क्रिटीसाईज  क्यूँ करते फिर रहें हैं...तो वे तो ..वे तो..".कुमार फिर हंसने लगे....फिर हंसी थाम कर बोले ..."सॉरी टू से ..पर वे तो बिलकुल औरतों की तरह बात करते हैं...नाक फुला कर कहने लगे, 'सरिता जी ने मेरा अपमान किया है...मैने कहा ..'तो उनसे जाकर  क्लियर कीजिये...यूँ दुसरो से उनकी बुराई करने का और ये फेक मेल भेजने का क्या मतलब ...तो बोले 'मैंने किसी से कोई बुराई नहीं की ..बल्कि उन्होंने मेरी इन्सल्ट की है...मैं बहुत हर्ट हूँ...हा...हा.. ही इज नॉट वर्थ इट...यु आर बेटर ऑफ हिम...शुक्र मनाइए  जान छूटी..

"मैने हर्ट किया है.....कैसे भला....पूछा नहीं,आपने??"..आवाज़ तेज हो गयी थी,उसकी.

"अरे पूछना क्या...वे खुद ही भरे बैठे थे...कहने लगे...मुझे इग्नोर करती हैं....मुझे एवोयेड करती है...ये बहुत अपमानजनक है मेरे लिए...यही सब कह रहें थे....बाप रे..कैसे गाँव की औरतों की तरह नखरे के साथ बोलते हैं....मैं तो पांच मिनट ना झेल पाऊं ऐसे आदमी को...आपकी इनसे दोस्ती कैसे हो गयी...कई बार आपके डिपार्टमेंट में बैठे देखा है ,इन्हें .."

" इसीलिए तो कह रही थी..आपको कुछ पता नहीं...वे मेरे दोस्त नहीं उनकी पत्नी मेरी सहेली थी.." फिर उसने सारी कहानी बतायी.

तो कुमार हाथ झटक कर बोले ..."बस आपका काम ख़त्म हुआ...आपने अपना कर्तव्य निभाया.इसे यहीं  छोड़ दीजिये और जरा भी चिंता मत कीजिये...आपको पूरा कॉलेज  ज्यादा अच्छी तरह जानता है..वो भोंपू लेकर भी चिल्लाये ना..कोई असर नहीं होने वाला...चाय पीनी है..खूब मीठी सी ...यू विल फील बेटर "

"ना एम आलरेडी फिलिंग बेटर आफ्टर टाकिंग टु यू ..थैंक्स.अ मिलियन ."
'एनिटायीम..बस आप ब्रश करने जाएँ तो ध्यान रखें ..दाँत सिंक में ना गिरा दें..." और दोनों जोर से  हंस पड़े.
***
कुमार से बात करके सचमुच बड़ा हल्का हो आया मन. सच में इतनी तरजीह देने की क्या जरूरत...कितने दिन बोलेंगे. ये बस एक अटेंशन सीकर बेहवियर है. निगेटिव तरीके से ध्यान खींचने की कोशिश . वो कुछ रेस्पौंड ही नहीं करेगी तो खुद ही चुप हो जाएंगे और दोस्ती का क्या..शायद उसकी भूमिका यहीं तक थी...कृष्णा और वीरेंद्र की दोस्ती करवाने के लिए ही ईश्वर ने उसे चुना था. वीरेंद्र को यहाँ स्थापित करवाने और सबसे परिचय करवाने तक की जिम्मेवारी ही उसकी थी. . और अब उसकी जिम्मेवारी पूरी हुई,बस....कैसा गम.

फेस्टिवल  भी अब समाप्ति की ओर  था. सारे इवेंट्स अच्छी तरह संपन्न हो रहें थे. बीच-बीच में हल्की-फुलकी  गड़बड़ियां भी होती  रहीं . डिबेट्स में दूसरे कॉलेज के आए स्टुडेंट्स ने बड़ा हंगामा किया . उसके कॉलेज के सारे डिबेटर्स  को हूट कर दिया. फोर्थ इयर की ज्योति को इतनी अच्छी तरह तैयार किया था . गोल्ड मेडल कहीं जानेवाला नहीं था.पर उन लडको को देखते  ही वह घबरा गयी. काफी कुछ तो भूल ही गयी...जो बोला वो भी डर-डर के. सबको अच्छा नहीं लगा, उसके कॉलेज में आकर दूसरे कॉलेज के बच्चे मेडल  ले गए.पर अब क्या किया जा सकता है.

