( नाव्या कॉलेज में पढनेवाली एक धनाढ्य पिता की पुत्री है....ख़ूबसूरत है....पढ़ने में अव्वल है....किन्तु अकेलापन उसका साथी है. सबकी प्रशंसात्मक नज़रों की आदी नाव्या को एक किताब के दुकानवाले की अपने प्रति उदासीनता सोच में डाल देती है)
"क्याsssss " ....... नाटकीय सी मुद्रा अपनाई उन्होंने..."मुझे तो लगा..किसी प्राइमरी स्कूल में हैं...जिस तरह से सुबह जिद कर रही थीं...." माँ को बुलाओ..पानी नहीं पीना...ओह!! परेशान कर दिया था....और जरा सा पैर क्या मुडा हुआ था..'फ्रैक्चर..फ्रैक्चर...डा. मेरा पैर फ्रैक्चर हो गया है'..चिल्लाए जा रही थी"..ऐसे मुहँ बना कर कहा कि
माँ-डैडी के होठों पर भी एक स्मित-रेखा खिंच गयी.
चैटर्जी सर ने ऑर्गेनिक केमिस्ट्री में टी. शर्मा की किताब लेने को कहा...उस दुकान के सामने पहुंचते ही...वो यंत्रवत ड्राइवर से बोल उठी...." यहाँ रोकना जरा..."
दरवाजे के हैंडल पर हाथ रखा ही था कि याद आया..."उसे तो नहीं जाना ना.."
हाथ हटा लिया..."ना ड्राइवर से ही मंगवा लेती है"
लेकिन ड्राइवर क्या जानने गया..."ऑर्गेनिक या फिजिकल केमिस्ट्री..कहीं उसे बेवकूफ बनाने को दूसरी पुस्तक पकड़ा दी तो?...गाड़ी तो पहचान ही गया होगा...और एक ही झटके से गाड़ी से उतर कर जोर से दरवाज़ा बंद कर दिया...." हुंह ! वो क्यूँ परवाह करे किसी की ..."
और खटाखट सीढियां चढ़, हाथ बांधे, चेहरे पर अतिव्यस्तता का मुखौटा लगाए, पूरी गंभीरता से बोली..."टी शर्मा की ऑर्गेनिक केमिस्ट्री है क्या?"
वह किताबों के बीच कुछ ढूंढ रहा था....हलके से चौंक कर मुडा...पल-भर को निगाहें मिलीं....ओफ्फ़!! किस कदर उदास हैं ये आँखें....ये बस जन्म से ऐसी ही हैं...या इनके पीछे कोई कहानी छुपी हुई है. किसका सीना ना चाक कर दे ..उदासी के गह्वर में डूबी ये आँखें..चेहरे पर बच्चों सी मासूमियत...और आँखें ऐसीं जैसे ना जाने कितने वसंत देख चुकी हों ...और आज तक बस खोया ही खोया हो. उसकी तनी हुई नसें थोड़ी ढीली पड़ने लगीं कि ख्याल आया उसे तो नाराज़गी दिखानी है...फिर से अकड़ कर सीधी खड़ी हो गयी.
वह कुछ क्षणों तक होठों को तर्जनी से थपथपाता रहा, फिर बड़ी नम्रता से बोला...."आsssप एक मिनट ठहरें....मैं बगल से मंगवा दे रहा हूँ. "अरे ये क्या सचमुच टेलीपैथी का कोई अस्तित्व है?....इसे कैसे खबर हो गयी...उसके मूड की...आज तक तो कभी इतनी रियायत नज़र नहीं आई. 'नहीं' शब्द छोड़कर आज तक दूसरा सुना ही नहीं...और आज तो ये पूरा वाक्य बोल गया. अगर किताब होती तो उसे से नहीं..दुकान में काम करने वाले लड़कों से कहता....निकाल कर देने को...और नहीं होती तो सिर्फ एक 'सपाट' नहीं .
उसके चेहरे की कठोरता कम पड़ने लगी लेकिन उसने जल्दी से फिर से वही सख्त भाव ओढ़ लिए और कड़क कर पूछा, "देर लगेगी?"
