tag:blogger.com,1999:blog-69533749820889600882024-03-13T19:30:28.384-07:00मन का पाखीrashmi ravijahttp://www.blogger.com/profile/04858127136023935113noreply@blogger.comBlogger50125tag:blogger.com,1999:blog-6953374982088960088.post-7426140351368430042013-10-06T06:54:00.000-07:002017-10-22T00:26:53.510-07:00ख़ामोश इल्तिज़ा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://2.bp.blogspot.com/-j9De8NLilEo/UlFrU87Oh8I/AAAAAAAAC1Y/gfOd9brEVdk/s1600/Untitled-1.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://2.bp.blogspot.com/-j9De8NLilEo/UlFrU87Oh8I/AAAAAAAAC1Y/gfOd9brEVdk/s1600/Untitled-1.jpg" /></a></div>
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt;">तन्वी बालकनी में
खड़ी सामने फैले स्याह अँधेरे को घूंट घूंट पीने की कोशिश कर रही थी</span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt;"> </span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , "sans-serif"; font-size: 12.0pt;">,</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt;">सोचती कुछ ऐसा जादू हो कि वो स्याह अँधेरे में गुम हो
जाए और फिर कोई उसे देख न पाए. तभी मोबाईल पर मैसेज टोन बजा</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , "sans-serif"; font-size: 12.0pt;">, </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt;">वो चेक करने नहीं गयी</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , "sans-serif"; font-size: 12.0pt;">, </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt;">पता था सचिन का मैसेज होगा</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , "sans-serif"; font-size: 12.0pt;">, "</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt;">पढ़ लिया न मेरा मैसेज</span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt;"> </span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , "sans-serif"; font-size: 12.0pt;">,</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt;">अब जरा मुस्करा
दो</span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt;"> .</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt;">”</span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt;"> </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt;">सचिन का पहला मैसेज पढने के बाद ही बालकनी में आयी
थी.</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , "sans-serif"; font-size: 12.0pt;"> </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">और पता था वो दूसरा मैसेज यही भेजेगा . सचिन उसके
ऑफिस में हाल में ही आया है </span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">,<span lang="HI">पर अक्सर टूर पर
रहता है. पूरे देश में घूमता रहता और जहां भी जाता है वहां से उसे मैसेज जरूर करता
है</span>, <span lang="HI">कुछ ख़ास नहीं बस उसकी खिडकी से जो भी नज़ारा उसे दिखता है
</span>,<span lang="HI">वो लिख भेजता है .कभी लिखता </span>, ‘<span lang="HI">बर्फीली
चोटियों पर चाँद की किरणें ऐसे पड़ रही हैं कि सबकुछ नीले रंग में नहा उठा है </span>,<span lang="HI">काश तुम देख पाती </span>“ <span lang="HI">कभी राजस्थान के सैंड ड्यून्स का
वर्णन करता </span>, <span lang="HI">कभी काले घुमड़ते बादलों का ,कभी दहकते गुलमोहर का तो कभी पछाड़ खाती समुद्र
की लहरों का . एक बार ताजमहल देखने गया तो सिर्फ इतना मैसेज लिखा...</span>’<span lang="HI">वाह ताज !!</span> <span lang="HI">ताजमहल को देखा और तुम याद आयी </span>“<span lang="HI">वो किसी मैसेज का जबाब नहीं देती .और सचिन ये बात जानता था .एक बार मैसेज
में ही लिखा था </span>, ‘<span lang="HI">मेरा फोन तो उठाओगी नहीं पर जानता हूँ
मैसेज जरूर पढ़ोगी और पढ़ कर मुस्कुराओगी भी </span>‘.</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span>
<br />
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"><br /></span>
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">सचिन बहुत ही
जिंदादिल और हंसमुख लड़का था . जितने दिन भी ऑफिस में रहता रौनक आ जाती ऑफिस में.
लडकियां तो उसके आस-पास ही मंडराती रहतीं. लड़के भी उसके अच्छे दोस्त थे. अक्सर शाम
उन सबका किसी पार्टी का प्लान बन जाता. वो हमेशा की तरह बस अपने काम से काम
रखती और फिर ऑफिस के बाद सीधा घर . शुरू में सबने उसे भी शामिल करने की कोशिश की
थी. पर हर बार उसकी ना सुन कर उसे अपने हाल पर छोड़ दिया था .सचिन ने भी हर संभव
कोशिश की </span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">,<span lang="HI">साथ चाय </span>–<span lang="HI">कॉफ़ी </span>–<span lang="HI">लंच का आग्रह </span>,<span lang="HI">उसे घर छोड़ देने की पेशकश पर हर बार
वो सिर्फ हल्का सा मुस्कुरा कर सर हिला कर ना कर देती . एक बार सचिन ने उसे कह ही
दिया </span>, “<span lang="HI">आपको पता है</span>, <span lang="HI">आपने अपने चारो
तरफ एक दीवार उठा रखी है</span>, <span lang="HI">पर यह दीवार दूसरों को
बाहर रखने से ज्यादा आपको अन्दर बंद रखेगी...बहुत घुटन होगी...एक छोटी सी खिड़की तो
खोलिए </span>,<span lang="HI">थोड़ी ताज़ी हवा आने दीजिये </span>“</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">आपकी बातें मेरी
बिलकुल समझ में नहीं आ रहीं...ये काम निबटा लूँ ज़रा कब से पेंडिंग पड़ा है और तन्वी
ने कंप्यूटर स्क्रीन पर नज़रें गड़ा दीं.</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">कोई बात नहीं </span>,<span lang="HI">हम भी छेनी हथौड़ा लेकर इस दीवार को गिरा कर ही रहेंगे .</span>” <span lang="HI">उसकी तरफ एक मुस्कुराहट उछालता सचिन चला गया वहाँ से .</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"><br /></span>
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">वो बेतरह डर गयी </span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">, <span lang="HI">अगर सचिन ज्यादा से ज्यादा टूर पर नहीं होता तब शायद वो
रिजाइन ही कर देती. अब किसी के करीब जाने या किसी को अपने करीब आने देने की हिम्मत
नहीं बची थी उसमे. दो दो बार धोखा खा कर उसका दिल छलनी हो चुका था.</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial; margin-bottom: 0.0001pt;">
<span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;">*** </span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"><br /></span>
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">सिड तन्वी की
बिल्डिंग में रहता था और उसके ही स्कूल में था . कब साथ खेलते </span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">–<span lang="HI">पढ़ते उनके बीच प्रेम का अंकुर फूटा</span>, <span lang="HI">अहसास
भी नहीं हुआ. पर धीरे धीरे वो अंकुर एक पौधे का रूप ले चुका था और उसमे फूल खिल
आये थे</span>, <span lang="HI">जिसकी खुशबु पूरी बिल्डिंग में फ़ैल गयी थी . सबको
पता चल गया था </span>, <span lang="HI">बात तन्वी के माता-पिता तक भी पहुंची .लेकिन
तन्वी की शादी को लेकर उसके माता- पिता ने बड़े बड़े ख्वाब बुन रखे . लम्बे बालों
वाला, कलाई में ब्रेसलेट पहने ,हाथों पर टैटू बनवाये ,म्युज़िक को ही अपनी ज़िन्दगी
समझने वाला सिड कहीं से भी उन सपनों पर खरा नहीं उतरता था .तन्वी ने हिम्मत दिखाई </span>,
‘<span lang="HI">सिड के साथ भाग जाने को भी तैयार थी .पर सिड ने ही कदम खींच लिए
.उलटा उसे समझाने लगा </span>, ‘<span lang="HI">हम कहाँ रहेंगे </span>,<span lang="HI">कैसे घर चालायेंगे </span>,<span lang="HI">मेरे कैरियर</span> <span lang="HI">का क्या होगा</span>?’ <span lang="HI">तन्वी ने कहा भी</span>, ‘<span lang="HI">वो नौकरी कर लेगी</span>, <span lang="HI">सिड आराम से अपना कैरियर बना सकता
है</span>’ <span lang="HI">लेकिन सिड उलटा उसे समझाने लगा </span>, “<span lang="HI">तुम
कितना कमा लोगी कि हम अलग रह कर घर भी चला सकें और मैं अपने शौक भी पूरे कर सकूँ.
एक गिटार की कीमत पता है</span>?? <span lang="HI">और उसकी क्लासेज़ की फीस </span>??
<span lang="HI">मुझे अभी बहुत कुछ सीखना है तन्वी...कितनी मिन्नतें करनी पड़ती हैं </span>,<span lang="HI">तब जाकर पापा पैसे देते हैं. अगर तुम्हारे पैरेंट्स नहीं मान रहे तो फिर
हमें एक दुसरे को गुडबाय कह देना चाहिए</span>”</span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"><br /></span>
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">सिड की ये बातें
सुनकर तन्वी ने फिर कुछ नहीं कहा</span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">, ‘<span lang="HI">उसे भीख में
प्रेम नहीं चाहिए था </span>‘ .<span lang="HI">पर इस घटना ने पता नहीं उसके
पैरेंट्स पर क्या असर डाला कि वे तन्वी की शादी के लिए जल्दबाजी मचाने लगे. चुपचाप
रिश्तेदारों से मिलकर एक लड़का ढूंढा गया और मुम्बई से बहुत दूर वह इस शहर में
ब्याह दी गयी. तन्वी के एतराज जताने पर माँ से सुनने को मिला</span>, “<span lang="HI">पहले ही बहुत गुल खिला चुकी हो...इसके पहले कि हमारे मुहं पर कालिख पुते</span>,
<span lang="HI">अपना घर –बार संभालो </span>“.</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"><br /></span>
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">तन्वी को भी अपने
पैरेंट्स पर बहुत गुस्सा आया और उसने भी सोच लिया..</span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">”<span lang="HI">ठीक
है वह </span>,<span lang="HI">अब अपना घर बार ही संभालेगी </span>,<span lang="HI">पलट
कर उन्हें नहीं देखेगी </span>“ <span lang="HI">उसने पूरे तन-मन से अपने पति को
अपनाया . पर उसकी किस्मत ने यहाँ भी धोखा दिया. उसके पति को एक साथी नहीं एक केयर
टेकर चाहिए थी. उनकी ज़िन्दगी शादी से पहले जैसी चल रही थी</span>, <span lang="HI">उसमे
शादी के बाद भी कोई बदलाव नहीं आया . वही ऑफिस के बाद दोस्तों के साथ समय बिताना .
शनिवार की रात जमकर शराब पीना और फिर सारा सन्डे सो कर निकालना . अगर तन्वी कुछ
कहती तो गालियाँ मिलतीं . एक बार तन्वी ने तेज आवाज़ में एतराज जताया तो पति ने हाथ
भी उठा दिया . इसके बाद तन्वी सहम सी गयी </span>, <span lang="HI">अपने माता-पिता
से शिकायत की तो उन्होंने कहा </span>, “<span lang="HI">वक़्त के साथ सब ठीक हो
जाएगा थोड़ा बर्दाश्त करो </span>“ <span lang="HI">पर वक़्त के साथ ठीक कुछ भी नहीं
हुआ बल्कि पति और भी ढीठ हो गया .</span></span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;"> </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">तन्वी के पति को खुद के एक छोटे
शहर से होने का बहुत कॉम्प्लेक्स था .वे अक्सर तन्वी को बड़े शहर वाली , बॉम्बे
वाली कहकर ताना दे जाते. फिर भी तन्वी इस शादी को कामयाब बनाने की कोशिश में जुटी
रही. पर जब उसका मिसकैरेज हुआ और उसके बाद भी पति ने एक दिन भी छुट्टी नहीं ली</span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">, <span lang="HI">उसे हॉस्पिटल में छोड़ वैसे ही ऑफिस चला गया तब तन्वी बुरी तरह
टूट गयी. उसे इस शादी से कोई उम्मीद नहीं बची. </span></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"><br /></span>
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">दो तीन महीने तो
वो डिप्रेशन में ही रही. फिर उसके बाद खुद को ही धीरे धीरे समेट कर ज़िन्दगी पटरी
पर लाने की कोशिश करने लगी. रोज अखबार में नौकरी वाले कॉलम देखती</span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">,<span lang="HI">लाल निशान लगाती और बिना पति को बताये इंटरव्यू दे आती. पर
कहीं उसे नौकरी पसंद नहीं आती कहीं क्वालिफिकेशन के अभाव में वो रिजेक्ट कर दी
जाती. कहीं दोनों पसंद आते तो सैलरी इतनी कम होती कि इतना मर खप कर नौकरी करना उसे
नहीं जमता. फिर उसे इस कंपनी में मनलायक नौकरी मिली. </span></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"><br /></span>
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">पति से पूछा नहीं
बस उन्हें बताया . सुनने को मिला</span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">, “<span lang="HI">हमारे खानदान
की औरतें नौकरी नहीं करतीं </span></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"><br /></span>
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">उसने पलट कर
तुरंत ही कहा </span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">और हमारे खानदान के पुरुष शराब पीकर
औरतों को नहीं पीटते </span>“</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">शायद नयी जॉब ने
ही उसे इतना कहने की हिम्मत दे दी थी . पर पति का इगो बहुत</span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-font-size: 10.0pt; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Times New Roman"; mso-fareast-language: EN-IN;"> </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">हर्ट</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"> हुआ और वे रोज
सुबह शाम ताने</span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-font-size: 10.0pt; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Times New Roman"; mso-fareast-language: EN-IN;"> </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">कस</span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-font-size: 10.0pt; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Times New Roman"; mso-fareast-language: EN-IN;"> </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">कर बदला लेने लगे </span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">, <span lang="HI">तैयार
होते देख व्यंग्य करते </span>,”<span lang="HI">इतना सजा धजा किसके लिए जा रहा है </span>,<span lang="HI">बॉस बहुत हैंडसम है क्या </span>?”</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">रोज देर से आने
वाले पति अब जल्दी आने लगे थे . जिस दिन उसे देर हो जाती</span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-font-size: 10.0pt; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Times New Roman"; mso-fareast-language: EN-IN;"> </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">सुनने</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"> को मिलता</span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">, “ <span lang="HI">ऑफिस के बाद कॉफ़ी-शॉफी पीने चली गयी होंगी </span>, <span lang="HI">नौकरी बचाए रखने को ये सब करना पड़ता है...रोज देखता हूँ मैं</span>, <span lang="HI">यह सब</span> “</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"><br /></span>
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">अपने होंठ सिल कर
वो सारे काम किये जाती. अपने माँ-बाप के मन का हाल जानती थी . उन्हें अगर पता चल
जाता कि उसके पति को उसका जॉब करना पसंद नहीं तो शायद जबरदस्ती छुड़वा देते. इसलिए
बिना पति के किसी</span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-font-size: 10.0pt; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Times New Roman"; mso-fareast-language: EN-IN;"> </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">ताने </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"> का जबाब दिए वह सारे काम करती और
ज्यादा से ज्यादा उनसे दूर रहती. बस ऑफिस का काम ही उसके लिए जीने का सहारा था.
उसने बहुत मन लगाकर काम सीखा. ऑफिस के पौलिटिक्स</span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">, <span lang="HI">गॉसिप
से भी दूर रहती</span>, <span lang="HI">मेहनत से काम करती. इस वजह से ऑफिस में उसकी
बहुत इज्जत भी थी .</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"><br /></span>
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">कभी कभी तलाक
लेने के विषय में सोचती भी पर फिर खुद को ही समझा देती</span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">, “<span lang="HI">क्या फर्क पड़ जाएगा तलाक लेने से </span>,<span lang="HI">आज
भी एक छत के नीचे अजनबी की तरह ही रह रहे हैं</span>, <span lang="HI">आगे भी अजनबी
ही रहेंगे </span>“ <span lang="HI">पर एक दिन वो घर की चाबी ले जाना भूल गयी थी.
ऑफिस में ऑडिट चल रहा था</span>, <span lang="HI">उसे घर आने में देर हो गयी. कई बार
घंटी बजायी पर उसके पति ने दरवाजा नहीं खोला. पूरी रात उसने सीढियों पर बैठ कर
बिताई . और वहीँ बैठे बैठे एक निर्णय ले लिया. सुबह दूध वाले</span>, <span lang="HI">पेपर वाले न देख लें इस डर से पति ने दरवाजा खोल दिया . वह अपने कमरे में
जाकर सो गयी . उस दिन ऑफिस से छुट्टी ले ली. और सारा दिन घर ढूँढने में बिताया .
शाम को सामान बाँधा पति के आने का इंतज़ार किया पति का रिएक्शन था </span>,“ <span lang="HI">हाँ </span>,<span lang="HI">ठीक है..जाइए जाइए..मैं भी डिवोर्स दे
दूंगा..दूसरी शादी करूंगा </span>“</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"><br /></span>
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">आप शौक से दूसरी
तीसरी जीतनी मर्जी हो शादी कीजिये मुझे आपके डिवोर्स पेपर का इंतज़ार रहेगा </span>“
<span lang="HI">कह वह बाहर निकल आयी.</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"><br /></span>
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">उसके बाद से ही
उसकी ज़िन्दगी एक शांत झील की तरह हो गयी है. सीमित दायरे में कैद...न उसमें कोई
तरंग उठती है न</span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-font-size: 10.0pt; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Times New Roman"; mso-fareast-language: EN-IN;"> </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">किनारे </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"> टूटने का कोई डर होता है. ऑफिस से आना
देर रात किताबें पढना </span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">, <span lang="HI">गज़लें सुनना .इतना सुकून शायद उसकी
ज़िन्दगी में कभी रहा भी नहीं. पर जब से सचिन ने ऑफिस ज्वाइन किया है वो लगातार इस
शांत झील में कंकड़ फेंकता जा</span></span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-font-size: 10.0pt; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Times New Roman"; mso-fareast-language: EN-IN;"> </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">रहा </span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-font-size: 10.0pt; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Times New Roman"; mso-fareast-language: EN-IN;"> </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">है. थोड़ी देर को
तरंगें उठती हैं पर फिर झील की सतह वैसे ही शांत हो जाती है. पर अब झील के तल में
इतने कंकड़ जमा हो गए थे कि उनकी चुभन , झील को तकलीफ दे रही थी .</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"><br /></span>
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">***</span><br />
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"><br /></span>
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">सचिन भला लड़का
था, तन्वी को उसका अटेंशन पाकर अच्छा लगता था.पर प्यार और शादी में दो बार धोखा खा
चुकी तन्वी, सचिन को करीब आने देने से डर रही थी. उसे यह भी लगता, सचिन को उसके
पास्ट के बारे में मालूम नहीं है, इसीलिए वह उसकी तरफ आकर्षित है. जैसे ही सचिन को
सच्चाई पता चलेगी ,वह उस से खुद ब खुद दूर हो जाएगा ,इसीलिए वह सचिन से दूर दूर ही
रहती पर सचिन के बार बार आते sms ने उसे उलझन में डाल दिया था. और उसने सचिन से
मिलकर उसे सबकुछ साफ़ साफ़ बता देने का फैसला किया. उसे विश्वास था सचिन को उसके
बारे में कुछ भी पता नहीं अगर वो अपना सारा पास्ट उसे बता देगी तो वो बात समझ
जाएगा और फिर उस से दूर हो जाएगा . कुल जमा अपनी चौबीस साल की ज़िन्दगी में तन्वी
ने इतना कुछ देख लिया था कि उसे अब अपनी ज़िन्दगी में और उथल-पुथल गवारा नहीं</span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-font-size: 10.0pt; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Times New Roman"; mso-fareast-language: EN-IN;"> </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">थे</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif; font-weight: bold;">.</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"><br /></span>
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">उसने सचिन को
मैसेज किया </span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">, “<span lang="HI">कब वापस आ रहे हो टूर से </span>?”</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"><br /></span>
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">वाsssऊ... कांट
बीलीव, तुम पूछ रही हो...बस अभी एयरपोर्ट की तरफ निकलता हूँ </span>, <span lang="HI">सुबह तक कोई न कोई फ्लाईट मिल ही जायेगी और फिर डेढ़ घंटे में आपके सामने
हाज़िर </span>“</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">मजाक छोडो ..सच
बताओ...</span>” <span lang="HI">तन्वी ने फिर से मैसेज किया .</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">आई शपथ...सच कह
रहा हूँ </span>“</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“ <span lang="HI">ठीक है मैं कल
ऑफिस में पता कर लूंगी...</span>”</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">और इस बार सचिन
ने मैसेज की जगह कॉल ही किया. थोड़ी देर फोन घूरती रही तन्वी फिर उठा कर जैसे ही </span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">‘<span lang="HI">हलो</span>’ <span lang="HI">कहा</span>, <span lang="HI">सचिन का
चिंता भरा स्वर सुनायी दिया</span>, “<span lang="HI">क्या बात है तन्वी...कुछ
परेशानी है...मैं मजाक नहीं कर रहा </span>,<span lang="HI">सच में कल आ सकता हूँ </span>“ </span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">दिल भर आया तन्वी
का थोडा रुक कर बोली </span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">, <span lang="HI">कि कहीं आवाज़ का कम्पन पता न चल जाए
. </span>“<span lang="HI">कोई परेशानी नहीं बाबा....बस ऐसे ही कुछ बात करनी है </span>“</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">आज तो मेरे
सितारे खुल गए ...तुम्हे मुझसे बात करनी है </span>?? <span lang="HI">जो सामने देख
कर भी मुहं घुमा लेती है आज उसे मुझसे बात करनी है...ओह!! सचमुच यकीन हुआ</span>, <span lang="HI">खुदा है इस जहां में वरना मेरी दुआ कैसे क़ुबूल हो जाती...</span>”</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">अब ये
डायलॉगबाज़ी बंद करो...तुम्हारे आने के बाद कॉफ़ी पर मिलते हैं..चलो गुडनाईट </span>“</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">अरे !! इतनी
जल्दी क्या गुडनाईट...अभी तो बात की शुरुआत है..फिर मुलाक़ात होगी और फिर...</span>”</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">मैं सोने जा रही
हूँ..गुडनाईट </span>“</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">मैं परसों आ रहा
हूँ तन्वी...सीधा ऑफिस ही आउंगा उसके बाद मिलते हैं...गुडनाईट एन यू प्लीज़ टेक
केयर...बाय </span>“ <span lang="HI">इस बार सचिन का स्वर गंभीर था .</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“ <span lang="HI">यू टू...बाय </span>“
<span lang="HI">तन्वी ने फोन रख दिया पर अब आँखों में नींद कहाँ थी. पहली बार सचिन
से इस तरह खुलकर बात हुई थी और दोनों ही</span></span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , "serif"; mso-bidi-font-size: 10.0pt; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Times New Roman"; mso-fareast-language: EN-IN;"> </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">अपनेआप</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"> तुम पर आ गए थे
. शायद उसके लगातार आते मैसेज ने </span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">‘<span lang="HI">आप वाली अजनबियत हटा दी थी .देर रात
तक ताने </span>–<span lang="HI">बाने बुनती रही कि कैसे बात की शुरुआत करेगी क्या
क्या बताएगी</span>, <span lang="HI">सचिन का क्या रिएक्शन होगा.</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"><br /></span>
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">सचिन दोपहर बाद
ऑफिस में आया . बाल बिखरे हुए थे . चेहरे पर थोड़ी परेशानी की लकीरें दिख रही थीं
अब वे सचमुच थीं या तन्वी की कल्पना कहना मुश्किल था. दूर से ही उसकी तरफ बड़ी गहरी
नज़रों से देखते हुए बहुत ही अपनेपन से मुस्कुरा दिया .लेकिन उसकी डेस्क के पास
नहीं आया </span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">,<span lang="HI">शायद उसकी असहजता भांप रहा था . छः
बजे के करीब उसके पास आकर धीरे से बोला</span>, “<span lang="HI">कहीं इरादा बदल तो
नहीं दिया </span>?”</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">उसने भी मुस्करा
कर सर हिला कर </span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">‘<span lang="HI">न </span>‘ <span lang="HI">कह दिया .</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">फिर कहाँ चले
कॉफ़ी के लिए </span>“</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">वो </span>‘<span lang="HI">बीन्स एंड बियोंड ‘ है न ..ऑफिस से ज्यादा दूर भी नहीं. </span>“</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">दूर के लिए कोई
बात नहीं</span>, <span lang="HI">कार लेकर आया हूँ...अब इतनी मुश्किल से मौक़ा मिला
है </span>,<span lang="HI">जितनी देर का साथ मिल जाए </span>,<span lang="HI">घर भी</span>
<span lang="HI">छोड़ दूंगा ..इसी बहाने घर भी देख लूंगा...फिर तो जब मन हुआ डोरबेल
बजायी जा सकती है </span>“<span lang="HI">शरारत से मुस्कराया सचिन .</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">तन्वी ने
त्योरियां चढ़ाईं तो हंस दिया </span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">,”<span lang="HI">मजाक
था बाबा ..समझा करो .अब सब समेटो मैं बाहर इंतज़ार कर रहा हूँ .</span>”</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">सचिन के जाने के
बाद तन्वी सोचती रह गयी</span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">, <span lang="HI">पहली बार ऐसे भरपूर नज़र डाली थी सचिन
के चेहरे पर सचमुच दिलकश है मुस्कान उसकी..इसीलिए लडकियां मरी जाती हैं..</span>” <span lang="HI">फिर कंधे उचका दिए..</span>”<span lang="HI">उसे क्या </span>, <span lang="HI">आज तो उसे सब बता देगी फिर सच जानकार सचिन खुद ही उस से सौ फीट की दूरी
रखेगा </span>“</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"><br /></span>
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">सचिन कार में वेट
कर रहा था .जगजीत सिंह की नज़्म बज रही थी, “बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी...”तन्वी
कहने वाली थी ,’मेरी फेवरेट नज़्म है यह ‘ फिर खुद को ही झिड़क दिया, “वह दोस्ती
बढाने नहीं, ख़त्म करने आयी थी. फिर एक ठंढी सांस भी ली, “अब बात दूर तलक क्या
जायेगी...हमेशा हमेशा के लिए ख़त्म हो जायेगी .सचिन ड्राइव करते हुए चुप सा था.
शायद उसके भी मन में चल रहा था</span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">, <span lang="HI">क्या कहने वाली
है वह </span>“ <span lang="HI">रास्ते में बस ट्रैफिक मौसम की बाते होती रहीं. जब </span>‘<span lang="HI">बीन्स एंड बियोंड</span>’ <span lang="HI">निकल गया तो तन्वी ने उसकी तरफ
देखा .सचिन ने सड़क पर नज़रें जमाये हुए ही कहा</span>, ‘<span lang="HI">यहाँ बहुत
भीड़ होती है...आगे चलते हैं न सुकून से दो पल बैठेंगे </span>“</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"><br /></span>
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">अच्छी जगह चुनी
थी सचिन ने</span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">, <span lang="HI">बड़े बड़े आरामदायक चेयर्स थे . हलकी सी रौशनी थी और लोग भी बहुत ज्यादा नहीं. वो भी पैर फैलाकर रिलैक्स होकर बैठी
थी . बस बात कैसे शुरू करे यही सोच रही थी . </span></span><br />
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"><span lang="HI">सचिन ने मेन्यु कार्ड पर नज़र घुमाते
हुए पूछा </span>, “<span lang="HI">क्या लोगी...</span>”<span lang="HI"><br />
</span>“<span lang="HI">बस कॉफ़ी...</span>”</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">चिली टोस्ट
ट्राई करो बड़ी अच्छी होती है यहाँ की" कहते उसने </span>‘<span lang="HI">चिली
टोस्ट और और कॉफ़ी ऑर्डर कर दिया था .तन्वी ने बात जारी रखने को कहा</span>, ‘<span lang="HI">अक्सर आते हो यहाँ </span>?”</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">अब कहाँ वक़्त
मिलता है..महीनों बाद आया हूँ</span>, <span lang="HI">कॉलेज के दिनों में अक्सर आता
था </span>“</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">गर्ल फ्रेंड्स
के साथ </span>?” <span lang="HI">उसने छेड़ा</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">हाँ</span>, <span lang="HI">गर्लफ्रेंड्स के साथ...जलन हो रही है </span>? “ <span lang="HI">सचिन ने भी
हंस कर उसी सुर में जबाब दिया .</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">मुझे क्यूँ जलन
होगी </span>? “,<span lang="HI">उसने तेजी से कहा .</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">हाँ</span>, <span lang="HI">तुम्हे क्यूँ जलन होगी...ऐसा है ही क्या हमारे बीच </span>“ <span lang="HI">सचिन कुछ गंभीर हो गया था .</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">तन्वी को सूझा
नहीं क्या जबाब दे ..अच्छा हुआ उसी वक़्त कॉफ़ी आ गयी.</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">टोस्ट कुतरते
कॉफ़ी के घूँट भरते दोनों ही चुप थे सचिन शायद इंतज़ार कर रहा था </span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">,<span lang="HI">वो अपनी बात शुरू करे </span>“</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">आखिर तन्वी ने
बात शुरू की </span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">, “<span lang="HI">सचिन तुम्हारे एस.एम.एस आते
हैं..मैं रिप्लाई नहीं करती...मुझे अच्छा नहीं लगता </span>“</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">मुझे भी ये
अच्छा नहीं लगता ...</span>” <span lang="HI">सचिन ने कप रखते हुए उसकी आँखों में
सीधा देख मुस्कराते हुए कहा.</span> </span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">वो थोड़ी असहज हो
गयी लेकिन फिर संभाल लिया खुद को </span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">, “ <span lang="HI">देखो इसकी एक वजह है ...मैं सिंगल नहीं हूँ </span>“</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">ओह! आई सी...</span>”</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">नहीं मेरा मतलब
सिंगल तो हूँ..पर वैसी सिंगल नहीं ...एक्चुअली आयम अ डीवोर्सी </span>“</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">सो </span>??”..<span lang="HI">सचिन ने कंधे उचका दिए</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">तुम्हे कोई फर्क
नहीं पड़ता </span>???” <span lang="HI">उसे अचरज हुआ</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">क्या फर्क पड़ना
चाहिए ...और ये बात मुझे पता है </span>“ सचिन ने कंधे उचका दिए .</span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">क्याsss </span>??..<span lang="HI">वो जैसे आसमान से गिरी . </span>“<span lang="HI">तुम्हे कैसे पता </span>??”</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">मैडम हमलोग
इन्डियन हैं और हमारा फेवरेट टाईमपास है गॉसिप...याद नहीं पर किसी ने बहुत पहले ही
बताया था </span>“</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">और तुम्हे लगा
ये तो अवेलेबल है </span>,<span lang="HI">इसपर चांस मारा जा सकता है </span>?“ <span lang="HI">ये जानकार कि सचिन को ये बात पहले से पता है तन्वी को बहुत गुस्सा आ रहा
था</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">व्हाssट </span>??..<span lang="HI">सचिन इतने जोर से चौंका कि थोड़ी कॉफ़ी उसके पैंट पर छलक ही गयी .</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">हाँ !! तुमने
यही सोचा ये तो डीवोर्सी है...अकेली रहती है....इसके साथ टाईमपास किया जा सकता है
...रात बिरात मैसेज भेजा जा सकता है </span>“ <span lang="HI">ऑफिस में उसके पीठ
पीछे लोग उसकी बातें करते हैं ये जान उसे बहुत गुस्सा आ रहा था और वो इसका बदला
सचिन से ले रही थी.</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">तन्वी..आयम
सॉरी... आयम रियली रियली सॉरी...मैं तुम्हें कैसे यकीन दिलाऊं मैंने ऐसा कभी नहीं
सोचा...और मुझे भी नहीं पता तुम मुझे इतना अवॉयड करती थी फिर भी मुझे तुमसे बात
करना ,अच्छा लगता था. पता नहीं तुम्हे देख कर क्यूँ लगता कि तुम एक शांत झील सी
हो, एक सीमित दायरे में कैद जबकि तुम्हे एक चंचल नदी बनकर बहना चाहिए. मैसेज इसलिए
भेजता कि कहीं भी कुछ अच्छा देखता तो मुझे तुम्हारा ख्याल आ जाता. मन होता ,वो जगह
तुम्हारे साथ देखूं, बस इतनी सी बात है तन्वी और कुछ नहीं </span>“</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">यही होता है...
डीवोर्सी के साथ अवेलेबल का टैग अपने आप लग जाता है....इसीलिए मैं सबसे इतनी दूरी
बना कर रखती हूँ और देखो तुम्हें भी मालूम था फिर भी तुम मेरे करीब आने की कोशिश
करते रहे</span>, <span lang="HI">मुझसे दोस्ती बढाते रहे </span>“ <span lang="HI">तन्वी
की आँखें छलछला आयीं .</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">सचिन कुछ कहने जा
रहा था पर उसकी भीगी आँखें देख चुप हो गया </span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">, <span lang="HI">कुर्सी
से पीठ टिका दी ...एक गहरी सांस ली...फिर पूछा </span>, “<span lang="HI">तो तुम
क्या चाहती हो...मैं तुमसे दूर रहूँ </span>??”</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">हाँ ..</span>” <span lang="HI">आँखों में जलते हुए आंसू लिए हुए जैसे बच्चों की तरह एक जिद से कहा .</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">ठीक है डन....
