Showing posts with label friend. Show all posts
Showing posts with label friend. Show all posts

Thursday, January 21, 2010

और वो चला गया,बिना मुड़े....(लघु उपन्यास )--6


अपने कमरे में पढ़ाई में मन लगाने की कोशिश कर रही थी.इतना डर लग रहा था,बिलकुल भी नहीं पढ़ पा रही थी और
ऐसे में में जब बुआ बड़े शौक से गहनों की डिजाइन पसंद कराने उसके कमरे में आईं तो सुलग उठी वह।

‘देख तो नेहा, कौन-कौन सी पसंद है तुझे?‘

‘मेरी पसंद का क्या करना है?‘- किसी तरह गुस्सा दबाते सपाट स्वर में बोली।

‘तो और किसकी पसंद का करना है। बंद कर लिखना, आ कर देख तो.. कितनी सुंदर-सुंदर है...‘ पलंग पर करीने से सजा रही थीं वह।

‘मैं जेवर पहनती भी हूँ ' - कलम चलाना जारी रखा।

‘तो, अब जो पहनना होगा... जल्दी कर जैमिनी ज्वेलर्स का आदमी बैठा है बाहर।‘

‘क्यों अब क्या खास बात हो गई भई जो पहनना होगा... मुझे नहीं पहनना जेवर-फेवर।‘

‘ओह! नेहा, मेरा दिमाग मत खराब कर... चल आ कर देख ले चुपचाप‘ - खीझ गई बुआ।

और एकदम तैश में आ गई वह -‘दिमाग तो मेरा खराब कर रखा है, तुमलोगों ने... एक मिनट चैन से रहने भी दोगे या नहीं। मैंने हजार बार कह दिया है... मुझे शादी नहीं करनी है, नहीं करनी है... फिर भी जेवर पसंद कर लो तो साड़ियाँ पसंद कर लो... क्यों आज डिजाईन पसंद कराने क्यों आई... एक ही बार ‘इन्वीटेशन कार्ड‘ लेकर आती कि ‘नेहा, कल तेरी शादी है‘ - उस समय अड़ जाती न तो बहुत अच्छी इज्जत बनती, डैडी की। एकदम गूँगी गाय ही समझ लिया है, लोगों ने। जिसके खूँटे बाँध देंगे, चुपचाप चली जाऊँगी... तो नेहा, ऐसी लड़की नहीं है... साड़ियों और जेवरों में तो पसंद पूछी जा रही है, पर जहाँ जिंदगी का असली सवाल है... सब मौन हैं... जिस लूले-लँगड़े के जी में आएगा... गले मढ़ देंगे।

बुआ आवाक् देख रही थीं... उसे, अब हँसी फूटी उनकी... ‘बाबा, वह लूला-लंगड़ा नहीं है... क्यों परेशान हो रही है तू।‘

‘ना सही, साक्षात् कामदेव ही सही... लेकिन कह दिया न... ये राह मेरे लिए नही ंतो नहीं, और अब मेरे कमरे में ये सब आया न तो सब उठा कर फेंक-फांक दूँगी, नहीं देखूँगी हीरा है या सोना।‘ बात खत्म करने के अंदाज मे कही उसने और किताबें समेटने लगी।

बुआ ने भी हँस कर माहौल हल्का करने की कोशिश की... ‘अच्छा, अच्छा बंद कर अपना ये भाषण, किसी डिबेट के लिए संभाल कर रख, खूब तालियाँ मिलेंगी... अभी चुप कर प्राईज की जगह डैडी की डाँट ही मिलेगी। बाहर कुछ लोग बैठे हैं... क्या सोचेंगे।‘

‘सोचेंगे... पत्थर - जी में आया कहे, किंतु बिल्कुल थक गई थी। निढाल हो, सर टिका दिया, मेज पर।


0 0 0

चेहरे पर पानी के छींटे मार लौट ही रही थी कि बुआ और मम्मी की बातचीत का स्वर कानों में पड़ा... बरामदे में ही रूक गई।

‘कमाल है, भाभी, जवाब नहीं आप लोगों का भी, कहाँ तो भैय्या कहते थे कि नेहा की पसंद के लिए कोई जाति, धर्म, देश... कोई बंधन नहीं मानेंगे और बिचारी को आज यह भी पता नहीं कि अगर शादी हो रही है तो किससे हो रही है। आज कल साधारण घरों में भी खानापूर्ति ही सही, पूछ तो लेते हैं, बता तो देते हैं।‘

‘ये क्या कह रही हो सुधा?? नेहा, अच्छी तरह उसे जानती है, भई। बल्कि हमलोग तो यही समझ रहे हैं कि, आपस में तय है, इन लोगों का.... उधर से ही प्रपोजल आया है।‘‘

