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Monday, January 18, 2010

और वो चला गया,बिना मुड़े....(लघु उपन्यास )--5


‘नेहा ऽ ऽ ऽ ...‘ किसी ने इतनी मिठास भरी आवाज में पुकारा कि किताबें फेंक, उद्भ्रांत सी चारों तरफ देखने लगी।

‘नेहा ऽऽऽ-‘ फिर आवाज आई; मुड़ कर देखा, ओह! कोई नजर तो नहीं आ रहा। परेशान सी इधर-उधर देख ही रही थी कि तभी क्राटन के पीछे कुछ सरसराहट सी लगी।

एक ही छलाँग में पहुँच गई - ‘अरे! शऽरऽद... कब आए‘ - और हाथों से बैग थाम लिया।

‘कमाल है, सामन अभी हाथों में ही है, और पूछने लगीं... ‘कब आए‘ - जवाब नहीं लड़कियों के दिमाग का भी.

'ना कोई फोन, ना कोई खबर और इतने दिनों बाद यूँ ,अचानक'...चीख ही पड़ी जैसे

'वो लीव सैंक्शन हो गयी तो घर तो जाना ही था और इधर से होकर ही तो जाना है तो सोचा मिलता चलूँ'
'
'अच्छा ...यानी रास्ते में हमारा शहर नहीं पड़ता तो तुम मिलने नहीं आते'.....थोडा गुस्से में बोला,उसने.

'ऐसा कहना,मैंने ??'

'और क्या'

'क्या बात है बहुत हेल्थ बन गया है इस बार,..कितना पुट ऑन कर लिया है'...शरद ने बात बदल कर चिढाते हुए कहा.

हाँ! हाँ! चश्मा ले लो चश्मा, कल ही बुखार से उठी हूँ और तुम्हें मोटी दिख रही हूँ।‘


‘तो, ये इतना भारी बैग उठाए कैसे खड़ी हो,मेरा भी दम फूल गया था।‘

और उसके हाथों से बिल्कुल छूट गया बैग, ओह अँगुलियाँ टूट गईं, उसकी तो।

शरद जोरों से हँस पड़ा -‘हाँ! अब ख्याल आया कि लड़कियाँ नाजुक होती हैं।‘

‘नहीं, शरद, सच्ची बहुत भारी है।‘

‘अभी तो अच्छी भली उठाए खड़ी थी।‘

अब कौन बहस करे इससे। अंदर की ओर दौड़ पड़ी... 'मम्मी ....शरद आया है'

थोड़ी देर तक जम कर गुल-गपाड़ा मचा रहा।सावित्री काकी भी हाथ पोंछती किचेन से निकल आई थीं.रघु फुर्ती से पानी ले आया.कौन क्या कह रहा है, कुछ सुनाई ही नहीं पड़ रहा.पर सबसे ऊपर उसकी आवाज़ ही सुनायी दे रही थी.जब माली दादा ने दरवाजे से ही' नमस्कार,शरद बाबू' बोला..तो वह बोल पड़ी,'अरे माली दादा,अब इन्हें सैल्यूट करो.इन्हें नमस्कार समझ में नहीं आता.अब ये लेफ्टिनेंट बन गए हैं,देखते नहीं कितना भाव बढ़ गया है'...अनर्गल कुछ भी बोले जा रही थी.

शरद मंद मंद मुस्काता हुआ उसकी तरफ देखता बैठा रहा.एक बार लगा,शायद बुखार से कुछ ज्यादा ही दुबली हो गयी है,तभी इतने गौर से देख रहा है.पर उसने ध्यान दिए बिना अपना शिकायत पुराण जारी रखा...'पोस्टिंग इतनी पास मिली है,तब भी इतने दिनों बाद शकल दिखाई है.

'अरे बाबा तुम्हे पता नहीं कितना टफ जॉब है इसका और छुट्टी कहाँ मिलती है'...मम्मी ने बचाव करने की कोशिश की पर उसने अनसुना कर दिया...'अच्छा फोन भी करने की मनाही है?..इतनी बीमार थी मैं,एक बार फोन करके हाल भी पूछा??