"नहीं..नहीं.." उसने फिर बड़ी नम्रता से सर हिलाकर कहा..जैसे किसी दूसरे जहां से बोल रहा हो..." बिलकुल पास ही है...रामेश्वर देखना तो चौधरी बुक डिपो में हो शायद....थी मेरे पास भी..पर ख़त्म हो गयी..." वैसे ही होठों को तर्जनी से थपथपाता अपनी जगह खड़ा रहा...ना तो उसने कोई किताब उठायी ना ही खुद को कहीं और व्यस्त किया.
उसका सारा तनाव ढीला पड़ गया....हल्का सा दीवार का सहारा लिए पीठ टिका दी....हाथ...सामने कौर्निस पर रखा और तुरंत ही समेट लिए..क्या पता...सोचे अपने लम्बे-लम्बे पेंटेड नाखून दिखा रही है..."
वो वैसे ही दीवार से पीठ टिकाये....छत से घूमते पंखे को देखती रही...और वो सामने सड़क पर नज़रें जमाये खड़ा रहा...लगा,जैसे आस-पास के सारे दृश्य पिघल कर रंग-बिरंगे लहरों में तब्दील हो उनके चारों तरफ चक्कर काट रहे हैं ..और दोनों ही अपने-अपने वृत्त में घिरे...ठिठके से खड़े हैं...उसके सहायक ने आकर जैसे उन लहरों को छू दिया और लहरें स्थिर हो गयीं...सबकुछ अपनी जगह वापस लौट आया...वे दोनों भी.
उसने बिना कुछ बोले ...झुक कर किताब उसकी तरफ बढाया और नाव्या ने बिना कीमत पूछे...पांच सौ का नोट काउंटर पर रख दिया...उसने चेंज वापस काउंटर पर रखा और दराज़ में झुक कर कुछ ढूँढता रहा. नाव्या पैसे उठाकर गिनने लगी..तो उसने आँखें ऊपर उठाईं और बड़ी आश्चर्य भरी भरपूर निगाह डाली, उसके चेहरे पर.
आज तक कभी,लौटाए पैसे वह गिनती नहीं थी...आरक्त चेहरे से पैसे और किताबें समेट वह दौड़ती हुई सीढियां उतर गयी. लगा, पीछे उसकी आँखें हंस रही हैं.
रोज़ गाड़ी उसके दुकान के सामने से गुजरती...पर जैसे उसे अब जाने में संकोच सा होता....अब तक जिन नज़रों में अपनी पहचान देखना चाहती थी...अब जैसे उन्ही नज़रों से आँखें चुराने लगी थी...फिर भी एक बार नज़र उसकी तरफ उठ ही जाती...कभी, बस उसके घुंघराले बाल नज़र आते...कभी उसकी चौड़ी पीठ तो कभी बस एक हाथ...जिसमे झूलते कड़े को देख,एक अव्यक्त चिढ से भर उठती...पता नहीं...सुसंस्कृत लोगों में भी ये चवन्नीछाप बनने की लालसा क्यूँ बनी रहती है...होगा फैशन..पर उसे नहीं पसंद...और जब उसे नहीं पसंद तो उसे पसंद आने वालों को उसकी पसंद का ख्याल तो रखना चाहिए....और जैसे खुद की चोरी ही पकड़ लेती...उसकी पसंद??..फिर अपने ऐसे किसी ख़याल से बचने को घबरा कर....किसी पत्रिका के पन्ने पलटने लगती.