ऐसे ही  फैन्सी ड्रेस कम्पीटीशन का उसने और फिलौसोफी की मंजुला ने नया कांसेप्ट सोचा था. कोई स्टेज नहीं बनाया...कॉलेज कैम्पस में ही तरह-तरह के वेश धरे स्टुडेंट्स आते रहें. प्रिंसिपल ने दो पीरियड ऑफ देकर इस इवेंट को और्गनाइज़ करने की अनुमति दी थी.पर बच्चो  ने इतना एन्जॉय किया कि दो पीरियड की अवधि समाप्त हो जाने के बाद भी क्लास में नहीं गए. कैम्पस  में ही ही हाहा  करते रहें. जिन प्रोफेसर्स  की क्लास थी..उनलोगों ने थोड़ी नाराज़गी जताई...हालांकि एन्जॉय उनलोगों  ने भी कम नहीं किया.

आज अंतिम दिन था और प्राइज़ डिस्ट्रीब्यूशन  भी था. प्रिंसिपल ने प्रोग्राम की समाप्ति पर उसका अलग से उल्लेख कर उसे धन्यवाद कहा और भूरी-भूरी  प्रशंसा  की. वो तो इतना असहज महसूस कर रही थी कि सर भी नहीं उठा पायी.

सब अच्छी तरह संपन्न हो जाने के बाद अब जी-जान से छूटी पढ़ाई में जुटी थी. पूरे दिन लाइब्रेरी में या स्टाफ-रूम में बैठे नोट्स तैयार करती रहती. उस दिन क्लास ख़त्म हो जाने के बाद मंजुला ने मार्केट चलने का इसरार किया. उसे कुछ शॉपिंग करनी थी. वो बोली, "ठीक है चलो..जरा ये नोट्स और किताबें मैं डिपार्टमेंट में अपने लॉकर  में रख आऊं. "

डिपार्टमेंट तक पहुंची कि उसे ख्याल  आया, "अरे मोबाइल तो ..मेज पर ही छूट गया "
उसने मंजुला को अपना बैग ,,किताबे थमायी  और तेज कदमो से वापस लौट पड़ी. जब मोबाइल लेकर आई तो देखा, मंजुला दरवाजे के पास ही गंभीर मुद्रा में खड़ी है , उसने पूछा..तो उसे होठो पे अंगुली रख चुप हो सुनने का इशारा किया .

अंदर वीरेंद्र  की आवाज गूँज रही थी.."पता नहीं लोगो ने सरिता जी को इतना सर क्यूँ चढ़ा रखा है...किस बात की तारीफ़ कर रहें थे प्रिंसिपल...बटरिंग करती होंगी प्रिंसिपल की...पहले तो सारी जिम्मेवारी दे दी उन्हें...उन्हें ही क्यूँ??..और लोग  नहीं हैं, कॉलेज में...कृष्णा जी हैं...नीलिमा जी हैं..इतने एफिशिएंट लोंग हैं...कितना हंगामा मचा रहा..पूरे प्रोग्राम के दौरान...डिबेट का मेडल दूसरे कॉलेज वाले ले गए...फैन्सी ड्रेस वाले दिन देखा...कोई डिसिप्लीन  ही नहीं..कृष्णा जी एकदम शान्ति से सुचारू रूप से सब करवातीं. सरिता जी को ना तो पढ़ाने का ढंग है..ना क्लास में शान्ति रखने का.....एक काम भी उनका सही नहीं होता..फिर भी लोगो  को देखिए बिना वजह की तारीफ़ करते रहते हैं..."

"अरे जमाना ऐसा ही है....वीरेंद्र  जी" किसने कहा..ये देखने को कमरे के अंदर झाँका तो पाया, वहाँ  तो उसके सारे ही तथाकथित दोस्त भरे पड़े हैं..कृष्णा, शकुंतला जी, नीलिमा तो हमेशा की तरह थी हीं पर उसे आश्चर्य हुआ , मनीषा दी को देख. वे उसकी बड़ी दीदी की सहेली  थीं....उनसे घर जैसा रिश्ता था. हमेशा, उसे मेरी छोटी बहन कह लाड़ लगाती रहतीं. वे भी चुपचाप वीरेंद्र का ये अनर्गल  प्रलाप सुन रही थीं. एक शब्द नहीं कहा उन्होंने कुछ. भले ही ना कहतीं..पर कम से कम वहाँ से हट तो सकती थीं. यह सब सुनने की क्या मजबूरी थी,उनकी? उतना ही आश्चर्य हर्षल को देख भी हुआ. नया -नया उसके हिस्ट्री डिपार्टमेंट  आया था. उसे दीदी कहते उसकी जुबान नहीं थकती . उसका सबसे बड़ा खैरख्वाह बनता था .इतना एग्रेसिव था ,किसी से भी लड़ पड़ने को तैयार. कितनी बार रोका था उसे. और यहाँ, वह भी सब चुपचाप सुन रहा  था.