‘मुझे तो ऐसा नहीं लगता... बार-बार वही पुरानी रट- ‘मुझे शादी नहीं करनी-शादी नहीं करनी‘

‘हे भगवान! तब तो ये लड़की परेशानी खड़ी कर देगी। बात इतनी आगे बढ़ चुकी है।‘

‘हुंह!!‘ - मुँह बनाया उसने। बात तुमलोग बढ़ाओ और परेशानी खड़ी करूँ मैं। लेकिन ये काम है किसका, जरूर वो चश्मुद्यीन होगा। इतना सीनियर होने पर भी आगे-पीछे घूमता रहता है -‘नेहा तुम्हें नोट्स, चाहिए होंगे या बुक्स, तो बताना मुझे।‘ लाइब्रेरी बंद हो गई है जैसे... दुनिया का आखिरी आदमी होता न तब भी उससे लेने नहीं जाती, नोट्स...

रंग-ढंग तो बहुत दिनों से देख रही थी - लिफ्ट नहीं दी तो यहाँ तक बढ़ आया। आई. ए. एस. में क्या सेलेक्ट हो गया। यहाँ तक अधिकार समझ बैठा तो बैठे रहे जिंदगी भर। मिला तो था उस दिन शर्मिला की पार्टी में -‘नेहा, मुझे कांग्रेचुलेट नहीं किया न... इस लायक मैं कहाँ? पर मिठाई तो आ कर खा लीजिए किसी दिन‘ - जरूर उसी के यहाँ से प्रपोजल आया होगा और मम्मी-डैडी तो सातवें आसमान पर पहुँच गए होंगे। घर बैठे, आई. ए. एस. लड़का मिल गया। अभी-अभी जमीन पर आ जाएंगे वे।

अजीब मन की हालत हो गई है। पढ़ भी कहाँ पाती है, इतना डिस्टर्ब रहती है। फाइनल सर पे आ गया है... फेल-वेल हो जाएगी तो खुशी होगी, इन लोगों को।

नए सिरे से किताब में मन लगाने की कोशिश कर ही रही थी कि बुआ आती दीखीं। हाथ में उनके एक फोटो था। देखते ही बिफर पड़ी।

‘बुआ! मैंने कह दिया है न‘

‘तूने जो कहा है, मैंने सुन लिया और अब मेरी भी सुन‘ - शांत स्वर में बोलीं वह।

‘मुझे कुछ नहीं सुनना...‘ और किताब नजरों के सामने कर जोर-जोर से पढ़ने लगी।

‘ठीक है, फोटो रखती जा रही हूँ.... कल सुबह मुझे अपने विचार बता देना... कुछ हल निकालना होगा या नहीं। तुम अपनी बात पर अड़ी रहो... भैया-भाभी अपनी बात पर... और बाकी लोग मुफ्त में तमाशा देखें।‘

‘मेरे विचार सबको अच्छी तरह मालूम है... और ये भी अपने साथ लेती जाओ-‘ कह हाथ मार कर फोटो गिरा दिया, पर इस क्रम में तस्वीर पर जो नजर गई तो फ्रीज हो गई वह। आश्चर्यचकति जाने कब तक वैसे ही खड़ी रह गई। हे ईश्वर! आँखें सही-सलामत तो है न, क्या देख रही है यह - जमीन पर शरद पड़ा मुस्करा रहा था। धीरे से, काँपते हाथों से तस्वीर उठा ली और एक सिहरन रोम-रोम में दौड़ती चली गई...‘शऽरऽद‘ - उसे तो इस रूप में कभी देखने की कल्पना ही नहीं की। देर तक उसके चेहरे पर देखते रहने की ताब नहीं थी। धीरे से टेबल पर तस्वीर सरका दी और खिड़की पर चली आई। अजीब गुमसुम सा लग रहा था, सबकुछ। किसी बिंदु पर विचार टिक ही नहीं रहे; क्यों अचानक इतना हल्का हो आया मन, सारा तनाव जाने कहां विलीन हो गया। मुस्काराहट खेल आई, चेहरे पर... ‘यू इडियट‘ उसे भी अंधेरे में रखा... किस कदर परेशान किया।

खिड़की के बाहर चटकीली चांदनी फैली थी। और अनायास उसे टेरेस पर वाली चांदनी रात याद हो आई... क्या शरद भी अभी अपने छत पर खड़ा निरख रहा होगा, चांदनी में नहायी इस सृष्टि को? क्या याद आई होगी, उसे भी... उस दिन की।

लिविंग रूम से आते बातचीत के स्वर में बार-बार उसका नाम उछल रहा था। ध्यान दिया.. मम्मी थीं।

‘सुन लिया न, फिर न कहिएगा, पहले क्यों नहीं बताया।‘

डैडी हूँ... हाँ करते न्यूजपेपर में डूबे थे।

पूरा एडिटोरियल खत्म कर, पेपर रखते हुए पूछा... ‘हां, वो जेमिनी ज्वेलर्स को आर्डर दे दिया।‘

‘कैसा आर्डर?'