पर अब पत्रिकओं से भी दूरी बढानी थी...इम्तहान निकट आ रहे थे. अपनी फर्स्ट पोजीशन बरकरार रखने को मेहनत तो करनी ही पड़ती थी. कभी-कभी सोचती,अच्छा होता वो पढ़ने में बिलकुल फिसड्डी होती ,फिर शायद माँ या डैडी कुछ ध्यान देते. कितना अच्छा लगता, उसे ले चिंतित हो बातें करते उसके विषय में...माँ घर पर रहने की कोशिश करतीं...ताकि वो ध्यान से पढ़ाई करे. पापा अपने दोस्तों से उसके गिरते मार्क्स की चिंता करते...लेकिन क्या करे....अब जानबूझकर तो फेल नहीं हुआ जा सकता. कभी भूले-भटके कोई अंकल-आंटी, उसकी पढ़ाई के विषय में पूछ लेते तो माँ-डैडी दोनों एक स्वर में कहते..":अरे! हमें कभी फ़िक्र नहीं करनी पड़ी....बिटिया शुरू से ही तेज है,पढ़ने में...फर्स्ट आती रही है,हमेशा"
इम्तहान के दिनों में वो सब कुछ भूल जाती...गीतों-ग़ज़लों-फिल्मो के सी डी धूल खाते रहते....किताबें उदास सी एक दूसरे से सिमटी शेल्फ में कैद रहतीं...और उसके कमरे में टेबल से लेकर बिस्तर...खिड़की ..जमीन हर जगह पन्ने ही पन्ने बिखरे होते. हाँ, कभी-कभी..उन पन्नों के बीच ही कोई आकृति उभर आती...तो कभी कोई आंसर याद करते वक्त , अचानक लगता किसी ने आश्चर्य से उसे देखा है...कभी याद करके लिखे डेफिनिशंस को दुबारा पढ़ती तो कहीं कहीं लिखा हुआ पाती...'मिटटी का माधो" और एक गहरी मुस्कराहट छा जाती चेहरे पर....और किसी को ख्यालों में ही मुहँ चिढ़ा उठती..."हाँ! पत्थर बनेंगे...ये नहीं मालूम कि निर्मल झरना भी तो पत्थरों के बीच से ही निकलता है."
पेपर आशानुकूल ही जा रहे थे...अंतिम पेपर देकर लौट रही थी...परीक्षा ख़त्म होने की ख़ुशी भी थी और मन कुछ उदास सा भी था.... क्या करेगी अब इन खाली-खाली लम्बे दिन और रातों का. तभी एक छोटा सा बच्चा, सड़क पार करते ट्रैफिक में बुरी तरह से घिर गया और जो ड्राइवर ने उसे बचाने के लिए अचानक ब्रेक मारी तो पीछे से आती हुई कार बुरी तरह टकरा गयी उसकी कार से. उसे बस इतना याद रहा कि वो उछल सी पड़ी..और सर बड़ी जोर से दरवाजे से टकराया...फिर क्या हुआ उसे कुछ याद नहीं. थोड़ी देर बाद लगा किसी ने सर के नीचे हाथ लगा, उठाया है उसे....मुश्किल से तन्द्रिल आँखें खोलने की कोशिश की ....सब धुंधला सा नज़र आया.....पर ये गालों पर पानी सा क्या फिसल रहा है...आँसू....लाल-लाल आँसू...और फिर उसकी आँखें मुंद गयीं.
जब होश आया तो खुद को एक बिस्तर पर लेटा हुआ पाया...ऐसा लगा...बड़ी दूर कुछ लोग बातें कर रहे हैं...बड़ी हल्की सी आवाज़ आ रही थी. हाथ उठाना चाहा...लेकिन हाथों ने कहा मानने से इनकार कर दिया. आँखें खोलने की कोशिश की तो लगा मन- मन भर के बोझ रखे हों पलकों पर. बड़े जोरों की प्यास महसूस हुई. सर में भयंकर दर्द हो रहा था...पानी माँगने की कोशिश की पर गले से कोई स्वर नहीं निकला. सारी शक्ति लगाकर आँखें खोलीं..पर दूसरे ही पल फिर आँखें मुंद गयीं. लगा, जैसे कोई झुका है, उसपर. बालों पर सहलाहट सी महसूस हुई. धीरे-धीरे फिर से आँखें खोलने की कोशिश की. पलकों की झिरी से देखा...जाना -पहचान चेहरा लग रहा था ....पर याद नहीं आ रहा. दिमाग पर जोर डाला लेकिन थक गयी.