'उसे सपना आया था कि तुम बीमार हो'

'क्यूँ नहीं आया,...आना चाहिए था'

मम्मी पर से निगाहें हटा,शरद ने कुछ ऐसी नज़रों से उसे देखा कि एकदम सकपका गयी..'लगता है कुछ ज्यादा ही बोल गयी.

शरद ने भी जैसे उसकी असहजता भांप ली.रघु से बोला,जरा मेरा बैग लाना.सबके लिए कुछ ना कुछ गिफ्ट लाया था.कहता रहा,माँ ने बोला,जॉब लगने के बाद पहली बार जा रहें हो...कुछ लेकर जाना,वैसे मुझे तो कुछ समझ में आता नहीं..माँ ने जैसा बताया ले आया...और उस ज़खीरे में से एक एक कर तोहफे निकालता रहा.वह सांस रोके देखती रही ,सुमित्रा काकी के लिए शॉल, रघु के लिए टी-शर्ट, माली दादा के लिए मफलर,ममी के लिए नीटिंग की आकर्षक बुक,और पापा के लिये सुन्दर सी टाई...

सबसे अंत में उसकी तरफ एक गुड़िया उछाल दी -‘लो बेबी रानी! ब्याह रचाना गुड़िया का।‘(वैसे गुड़िया थी तो बहुत सुंदर... सजावट के काम आ जाती... लेकिन चेहरा उतर गया उसका। शरद सच्ची बिल्कुल बच्ची समझता है, उसे।)

‘अब मुँह काहे को सूज गया... मैंने कहा, एक छोटी लड़की भी है, तो माँ ने कहा, एक गुडिया ले लो'

‘ और लो! ये उसकी बचपना का प्रचार भी करते चलता है।

इतना मूड खराब हो गया, अपनी स्टडी टेबल पे आ यूँ ही, एक किताब खोल ली। तभी शरद ने पीछे से आँखों पर हाथ रख दिया (जाने कैसी बच्चों सी आदत है, सुमित्रा काकी भी नहीं बचतीं, इससे। पहले तो वह आराम से नख-शिख वर्णन कर जाती थीं... ‘एक महाशरारती लड़का है, जिसकी कौड़ी जैसी आंख है, पकौड़ी जैसी नाक है, हथौड़ी जैसा मुँह है, कटोरा-कट बाल है।‘ - लेकिन नाम नहीं बोलती) - लेकिन आज मुँह फुलाए चुप रही। शरद ने भी तुरंत हाथ हटा लिया और उसकी किताब की ओर झुकते हुए बोला -‘अच्छा ऽऽऽ तो यहाँ ’‘नाॅट बिदाउट माइ डाॅटर‘’ पढ़ा जा रहा है?‘

‘क्या... ?‘ - चैंक पड़ी वह। ओह! तो शरद ने एक हाथ से उसकी आँखें बंद कर, दूसरे हाथ से ये किताब उसके समक्ष खोल कर रख दी। कितने दिनों से पढ़ना चाह रही थी, इसे... कहाँ-कहाँ न छान मारी पर नहीं मिल पाया था।

खुशी से चहकते हुए पूछा -‘कहाँ से मिला तुम्हें, शरद? किसी लाइब्रेरी से लाए हो या किसी फ्रेंड से... या खरीद कर लाए हो।‘ - जल्दी से उलट-उलट कर देखने लगी।

पर, शरद अपनी आदत से कैसे बाज आएगा उल्टा सवाल -‘तुम्हें, आम खाने से मतलब है, या पेड़ गिनने से?‘

लेकिन इस वक्त बहुत खुश थी... सच्चे मन से माफ कर दी। इतनी सी बात शरद को याद रही... जानकर अच्छा लगा।