उसकी आँखे झलझला  आई थीं. मंजुला ने महसूस किया और उसका हाथ पकड़ कर बोली.."चलो..यहाँ से चलते हैं"
उसके लाख मना करने पर भी उसे शॉपिंग  के लिए ले गयी..."अरे मूड ठीक होगा..घर जाओगी तो यही सब सोचते बैठोगी. घर पर कोई है भी नहीं...कि ध्यान बंटेगा..चलो मेरे साथ."

  हँसते-बतियाते..ढेर सारी शॉपिंग की....उसे भी लगा ..अब वो नॉर्मल  है सब भूल गयी है. पर घर की तरफ आते ही जैसे बाँध  की पानी की मानिंद  उन बातों का सैलाब उमड़ पड़ा....और थके-बोझिल कदमो से उसने दरवाज़ा खोल अंदर कदम रखा.

खिड़की के पास खड़ी ...उन्ही बातों के बहाव के साथ मन हिचकोले ले रहा  था .बिजली अभी तक नहीं आई थी.लगता था कुछ मेजर ब्रेकडाउन हो गया है. बाहर फैला घना अँधेरा उसके अंदर भी फैलता जा रहा था. सामने शर्मा जी के बंगले का चौकीदार अपनी लाठी ठक-ठक करता हुआ गेट के पास बैठ गया था.अब पता था वो ऊँची वाल्यूम में अपना ट्रांजिस्टर ऑन करेगा. और अगले ही पल फिजा को गुंजाते हुए  स्वरलहरियां फ़ैल गयीं..गाना बज रहा था,

"कसमे वादे प्यार वफ़ा
सब बातें हैं बातों का क्या
कोई किसी का नहीं
ये रिश्ते नाते हैं, नातों का क्या"

वो ऐसे चौंक उठी जैसे उसकी  ही चोरी पकड़ ली हो किसी ने...उसके मनोभाव का इन गाना प्ले करने वालों  को कैसे चल गया? क्या सचमुच ऐसी ही है दुनिया...ये रिश्ते-नाते क्या कच्चे बखिए से हैं...बिन प्रयास के ही उधड़ जाते हैं. कैसे किसी पर विश्वास करे....हर चेहरे के अंदर एक चेहरा है...जबतक नकाब पड़ी रहें तभी तक दुनिया ख़ूबसूरत है...उसे लगता था ..सबकुछ देख -जान चुकी है...अब कुछ भी बाकी नहीं..दुनिया के हर पैंतरे से वाकिफ है वह... पर इतना  कुछ देखने के बाद भी कितन कुछ अनदेखा -असमझा बाकी रह जाता है...

अनायास ही उसकी नज़र आकाश की तरफ उठ गयी. सुदूर कोने में एक मध्यम सा तारा था . उसकी नज़र पड़ते ही झिलमिलाया ,लगा उसने आँखे झिपझिपा कर हामी भरी हो.

Friday, December 24, 2010

कच्चे बखिए से रिश्ते


ताला खोल,थके कदमो से...घर के अंदर प्रवेश किया...बत्ती  जलाने का भी मन नहीं हुआ..खिड़की के बाहर फैली उदास शाम, जैसे  उसके  मूड को रिफ्लेक्ट कर रही थी...या शायद उसके मन की उदासी ही खिड़की के बाहर फ़ैल कर पसर गयी थी...अच्छा था, आज घर में वो अकेली थी..जबरदस्ती मुस्कुराने का नाटक करने की जहमत पल्ले  नहीं थी....बच्चे अपनी बुआ  के पास गए थे और पति दौरे पर.  जबरदस्ती कोई बात नहीं करनी थी....दिखाना नहीं था कि सब नॉर्मल  है...आज वह जी भर कर अपनी उदासी को जी सकती थी...कब  मिलता है ज़िन्दगी में ऐसा मौका कि अपनी मनस्थिति को बिना कोई मुखौटा लगाए सच्चाई से जिया जा सके. अचानक मोबाइल का ध्यान आ गया...डर लगा, उसके अकेले रहने पर पति से लेकर बच्चे..ननदें...सब फोन करके अपनी उदासी को जीने के मुश्किल से मिले ये पल....कहीं छीन ना लें..और उसे वापस उसी चहकती आवाज में बतियाना पड़े...कि 'चिंता ना करो सब ठीक है'..मोबाइल साइलेंट पर रख,दराज़ में रख दिया. लैंडलाइन का रिसीवर भी उतार कर रख दिया...ख्याल आया कॉफी के साथ ये उदासी एन्जॉय  की जाए....कॉफी में दूध भी नहीं डाली...सारे कॉम्बिनेशन सही होने चाहिए...धूसर सी शाम...अँधेरा कमरा ...ये उदास मन और काली  कॉफी.