अचानक वे आँखें आयीं नज़रों की हद में और कुछ याद आया....आँखें...उदास आँखें...किसकी...मि... मि ...मिटटी के माधो की...और एकबारगी ही पलकें पूरी लम्बाई में खुल गयीं. हाँ, उसपर झुका चेहरा 'मिटटी के माधो' का ही था...लेकिन आज ना आँखें खोयी खोयी सी थीं और ना ही उदास...बल्कि बड़ी व्यग्रता झलक रही थी उनमे. चपल मछलियों सी पुतलियाँ ...उन झील सी आँखों में इधर से उधर तैर रही थीं.
उसे होश आया देख, कुछ ठहराव आया उनमे. एक तरलता झलकी और स्निधता फ़ैल गयी..चेहरे पर...हाथ उसके सर पर थे.."कैसा लग रहा है?" सुन तो नहीं पायी सोचती है..यही पूछा होगा. और एकदम से प्यास याद आ गयी. सूखे होठों पर जीभ फेर कर कर कहा...'.पाsssssss नी......पाssssssss नी ' पर शायद आवाज़ बहुत धीमी थी..उसे सुनाई नहीं दी.....वह सुनने को झुका.. उसने फिर दुहराया.....'.पाsssssss नी.' पर वो सुन नहीं पाया...और अचानक ढेर सारे घुंघराले बाल छा गए उसके चेहरे पर.... उसके कान उसके होठों से मुश्किल से दो इंच की दूरी पर थे. दूसरे ही क्षण वो तेजी उठ गया...'नर्स..नर्स...पानी.."
"होश... आ गया? .." एक पतली सी पर तेज आवाज़ आई. और फिर तो कई अजनबी चेहरों ने उसे घेर लिया. उन चेहरों में नवीन अंकल भी थे और नवीन अंकल पर नज़र पड़ते ही डैडी याद आए और फिर माँ.... बंद पलकों पर मोटी-मोटी बूंदें उभर आयीं..'माँ..माँ...डैडी..कहाँ हैं आपलोग?...ये क्या हो गया...मैं यहाँ कैसे पहुँच गयी...ये लोग कौन हैं...?"..'सवालों के झंझावात उसे झकझोरे जा रहे थे.
नवीन अंकल उसके सर पर हाथ फेर रहे थे.."आँखें खोलो बेटे...अब कैसा लग रहा है?'
"म्माँ...माँ....डैडी...बुला दीजिये उन्हें..."
"वे लोग आते ही होंगे..दोनों लोगो को खबर कर दी गयी है...आपके पापा जो भी पहली फ्लाईट मिलेगी...उस से आ रहे हैं...माँ, पास के गाँव में गयी हुई थीं... बस पहुँच ही रही होंगी....लीजिये पानी पी लीजिये.." एक गूंजती सी आवाज़ एक सांस में सब कह गयी....
आँखें खोल,आवाज़ के मालिक को देखने का यत्न किया तो उसके शर्ट का गहरा लाल रंग आँखों में चुभ गया. घबरा कर आँखें बंद कर लीं.
"लीजिये... पानी पी लीजिये...." फिर वही आवाज़...हाथ भी उसी का होगा.
कराहती हुई...उसने सर हिला .."नईssssss.....माँ को बुला दीजिये..."
" पी लो बेटे...माँ बस आ ही रही हैं...." नवीन अंकल का स्नेहिल स्वर उभरा.
उसने जिद से सर हिला दिया...'नईssss"
आँखें जरूर इधर-उधर भटकीं...पर सूनी ही रहीं...सर घुमा देखना चाहा . पर पट्टियों से बंधा सर हिला भी नहीं. रोष उभर आया उसे...ये मिटटी का माधो..सचमुच मिटटी का माधो ही है...ये अनजान लोग तीमारदारी में जुटे हैं और वो खुद किधर है? इन्हें ही कहा था उसने पानी पिलाने को??...पर इस से ज्यादा तनाव दिमाग बर्दाश्त नहीं कर पाया...निढाल सी पड़ गयी. गहरी क्लान्ति छा गयी...थकी पलकें मुंदने लगीं...ह्रदय अतल गहराइयों में डूबने लगा...और जब अंकल ने कहा..".मुहँ खोलो बेटे..." तो उसने ऑटोमेटीकली मुहँ खोल दिए...इतने में ही इतना थक गयी थी....दो घूँट पानी पीते ही फिर से सो गयी.