अब नो मैसेजेस...नो बातचीत.. दूर रहूँगा</span>, <span lang="HI">तुमसे ..इतनी बड़ी
बात कह दी...बहुत हर्ट किया है मुझे...ऐसा कैसे सोच लिया तुमने...</span>”<span lang="HI">सचिन ने हैरानी से सर हिलाया</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">क्यूंकि यही सच
है ...</span>” <span lang="HI">वो कड़वी होती जा रही थी .</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">फिर सचिन ने वेटर
के बिल लाने का भी इंतज़ार नहीं किया काउंटर पर जाकर बिल चुकाया . वो भी साथ ही उठ
आयी.</span><br />
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"> बाहर निकल कर तन्वी ने कहा </span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">,”<span lang="HI">मैं ऑटो ले
लूंगी..</span>”</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">ओके.. </span>“ <span lang="HI">कहता सचिन आगे बढ़ कर ऑटो रोकने लगा . ऑटो में बैठते हुए </span>, <span lang="HI">सचिन की तरफ देखने की हिम्मत नहीं हुई तन्वी की ..बाय भी नहीं कहा...उसकी
आँखें तो गंगा जमुना बनी हुई थीं.</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">घर आकर भी देर तक
रोती रही . पर समझ नहीं पा रही थी </span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">,<span lang="HI">वो
तो सचिन को खुद से दूर रहने के लिए कहने गयी थी. सचिन ने उसकी बात मान भी ली </span>,<span lang="HI">फिर भी क्यूँ उसके आंसू यूँ उमड़े चले आ रहे थे .</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">***</span><br />
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"><br /></span>
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">सचिन ने अपना
वायदा निभाया भी. उसकी तरफ कभी देखता भी नहीं </span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">, <span lang="HI">ऑफिस
में भी थोडा बुझा बुझा सा रहता</span>, <span lang="HI">लोगो ने भी नोटिस किया तो
उसने टाल दिया..</span>”<span lang="HI">अरे</span>, <span lang="HI">इतना टूर रहता
है,यार ...आज यहाँ</span>, <span lang="HI">कल वहाँ थक जाता हूँ </span>“ <span lang="HI">पर
अब तन्वी की नज़रें हर वक़्त सचिन पर रहतीं. वो कब टूर पर जा रहा है</span>, <span lang="HI">कब वापस आ रहा है</span>, <span lang="HI">सारी खबर रहती उसे. मोबाइल
कंपनी वालों का भी कोई मेसेज आता तो चौंक जाती </span>, <span lang="HI">और फिर सचिन
के पुराने मैसेज कई कई बार पढ़ती. अपने उस दिन के व्यवहार का गिल्ट उसके मन में घर
कर गया था . वो सचिन को कुछ और कहना चाहती थी पर कुछ और ही कह गयी. उसने सारा दोष
सचिन पर डाल दिया </span>,<span lang="HI">जबकि इतना वो भी जानती थी </span>,<span lang="HI">सचिन के मन में ऐसा ख्याल नहीं रहा होगा. पर तन्वी को समझ नहीं आ रहा था,
यह जानते हुए भी कि वह एक डीवोर्सी है सचिन उस से प्यार कैसे कर सकता है? जबकि वो
हैंडसम है, काबिल है, उसे कितनी ही सिंगल लडकियां मिल जायेंगी. फिर ये भी सोचती
,अगर सचिन सचमुच सिर्फ उसके साथ टाइम पास करना चाहता था तो फिर उसके बात करने से मना
करने पर इतना उदास क्यूँ रहने लगा है?और तन्वी ने सोचा, उस से मिलकर ,अपने उस दिन के
व्यवहार के लिए माफ़ी तो मांग ही लेनी चाहिए. उसे अपनी बीती ज़िंदगी की सारी बातें
बता देगी कि क्यूँ वह इतनी कड़वी हो गयी थी. </span></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">और उसने सचिन को
मैसेज कर दिया..</span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">”<span lang="HI">क्या बहुत नाराज़ हो </span>?“</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">मैं तुमसे कभी
नाराज़ नहीं हो सकता...इस जनम में तो नहीं </span>“ <span lang="HI">सचिन का जबाब पढ़
फिर से उसकी आँखें भर आयीं .</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">कल, चलें कॉफ़ी
पीने </span>?“</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">ठीक है </span>“
<span lang="HI">एक स्माइली के साथ सचिन का सादा सा जबाब आया </span>,<span lang="HI">फिर
से कोई मजाक कर के वो रिस्क नहीं लेना चाहता था .</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"><br /></span>
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">ऑफिस के बाद सचिन
उस दिन की तरह ही कार में उसका वेट कर रहा था . पर आज गाड़ी में कोई ग़ज़ल या गाना नहीं
बज रहा था हलके से मुस्कुरा कर उसने उसके लिए दरवाजा खोल दिया .</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">बैठते ही तन्वी
ने कहा.. </span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">सॉरी मुझे वो सब नहीं कहना चाहिए
था...मैं कुछ ज्यादा ही बोल गयी ..</span>”</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">कोई बात
नहीं...मैं समझता हूँ ..</span>”</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">सचिन मुझे तुमसे
ढेर सारी बातें करनी है...</span>”</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">बोलो..आयम ऑल
इयर्स </span>“ <span lang="HI">जरा सा मुस्कुरा कर उसकी तरफ देख फिर नज़रें सड़क पर
जमा दीं.</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">छोडो कहीं नहीं
जाते हैं ...लॉन्ग ड्राइव पर चलो..यहीं प्राइवेसी है ..मैं सब बताती हूँ </span>“</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">“<span lang="HI">ठीक है..</span>”..<span lang="HI">इतना बोलने वाले सचिन के दो दो शब्द के जबाब तन्वी को बड़े अजीब लग रहे थे
पर वो समझ रही थी..वो बहुत हर्ट है और अब कुछ भी बोलकर मुसीबत में नहीं पड़ना चाहता
.</span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;"><br /></span>
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">वो चुन चुन कर
सुनसान रास्ते पर धीरे धीरे गाड़ी घुमाता रहा और तन्वी परत दर परत अपनी ज़िन्दगी के
गुजरे लम्हे उसके सामने खोलती गयी . सचिन ध्यान से सुन रहा था जब कभी उसकी तकलीफ
से बहुत आहत होकर उसकी तरफ देखता तो तन्वी सामने नज़रें टिका देती. पति से अलग होकर
अकेले रहने की बात तक पहुँचते पहुँचते तन्वी की आवाज़ आंसुओं में डूब चुकी थी .
सचिन ने एक किनारे गाड़ी लगाकर</span><span style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">, <span lang="HI">तन्वी का सर
अपने कंधे से टिका लिया. आंसुओं से चिपके उसके बाल समेट कर पीछे कर दिए और उसका सर
सहलाते हुए बस इतना कहा</span>, “<span lang="HI">भरोसा कर सकती हो तो इतना भरोसा
करो मुझपर, अब इसके बाद एक आंसू नहीं आने दूंगा तुम्हारी आँखों में ..बहुत झेल
लिया तुमने, अब और नहीं, मेरे होते अब और नहीं ..</span>“<span lang="HI">तन्वी थोड़ी
और पास सिमट आयी </span>, <span lang="HI">आज तक सब कुछ उसने अकेले झेला था </span>,<span lang="HI">सारी लड़ाई अकेले लड़ी थी </span>,<span lang="HI">अब तक कोई उसकी तकलीफ को
यूँ अपनी तकलीफ समझ दुखी नहीं हुआ था. और तन्वी ने अपनी आँखें मूँद लीं . सब कुछ
कह कर उसका मन हल्का हो गया था .साड़ी कडवाहट आंसुओं में धुल चुकी थी और अब उसका मन
बीते दिनों के गहरे अँधेरे से निकल कर ,इस निश्छल प्रेम की नर्म रौशनी के स्वागत
के लिए तैयार था .</span></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: white; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">(समाप्त )</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , "sans-serif"; font-size: 12.0pt;"></span></div>
</div>
rashmi ravijahttp://www.blogger.com/profile/04858127136023935113noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6953374982088960088.post-19746362470568442002011-09-25T10:07:00.000-07:002011-09-25T10:07:46.005-07:00दो वर्ष पूरा होने की ख़ुशी ज्यादा या गम....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://1.bp.blogspot.com/-FqSAQos1y2s/Tn9eb_2wLBI/AAAAAAAABu4/uiNUWb2hs8M/s1600/images+%25287%2529.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="132" src="http://1.bp.blogspot.com/-FqSAQos1y2s/Tn9eb_2wLBI/AAAAAAAABu4/uiNUWb2hs8M/s200/images+%25287%2529.jpg" width="200" /></a></div>
<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; line-height: 25px;">२३ सितम्बर को इस ब्लॉग के दो साल हो गए. पर इस बात की ख़ुशी नहीं बल्कि अपराधबोध से मन बोझिल है. पिछले साल इस ब्लॉग पर सिर्फ दो लम्बी कहानियाँ और एक किस्त,वाली बस एक कहानी लिखी.</span><br />
<div>
<br /></div>
<div>
जबकि sept 2009 -sept 2010 के अंतराल में आठ-सोलह-चौदह किस्तों वाली तीन लम्बी कहानियाँ और चार छोटी कहानियाँ लिखी थीं. मन दुखी इसलिए है कि ऐसा नहीं कि प्लॉट नहीं सूझ रहा...कम से कम पांच-छः प्लॉट और दो लम्बी कहानियाँ अधूरी लिखी पड़ी हुई हैं. पर पता नहीं वक्त कैसे निकल जा रहा है...शायद दूसरे ब्लॉग की सक्रियता कहानियों की राह में रोड़े अटका रही है...एक मित्र से यही बात शेयर की तो उनका कहना था...."कहानियाँ तो खुद को लिखवा ही लेंगी...दूसरे ब्लॉग पर सक्रियता कायम रखें...वो ब्लॉग लोगो को ज्यादा पसंद है..".. ..हाँ, कहानियाँ शायद लिखवा ही लें खुद को...पर इस अपराधबोध का क्या करूँ...जो जब ना तब मन को सालता रहता है. </div>
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<br /></div>
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खासकर तब,जब मेरी बहन शिल्पी ने कहा..., "आज भी पहले 'मन का पाखी' ही खोल कर देखती हूँ...नई कहानी आई है या नहीं"...और उसने एक बड़ी महत्वपूर्ण बात कही...कि "कहानियाँ, पाठकों की कल्पना को विस्तार देती हैं...वे अपनी दृष्टि से किसी भी कहानी को देखते हैं.." . कुछ और पाठक हैं..जो यदा-कदा टोकते रहते हैं..'कहानी नहीं लिखी कब से आपने ' और मैने सोच लिया....लम्बी कहानियाँ तो जब पूरी होंगी तब होंगी...एक कहानी तो पोस्ट कर दूँ..</div>
<div>
<br />
और मैने "</div>
<span class="Apple-style-span" style="background-color: #c0a154; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif;"><span class="Apple-style-span" style="color: red;"><a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2011/08/blog-post_30.html">हाथों की लकीरों सी उलझी जिंदगी </a></span></span><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; line-height: 25px;"> " लिख डाली.</span><br />
<div>
<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; line-height: 25px;"> अब पाठकों को बता दूँ कि ये कहानी ,जब मैं कॉलेज में थी,तभी लिखा था. दुबारा टाइप करते वक्त कुछ चीज़ें जुड़ गयीं...क्यूंकि हाल-फिलहाल की कहानी हो और टीनेजर्स से जुड़ी हो तो फिर उसमे मोबाइल और एस.एम.एस. का जिक्र कैसे ना हो. </span></div>
<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; line-height: 25px;">
</span><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; line-height: 25px;"><div>
<br /></div>
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मैने <span class="Apple-style-span" style="color: red;"><a href="http://udantashtari.blogspot.com/">समीर जी</a> </span>से वादा भी किया था...कि <span class="Apple-style-span" style="color: blue;">डा. समीर</span> के नाम के विषय में पूरी कहानी पोस्ट करने के बाद लिखूंगी. जब मैने यह कहानी लिखी थी तो पात्रों के यही नाम थे. ब्लॉग में पोस्ट करते वक्त मुझे इस बात का ध्यान था कि<span class="Apple-style-span" style="color: red;"> समीर जी </span>एक नामी ब्लोगर हैं और मेरी कहानियों के पाठक भी. फिर भी मैं यह नाम नहीं बदल पायी. दूसरे कहानी लेखकों का नहीं पता..पर मेरे साथ हमेशा ऐसा होता है कि कहानी के हर पात्र का नाम ही नहीं एक अस्पष्ट सी तस्वीर भी मेरे सामने बन जाती है. ऐसा लगता है..उसे कहीं देखूं तो पहचान लूंगी. और वो नाम...उनका व्यक्तित्व उस कहानी से कुछ ऐसे जुड़ जाते हैं कि फिर उन्हें बदलना मेरे लिए तो नामुमकिन है. आज भी <span class="Apple-style-span" style="color: blue;">शची-अभिषेक, नेहा-शरद, पराग-तन्वी, मानस-शालिनी .</span>सब जैसे मेरे जाने-पहचाने हैं. प्रसंगवश ये भी बता दूँ कि ये <span class="Apple-style-span" style="color: blue;">'नाव्या' </span>नाम मैने कहाँ से लिया था??..अमिताभ बच्चन के छोटे भाई की बेटी का नाम उनके पिता हरिवंश राय बच्चन ने रखा था, <span class="Apple-style-span" style="color: blue;">'नाव्या नवेली'.</span> मैने कहीं ये पढ़ा और ये नाव्या नाम तभी भा गया.</div>
<div>
<br /></div>
<div>
वैसे अब, जब कहानियाँ लिखती हूँ...तो सबसे बड़ी समस्या नामों की होती है. परिचय का दायरा दिनोदिन विस्तृत होता जा रहा है...और कोई भी परिचित नाम रखने से बचती हूँ. ऐसे में बेटों को कहती हूँ...'जरा अपने सेल की कॉल लिस्ट पढो...वे नाम पढ़ते जाते हैं...और उनमे से ही नाम चुन लेती हूँ..'<span class="Apple-style-span" style="color: blue;">तन्वी'...मानस' ... 'पराग'</span> नाम ऐसे ही चुना था :) </div>
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="background-color: #c0a154; color: red; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif;"><a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2011/08/blog-post_30.html">हाथों की लकीरों सी उलझी जिंदगी </a></span><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; line-height: 25px;">से जुड़ी कुछ और बातों का जिक्र करने की इच्छा है...ये कहानी शायद मैने बीस साल पहले लिखी थी . {कोई सबूत चाहे तो पन्नो को स्कैन करके भी लगा सकती हूँ..पर एक वादा करना होगा...मेरी लिखावट पर कोई हंसेगा नहीं.,...वैसे इतनी बुरी भी नहीं है कि हँसे कोई ..पर हंसने वालो का क्या पता :( } </span><br />
<div>
<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; line-height: 25px;">ये साधारण सी कहानी है....मैं भी इसे अपनी प्रतिनिधि कहानियों में नहीं गिनती. कई वर्षों बाद, 'विक्रम सेठ' ने एक महा उपन्यास " Suitable Boy " लिखा . इसे Booker's Prize के लिए भी नामांकित किया गया. कई सारे अवार्ड मिले. मैने भी इस उपन्यास की चर्चा अपनी<span class="Apple-style-span" style="color: red;"> </span><a href="http://rashmiravija.blogspot.com/2010/05/blog-post_29.html"><span class="Apple-style-span" style="color: red;">एक पोस्ट</span> </a>में की थी...जिसमे नायिका बहुत ही कन्फ्यूज्ड है कि वो किस से शादी करे. एक उसका कॉलेज का पुराना प्रेमी है. एक बौद्धिकता के स्तर पर बिलकुल सामान, कवि-मित्र और एक उसकी माँ के द्वारा चुना गया, सामान्य सा युवक जो बुद्द्धिजिवी नहीं है परन्तु अपने काम के प्रति पूरी तरह समर्पित है. </span></div>
<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; line-height: 25px;">
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<br /></div>
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मैने यह पोस्ट लिखने एक बाद अपने एक मित्र से चर्चा की कि मैने भी बरसो पहले एक कहानी लिखी थी...जिसमे नायिका समझ नहीं पाती कि वो किसे पसंद करती है. (हालांकि दोनों स्थितियों में बहुत अंतर है....मेरी कहानी में तो प्यार का इजहार ही नहीं हुआ). संक्षेप में उस मित्र को कहानी सुनाई तो उन्होंने कहा कि " ये कहानी तो बहुत आगे तक बढ़ाई जा सकती है...जिसमे नायिका को तीनो युवक को जानने का अवसर मिलता है..उसके बाद उसे पता चलता है कि किसके लिए उसके दिल में जगह है. मैने उनसे कहा , "ठीक है....यहाँ तक ये कहानी मैने लिखी...अब इस से आगे की आप लिखिए ..एक नया प्रयोग होगा "</div>
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{वैसे भी ब्लॉगजगत में बहुत पहले 'बुनो कहानी ' लिखी जाती थी. जिसे दो लोग मिलकर लिखते थे. मैं जब अपनी पहली लम्बी कहानी पोस्ट कर रही थी,तभी किसी ने ये प्रस्ताव रखा था कि "आप इस कहानी को पूरा कर लीजिये तो दुसरो के साथ मिलकर 'बुनो कहानी' ' के अंतर्गत एक कहानी लिखिए. उन्होंने कुछ नाम भी सुझाए कि उनके साथ मिलकर लिखिए ". तब उन्हें भी पता नहीं था और शायद मुझे भी कि अभी तो मेरे झोले से ही नई नई कहानियाँ निकलती जा रही हैं..और कुछ निकलने को बेकरार हैं :)}</div>
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मेरे मित्र ने बड़े उत्साह से 'हाँ' कहा. लेकिन वे युवा लोग...अभी जिंदगी शुरू ही हुई है...जिंदगी की सौ उलझनें....नौकरी बदल ली...नई नौकरी की डिमांड...और भी बहुत कुछ होगा...ये बात वहीँ रह गयी...वैसे आप सबो को खुला निमंत्रण है...जो भी चाहे इस कहानी को आगे बढ़ा सकता है...:)</div>
</span><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; line-height: 25px;"><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; line-height: 25px;"><br /></span><br />
<i><span class="Apple-style-span" style="color: purple;">सभी पाठकों का बहुत बहुत शुक्रिया ...जिन्होंने मेरी कहानियाँ पढ़ीं...और टिप्पणी देकर उत्साह बढाया ...मार्गदर्शन भी किया...आशा है आने वाले वर्ष में आप सबो को निराश नहीं करुँगी...और सारी अधूरी कहानियाँ लिख डालूंगी...शुक्रिया फिर से...लगातार दो वर्ष तक साथ बने रहने के लिए...:)</span></i></span></div>
rashmi ravijahttp://www.blogger.com/profile/04858127136023935113noreply@blogger.com78tag:blogger.com,1999:blog-6953374982088960088.post-83817437579533912092011-08-30T02:40:00.000-07:002011-08-30T20:45:13.085-07:00हाथों की लकीरों सी उलझी जिंदगी (समापन किस्त)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; line-height: 25px;"></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; line-height: 23px;"></span><br />
<div style="border-bottom-width: 0px; border-color: initial; border-left-width: 0px; border-right-width: 0px; border-style: initial; border-top-width: 0px; font-style: inherit; margin-bottom: 15px; outline-color: initial; outline-style: initial; outline-width: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; vertical-align: baseline;">
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; line-height: 23px;"><b>(नाव्या का एक्सीडेंट हो जाता है...रितेश उसे हॉस्पिटल लेकर आता है...हॉस्पिटल में जिंदादिल डा. समीर से उसकी मुलाक़ात होती है)</b></span></div>
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; line-height: 23px;">
</span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span class="Apple-style-span" style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div class="separator" style="clear: both; font-size: 14px; text-align: center;">
<a href="http://2.bp.blogspot.com/-TnUxSQva2-M/TlyuW_CJS1I/AAAAAAAABto/oA8-TA7hyoQ/s1600/images+%25286%2529.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="200" src="http://2.bp.blogspot.com/-TnUxSQva2-M/TlyuW_CJS1I/AAAAAAAABto/oA8-TA7hyoQ/s200/images+%25286%2529.jpg" width="200" /></a></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"> सीनियर डॉक्टर राउंड पर आते और वो आस लगाए बैठी होती..शायद उसे छुट्टी दे दें....लेकिन उसका डिस्चार्ज होना टलता जा रहा था...कुछ इसमें डैडी का भी योगदान था...सुबह वे डॉक्टर के राउंड के समय जरूर उपस्थित होते और कहते..."जितने नियम से हॉस्पिटल में खाना -पीना, रेस्ट, दवाएं...सब समय पर हो जाता है.. घर में संभव ही नहीं....यहाँ सुबह सात बजे ब्रेकफास्ट के साथ दवाइयां भी दे दी जाती हैं...घर में ये दस के पहले तो उठेंगी नहीं...और फिर देर रात तक टी.वी. देखना...अपनी मनमानी करना...ना डॉक्टर, आप जब तक बिलकुल इत्मीनान ना हो जाएँ...इसे डिस्चार्ज करने की जल्दी ना करें..."</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"पर माँ को कितनी तकलीफ होती है...वे तो घर पे आराम कर सकती हैं..." उसे सच में माँ के लिए बहुत बुरा लगता था..बिचारी एक पतले से कॉट पर सोती थीं...करवट लेने में भी डर लगे.</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">पर माँ तुरंत बोल पड़ीं.."ना ना मुझे कोई तकलीफ नहीं..."</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">डॉक्टर हंस पड़े..."डोंट वरी बेटा...हम तुम्हे जरूरत से ज्यादा यहाँ नहीं रखेंगे....बस जल्दी ही छुट्टी दे देंगे..."</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">रुआंसी हो गयी वो....अपना कमरा अपना बिस्तर बहुत मिस कर रही थी....वैसे मन नहीं लग रहा था ऐसा नहीं था...बल्कि एक उपलब्धि सा ही लग रहा था...ये एक्सीडेंट....माँ-डैडी का इतना प्यार...रितेश और समीर का इतना सुखदाई साथ. जिंदगी का रूप हमेशा ऐसा ही रहे तो कितना अच्छा हो. यूँ ही...डैडी दिन में कुछ घंटे जरूर उसके साथ बिताएं...माँ खाने के साथ-साथ उसकी हर चीज़ का ख्याल रखे. रितेश ऐसे ही उसके लिए फूल लाता रहे और डा. समीर उन फूलों पर हाथ फेर..'क्वाईट लवली...' कहते हुए दुनिया जहान की बातें करते रहें.</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">पर दुनिया में हर ख़ुशी के साथ एक 'प्राइस टैग' लगा होता है...इन सारे सुखद पलों की कीमत उसे हॉस्पिटल के बेड पर पड़े रहकर चुकानी पड़ रही थी.</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">रितेश के मितभाषी होने और कुछ खोये-खोये सा अपने में ही गुम रहने से, उसे सपनो में जीने वाला बिलकुल सीधा-सादा लड़का समझती थी...पर जमाने की नब्ज़ पर उसकी पकड़ ढीली नहीं थी...जब माँ ने कहा..." मुझे फूल बेहद पसंद है....पहले तो माली को हिदायत दे रखी थी....रोज ताजे फूल ही ड्राइंगरूम में रखा करे...पर अब तो इधर-उधर के कामो से फुरसत ही नहीं मिलती...कि इन सबकी तरफ नज़र भी करूँ."(माँ हमेशा..अपनी समाज-सेवा को इधर-उधर के काम कहकर गौण कर देतीं...उसके टोकने पर माँ का कहना था,लोग कहीं ये ना समझें की उन्होंने पैसे और समय होने की वजह से एक फैशन की तरह समाज-सेवा अपनाया हो...शुरुआत भले ही माँ ने समय काटने के लिए किया हो..पर अब वे पूरी तरह इसमें रम गयीं थीं.)</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">और रितेश सीधा फूल लाकर माँ के हाथों में ही थमा देता.</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"अरे रोज़ क्यूँ लाते हो...ये कैसी फोर्मलिटी है?'</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"नहीं आंटी... हमारे पिछवाड़े बहुत ही सुन्दर बाग़ है फूलों का..अपने बगीचे के ही फूल हैं..."</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">उसने हंसी छुपा ली...."हूँssss खूब!! ...जाने कितने पैसे खर्च कर चुके होगे फूलों पर...अपने घर के गुलाब, रोज़ रोज़ कोई यूँ लम्बे डंठल के साथ तोड़ता है??....माँ ने ध्यान नहीं दिया..वर्ना वे भी समझ जातीं .</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">पर रितेश था बहुत ही शांत किस्म का....आते ही एक हलके से स्मित के साथ पूछता..."कैसी हैं?"...और इन दो शब्दों के कहने के ढंग में ही सारे उद्गार सिमट आते. फिर कुर्सी खींच कर साथ लाई किताबें-पत्रिकाएं दिखाने लगता .उसे पढ़ने से सबलोग मना करते कि आँखों पर जोर पड़ेगा...ये जिम्मा रितेश ने ले लिया था..कहता, दोपहर वो बिलकुल खाली रहता है...वो जबतक बैठता...माँ एक चक्कर बाज़ार का या घर का लगा आतीं. </span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"> उसने एक दिन पूछ लिया.."आपकी कविताओं में रूचि है?'</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"हाँ.. हाँ..बिलकुल.. बहुत पढ़ती हूँ..." उसने कहने को कह दिया.</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"अरे वाह...बच्चों सा खिल उठा उसका चेहरा..."मैं आपको बहुत ही अच्छी-अच्छी कविताएँ पढ़ कर सुनाऊंगा..." वो तो बाद में जाना उसने... कविताओं में तो उसकी जान बसती थी.</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">भाव-भरी आवाज़ में वो कविता दर कविता पढता चला जाता...बिलकुल कविता में डूब ही जाता...अंदर से महसूस करते हुए पढता वह...और अब उसे रितेश की उदास आँखों का रहस्य पता चला...कविता पढ़ते वक़्त..कविता के अंदर का सारा दर्द वो जैसे सोख लेता...और वही दर्द उसकी आँखों में तैरते तैरते जम जाता,जैसे.</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">वह तो कविता से ज्यादा...उसके स्वर के चढ़ते उतार-चढ़ाव ..आवाजों का कम्पन...चेहरे पर आते-जाते भाव ही देखती रहती. आँखों में कभी स्निग्ध तरलता छाती...कभी गहरी उदासी...कभी व्यंग्य भरी तिलमिलाहट तो कभी अनचीन्ही सी छटपटाहट.कभी-कभी वो कविता पर ध्यान नहीं भी देती..पर रितेश की धारदार एकाग्रता वैसी ही बनी रहती. </span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">एक दिन कुछ कविताएँ सुना रहा था...हठात नज़रें उठाईं और मुस्कुरा कर पूछा...."कैसी लगीं..?" सकपका गयी वह..वो ख़ास ध्यान से सुन तो रही थी नहीं...वो तो रितेश की नुकीली ठुड्ढी...तीखी नाक...जुड़ी भवें..और लम्बी घुंघराली पलकें ही निरख रही थी...क्या था कविता में...ध्यान ही नहीं दिया..चुप रही तो रितेश ने कुछ रस्यमय ढंग से मुस्कुरा कर पूछा..."बताइए तो सही...कैसी थीं कविताएँ?" तो चौंक गयी वो.</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">उसने हाथ बढ़ा दिए..."दीजिये, एक बार खुद से पढूंगी..."</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">उसने एकदम से दूर हटा ली किताब..."अँs हाँs...इतना बेवकूफ नहीं मैं..." बेतरह नटखटपन कस गया चेहरे पर और उसने किताबों के बीच से कुछ कागज़ निकाल एहतियात से अपनी जेब में रख लिए..."</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">अच्छाss तो ये उसकी खुद की लिखी हुईं थीं....तभी इतना मुस्कुरा कर पूछ रहा था...ओह! क्या मूर्खता की उसने , जरा भी ध्यान नहीं...क्या था कविता में...बड़े आग्रह से बोली.."प्लीज़ एक बार दो ना....सिर्फ एक बार पढ़ कर दे दूंगी..." ध्यान भी नहीं रहा...कैसे 'आप' से 'तुम' पर आ गयी.</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"जीssss नहीं...ऐसा खतरा नहीं मोल ले सकता....जब तक पढ़ रहा था...तभी डर लग रहा था..पता नहीं क्या सोचो तुम...ये काफी पहले लिखी थी मैने, हाँs..." वो भी सहजता से बिना ध्यान दिए तुम पर आ गया...पर इसका मतलब...जरूर कविता में कुछ बात थी...वर्ना बहुत पहले लिखी थी की सफाई क्यूँ देता? हाथ बढ़ा कर उसने कुर्सी की बाहँ पर रख दिया.."प्लीज़ रितेश...दे दो ना..एक बार देने में क्या जाता है...बस एक नज़र देख कर...वापस कर दूंगी.."</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"नोss वेss...अच्छा ये सुनो...क्या कविता है...एकदम अलग सी...और इतनी वास्तविक कि लगेगा कवि की आँखे कैसे देख लेती हैं ये सब.." कहता कुर्सी की दूसरी बाहँ से सट सा गया.</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">रोष हो आया उसे...एकदम से हाथ खींच लिया...अगर उंगलियाँ भूले से,उसे छू भी जातीं तो जाने क़यामत आ जाती....अछूत है क्या वह?</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"> "मुझे नहीं सुनना कविता-फविता.."..कह सीधा लेट आँखें बंद कर लीं.</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"नाराज़ हो गयीं...?" शहद भरा स्वर उभरा </span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">" नहीं, नाराज़ क्यूँ होने लगी...इसका हक़ तो सिर्फ आपलोगों को है..." विद्रूपता से कह.. दूसरी तरफ करवट बदल ली उसने..जाने क्यूँ आँखें भर आयीं.</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"नाव्याss... " रितेश ने एकदम से कुर्सी छोड़ दी...और पलंग के किनारे हाथ रख झुका ही था कि कमरे के बाहर माँ और डा. समीर का सम्मिलित स्वर सुनायी दिया...एकदम से सीधा खड़ा हो...सीने पर हाथ बाँध लिए उसने.