कॉफी का मग थामे खिड़की तक चली आई....शाम के उजास को अब अँधेरे का दैत्य जैसे लीलता जा रहा था...और दूर के दृश्य उसके पेट में समाते जा रहें थे. दैत्य ने उसकी खिड़की के नीचे भी झपट्टा मार थोड़ी सी बची उजास हड़प ली. और उसके इस कृत्य से नाराज़ हो जैसे सारे उजाले छुप गए..शहर  की बिजली चली गयी थी. घुप्प अँधेरा फैला था...उसकी नज़र आकाश की तरफ गयी..आकाश में तारों ...अभी कुछ ही देर में पूरी महफ़िल सज जाएगी और सारे तारे जग-मग करने लगेंगे. क्या ये तारे हमेशा ही इतनी ख़ुशी से चमकते रहते हैं या कभी उदास भी होते हैं. इन्ही तारों में से एक उसकी सहेली भी तो होगी...पर वो उसे उदास देख क्या कभी खुश हो सकती है?

रूपा से उसकी टेलीपैथी इतनी अच्छी थी कि उसके अंतर्मन के सात पर्दों में छुपी उदासी की हल्की सी रेखा भी उससे  नहीं  छुप पाती थी. वो कहती थी.."अरे नहीं....सब ठीक है..इट्स फाइन....मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता" तो रूपा गंभीर हो कहती.."अगर कहना पड़े ना..इट्स फाइन..मुझे फर्क नहीं पड़ता  इसका मतलब है...फर्क पड़ता है....बताओ ना ..क्या हुआ " और कितनी  भी कोशिश करती बात टालने की आखिर उसे रूपा को सब बताना ही पड़ता और फिर दोनों मिलकर उस वाकये  की शल्यचिकित्सा  कर डालतीं. उसका मन हल्का हो जाता . पर आज उसका दुख बांटना तो दूर समझनेवाला भी कोई नहीं था .

रूपा कोई उसकी बचपन की सहेली नहीं थी. रूपा के पिता और उसके पिता की पोस्टिंग एक ही जगह हुई थी और वे दोनों अपने-अपने मायके आई हुई थीं...उन्ही दिनों रूपा से मुलाकात हुई थी .जल्दी ही यह पहचान एक गहरी दोस्ती में बदल  गयी...जैसे कोई पूर्वजनम का नाता हो.  मुलाकात तो कम ही होती पर फोन से कॉन्टैक्ट बना रहता. दोनों बच्चों सा किलकती हमेशा एक दूसरे के शहर आ मिलने का जुगाड़ बनातीं पर वह कारगर नहीं हो पाता. रूपा शिकायत करती,कितना अच्छा होता तेरी जगह मेरे पति की तरह तेरे पति भी प्रोफ़ेसर होते और फिर हम गर्मी की  लम्बी छुट्टियां साथ बिताते. ईश्वर ने उसकी उनके एक ही शहर में रहने की पुकार सुनी तो सही पर गिने-चुने दिनों के लिए.

उसके कॉलेज में फिजिक्स  के प्रोफ़ेसर की जरूरत थी और उसने हिचकते हुए रूपा को फोन मिलाया क्या उसके पति इस शहर के कॉलेज में ज्वाइन करेंगे? रूपा तो खबर सुनते ही उछल पड़ी..."क्यूँ नहीं करेंगे....बड़े शहर का बड़ा कॉलेज है.इस कस्बे के कॉलेज से तो हर हाल में अच्छा. हमारी दोस्ती की बात तो जाने दे..पर इनके  कैरियर के लिए भी बहुत  अच्छा है."
वह अक्सर कॉलेज के डिबेट्स..एक्स्ट्रा करिकुलर  एक्टिविटीज़ कंडक्ट किया करती  थी,जिस से प्रिंसिपल से थोड़ी जान-पहचान हो गयी  थी और थोड़ी अनौपचारिकता भी. इसका ही फायदा उठाया और रूपा के पति वीरेंद्र  की सिफारिश कर डाली. प्रिंसिपल तुरंत मान गए. वीरेंद्र  का बायोडेटा भी इम्प्रेसिव ही था. बढ़िया कॉलेज. और बढ़िया पर्सेंटेज और वीरेंद्र   जोशी  ने उसका  कॉलेज ज्वाइन कर लिया.