‘क्यों‘...चौंके ' डैडी।

खीझ गईं मम्मी -‘क्या कह रही हूँ, तब से, बिटिया रानी तैय्यार नहीं है शादी को।‘

‘ये... ये सब क्या तमाशा है-‘ डैडी जोर से बिगड़े।

‘पूछिए अपनी लाड़ली से... जो बात थी मैंने कह दी।‘

‘अऽऽ नेहा... कहां है? नेहा ऽऽ‘ डैडी ने गुस्सैल आवाज में पुकारा तो उसने धीरे से लाइट आफ कर दी। पर स्विच आॅफ करते-करते ही शरद की मुँह चिढ़ा दिया -‘वाज नहीं आए, दूर रहकर भी डाँट सुनवाने से।‘

बुआ ने कह दिया - ‘सो गई है।‘

पर नींद कहाँ आ रही थी? कुछ सोच भी नहीं पा रही थी पर जाने क्यों फूल सा हल्का हो उठा था उसका तन-बदन। लगा जैसे बड़ी मुश्किल से किसी चक्रव्यूह से निकल आई हो... सीने पर रखा कोई पत्थर सरका है, जिसके तले उसका दम घुट रहा था... अब खुलकर सांस ले सकती है। बहुत बड़ी समस्या सुलझ गई है, हालाँकि समस्या तो अपनी जगह है -‘क्यों शादी तो नहीं करनी ना, उसे? छोड़ो भी... बाद में सोचेगी यह सब। लेकिन ये शरद भी खूब निकला... एकदम छुपा रूस्तम, उसकी कारस्तानी है यह, कभी सोच भी नही सकती थी। या शायद परमानेंट डाँटने का जुगाड़ बैठा रहा है। और... सचमुच समस्या तो अपनी जगह है, शादी नहीं करनी न... पर क्यों पहले वह इतनी उद्विग्न हो रही थी और अब सहज, शांत है... कहीं सच्चाई तो नहीं थी स्वस्ति की बातों में। हालाँकि, उस दिन तो वह बहुत बुरा मान गई थी जब फूल की बात हो रही थी और स्वस्ति कह उठी थी -

‘अपनी नेहा, फूल तो है ही, पर शरद ऋतु में खिलने वाली।‘

नहीं समझी तो स्वस्ति ने बड़ी अदा से हँस कर दुहराया था -‘हाँऽऽ, शरद ऋतु‘

और उसने बड़ी जोर से डाँट दिया था - ’स्वस्ति! होश संभाल कर बातें किया करो।’

कहीं उसकी आँखों नें कुछ कह तो नहीं दिया... ऊँह! छोड़ो! होगा कुछ बाद में सोचेगी अभी तो नींद आ रही है, उसे। और सचमुच उन पंडित जी के दर्शन के बाद पहली बार पूरी पुरसुखद नींद ली उसने और किसी दुःस्वप्न ने नहीं डराया।

डर था... डैडी बुलाकर क्राॅस एग्जामिनेशन न शुरू कर दें - लेकिन किसी ने नहीं पूछा कुछ। बुआ ने भी नहीं - शायद उसके खिले-खिले चेहरे ने ही कोई सूत्र थमा दिया उन्हें।


अपनी किताबों में डूबी थी कि अचानक फोन की घंटी बज उठी.इंतज़ार करती रही.कोई तो उठाएगा
पर मम्मी हमेशा की तरह बाज़ार गयी हुईं थीं.'रघु'....'रघु' ऊँचे स्वर में पुकारा. पर रघु शायद घर में नहीं था.

भुनभुनाती हुई अपने कमरे से निकली. जरूर मम्मी की किसी सहेली का होगा.'मेरी बेटी तो डायटिंग के चक्कर में कुछ खाती ही नहीं'...'बेटा बिलकुल नहीं पढता'...पति को तो जैसे घर से कोई मतलब ही नहीं बस काम और काम'..यही सब होगा..या फिर महरी गाथा.इनलोगों को दूसरा कोई काम ही नहीं.जरा खाली हुईं और फोन लेकर बैठ गयीं.यही सब सोचते,रिसीवर उठा जरा,गुस्से में ही बोला, 'हेल्लो'

'नेहा'...उधर से थोडा आश्चर्यमिश्रित स्वर आया.और वह फ्रीज़ हो गयी. ये तो शरद की आवाज़ थी.