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जंगल के बीच एक मंदिर था। काफी महात्म्य था, उसका। मम्मी को चाव था, इतने दिनों से है, यहाँ, एक बार तो जाना
चाहिए। जबकि इसकी ख्याति दूर-दूर तक थी। लेकिन कहे किस से? डैडी और भैय्या तो मंदिर और पूजा के नाम से ऐसे बिदकते हैं जैसे पाकिस्तान के सामने किसी ने भारत के गुण गा दिए हों।

मम्मी ने शरद से चर्चा की और श्रवण कुमार तैय्यार।

एक दिन अपने एक दोस्त के साथ एकाएक जीप लेकर आया और आते ही जल्दी मचाने लगा -‘चलो, झटपट हो तैयार हो जाओ, सब लोग।‘

दो दिन पहले ही शॉपिंग के लिए गई थी और ‘लाँग स्कर्ट’ लिए थे। उसे ही पहन तैयार हो गई...

‘मम्मी ठीक है न?‘

मम्मी कुछ बोलतीं कि इसके पहले ही शरद टपक पड़ा -

‘बहुत ठीक है, पर घर आकर बिसूरना नहीं कि मेरी नई स्कर्ट का सत्यानाश हो गया। याद रखिए रानी साहिबा किसी पार्टी में नहीं जंगल में तशरीफ ले जा रही हैं... जहाँ मखमली कालीन नहीं... कंकड़, पत्थर, काँटे....‘

सुनना असहय हो उठा... बीच में ही जोर से खीझ कर बोली -‘मम्मी! देख रही हो।‘

‘मेरे ख्याल से तो आंटी, दो साल पहले ही देख चुकी हैं, मुझे।‘

वह कुछ बोलती कि मम्मी ने आग्रह से चुप होने का संकेत किया -‘श ऽ र ऽ द‘

लेकिन कहता तो ठीक ही है, इतने मन से खरीदा था... इतना बढ़िया ड्रेस दाँव पर तो नहीं लगा सकती। ... ‘चूड़ीदार-समीज‘ बदल लो। लेकिन जिसने ‘नुक्स‘ निकालने की कसम ही खा रखी हो, उससे जीता जा सकता है, भला।

लिविंग-रूम में पहुँची तो खिड़की के बाहर देखता हुआ बोला -‘हमें तो कुछ कहने की मनाही है, फिर भी बताना मेरा फर्ज है-‘ और उसकी जमीन छूती चुन्नी की ओर इशारा करते हुए बोला -‘ये झाड़ी में फँस-वँस गई...न तो लाख टेरने पर भी... ‘काँटो में उलझ गई रे ऽऽऽ‘ कोई हीरो साहब नहीं पहुँचेंगे छुड़ा ने।’ - नाटकीय स्वर में बोला तो मम्मी, उसका वो दाढ़ी वाला दोस्त; सब हँस पड़े। अब क्या मंदिर में वह जींस में जायेगी??...पर अक्कल हो तब,ना

अपमान से लाल हो उठी वह। जरा सा भी शउर नहीं बोलने का, जता रहा है, बहुत मौड है वह। ये सब उसकी आर्मी लाइफ में चलता होगा... बोलती तो अभी एक मिनट में बंद कर देती, लेकिन दाँत दिखाता उसका वह दढ़ियल दोस्त भी तो बैठा है। शरद को जरा भी मैनर्स का ख्याल नही तो क्या वह भी छोड़ दे। जाने क्यों अब एटिकेट्स का इतना ध्यान आ जाता है... पहले तो बात पूरी भी न हुई कि जवाब हाजिर (यह तो बाद में सोचती कि ऐसा नहीं... ऐसा बोलना चाहिए था) कोई अंकल भी होते तो शायद ही बख्शती वह। ...और सचमुच रास्ता इतना खराब था कि काँटों से लगकर चुन्नी तार-तार हो गई। पर होंठ नहीं खोले उसने।

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क्लास में कदम रखा ही था कि पाया सारी नजरें मुस्कुराती हुई, उसी पर टिकी हुई है।... क्या बात है, स्वस्ति के करीब पहुँच बैग रख आँखों में ही पूछा तो उसने भी ब्लैकबोर्ड की तरफ आँखों से ही इशारा कर दिया... जहाँ बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था -‘अंगारे बन गए फूल‘

इसका क्या मतलब हुआ? यह तो एक फिल्म का नाम है... वह भी गलत लिखा हुआ... इससे उसका क्या ताल्लुक... किसी ने यूँ ही लिख दिया होगा। पर सबकी नजरें उसे क्यों देख रही हैं?