उसने रूपा को नए शहर में गृहस्थी बसाने में पूरी सहायता की ..घर पर खाने  को भी बुलाया .उसके पति से भी मुलाकात हुई. उसे शरीफ से ही लगे. मितभाषी और थोड़े बोरिंग भी. पर उसने सोचा कौन सी मुलाकात होनी है...वो इतिहास पढ़ाती है...जबकि वे फिजिक्स ..अलग फैकल्टी अलग बिल्डिंग....कभी कुछ सन्देश देना भी हो तो सोच कर जाना पड़ेगा. पर वो यहीं गलत साबित हो गयी. वीरेंद्र  अक्सर उसके डिपार्टमेंट  में आ जाते. शुरू में तो उसे लगा ..अभी किसी और से परिचय नहीं है..दोस्त नहीं बने हैं..इसीलिए आ जाते हैं और शायद...अपनी पत्नी की सहेली को हलो कहना फ़र्ज़ भी समझते हों. पर धीरे धीरे उसे नागवार  गुजरने लगा. खासकर इसलिए कि कोई बात ही नहीं होती करने को. वो ज्यादातर रूपा और उसके बेटे अक्षय की ही बात करती. वे भी खुश खुश दोनों  विषय में कुछ ना कुछ बताते रहते. उसे लगता चलो कितने भी बोरिंग हों..उसकी सहेली का तो अच्छी तरह ख्याल रखते हैं. और उसकी सहेली खुश है तो अपनी सहेली के लिए उसके बोरिंग पति को झेल लेना उसका भी फ़र्ज़ है. वह रूपा को सरप्राइज़ देने के उन्हें नए नए गुर बताती.

रूपा का बर्थडे आ रहा था और उसने वीरेंद्र  को बताया क़ि आप उसे एक रेस्टोरेंट में ले जाइए और उसके मैनेजर से पहले ही बात कर लीजिये क़ि वो कुछ देर बाद उनकी टेबल पर जलती हुई मोमबत्ती के साथ एक केक भेजे और 'हैप्पी  बर्थडे" का म्यूजिक बजाए . और मैने ये आइडिया दिया है..ये बिलकुल मत बताइयेगा ".वीरेंद्र  ने ठीक ऐसा ही किया और दूसरे दिन सुबह सुबह रूपा का फोन आया. ख़ुशी उसकी आवाज़ से छलकी पड़ रही थी, 'ये मेरे लाइफ का सबसे यादगार  बर्थडे था. इसका थोड़ा श्रेय  तुम्हे भी जाता है..तुमने हमें इस बड़े शहर में आने का मौका दिया..उस छोटे से शहर में तो एक ढंग का रेस्टोरेंट भी नहीं था फिर वीरेंद्र  को ये सब पता भी नहीं था . यहीं किसी से सुना होगा उन्होंने.." वो मन ही मन मुस्कराती उसकी ख़ुशी में शामिल होती रही. रूपा खुश है...उसे और क्या चाहिए. इस बार तो वीरेंद्र  ने अच्छी एक्टिंग कर ली.रूपा को पता नहीं लगने दिया क़ि उसने बताया था सब. पर तीज  के वक्त वे भूल  कर बैठे .
उसने यूँ ही पूछ लिया.."कल तीज है..आप रूपा के लिए कुछ ले जा रहें हैं ?"

"मुझे तो ध्यान ही नहीं,  कल तीज है...और क्या ले जाऊं..."

"अरे! वो आपके लिए सारा दिन भूखी रहेगी और आप उसके लिए कुछ नहीं करेंगे??...उससे पूछिए,उसे क्या चाहिए उसे शॉपिंग के लिए लेकर जाइए...आपकी क्लास तो ख़त्म हो चुकी है...बस देर किस बात की...अभी ही घर की  तरफ निकल लीजिये"

वीरेंद्र के चले जाने के बाद उसने लम्बी सांस ली....आज तो एक ही पत्थर से दो शिकार किए , अपनी सहेली को भी खुश कर दिया और वीरेंद्र  से भी जान छुड़ा ली."

पर शायद वीरेंद्र , रूपा के दरवाज़ा खोलते ही उस से पूछ बैठे ..."कल तीज है ना..कुछ लेना है मार्केट से?..चलो इसीलिए जल्दी आ गया हूँ "

और रूपा समझ गयी क़ि उसने ही बताया है...बाद में उसने उस से पूछा..तो वो बिलकुल नकार गयी.