</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"सोयी है क्या...." माँ ने पूछा..</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"पता नहीं..शायद"</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"कुछ तकलीफ तो नहीं थी,उसे??..ऐसे कैसे सो गयी ??" माँ के स्वर में चिंता थी.</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"वो मैं...कुछ पढ़ कर सुना रहा था..शायद सुनते-सुनते सो गयी..."</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"ओहो!!..अब कविताएँ सुनाओगे तो कोई सो ही जाएगा ना...." समीर ने हँसते हुए कहा...."और आपने देखा भी नहीं कि सुनने वाला सुन रहा है या नहीं...क्या यार....इतना डूबे रहते हो किताबो में...ये किताबें बस सपनीली दुनिया में ले जाने का काम करती हैं...तभी तो लोग सुनते-सुनते सो जाते हैं....सच्चाई का अंश भी नहीं होता, इनमे.."</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"ऐसा नहीं है डॉक्टर...."</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"अरे बस ऐसा ही है...अब देखो..ये कविताएँ...कुछ भी कल्पना कर लेते हैं कवि..."</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"अच्छा आंटी अब तो आप आ गयी हैं..चलूँ...मैं?" रितेश था. </span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">उसने गौर किया था...रितेश कभी बहस में नहीं पड़ता...बात बदल कर निकल जाता है या फिर चुपचाप सुन लेता है. रितेश की जगह वो होती..तो अभी डा. समीर से इतनी बहस करती कि वे राउंड पर जाना भी भूल जाते..और फिर कभी किताबों को कल्पना की उड़ान कहने की हिम्मत ना करते.</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">पर उसने तो सोने का बहाना किया हुआ था...सो उसे मन मसोस कर रह जाना पड़ा.</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">अचानक माँ को कुछ याद आया..."हे भगवान...मैने फल लिए और थैला तो वहीँ छोड़ दिया....अब फिर से जाना पड़ेगा...पर नाव्या पीछे से जाग गयी तो...कहीं उसे कोई जरूरत ना पड़ जाए.."वे असमंजस में थीं. </span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"कोई बात नहीं आंटी...अभी तो मैं थोड़ी देर खाली हूँ....मैं यहीं बैठता हूँ...आप आराम से हो आइये....मैं भी जरा देखूं तो दोस्त तुम्हारी किताबो में है क्या...पलटता हूँ थोड़ी देर.."</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"बस मुश्किल से पंद्रह मिनट लगेंगे...आओ रितेश..तुम्हे भी रास्ते में छोड़ दूंगी.." कहती माँ..रितेश के साथ ही निकल गयीं. शायद जाते हुए रितेश ने पलट कर देखा हो...कि वो उठ कर उसे बाय कहती है या नहीं...पर वो सोने का बहाना कर पड़ी रही...थोड़ी डोज़ दे देनी चाहिए इन लोगों को..समझते हैं कदमो में ही बिछे जा रहे हैं. </span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">उनके जाते ही...समीर ने कुर्सी खिसकाई बैठने को...और वो चौंक कर जगने का अभिनय करती उठ बैठी.</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"ओह! जगा दिया ना आपको...सो सॉरी..." डा. समीर सचमुच अफ़सोस से भर उठे.</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"नहीं..नहीं...कोई बात नहीं...माँ आयीं नहीं अभी तक ?"</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"आयीं तो थीं..पर फल उन्होंने दुकान पर ही छोड़ दिए थे सो वापस लेने गयी हैं...और वो कवि साहब भी चले गए उनके साथ...जिनकी कविता सुनते-सुनते आप सो गयी थीं....हा हा.."समीर ने जोर का ठहाका लगाया.</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">ख़ास उसे भी नहीं समझ नहीं आती कविताएँ..पर समीर का यूँ उपहास उड़ाना उसे अखर गया,बोली ..."वो मैं थक गयी थी,इसलिए सो गयी थी...कविताएँ तो मुझे भी पसंद हैं..."</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"अब आप, बना लो बहाने...." वो फिर हंसा.</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"नहीं सच में...मुझे गीत संगीत सब बहुत पसंद है....अच्छा कल रात कोई बड़ी अच्छी गिटार बजा रहा था...काफी देर तक सुनती रही मैं..."</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"सपने में?..." समीर ने चिढाया तो सचमुच चिढ उठी वह.</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">जी ss नहींss..कल रात के ग्यारह बजे के करीब..मैने समय भी देखा...मुझे नींद ही नहीं आई देर तक.."</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"होगा कोइ सिरफिरा...चले आते हैं लोगों की नींद खराब करने..."</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"अच्छा तो फिर कोई रियाज़ ही ना करे...म्युज़िक के नाम पर शोर मचाना बुरा है..पर इसमें क्या बुराई है....अच्छा संगीत सुकून ही देता है.."</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"शरीफ लोगों के ये सब शौक नहीं होते..जो जिंदगी में कुछ नहीं करता वो गिटार टुनटुनाता रहता है...ऐसा मैं नहीं बड़े-बुजुर्ग कहते हैं.."समीर उसे चिढाने पर आमादा था.</span></span></div>
<div style="font-size: 14px;">
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif; font-size: 14px;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"पर मानते तो आप भी हैं,ना..</span><span style="line-height: 21px;"><span style="font-size: medium;">.</span></span></span>मशीनी इंसान हैं आपलोग...गीत-संगीत...कहानियाँ किताबें...सब बेकार हैं आपकी नज़रों में...आपलोगों की दुनिया बस इस हॉस्पिटल तक ही सीमित है...माना कि आपलोग....जीवनदान देते हैं...लोगो को राहत पहुंचाते हैं पर इसके बाहर भी कभी-कभार देख लेना चाहिए...इन इंजेक्शन-दवाइयों से परे भी एक दुनिया है..."..कहते उसने आँखें बंद कर लीं...कानों में गिटार टुनटुना उठा.</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
"अच्छा लगा आपको "...स्वर बदला हुआ लगा, आँखें खोल देखा तो समीर दूसरी तरफ देखने लगा.</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
"और क्या..पर आपको क्या..आपके लिए तो सब समय की बर्बादी ही है ना..." पता नहीं क्यूँ उसे बहुत खीझ हो रही थी.</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
समीर ने बड़ी आहत नज़रों से देखा,उसे. चेहरा संजीदा हो गया था....अब अपने में लौटी वह...ये क्या हो गया है उसे...रितेश का गुस्सा वो समीर पर क्यूँ निकाल रही है. माँ -डैडी आभार से दबे रहते हैं..इतनी केयर करता है उसकी और वो है कि बिना किसी वजह के झल्लाए जा रही है. स्वर में यथासाध्य मुलायमियत लाकर बोली, : "पास से ही आवाज़ आ रही थी.....लग रहा था ,हॉस्पिटल कैम्पस में ही कोई बजा रहा था......आपको अंदाज़ा है..कौन बजा रहा होगा.."</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
<div style="text-align: left;">
"नाss..नहीं पता...." और समीर तड़ाक से उठ गया...शायद वो बुरा मान गया था...." मुझे एक पेशेंट को देखने जाना है..चलता हूँ.." और बिना उस पर नज़र डाले लम्बे-लम्बे डग भरता बाहर निकल गया. 'ओह!!! दीज़ बॉयज़...'सर पकड़ लिया उसने...</div>
</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
ये तो बाद में पता चला, वह सिरफिरा और कोई नहीं समीर ही था. </div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
***</div>
<div style="font-size: 14px;">
सुबह डा. राउंड पर आए और बोले अब वो घर जा सकती है....ख़ुशी से मन खिल उठा पर दूसरे ही पल बुझ भी गया...घर तो जा रही है पर वहाँ रितेश,समीर से मुलाकात नहीं हो पाएगी...इन आठ दिनों में उनके साथ की इतनी आदत पड़ गयी थी कि अभी से उनकी कमी खलने लगी थी. माँ को याद दिलाया..'माँ रितेश शायद मिलने आए... उसे फोन करके बता दो..."</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
रितेश ने माँ को अपना नंबर दिया था कि जब भी जरूरत पड़े फोन कर लें. माँ ने कहा...'अच्छा याद दिलाया...अभी उसे फोन कर बता देती हूँ.."</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
वो निराश हो गयी...उसे लगा था,माँ कहेंगी..."लो ,तुम ही कह दो...और उसे दो बातें करने का मौका मिल जाएगा...पर सामान सहेजती माँ ने इस तरह से सोचा ही नहीं. वो रुआंसी हो खिड़की के बाहर देखने लगी...जहां पेडों की पत्तियाँ हवा से हलके-हलके डोल रही थीं...मानो उसे बाय कह रही हों.</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
डा. समीर मिलने आए थे. हमेशा की तरह उसी जोश और जल्दबाजी में थे... सौ हिदायतें उसके लिए और माँ के लिए भी....आज उसे उनकी किसी बात पर गुस्सा नहीं आ रहा था...बस उनके चेहरे पर ही नज़रें जमाये चुपचाप सब सुन रही थी...समीर को भी आश्चर्य हुआ...टोक ही दिया..."अभी से घर की यादों में गुम हो गयीं...मैं क्या कह रहा हूँ...कुछ सुन भी रही हैं??...हाँ! भाई....सबलोग आते हैं चले जाते हैं...हमारा तो यही घर-बार है...हम कहाँ जा सकते हैं..."</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
वो प्रत्युत्तर में सिर्फ मुस्कुरा दी तो डा. समीर भी गंभीर हो आए और बहाने से बाहर चले गए.</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
रास्ते में ,माँ ने बताया एक रात पहले ही एक मेहमान भी घर पर आया हुआ है. डैडी के एक मित्र के सुपुत्र. नया-नया चार्ज लिया है किसी कंपनी में . जब तक उसके रहने का इंतजाम नहीं हो जाता .घर पर ही रहेगा. खीझ हो आई उसे. एक तो सर पर बंधे इस बड़े से बैन्डेज़ के साथ उसे किसी के सामने जाने में बहुत ही अजीब लग रहा था...दूसरे घर में किसी अजनबी की उपस्थिति भी असहज कर रही थी., अब ये बचपन से अकेले रहने की वजह से था या कुछ और पर अपने घर में ज्यादा भीड़-भाड़ उसे अच्छी नहीं लगती. रिश्ते के हम-उम्र भाई-बहन भी आते तो कुछ दिन तो उसे अच्छा लगता पर फिर अपनी आज़ादी में खलल लगने लगता...सुन कर अनमनी सी हो गयी थी , माँ ने इसे लक्ष्य किया और बोलीं, " बाबा वो ऊपर वाले कमरे में रहेगा...आना-जाना भी बाहर सीढियों से होगा तो तुम्हे क्या परेशानी है.."</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
" क्यूँ ..टेरेस पर जाने में उसका कमरा नहीं पड़ेगा?..मैं क्या सिर्फ नीचे ही कैद रहूंगी.."</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
"वो सब बाद में, देखेंगे.....अभी तो ज्यादा घूमना-फिरना है नहीं तुम्हे..." माँ ने आश्वस्त किया..फिर भी थोड़ा असहज तो थी ही वह.</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
लेकिन किशोर बहुत ही सहज था...शाम को ऑफिस से आने के बाद,उस से मिलने आया...और पहले वाक्य में ही मुस्कुरा कर पूछा , "वेकेशन की ऐसी प्लानिंग तो मैने कहीं नहीं देखी....एग्जामिनेशन हॉल से सीधा हॉस्पिटल."</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
वो भी मुस्कुरा कर रह गयी....उसकी किताबों की आलमारी देख बोला,.."इतना पढ़ती हैं आप..बाप रे.."</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
"हाँ समय अच्छा कट जाता है और शौक भी है..."</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
"बढ़िया है..पर आप से संभल कर बात करना पड़ेगा..पता नहीं..कहाँ से क्या कोट कर दें.."</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
"निश्चंत रहिए मैं पढ़ कर भूल जाती हूँ.."</div>
<div style="font-size: 14px;">
"ताकि दुबारा पढ़ने का स्कोप बना रहे..."..और दोनों ही इतने जोर से हंस पड़े कि कमरे में आती माँ एक पल को ठिठक सी गयीं. और उसकी तरफ गौर से देखा...अभी तो उस एकीशोर कि उपस्थिति इतनी नागवार गुजर रही थी और अभी हंस रही है उसके साथ...जरूर मन में कहा होगा..."ये लड़की भी ना.."</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
किशोर ज्यादा नीचे नहीं आता. उसका खाना भी माँ ऊपर ही भिजवा देतीं....इतवार को भी वो देर तक सोता रहता...और ज्यादातर अपने कमरे में ही बना रहता...पर जब भी नीचे पापा से मिलने आता उससे मिलने भी जरूर आता और अपनी थोड़ी देर की उपस्थिति से ही एक खुशगवार...माहौल की छाप छोड़ जाता.</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
कितनी ही बार मोबाइल पर रितेश और समीर का नंबर निकाल घूरती रहती पर फोन करने की हिम्मत नहीं कर पाती. आने के बाद बस एक-एक बार दोनों को शुक्रिया कहने के लिए फोन किया था....रितेश का शर्मीला चेहरा उसे फोन के पार से दिख रहा था...'हाँ' - 'ना'...में ही जबाब देता.,..और उसे अपना ख्याल रखने की हिदायत देता रहता...अजनबी सा उसने कहा..."आइये कभी.."</div>
<div style="font-size: 14px;">
और अजनबी सा ही रितेश ने कहा .."हाँ जरूर..' और कह कर फोन रख दिया...थोड़ी देर वो घूरती रही फोन को...यही रितेश था जो पास बैठा घंटों उसे कविताएँ सुनाया करता था...पर फोन पर अभी आदत नहीं पड़ी थी...बस कभी कभी उसे कविता की सुन्दर पंक्तियाँ या शेर एस.एम.एस करता..और बदले में वो कुछ भारी भरकम से कोटेशंस भेज देती..उसे कुछ सूझता ही नहीं...पर रितेश के खुद से टाइप किए मेसेज का इंतज़ार बना रहता. </div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
समीर के पास तो एस.एम.एस भेजने का वक़्त भी नहीं रहता....जब उसने फोन किया तब भी जाने कहाँ था और कितने लोगो से घिरा हुआ था...पर बात बड़े अपनेपन से किया बहुत ही सहजता से...'दवा ले रही है ना..खाना ठीक से खाती कि नहीं...समय पर सो जाती है ना...माँ कैसी हैं'..और फिर माँ से उसे घर के खाने ..चाय की याद आ गयी...उसके पास,तमाम बातें थीं करने को..पर समय ही नहीं था...बोला, "करता हूँ फिर फोन..अभी तो भागना पड़ेगा..."</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
अब समीर को समय नहीं मिलता या उसे भी एक हिचक होती....वो समझ नहीं पाती. पर फोन उसका भी नहीं आता. अच्छा हुआ माँ ने ही एक दिन,कहा....तुम थोड़ी और ठीक हो जाओ...पट्टी खुल जाए...सबकुछ खाने-पीने लगो तो समीर और रितेश को एक दिन खाने पर बुलाते हैं..दोनों ने बहुत ख्याल रखा...हम कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं."</div>
<div style="font-size: 14px;">
और उस दिन से ही जैसे वो दिन गिनने लगी... कब उसके माथे का बैन्डेज़ खुले.</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
और वो दिन आ ही गया....माथे का बैन्डेज़ खुल गया था...और इतने दिनों बाद....माँ ने श्यामली की सहायता से कुर्सी पर बैठा पीछे कर उसके बाल धो दिए थे. दिनों बाद खुले बालों से घिरा अपना चेहरा देखा तो जैसे खुद को ही पहचान नहीं पायी. रितेश समीर भी उसे देख, चौंके तो जरूर लेकिन दोनों की प्रतिक्रिया बहुत ही अलग सी रही....पहले रितेश आया...रितेश ने उसे पहले भी देखा था पर जैसे इस बार एक नई नज़र से देखा....और कुछ इस तरह उसे देखा कि उसने ही शर्मा कर आँखें झुका लीं.</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
उसे देखते ही समीर के होंठ गोल हो गए...शुक्र है,उसने सीटी नहीं बजायी...पर हँसते हुए बोला.."क्या बात है..आप सचमुच नाव्या ही हैं...या नाव्या की सहेली...मैं तो सच में कहीं और देखता तो पहचान नहीं पाता..."</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
"इतनी बुरी लग रही हूँ मैं..."</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
"थोड़ी सी..."..उसने मुस्कुरा कर दोनों उँगलियों से इशारा किया...</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
"हाँ! आपको लोग पेशेंट के रूप में ही अच्छे लगते हैं...हैं ना.."</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
उनकी बहस और आगे बढती कि माँ ने टोक दिया...."अरे बैठने तो दो पहले..फिर इत्मीनान से कर लेना बहस...बहुत दिनों का कोटा बाकी है...बहुत अच्छा लग रहा है...बेटा..तुम दोनों को यहाँ देख'</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
माँ ने किशोर को भी बुला लिया था....डाइनिंग टेबल पर तो डैडी से ही सब ज्यादा बातें करते रहे और माँ खिलाने-पिलाने में लगी रहीं. पर खाने के बाद जब सब लिविंग रूम में लौटे तो डैडी अपने कमरे मे चले गए...माँ भी बस बीच-बीच में आती रहीं....ये तीनो भी एक दूसरे से अच्छी तरह घुल -मिल गए थे और तमाम विषयों पर बातें कर रहे थे...पर जब राजनीति पर बातें शुरू हुईं.. तो उसकी उपस्थिति जैसे भूल ही गए....आपस में ही उलझ गए...उसे गुस्सा आ गया....क्या वो नहीं पढ़ती अखबार?...वो नहीं देखती खबरे?...पर इन्हें लगता है..वो लड़की है तो उसकी क्या रूचि होगी...चर्चा कुछ और जोर पकड़ती कि समीर को एक कॉल आ गया...और रितेश भी उसके साथ ही उठ गया. बार-बार दोनों माँ का शुक्रिया अदा कर रहे थे और माँ उन्हें फिर से आने का न्योता दे रही थीं. उनके जाते ही किशोर भी विदा लेकर चला गया और वो देर तक खिड़की के पास खड़ी ठंढी हवा के झोंके के साथ इस ख़ूबसूरत शाम के एक एक पल को दुबारा जीती रही.</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
अब फोन पर बातचीत का सिलसिला बढ़ गया...बीच की वो असहजता नहीं रही. रितेश किताबों की बातें करता और समीर अपने पेशेंट्स की...हॉस्पिटल की. पर इस से अलग कुछ और जैसे लबों तक आते आते छूट जाता...और वो चैन की सांस लेती. बातचीत में वे जरा सा पॉज़ लेते और उसका दिल धड़क जाता... डर जाती...'आगे क्या कहने वाले हैं...वो कैसे रिएक्ट करेगी...क्या जबाब देगी...पर फिर दोनों ही जैसे खुद संभल कर बात किसी और तरफ मोड देते.</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
एक दिन माँ ने सलाइयों पर अंगुलियाँ चलाते हुए पूछा, "ये किशोर कैसा लड़का है?"</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
"क्यूँ कुछ हुआ क्या....उसके पड़ोसियों ने कुछ कहा क्या..." किशोर अब अपना मकान ले उसमे शिफ्ट हो चुका था. </div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
"अरे नहीं...." माँ आगे कुछ कहतीं कि वो फिर से बोल पड़ी..."वही तो मैने सोचा तुमने ऐसा कैसे पूछा...इतना अच्छा सलीके वाला लड़का है...इतना कल्चर्ल्ड....ना बहुत गंभीर... ना ज्यादा बातूनी....और इतना क्वालिफाइड...कितनी कम उम्र में इतनी अच्छी पोस्ट कैसे मिल गयी उसे...बहुत ही अच्छा लड़का है,माँ..पर तुमने पूछा क्यूँ ऐसे??"</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
माँ जोरों से हंस पड़ी.."सच्ची आजकल तू कितना बोलने लगी है....मेरे पूछने का मतलब था..तुम्हे कैसा लगता है?"</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
"क्यूँ अच्छा है तो..अच्छा ही लगेगा ना...उसके यहाँ रहने की बात से थोड़ा मैं अनकम्फर्टेबल थी..पर फिर मिली तो बहुत ही सहज लगा मुझे...इतने अपनेपन से बात की"</div>
<div style="font-size: 14px;">
"हम्म.....फिर तो ठीक है..."</div>
<div style="font-size: 14px;">
"क्या ठीक है..." वो कुछ समझ नहीं पा रही थी.</div>
<div style="font-size: 14px;">
"कुछ नहीं..." माँ ने हंस कर कहा...और एकदम से सब उसकी समझ में आ गया.</div>
<div style="font-size: 14px;">
"माँsss ....साफ़-साफ़ बताओ...क्या बात है.." उसने गुस्से में भर कर कहा </div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
और माँ ने सब साफ़-साफ़ बता दिया...कि पापा और उनके मित्र दोनों की इच्छा है कि वे दोनों अब सिर्फ दोस्त ना रहकर एक रिश्ते में बंध जाएँ...वो लाख सर पटक कर रह गयी कि..ग्रेजुएशन से क्या होता है....उसे आगे पढ़ाई करनी है...नौकरी करनी है..तब जाकर शादी के बारे में सोचेगी. पर माँ के पास अपने तर्क थे..'तुम्हे पढ़ने से कौन रोक रहा है...जितनी मर्ज़ी हो पढो..पर इतना अच्छा लड़का हाथ से निकलने नहीं देना चाहते...जाना -सुना घर है..तुम्हारी भलाई ही सोच रहे हैं...पता नहीं दूसरा घर कैसा मिले. डैडी और किशोर के पिता दोनों की ही यही इच्छा है....और सही समय भी है...कुछ ही दिनों में तुम्हारा रिजल्ट आ जायेगा,....ग्रैजुएट हो जाओगी.....लड़के की नौकरी लग गयी हैं...आखिर कितने दिन वे इंतज़ार करेंगे...उन्हें भी लड़कीवालों ने परेशान किया हुआ है...सुबह शाम लोगों का तांता लगा होता है....वे भी एक अच्छी जगह रिश्ता पक्का करके निश्चिन्त हो जाना चाहते हैं."</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
"तो उन्हें निश्चिन्त करने के लिए मैं बलि चढ़ जाऊं...??"</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
"कैसी बातें कर रही है...इसमें बलि जैसी क्या बात है...किशोर अच्छा लड़का है..तुमने खुद कहा है.."</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
"तो दुनिया में जितने अच्छे लड़के हैं..सब से शादी कर लूँ.." उसका गुस्सा सातवें आसमान पर था.</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
"अब तुमसे डैडी ही बात करेंगे ..मेरे वश का नहीं तुम्हारी उलटी-सीधी बातों का जबाब देना..." माँ ने अपना ब्रह्मास्त्र चला दिया और ऊन सलाई समेट कर वहाँ से चली गयीं. उसे पता है..डैडी से वो बहस नहीं कर पाएगी...और सर झुका कर उनका हर निर्णय स्वीकार कर लेगी.</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
आँसू छलक आए...'ये सब क्या हो रहा है.....इतने दिनों बाद जिंदगी इतनी प्यारी लग रही थी....माँ ज्यादातर उसके आस-पास ही रहतीं...बहुत कम बाहर जातीं...पापा भी उसके साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताने की कोशिश करते...रितेश....समीर की दोस्ती....सब कुछ कितना सुहाना लग रहा था..पर किसकी नज़र लग गयी...और अब उसकी जिंदगी फिर कोई नया रुख लेने वाली थी. </div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
पर वो इतनी परेशान क्यूँ है...शादी से इनकार की वजह क्या सिर्फ पढाई ही है...या कोई और बात है....क्या उसका मन कहीं और झुका हुआ है...पर वो क्या जाने...जितनी देर समीर से बातें होती है..लगता है,अनंत काल तक वो उस से बातें ही करती रहे...कभी ख़त्म ना हो उनकी बातें...पर फिर कब रितेश की छवि चुपके से पलकों पर आ कर बैठ जाती है..उसे पता भी नहीं चलता...लगता है रितेश के सिवा उसने और किसी को जाना ही नहीं....जानने की इच्छा भी नहीं.</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
और वो शादी से इनकार करे भी तो किस बिना पर. इन दोनों ने भी तो कभी अपनी भावनाओं को शब्द नहीं दिए. क्या पता समीर सिर्फ उसे एक अच्छी दोस्त मानता हो...क्या पता रितेश सिर्फ औपचारिकता या कर्तव्य निभाता हो...पर उसकी आँखें जो कभी-कभी देख लेती हैं..उसपर कैसे अविश्वास करे. समीर की आँखों में जो कभी-कभी कौंध जाता है...वो सिर्फ दोस्त के लिए नहीं होता...रितेश जिन खोयी-खोयी निगाहों से देखता है..वे ये जता देती हैं कि उसने और किसी को ऐसी निगाहों से नहीं देखा है. पर वो क्या करे??...ये मन की कैसी दुविधा है....रितेश की आँखों के मौन आमंत्रण को खूब पहचानती है वो..तो समीर के मुखर संदेश से भी बेखबर नहीं है. उसके कैशोर्य मन ने किसी के ह्रदय के समक्ष पूरी आस्था से आत्म समर्पण किया है तो वो रितेश का अंतर्मन ही है. लेकिन ये रितेश की छवि के आस-पास कैसी उद्दाम लहरें सी उठने लगती हैं और उसे परे धकेलता एक मुस्कुराता सा चेहरा सामने आ जाता है...जो निश्चय ही समीर का है और उसके होठों पर भी मुस्कराहट आ जाती है. ..ऐसा क्यूँ...रितेश का ख्याल आते ही ह्रदय में एक टीस सी उठती है और दिल में गहरी उदासी सी छा जाती है. वहीँ समीर का ख्याल मात्र होठों पर हंसी ला देती है...सुकून दोनों दे जाते हैं दिल को..वो उदासी भी और ये मुस्कराहट भी.</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
क्या करे वह.....इन दोनों ने भी तो कभी ऐसा कुछ नहीं कहा कि इनकी भावनाओं से भी साक्षात्कार हो...यदि सिर्फ आँखों से ही काम चल जाता तो फिर भाषा का आविष्कार ही क्यूँ हुआ...किसलिए शब्दों का सहारा लिया गया...या क्या पता उन्हें सही वक़्त की तलाश हो.</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
मेज पर सर पटक-पटक कर रह जाती...क्या करे वह??....और वो कुछ नहीं कर सकी....बस एक सूत्र में बंधी किशोर के संग सात फेरे घूम लिए. और आज उसकी शादी की पार्टी में चुटकुले सुनाता..कहकहे लगाता ..चहरे पर अचानक छा जाने वाले बादलों को अपनी जानदार हंसी से उडाता समीर भी था और उदास आँखों में थोड़ी और विरानगी लिए फूलों के गुलदस्ते थमाता रितेश भी था.</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
एक कोने में बने स्टेज पर औकेस्ट्रा <span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px;"> </span><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; line-height: 25px;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: 14px;">वाले तेज धुनें बजा-बजा कर थक गए थे....लड़के-लडकियाँ भी शायद नाच-नाच कर पस्त हो चुके थे और अब उसके सिंगर ने शायद पार्टी में उपस्थित बुजुर्गों का ख्याल कर तान छेड़ दी थी...</span></span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; line-height: 25px;"></span><br />
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
"कई बार यूँ भी देखा है...</div>
<div style="font-size: 14px;">
ये जो मन की सीमा रेखा है..</div>
<div style="font-size: 14px;">
मन तोड़ने लगता है</div>
<div style="font-size: 14px;">
अनजानी प्यास के पीछे...</div>
<div style="font-size: 14px;">
अनजानी आस के पीछे...</div>
<div style="font-size: 14px;">
मन दौड़ने लगता है..</div>
<div style="font-size: 14px;">
राहों में...राहों में....जीवन की राहों में..</div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
<div style="font-size: 14px;">
(समाप्त) </div>
<div style="font-size: 14px;">
<br /></div>
</div>
rashmi ravijahttp://www.blogger.com/profile/04858127136023935113noreply@blogger.com32tag:blogger.com,1999:blog-6953374982088960088.post-68537970452580353382011-08-20T03:58:00.000-07:002011-08-20T05:04:25.231-07:00हाथों की लकीरों सी उलझी जिंदगी. ..(3)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px;"><b>(नाव्या का एक्सीडेंट हो जाता है...और उसे हॉस्पिटल लेकर रितेश नामक एक युवक आता है...जिसकी किताबों की दुकान से वो किताबें लिया करती थी पर रितेश की आँखों में उसके लिए कोई पहचान नहीं उभरती थी. )</b></span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px;"></span><br />
<div>
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://3.bp.blogspot.com/-RYSbLDagK80/Tk-TMOT4KeI/AAAAAAAABtM/5jFsSSRFC40/s1600/desktop" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://3.bp.blogspot.com/-RYSbLDagK80/Tk-TMOT4KeI/AAAAAAAABtM/5jFsSSRFC40/s1600/desktop" /></a></div>
<div>
दूसरे दिन से ही जैसे जैसे लोगो को पता चलता गया...लोगो का हुजूम उसके अस्पताल के कमरे में जमा होता गया. सुबह से डैडी के दोस्तों का...रिश्तेदारों का जमघट लगा रहा...ऑफिस जाने से पहले...सब लोग हॉस्पिटल का एक चक्कर लगाते जा रहे थे....माँ रटे-रटाये से सारे वाकये दुहराए जा रही थी...और बार-बार भगवान का शुक्र अदा कर रही थी...साथ में रितेश का जिक्र भी जरूर कर जाती....और वो होठों पर अनायास आए ,मुस्कान को...जबरन छुपाने की कोशिश में लग जाती..कहीं किसी की नज़र ना पड़ जाए.<br />
<div>
<br /></div>
<div>
ग्यारह बजे के बाद से....माँ की सहेलियों...पास-दूर के रिश्तेदार महिलाओं....पापा के दोस्त की पत्नियों का आना शुरू हो गया. खीझ होने लगी उसे....यहाँ विजिटिंग आवर्स के नियम भी तो नहीं...कि लोग-बाग़ बस समय पर ही आएँ....बीच बीच में नर्स सबको बाहर कर देती....पर उनलोगों के सामने...नाश्ता करना -खाना सब भी बड़ा अजीब लगता. कई बार तो वो आँखें मूंदें सोने का बहाना करती रहती. पर फिर देखती...वो तो उपेक्षित सी ही पड़ी है...दो-दो तीन के ग्रुप में आंटियां आतीं और माँ के साथ गप्प में मशगूल हो जातीं. बस मुश्किल से पांच मिनट उसकी बात होती...फिर दुनिया जहान के किस्से....और वो थोड़ी देर तो ओह-आह करती,फिर भी कोई ध्यान नहीं देता...तो माँ से झूठ-मूठ को कभी पानी पिलाने के लिए कहती,तो कभी चादर ठीक कर देने को.</div>
<div>
<br /></div>
<div>