***
बहुत दिनों का भुला हुआ स्पर्श....सर पर गालों पर....हाथों पर महसूस हुआ...और उसने हडबडाकर आँखें खोल दीं..माँ उसपर झुकी हुई थीं...आँखें सुर्ख लाल लग रही थीं. उस से आँखें मिलते ही पलकों पर आँचल रख दूर हट गयीं. पर हाथों का स्पर्श वैसा ही बना रहा...तो ये हाथ किसके हैं...दूसरी तरफ नज़रें घुमाईं...तो पाया डैडी की डबडबाई सी आँखें उस पर ही टिकी हैं....एक आवेग सा उमड़ा और वो बिलकुल पांच वर्ष की नन्ही सी नाव्या बन फूट पड़ी...."डैडी...ओह.. डैडी...."
डैडी की आँखें भी छलकने को हुईं पर रोक लिया खुद को.."ना बच्चा ना....हम सब यहाँ हैं ना...सब ठीक हो जाएगा..."
माँ भी पास आ गयीं..." रोते नहीं बेटा...जल्दी ही ठीक हो जाओगी....भगवान का लाख-लाख शुक्र, ज्यादा सीरियस कुछ नहीं है"
"पर हुआ क्या...मैं यहाँ कैसे आ गयी.....मुझे तो कुछ भी नहीं याद.....मेरी तो आँख खुलती है..और मैं सो जाती हूँ ...तुमलोग भी कब आए पता ही नहीं चला...जाने कब तक सोती रही मैं..."उसने कुछ शिकायती लहजे में कहा.
"कार का एक्सीडेंट हो गया बेटे...पर भगवान ने बचा लिया..ज्यादा चोट नहीं आई "
"और रमण अंकल?...वे कैसे हैं..." अब उसे ड्राइवर का ख्याल आया.
"वो भी ठीक है.......इसी हॉस्पिटल में है.."
"थैंक गौड'.. वे ठीक हैं.." कहकर उसने आँखें मूँद लीं......मम्मी-पापा उसकी बेड के दोनों तरफ कुर्सियों पर बैठे थे...डैडी का हाथ उसके सर पर था और माँ उसके हाथ सहला रही थीं. उनकी ये छवि बूँद-बूँद महसूसने की कोशिश कर रही थी...पिछली बार कब हुआ था ऐसा?... कब उसके बेड के आस-पास माँ और डैडी दोनों जन थे?...याद करने पर भी याद नहीं आ रहा. वो सर का भारीपन...हाथ-पैरों पर जगह-जगह लगी खरोंचे....पैरों पर कसकर बाँधा हुआ क्रेप बैन्डेज़
...वो सारे कष्ट थोड़ी देर को भूल ही गयी. ..हे भगवान! इस क्षण को अनंतकाल के लिए स्थिर कर दो...ओह! उसका एक्सीडेंट...दो साल..चार साल...छः साल.. पहले ही क्यूँ ना हुआ...यूँ माँ-डैडी सब छोड़ उसके पास चले आते.
...वो सारे कष्ट थोड़ी देर को भूल ही गयी. ..हे भगवान! इस क्षण को अनंतकाल के लिए स्थिर कर दो...ओह! उसका एक्सीडेंट...दो साल..चार साल...छः साल.. पहले ही क्यूँ ना हुआ...यूँ माँ-डैडी सब छोड़ उसके पास चले आते.
किसी की धीमी पदचाप कमरे में आई और डैडी अभ्यर्थना में उठ खड़े हुए , बोले..
"बेटा.. भगवान की असीम कृपा तो है ही...पर थैंक्स इनका भी करो..." और उन्होंने एक युवक के कंधे पर हाथ रख...उसे आगे किया..."बेटे ये हैं..रीतेश...ये ही तुम्हे समय पर हॉस्पिटल ले आए....और तब से देखभाल कर रहे हैं...नवीन अंकल भी पता चलते ही आ गए फिर भी सारी जिम्मेवारी इन्होने ही उठायी.."