"नहीं मुझे क्या पता..बेचारे ने इतना ख्याल रखा तुम्हारा...और तू  शक कर रही है..नॉट फेयर..."

रूपा हंस पड़ी."नहीं बताना तो मत बता..पर एक गाना याद आ रहा है..'होठों पे सच्चाई रहती  है..जहाँ दिल में सफाई रहती है...."

आज भी वो गाना जब बजता है तो उस से सुना नहीं जाता वो टी.वी. बंद कर देती है...बच्चे भी आश्चर्य करते हैं...' इतना अच्छा गाना तो है.तुम्हारे जमाने का...तुम्हे तो ऐसे रोने वाले गाने ही पसंद है...क्यूँ बंद कर दिया.."

वो बहाने बना देती है..." आजकल कहाँ किसी के होठो पे सच्चाई और दिल में सफाई होती है..इतना झूठा गाना नहीं सुना जाता..." सच बता भी दे तो कोई भी उसके दुख को उस गहराई से महसूस नहीं कर पायेगा..क्या फायदा बोलने का .

वीरेंद्र  तो नियमित आते रहते पर रूपा से उसकी बात नहीं हो पा रही थी...रूपा  जब कॉल करती तो वो  क्लास में होती या कहीं और .... जब वो कॉल करती तो..रूपा नहीं उठाती..कभी किचन..बाथरूम या फिर कभी सब्जी लाने गयी होती तो कभी बेटे को स्कूल छोड़ने. वीरेंद्र  ने भी शिकायत की कि रूपा परेशान है, उस से बात नहीं हो पा रही . जब उसने कहा कि वो तो फोन करती है घर पर रूपा फोन ही नहीं उठाती..तो वीरेंद्र  तुरंत बोले, "मेरे मोबाइल पर कर लीजिये..मैं जाकर दे दूंगा.." उसे उन्हें नंबर देना गवारा नहीं हुआ...कॉलेज में उनकी कंपनी क्या कम झेलनी पड़ती है कि अब फोन पर भी झेले. उसने मुस्कुरा कर बहाने बना दिए.."रूपा को ही एक मोबाइल लाकर दे दीजिये ना...रूपा बाहर भी जाएगी तो उसका फोन उठा सकती है..या फिर उसका नंबर देख कॉल बैक तो करेगी.

दो दिन बाद ही वीरेंद्र  ने बताया कि रूपा के लिए मोबाइल ले दिया है..अब आप अपना नंबर दे दीजिये..उसने कहा.."ना आप रूपा का नंबर दीजिये..मैं उसे फोन करके सरप्राइज़ कर दूंगी..."
ओके  कह कर उन्होंने नंबर भी दे दिया उसने सेव तो कर लिया..पर घर गयी तो आदतन ,लैंड लाइन  ही खटका डाला. रूपा ने बताया वो दो दिन बाद ही हफ्ते भर के लिए सापरिवार कोई शादी अटेंड करने ससुराल  जा रही है.

वीरेंद्र  भी छुट्टी ले चले गए . कुछ दिन तक कोई खबर नहीं आई . वह समझ रही थी, रूपा रिश्तेदारों  में बिजी होगी...वापस शहर आते ही फोन करेगी. पर पता नहीं क्या इंट्यूशन हुआ ,एक शाम  यूँ ही कॉल कर बैठी..दो मिनट के लिए ही सही....बात कर लेगी. पर रूपा ने ना तो फोन उठाया ना ही कॉल बैक किया. उसे आश्चर्य हुआ,अगले दो दिन में उसने कई कॉल कर डाले पर रिंग होता रहा. फोन नहीं उठाया उसने. उसका कॉल भी नहीं आया तो उसे आश्चर्य हुआ.पता था, बिजी होगी..फिर भी एक बार भी फोन ना उठाये ऐसी क्या व्यस्तता..उसके बाद अक्सर ही वो कई कॉल कर डालती पर नतीजा वही..नो रिस्पौंस सोचा ,लगता है..रिश्तेदारों में ज्यादा ही व्यस्त है..पर कुछ दिन बाद जो खबर आई  वो तो सबका दिल दहला गयी. अब रूपा किसी भी व्यस्तता से छुट्टी पा चुकी थी..एक भीषण बस एक्सीडेंट में अपने बेटे के साथ इस लोक को विदा कह चुकी थी. वीरेंद्र  को कई फ्रैक्चर्स थे पर ज़िन्दगी को कोई खतरा  नहीं था. आखिर रूपा ने उनकी लम्बी ज़िन्दगी के लिए व्रत जो रखे थे और सफल हुई थी उसकी पूजा.