तीन बज रहे थे....अभी कोई नहीं था, कमरे में. माँ भी पास के कॉट पर लेटी हुई थीं....शायद उन्हें नींद आ गयी थी...बहुत ही हलके खर्राटे गूँज रहे थे...माँ आराम से सो भी तो नहीं पा रहीं. उसे नींद नहीं आ रही थी...यूँ देर तक सीधे लेटे रहना बहुत ही कष्टकर लग रहा था. पता नहीं और कितने दिन लग जायेंगे ठीक होने में...अच्छी भली मुसीबत हो गयी...फिर सोचती चलो जाने दो...उसे थोड़ी सी चोट ही आई....कुछ असुविधा हो रही है..पर वो बच्चा तो बच गया....कहीं उसे कुछ हो जाता तो क्या वो पूरी जिंदगी चैन की नींद सो पाती?...पता नहीं कितना बड़ा बच्चा था...कौन था...उसने तो बस होश आने के बाद लोगो की बातों से जाना...पर उसके बच जाने की सोच एक सुकून सा महसूस हुआ और दर्द कम होता सा लगा. </div>
<div>
तभी, कमरे का पर्दा हटा कर किसी ने झाँका....हाथों में छोटा सा गुलाबों का गुलदस्ता था. पहले तो फूलों पर ही नज़र पड़ी...फिर नज़रें ऊपर कीं...तो देखा..रितेश था. कमरे में ऐसी खामोशी और हल्का सा अँधेरा देख वो असमंजस सा दरवाजे पर ही खड़ा था. उसने ही हाथों से थोड़ी चादर सरकाई...और कहा.."आ जाइए..मैं जाग ही रही हूँ"</div>
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<br /></div>
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दबे कदमो से उसके बिस्तर के पास आया और झिझकते हुए से गुलदस्ता थमा...एक धीमा सा 'हाय ' कहा.</div>
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<br /></div>
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वो भी फूल थामते हुए..प्रत्युत्तर में बस.."थैंक्स" ही कह पायी. फूल बगल में रखते हुए उसने कुर्सी की तरफ बैठने का इशारा किया.</div>
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'ना ठीक हूँ मैं.".. कहते हुए...उसने बेड के सिरहाने की तरफ हाथ टिकाया..और पूछा.."अब कैसी हैं आप?"</div>
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<br /></div>
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उसका इतना निकट होना, अजीब सा लग रह था.....बहुत ही असहज महसूस कर रही थी..कहा, "ठीक हूँ" </div>
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<br /></div>
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अब दोनों ही चुप थे. दीवारें शांत....परदे खींचे हुए थे...कमरे में घड़ी भी नहीं थी...कि उसकी टिक-टिक ही कम से कम इस सन्नाटे में कॉमा ..फुलस्टॉप लगाती रहे. अपनी साँसों की आवाज़ भी सुन पा रही थी ,एक बार लगा......कहीं रितेश को भी तो नहीं सुनायी पड़ रही हैं...और धीमी कर ली साँसें....थोड़ी देर यूँ ही चुप्पी छाई रही..शायद उसे भी समझ नहीं आ रहा था...क्या बोले..क्या पूछे....आखिरकार उसने ही गला साफ़ करते हुए कहा, "आप प्लीज़ बैठिये ना....यूँ खड़े क्यूँ हैं"</div>
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<br /></div>
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उसने भी उसकी बात मान..एकदम धीमे से बड़े एहतियात से कुर्सी खिसका कर उसके बेड के करीब लाने की कोशिश की . पर इतनी धीमी आवाज़ ने भी माँ की झपकी में खलल डाल दी..और वे हडबडा कर उठ बैठीं...फिर रितेश को देखते ही जैसे खिल गयीं...."अरे तुम कब आए... बेटा?"</div>
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<br /></div>
<div>
अरे वाह...'बेटा' का संबोधन..बस एक ही मुलाकात में...मन ही मन चौंकी वो..पर माँ के उठ जाने से जैसे दोनों को राहत मिल गयी....रितेश के चेहरे पर भी एक चौड़ी मुस्कान खींच गयी.."बस आंटी अभी आया ही था...आपको जगा दिया ना....आप आराम कीजिए ना प्लीज़...थक गयी होंगी "</div>
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<br /></div>
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शुक्र है..माँ ने उसकी बात नहीं सुनी..वर्ना फिर दोनों अकेले पड़ जाते..और फिर बात क्या करते..."अरे नहीं...बैठे-बैठे क्या थकना..." बोलीं माँ.</div>
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<br /></div>
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"तुम तो बस हमारे लिए जैसे भगवान के दूत ही बन कर आए हो...."</div>
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<br /></div>
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"ओह! आंटी....फिर मत शुरू कीजिए....कोई भी मेरी जगह होता...तो यही करता.."</div>
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<br /></div>
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"अरे नहीं बेटे...मैने ज़माना देखा है...लोग मजमा लगाए खड़े होते हैं...ऐसा नहीं कि कुछ करना नहीं चाहते...पर आगे कौन बढे...कैसे क्या करे...ये लोगो की समझ में नहीं आता...क्विक डिसीज़न बहत जरूरी होता है...और वो तुमने किया..तो तुम्हे श्रेय तो मिलना ही चाहिए"</div>
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<br /></div>
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"क्या कहते हैं डा. ...कोई गंभीर चोट तो नहीं.." रितेश ने एकदम से बात बदल दी.</div>
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'गंभीर तो नहीं बता रहे..पर इसका बुखार नहीं जा रहा....शायद एक दो दिन लगे संभलने में...पूरा शरीर हिल गया ना..अंदर तक दहल गयी होगी...समय तो लगेगा ही"</div>
<div>
लो फिर उसे सब भूल गए...यहाँ सब आते हैं,उसे देखने...पर उसे ही भूल जाते हैं...फिर से उसने अपनी तरफ ध्यान खींचने को जोर से कहा.."माँ...ये फूल उधर टेबल पर रख दो ना..चुभ रहे हैं.."</div>
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<br /></div>
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"फूल भी...चुभ रहे हैं?...." एक शैतानी भरी मुस्कराहट के साथ रितेश ने धीमे से कहा...अच्छा तो ये मिटटी का माधो नहीं है...बोलना भी आता है...इसे..</div>
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<br /></div>
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"और क्या..यहाँ पास में पड़ा हुआ.....अनकम्फर्टेबल लग रहा है ना...और फिर मुरझा भी तो जायंगे.."और उनके बीच की जमी बर्फ पिघल गयी....</div>
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<br /></div>
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रितेश मुस्कुरा कर चुप हो गया.</div>
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<br /></div>
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माँ ने फूल लेकर टेबल पर रख दिया..."अरे बेटा...इस फॉरमेलिटी की क्या जरूरत थी...." ..ये माँ भी ना....जैसे उनके लिए लेकर आया है...पहली बार तो जिंदगी में किसी ने उसे फूल दिए हैं...और फिर रुआंसी हो गयी...'वो भी हॉस्पिटल में.."</div>
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<br /></div>
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"वो तो आंटी बस ऐसे ही..." </div>
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<br /></div>
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"अच्छा बताओ बेटा.. क्या करते हो....?"..माँ तो सब भूल जाती हैं..... बताया तो था कि किताबो की दुकान है उसकी.</div>
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<br /></div>
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"आंटी मैने...सिविल सर्विसेज़ का इम्तहान दिया है..रिटेन तो क्वालीफाई कर गया हूँ...अभी इंटरव्यू बाकी हैं"</div>
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<br /></div>
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उसने एकदम से मुड कर उसे देखा....और रितेश ने भी उसी पल उसकी तरफ देखा...आँखें मिलीं...और जैसे आँखों में ही बात हो गयी..जैसे उसकी आँखों ने कहा हो.....'अच्छा! मैं तो तुम्हे...किताब की दुकान वाला समझती थी"...और रितेश की आँखों ने जबाब दिया हो.."मुझे पता था...तुम मुझे एक दुकानदार ही समझ रही थी.."</div>
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<br /></div>
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फिर उसने नज़र सामने कर ली...रितेश ने भी माँ की तरफ चेहरा घुमा लिया और जैसे उसकी जिज्ञासा पूरी तरह शांत करने के लिए बोला..."ये मेरे चाचा जी की किताबों की दुकान है...चाचा इन दिनों कुछ बीमार हैं...तो मैं आजकल दुकान पर बैठता हूँ...किताबों की दुकान में ज्यादा भीड़ तो होती नहीं...सो बैठ कर पढता रहता हूँ.."</div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span><br />
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"बहुत बढ़िया बेटा...तुम्हारे इतने अच्छे कर्म हैं....तुम जरूर कामयाब होगे...दिल से मेरी दुआ है..तुम सफल हो जाओ."</span></span></div>
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<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span><br />
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"बस आंटी...बड़ों की दुआ चाहिए और क्या..."</span></span></div>
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<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">फिर दरवाजे पर खटखट हुई...और जीवन काका हाथों में बास्केट लिए अंदर आए..."कैसी हो बिटिया...कैसा चेहरा मुरझा गया है...ताज़ा जूस निकाल कर लाया हूँ..तुम्हारे लिए..पी लो..तबियत हरी हो जायेगी"</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">और वो बास्केट से फ्लास्क निकालने लगे...मालकिन आपके लिए थर्मस में चाय भी लाया हूँ.."</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span><br />
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"हाँ मैं सोच ही रही थी कि अब आपको आ जाना चाहिए.."</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"अरे हम तो मुला घड़ी ही देखत रहे...लछमी भी गैस अगोर कर ही बैठी थी..चाय बनाने को.."</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"नाव्या... तुम जूस पी लो..फिर हमलोग चाय पीते हैं.."</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"अभी नहीं..."</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"अब यहाँ हॉस्पिटल में नखरे नहीं...जब जो दिया जाए....खा लिया करो.."..माँ ने सख्ती से कहा.</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"अच्छा तो ये नखरे भी करती हैं..." रितेश दबी हुई मुस्कान के साथ बोला..<br />"अरे पूछो मत....जब भी खाने के लिए पूछो....सिर्फ एक ना..."..माँ अपनी ही धुन में बोले जा रही थीं.</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">मन हुआ बोले..' माँ खाना छोड़कर तुमने आजतक और किसी चीज़ के लिए पूछा है,कभी....वो भी चुपचाप खा लेती...तो फिर कोई संवाद ही नहीं होता,हमारे बीच....इस ना...और तुम्हारी डांट के साथ दो चार जुमले तो हमारे बीच बोले जाते कम से कम.</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">उसे यूँ सोच में डूबे देख..रितेश बोल पड़ा..." जूस पीने से इतना क्यूँ डर रही हैं..एम श्योर..कोई करेले का जूस नहीं होगा.."</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"यक..सुन कर ही मुहँ कड़वा हो गया...कैसे पीते हैं लोग.." इतने सहज रूप से बात हो रही थी...लगा ही नहीं अभी कुछ समय पहले दोनों...शब्दों के अभाव में छत और दीवारें तक रहे थे.</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">रितेश ने बेड ऊपर करने में माँ की सहायता की...वो संकोच से गडी जा रही थी...अधलेटे होकर उसने जूस का ग्लास थाम लिया और जीवन काका से उनलोगों के लिए चाय निकालने के लिए कहा..</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">'अच्छा बिटिया."..कह कर वो बढे ही थे कि माँ ने जरा जोर से ही कहा.."ना पहले तुम जूस ख़त्म करो...फिर हम चाय पियेंगे"</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
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<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"माँ, बीमार हूँ, मैं ...और तुम इतना डांट कर बात कर रही हो....प्यार से बोलो ना....":उसने झूठे गुस्से से थोड़ा ठुनक कर कहा...</span></span></div>
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<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
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<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"ओहो!! मेरी रानी बेटी..जूस पी लो.. "..माँ ने इतनी नाटकीयता से कहा...कि वो और रितेश साथ ही हंस पड़े...माँ भी हंसने लगी.</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
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<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">और उसी वक़्त डा. समीर ने कमरे में ये कहते प्रवेश किया..."क्या बात है...सीम्स माइ पेशेंट इज डूइंग वेल..गुड़..गुड़.."</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">समीर को देखते ही वो सहम कर चुप हो गयी और नज़रें झुका ली...</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"ये क्या बात हुई...आप इतना डर क्यूँ जाती हैं...आज इसीलिए मैं राउंड पर निकलने से पहले यहाँ आया...इस तरह डरती रहेंगी तो हमारी दवा असर नहीं करेंगी...और फिर ज्यादा दिन रहना पड़ेगा यहाँ"</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
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<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"नहीं...मुझे दवाइयां...इंजेक्शन...हॉस्पिटल.<wbr></wbr>.डॉक्टर..सबसे बहुत डर लगता है"....डर सचमुच उसकी आवाज़ में उतर आया था.</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
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<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"हा हा...ओके ओके..." कहते गले में पड़ा स्टेथोस्कोप डा. समीर ने उतार कर हाथों में नीचे ले लिया..."अब तो नहीं दिखता मैं डा.?...ठीक है?"</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
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<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">उनकी इस हरकत पर उसके होठो पर मुस्कराहट आ गयी....</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
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<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"दैट्स लाइक अ गुड़ गर्ल ...डॉक्टर भी इंसान ही हैं....हमेशा इंजेक्शन ही नहीं लगाते रहते"</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"चाय लेंगे ..डॉक्टर साब.."..माँ ने पूछा...जीवन काका ने चाय प्यालों में निकाल ली थी.</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">डा.समीर माँ की तरफ मुड़े...और थर्मस और प्याले पर नज़र पड़ते ही..बोल उठे.."अरे वाह!! घर की चाय...क्यूँ नहीं...घर की बनी किसी चीज़ को मैं कभी ना नहीं कहता...सालों से घर से बाहर हूँ..कप में चाय पीने की आदत ही जाती रही.."</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">रितेश ने मना कर दिया...तो माँ से पहले...डा.समीर ही बोल पड़े..."अरे हमारा साथ दीजिये..आंटी, इतने प्यार से पूछ रही हैं...क्यूँ काका चाय है ना सबके लिए"</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"अरे बहुत है ,सर ..पाँच कप से ज्याद ही होगा...हमको पता था...हॉस्पिटल में तो लोग मिलने को आते ही रहते हैं..तो मालकिन,अकेले कैसे पियेंगी....ए ही सोच थर्मस भर कर लाए हैं.." जीवन काका किसी को भी इज्जत देने के लिए सर कह कर बुलाते थे...और इस पर वह उनकी बहुत </span></span><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px;">खिंचाई</span><span class="Apple-style-span" style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 21px;"> करती थी..पर अभी चुप रही.</span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"तब तो मैं एक कप और पिऊंगा..."डा-समीर ने हँसते हुए कहा...और वो हैरान रह गयी...शायद रोज़ इतने लोगो के संपर्क ने इतना बेतकल्लुफ बना दिया है, इन्हें...या फिर ये उनके स्वभाव में शामिल है...इनकी तो बातों से ही मरीज़ की आधी बीमारी दूर हो जाती होगी.इतनी आत्मीयता से अजनबियों से भी बाते करते हैं... उसका भी डर धीरे-धीरे जाता महसूस हुआ.</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">चाय पीते...डा. समीर ने रितेश से पूछा.."और आप कैसे हैं?...उस दिन तो आपकी घबराहट देख लग रहा था....हॉस्पिटल में एक बेड आपके नाम भी करनी होगी हमें.."</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span><br />
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"ओह! मैं बुरी तरह हिल गया था....इस तरह एक्सीडेंट..खून..देखने का पहला मौका था...ड्राइवर और इन्हें दोनों को इस हालत में देख बहुत घबरा गया था...वो तो आप डॉक्टर लोग तय करते हैं कि चोट कितनी गहरी है...खून बहता देख..हमारी तो हालत खराब हो जाती है"</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"हाँ...और खासकर जब अपनों का हो.." ..समीर आगे कुछ और कहते कि माँ बोल पड़ी..." ना डॉक्टर साब...इन जैसे लोगो से ही इंसानियत पर विश्वास बना रहता है...ये तो नाव्या को जानते भी नहीं थे...फिर भी इतना किया हम सबके लिए"</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">हठात ही रितेश और उसकी नज़रें मिल गयीं...'क्या सचमुच वे एक-दूसरे को नहीं जानते थे...हल्की सी मुस्कराहट जैसे आँखों में ही तैर गयीं...और दोनों ने अपनी निगाहें लौटा लीं.</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"पहले तो आप....मुझे ये डॉक्टर साब बोलना बंद कीजिए...कोई जब ऐसा कहता है तो खुद ही मेरे हाथ बालों पर चले जाते हैं..लगता है..जरूर बाल </span></span><span class="Apple-style-span" style="color: #666666;"><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px;">पक</span><span class="Apple-style-span" style="font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 21px;"> </span></span><span class="Apple-style-span" style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 21px;"> गए हैं और बुड्ढा दिखने लगा हूँ..." और फिर कप रख रितेश की तरफ हाथ बढाया..."इट्स रियली कमेंडेबल दोस्त....दोस्त कह सकता हूँ ना...मुस्कुरा कर जरा सा रुके..फिर गर्मजोशी से उसका हाथ हिलाते हुए बोले," आप जैसे लोगो की बड़ी जरूरत है...आपलोग हमारा काम आसान कर देते हैं...ऐसे में समय की बड़ी कीमत होती है..और अक्सर डॉक्टर्स के पास एक्सीडेंट केसेज़ लाने में लोग इतना टाइम वेस्ट कर देते हैं कि...हमें दुगुनी मेहनत करनी पड़ती है और पेशेंट को रिकवर होने में भी काफी समय लग जाता है...इट्स रियली नाइस टु नो यू"</span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"अब भागना होगा आंटी..थैंक्स फॉर द लवली टी....पर चाय तो काका ने बनाई हैं ना....धन्यवाद काका.."</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">काका ने अभिभूत होकर हाथ जोड़ दिए..</span></span></div>
<div>
<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
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<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">" एंड यू ट्राई टु बी अ गुड गर्ल..तंग ना किया करें आंटी को...नर्स बता रही थी...आप दवा लेने में बड़ी नखरे करती हैं...और इंजेक्शन में तो बच्चों सा शोर मचाती हैं"</span></span></div>
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<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
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<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"हैं, भी तो इतनी सारी...बड़ी-बड़ी सी ...निगली ही नहीं जाती.." उसने मुहँ बनाया.</span></span></div>
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<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
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<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">" सिर्फ इंजेक्शन चलेगा...?" हंस कर बोला...और फिर एकदम गंभीर हो गया..."देखिए...वूंड हील करने के लिए,</span></span><span style="font-size: medium;"> </span><span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 21px;">दवा तो सारी की सारी लेनी पड़ेंगी और इंजेक्शन भी....ओके...अच्छा चलूँ..." माँ और रितेश की तरफ हाथ हिलाया...और चला गया. </span></div>
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<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
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<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">अपने नाम के अनुरूप ही खुशबू के एक झोंके सा आया और सबके मन पर अपनी उपस्थिति दर्ज कर चला गया. इतने कम समय में ही उसने कमरे में उपस्थित चारो लोगो से बातें की..सबको समान महत्त्व दिया...हम्म सीखना पड़ेगा ये सब..</span></span></div>
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<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
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<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"अच्छा लड़का है..." माँ थीं..</span></span></div>
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<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
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<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">"या..नाइस चैप एंड अ वेरी गुड डॉक्टर...उस दिन मैने इन्हें देखा...इतनी अच्छी तरह सब संभाला...यु आर इन सेफ हैंड्स...."...रितेश उसकी तरफ मुड कर बोला...और वो सोचने लगी..इन दो दिनों में उसकी दुनिया कितनी बदल गयी....अपनी साँसों के के लिए वो इन दो अजनबियों की कर्ज़दार हो गयी. </span></span></div>
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<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
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<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">इन्ही ख्यालों में गुम थी कि हैरान-परेशान सी...नीना, प्रियंका, अर्चना कमरे में दाखिल हुईं. तीनो एक साथ बोल रही थीं.."अरे क्या हुआ...कब हुआ..कैसे हुआ.....मुझे तो आज पता चला....इतनी परेशान हो गयी...मैं" वो मन ही मन मुस्कुरा उठी..फिर से तीनो में होड़ शुरू हो गयी कि किसे उसकी सबसे ज्यादा चिंता है...माँ ही बता रही थीं...वो थक सी गयी थी....उसने माँ को कहा...लेटना चाहती है...जरा नीचे कर दे बेड. रितेश ने ही आगे बढ़ कर किया और फिर वहीँ से.."चलता हूँ आंटी..फिर आऊंगा...और उसकी तरफ आँखे झुका कर बाय कहा....और चला गया.</span></span></div>
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<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;"><br /></span></span></div>
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<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">चैन की सांस ली,उसने..अभी उसकी सहेलियाँ आपस में ही उलझी थीं..रितेश को उन्होंने उसका कोई रिश्तेदार समझ लिया..अगर पूछताछ शुरू करतीं तो फिर उसे जबाब देते नहीं बनता. और उन्हें उसे छेड़ने का एक बहाना मिल जाता. पर पता नहीं उसका बात करने का मन नहीं हो रहा था...रितेश..डा. समीर की बातें....बार-बार रिप्ले हो रही थीं...मन में...और उसने आँखें मूँद लीं...माँ ने कहा...काफी देर से बैठी थी..लगता है...थक गयी हैं. सहेलियाँ आपस में ही बातें करती ताहीं..और फिर आने का वायदा कर चली गयीं.</span></span></div>
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<span style="color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, Verdana, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 21px;">(क्रमशः)</span></span></div>
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rashmi ravijahttp://www.blogger.com/profile/04858127136023935113noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-6953374982088960088.post-43457366232705530532011-08-12T07:20:00.000-07:002011-08-12T10:18:41.627-07:00हाथों की लकीरों सी उलझी जिंदगी. ..(2)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px;">( </span>नाव्या<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px;"> कॉलेज में पढनेवाली एक धनाढ्य पिता की पुत्री है....ख़ूबसूरत है....पढ़ने में अव्वल है....किन्तु अकेलापन उसका साथी है. सबकी प्रशंसात्मक नज़रों की आदी नाव्या को एक किताब के दुकानवाले की अपने प्रति उदासीनता सोच में डाल देती है) </span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px;"></span><br />
<div>
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://1.bp.blogspot.com/-S5JeNjOlsss/TkU2BCxNPSI/AAAAAAAABs4/Xr6ipLj8jGc/s1600/images.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-S5JeNjOlsss/TkU2BCxNPSI/AAAAAAAABs4/Xr6ipLj8jGc/s320/images.jpg" width="320" /></a></div>
<div>
चैटर्जी सर ने ऑर्गेनिक केमिस्ट्री में टी. शर्मा की किताब लेने को कहा...उस दुकान के सामने पहुंचते ही...वो यंत्रवत ड्राइवर से बोल उठी...." यहाँ रोकना जरा..." </div>
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दरवाजे के हैंडल पर हाथ रखा ही था कि याद आया..."उसे तो नहीं जाना ना.."</div>
<div>
हाथ हटा लिया..."ना ड्राइवर से ही मंगवा लेती है"</div>
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<br /></div>
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लेकिन ड्राइवर क्या जानने गया..."ऑर्गेनिक या फिजिकल केमिस्ट्री..कहीं उसे बेवकूफ बनाने को दूसरी पुस्तक पकड़ा दी तो?...गाड़ी तो पहचान ही गया होगा...और एक ही झटके से गाड़ी से उतर कर जोर से दरवाज़ा बंद कर दिया...." हुंह ! वो क्यूँ परवाह करे किसी की ..."</div>
<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px;"></span><br />
<div>
<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px;">और खटाखट सीढियां चढ़, हाथ बांधे, चेहरे पर अतिव्यस्तता का मुखौटा लगाए, पूरी गंभीरता से बोली..."टी शर्मा की ऑर्गेनिक केमिस्ट्री है क्या?"</span></div>
<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px;">
</span><br />
<div>
<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px;"><br /></span></div>
<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px;">
</span><br />
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<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px;">वह किताबों के बीच कुछ ढूंढ रहा था....हलके से चौंक कर मुडा...पल-भर को निगाहें मिलीं....ओफ्फ़!! किस कदर उदास हैं ये आँखें....ये बस जन्म से ऐसी ही हैं...या इनके पीछे कोई कहानी छुपी हुई है. किसका सीना ना चाक कर दे ..उदासी के गह्वर में डूबी ये आँखें..चेहरे पर बच्चों सी मासूमियत...और आँखें ऐसीं जैसे ना जाने कितने वसंत देख चुकी हों ...और आज तक बस खोया ही खोया हो. उसकी तनी हुई नसें थोड़ी ढीली पड़ने लगीं कि ख्याल आया उसे तो नाराज़गी दिखानी है...फिर से अकड़ कर सीधी खड़ी हो गयी.</span></div>
<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px;">
</span><br />
<div>
<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px;"><br /></span></div>
<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px;">
<div>
वह कुछ क्षणों तक होठों को तर्जनी से थपथपाता रहा, फिर बड़ी नम्रता से बोला...."आsssप एक मिनट ठहरें....मैं बगल से मंगवा दे रहा हूँ. "अरे ये क्या सचमुच टेलीपैथी का कोई अस्तित्व है?....इसे कैसे खबर हो गयी...उसके मूड की...आज तक तो कभी इतनी रियायत नज़र नहीं आई. 'नहीं' शब्द छोड़कर आज तक दूसरा सुना ही नहीं...और आज तो ये पूरा वाक्य बोल गया. अगर किताब होती तो उसे से नहीं..दुकान में काम करने वाले लड़कों से कहता....निकाल कर देने को...और नहीं होती तो सिर्फ एक 'सपाट' नहीं .</div>