आगंतुक की आँखों में गहरी आत्मीयता झलक रही थी...और आँखों में हल्का स्मित. मुस्कुरा पड़ी वो..सिरचढ़ी छोटी सी बच्ची की तरह इठला कर बोली...." मैं तो जानती हूँ, इन्हें...अग्रवाल बुक डिपो इनकी ही तो है...कई बार किताबें ली हैं,वहाँ से..." माँ ने होठों पर ऊँगली रख दी.."धीरे नाव्या...और ज्यादा मत बोलो...कमजोरी और बढ़ेगी"
कमजोरी?? अब कमजोरी का उसके रास्ते में क्या काम....इतना उत्साह तो उसे कभी महसूस नहीं हुआ...इतनी ख़ुशी तो उसे कभी नहीं मिली....अगर इन पट्टियों ने ना जकड़ा हुआ होता तो अभी उठ कर....क्या करती?..हाँ, क्या करती?...पता नहीं..पर कुछ करती तो जरूर. अभी तो बस उसकी आँखों को ही पूरी अभिव्यक्ति की इजाज़त थी...शरीर इस लायक नहीं था कि हिले-डुले भी..और बोलने पर कभी माँ तो कभी डैडी टोक ही देते.
वह डैडी के पास खड़ा एकटक नज़रें जमाये था उसके चेहरे पर...एक स्निग्ध तरलता फैली थी चेहरे पर और इतनी मुखर आँखें ,उसने तो नहीं देखीं कभी. उसने भी फीकी सी मुस्कान सजा रखी थी होठों पर...लेकिन अपने एपियरेंस पर उसे बड़ी कोफ़्त हो रही थी...ये माथे पर बंधी बड़ी सी पट्टी...ना जाने, चेहरा कैसा लग रहा है...कितनी अजीब सी दिख रही होगी वो.
माँ-डैडी बार-बार अपनी कृतज्ञता प्रगट कर रहे थे और वो विनम्रता से दुहरा हुआ जा रहा था.."ऐसा कुछ ख़ास नहीं किया मैने...मेरी जगह कोई भी होता...तो यही करता...बस संयोग कहिए कि...मैं वहाँ तुरंत पहुँच गया.."
"वो सब ठीक है बेटा..पर जो भी करता हम तो उसके ही एहसानमंद हो जाते...अभी तो तुम्हारे ही हैं"
पता चला..पास ही उसका घर है...माँ से कह रहा था...कुछ भी जरूरत हो तो तुरंत बता दिया करें....माँ ने भी ने बार-बार कहा..."मिलते रहना बेटा...मेरी बेटी की जान तो तुमने ही बचाई है..इसे हम कभी नहीं भूलेंगे"
शायद डैडी और माँ की इन बातों से वो बहुत ही असहज महसूस कर रहा था...बार-बार कभी हाथ पीछे की तरफ बांधता...तो कभी बालों को हाथ लगाता...कभी इस पैर पर शरीर का वजन डालता... तो कभी उस पैर पर....और इन बातों से बचने को ही शायद बाहर जाने को उद्धत हो उठा..."अच्छा आंटी..चलता हूँ...किसी चीज़ की भी जरूरत हो...तो प्लीज़ संकोच मत कीजियेगा...बिलकुल दो कदम पर ही मेरा घर है. कल फिर आऊंगा..." और झुक कर माँ-डैडी को उसने हाथ जोड़ दिए. एक मुस्कान उसकी तरफ उछाला जिसे पलकें झपका कर उसने लपक लिया और वो दरवाजे से बाहर हो गया.