’’ बैठ अभी, बताती हूँ, सर आ रहे हैं।‘ स्वस्ति ने उसके लिए जगह बनाते हुए कहा। वह भी चुपचाप बैठ गई। डस्टर ले मिटाना भी भूल गई। और तब ध्यान आया इधर कितने दिनों से न ब्लैकबोर्ड साफ करती है, न बोर्ड पर तारीख डालती है... न ही मेज कुर्सी ठीक करती है और इधर टेबल पर भी उसका आसन नहीं जमता -- नही तो सर क्लास से बाहर हुए और वह उछल कर मेज पर सवार।

सर ने क्या पढ़ाया कुछ भी नहीं गया दिमाग तक... बेल लगते ही... डेस्क फलांगती पहुँच गई, अपनी पसंदीदा जगह पर।

केमिस्ट्री लैब के पीछे, कामिनी के झाड़ की घनी छाया ही प्रिय स्थल था उनका। वह स्वस्ति, छवि और जूही.... बैग एक तरफ पटक आराम से बैठ गई और उसने सवाल दागा - ‘हाँ! अब बोलो, इससे मेरा क्या संबंध।‘

छूटते ही बोली छवि... ‘तुझसे नही तो और किससे है? इतनी तेजी से किसमें परिवर्तन आता जा रहा है?‘

‘परिवर्तन आ रहा है? क्यूँ भला, चेहरा वही, हाईट वही, रंग वही... फिर? ‘

‘रंग-रूप में नहीं मैडम, व्यवहार में; तुझे खुद नहीं महसूस होता?‘

‘कोई बात होगी, तब तो महसूस होगा... दिमाग मत चाटो मेरा... साफ-साफ बोलो-सचमुच खीझ गई वह।‘

‘अच्छा बोल‘- जूही ने समझाया - ‘एक यही बात गौर कर, उस अजीत के ग्रुप से कितने दिन हो गए झड़प हुए ‘ (अजीत के ग्रुप के लड़कों से बिल्कुल नहीं बनती थी इन लोगों की और वह ग्रुप भी इन्हें तंग करने का कोई मौका नहीं छोड़ता।)

‘अब सब के सब सुधर गए हैं।‘

‘हाँ, आज देख ली न बानगी।‘

‘अरे! वो ऐसे ही किसी ने लिख दिया होगा... तुम लोग ख्वाहमखाह टची हुई जा रही हो।‘

‘नहीं मैडम, तेरे आने से पहले अजीत कह रहा था -‘आजकल अंगारे पर राख पड़ती जा रही है।‘‘ - हमलोग तो कुछ समझ नहीं पाए पर उनका ग्रुप जोर-जोर से हँसने लगा और रमेश ने कहा -‘ठीक कहते हो यार, आजकल क्लास में भी बार-बार ‘सर... मैम...आई हैव अ डाउट‘ सुनने को नहीं मिलता। सारा पीरियड उन लोगों के उबाऊ लेक्चर में ही बीत जाता है तब हमलोगों की समझ में आया, तेरा नाम उन लोगों ने आपस में अंगारा रख छोड़ा है।‘ छवि बोली और आगे स्वस्ति ने जोड़ा -‘तभी फिरोज ने एक शेर जैसा कुछ कहा कि ...‘अंगारा अब फूल बनता जा रहा है।‘ और तभी अजीत ने लिख दिया बोर्ड पर।‘

‘और तुमलोग चुपचाप बैठी देखती रही, कितनी बार मैंने झगड़ा मोल लिया है, तुमलोगों की खातिर।‘