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उसके चेहरे की कठोरता कम पड़ने लगी लेकिन उसने जल्दी से फिर से वही सख्त भाव ओढ़ लिए और कड़क कर पूछा, "देर लगेगी?"</div>
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"नहीं..नहीं.." उसने फिर बड़ी नम्रता से सर हिलाकर कहा..जैसे किसी दूसरे जहां से बोल रहा हो..." बिलकुल पास ही है...रामेश्वर देखना तो चौधरी बुक डिपो में हो शायद....थी मेरे पास भी..पर ख़त्म हो गयी..." वैसे ही होठों को तर्जनी से थपथपाता अपनी जगह खड़ा रहा...ना तो उसने कोई किताब उठायी ना ही खुद को कहीं और व्यस्त किया.</div>
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<br /></div>
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उसका सारा तनाव ढीला पड़ गया....हल्का सा दीवार का सहारा लिए पीठ टिका दी....हाथ...सामने कौर्निस पर रखा और तुरंत ही समेट लिए..क्या पता...सोचे अपने लम्बे-लम्बे पेंटेड नाखून दिखा रही है..."</div>
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वो वैसे ही दीवार से पीठ टिकाये....छत से घूमते पंखे को देखती रही...और वो सामने सड़क पर नज़रें जमाये खड़ा रहा...लगा,जैसे आस-पास के सारे दृश्य पिघल कर रंग-बिरंगे लहरों में तब्दील हो उनके चारों तरफ चक्कर काट रहे हैं ..और दोनों ही अपने-अपने वृत्त में घिरे...ठिठके से खड़े हैं...उसके सहायक ने आकर जैसे उन लहरों को छू दिया और लहरें स्थिर हो गयीं...सबकुछ अपनी जगह वापस लौट आया...वे दोनों भी.</div>
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उसने बिना कुछ बोले ...झुक कर किताब उसकी तरफ बढाया और नाव्या ने बिना कीमत पूछे...पांच सौ का नोट काउंटर पर रख दिया...उसने चेंज वापस काउंटर पर रखा और दराज़ में झुक कर कुछ ढूँढता रहा. नाव्या पैसे उठाकर गिनने लगी..तो उसने आँखें ऊपर उठाईं और बड़ी आश्चर्य भरी भरपूर निगाह डाली, उसके चेहरे पर. </div>
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आज तक कभी,लौटाए पैसे वह गिनती नहीं थी...आरक्त चेहरे से पैसे और किताबें समेट वह दौड़ती हुई सीढियां उतर गयी. लगा, पीछे उसकी आँखें हंस रही हैं.</div>
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रोज़ गाड़ी उसके दुकान के सामने से गुजरती...पर जैसे उसे अब जाने में संकोच सा होता....अब तक जिन नज़रों में अपनी पहचान देखना चाहती थी...अब जैसे उन्ही नज़रों से आँखें चुराने लगी थी...फिर भी एक बार नज़र उसकी तरफ उठ ही जाती...कभी, बस उसके घुंघराले बाल नज़र आते...कभी उसकी चौड़ी पीठ तो कभी बस एक हाथ...जिसमे झूलते कड़े को देख,एक अव्यक्त चिढ से भर उठती...पता नहीं...सुसंस्कृत लोगों में भी ये चवन्नीछाप बनने की लालसा क्यूँ बनी रहती है...होगा फैशन..पर उसे नहीं पसंद...और जब उसे नहीं पसंद तो उसे पसंद आने वालों को उसकी पसंद का ख्याल तो रखना चाहिए....और जैसे खुद की चोरी ही पकड़ लेती...उसकी पसंद??..फिर अपने ऐसे किसी ख़याल से बचने को घबरा कर....किसी पत्रिका के पन्ने पलटने लगती. </div>
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पर अब पत्रिकओं से भी दूरी बढानी थी...इम्तहान निकट आ रहे थे. अपनी फर्स्ट पोजीशन बरकरार रखने को मेहनत तो करनी ही पड़ती थी. कभी-कभी सोचती,अच्छा होता वो पढ़ने में बिलकुल फिसड्डी होती ,फिर शायद माँ या डैडी कुछ ध्यान देते. कितना अच्छा लगता, उसे ले चिंतित हो बातें करते उसके विषय में...माँ घर पर रहने की कोशिश करतीं...ताकि वो ध्यान से पढ़ाई करे. पापा अपने दोस्तों से उसके गिरते मार्क्स की चिंता करते...लेकिन क्या करे....अब जानबूझकर तो फेल नहीं हुआ जा सकता. कभी भूले-भटके कोई अंकल-आंटी, उसकी पढ़ाई के विषय में पूछ लेते तो माँ-डैडी दोनों एक स्वर में कहते..":अरे! हमें कभी फ़िक्र नहीं करनी पड़ी....बिटिया शुरू से ही तेज है,पढ़ने में...फर्स्ट आती रही है,हमेशा" </div>
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इम्तहान के दिनों में वो सब कुछ भूल जाती...गीतों-ग़ज़लों-फिल्मो के सी डी धूल खाते रहते....किताबें उदास सी एक दूसरे से सिमटी शेल्फ में कैद रहतीं...और उसके कमरे में टेबल से लेकर बिस्तर...खिड़की ..जमीन हर जगह पन्ने ही पन्ने बिखरे होते. हाँ, कभी-कभी..उन पन्नों के बीच ही कोई आकृति उभर आती...तो कभी कोई आंसर याद करते वक्त , अचानक लगता किसी ने आश्चर्य से उसे देखा है...कभी याद करके लिखे डेफिनिशंस को दुबारा पढ़ती तो कहीं कहीं लिखा हुआ पाती...'मिटटी का माधो" और एक गहरी मुस्कराहट छा जाती चेहरे पर....और किसी को ख्यालों में ही मुहँ चिढ़ा उठती..."हाँ! पत्थर बनेंगे...ये नहीं मालूम कि निर्मल झरना भी तो पत्थरों के बीच से ही निकलता है."</div>
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पेपर आशानुकूल ही जा रहे थे...अंतिम पेपर देकर लौट रही थी...परीक्षा ख़त्म होने की ख़ुशी भी थी और मन कुछ उदास सा भी था.... क्या करेगी अब इन खाली-खाली लम्बे दिन और रातों का. तभी एक छोटा सा बच्चा, सड़क पार करते ट्रैफिक में बुरी तरह से घिर गया और जो ड्राइवर ने उसे बचाने के लिए अचानक ब्रेक मारी तो पीछे से आती हुई कार बुरी तरह टकरा गयी उसकी कार से. उसे बस इतना याद रहा कि वो उछल सी पड़ी..और सर बड़ी जोर से दरवाजे से टकराया...फिर क्या हुआ उसे कुछ याद नहीं. थोड़ी देर बाद लगा किसी ने सर के नीचे हाथ लगा, उठाया है उसे....मुश्किल से तन्द्रिल आँखें खोलने की कोशिश की ....सब धुंधला सा नज़र आया.....पर ये गालों पर पानी सा क्या फिसल रहा है...आँसू....लाल-लाल आँसू...और फिर उसकी आँखें मुंद गयीं.</div>
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जब होश आया तो खुद को एक बिस्तर पर लेटा हुआ पाया...ऐसा लगा...बड़ी दूर कुछ लोग बातें कर रहे हैं...बड़ी हल्की सी आवाज़ आ रही थी. हाथ उठाना चाहा...लेकिन हाथों ने कहा मानने से इनकार कर दिया. आँखें खोलने की कोशिश की तो लगा मन- मन भर के बोझ रखे हों पलकों पर. बड़े जोरों की प्यास महसूस हुई. सर में भयंकर दर्द हो रहा था...पानी माँगने की कोशिश की पर गले से कोई स्वर नहीं निकला. सारी शक्ति लगाकर आँखें खोलीं..पर दूसरे ही पल फिर आँखें मुंद गयीं. लगा, जैसे कोई झुका है, उसपर. बालों पर सहलाहट सी महसूस हुई. धीरे-धीरे फिर से आँखें खोलने की कोशिश की. पलकों की झिरी से देखा...जाना -पहचान चेहरा लग रहा था ....पर याद नहीं आ रहा. दिमाग पर जोर डाला लेकिन थक गयी. </div>
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अचानक वे आँखें आयीं नज़रों की हद में और कुछ याद आया....आँखें...उदास आँखें...किसकी...मि... मि ...मिटटी के माधो की...और एकबारगी ही पलकें पूरी लम्बाई में खुल गयीं. हाँ, उसपर झुका चेहरा 'मिटटी के माधो' का ही था...लेकिन आज ना आँखें खोयी खोयी सी थीं और ना ही उदास...बल्कि बड़ी व्यग्रता झलक रही थी उनमे. चपल मछलियों सी पुतलियाँ ...उन झील सी आँखों में इधर से उधर तैर रही थीं.</div>
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उसे होश आया देख, कुछ ठहराव आया उनमे. एक तरलता झलकी और स्निधता फ़ैल गयी..चेहरे पर...हाथ उसके सर पर थे.."कैसा लग रहा है?" सुन तो नहीं पायी सोचती है..यही पूछा होगा. और एकदम से प्यास याद आ गयी. सूखे होठों पर जीभ फेर कर कर कहा...'.पाsssssss नी......पाssssssss नी ' पर शायद आवाज़ बहुत धीमी थी..उसे सुनाई नहीं दी.....वह सुनने को झुका.. उसने फिर दुहराया.....'.पाsssssss नी.' पर वो सुन नहीं पाया...और अचानक ढेर सारे घुंघराले बाल छा गए उसके चेहरे पर.... उसके कान उसके होठों से मुश्किल से दो इंच की दूरी पर थे. दूसरे ही क्षण वो तेजी उठ गया...'नर्स..नर्स...पानी.." </div>
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"होश... आ गया? .." एक पतली सी पर तेज आवाज़ आई. और फिर तो कई अजनबी चेहरों ने उसे घेर लिया. उन चेहरों में नवीन अंकल भी थे और नवीन अंकल पर नज़र पड़ते ही डैडी याद आए और फिर माँ.... बंद पलकों पर मोटी-मोटी बूंदें उभर आयीं..'माँ..माँ...डैडी..कहाँ हैं आपलोग?...ये क्या हो गया...मैं यहाँ कैसे पहुँच गयी...ये लोग कौन हैं...?"..'सवालों के झंझावात उसे झकझोरे जा रहे थे.</div>
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नवीन अंकल उसके सर पर हाथ फेर रहे थे.."आँखें खोलो बेटे...अब कैसा लग रहा है?'</div>
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"म्माँ...माँ....डैडी...बुला दीजिये उन्हें..."</div>
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"वे लोग आते ही होंगे..दोनों लोगो को खबर कर दी गयी है...आपके पापा जो भी पहली फ्लाईट मिलेगी...उस से आ रहे हैं...माँ, पास के गाँव में गयी हुई थीं... बस पहुँच ही रही होंगी....लीजिये पानी पी लीजिये.." एक गूंजती सी आवाज़ एक सांस में सब कह गयी....</div>
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आँखें खोल,आवाज़ के मालिक को देखने का यत्न किया तो उसके शर्ट का गहरा लाल रंग आँखों में चुभ गया. घबरा कर आँखें बंद कर लीं. </div>
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"लीजिये... पानी पी लीजिये...." फिर वही आवाज़...हाथ भी उसी का होगा.</div>
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कराहती हुई...उसने सर हिला .."नईssssss.....माँ को बुला दीजिये..." </div>
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" पी लो बेटे...माँ बस आ ही रही हैं...." नवीन अंकल का स्नेहिल स्वर उभरा.</div>
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उसने जिद से सर हिला दिया...'नईssss"</div>
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आँखें जरूर इधर-उधर भटकीं...पर सूनी ही रहीं...सर घुमा देखना चाहा . पर पट्टियों से बंधा सर हिला भी नहीं. रोष उभर आया उसे...ये मिटटी का माधो..सचमुच मिटटी का माधो ही है...ये अनजान लोग तीमारदारी में जुटे हैं और वो खुद किधर है? इन्हें ही कहा था उसने पानी पिलाने को??...पर इस से ज्यादा तनाव दिमाग बर्दाश्त नहीं कर पाया...निढाल सी पड़ गयी. गहरी क्लान्ति छा गयी...थकी पलकें मुंदने लगीं...ह्रदय अतल गहराइयों में डूबने लगा...और जब अंकल ने कहा..".मुहँ खोलो बेटे..." तो उसने ऑटोमेटीकली मुहँ खोल दिए...इतने में ही इतना थक गयी थी....दो घूँट पानी पीते ही फिर से सो गयी. </div>
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***</div>
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बहुत दिनों का भुला हुआ स्पर्श....सर पर गालों पर....हाथों पर महसूस हुआ...और उसने हडबडाकर आँखें खोल दीं..माँ उसपर झुकी हुई थीं...आँखें सुर्ख लाल लग रही थीं. उस से आँखें मिलते ही पलकों पर आँचल रख दूर हट गयीं. पर हाथों का स्पर्श वैसा ही बना रहा...तो ये हाथ किसके हैं...दूसरी तरफ नज़रें घुमाईं...तो पाया डैडी की डबडबाई सी आँखें उस पर ही टिकी हैं....एक आवेग सा उमड़ा और वो बिलकुल पांच वर्ष की नन्ही सी नाव्या बन फूट पड़ी...."डैडी...ओह.. डैडी...." </div>
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डैडी की आँखें भी छलकने को हुईं पर रोक लिया खुद को.."ना बच्चा ना....हम सब यहाँ हैं ना...सब ठीक हो जाएगा..."</div>
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माँ भी पास आ गयीं..." रोते नहीं बेटा...जल्दी ही ठीक हो जाओगी....भगवान का लाख-लाख शुक्र, ज्यादा सीरियस कुछ नहीं है"</div>
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"पर हुआ क्या...मैं यहाँ कैसे आ गयी.....मुझे तो कुछ भी नहीं याद.....मेरी तो आँख खुलती है..और मैं सो जाती हूँ ...तुमलोग भी कब आए पता ही नहीं चला...जाने कब तक सोती रही मैं..."उसने कुछ शिकायती लहजे में कहा.</div>
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"कार का एक्सीडेंट हो गया बेटे...पर भगवान ने बचा लिया..ज्यादा चोट नहीं आई "</div>
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"और रमण अंकल?...वे कैसे हैं..." अब उसे ड्राइवर का ख्याल आया.</div>
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"वो भी ठीक है.......इसी हॉस्पिटल में है.."</div>
</span><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px;"><div>
"थैंक गौड'.. वे ठीक हैं.." कहकर उसने आँखें मूँद लीं......मम्मी-पापा उसकी बेड के दोनों तरफ कुर्सियों पर बैठे थे...डैडी का हाथ उसके सर पर था और माँ उसके हाथ सहला रही थीं. उनकी ये छवि बूँद-बूँद महसूसने की कोशिश कर रही थी...पिछली बार कब हुआ था ऐसा?... कब उसके बेड के आस-पास माँ और डैडी दोनों जन थे?...याद करने पर भी याद नहीं आ रहा. वो सर का भारीपन...हाथ-पैरों पर जगह-जगह लगी खरोंचे....पैरों पर कसकर बाँधा हुआ क्रेप बैन्डेज़<br />
...वो सारे कष्ट थोड़ी देर को भूल ही गयी. ..हे भगवान! इस क्षण को अनंतकाल के लिए स्थिर कर दो...ओह! उसका एक्सीडेंट...दो साल..चार साल...छः साल.. पहले ही क्यूँ ना हुआ...यूँ माँ-डैडी सब छोड़ उसके पास चले आते.</div>
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किसी की धीमी पदचाप कमरे में आई और डैडी अभ्यर्थना में उठ खड़े हुए , बोले..</div>
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"बेटा.. भगवान की असीम कृपा तो है ही...पर थैंक्स इनका भी करो..." और उन्होंने एक युवक के कंधे पर हाथ रख...उसे आगे किया..."बेटे ये हैं..रीतेश...ये ही तुम्हे समय पर हॉस्पिटल ले आए....और तब से देखभाल कर रहे हैं...नवीन अंकल भी पता चलते ही आ गए फिर भी सारी जिम्मेवारी इन्होने ही उठायी.."</div>
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आगंतुक की आँखों में गहरी आत्मीयता झलक रही थी...और आँखों में हल्का स्मित. मुस्कुरा पड़ी वो..सिरचढ़ी छोटी सी बच्ची की तरह इठला कर बोली...." मैं तो जानती हूँ, इन्हें...अग्रवाल बुक डिपो इनकी ही तो है...कई बार किताबें ली हैं,वहाँ से..." माँ ने होठों पर ऊँगली रख दी.."धीरे नाव्या...और ज्यादा मत बोलो...कमजोरी और बढ़ेगी" </div>
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कमजोरी?? अब कमजोरी का उसके रास्ते में क्या काम....इतना उत्साह तो उसे कभी महसूस नहीं हुआ...इतनी ख़ुशी तो उसे कभी नहीं मिली....अगर इन पट्टियों ने ना जकड़ा हुआ होता तो अभी उठ कर....क्या करती?..हाँ, क्या करती?...पता नहीं..पर कुछ करती तो जरूर. अभी तो बस उसकी आँखों को ही पूरी अभिव्यक्ति की इजाज़त थी...शरीर इस लायक नहीं था कि हिले-डुले भी..और बोलने पर कभी माँ तो कभी डैडी टोक ही देते. </div>
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वह डैडी के पास खड़ा एकटक नज़रें जमाये था उसके चेहरे पर...एक स्निग्ध तरलता फैली थी चेहरे पर और इतनी मुखर आँखें ,उसने तो नहीं देखीं कभी. उसने भी फीकी सी मुस्कान सजा रखी थी होठों पर...लेकिन अपने एपियरेंस पर उसे बड़ी कोफ़्त हो रही थी...ये माथे पर बंधी बड़ी सी पट्टी...ना जाने, चेहरा कैसा लग रहा है...कितनी अजीब सी दिख रही होगी वो. </div>
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माँ-डैडी बार-बार अपनी कृतज्ञता प्रगट कर रहे थे और वो विनम्रता से दुहरा हुआ जा रहा था.."ऐसा कुछ ख़ास नहीं किया मैने...मेरी जगह कोई भी होता...तो यही करता...बस संयोग कहिए कि...मैं वहाँ तुरंत पहुँच गया.."</div>
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"वो सब ठीक है बेटा..पर जो भी करता हम तो उसके ही एहसानमंद हो जाते...अभी तो तुम्हारे ही हैं"</div>
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पता चला..पास ही उसका घर है...माँ से कह रहा था...कुछ भी जरूरत हो तो तुरंत बता दिया करें....माँ ने भी ने बार-बार कहा..."मिलते रहना बेटा...मेरी बेटी की जान तो तुमने ही बचाई है..इसे हम कभी नहीं भूलेंगे"</div>
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शायद डैडी और माँ की इन बातों से वो बहुत ही असहज महसूस कर रहा था...बार-बार कभी हाथ पीछे की तरफ बांधता...तो कभी बालों को हाथ लगाता...कभी इस पैर पर शरीर का वजन डालता... तो कभी उस पैर पर....और इन बातों से बचने को ही शायद बाहर जाने को उद्धत हो उठा..."अच्छा आंटी..चलता हूँ...किसी चीज़ की भी जरूरत हो...तो प्लीज़ संकोच मत कीजियेगा...बिलकुल दो कदम पर ही मेरा घर है. कल फिर आऊंगा..." और झुक कर माँ-डैडी को उसने हाथ जोड़ दिए. एक मुस्कान उसकी तरफ उछाला जिसे पलकें झपका कर उसने लपक लिया और वो दरवाजे से बाहर हो गया.</div>
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रितेश के जाने के थोड़ी ही देर बाद डा. समीर आ गए...हाँ! उस लाल शर्ट वाले का यही नाम था. छः फुट लम्बा कद...इकहरा शरीर..गूंजती सी आवाज़ और उस पर चेहरे पर धूप खिली मुस्कान. ओह! एक डॉक्टर का ऐसा व्यक्तित्व...तभी उसकी एक पुकार पर कई-कई नर्सें यूँ दौड़ी चली आती हैं....किन उपायों से बचता होगा...अरे ,बचना क्या...भरपूर जिंदगी जीता होगा....वो यही सब सोच रही थी और डा. समीर उसकी फ़ाइल पर नज़रें जमाये...नर्स से उसके हाल-चाल का ब्यौरा ले रहे थे. थोड़ी देर बाद फ़ाइल नर्स को थमा और उसे कुछ निर्देश दे ...डैडी की तरफ मुड़े ...डैडी से हाथ मिला कर अपना परिचय दिया..फिर माँ की तरफ देख मुस्कराए "आप ज्यादा चिंता ना करें...ज्यादातर तो सुपरफिशियल इन्जरीज़ ही हैं....पैर में थोड़ा स्प्रेन है...और माथे पर कुछ स्टिचेज़ लगाने पड़े हैं...इन्हें बुखार भी है...तो देखते हैं.,..कितनी जल्दी हम इन्हें छुट्टी दे सकते हैं..."</div>
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फिर उसकी तरफ मुड़े..." सो... हाउ आर यू फीलिंग नाउ ?"</div>
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अपने सूखे होठों पर जीभ फेरकर इतना ही कह पायी.."फाइन"..डर लगा...कुछ दर्द बताएगी..तो कहीं नर्स को कोई इंजेक्शन लगाने को ना कह दें.</div>
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"या..या....यू हैव टु बी.....हमारी हॉस्पिटल में जो हैं आप....बेस्ट इन द सीटी...." डा. समीर ने उसकी नब्ज़ देखी...आँखें देखी...जीभ दिखाने को कहा...वो यंत्रवत करती रही...और अंदर अंदर डरती भी रही....शायद उसका डर पढ़ लिया उन आँखों ने...और उसे सहज करने को...उसकी माँ की तरफ मुड़ कर पूछा..."किस क्लास में पढ़ती हैं ये"</div>
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"कॉलेज में है...बी-ए फाइनल का एग्जाम दिया है....आज लास्ट पेपर था"</div>
</span><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px;"><div>
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"क्याsssss " ....... नाटकीय सी मुद्रा अपनाई उन्होंने..."मुझे तो लगा..किसी प्राइमरी स्कूल में हैं...जिस तरह से सुबह जिद कर रही थीं...." माँ को बुलाओ..पानी नहीं पीना...ओह!! परेशान कर दिया था....और जरा सा पैर क्या मुडा हुआ था..'फ्रैक्चर..फ्रैक्चर...डा. मेरा पैर फ्रैक्चर हो गया है'..चिल्लाए जा रही थी"..ऐसे मुहँ बना कर कहा कि<br />
माँ-डैडी के होठों पर भी एक स्मित-रेखा खिंच गयी.</div>
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" फ्रैक्चर वाली बात कब कही मैने...??"..गुस्से में चिल्ला सी ही पड़ी....भूल गयी कि अभी इसी डा. से कितना डर रही थी वो.</div>
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"मैम यू डोंट नो...कितनी परेशानी हो रही थी, हमें ..आपको संभालने में....एक तो माँ के नाम की जिद...और दूसरे...आपका यूँ पैनिक होना...आधी बेहोशी में थीं आप....और फ्रैक्चर भी हो गया तो क्या...ठीक नहीं होता क्या वो"..हंस दिया वह.</div>
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"मुझे फ्रैक्चर नहीं चाहिए..."..उसने नाक फुला कर कहा.</div>
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"लाइक यू हैव च्योयास ..बट लकी यू आर....नहीं हुआ फ्रैक्चर... अब आराम कीजिए...ज्यादा एग्ज़र्शन ठीक नहीं....फिर नर्स की तरफ मुड़ कर कहा...मेक श्योर...ये जल्दी दवा लेकर सो जाएँ..."</div>
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माँ-डैडी को आँखों में ही,सर हिला कर 'ओके' कहा...और उस पर बिना एक नज़र डाले बाहर हो गया. </div>
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रुआंसी हो गयी वो..सच्ची सचमुच उसे बच्ची ही समझता है.</div>
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(क्रमशः )</div>
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rashmi ravijahttp://www.blogger.com/profile/04858127136023935113noreply@blogger.com20tag:blogger.com,1999:blog-6953374982088960088.post-3420025593440449222011-08-10T09:06:00.000-07:002011-08-10T09:06:44.367-07:00हाथों की लकीरों सी उलझी जिंदगी...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://2.bp.blogspot.com/-t_Z8YP4vvT4/TkKr-9FJmgI/AAAAAAAABs0/qGi7t_eW2vw/s1600/girl" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://2.bp.blogspot.com/-t_Z8YP4vvT4/TkKr-9FJmgI/AAAAAAAABs0/qGi7t_eW2vw/s1600/girl" /></a></div>
<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px;">उसकी दुकान नाव्या के कॉलेज के रास्ते में थी. एक दिन, वो केमिस्ट्री प्रैक्टिकल की किताब लेने पहुंची तो पाया ,अरे!! ये तो हुबहू उसके एक पसंदीदा कलाकार सा दिखता है. पर उसके विपरीत बेहद संजीदा. एक पुस्तक पर झुका था. नाव्या को देख भी उस शख्स का चेहरा निर्विकार सा ही रहा. अपने सहायक को पुस्तक निकालने के लिए कहकर, पुनः अपनी किताब पर झुक गया. नज़रें झुकाए-झुकाए ही पैसे लिए और बाकी पैसे काउंटर पर रख दिए. उसे कहीं झटका सा लगा. इस छोटे से शहर में उसकी 'होंडा सीटी' ही बहुत रुतबा जमा जाती थी और उस पर उसकी खूबसूरती की कोई अवहेलना कर सकता था,भला. इसके बाद भी जतन से संवारा गया सुरुचिपूर्ण रूप किसी की भी आँखों को झपकने में कुछ समय लगा ही देता था. प्रोफेसर्स तक एटेंडस लेते वक़्त एक नज़र उस पर जरूर डाल लेते. उसे भी उन सबकी इस आदत की खूब खबर थी...और वो 'येस सर' बोलते ही अदा से सर घुमा...खिड़की के बाहर देखने लगती या फिर झुक कर किसी सहेली से बातें करने लगती. किसी भी दुकान पर उसकी कार रुकती और दुकान वालों में हड़बोंग मच जाती...."ये देखिए मैडम बिलकुल आज ही आया है....आपके लिए ही रख छोड़ा था...किसी को दिखाया तक नहीं...बस आपके लिए ही है"</span><br />
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और ये मिटटी का माधो!!....निगाहें चुरा कर देखा..कौन सी किताब है ऐसी भला...जिसने उसकी निगाहें इस तरह चस्पां कर रखी हैं. जरूर कोई जासूसी नॉवेल होगा ...लेकिन पाया कि वो तो बिजनेस मैनेजमेंट की कोई बोरिंग सी किताब थी. तो फिर??...वो चौंकी..हुहँ तो ये बात है...उसे नज़रंदाज़ कर रहा है....ठीक है..देखती है वो भी...और हर चार दिन बाद उसके रैक में कोई नई किताब नज़र आने लगती ... एक सहूलियत यह भी थी कि उसकी दुकान में कोर्स बुक से अलग, दूसरी किताबें भी थीं. वैसे जब उसे कुछ नहीं सूझता तो डिक्शनरी ही खरीद कर ले आती. अब उसके जेब खर्च का बड़ा हिस्सा किताबों पर ही खर्च होने लगा...पर वो चिकना घड़ा...चिकना घड़ा ही बना रहा. वही किताबों पर झुकी, काली घुंघराली लम्बी पलकें...(सोचती किसी लड़की की ऐसी पलकें होतीं तो ना जाने कितने गीत लिख दिए होते किसी ने, उस पर ....और कितना समय लगाती वो उन्हें काजल की रेखाओं से संवारने में ) और ख़ुदा ना खास्ते कभी उसके हाथों में किताब नहीं होती तो सामने सड़क पर देखते हुए...गंभीरता से जबाब देता. वो जरा रौब से बोलती..."ये किताब नहीं है..?"</div>
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"नहीं..."...एक सपाट सा स्वर आता.</div>
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इधर उधर नज़रें घुमा खीझ भरे स्वर में बोलती..."अजीब बात है.....इतनी सारी किताबें हैं...पर जो मैं ढूंढ रही हूँ...वो नहीं है..."</div>
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उसकी इन बातों पर भी वह कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करता. जैसे उसका कोई सरोकार नहीं है,इन सबसे. भावहीन चेहरा लिए सामने देखता रहता. अपमानित सी ..बात संभालने को वो किसी और किताब का नाम पूछ बैठती....यदि वो किताब होती,..तो अपने सहायक को आवाज़ दे ,निकालने को कहता...या फिर वैसे ही सामने नज़रें जमाये कहता.,.."नहीं है"</div>
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कभी कभी दिनों तक नहीं जाती. सोचती...'देखती हूँ..इतने दिनों बाद जाने पर कोई भाव तो उसके चेहरे पर दिखने चाहिए. उल्लासित सी सीढियों पर अपनी पेन्सिल हील जोरों से खटखटाती .....चौंक कर देखेगा..तो आँखों में अनायास आए भाव जरूर पकड़ में आ जायेंगे. आहट सुन,चौंकता तो जरूर पर आँखें उसी गहरी उदासी में डूबी हुई सी लगतीं. ..जैसे इस दुनिया का वासी नहीं है,वह...उसे कोई सरोकार नहीं,अपने आस-पास से...सब कुछ एक असम्पृक्त भाव से देखता हुआ. लेकिन वह भी हार नहीं मानने वाली...उसे इस दुनिया में वापस लौटने को मजबूर करके रहेगी....हालांकि अब बुरी तरह ऊब चुकी थी वो..हर हफ्ते एक नई किताब लाती और जोर से पलंग पर पटक देती....मानो इन किताबों का ही कुसूर हो...इतने दिन उसके आस-पास रहकर भी उसे कुछ नहीं सिखा सके. मन ही मन खीझ उठती...' सोचता होगा...देखें कबतक आती है?....देखते रहो बच्चू .. चाहूँ..तो तुम्हारी सारी दुकान खरीद लूँ...समझते क्या हो...शाहर के सबसे अमीर लोगों में से एक हैं. डैडी....'</div>
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लेकिन ये अमीरी ही तो अभिशाप है उसके लिए...डैडी से तो खैर उनके व्यस्त समय का एक टुकड़ा पाने की चाह भी आकाशकुसुम सी है..पर माँ!!...अगर डैडी को दोनों हाथों से धन बटोरने का शौक था तो माँ को लुटाने का. जाने कितनी ही सामाजिक संस्थाओं की सदस्या या अध्यक्षा थीं माँ....हमेशा कोई ना कोई कार्यक्रम चलता रहता...आज नेत्र चिकित्सा का शिविर लगा है...तो कल बालिकाओं की शिक्षा सम्बन्धी...,माँ बढ़-चढ़ कर सबमे हिस्सा लेतीं...उसे कहीं अच्छा भी लगता...'माँ..सिर्फ साड़ियों-जेवरों और पार्टियों में ना उलझ कर अपने समय का सार्थक उपयोग कर रही हैं.' पर उसके हिस्से का समय भी इन सब कार्यक्रमों की भेंट चढ़ जाता ....ये कसक उसके मन में बनी रहती. </div>
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वह माता-पिता के बीच पेंडुलम सी डोलती रहती. डैडी के सामने कभी पड़ जाती तो डैडी पूछ बैठते..."कुछ चाहिए बेटे...पैसे हैं?? मैं...( कलकता,दिल्ली,बैंगलोर ) जा रहा हूँ...कुछ मंगवाना है वहाँ से.."</div>
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"नहीं डैडी...कुछ नहीं चाहिए..." वो मीठी सी मुस्कराहट के साथ कह देती...पर मन तिक्त हो जाता....ये नहीं कह पाती...'डैडी थोड़ा सा आपका समय चाहिए...आपके साथ अखबार की ख़बरें डिस्कस करनी है....कॉमेडी शो देखकर हँसना है....साथ में बगीचे में पानी देना है...सुबह की भीगी घास पर टहलते हुए..या छत पर ठंडी हवा के झोंको के साथ....आपसे, आपके स्कूल-कॉलेज..आपके बचपन...के किस्से सुनने हैं.." और ये सब सोचते रोष उमड़ आता...डैडी बस सोचते हैं..'रुपये दे दिया...उनकी जिम्मेवारी ख़तम....जी में आता जितने भी पैसे हैं पास में...दे मारे फर्श पर...क्या करेगी वो रुपयों का...बड़े शहर में होती तो शायद इनके सहारे ही कुछ झूठी हंसी-मुस्कुराहटें ही खरीदने की कोशिश करती...कितना कहा..'हॉस्टल में रहकर पढूंगी'..लेकिन नहीं..इकलौती लाडली बेटी को कैसे दूर रखेंगे भला...दूर??..क्या दूरी सिर्फ मीलों ..किलोमीटर में ही नापी जाती हैं....हज़ारों किलोमीटर दूर विदेश में बसे उसके दोस्त जितना करीब हैं उसके...एक ही छत के नीचे रहते ये परम स्नेहिल माता-पिता हैं??</div>
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माँ ...बगल के कमरे से जिनकी साँसें भी सुन सकती हैं...वो माँ ही कितने करीब हैं उसके? अनाथाश्रम में कितनी ही बिन माँ की बच्चियों के हर सुख-दुख का ख्याल रखती हैं...पर उनकी अपनी बेटी किस अकेलेपन से जूझती है..इसका ख्याल कभी आता है,उनके मन में? .......महीनो....जो घंटों-दिनों-हफ़्तों की शक्लों में खींचते चले जाते हैं...जब भी नज़र पड़े...माँ का एक ही सवाल होता....."खाना खाया"...चाहे दिन के तीन बज रहे हों या रात के ग्यारह...और वो मारे गुस्से के दो-दो दिन सिर्फ कड़वी कॉफी पर काट देती.</div>