उसके दुख का कोई ठिकाना नहीं था पर वीरेंद्र  के दुख के सामने उसका दुख नगण्य था. कॉलेज के काफी लोग   मिलकर  उनके शहर हॉस्पिटल में देखने गए थे. वीरेंद्र  ने एक भी बात नहीं की  बस शून्य आँखों से छत देखते रहें थे. उसका कलेजा मुहँ को आ गया था. वीरेंद्र  के स्वस्थ होने की प्रार्थना करती रहती पर साथ ही सोचती हॉस्पिटल से निकल वे वापस  कैसे सामन्य ज़िन्दगी जी पाएंगे. उसके दुख की सीमा नहीं थी.

इस हादसे के करीब दो महीने बाद.... कॉलेज से आ कपड़े समेट रही थी कि उसका मोबाइल बज उठा..देखा..'रूपा कॉलिंग' वो तो जड़ हो गयी...उसने नंबर डिलीट ही नहीं किया था. समझ गयी वीरेंद्र  होंगे दूसरे एंड पर .किसी तरह कांपते हाथो से फोन उठाया. वीरेंद्र  की आवाज़ आई..'इस नंबर से बहुत सारे मिस्ड कॉल थे इस सेल पर" उसका गला भर  आया...किसी तरह रुंधे हुए स्वर में बताया.."वीरेंद्र  जी....मैं हूँ ....सरिता  " और वीरेंद्र  दहाड़ मार रो पड़े..उसकी भी सिसकियाँ बंध गयीं. उस दिन तो कुछ भी बात नहीं हो पायी..."ये क्या हो गया सरिता जी.."..बस बार बार यही कहते रहें..."आपकी सहेली मुझे छोड़कर चली गयी.."

वीरेंद्र  हॉस्पिटल से डिस्चार्ज हो घर आ गए थे .पर अभी पूर्ण स्वस्थ होना बाकी था. अब अक्सर  वीरेंद्र  के फोन आने लगे....वो उन्हें अपनी शक्ति भर ढाढस   बताती रहती . हमेशा निराशावादी बातें करते .."अब क्या करूँगा जीकर...कैसी नौकरी...अब रिजायीन कर दूंगा ..किसके लिए पैसे कमाना है.." वो उन्हें समझाती रहती..वही सैकड़ों बार कही बातें दुहराती रहती.."जानेवाला तो चला गया...अब जीना तो पड़ेगा..वगैरह ..वगैरह "

उनके दुख से वह  भी दुखी हो जाती...समझ नहीं पाती..उन स्मृतियों से भरे  घर में अब वो किस तरह रह  सकेंगे...उसे लगता ,शायद वही अपने  माता-पिता के पास ही वे रह जाएँ...किसी ना किसी कॉलेज में नौकरी उन्हें मिल ही जायेगी. पर जब एक महीने बाद उन्होंने कहा कि वे उसी कॉलेज में ज्वाइन करने आ रहें हैं तो बहुत आश्चर्य हुआ उसे. पर फिर सोचा ,आखिर उन्हें नई ज़िन्दगी भी तो शुरू करनी होगी...इतनी बढ़िया नौकरी क्यूँ कुर्बान करें. शुरू में दसेक दिनों तक माता-पिता साथ आए थे पर फिर अपनी जगह छोड़ उनका मन नहीं लगा...और वे वापस चले गए...अब वीरेंद्र  नितांत अकेले थे अपने घर में..सोच कर उसकी रूह काँप जाती ,'हर तरफ यादें बिखरी पड़ी होंगी..कैसे रह पाते होंगे..

अब भी वीरेंद्र  खाली पीरियड होते ही उसके डिपार्टमेंट में चले आते. अब तो सबकी सहानुभूति थी उनके साथ. वह भी  पूरी कोशिश करती कि उनका दुख बांटने की कोशिश करे..पर मुश्किल थी, कैसे.??.'संवाद अब भी उनके बीच नहीं हो पाता और अब तो कुछ विषय भी प्रतिबंधित हो गए थे..पहले रूपा की... उनके बेटे की कितनी बातें कर लेती  थी..अब ध्यान रखती की गलती से भी उनका नाम ना आ जाए ,उसकी जुबान पर. अपने बच्चों की ही पढ़ाई की स्कूल की  बातें किया करती थी  ..पर अब अपने बच्चों  का भी नाम नहीं लेती कि कहीं उन्हें अपने बेटे की याद ना आ जाए.