'नेहा...'

'.......'

"नेहा ...यू देयर "

"हूँ" ..गले से फंसी हुई सी आवाज़ निकली और इस 'हूँ' ने ही शायद शरद को उसके मन की हलचलों की खबर दे दी.थोड़ी देर को वह भी चुप हो गया.शायद बस एक दूसरे की साँसे ही सुन पा रहें थे.पर शरद ही पहले संभला.

'हम्म तो इसका मतलब है.....मैं रिजेक्ट नहीं हुआ'

'मुझे क्या पता'...धीरे से बोली वह.

'नाराज़ हो मुझसे '

'नहीं'

'लग तो रहा है...सॉरी नेहा..आयम रियली रियली सॉरी....मुझे सामने से कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ी.पता नहीं कैसा डर था,कहीं तुम मजाक बना, हंसी में ना उड़ा दो.डर गया था,तुम्हारी 'ना' सुनने के बाद कैसे जी पाऊंगा??इसीलिए बैकडोर से तुम्हारे मन का पता लगाना पड़ा....अरे, कुछ बोलो भी...अभी तक गुस्सा हो?

'मैं क्यूँ गुस्सा होने लगी...मुझे तो किसी ने कुछ कहा भी नहीं'

'ओह्ह!! तो ये बात है,लो अभी कह देते हैं...इसमें क्या है'....थोड़ी शरारत से बोला,शरद

'फोन पे??...हाउ बोरिंग'....डर गयी, पता नहीं क्या बोल दे.

'अच्छा तो आपको फ्लावर,वाइन और म्युज़िक के साथ चाहिए??'....शरद ने चिढाया.

'जी नहीं...इट्स सो प्रेडिक्टेबल'

'हे भगवान् तो क्या एफिल टावर के नीचे ले जाकर प्रपोज़ करूँ?'...जैसे खीझ गया था,शरद.
उसकी खीज देख,उसे भी मजा आने लगा और वो पल भर में पुरानी शरारती नेहा में बदल गयी.

'इतना ऊँचा नहीं उड़ती मैं...मेरे पैर ज़मीन पर ही हैं'

'तो तुम्ही बताओ'

'हम्म.....बीच रोड पे......बिलकुल बिजी सड़क हो...चारो तरफ से ट्रैफिक आ रहा हो...एकदम पीक आवर्स में...' उसकी कल्पना के घोड़े उडान भरने लगे थे.

'बस बस ...ये नहीं होगा मुझसे'

'ठीक है' फिर मेरी तरफ से ना'

'अच्छा...थोड़ा कन्सेशन मिलेगा...सड़क तो हो...पर सूनी सी..खाली सड़क?'

'जी नहीं..एकदम बिजी रोड....सारी गाड़ियां रुक जाएँ..ट्रैफिक मैन व्हिसिल बजाना भूल जाए'...मजा आ रहा था उसे...और मत बोलो..सब मन में छुपा कर रखो.

'नो वे...ये तो नहीं कर सकता मैं'

'ठीक है ...फिर कैंसिल'

'ओके...कैंसिल'

"क्या.... कैंसिल??'..उसने जरा जोर से ही कहा,तो शरद हंस पड़ा..'अरे! मुझे आने तो दो.रोड पे शीर्षासन करके प्रपोज़ करने को बोलोगी तो वो भी कर दूंगा'

वह भी हंसने लगी और तभी शरद बोल पड़ा,'ओ माई गोंड....आयम लेट....टाईम अप माई डियर ...मुझे भागना होगा,अब"

एकदम से निराश हो गयी...इतनी मजेदार बात चल रही थी.पर शरद ने अभी फोन रखा नहीं था.

'नेहा...'

'हम्म...'

बाय'...ओह्ह.. सिर्फ बाय कहना था उसे.