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कभी-कभी बड़ी विह्वलता से सोचती...काश! उसके भी कोई भाई-बहन होता तो शायद इस घर में रहना उसके लिए आसान हो जाता. पर फिर सोचती...कितनी स्वार्थी है वह...उस बेचारे को भी तो यही सब भुगतना पड़ता.</div>
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कोई सच्ची दोस्त भी तो नहीं बनती उसकी.....कहने को तो ढेरों सहेलियाँ उसे घेरे रहती हैं...उसकी हर बात पे हंसी की लहरें मचल; पड़ती हैं. पर असलियत उसे पता है..सबके बीच उसकी सबसे अच्छी सहेली दिखाने की होड़ लगी होती है.. सब चापलूसी भरे स्वर में उसकी हाँ में हाँ मिलाती उसके आगे-पीछे घूमती रहती हैं. स्टेटस की बात छोड़ भी दें तो उसके मानसिक स्तर तक भी पहुंचन सबके लिए मुमकिन नहीं....अधिकांश लडकियाँ पढ़ाई को टाईमपास की तरह लेतीं....किसी ऊँचे ओहदे पर कार्यरत लड़के को पाने के लिए एक डिग्री लेने की चाह में थी, उनकी ये पढ़ाई. कुछ पढ़ाई में गंभीरता से रूचि लेने वाली थीं भीं तो वे बस किताबी कीड़ा ही थीं. उन्हें बाहर की दुनिया की कोई खबर नहीं होती . जबकि उसे दुनिया की हर गतिविधि में रूचि थी...और ऐसे में बड़ी शिद्दत से याद आती कृतिका...बस इंटर में ही उसका साथ था. दो साल के लिए उसके पिता का ट्रांसफर इसी शहर में हुआ था. कृतिका बिलकुल उस जैसी थी...किताबें पढना...गज़लें सुनना..फिल्मे देखना...और पढ़ाई भी करना...कृतिका के साथ ने ही उसे उसकी अपनी हंसी से परिचय कराया...उसे पता ही नहीं था..इतना खुलकर हंस सकती है वो. </div>
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उसकी निर्झर सी हंसी देख कृतिका....छेड़ जाती..."बस औरों के सामने ना हँसना यूँ...चारो तरफ से छन-छन की आवाजें आने लगेंगी.."</div>
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वो अबूझ सी भृकुटी चढ़ा पूछती ,तो कृतिका कह उठती...'दिलों के टूटने की आवाज़ स्टुपिड.."</div>
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'हह..दिल होते हैं आजकल लोगो के पास...जो टूटें.."</div>
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"समय आने पर पता चलेगा..मैम..और तब पूछूंगी.."</div>
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कृतिका के साथ समय पंख लगा कर उड़ जाता..पर पता नहीं था...उन पंखों की गति इतनी तेज़ थी कि वो उनके साथ के समय को ही उड़ा कर ले जाएगा. कृतिका चली गयी....कुछ दिनों तक..फोन...इंटरनेट के सहारे दोस्ती बनी रही...पर समय के साथ कृतिका को नए दोस्त मिल गए....उसका उत्साह वैसा ही बना रहता..पर कृतिका की ओर से ठंढेपन का अहसास होता और सारे तार तोड़ लिए उसने...नहीं चाहिए किसी की हमदर्दी भरी दोस्ती....उसके पास अकेलापन है....लेकिन है तो है...वो जबरदस्ती तो किसी को बाँध कर नहीं रख सकती. वह बराबर जमीन पर ही मिलना चाहती है ,किसी से....ना चाहती है कि एक सीढ़ी भी नीची रहे...ना ही एक सीढ़ी ऊपर रहने की ही कोई ख्वाईश है. </div>
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जाने क्यूँ ,आज बड़ी तीव्रता से याद आ रहा था, सब कुछ....गले के नीचे कुछ चिपचिपाहट सी लगी. सर उठा कर तकिये पर हाथ फेरा....ओह!! ना जाने कब से आँसू बह-बह कर तकिया गिला कर रहे थे.</div>
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झटके से उठी और सीधा शॉवर के नीचे जाकर खड़ी हो गयी. देर तक ठंढे पानी कि बौछारें पड़ती रहीं...तब दिमाग कुछ सोचने समझने लायक हुआ...ओह! तो अब घुटन इतनी बढ़ गयी है कि ये आँसू हमराह हो गए हैं,अब उसके. अब तक ..गाहे-बगाहे..ऐसे ख्याल आते तो रहे हैं पर एक अनाम गुस्सा ही पलता रहता भीतर. जी में आता...सब तोड़-फोड़ डाले...तहस नहस कर दे...वे किताबें...वो फूल दान...वो सी डी...पर इस तरह असहाय होकर कभी रोई तो नहीं. फिर आज क्यूँ...क्यूँ आखिर....कहीं उस किताबवाले की बेरुखी ने तो असर नहीं कर डाला...और सर झटक डाला,उसने...'नॉनसेंस..इट्स औल रब्बिश......ही कैन गो टू हेल...उसकी परवाह करेगी वो??..उस जैसे छोटे आदमी की??... उसे बहुत शान है क्या....कि सबसे बड़ी दुकान उसकी ही है, इस शहर में.....और उस पर 'एच .पी. शाही'. जैसी नामी गिरामी हस्ती की बेटी यूँ दौड़ दौड़ कर आती है. हुंह! माइ फुट!..अब एक बार भी नहीं जायेगी...बहुत जरूरी हुआ तो किसी फ्रेंड के मार्फ़त मंगवा लेगी...ना हो..ड्राइवर से मंगवा लेगी, पर पैर नहीं रखेगी उसकी दुकान पर.</div>
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चैटर्जी सर ने ऑर्गेनिक केमिस्ट्री में टी. शर्मा की किताब लेने को कहा...उस दुकान के सामने पहुंचते ही...वो यंत्रवत ड्राइवर से बोल उठी...." यहाँ रोकना जरा..." </div>
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दरवाजे के हैंडल पर हाथ रखा ही था कि याद आया..."उसे तो नहीं जाना ना.."</div>
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हाथ हटा लिया..."ना ड्राइवर से ही मंगवा लेती है"</div>
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लेकिन ड्राइवर क्या जानने गया..."ऑर्गेनिक या फिजिकल केमिस्ट्री..कहीं उसे बेवकूफ बनाने को दूसरी पुस्तक पकड़ा दी तो?...गाड़ी तो पहचान ही गया होगा...और एक ही झटके से गाड़ी से उतर कर जोर से दरवाज़ा बंद कर दिया...." हुंह ! वो क्यूँ परवाह करे किसी की ..."</div>
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और खटाखट सीढियां चढ़, हाथ बांधे, चेहरे पर अतिव्यस्तता का मुखौटा लगाए, पूरी गंभीरता से बोली..."टी शर्मा की ऑर्गेनिक केमिस्ट्री है क्या?"</div>
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वह किताबों के बीच कुछ ढूंढ रहा था....हलके से चौंक कर मुडा...पल-भर को निगाहें मिलीं....ओफ्फ़!! किस कदर उदास हैं ये आँखें....ये बस जन्म से ऐसी ही हैं...या इनके पीछे कोई कहानी छुपी हुई है. किसका सीना ना चाक कर दे ..उदासी के गह्वर में डूबी ये आँखें..चेहरे पर बच्चों सी मासूमियत...और आँखें ऐसीं जैसे ना जाने कितने वसंत देख चुकी हों ...और आज तक बस खोया ही खोया हो. उसकी तनी हुई नसें थोड़ी ढीली पड़ने लगीं कि ख्याल आया उसे तो नाराज़गी दिखानी है...फिर से अकड़ कर सीधी खड़ी हो गयी.</div>
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वह कुछ क्षणों तक होठों को तर्जनी से थपथपाता रहा, फिर बड़ी नम्रता से बोला...."आsssप एक मिनट ठहरें....मैं बगल से मंगवा दे रहा हूँ. "अरे ये क्या सचमुच टेलीपैथी का कोई अस्तित्व है?....इसे कैसे खबर हो गयी...उसके मूड की...आज तक तो कभी इतनी रियायत नज़र नहीं आई. 'नहीं' शब्द छोड़कर आज तक दूसरा सुना ही नहीं...और आज तो ये पूरा वाक्य बोल गया. अगर किताब होती तो उसे से नहीं..दुकान में काम करने वाले लड़कों से कहता....निकाल कर देने को...और नहीं होती तो सिर्फ एक 'सपाट' नहीं .</div>
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उसके चेहरे की कठोरता कम पड़ने लगी लेकिन उसने जल्दी से फिर से वही सख्त भाव ओढ़ लिए और कड़क कर पूछा, "देर लगेगी?"</div>
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"नहीं..नहीं.." उसने फिर बड़ी नम्रता से सर हिलाकर कहा..जैसे किसी दूसरे जहां से बोल रहा हो..." बिलकुल पास ही है...रामेश्वर देखना तो चौधरी बुक डिपो में हो शायद....थी मेरे पास भी..पर ख़त्म हो गयी..." वैसे ही होठों को तर्जनी से थपथपाता अपनी जगह खड़ा रहा...ना तो उसने कोई किताब उठायी ना ही खुद को कहीं और व्यस्त किया.</div>
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उसका सारा तनाव ढीला पड़ गया....हल्का सा दीवार का सहारा लिए पीठ टिका दी....हाथ...सामने कौर्निस पर रखा और तुरंत ही समेट लिए..क्या पता...सोचे अपने लम्बे-लम्बे पेंटेड नाखून दिखा रही है..."</div>
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(क्रमशः) </div>
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rashmi ravijahttp://www.blogger.com/profile/04858127136023935113noreply@blogger.com25tag:blogger.com,1999:blog-6953374982088960088.post-87627362576369416002011-04-10T11:16:00.000-07:002011-04-10T22:57:51.821-07:00आखिर कब तक ??<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-vlelRZeH77E/TaHzXAjlkFI/AAAAAAAABhk/sGexZPZGX2M/s1600/bb.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><br />
</a></div><b><span style="color: black;">{सबसे पहले तो क्षमाप्राथी हूँ ,पाठकों...बहुत दिनों बाद कोई कहानी लिखी है...जबकि महीनो पहले खुद से और आप सबसे, एक लम्बी कहानी लिखने का वायदा भी किया था...कहानी रोज ही दस्तक देती है...पर दूसरे ब्लॉग ने कुछ इतना व्यस्त कर रखा है...कि लिख ही नहीं पा रही. वो तो भला हो आकाशवाणी वालों का कि तकाज़ा कर के कहानी लिखवा ही लेते हैं और unedited version जो पहले पन्नो में ही दबी रह जाती थी..अब यहाँ पोस्ट कर सकती हूँ....अग्रिम शुक्रिया, सबका :) }</span></b><br />
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<a href="http://4.bp.blogspot.com/-vlelRZeH77E/TaHzXAjlkFI/AAAAAAAABhk/sGexZPZGX2M/s1600/bb.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="200" src="http://4.bp.blogspot.com/-vlelRZeH77E/TaHzXAjlkFI/AAAAAAAABhk/sGexZPZGX2M/s200/bb.jpg" width="166" /></a>वह घर में सबसे छोटी थी...तितली की तरह सबके आस-पास मंडराती हुई...चिड़िया की तरह फुदक कर कभी घर के अंदर आती तो कभी बाहर. घर वालों की ही नहीं...पड़ोसियों की भी प्यारी. उसके कॉलेज से घर आते ही शर्मा चाची अक्सर कभी गरम हलवे , कभी गरम पोहे की प्लेट भेज देतीं. जब पूछती, "आपको कैसे पता चल जाता है....मैं घर आ गयी??"...<br />
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"अरे तेरे पंचम सुर के आलाप से पता चल जाता है...जितनी देर घर में तू होती है...तेरे गाने की मीठी आवाज़ आती रहती है."<br />
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"एक दिन धोबी भी आ जायेगा ...अपने गधों को ढूंढते हुए "....ये उस से दो साल बड़े भाई की आवाज़ थी.<br />
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"भैया sss." कह कर झपटी तो उसकी चोटी आ गयी भैया के हाथो में...."बोल और झपटेगी ..कटखनी बिल्ली...."वह उसकी चोटी थोड़ी और खींचता और वो चिल्ला पड़ती.."माँ sss "<br />
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माँ की आवाज़ सुनते ही भैया चोटी छोड़...किताब में आँखे गड़ा लेता....शर्मा चाची के बच्चे बड़े थे और नौकरी पर दूसरे शहर चले गए थे...उन्हें उन सबकी ये शरारत बड़ी अच्छी लगती...माँ दोनों को डाँटती तो शर्मा चाची ,उन्हें समझातीं..."जाने दो..शिवानी की माँ रौनक बनी रहती है..एक दिन मेरे जैसे तरसोगी कि लड़ने को ही सही बच्चे पास तो होते"....और वो भैया को जीभ चिढ़ा कर भागती तो भैया फिर से किताबे फेंक उसके पीछे भागता....माँ सर पे हाथ रख लेतीं..."ओह!! कोई किसी से कम नहीं "<br />
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भैया हमेशा चिढ़ता-खिझाता रहता पर उसे कॉलेज के लिए देर होती तो बाइक से झट कॉलेज छोड़ आता. रात में उसके साथ बैठकर उसे मैथ्स समझाता. अगर भैया की पेन उसके हाथों गुम हो गयी तो पापा जी से शिकायत कर देता. पापा की यूँ तो वो सबसे लाडली थी पर न्याय करने के लिए पापा उसे झूठ-मूठ का भी डांट देते तो भैया को ही बुरा लग जाता , फिर उसके लिए चॉकलेट जरूर लेकर आता.<br />
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दीदी तो जैसे उसकी फ्रेंड-फिलौस्फार-गाइड ही थी...बचपन से उसके किताबो पर कवर लगा देना...उसकी किताबों की रैक ठीक कर देना ....अपने दुपट्टे से ,उसकी गुड़िया की सुन्दर साड़ी बना देना . होमवर्क में मदद करना. उसकी शैतानियों को हमेशा छुपाना...दीदी ये सारा कुछ उसके लिए करती. सहेली से लड़ाई हो जाए तो आँसू भी दीदी ही पोछती. <br />
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बुआ जब भी यहाँ आती...माँ को समझाती..."भाभी इसे भी कुछ रसोई का काम सिखाओ कल को पराये घर जाएगी...क्या कहेंगे सब...कि घर वालों ने कुछ सिखाया ही नहीं है. खानदान का नाम कटवा देगी,लड़की"<br />
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माँ, बुआ की बात रखने को उसे किचन में भेज देती...और दीदी को आवाज़ लगाती " शिवानी! आज सारा काम गुड़िया से ही करवाना " <br />
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उसका अच्छा भला नाम था स्नेहा, पर सब गुड़िया ही कहते...जब दोस्त उसे चिढाते तो उसे बहुत गुस्सा आता पर घर वालों को कौन समझाये...कॉलेज में पढनेवाली लड़की को भी गुड़िया ही बुलाते. वो किचन में जाती तो जरूर पर दरवाजे की ओट में नॉवेल पढ़ती रहती और दीदी भी मुस्कुरा कर कुछ नहीं कहती...बल्कि माँ की आहट सुनते ही उसे आगाह कर देती और वो झूठ-मूठ बर्तन उठाने-रखने लगती. माँ को कुछ दाल में काला नज़र आता ,वो उसे अविश्वास से देखती तो वो पलट कर पूछती.."क्या हुआ.....तुमने कहा ना...किचन में काम करो..तो कर रही हूँ....कल क्लास टेस्ट है...इतना पढना है पर जाने दो, कम नंबर आए तो क्या....किचन का काम सीखना ज्यादा जरूरी है...आखिर खानदान की नाक का सवाल है "<br />
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माँ कहती.."अच्छा बाबा जा....बहुत काम कर लिया...जा तू पढ़ ,मैं शिवानी का हाथ बटाती हूँ " <br />
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वो चुपके से नॉवेल उठा...दीदी की तरफ एक मुस्कराहट फेंक भाग जाती .<br />
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दीदी की शादी हो गयी तो जैसे उसपर प्यार न्योछावर करनेवाले एक और जन की बढ़ोत्तरी हो गयी. जीजाजी की कोई छोटी बहन नहीं थी...वे अपनी छोटी बहन का सारा शौक उसके जरिये ही पूरी करते. अब कॉलेज में सहेलियाँ, उसका नया बैग....नई सैंडल....नई ड्रेस सब हैरानी से देखतीं और वो इतरा कर कहती.."मेरे जीजाजी लाए हैं...बम्बई से "<br />
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***<br />
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अभी बी.ए. पास किया कि बुआ एक रिश्ता ले आयीं...."बड़े अच्छे लोग हैं...लड़का अफसर है....ज्यादा मांग नहीं उनकी...बस देखे-भाले घर की लड़की चाहते हैं...मुझसे बरसों का परिचय है. मैने गुड़िया की बात चलाई तो झट मान गए "<br />
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पिता जी को लगता था...अभी बहुत छोटी है...भैया उसे और आगे पढ़ने देने और किसी नौकरी के बाद ही, शादी के पक्ष में था...पर बुआ, पिताजी से बड़ी थीं...माँ की तरह पाला था...पिताजी की एक ना चली ,उनके सामने . <br />
दीदी की तो शादी होते ही जैसे यह घर पराया हो गया था...यहाँ के मामलो में वह मुहँ नहीं खोलती...उसने जब थोड़ा डरते हुए हुए दीदी को फोन किया <br />
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" दीदी वहाँ, सबसे बड़ी हो जाउंगी मैं...कैसे सम्भालूंगी...??"<br />
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"संभालना क्या है...कोई छोटे बच्चे थोड़े ही हैं वे सब....अच्छा साथ रहेगा....खुश रहेगी तू...यहाँ पर देख तेरे जीजाजी ऑफिस चले जाते हैं..तो सारा दिन मैं अकेले पड़ी रहती हूँ...ज्वाइंट फॅमिली में समय अच्छा कट जाता है "<br />
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दीदी के समझाने पर उसके मन का डर भी जाता रहा. कहीं ये भी लग रहा था...क्या रौब होगी..बड़ी भाभी बनेगी वह ..यहाँ तो सबसे छोटा समझ सब बस लाड़-प्यार ही लुटाते हैं...कोई गंभीरता से लेता ही नहीं. <br />
<span style="color: black;"> पर ससुराल वालों की गंभीरता का अंदाजा उसे एंगेजमेंट से ही होने लगा. पास में बैठे अजनबी ने जैसे बस एक उचटती नज़र डाली उस पर. वरना कई कजिन्स को देख चुकी थी...लड़के जैसे बात करने के बहाने ही ढूंढते रहते.<br />
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शादी के रस्मो में भी होने वाले पति को गंभीर मुखमुद्रा में ही देखा. सहेलियों को ज्यादा मजाक करने की हिम्मत भी नहीं हुई.<br />
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माँ ने समझाया था...ससुराल में जल्दी से उठ कर चाय बना देना....यहाँ की तरह आठ बजे तक मत सोती रहना. उसे भी दिखाना था...वह अपने घर की छोटी-लाडली है तो क्या जिम्मेवारियाँ संभालना खूब आता है,उसे. सुबह ही उठ, नहा-धो किचन में पहुँच गयी. चाय बना कर ट्रे लेकर निकल ही रही थी कि सासू माँ ने टोक दिया..."बहू पल्ला रखो सर पर "<br />
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अब थोड़ी देर वो इसी में उलझी रही..पल्लू रख जैसे ही ट्रे थामे, पल्लू गिर जाए. फिर से पल्लू संभाले...सासू माँ गौर से ये सब देखती रहीं पर कहा नहीं कि 'रहने दो'...आखिरकार उसने पल्लू ठुड्डी से दबाया और किसी तरह, आगे बढ़ी तो लगे कि साड़ी अभी पाँव में उलझ जायेगी और वो गिर जाएगी...किसी तरह मैनेज किया. ससुर जी के सामने ट्रे रखी...सोचा ससुर जी खुश हो जाएंगे...और दो घड़ी पास बैठा बातें करेंगे ...पर उन्होंने अखबार हटा कर एक बार देखा और फिर अखबार में नज़रें गड़ा लीं....जब उसने बड़ी नम्रता से पूछा, "चीनी कितनी चम्मच?" सपाट स्वर में उत्तर मिला.."एक चम्मच "<br />
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वह निराश सी बाहर चली आई. फिर भी, कोशिश नहीं छोड़ी....खाने के समय पास खड़ी रहती..पूछती रहती ..."और सब्जी दूँ...रायता दूँ..".कोई ना कोई बात शुरू कर देती..आज गर्मी बहुत है...आपको ऑफिस से आते वक्त ज्यादा ट्रैफिक तो नहीं मिला....एक दिन ससुर जी ने रूखे स्वर में कह दिया..."जो चाहिए कह दूंगा...प्लीज़ डोंट डिस्टर्ब..." शायद ससुर जी को अपने रूटीन में बदलाव पसंद ना था. वे घर में किसी से भी बहुत कम बातें किया करते थे.<br />
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ससुर जी की ही आदत उनके बड़े बेटे को भी थी....घर में सिर्फ खाने-कपड़े से ही मतलब था....दोनों बाप-बेटे टी.वी. पर समाचार देखते और जैसे ही सासू जी के सीरियल देखने का वक्त होता....दोनों उठकर अपने-अपने कमरे में चले जाते. वह असमंजस में पड़ जाती..पति के साथ,कमरे में बैठे या सासू माँ के साथ सीरियल देखे. पति तो अपने लैप टॉप पर दफ्तर का कोई काम लिए बैठे होते...वह कमरे...ड्राइंग रूम और किचन का चक्कर लगाती रहती.<br />
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शादी से पहले ,इतनी खुश थी....हमउम्र देवर और ननदें हैं...बढ़िया वक्त कटेगा....उसने सोचा ननद की कोई बहन नहीं वो सार प्यार उंडेल देगी...पर ननद कॉलेज से सीधी अपने कमरे में जाती और सेल फोन से चिपक जाती. एकाध बार उसने जबदस्ती कमरे में जा बात करने की कोशिश भी की ..तो ननद ने बड़े अनमने भाव से उत्तर दिया....और वो पलट कर दरवाजे तक भी नहीं पहुंची थी कि ननद पीठ फेरे...किसी को फोन पे कह रही थी..."अरे भाभी थीं...कॉलेज से आओ नहीं कि बहाने से आ जाती हैं कमरे में....इत्मीनान से फोन पे बात भी ना कर सको..."<br />
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उसने ननद से दोस्ती बढाने की कोशिश छोड़ ही दी...उसे लगा था, देवर हमेशा भाभियों के प्यारे होते हैं...एक दिन देवर अपने दोस्त के साथ सिनेमा देखने गए थे. सास और पति के मना करने के बावजूद वो उसका इंतज़ार करती रही...ड्राइंग रूम में चैनल बदल कर समय काटती रही...देवर ने अपनी चाबी से दरवाज़ा खोला...और उसे ड्राइंगरूम में देख एक मिनट के लिए हेडफोन निकाला और पूछा..."अरे भाभी नींद नहीं आ रही आपको...या भैया से लड़ाई हो गयी...हाँ " और फिर से हेडफोन कान में लगाए गाने पर झूमता सर हिलाता अपने कमरे में चला गया.<br />
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उसने ही कमरे के दरवाजे पर जाकर पूछा, "खाना गरम करती हूँ....जल्दी से हाथ मुहँ धोकर आ जाइए..."<br />
"ओह! क्या भाभी....आप कितनी ओल्ड फैशंड हैं....मुझे खाना होगा...तो माइक्रोवेव में गरम कर लूँगा..वैसे अक्सर मैं खाना खा कर ही आता हूँ...गुड़ नाईट भाभी एंड थैंक्स फॉर आस्किंग .."..कह कर वापस हेडफोन लगा...झूमना शुरू कर दिया.<br />
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इस घर का रंग-ढंग अलग सा था...सब एक छत के नीचे रहते थे...पर सबकी दुनिया अलग थी...वो सबकी दुनिया में कदम रखने की कोशिश करती...पर दरवाज़ा बंद पाती...और फिर बंद दरवाजे से टकरा बार-बार उसका मन लहु-लुहान हो जाता. <br />
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पति को घूमने -फिरने का शौक नहीं था...उनका देखा-जाना अपना शहर था...कोई उत्साह नहीं रहता ,कहीं जाने का. शुरू-शुरू में वो ही जिद कर बाहर जाने पर मजबूर करती. पति बड़े बेमन से, गंभीर चेहरा बनाए साथ हो लेते ....पर हर जगह कोई ना कोई परिचित मिल जाता और फिर तो पति की मुखमुद्रा बिलकुल बदल जाती..इतने गर्मजोशी से मिलते और बातों का वो सिलसिला शुरू होता कि उसकी उपस्थिति ही भूल जाते. धीरे-धीरे बाहर घूमने जाने का उसका सारा उत्साह ठंढा पड़ गया. <br />
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बस एक सहारा दीदी और सहेलियों के फोन का रहता..फोन पर बात करते वो अपने आस-पास का पूरा परिवेश भूल, जाती..लगता वही कॉलेज का लॉन है या फिर घर की छत. ऐसे ही एक दिन देर तक बातें की थी दीदी से...दीदी ने उन्हें बम्बई बुलाया था और पतिदेव ने भी हामी भर दी थी...मन इतना खुश-खुश था...बाथरूम में देर तक गुनगुनाते हुए नहाती रही....बाहर निकली तब भी गीले बालों को झटकते गाना जारी रहा....कुछ देर बाद जब लम्बे बाल पीछे की तरफ फेंक सामने देखा तो दरवाजे पर खड़े पति गौर से देख रहे थे. एक सल्लज मुस्कान फ़ैल गयी उसके चहरे पर...ये ध्यान भी आया, यहाँ आकर तो वह गाना ही भूल गयी है...पति ने पहली बार उसका गाना सुना है...शायद अभी आकर बाहों में भर लेंगे और कहेंगे, "कितनी मीठी आवाज़ है तुम्हारी...हरदम क्यूँ नहीं गाती?" .इंतज़ार में जैसे साँसे भी रुक गयी थीं...पर कोई आहट नहीं हुई..नज़रें उठा कर देखा तो पति अखबार उठा कुर्सी की तरफ जा रहे थे...उसे अपनी तरफ देखता पाकर बोले..."इतनी जोर से गा रही हो...बगल के कमरे में ही माँ- पापा हैं ...कुछ तो सोचा करो..." और अखबार फैला लिया सामने. मन तो हुआ, वो भी पैर पटकती हुई बाहर चली जाए. पर फिर सोचा..आज इतवार है और दिन बस शुरू ही हुआ है..सारा दिन अबोला रह जाएगा. किसी तरह आँसू ज़ज्ब करते हुए , स्वर को सामान्य बनाते हुए , पूछा..."दीदी ने बुलाया है....आपने भी हाँ कहा..कब चलेंगे ?"<br />
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"छुट्टी कहाँ है??...इतना काम है दफ्तर में...कैसे जा सकता हूँ??...अब वो , हाँ तो कहना ही पड़ता है...बाद में कोई बहाना बना देंगे " और कहते अखबार में डूब गए.<br />
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वो जैसे आसमान से गिरी....कितनी खुश थी वह... कितनी ही योजनायें बना डालीं . अब अपने आँसू रोकना मुश्किल हो गया. किचन में जाकर ढेर सारे प्याज काट डाले. सास ने आश्चर्य से पूछा..."इतने सारे प्याज??"<br />
ऑंखें नाक पोंछते हुए इतना ही कहा..."हाँ, आज सोचा आलू दोप्याज़ा बना दूँ "<br />
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उसने तय कर लिया, अगर घर वालों की अपनी दुनिया है तो वो भी अपनी अलग दुनिया बसा लेगी और खुश रहेगी,उसमे. और खाली वक्त में अखबारों के कॉलम देखने लगी..या तो नौकरी करेगी या फिर कोई बढ़िया सा कोर्स. अभी यह तलाश जारी ही थी कि माँ बनने की खुशखबरी मिली. लगा अब घर का माहौल बदल जाएगा.</span><span style="color: black;"> नन्हे बेटे की किलकारी ने घर में रौनक तो ला दी. </span><span style="color: black;">पर उसकी दिनचर्या में ज्यादा बदलाव नहीं आया , बल्कि नई जिम्मेवारियाँ और शुमार हो गयीं. बेटे को तो सब खूब खिलाते...सार दिन घर का कोई ना कोई सदस्य गोद में उठाये फिरता. पर काम सारा उसके जिम्मे था..."स्नेहा जरा,इसके कपड़े बदल दो " दूध का टाइम हो गया है..दूध पिला दो."..."लगता है नींद आ रही है..सुला दो.." वो नींद में ही उसके पास आता. कभी-कभी उसे लगने लगता कहीं बड़ा होकर ये ना सोचे माँ सिर्फ काम के लिए ही होती है..और बाकी सबलोग साथ खेलने को.<br />
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मितभाषी पति भी बेटे के साथ खूब खेलते....एक दिन प्रैम खरीद कर ले आए ,वो बहुत खुश हुई...अब </span><span style="color: black;">प्रैम</span><span style="color: black;"> में बेटे को लिटा..दोनों पति-पत्नी पार्क में उसे घुमाने के लिए ले जाया करेंगे. लेकिन दूसरे दिन ही पति ने ऑफिस से आते ही जल्दी से कपड़े बदले...और बोले...'इसे तैयार कर दो..जरा मैं घुमा कर ले आता हूँ " <br />
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<span style="color: black;">वो मन मसोस कर रह गयी. 'हाँ..उसे तो किचन देखना है...वो कैसे जा सकती है??' <br />
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जब देवर की भी शादी तय हो गयी तो सबसे ज्यादा ख़ुशी उसे ही हुई ...एक सहेली मिल जाएगी उसे...वो भी तो दूसरे घर से आएगी...यहाँ के तौर-तरीके से अनभिग्य . तय कर लिया ,उसे वो कभी अकेलापन नहीं महसूस होने देगी. <br />
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पर उसने पाया ...देवरानी ने तो कोई कोशिश ही नहीं की इस घर में घुलने-मिलने की. पहले दिन ही <br />
इतनी देर तक सोती रही कि सासू जी को ननद को भेजना पड़ा,उसे जगाने . और जब उसे नहा धोकर नाश्ते के लिए बाहर आने के लिए कहा गया तो कह दिया..."अभी तो तैयार होने में बहुत समय लगेगा...दोनों जन का नाश्ता कमरे में ही भिजवा दी जाए." ननद पैर पटकती हुई अपने कमरे में चली गयी...."मेरे हाथों भेजने की सोचना भी मत "<br />
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सासू जी ने असहाय हो उसकी तरफ देखा तो वो भाग कर कामवाली को बुला लाई...शुक्र है, उसने उसे अतिरिक्त पैसे का वायदा कर दिन भर के लिए रोक लिया था......वरना उसे ही सेवा में हाज़िर होना पड़ता.<br />
देवरानी ने बाद में भी कभी जल्दी उठने की कोशिश नहीं की..बल्कि उसे ही कहती.."आप कैसे इतनी जल्दी उठ जाती हैं....मेरी तो आँख ही नहीं खुलती" क्या बताये वो...'मायके में वो भी देर तक सोया करती थी."<br />
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देवर के ऑफिस जाने के बाद ही वो नहा धोकर बाहर आती....सासू माँ को कुछ टोकने का मौका ही नहीं मिलता और तब तक किचन का सारा काम सिमट गया होता. थोड़ी देर इधर-उधर घूम फिर अपने कमरे मे चली जाती. अपने कपड़े -जेवर -चूड़ियाँ सम्हालती रहती. कमरे को सजाती रहती. सास-ननदें भी तारीफ़ करतीं. 'कितने सुंदर ढंग से सजा कर अपना कमरा रखती है'<br />
वो इशारा समझ जाती...पर कह नहीं पाती कि 'मैं तो सारा घर ही संभालती रहती थी...अपने कमरे की बारी ही नहीं आती '<br />
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देवरानी दिन में सो जाती और सोकर उठते ही तैयार होना शुरू कर देती. देवर ऑफिस से आ बमुश्किल चाय पीते और पत्नीश्री को लेकर घूमने निकल जाते. सास भी स्नेह से निहारते हुए कहतीं, "एकदम राम-सीता सी जोड़ी है...दोनों के ही एक से शौक, निलय घूमने-फिरने का शौक़ीन....बहू भी वैसी ही मिली है....निशांत तो अपना भोले राम है...उसे कभी भी घूमने -फिरने का शौक नहीं रहा " <br />
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उनके शौक ना होने की वजह से वो कितना घुटती रही...इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता.<br />
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देवरानी किसी दिन घूमने नहीं जाती और किचन में आ कभी सब्जी बना देती तो पूरे घर में शोर हो जाता...खाने की टेबल पर सासू जी इंगित करतीं.."आज तो सब्जी ,छोटी बहू ने बनाई है...." और हमेशा मौन रहकर खाना खाने वाले ससुर जी...भी बोल पड़ते, "अच्छाss थोड़ी और दो...बहुत बढ़िया बनी है..." पतिदेव को लगता ,उन्हें भी हाँ में हाँ मिलानी चाहिए...वे भी स्वाद लेते हुए बोलते..."सचमुच बहुत बढ़िया बनी है..." देवर इस प्रशंसा पर ऐसे फूलते, जैसे उनकी ही तारीफ़ हो रही हो.<br />