वीरेंद्र  बताते रात भर वे सो नहीं पाते हैं...और उनकी स्थिति  वो समझ सकती थी. उसने सुझाया
"योगा किया कीजिये ..मन भी शांत होगा और नींद भी समय पर आ  जाएगी"

"पर सुबह उठूँ कैसे...चार-पांच बजे सुबह तो नींद आती है.."

"बस एकाध दिन कोशिश कर उठ  जाइए..फिर बॉडी क्लॉक सेट हो जायेगा और जल्दी नींद आ जाया करेगी."

"नहीं हो पाता कितना भी कोशिश करता हूँ..नींद नहीं खुलती "

"ठीक है..मैं उठा दिया करुँगी.." और वह सुबह बच्चों के लिए टिफिन  बनाने  उठती और किचन से उन्हें फोन करके उठाया करती कि कहीं पति ना जाग जाएँ. पति कितने भी उदार थे ..वीरेंद्र  से सहानुभूति भी थी...पर सुबह -सुबह अपनी  बीवी का किसी और को फोन करके जगाना भी नागवार ना गुजरे..ये अपेक्षा उनके मेल इगो से कुछ ज्यादा हो जाती.

चार-पांच दिनों बाद ही उनकी आदत बन गयी और वे अपने आप जल्दी उठने लगे और सोने भी लगे. उसने भी फिर ना तो पूछा ना ही फोन किया. सोचा,उसने तो अपना कर्तव्य निभाया अब आगे वे जाने.

परन्तु अब धीरे-धीरे उनकी कंपनी असह्य होने लगी थी क्यूंकि बात करते पता चलता उनके विचार किसी बिंदु पर नहीं मिलते. राजनीतिक,सामाजिक, किसी विषय पर वे एक तरह नहीं सोचते. किताबो की बात करने की कोशिश करती तो यहाँ भी पसंद बिलकुल अलग थी..उन्हें आधुनिक,नया लेखन बिलकुल पसंद नहीं था . फिल्मे, क्रिकेट, अखबारों की गॉसिप में उनकी कोई रूचि नहीं थी. बड़े शुष्क किस्म के इन्सान थे. और मुश्किल थी कि वे एक सीमा तक असहिष्णु थे. उन्हें लगता जो उन्हें पसंद वो दूसरे को कैसे पसंद  नहीं आ सकता??.वो मजाक में बात टाल भी देती पर बहस पर उतारू हो जाते. और मुश्किल ये कि वे नए दोस्त भी नहीं बनाते. उनके डिपार्टमेंट के लोगो ने दोस्ती का हाथ बढाया...क्लास के बाद कहीं चलने के लिए पूछ लेते. उस से जिक्र करते तो वह भी उत्साह  बढ़ाती ,"आपको जाना चाहिए था...ऐसे ही  तो लोगो से जान-पहचान होगी"

पर वे पुराना राग ले बैठ जाते.."नहीं मुझे क्या करना है..दोस्ती करके..मेरा जी उचट गया है, दुनिया से ..मैं तो बस कॉलेज आता हूँ..पढाता हूँ..घर चला जाता हूँ...मुझे नहीं दिलचस्पी,किसी से दोस्ती करने में ...कहीं आने-जाने में  " कुछ प्रोफेसर्स  इनके परिचितों के दोस्त, रिश्तेदार ही निकल आए...एक जनाब...उनके कजिन के क्लासमेट थे...एक उनके चाचा के पड़ोसी .उसे लगा अब तो कम से कम पुराने परिचितों के हवाले ही उनके करीब जाएंगे...उसने हुलस कर पूछा .."ये तो बड़ी अच्छी बात है...अब तो आप उनसे कितनी सारी पुरानी बातें शेयर कर सकते हैं"

लेकिन फिर.."ना मुझे कोई इंटरेस्ट नहीं....मुझे नहीं करनी कोई बात .." उनके ठंढे से जबाब ने उसके सारे उत्साह पर पानी फेर दिया.
(क्रमशः)

Friday, December 10, 2010

कहानी 'छोटी भाभी' की

इन  दिनों व्यस्तता कुछ ऐसी चल रही है कि कहानी के इतने प्लॉट्स दिमाग में होते हुए भी...उन्हें विस्तार देने का मौका नहीं  मिल पा रहा...और ख्याल आया...कहानी सुनवाई तो जा ही सकती है. ये कहानी भी आकशवाणी से प्रसारित हुई थी. इसे ब्लॉग पर भी पोस्ट कर  चुकी हूँ  "होठों से आँखों तक का सफ़र "..शीर्षक  से.....  दोनों कहानियों में थोड़ा बहुत अंतर ..रेडियो के समय सीमा के कारण नज़र  आ सकता है

तो मुलाहिजा फरमाएं :)