‘अरे! जबतक हमलोगों की समझ में पूरी बात आती कि तू आ गई और पीछे-पीछे सर।‘

‘खैर छोड़, इन सबको तो मैं देख लूँगी... पर तुमलोग भी मान बैठी हो कि मैं बदल गई हूँ।‘

‘अरे, मानना-वानना क्या... ये तो जग-जाहिर है। -’ मुस्करा कर बोली छवि - ‘खुद ही सोच आज ये सब देख तू, यूँ चुपचाप रह जाती। याद है जब हमलोग नए-नए आए थे और नारंगी के छिलके लापरवाही से उनकी डेस्क पर छोड़ दिए थे - और इसी अजीत ने ब्लैकबोर्ड पर लिख दिया था कि ‘छिलके फेंकनेवालियों दिल फेंक कर देखो‘ तो कितना हंगामा हुआ था.... एप्लीकेशन ले आप ही गई थीं, हेड के पास। और उस दिन के बाद आज ये वारदात हुई और तू...‘

‘वो तो मैं समझी नही ना... इसलिए।‘

‘समझने-वमझने की बात नहीं... कल बस में सब शर्मिला को ‘ओ मेरी... ओ मेरी शर्मीली’’गाकर छेड़ रहे थे... मैंने तेरी तरफ देखा भी पर तू खिड़की पार देखती जाने कहाँ गुम थी। शर्मिला बिल्कुल रोने-रोने को हो रही थी... जी में आया कुछ बोलूँ पर मेरी हिम्मत तो पड़ती नहीं... और जब हमारी माउथपीस ही चुप बैठी हो‘ - स्वस्ति ने प्यार से उसका कंधा थाम लिया -‘जाने आजकल कैसी गुमसुम हुई जा रही है, बिल्कुल खोई-खोई सी।‘

‘अच्छा-अच्छा, अब कल देखना, इस अंगारे की चमक... झुलस कर न रह गए सभी, तब कहना... फूल भी हुई जा रही हूं तो कोई गुलाब का नहीं, कैक्टस का ही।‘ - और इस बात पर चारों जन इतनी जोर से हंसे कि पतली सी डाल पर झूलती बुलबुल हड़बड़ा कर उड़ गई।
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लेकिन दिखा कहाँ पाई अंगारे की चमक. दूसरी ही उलझन सामने आ गई। कालेज से लौटी तो देख पंडित जी बैठे हैं। अभी कल तक इन्हें कितना तंग किया करती थी। देखते ही दूर से चिल्लाती थी -‘प्रणाऽऽऽम पंडित जी।‘ और वे इससे बहुत चिढ़ते थे... लाठीमार प्रणाम कहते इसे । उनका कहना था - ‘दोनों हथेलियाँ पूरी तरह जोड़, थोड़ा सा सर झुका तब प्रणाम शब्द उच्चारित करना चाहिए। देखते ही शब्द होठों पर तो आ गए पर चिल्ला न सकी। छिः इतनी बड़ी हो गई है, यही सब शोभा देता है... अनजाने ही उन्हीं के अंदाज में सर झुका अंदर चली गई।‘

लेकिन ये पंडित जी तशरीफ लाए किसलिए हैं? इधर कोई व्रत-अनुष्ठान तो है नहीं। और जो उनके आने का रहस्य समझ में आया तो ऐसा लगा, जैसे काटो तो खून नहीं। इधर एक महीने से घर में कुछ सरगर्मी देख तो रही है... मम्मी के बाजार का चक्कर भी खूब लग रहा है। अक्सर बुआ आ जाती हैं और दोनों घुल-मिल कर जाने क्या योजनाएँ बनाती रहती हैं। लेकिन वह अपने एग्जाम की तैयारियों में ही उलझी थीं। बस कालेज, किताबें और अपने कमरे की ही होकर रह गई थी... ध्यान ही नहीं दिया।