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आज वो बेटे को थपकते-थपकते खुद भी लेट गयी थी...पर नींद आँखों से कोसों दूर थी...शारीरिक थकान से ज्यादा मानसिक थकान थी, शायद. वह अपने दिन याद कर रही थी,जब नई-नई इस घर में आई थी...सबके आस-पास मंडराती रहती पर कोई नोटिस भी नहीं लेता बल्कि अक्सर उपेक्षा ही झेलनी पड़ती और आज यही देवरानी....अपने कमरे में ही बनी रहती है...तो पति -ससुर सब पूछ लेते हैं....'अंकिता नहीं दिख रही...उसकी तबियत तो ठीक है...?" <br />
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उस से तो किसी ने नहीं पूछा, कभी...पर उसने कभी मौका ही नहीं दिया...बुखार में भी गोलियाँ ले कर काम में लगी रहती. क्या ये ठीक किया ?? <br />
मायके में किसी ने उसे कभी सामने बिठा कर नहीं समझाया पर उम्र की सीढियां पार करते हुए, कहानियों में, धर्मग्रंथों में पढ़कर.....फिल्मो में देखकर..अपनी दादी-नानी-बुआ-मौसी-माँ को देखकर यह अहसास अपने आप मन में घर करता गया कि लड़की को त्याग करना चाहिए...अपनी इच्छा के ऊपर दूसरों की इच्छा सर्वोपरि रखनी चाहिए...सबको खुश रखना चाहिए...सारा दुख हँसते-हँसते सह जाना चाहिए....ससुराल के नियम-कायदे बिना ना-नुकुर के अपना लेने चाहिए. और उसने इन सबमे कुछ ज्यादा ही बहादुरी दिखाई...खुद आगे बढ़कर सारे काम अपने ऊपर ले लिए...और अब दो साल में तो ससुर जी की दवाई....सासू जी की धूप -अगरबत्ती...ननद का डियो...देवर की जींस...पति की तो कोई भी चीज़ अगर ना मिले तो सब एक ही पुकार लगाते हैं....और वो भी दौड़-दौड़ कर सबकी जरूरतें पूरी करती रहती है.<br />
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पर इन सबमे उसकी स्थिति उस अदृश्य हवा की तरह हो गयी ...जिसके बिना कोई जी नहीं सकता...सबको उसकी जरूरत है. पर हवा दिखाई नहीं देती... हवा के लिए कुछ करने की जरूरत नहीं महसूस होती.....उसका ख्याल रखने की जरूरत नहीं पड़ती...ना ही उसकी अहमियत समझ में आती है. क्यूंकि वो तो हमेशा अपने आस-पास बनी हुई है.<br />
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खुद को मिटा कर वह इस घर में इस तरह घुल-मिल गयी है कि उसका कोई अस्तित्व ही नहीं बचा....आज जब अंकिता अलग-थलग बनी हुई है तो सब उसका अस्तित्व महसूस तो कर रहे हैं. क्या जग की यही रीत है??...सामने झुके लोगों की ही उपेक्षा की जाती है. और अगर कोई आपकी ही उपेक्षा करने लगे तब जाकर उसका अस्तित्व महसूस होता है. <br />
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अचानक घड़ी पर जो नज़र गयी तो देखा पांच बज गए हैं...एकदम से हडबडा कर उठ बैठी....अभी तो पानी आनेवाला होगा...सब जगह उसे पानी स्टोर करना है. घर में आते ही उसने ये काम सासू जी से अपने हाथों में ले लिया था. दौड़-दौड़ कर किचन बाथरूम...सब जगह पानी भरती और ये जिम्मेवारी उस पर आ पड़ी. ननद और सासू दोनों अपने अपने कमरे में आराम करती रहतीं और पानी आने के समय का ख्याल उसे ही रखना पड़ता. सोचती..चलो,सासू जी ने तो इतने वर्षों तक ये सब किया है..ननद तो छोटी है...कॉलेज से थकी हुई आई है...ये सब उसे ही करना चाहिए.<br />
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पर अब तो घर में देवरानी भी है . वो भी कर सकती है...और वो दुबारा लेट गयी...जाने दो आज देखती है....कोई और उठता है या नहीं,पानी भरने...अगर कोई पानी नहीं भरता तो होने दो थोड़ी मुश्किल...कह देगी, उसकी आँख लग गयी....आखिर वो भी इंसान ही है...कोई मशीन नहीं.<br />
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और फिर 'आहान' को तैयार कर पति के आने से पहले ही पार्क में ले जायेगी...कह देगी...रो रहा था...बहलाने को ले गयी...जब पति को नहीं महसूस होता कि ऑफिस से आकर कुछ समय पत्नी के साथ बिताएं तो वो ही क्यूँ पानी का ग्लास और चाय का कप पकडाने को इंतज़ार करती रहे. खुद से लेकर पानी पी सकते हैं. बहन, माँ, अंकिता...कोई भी चाय बना कर दे सकती है. चाहें तो बाद में पार्क में आ सकते हैं. और ना तो ना सही....अब उसे थोड़ा समय खुद के लिए भी निकालना ही होगा...वरना उसका वजूद ही मिटता जा रहा है ....वो सिर्फ किसी की बेटी-बहू-माँ बन कर ही रह जायेगी.<br />
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यह फैसला करते ही एकदम हल्का हो आया मन और सालों बाद भुला हुआ सा पसंदीदा गीत होठों पर आ गया...गुनगुना उठी...<br />
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<span style="color: black;">अजीब दास्ताँ है ये...कहाँ शुरू कहाँ ख़तम <br />
ये मंजिलें हैं कौन सी...ना वो समझ सके...ना हम </span><span style="color: black;"> </span></div>rashmi ravijahttp://www.blogger.com/profile/04858127136023935113noreply@blogger.com88tag:blogger.com,1999:blog-6953374982088960088.post-65396921483004736502010-12-27T00:56:00.000-08:002017-07-08T10:37:48.852-07:00कच्चे बखिए से रिश्ते (समापन किस्त )<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b>(सरिता,अपनी सहेली के पति को अपने कॉलेज में ही लेक्चरर के पद पर नियुक्त करवाने में सहायता करती है. कुछ ही दिनों बाद उसकी सहेली की मृत्यु हो जाती है और उसके पति वीरेंद्र, कॉलेज में ज्यादातर समय ,सरिता के डिपार्टमेंट में बिताने लगते हैं. पर सरिता को वीरेंद्र की कम्पनी रास नहीं आती फिर भी वह सहानुभूतिवश , उन्हें यह अहसास नहीं होने देती.)</b><br />
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<b>गतांक से आगे</b><br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://4.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TRhQTNSjJhI/AAAAAAAABQs/O-bSQaX50mk/s1600/oo.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="209" src="https://4.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TRhQTNSjJhI/AAAAAAAABQs/O-bSQaX50mk/s320/oo.jpg" width="320" /></a></div>
मुश्किल ये थी कि वीरेंद्र फिजिक्स के प्रोफ़ेसर थे .और साइंस के अधिकतम छात्र, कोचिंग क्लास जाया करते लिहाजा..बहुत कम छात्र ही नियमित क्लास अटेंड किया करते.वीरेंद्र भी क्लास में बीस मिनट बाद जाते और दस मिनट पहले निकल आते. कोई जिम्मेवारी भी नहीं थी. वो कहती भी, "जो बच्चे..क्लास में ,बैठते हैं..शायद वे क्लोचिंग क्लास नहीं अफोर्ड कर पाते हैं..उन्हें ही मन से पढाया करिये .पर वे गुस्से में बोल उठते, <br />
"वे लोग ऐसे भी नहीं पढने वाले...बहुत कमजोर हैं,पढने में ....साइंस उनसे चलेगी नहीं..फेल होने वालो के उपर क्यूँ मेहनत करूँ.." वह सोचती, तब तो दुगुनी मेहनत करनी चाहिए. पर सहेली के पति का ख्याल कर कुछ बोलती नहीं.<br />
वीरेंद्र की निराशावादी बातें उसे परेशान कर देतीं...पर लिहाजवश वो कुछ भी ,रूडली नहीं बोल पाती. यूँ भी साइंस में नोट्स बनाने की जरूरत नहीं पड़ती. समय ही समय होता उनके पास. जबकि उसे सैकड़ो काम होते...नोट्स बनाने होते. लाइब्रेरी जाना होता..अपने साथी प्रोफेसर्स के साथ विचार-विमर्श..बहस भी नहीं हो पाती. सबसे जैसे वो कटती जा रही थी. वीरेंद्र की उपस्थिति से सब कन्नी काटने लगते और किसी बहाने उठ कर चले जाते.वीरेंद्र को यूँ भी जिस से भी उसकी दो बातें हो जाती ...थोड़ी मित्रता होती....वे लोग पसंद नहीं आते. मिस्टर जुनेजा को फोटोग्राफी का बेतरह शौक था...वे हमेशा कैमरा अपने पास रखते. उसकी भी फोटोग्राफी और पेंटिंग सीखने की दिली तमन्ना थी पर अवसर नहीं मिल पाया..नहीं सीख पायी..और अब तो जी के सौ जंजाल थे . उसका वह शौक अनुकूल,हवा,पानी खाद के अभाव में मृतप्राय हो गया था . जुनेजा जी के खींचे चित्र देख जैसे उसमे नव-जीवन संचार हो उठता . वे भी नई तस्वीरें अपलोड करते ही उसे कंप्यूटर लैब में बुला ले जाते. कर्टसीवश वीरेंद्र को भी बुला ले गए वे. पर वीरेंद्र ने इतनी आलोचना की "ये भी कोई तस्वीरें है..कीड़े-मकोड़ों की...टूटी झोपडी...गन्दी बस्ती की..फोटो तो सुन्दर दृश्यों के लेने चाहिए. " ढलते-सूरज, नदी-झरने झील की. " वो उनसे बहस नहीं करती .बात बदल देती. <br />
<br />
अंग्रेजी के एक युवा प्रोफ़ेसर मिस्टर कुमार से उसका किताबो का आदान-प्रदान खूब होता. कई बार खड़े-खड़े ही किसी पुस्तक के किसी कैरेक्टर पर घंटो चर्चा हो जाती. पर मिस्टर कुमार एक विशेष विचारधारा को मानेवाले थे. वीरेंद्र, इस बात को मुद्दा बना उस से बहस कर बैठते .वह कितना भी कहती.."वो उनके विचार है...उसे उस से क्या लेना-देना...वो तो इतर विषय पर बात करती है." उस वक्त कुछ नहीं कहते,पर मौका ढूंढ अक्सर कह बैठते.."वो ये कह रहा था...उसे ऐसा कहते सुना मैने...मुझे बिलकुल नहीं पसंद " परेशान हो गयी थी वह. कॉलेज का कोई भी प्रोफ़ेसर उन्हें अच्छा नहीं लगता...खासकर अगर उनसे उसकी अच्छी पहचान हो. वह उनकी मनःस्थिति समझती थी...वे परेशान थे, और इस तरीके ही अपनी खीझ ,फ्रस्ट्रेशन निकालना चाहते थे. पर वो क्या करे. अपनी परिस्थिति से समझौते की कोशिश उन्हें खुद ही करनी थी. वे एक परिपक्व उम्र के इंसान थे. वो बस उनका साथ दे सकती थी,जिसकी वह भरसक कोशिश कर रही थी. पर इसके एवज में उसे अपना मानसिक संतुलन बनाये रखना कठिन हो जाता. घर, पति,बच्चे ,कॉलेज की हज़ारो जिम्मेदारियां और उस पर से वीरेंद्र का यह अनर्गल प्रलाप. वह एकदम से किनारा भी नहीं कर सकती थी. इस शहर में वही एकमात्र वीरेंद्र की परिचित थी और वीरेंद्र दूसरे लोगो से मिलने-जुलने, दोस्त बनाने को उत्सुक भी नहीं दिखते. उसने समय के सहारे खुद को छोड़ दिया था.<br />
<br />
इन सबका कोई हल नज़र नहीं आ रहा था और ऐसे में टाइम-टेबल में बदलाव, उसके लिए एक सुखद बयार लेकर आया. अब टाइम-टेबल कुछ ऐसा बना था जिसमे उसकी सहेली, कृष्णा और उसे एक साथ ऑफ पीरियड मिलते. उसे सुकून मिल गया. वीरेंद्र तो उसे खाली देखते आ ही जाएंगे ,इतना उसे पता था पर कम से कम कृष्णा का साथ तो रहेगा. अब सब, इतना बोझिल तो नहीं होगा. उसने कृष्णा से परिचय करवाया और आश्चर्य...किसी से दोस्ती नहीं करनेवाले वीरेंद्र ने लपक कर उस से दोस्ती का हाथ बढाया. उसे सुकून मिला..चलो कुछ बोझ तो बँटा. शुरू में तो कृष्णा भी उसपर झल्लाई रहती..."कहाँ से उसके सर पर बिठा दिया..कितना अच्छा वे दोनों हंसी-मजाक दुनिया भर की बातें किया करते थे.' वीरेंद्र की उपस्थिति थोड़ी असहज बना देती. पर धीरे-धीरे उसने नोटिस किया.....वीरेंद्र, कृष्णा से काफी बातें करने लगे.<br />
<br />
वैसे भी कॉलेज फेस्टिवल्स अब नजदीक आ रहें थे और तमाम तरह के कम्पीटीशन होने वाले थे. हमेशा की तरह प्रिंसिपल ने उसे बुलाकर कई चीज़ों का इंचार्ज बना दिया था. डिबेट का पूरा कार्यक्रम उसे देखना था. फेस्टिवल के अलग-अलग डिपार्टमेंट्स के हेड भी स्टूडेंट्स में से उसे ही नियुक्त करने थे . उसे काफी काम होता. डिपार्टमेंट में भी वो आती तो ढेर सारे पेपर वर्क करती रहती. वीरेंद्र पहले की तरह कुर्सी खींच ...बैठ जाते और कोई ना कोई टॉपिक शुरू करने की कोशिश करते. वह भरसक प्रयास करती की उनकी बातो को ध्यान से सुने पर अब उसे समय ही नहीं मिलता और ये भी सोचती अब वे नितांत अकेले भी नहीं...कृष्णा से तो उनकी बात-चीत होती ही रहती है. हाँ-हूँ में जबाब देती तो वे चिढ कर उठ जाते. कभी उनके यूँ अचानक उठ कर चले जाने पर बुरा भी लगता पर वो मजबूर थी. <br />
<br />
कृष्णा भी जब भी अकेले में मिलती, कहती "क्या मुसीबत है,जैसे वे घड़ी देखते होते हैं...क्लास ख़त्म कर ,जैसे ही रजिस्टर रख कर जरा सा दम लो और पहुँच जाते हैं, ' नमस्ते कृष्णा जी..कैसी हैं आप?' अब रोज भला कैसी होउंगी मैं...अच्छी मुसीबत, गले डाल दी है तुमने "<br />
<br />
"अरे,बेचारे अकेले हैं...थोड़ा झेल लो..मैने क्या कम झेला है इतने दिनों...फिर मिलकर उनकी शादी करवा देते हैं...अपनी नई पत्नी के साथ फोन पे चिपके रहेंगे ..हमें छुटकारा मिल जायेगा.."..हंस पड़तीं दोनों <br />
<br />
"हाँ, ये ठीक रहेगा..जल्दी करो कुछ...वरना हम अपनी बातें तो कर ही नहीं पाते.".... ये सच था कृष्णा और उसकी कितनी सारी गर्लिश टॉक अब वीरेंद्र की उपस्थिति के चलते गए दिनों की बात हो गयीं थीं. कितने ही दिन हो गए और उन दोनों ने स्टुडेंट्स की बातें भी नहीं शेयर कीं. आजकल के स्टुडेंट्स,में गुरु-शिष्य वाली भावना का लेशमात्र नहीं था. एक तो उनकी कच्ची उम्र और उसपर अनुशासन का अभाव और फिल्मो,टी.वी. के प्रभाव ने काफी <span dir="ltr" id=":3qh">उच्छृंखल</span> बना दिया था, छात्रों को. महिला लेक्चरर्स की तो मुसीबत ही थी. कभी कोई लड़का लेक्चर के दौरान एकटक चेहरे पर देखता रहता. कुछ उसे कहा भी नहीं जा सकता. कह देता,"मैं तो ध्यान से सुन रहा हूँ" कभी कॉपी करेक्शन को दें तो उसमे हीरो हिरोइन की तस्वीरें या फिर कोई मनचला सा गीत लिखा होता. एकाध बार तो क्लास से बाहर निकलते ही लड़कों ने मोबाइल से तस्वीर भी खींच ली. डांटने पर बेशर्मी से कह देते ,"मैडम आप अच्छी लगती हैं" एकाध बार उनके मोबाइल भी सीज किए पर कुछ दिन बाद खुद ही जाकर लौटाना पड़ा, महंगे मोबाइल्स थे..पता नहीं पैरेंट्स ने कितने खून पसीने की कमाई लगा दी होगी और ये आज के ढीठ बच्चे ,वापस मांगने भी नहीं आते. पर ये सब सत्र की शुरुआत में ही होता..धीरे- धीरे जैसे टीचर-स्टुडेंट्स एक दूसरे को समझने लगते और एक रिश्ता सा बन जाता...फिर तो अपनी कितनी सारी समस्याएं भी लेकर आते, जिसे वो और कृष्णा आपस में डिस्कस कर सुलझाने की कोशिश करते. पर अब वीरेंद्र के सामने ये सब बातें करना मुश्किल हो गया था.<br />
<br />
उसकी व्यस्तता बढती ही जा रही थी. अभी भी वीरेंद्र नियमित उसके डिपार्टमेंट में आते उसे नमस्ते जरूर कहते..दो मिनट बैठते..पर फिर विषय के अभाव में बात आगे नहीं बढती...'आज गर्मी है... 'लगता है बारिश होगी'...' आज तो मौसम अच्छा लग रहा है..' बस..इसके आगे कुछ सूझता ही नहीं...<br />
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<blockquote class="gmail_quote" style="border-left: 1px solid rgb(204, 204, 204); margin: 0pt 0pt 0pt 0.8ex; padding-left: 1ex;">
उस दिन भी सोच ही रही थी कि अगला वाक्य क्या कहे कि वीरेंद्र बोले..."कृष्णा जी नज़र नहीं आ रहीं....ये पत्रिका उनके यहाँ से लाई थी...लौटानी थी"</blockquote>
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"कृष्णा के यहाँ से ?? " वो कुछ समझी नहीं.<br />
<br />
"हाँ, वो बताया था ना आपको, एक मामा भी इसी शहर में हैं...वे कृष्णा जी के घर के पास ही रहते हैं...जब उनसे मिलने जाता हूँ...तो कृष्णा जी के यहाँ भी चला जाता हूँ."<br />
<br />
"अच्छा....हाँ,मामाजी की बात तो आपने बतायी थी...कृष्णा के यहाँ की नही..."</div>
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<blockquote class="gmail_quote" style="border-left: 1px solid rgb(204, 204, 204); margin: 0pt 0pt 0pt 0.8ex; padding-left: 1ex;">
"बस पांच-दस मिनट तो बैठता हूँ...क्या बताना इसमें.."<br />
<br />
"ओके .." कहने को तो उसने कह दिया...पर सोचती रही...एक-एक बात बताते हैं...और ये बात गोल कर गए...और कृष्णा ने भी नहीं बताया कुछ...जबकि वीरेंद्रसे सम्बंधित तो हर बात बताती है...शिकायत ही सही...जिक्र तो रोज उनका हो ही जाता है. </blockquote>
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<blockquote class="gmail_quote" style="border-left: 1px solid rgb(204, 204, 204); margin: 0pt 0pt 0pt 0.8ex; padding-left: 1ex;">
और करीब दो महीने बाद जाकर, कृष्णा ने एकदम कैजुअली कहा.." उस दिन वीरेंद्र घर आए तो बता रहे थे उनका कुक अब तक नहीं लौटा गाँव से""<br />
"वो तुम्हारे घर भी जाते हैं?"<br />
"अरे..कभी कभार...वो भी दस- पंद्रह मिनट के लिए.."<br />
"पर तुमने कभी बताया नहीं..."<br />
"इसमें बताने जैसा क्या..था..."<br />
"हाँ ये भी है......." कह तो दिया उसने पर सोचती रह गयी...वे दोनों तो कॉलेज से सम्बंधित हर घटना का जिक्र एक दूसरे से जरूर करते थे. किसी प्रोफ़ेसर ने उसे लिफ्ट देने की पेशकश की...या पहली बार हलो कहा...या किसी ने काम्प्लीमेंट दिए....छोटी से छोटी कोई बात बताना नहीं भूलती पर वीरेंद्र के घर पर आने वाली बात, बतानी उसने जरूरी नहीं समझी.<br />
<br />
उसकी व्यस्तता बढती जा रही थी...और वीरेंद्र की नाराज़गी भी. सारे खाली पीरियड्स ...स्टुडेंट्स के साथ मीटिंग्स...फेस्टिवल की तैयारियों में निकल जाते. डिपार्टमेंट में बैठना भी बहुत कम हो गया था उसका. कभी जाती तो देखती....वीरेंद्र, कृष्णा के पास की कुर्सी पर बैठे हैं. कभी कभी तो उसके हलो को भी नज़रअंदाज़ कर जाते. कृष्णा जरूर पूछती..."कितना बिजी रहने लगी हो.." <br />
"अरे... पूछो मत...बस ये फेस्टिवल निकल जाए...तो चैन मिले."<br />
"नहीं पसन्द, तो करती क्यूँ हैं... इतना काम..." अब वीरेंद्र फूटते <br />
"करना पड़ता है...किसी को तो करना पड़ेगा ही ना...एंड आइ एन्जॉय डूइंग इट "<br />
"फिर शिकायत मत किया कीजिये...जरा विद्रूपता से कहा उन्होंने....उसे बुरा तो बहुत लगा...पर कुछ कह नहीं पायी "</blockquote>
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</div>
<blockquote class="gmail_quote" style="border-left: 1px solid rgb(204, 204, 204); margin: 0pt 0pt 0pt 0.8ex; padding-left: 1ex;">
ऐसा अक्सर लोग कह जाते हैं...मनपसंद काम करने से भी थकान तो होती है...लेकिन लोग उसके विषय में एक शब्द सुनना नहीं पसंद करते...अगर अपनी इच्छानुसार कोई काम करो तो फिर होठ सी लो..दर्द पी लो...जुबान पे कुछ ना लाओ..वरना सुनने को मिलेगा..." किसने कहा ,करने को .<br />
<br />
मन खिन्न हो आया. आजकल वीरेंद्र सिर्फ उसे इरिटेट करनेवाली बाते ही किया करते थे. अक्सर सोचती..ये कृष्णा से उनकी इतनी कैसे बनने लगी?.आखिर किन विषयो पर बात करते हैं.?.क्यूंकि वीरेंद्र के पास तो कोई विषय ही नहीं थे और उसे लगता था ,कृष्णा बिलकुल उस जैसी थी......पर शायद दोनों की वेवलेंथ मिलती हो...एक जैसी पसंद नापसंद हो...</blockquote>
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<br /></div>
<blockquote class="gmail_quote" style="border-left: 1px solid rgb(204, 204, 204); margin: 0pt 0pt 0pt 0.8ex; padding-left: 1ex;">
वीरेंद्र जरा थे भी भोंदू किस्म के ..छोटे से कस्बे से ,कभी महिलाओं से ज़िन्दगी में बात की नहीं...और यहाँ पत्नी की सहेली की वजह से मिले अवसर का खूब फायदा उठा रहे थे. प्रैक्टिकल क्लासेज़ में उनकी उपस्थिति अनिवार्य थी. पर वो भी लैब असिस्टेंट के भरोसे छोड़, यहाँ जमे रहते. उनसे सहानुभूति वश कोई सवाल नहीं करता. पर साइंस फैकल्टी के लोग उसे ही सुना जाते, "अपने काम को तो सीरियसली लेना चाहिए ..आखिर रोटी वहीँ से मिलती है." उन्हें लगता,उसकी सिफारिश पर वीरेंद्र को यह लेक्चररशिप मिली है,तो कुछ जिम्मेवारी उसकी भी बनती है.</blockquote>
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</div>
<blockquote class="gmail_quote" style="border-left: 1px solid rgb(204, 204, 204); margin: 0pt 0pt 0pt 0.8ex; padding-left: 1ex;">
वह क्या कह सकती थी ? अब वीरेंद्र के बैठने की जगह भी बदल गयी थी. पहले वे उसकी दायीं तरफ बैठते थे...कृष्णा से परिचय करवाया तो दोनों के बीच की कुर्सी पर बैठने लगे..अब देखती , कृष्णा की बायीं तरफ बैठते हैं...वो डिपार्टमेंट में आती ही कम...और जब आती भी तो देखती...साइकोलोजी वाली नीलिमा और संस्कृत पढ़ाने वाली शकुंतला जी भी बैठी हैं...और गप्पो के दौर चल रहें हैं...मुस्कराहट आ जाती,उसके चेहरे पर...दोस्त बनाने से अरुचि रखनेवाले वीरेंद्र को महिला दोस्त बनाने से कोई परहेज नहीं था. <br />
<br />
अब पता नहीं क्यूँ ,अपने डिपार्टमेंट में जा कर बैठना ,उसे अच्छा नहीं लगता. उनकी गप्पे चलती रहतीं... <span dir="ltr">इंट्रूडर</span> जैसा लगता. उसने स्टाफरूम में बैठना शुरू कर दिया. यहाँ ज्यादातर..इंग्लिश,हिंदी,, जोग्रोफी वाले प्रोफ़ेसर बैठते थे. पर सुखद आश्चर्य हुआ उसे ,पहले क्यूँ नहीं आई, इनके सान्निध्य में. बड़े नौलेजेबल लोंग थे. किसी किताब की यूँ मीमांसा करते कि वो मुग्ध सुनती रह जाती. बात-बात पे कोटेशन्स..गीता, रामायण..उपनिषदों से उद्धरण ...रोज ही कुछ नया सीखने को मिलता. स्वस्थ बहस भी होती..कभी-कभी तीखी भी पर एक दूसरे के विचारों का सम्मान करते सब. अपने विचार दूसरे पर थोपने की कोशिश नहीं करते. <br />
<br />
फिर भी उसे अपने डिपार्टमेंट में तो जाना ही पड़ता. कृष्णा एक औपचारिक 'हलो' कहती.वीरेंद्र, अगर होते तो वो भी नहीं कहते. दूसरी तरफ देखते रहते. कभी सामने पड़ गए...तो वो 'नमस्ते' कह देती..और वे सिर्फ सर हिला कर चले जाते. अजीब लगता उसे. पर सोचने की फुरसत कहाँ थी..अब डिबेट्स के इनिशियल राउंड शुरू हो गए थे. उसमे पूरी तरह मुब्तिला थी वो. कभी- कभी उसकी क्लास भी छूट जाती. पर ऐसा तो हर वर्ष होता...वो बाद में एक्स्ट्रा क्लास ले सिलेबस पूरा कर देती.पर उसके कानो में कुछ अजीब सी बात पड़ी...जब केमिस्ट्री की रीमा कपूर ने कहा, ' "वीरेंद्र जी आपके मित्र हैं ना..."<br />
"हाँ..क्यूँ.."<br />
"कुछ नाराज़ हैं क्या आपसे...?"<br />
"नहीं तो..क्या हुआ.." उसे लग तो रहा था,पर वो दुसरो के सामने क्यूँ स्वीकारे ये सब. </blockquote>
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</div>
<blockquote class="gmail_quote" style="border-left: 1px solid rgb(204, 204, 204); margin: 0pt 0pt 0pt 0.8ex; padding-left: 1ex;">
"पता नहीं...कल आपको बहुत क्रिटीसाईज कर रहें थे...कह रहें थे...'ये क्या बात हुई..क्लास में इतना शोर हो रहा है..कॉलेज में तो पढाना पहला धर्म होना चाहिए...ये डिबेट्स वगैरह ,सब तो ऑफ टाइम में होना चाहिए....आपकी सहेली भी वहीँ थीं..."<br />
<br />
"हम्म...होगा कुछ...मैं बात कर लूंगी ..चलूँ अभी...कुछ काम है " वो ज्यादा बढ़ावा नहीं देना चाहती थी.<br />
<br />
फिर तो अक्सर ही कोई ना कोई कह जाता...' वीरेंद्र जी इतना नाराज़ क्यूँ हैं,आपसे...आपके पढ़ाने के तरीके की बड़ी बुराई कर रहें थे कि उनकी क्लास में कितना शोर होता है..स्टुडेंट-टीचर का रिलेशन पता ही नहीं चलता...वे बहुत फ्रेंडली हो जाती हैं...स्टुडेंट के मन में हमेशा टीचर का डर होना चाहिए...और कृष्णा जी की बड़ी तारीफ़ कर रहें थे कि कितनी शान्ति होती है क्लास में...कोई शोर-शराबा नहीं...टीचर तो ऐसी होनी चाहिए"<br />
<br />
" अब इसमें क्या कहा जाए...उन्हें कृष्णा का पढ़ाना अच्छा लगता होगा.." कह कर वो बात ख़त्म कर देती.<br />
<br />
कृष्णा और उसका पढ़ाने का ढंग अलग था . कृष्णा नोट्स बना कर ले जाती. क्लास में पढ़कर थोड़ा एक्सप्लेन कर चली आती. स्टुडेंट्स खुश होते,बना बनाया नोट्स मिल जाता. जिसे रटकर वे परीक्षा में अच्छे नंबर ले आएँ. जबकि वो कोशिश करती कि बिना किसी नोट्स के पढाये...और विषय समझाने की कोशिश करे कि क्लास में ही कुछ तो उनके दिमाग में रह जाए. इस चक्कर में काफी सवाल जबाब होते और बाहर वालो को लगता शोर हो रहा है.पर और किसी ने तो कभी शिकायत नहीं की.पता नहीं वीरेंद्र को उस से क्या प्रॉब्लम हो गयी है. शायद उन्हें लगा वो जान-बूझकर इग्नोर कर रही है. पर सबकुछ तो सामने ही था .वो वीरेंद्र से तो कुछ भी नहीं पूछ्नेवाली ..इतना कुछ किया है उनके लिए ,उसका सिला जब वे ,ये दे रहें हैं ,तो क्या बच जाता है पूछने को. उनकी मर्जी.<br />
<br />
पर उसने कृष्णा से इसकी चर्चा करने की सोची.<br />
<br />
कृष्णा ने छूटते ही कहा.."क्या पता तुमलोगों के बीच क्या मिसअंडरस्टैंडिंग है . वीरेंद्र जी बहुत हर्ट हैं"<br />
<br />
"अच्छा इसीलिए सब जगह मेरी बुराई करते चल रहें हैं....और सब तो तुम्हारे सामने ही है ना...कैसी मिसअंडरस्टैंडिंग??...तुम्हे तो सब पता है, मैं बिजी रहने लगीहूँ.....उनसे ज्यादा बात नहीं कर पाती, अब " मन कसैला हो आया उसका. उसकी इतने दिनों की सहेली भी बात समझने की कोशिश नहीं कर रही .<br />
<br />
"अब मुझे क्या पता....तुम दोनों के बीच क्या हुआ है...कह रहे थे, सरिता जी अब बात नहीं करतीं...."<br />
<br />
"अरे, तुम्हारे सामने तो कितनी बार हलो कहा है...और उन्होंने जबाब भी नहीं दिया...अजीब बात है...हाँ,बाद में मैने भी छोड़ दिया...मैं भी इतनी फालतू नहीं"<br />
<br />
"अब मुझे क्या पता....और मुझे क्या मतलब इन सब बातों से....ये तुम दोनों के बीच की बात है....पर वे बहुत हर्ट हैं "<br />
<br />
"हम्म..ठीक है जाने दो.." वो समझ गयी, जब वीरेंद्र उसकी प्रशंसा के पुल बांधते फिर रहें हैं तो उसे उनका कोई दोष कैसे नज़र आएगा. चाशनी का ड्रम ही सामने उंडेल दिया गया हो तो पैर तो वहीँ चिपक जाएंगे ना.<br />
<br />
एक दिन क्लास लेकर निकली ही थी कि प्यून बुलाने आया..."प्रिंसिपल साहब ने आपको अपने ऑफिस में बुलाया है"<br />
<br />
चौंक गयी वो.."अब तो फेस्टिवल ख़तम हो गए...अब कौन सा काम आ पड़ा" <br />
<br />
प्रिंसिपल बड़े इत्मीनान में दिखे ,उसे बिठाया ,इधर-उधर की बातें करने लगे ....वो समझ नहीं पा रही थी उनके बुलाने का प्रयोजन क्या है...फिर अचानक उन्होंने पूछा, "आपकी किसी से कोई नाराज़गी कोई बहस हुई है क्या...?"<br />
<br />
हम्म तो ये बात है..पर इन तक वीरेंद्र की बात किसने पहुंचाई होगी ?<br />
<br />
उसे नकारात्मक सर हिलाते देख उन्होंने कहा.."ऐसी कोई सीरियस बात नहीं... एक इमेल आया है...उसमे आपके खिलाफ काफी बातें कही गयीं है...मैं सोचने लगा, आप तो इतनी डेडिकेटेड हैं अपने काम के प्रति...किसे शिकायत होगी...कोई पारिवारिक दुश्मनी तो नहीं...किसी से?"<br />
<br />
पर मन काँप गया ,उसका.."कैसी बुराई...क्या कहा गया है?"<br />
<br />
" खुद देख लीजिये....आइ डी भी फेक सा ही लगता है कुछ 'वी' से है ."...कहते उन्होंने लैपटॉप उसकी तरफ कर दिया....एक नज़र देखा उसने, बचकानी बातें थीं..." सरिता तो प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने लायक भी नहीं....उन्हें कॉलेज में कैसे रख लिया आपने..पढ़ाने से ज्यादा उनका मन दूसरी चीज़ों में लगता है...वगैरह..वगैरह..." इतनी गलत अंग्रेजी लिखी थी कि उसे पढने में भी वितृष्णा सी हो रही थी. इस गलत अंग्रेजी और 'वी' के इनिशियल ने उसका शक यकीन में बदल दिया..ये वीरेंद्र ही थे..पर उसने कुछ कहा नहीं.<br />
<br />
उसे विचार मग्न देख, प्रिंसिपल ने आश्वस्त किया.."इतनी चिंता की बात नहीं..मैने सिर्फ इसलिए बता दिया कि आप सावधान हो जाएँ....क्या पता, आप जिन्हें दोस्त समझ रही हों...उनमे से ही कोई हो"..उनका अनुभव बोल रहा था. <br />
<br />
"थैंक्यू सो मच सर...अगर और इमेल्स आएँ तो बताएं...फिर कोई एक्शन लेना पड़ेगा.."<br />
<br />
"हाँ वो तो मैं खुद ही पता लगा लूँगा...बस आपको सावधान करने को यह बताया..."<br />
<br />
फिर से थैंक्स कहती वो बाहर चली आई....मन हो रहा था 'कंप्यूटर लैब में जाकर एकबार अपना मेल भी चेक कर ले...क्या पता उसे भी कुछ भला-बुरा कहा हो. पर वो लास्ट पीरियड था. क्लास रूम्स बंद होने शुरू हो गए थे. शैलेश टूर पर गए हुए थे ,वरना रात में उनके लैप टॉप पर ही चेक कर लेती...<br />
<br />
अगर ये वीरेंद्र ही हैं..पर उनके सिवा और कौन होगा...तो कितनी बड़ी गलती की उसने, उनसे लैपटॉप खरीदने की सलाह देकर.....वीरेंद्र बिलकुल तैयार नहीं थे..."मुझे क्या काम...मुझे इसकी क्या जरूरत"</blockquote>
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</div>
<blockquote class="gmail_quote" style="border-left: 1px solid rgb(204, 204, 204); margin: 0pt 0pt 0pt 0.8ex; padding-left: 1ex;">
उसने समझाया था.."अकेलेपन का बढ़िया साथी है"...कहकर इंटरनेट के सारे गुण उनके सामने गा डाले थे. <br />
<br />
उन्हें कुछ नहीं आता था..उसे भी ज्यादा कहाँ पता था...पर उसने कम्प्यूटर टीचर ' करण दोषी ' से अपनी पहचान का फायदा उठाया. कॉलेज फेस्टिवल के समय, स्पौन्सर्स से इमेल के आदान-प्रदान का भार,उसने करण दोषी पर ही डाल रखा था. हंसमुख और कर्मठ लड़का था, अपने ऑफिशियल काम से कितने ही इतर काम करने को हमेशा तैयार रहता था. वीरेंद्र ने लैप टॉप के उपयोग की सारी जटिलताएं उस से सीख लीं, थीं.</blockquote>