पर फोन तो अभी तक कट नहीं हुआ था.और उसकी सारी इन्द्रियाँ कानों में सिमट आई थीं.धड़कन तेज हो गयी थी...और शरद ने कहा..'प्लीज़ टेक वेरी गुड केयर ऑफ योरसेल्फ ...एन डू वेल इन योर एग्जाम'...जैसे शरद ने सारी इमोशंस उंडेल दी उन शब्दों में फिर कुछ रुक कर कहा.'आई मीन इट '.और फोन रख दिया

थोड़ी देर यूँ ही रिसीवर हाथों में लिए खड़ी रह गयी.कितना अच्छा है,घर में कोई नहीं है और वह थोड़ी देर यूँ चुपचाप,शांत खड़ी रह सकती है.फिर धीरे से रिसीवर रखा और धीमे कदमों से अपनी किताबों तक लौट आई.मन में बस चलता रहा...'प्लीज़ टेक केयर'...डू वेल'...'आई मीन इट'
0 0 0


उसमें वही पुरानी चपलता लौट आई थी बस बीच-बीच में रोष की लालिमा की जगह सिंदूरी आभा छिटक आती, चेहरे पर। सहेलियों के बहुत कुरेदने पर भी सच्चाई नहीं आ सकी होठों पर। लेकिन जब एंगेज्मेंट का दिन करीब आने लगा तो स्वस्ति को राजदार बना ही लिया। सुन कर किलक उठी स्वस्ति... नाराज भी हुई। -

-‘हाय! सच नेहा, जा मैं नहीं बोलती तुझसे...इतना गैर समझा मुझे... बिल्कुल भी बात नहीं करनी तुझसे।‘ - लेकिन छलकती खुशी ने ज्यादा देर तक नाराजगी टिकने नहीं दी।

दूसरे ही पल उसका कंधा थाम बोली-

‘अच्छा बाूेल! मेरा गेस ठीक था या नहीं‘ वह भी मुस्कराहट दबाते धीमे से बोली - ‘लेकिन तेरा गेस तो उल्टा था... यहां मेरी तरफ से कुछ नहीं है।‘

‘अयऽ हय... अब झूठ मत बोल... दूध की धुली हो न तुम... खूब पता है हमें, तुम्हारे मन की।‘ - फिर कुछ सोचती सी बोली थी - ‘असल में नेहा, तू इतनी भोली है, इतना निष्पाप मन है तेरा कि तुझे अपने ही मन की खबर नहीं थी... सोच कर हँसी आती है। उन दिनों तेरी बातचीत का एक ही विषय हुआ करता था -‘शरद‘। तू बीसीयों बार नाम लेती, उसका लेकिन जहाँ हम कुछ कहते कि बिगड़ पड़ती‘ - और रहस्य भरी मुस्कराहट के साथ बोली - ‘मुझे तो लगता है, शरद से ज्यादा तू ही... बीच में ही बात काट दी उसने -‘बाबा, तुझे पढ़ाई करनी है या कहीं बाहर जाना है तो सीधे से बोल ना, मुझे क्यों बना रही है, सच्ची मैं चुपचाप चली जाऊँगी, बिल्कुल बुरा नहीं मानूँगी-‘

हँस पड़ी स्वस्ति - ‘अरे, नहीं, अब तो तेरे साथ का एक-एक पल कीमती है - सोचकर सिहर जाती हूँ, चली जाएगी तू तो कैसे बीतेंगे दिन, अपनी-तेरी दोस्ती पर हमेशा आश्चर्य होता है, मुझे... लेकिन तू अपनी अगंभीरता के विषय में इतनी गंभीर है कि मजे से पट गई मुझसे पता है विकी चाचा क्या कहते थे -‘

‘ये तेरे विकी चाचा क्या कर रहे हैं आजकल?‘

‘वही ‘रोड-इंस्पेक्टरी‘ और मुट्ठी में बारूद लिए घूमते हैं कि वश चले तो सारी दुनिया को आग लगा दें - खैर छोड़, पता है वो हमेशा कहते है कि ये ‘आग‘ और ‘बर्फ‘ का संगम कैसे हो गया? तू इतनी बातूनी, इतनी चंचल... सब से झट से दोस्ती कर लेती है और मेरे दोस्त ऊँगलियों पर गिने जाने वाले - पर अब तो नहीं कहेंगे‘ - भेद भरी मुस्कराहट के साथ बोली - ‘क्योंकि अब तो ये ‘फूल‘ और ‘बर्फ‘ का संगम है और इस मिलन से तो बस याद आता है, ‘गुलमर्ग‘! क्यों वहीं की बर्फ लदी चोटियाँ और डैफोडिल्स से भरी घाटियाँ साक्षी रहेंगी न...‘

‘तूने आज पूरी बनाने की कसम ही खा रखी है... अब चली मैं‘ - और वह सचमुच उठ खड़ी हुई।

स्वस्ति भी उठ आई -‘हाँ भई! शरद साहब की पसंद का ख्याल तो रखना है न... कहीं बातों-बातों में सात बज गए तो-‘ उसने गुस्से से आंखें तरेरीं तो स्वस्ति ने नाटकीय मुद्रा में आँखें बंद कर हाथ जोड़ लिए।