रितेश के जाने के थोड़ी ही देर बाद डा. समीर आ गए...हाँ! उस लाल शर्ट वाले का यही नाम था. छः फुट लम्बा कद...इकहरा शरीर..गूंजती सी आवाज़ और उस पर चेहरे पर धूप खिली मुस्कान. ओह! एक डॉक्टर का ऐसा व्यक्तित्व...तभी उसकी एक पुकार पर कई-कई नर्सें यूँ दौड़ी चली आती हैं....किन उपायों से बचता होगा...अरे ,बचना क्या...भरपूर जिंदगी जीता होगा....वो यही सब सोच रही थी और डा. समीर उसकी फ़ाइल पर नज़रें जमाये...नर्स से उसके हाल-चाल का ब्यौरा ले रहे थे. थोड़ी देर बाद फ़ाइल नर्स को थमा और उसे कुछ निर्देश दे ...डैडी की तरफ मुड़े ...डैडी से हाथ मिला कर अपना परिचय दिया..फिर माँ की तरफ देख मुस्कराए "आप ज्यादा चिंता ना करें...ज्यादातर तो सुपरफिशियल इन्जरीज़ ही हैं....पैर में थोड़ा स्प्रेन है...और माथे पर कुछ स्टिचेज़ लगाने पड़े हैं...इन्हें बुखार भी है...तो देखते हैं.,..कितनी जल्दी हम इन्हें छुट्टी दे सकते हैं..."
फिर उसकी तरफ मुड़े..." सो... हाउ आर यू फीलिंग नाउ ?"
अपने सूखे होठों पर जीभ फेरकर इतना ही कह पायी.."फाइन"..डर लगा...कुछ दर्द बताएगी..तो कहीं नर्स को कोई इंजेक्शन लगाने को ना कह दें.
"या..या....यू हैव टु बी.....हमारी हॉस्पिटल में जो हैं आप....बेस्ट इन द सीटी...." डा. समीर ने उसकी नब्ज़ देखी...आँखें देखी...जीभ दिखाने को कहा...वो यंत्रवत करती रही...और अंदर अंदर डरती भी रही....शायद उसका डर पढ़ लिया उन आँखों ने...और उसे सहज करने को...उसकी माँ की तरफ मुड़ कर पूछा..."किस क्लास में पढ़ती हैं ये"
"कॉलेज में है...बी-ए फाइनल का एग्जाम दिया है....आज लास्ट पेपर था"
"क्याsssss " ....... नाटकीय सी मुद्रा अपनाई उन्होंने..."मुझे तो लगा..किसी प्राइमरी स्कूल में हैं...जिस तरह से सुबह जिद कर रही थीं...." माँ को बुलाओ..पानी नहीं पीना...ओह!! परेशान कर दिया था....और जरा सा पैर क्या मुडा हुआ था..'फ्रैक्चर..फ्रैक्चर...डा. मेरा पैर फ्रैक्चर हो गया है'..चिल्लाए जा रही थी"..ऐसे मुहँ बना कर कहा कि
माँ-डैडी के होठों पर भी एक स्मित-रेखा खिंच गयी.
" फ्रैक्चर वाली बात कब कही मैने...??"..गुस्से में चिल्ला सी ही पड़ी....भूल गयी कि अभी इसी डा. से कितना डर रही थी वो.
"मैम यू डोंट नो...कितनी परेशानी हो रही थी, हमें ..आपको संभालने में....एक तो माँ के नाम की जिद...और दूसरे...आपका यूँ पैनिक होना...आधी बेहोशी में थीं आप....और फ्रैक्चर भी हो गया तो क्या...ठीक नहीं होता क्या वो"..हंस दिया वह.
"मुझे फ्रैक्चर नहीं चाहिए..."..उसने नाक फुला कर कहा.
"लाइक यू हैव च्योयास ..बट लकी यू आर....नहीं हुआ फ्रैक्चर... अब आराम कीजिए...ज्यादा एग्ज़र्शन ठीक नहीं....फिर नर्स की तरफ मुड़ कर कहा...मेक श्योर...ये जल्दी दवा लेकर सो जाएँ..."
माँ-डैडी को आँखों में ही,सर हिला कर 'ओके' कहा...और उस पर बिना एक नज़र डाले बाहर हो गया.
रुआंसी हो गयी वो..सच्ची सचमुच उसे बच्ची ही समझता है.
(क्रमशः )