किंतु अब गौर कर रही है... मम्मी और बुआ के बाजार का चक्कर यों ही नहीं लग रहा। लेकिन... लेकिन... आँखों में आँसू छलक आए... उसके। वह तो एक बार नहीं हजार बार कह चुकी है..’उसे. शादी नहीं करनी है... नहीं करनी है।’ सब जानते हैं... फिर क्यों बड़े आराम से जाल फैला रहे हैं, सब। ये गुपचुप तैय्यारियाँ बींध कर रख दे रही है, मन को। ओह! कोई कुछ पूछता-कहता भी तो नहीं। कैसे खुद जाकर कह दे कि ’नहीं करनी.हैं;शादी;उसे और अगर जबाब मिले ’कौन करवा रहा है तुम्हारी शादी? ...तो?? बेबसी से आँखें डबडबा कर रह जाती है।

अजीब त्रासदी है, भारतीय बाला होना भी । कितनी बड़ी विडम्बना है... उसकी जिंदगी के अहम् फैसले लिए जा रहे हैं और वह दर्शक बनी मूक देखती रहे पर आज के दर्शक तो रिएक्ट करते हैं, रिमार्क कसते हैं या कुर्सी छोड़ ही चले जाते हैं। पर यहाँ तो...

बस आँख, कान बंद किए अपने जीवन के बलि चढ़ने की मूक वेदना महसूस करती रहे।

उदास चेहरा लिए वह घर भर में घूमती रहती है... पर किसी को कोई गुमान ही नहीं। सब समझते हैं एग्जाम की टेंशन है. सिक्के का दूसरा पहलू देखने का कष्ट किसी को गवारा नहीं। चुपचाप बिस्तर पर पड़ी रहती है, तकिया, आँसुओं से गीला होता रहता है। इतना असहाय तो कभी महसूस नहीं किया, जीवन में। घर की नए सिरे से साज-संभाल होती देख खीझ कर रह जाती है और कोसती रहती है, खुद को... हाँ! ठीक कहती है, स्वस्ति, बिल्कुल ठीक कहती है, बहुत बदल गई है, वह। अभी पहले वाली नेहा होती तो सीधा जाकर कड़क कर पूछती...

‘क्या हो रहा है, यह सब?‘ - और फिर चीख-चीख कर आसमान सर पर उठा लेती।

पर, अब तो कदम उठते ही नहीं। जबान तालू से चिपक कर रह जाती है। हुँह! अंगारे की चमक दिखाएंगी? अंगारे पर राख क्या पानी पड़ गया पानी... और बिल्कुल बुझ गया है, वह... अब मात्र कोयले का एक टुकड़ा रह गया है - , बदसूरत, बेकाम का।

बेबसी और गुस्से से सर पटक-पटक कर रह जाती... ये शरद भी जाने कहां मर गया... दो महीने से सूरत नहीं दिखाई उसने। लेकिन ये अचानक, शरद का नाम कैसे आ गया, होठों पर। शरद से क्या मतलब इन सब बातों का... हाँ कोई मतलब नहीं..उसका तो कब से कुछ पता भी नहीं,बस कभी कभार फोन आ जाता है. पहले तो महीने में तीन-तीन बार आकर बोर करेगा। जाने क्यों लगता... अभी शरद होता तो सारी समस्या हल हो जाती। शायद उससे कह पाती - ‘शरद समझा दो इन लोगों को। उसे नहीं करनी शादी-वादी।‘ भले ही चिढ़ाता, सह लेती पर काम तो बन जाता।

किंतु वह तो मीलों दूर ‘इम्फाल‘ में बैठा है... नयी-नयी पोस्टिंग है, ‘प्रिंस-स्टेज‘ छोड़कर क्यों आने लगा? क्या जाने कभी आए ही नहीं। कितने सारे दोस्त तो बनते हैं, भैय्या के और बिछड़ जाते हैं। पर शरद महज भैय्या का दोस्त ही तो नहीं... मम्मी-डैडी भी तो कितना मानते हैं उसे। कम से कम एक बार तो उसे आना ही चाहिए। लेकिन क्या पता तब तक सब कुछ खत्म हो जाए... सुबक उठी वह।