<div>
</div>
<blockquote class="gmail_quote" style="border-left: 1px solid rgb(204, 204, 204); margin: 0pt 0pt 0pt 0.8ex; padding-left: 1ex;">
दूसरे दिन पहला क्लास लेकर आई ही थी कि मिस्टर जुनेजा...भागते हुए उसके पास आए..."चलिए जरा आपको कुछ दिखाना है.."<br />
<br />
उसने सोचा..."तस्वीरें होंगी...पर उन्होंने अपना मेल बॉक्स खोला...और वही मेल उनके इन्बौक्स में भी पड़ा था " <br />
उसने बताया , कि प्रिंसिपल को भी ऐसा मेल भेजा जा चुका है...."कौन हो सकता है?"...उन्होंने पूछा...<br />
"क्या पता..." <br />
उसके जबाब पर वो खुद ही बोले..."मुझे तो वीरेंद्र साहब ही लगते हैं...आजकल नाराज़ चल रहे हैं आपसे..जिधर देखो..आपके गुण गाते चलते हैं.."<br />
"अच्छा...आपको भी पता चल गया..".हंस पड़ी वो..<br />
"हम अपनी तस्वीरों की दुनिया में रहते हैं..पर यहाँ की खबर हमें भी होती है..आपकी शान में कसीदे तो पढ़ते ही रहते हैं...और दूसरी महिला लेक्चरर्स के सामने तो जैसे अगरबत्ती, धूप जला,बस दंडवत को तैयार."</blockquote>
<div>
"ह्म्म्म..." </div>
<div>
"वो ठीक है...उनकी अपनी मर्जी...पर जरूरी है कि एक की बुराई करके ही दूसरे की तारीफ़ की जाए?"<br />
"यही तो मैं सोचती हूँ.....ठीक है...मेरे सारे काम में त्रुटियाँ हैं...पर उन्हें क्या फर्क पड़ रहा है...मुझे मेरे हाल पर छोड़ दें,ना "<br />
"तब मजा नहीं ना...जबतक दूसरों के लिए गाए आरती -भजन आपके कानो में ना पड़ें..क्या मजा उनका...घंटी की टुनटुनाहट तेज करनी ही पड़ती है..." मुस्कुराते हुए कहा मिस्टर जुनेजा ने.<br />
<br />
उसे जोर की हंसी आ गयी...मिस्टर जुनेजा आगे बोले, "फ़िक्र ना करें....अगर ये फेक मेल भेजने वाली, हरकत जारी रही तो कुछ किया जाएगा."</div>
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</div>
<blockquote class="gmail_quote" style="border-left: 1px solid rgb(204, 204, 204); margin: 0pt 0pt 0pt 0.8ex; padding-left: 1ex;">
"फ़िक्र कैसी....अगर वे नहीं संभले तो तो असलियत तो सामने आ ही जायेगी "<br />
<br />
और यही हुआ..धीरे-धीरे जो भी नेट पर सक्रिय थे ..सबके पास वो इमेल और उसके साथ ही उस जैसे कई इमेल्स पहुँचने लगे. पता नहीं कहाँ से सबके इमेल आइ.डी. भी पता कर लिए थे...उसने सोचा, 'दूसरा कोई काम तो है नहीं. खाली दिमाग शैतान का घर...करे भी क्या. कोई जुगत लगाई होगी '<br />
<br />
उसे भी इमेल्स मिलते .पर वो तो डर कर घर पर चेक भी नहीं करती अगर शैलेश ने देख लिया तो फिर तूफ़ान मचा देंगे. वे चुप नहीं बैठने वाले. तुरंत ही आइ.पी. एड्रेस पता कर एक्शन ले डालते..और बेकार का कॉलेज में एक चर्चा का विषय बन जाता. सोच में पड़ गयी वह....घर से बाहर निकल कर काम करने वाली औरतों को कितना कुछ सहना पड़ता है..कैसी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है...और उसे वे 'मजबूर' घर में भी शेयर नहीं कर पातीं. <br />
<br />
शायद उसकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया ना देख . वीरेंद्र की हताशा बढती गयी और उन्होंने करण दोषी को भी ऐसे मेल भेज दिए .करण तुरंत हरकत में आ गया... पच्चीस साल का लड़का...जोश से भरा...कुछ नया करने को मिला. सीधा उसके पास आया...किसकी हरकत हो सकती है??...और उसने अपना शक बता दिया...वो तुरंत काम में लग गया. </blockquote>
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<blockquote class="gmail_quote" style="border-left: 1px solid rgb(204, 204, 204); margin: 0pt 0pt 0pt 0.8ex; padding-left: 1ex;">
क्लास लेकर निकल ही रही थी कि शकुंतला जी मिल गयीं....उनका फिर से वही प्रश्न.." वीरेंद्र जी इतने नाराज़ क्यूँ है आपसे..."<br />
<br />
अब कहाँ से लाए वो कोई वजह...जो थी फिर से दुहरा दी. तभी पीछे से करण ने जोर से आवाज़ दी...."सरिता मैडम" <br />
<br />
उसके कदम रूक गए.....शकुंतला जी को देख कर थोड़ा हिचकिचाया..पर उसने कहा.."ये सब जानती हैं...बोलो क्या पता चला?"<br />
<br />
"मैडम ये वही वीरेंद्र जोशी हैं ना ...उन्होंने अपनी आइ.डी. मेरे सामने ही तो बनाई थी...आप ही तो लेकर आयीं थीं...उन्हें.....दोनों आइ. डी . का आइ.पी.एड्रेस एक ही है..."</blockquote>
<div>
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"ओह्ह.." बस इतना ही बोल पायी...शक तो उसे था ही...पर प्रमाण मिल जाने पर सच में एक बार चौंक गयी..शकुंतला जी के चेहरे पर भी आश्चर्य के भाव थे. </div>
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<br />
उसे चुप देख..करण बोल पड़ा. </div>
"ये क्या तरीका है...अगर नाराज़ हैं....कोई शिकायत है तो सामने से बोलो ना.... यूँ फेक आइ.डी. बना कर पीछे से वार क्यूँ....मुझे तो बहुत गुस्सा आ रहा है.."<br />
<br />
"बस बस...काबू रखो गुस्से पर ...ये सब चलता रहता है....और थैंक्यू सो मच...इतना बड़ा काम किया आपने....चलो अपनी क्लास देखो..बाद में बात करते हैं.<br />
<br />
शकुंतला जी ने सब सुना....पर बोला कुछ नहीं....उसने ही कहा..." देखिए बिना किसी बात के ...कितनी बात बढ़ गयी "<br />
<br />
"अब क्या कहा जाए...गलत तो है ही ये सब " बस इतना ही कहा उन्होंने. पर उसे संतोष था उनके सामने करण ने यह बात बतायी...अब तो कृष्णा,नीलिमा सबको पता चल जायेगा और उन्हें विश्वास भी करना पड़ेगा.<br />
<br />
पर सबके ठंढे रिस्पौंस पर उसे बड़ा दुख हुआ. कृष्णा से भी उसे खुद ही कहना पड़ा..." सुना ना तुमने....वो फेक इमेल वाले वीरेंद्र ही थे..."<br />
<br />
"हाँ....जो भी हुआ बहुत गलत हुआ..." बस इतना ही कहा उसने.<br />
<br />
वीरेंद्र का उसके डिपार्टमेंट में आना बदस्तूर जारी था. अब सबको इमेल वाली बात मालूम हो गयी थी..अकेले में सब इसकी निंदा कर गए थे पर वीरेंद्र से उसी गर्मजोशी से मिलते. हर्षल को भी देखती...बड़े प्यार से दूर से पुकारता..' कैसे हैं.. वीरेंद्र स्साब" ऐसा लगता जैसे सब विशेष चेष्टा कर यह दिखाने को आमादा हैं कि उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता...<br />
<br />
एक दिन स्टाफरूम में कोई नहीं था .... यही सब सोचते ,यूँ ही चुप सी बैठी थी. नज़र खिड़की के अंदर आ गए बोगनवेलिया के लतरों पर जमी थीं. मिस्टर कुमार के आने का उसे पता ही नहीं चला...<br />
"क्या हुआ भाई..यहाँ यूँ खामोशी से क्यूँ बैठी हैं...आज ब्रश-वर्श नहीं किया क्या.."<br />
"मतलब.." वो अबूझ सा देखती रही <br />
तो फिर बोले,"ओह! लगता है ब्रश करने गयी तो दाँत सिंक में ही गिरा आयीं...इसीलिए नहीं दिख रहें "<br />
हंस पड़ी वो..."ओह, अब समझी...कैसी भूलभुलैया भरी बातें करते हैं..आप भी"<br />
"हाँ... आप ऐसी ही हंसती हुई अच्छी लगती हैं..पर हुआ क्या..ऐसा मूड क्यूँ है आज.."<br />
"कुछ ख़ास नहीं"<br />
"अब बता भी दीजिये "<br />
"आपने मेरी तारीफ़ में कसीदे नहीं सुने क्या...कोई मेरी तारीफ़ में पुलिंदे लिखे जा रहा है.."<br />
"ना..वरना मैं भी कुछ अपनी तरफ से जोड़ देता...कौन हैं ये भलामानुष"<br />
अब वो चुप नहीं रह सकी...और सब बता दिया कि कैसे वीरेंद्र हर जगह उसकी बुराई करते फिर रहें हैं..कैसे फेक इमेल भेज रहे हैं..सबको"<br />
"पर वे तो आपके मित्र थे,ना..हुआ क्या "<br />
"बताया ना...कहने को तो कुछ भी नहीं हुआ"<br />
"ओके... मैं बात करता हूँ "<br />
"नोsssss वेsss "..वो जैसे चिल्ला ही पड़ी.<br />
"अरे..मैं अपने तरीके से बात करूँगा..."<br />
"नहीं प्लीज़.. कुमार....आप रहने दीजिये.." वो घबरा गयी थी..."क्यूँ जिक्र किया आपसे "<br />
"मैं इधर आ रहा था तो उन्हें साइंस डिपार्टमेंट की तरफ जाते देखा है....बीच रास्ते में ही पकड़ता हूँ..वरना वे अकेले नहीं मिलेंगे...डोंट वरी....मैं बड़े तरीके से बात करूँगा" <br />
और कुमार तो यह जा वह जा...वे थे ही इतने जल्दबाज .<br />
वह मायूस सी बैठी रह गयी....यह क्या कर दिया उसने ...पता नहीं कुमार क्या बात करें और वीरेंद्र क्या समझे कि उसने भेजा है...अब क्या कर सकती थी.एकदम उदास सी बैठी थी कि दस मिनट बाद ही कुमार वापस आ गए. वो गुस्से में भरी बैठी थी. पर कुमार तो हँसते हुए बगल की कुर्सी पर जैसे ढह से गए और पेट पकड़ कर हंसने लगे. <br />
उसने घूर कर देखा तो बोले, "बताता हूँ...."और फिर हंसने लगे .<br />
उसका घूरना जारी रहा तो किसी तरह हंसी रोक बोले, "शांत देवी..शांत ..पर आप ये बताइये इन जनाब से आपकी दोस्ती कैसे हो गयी."<br />
"कहाँ की दोस्ती...आपने ना कुछ सुना ना कुछ जाना और चल दिए...महान बनने..कहा क्या आपने उनसे?"<br />
"मैने इतना ही पूछा कि आपको सरिता जी से क्या प्रॉब्लम है...आप उनको यूँ क्रिटीसाईज क्यूँ करते फिर रहें हैं...तो वे तो ..वे तो..".कुमार फिर हंसने लगे....फिर हंसी थाम कर बोले ..."सॉरी टू से ..पर वे तो बिलकुल औरतों की तरह बात करते हैं...नाक फुला कर कहने लगे, 'सरिता जी ने मेरा अपमान किया है...मैने कहा ..'तो उनसे जाकर क्लियर कीजिये...यूँ दुसरो से उनकी बुराई करने का और ये फेक मेल भेजने का क्या मतलब ...तो बोले 'मैंने किसी से कोई बुराई नहीं की ..बल्कि उन्होंने मेरी इन्सल्ट की है...मैं बहुत हर्ट हूँ...हा...हा.. ही इज नॉट वर्थ इट...यु आर बेटर ऑफ हिम...शुक्र मनाइए जान छूटी..<br />
<br />
"मैने हर्ट किया है.....कैसे भला....पूछा नहीं,आपने??"..आवाज़ तेज हो गयी थी,उसकी.<br />
<br />
"अरे पूछना क्या...वे खुद ही भरे बैठे थे...कहने लगे...मुझे इग्नोर करती हैं....मुझे एवोयेड करती है...ये बहुत अपमानजनक है मेरे लिए...यही सब कह रहें थे....बाप रे..कैसे गाँव की औरतों की तरह नखरे के साथ बोलते हैं....मैं तो पांच मिनट ना झेल पाऊं ऐसे आदमी को...आपकी इनसे दोस्ती कैसे हो गयी...कई बार आपके डिपार्टमेंट में बैठे देखा है ,इन्हें .."<br />
<br />
" इसीलिए तो कह रही थी..आपको कुछ पता नहीं...वे मेरे दोस्त नहीं उनकी पत्नी मेरी सहेली थी.." फिर उसने सारी कहानी बतायी.<br />
<br />
तो कुमार हाथ झटक कर बोले ..."बस आपका काम ख़त्म हुआ...आपने अपना कर्तव्य निभाया.इसे यहीं छोड़ दीजिये और जरा भी चिंता मत कीजिये...आपको पूरा कॉलेज ज्यादा अच्छी तरह जानता है..वो भोंपू लेकर भी चिल्लाये ना..कोई असर नहीं होने वाला...चाय पीनी है..खूब मीठी सी ...यू विल फील बेटर "<br />
<br />
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<blockquote class="gmail_quote" style="border-left: 1px solid rgb(204, 204, 204); margin: 0pt 0pt 0pt 0.8ex; padding-left: 1ex;">
"ना एम आलरेडी फिलिंग बेटर आफ्टर टाकिंग टु यू ..थैंक्स.अ मिलियन ."</blockquote>
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<blockquote class="gmail_quote" style="border-left: 1px solid rgb(204, 204, 204); margin: 0pt 0pt 0pt 0.8ex; padding-left: 1ex;">
'एनिटायीम..बस आप ब्रश करने जाएँ तो ध्यान रखें ..दाँत सिंक में ना गिरा दें..." और दोनों जोर से हंस पड़े.<br />
***<br />
कुमार से बात करके सचमुच बड़ा हल्का हो आया मन. सच में इतनी तरजीह देने की क्या जरूरत...कितने दिन बोलेंगे. ये बस एक अटेंशन सीकर बेहवियर है. निगेटिव तरीके से ध्यान खींचने की कोशिश . वो कुछ रेस्पौंड ही नहीं करेगी तो खुद ही चुप हो जाएंगे और दोस्ती का क्या..शायद उसकी भूमिका यहीं तक थी...कृष्णा और वीरेंद्र की दोस्ती करवाने के लिए ही ईश्वर ने उसे चुना था. वीरेंद्र को यहाँ स्थापित करवाने और सबसे परिचय करवाने तक की जिम्मेवारी ही उसकी थी. . और अब उसकी जिम्मेवारी पूरी हुई,बस....कैसा गम. <br />
<br />
फेस्टिवल भी अब समाप्ति की ओर था. सारे इवेंट्स अच्छी तरह संपन्न हो रहें थे. बीच-बीच में हल्की-फुलकी गड़बड़ियां भी होती रहीं . डिबेट्स में दूसरे कॉलेज के आए स्टुडेंट्स ने बड़ा हंगामा किया . उसके कॉलेज के सारे डिबेटर्स को हूट कर दिया. फोर्थ इयर की ज्योति को इतनी अच्छी तरह तैयार किया था . गोल्ड मेडल कहीं जानेवाला नहीं था.पर उन लडको को देखते ही वह घबरा गयी. काफी कुछ तो भूल ही गयी...जो बोला वो भी डर-डर के. सबको अच्छा नहीं लगा, उसके कॉलेज में आकर दूसरे कॉलेज के बच्चे मेडल ले गए.पर अब क्या किया जा सकता है.</blockquote>
<div>
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<br />
<blockquote class="gmail_quote" style="border-left: 1px solid rgb(204, 204, 204); margin: 0pt 0pt 0pt 0.8ex; padding-left: 1ex;">
ऐसे ही फैन्सी ड्रेस कम्पीटीशन का उसने और फिलौसोफी की मंजुला ने नया कांसेप्ट सोचा था. कोई स्टेज नहीं बनाया...कॉलेज कैम्पस में ही तरह-तरह के वेश धरे स्टुडेंट्स आते रहें. प्रिंसिपल ने दो पीरियड ऑफ देकर इस इवेंट को और्गनाइज़ करने की अनुमति दी थी.पर बच्चो ने इतना एन्जॉय किया कि दो पीरियड की अवधि समाप्त हो जाने के बाद भी क्लास में नहीं गए. कैम्पस में ही ही हाहा करते रहें. जिन प्रोफेसर्स की क्लास थी..उनलोगों ने थोड़ी नाराज़गी जताई...हालांकि एन्जॉय उनलोगों ने भी कम नहीं किया. </blockquote>
<br />
<blockquote class="gmail_quote" style="border-left: 1px solid rgb(204, 204, 204); margin: 0pt 0pt 0pt 0.8ex; padding-left: 1ex;">
आज अंतिम दिन था और प्राइज़ डिस्ट्रीब्यूशन भी था. प्रिंसिपल ने प्रोग्राम की समाप्ति पर उसका अलग से उल्लेख कर उसे धन्यवाद कहा और भूरी-भूरी प्रशंसा की. वो तो इतना असहज महसूस कर रही थी कि सर भी नहीं उठा पायी.<br />
<br />
सब अच्छी तरह संपन्न हो जाने के बाद अब जी-जान से छूटी पढ़ाई में जुटी थी. पूरे दिन लाइब्रेरी में या स्टाफ-रूम में बैठे नोट्स तैयार करती रहती. उस दिन क्लास ख़त्म हो जाने के बाद मंजुला ने मार्केट चलने का इसरार किया. उसे कुछ शॉपिंग करनी थी. वो बोली, "ठीक है चलो..जरा ये नोट्स और किताबें मैं डिपार्टमेंट में अपने लॉकर में रख आऊं. "<br />
<br />
डिपार्टमेंट तक पहुंची कि उसे ख्याल आया, "अरे मोबाइल तो ..मेज पर ही छूट गया "<br />
उसने मंजुला को अपना बैग ,,किताबे थमायी और तेज कदमो से वापस लौट पड़ी. जब मोबाइल लेकर आई तो देखा, मंजुला दरवाजे के पास ही गंभीर मुद्रा में खड़ी है , उसने पूछा..तो उसे होठो पे अंगुली रख चुप हो सुनने का इशारा किया .<br />
<br />
अंदर वीरेंद्र की आवाज गूँज रही थी.."पता नहीं लोगो ने सरिता जी को इतना सर क्यूँ चढ़ा रखा है...किस बात की तारीफ़ कर रहें थे प्रिंसिपल...बटरिंग करती होंगी प्रिंसिपल की...पहले तो सारी जिम्मेवारी दे दी उन्हें...उन्हें ही क्यूँ??..और लोग नहीं हैं, कॉलेज में...कृष्णा जी हैं...नीलिमा जी हैं..इतने एफिशिएंट लोंग हैं...कितना हंगामा मचा रहा..पूरे प्रोग्राम के दौरान...डिबेट का मेडल दूसरे कॉलेज वाले ले गए...फैन्सी ड्रेस वाले दिन देखा...कोई डिसिप्लीन ही नहीं..कृष्णा जी एकदम शान्ति से सुचारू रूप से सब करवातीं. सरिता जी को ना तो पढ़ाने का ढंग है..ना क्लास में शान्ति रखने का.....एक काम भी उनका सही नहीं होता..फिर भी लोगो को देखिए बिना वजह की तारीफ़ करते रहते हैं..."<br />
<br />
"अरे जमाना ऐसा ही है....वीरेंद्र जी" किसने कहा..ये देखने को कमरे के अंदर झाँका तो पाया, वहाँ तो उसके सारे ही तथाकथित दोस्त भरे पड़े हैं..कृष्णा, शकुंतला जी, नीलिमा तो हमेशा की तरह थी हीं पर उसे आश्चर्य हुआ , मनीषा दी को देख. वे उसकी बड़ी दीदी की सहेली थीं....उनसे घर जैसा रिश्ता था. हमेशा, उसे मेरी छोटी बहन कह लाड़ लगाती रहतीं. वे भी चुपचाप वीरेंद्र का ये अनर्गल प्रलाप सुन रही थीं. एक शब्द नहीं कहा उन्होंने कुछ. भले ही ना कहतीं..पर कम से कम वहाँ से हट तो सकती थीं. यह सब सुनने की क्या मजबूरी थी,उनकी? उतना ही आश्चर्य हर्षल को देख भी हुआ. नया -नया उसके हिस्ट्री डिपार्टमेंट आया था. उसे दीदी कहते उसकी जुबान नहीं थकती . उसका सबसे बड़ा खैरख्वाह बनता था .इतना एग्रेसिव था ,किसी से भी लड़ पड़ने को तैयार. कितनी बार रोका था उसे. और यहाँ, वह भी सब चुपचाप सुन रहा था.<br />
<br />
उसकी आँखे झलझला आई थीं. मंजुला ने महसूस किया और उसका हाथ पकड़ कर बोली.."चलो..यहाँ से चलते हैं"<br />
उसके लाख मना करने पर भी उसे शॉपिंग के लिए ले गयी..."अरे मूड ठीक होगा..घर जाओगी तो यही सब सोचते बैठोगी. घर पर कोई है भी नहीं...कि ध्यान बंटेगा..चलो मेरे साथ."<br />
<br />
हँसते-बतियाते..ढेर सारी शॉपिंग की....उसे भी लगा ..अब वो नॉर्मल है सब भूल गयी है. पर घर की तरफ आते ही जैसे बाँध की पानी की मानिंद उन बातों का सैलाब उमड़ पड़ा....और थके-बोझिल कदमो से उसने दरवाज़ा खोल अंदर कदम रखा.<br />
<br />
खिड़की के पास खड़ी ...उन्ही बातों के बहाव के साथ मन हिचकोले ले रहा था .बिजली अभी तक नहीं आई थी.लगता था कुछ मेजर ब्रेकडाउन हो गया है. बाहर फैला घना अँधेरा उसके अंदर भी फैलता जा रहा था. सामने शर्मा जी के बंगले का चौकीदार अपनी लाठी ठक-ठक करता हुआ गेट के पास बैठ गया था.अब पता था वो ऊँची वाल्यूम में अपना ट्रांजिस्टर ऑन करेगा. और अगले ही पल फिजा को गुंजाते हुए स्वरलहरियां फ़ैल गयीं..गाना बज रहा था,<br />
<br />
"कसमे वादे प्यार वफ़ा<br />
सब बातें हैं बातों का क्या<br />
कोई किसी का नहीं <br />
ये रिश्ते नाते हैं, नातों का क्या"<br />
<br />
वो ऐसे चौंक उठी जैसे उसकी ही चोरी पकड़ ली हो किसी ने...उसके मनोभाव का इन गाना प्ले करने वालों को कैसे चल गया? क्या सचमुच ऐसी ही है दुनिया...ये रिश्ते-नाते क्या कच्चे बखिए से हैं...बिन प्रयास के ही उधड़ जाते हैं. कैसे किसी पर विश्वास करे....हर चेहरे के अंदर एक चेहरा है...जबतक नकाब पड़ी रहें तभी तक दुनिया ख़ूबसूरत है...उसे लगता था ..सबकुछ देख -जान चुकी है...अब कुछ भी बाकी नहीं..दुनिया के हर पैंतरे से वाकिफ है वह... पर इतना कुछ देखने के बाद भी कितन कुछ अनदेखा -असमझा बाकी रह जाता है...</blockquote>
<div>
</div>
<br />
<blockquote class="gmail_quote" style="border-left: 1px solid rgb(204, 204, 204); margin: 0pt 0pt 0pt 0.8ex; padding-left: 1ex;">
अनायास ही उसकी नज़र आकाश की तरफ उठ गयी. सुदूर कोने में एक मध्यम सा तारा था . उसकी नज़र पड़ते ही झिलमिलाया ,लगा उसने आँखे झिपझिपा कर हामी भरी हो.</blockquote>
</div>
rashmi ravijahttp://www.blogger.com/profile/04858127136023935113noreply@blogger.com77tag:blogger.com,1999:blog-6953374982088960088.post-2408323710847660302010-12-24T04:11:00.000-08:002017-07-08T10:22:16.203-07:00कच्चे बखिए से रिश्ते<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://1.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TRSJx074fgI/AAAAAAAABQk/sukCR1hA6I8/s1600/sh.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><br />
</a><a href="http://1.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TRSJx074fgI/AAAAAAAABQk/sukCR1hA6I8/s1600/sh.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><br />
</a></div>
<br />
<a href="http://1.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TRSJx074fgI/AAAAAAAABQk/sukCR1hA6I8/s1600/sh.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://1.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TRSJx074fgI/AAAAAAAABQk/sukCR1hA6I8/s320/sh.jpg" width="206" /></a>ताला खोल,थके कदमो से...घर के अंदर प्रवेश किया...बत्ती जलाने का भी मन नहीं हुआ..खिड़की के बाहर फैली उदास शाम, जैसे उसके मूड को रिफ्लेक्ट कर रही थी...या शायद उसके मन की उदासी ही खिड़की के बाहर फ़ैल कर पसर गयी थी...अच्छा था, आज घर में वो अकेली थी..जबरदस्ती मुस्कुराने का नाटक करने की जहमत पल्ले नहीं थी....बच्चे अपनी बुआ के पास गए थे और पति दौरे पर. जबरदस्ती कोई बात नहीं करनी थी....दिखाना नहीं था कि सब नॉर्मल है...आज वह जी भर कर अपनी उदासी को जी सकती थी...कब मिलता है ज़िन्दगी में ऐसा मौका कि अपनी मनस्थिति को बिना कोई मुखौटा लगाए सच्चाई से जिया जा सके. अचानक मोबाइल का ध्यान आ गया...डर लगा, उसके अकेले रहने पर पति से लेकर बच्चे..ननदें...सब फोन करके अपनी उदासी को जीने के मुश्किल से मिले ये पल....कहीं छीन ना लें..और उसे वापस उसी चहकती आवाज में बतियाना पड़े...कि 'चिंता ना करो सब ठीक है'..मोबाइल साइलेंट पर रख,दराज़ में रख दिया. लैंडलाइन का रिसीवर भी उतार कर रख दिया...ख्याल आया कॉफी के साथ ये उदासी एन्जॉय की जाए....कॉफी में दूध भी नहीं डाली...सारे कॉम्बिनेशन सही होने चाहिए...धूसर सी शाम...अँधेरा कमरा ...ये उदास मन और काली कॉफी. <br />
<br />
कॉफी का मग थामे खिड़की तक चली आई....शाम के उजास को अब अँधेरे का दैत्य जैसे लीलता जा रहा था...और दूर के दृश्य उसके पेट में समाते जा रहें थे. दैत्य ने उसकी खिड़की के नीचे भी झपट्टा मार थोड़ी सी बची उजास हड़प ली. और उसके इस कृत्य से नाराज़ हो जैसे सारे उजाले छुप गए..शहर की बिजली चली गयी थी. घुप्प अँधेरा फैला था...उसकी नज़र आकाश की तरफ गयी..आकाश में तारों ...अभी कुछ ही देर में पूरी महफ़िल सज जाएगी और सारे तारे जग-मग करने लगेंगे. क्या ये तारे हमेशा ही इतनी ख़ुशी से चमकते रहते हैं या कभी उदास भी होते हैं. इन्ही तारों में से एक उसकी सहेली भी तो होगी...पर वो उसे उदास देख क्या कभी खुश हो सकती है?<br />
<br />
रूपा से उसकी टेलीपैथी इतनी अच्छी थी कि उसके अंतर्मन के सात पर्दों में छुपी उदासी की हल्की सी रेखा भी उससे नहीं छुप पाती थी. वो कहती थी.."अरे नहीं....सब ठीक है..इट्स फाइन....मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता" तो रूपा गंभीर हो कहती.."अगर कहना पड़े ना..इट्स फाइन..मुझे फर्क नहीं पड़ता इसका मतलब है...फर्क पड़ता है....बताओ ना ..क्या हुआ " और कितनी भी कोशिश करती बात टालने की आखिर उसे रूपा को सब बताना ही पड़ता और फिर दोनों मिलकर उस वाकये की शल्यचिकित्सा कर डालतीं. उसका मन हल्का हो जाता . पर आज उसका दुख बांटना तो दूर समझनेवाला भी कोई नहीं था . <br />
<br />
रूपा कोई उसकी बचपन की सहेली नहीं थी. रूपा के पिता और उसके पिता की पोस्टिंग एक ही जगह हुई थी और वे दोनों अपने-अपने मायके आई हुई थीं...उन्ही दिनों रूपा से मुलाकात हुई थी .जल्दी ही यह पहचान एक गहरी दोस्ती में बदल गयी...जैसे कोई पूर्वजनम का नाता हो. मुलाकात तो कम ही होती पर फोन से कॉन्टैक्ट बना रहता. दोनों बच्चों सा किलकती हमेशा एक दूसरे के शहर आ मिलने का जुगाड़ बनातीं पर वह कारगर नहीं हो पाता. रूपा शिकायत करती,कितना अच्छा होता तेरी जगह मेरे पति की तरह तेरे पति भी प्रोफ़ेसर होते और फिर हम गर्मी की लम्बी छुट्टियां साथ बिताते. ईश्वर ने उसकी उनके एक ही शहर में रहने की पुकार सुनी तो सही पर गिने-चुने दिनों के लिए.<br />
<br />
उसके कॉलेज में फिजिक्स के प्रोफ़ेसर की जरूरत थी और उसने हिचकते हुए रूपा को फोन मिलाया क्या उसके पति इस शहर के कॉलेज में ज्वाइन करेंगे? रूपा तो खबर सुनते ही उछल पड़ी..."क्यूँ नहीं करेंगे....बड़े शहर का बड़ा कॉलेज है.इस कस्बे के कॉलेज से तो हर हाल में अच्छा. हमारी दोस्ती की बात तो जाने दे..पर इनके कैरियर के लिए भी बहुत अच्छा है." <br />
वह अक्सर कॉलेज के डिबेट्स..एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटीज़ कंडक्ट किया करती थी,जिस से प्रिंसिपल से थोड़ी जान-पहचान हो गयी थी और थोड़ी अनौपचारिकता भी. इसका ही फायदा उठाया और रूपा के पति वीरेंद्र की सिफारिश कर डाली. प्रिंसिपल तुरंत मान गए. वीरेंद्र का बायोडेटा भी इम्प्रेसिव ही था. बढ़िया कॉलेज. और बढ़िया पर्सेंटेज और वीरेंद्र जोशी ने उसका कॉलेज ज्वाइन कर लिया.<br />
<br />
उसने रूपा को नए शहर में गृहस्थी बसाने में पूरी सहायता की ..घर पर खाने को भी बुलाया .उसके पति से भी मुलाकात हुई. उसे शरीफ से ही लगे. मितभाषी और थोड़े बोरिंग भी. पर उसने सोचा कौन सी मुलाकात होनी है...वो इतिहास पढ़ाती है...जबकि वे फिजिक्स ..अलग फैकल्टी अलग बिल्डिंग....कभी कुछ सन्देश देना भी हो तो सोच कर जाना पड़ेगा. पर वो यहीं गलत साबित हो गयी. वीरेंद्र अक्सर उसके डिपार्टमेंट में आ जाते. शुरू में तो उसे लगा ..अभी किसी और से परिचय नहीं है..दोस्त नहीं बने हैं..इसीलिए आ जाते हैं और शायद...अपनी पत्नी की सहेली को हलो कहना फ़र्ज़ भी समझते हों. पर धीरे धीरे उसे नागवार गुजरने लगा. खासकर इसलिए कि कोई बात ही नहीं होती करने को. वो ज्यादातर रूपा और उसके बेटे अक्षय की ही बात करती. वे भी खुश खुश दोनों विषय में कुछ ना कुछ बताते रहते. उसे लगता चलो कितने भी बोरिंग हों..उसकी सहेली का तो अच्छी तरह ख्याल रखते हैं. और उसकी सहेली खुश है तो अपनी सहेली के लिए उसके बोरिंग पति को झेल लेना उसका भी फ़र्ज़ है. वह रूपा को सरप्राइज़ देने के उन्हें नए नए गुर बताती. <br />
<br />
रूपा का बर्थडे आ रहा था और उसने वीरेंद्र को बताया क़ि आप उसे एक रेस्टोरेंट में ले जाइए और उसके मैनेजर से पहले ही बात कर लीजिये क़ि वो कुछ देर बाद उनकी टेबल पर जलती हुई मोमबत्ती के साथ एक केक भेजे और 'हैप्पी बर्थडे" का म्यूजिक बजाए . और मैने ये आइडिया दिया है..ये बिलकुल मत बताइयेगा ".वीरेंद्र ने ठीक ऐसा ही किया और दूसरे दिन सुबह सुबह रूपा का फोन आया. ख़ुशी उसकी आवाज़ से छलकी पड़ रही थी, 'ये मेरे लाइफ का सबसे यादगार बर्थडे था. इसका थोड़ा श्रेय तुम्हे भी जाता है..तुमने हमें इस बड़े शहर में आने का मौका दिया..उस छोटे से शहर में तो एक ढंग का रेस्टोरेंट भी नहीं था फिर वीरेंद्र को ये सब पता भी नहीं था . यहीं किसी से सुना होगा उन्होंने.." वो मन ही मन मुस्कराती उसकी ख़ुशी में शामिल होती रही. रूपा खुश है...उसे और क्या चाहिए. इस बार तो वीरेंद्र ने अच्छी एक्टिंग कर ली.रूपा को पता नहीं लगने दिया क़ि उसने बताया था सब. पर तीज के वक्त वे भूल कर बैठे .<br />
उसने यूँ ही पूछ लिया.."कल तीज है..आप रूपा के लिए कुछ ले जा रहें हैं ?"<br />
<br />
"मुझे तो ध्यान ही नहीं, कल तीज है...और क्या ले जाऊं..."<br />
<br />
"अरे! वो आपके लिए सारा दिन भूखी रहेगी और आप उसके लिए कुछ नहीं करेंगे??...उससे पूछिए,उसे क्या चाहिए उसे शॉपिंग के लिए लेकर जाइए...आपकी क्लास तो ख़त्म हो चुकी है...बस देर किस बात की...अभी ही घर की तरफ निकल लीजिये"<br />
<br />
वीरेंद्र के चले जाने के बाद उसने लम्बी सांस ली....आज तो एक ही पत्थर से दो शिकार किए , अपनी सहेली को भी खुश कर दिया और वीरेंद्र से भी जान छुड़ा ली."<br />
<br />
पर शायद वीरेंद्र , रूपा के दरवाज़ा खोलते ही उस से पूछ बैठे ..."कल तीज है ना..कुछ लेना है मार्केट से?..चलो इसीलिए जल्दी आ गया हूँ "<br />
<br />
और रूपा समझ गयी क़ि उसने ही बताया है...बाद में उसने उस से पूछा..तो वो बिलकुल नकार गयी.<br />
<br />
"नहीं मुझे क्या पता..बेचारे ने इतना ख्याल रखा तुम्हारा...और तू शक कर रही है..नॉट फेयर..."<br />
<br />
रूपा हंस पड़ी."नहीं बताना तो मत बता..पर एक गाना याद आ रहा है..'होठों पे सच्चाई रहती है..जहाँ दिल में सफाई रहती है...."<br />
<br />
आज भी वो गाना जब बजता है तो उस से सुना नहीं जाता वो टी.वी. बंद कर देती है...बच्चे भी आश्चर्य करते हैं...' इतना अच्छा गाना तो है.तुम्हारे जमाने का...तुम्हे तो ऐसे रोने वाले गाने ही पसंद है...क्यूँ बंद कर दिया.."<br />
<br />
वो बहाने बना देती है..." आजकल कहाँ किसी के होठो पे सच्चाई और दिल में सफाई होती है..इतना झूठा गाना नहीं सुना जाता..." सच बता भी दे तो कोई भी उसके दुख को उस गहराई से महसूस नहीं कर पायेगा..क्या फायदा बोलने का .<br />
<br />
वीरेंद्र तो नियमित आते रहते पर रूपा से उसकी बात नहीं हो पा रही थी...रूपा जब कॉल करती तो वो क्लास में होती या कहीं और .... जब वो कॉल करती तो..रूपा नहीं उठाती..कभी किचन..बाथरूम या फिर कभी सब्जी लाने गयी होती तो कभी बेटे को स्कूल छोड़ने. वीरेंद्र ने भी शिकायत की कि रूपा परेशान है, उस से बात नहीं हो पा रही . जब उसने कहा कि वो तो फोन करती है घर पर रूपा फोन ही नहीं उठाती..तो वीरेंद्र तुरंत बोले, "मेरे मोबाइल पर कर लीजिये..मैं जाकर दे दूंगा.." उसे उन्हें नंबर देना गवारा नहीं हुआ...कॉलेज में उनकी कंपनी क्या कम झेलनी पड़ती है कि अब फोन पर भी झेले. उसने मुस्कुरा कर बहाने बना दिए.."रूपा को ही एक मोबाइल लाकर दे दीजिये ना...रूपा बाहर भी जाएगी तो उसका फोन उठा सकती है..या फिर उसका नंबर देख कॉल बैक तो करेगी. <br />
<br />
दो दिन बाद ही वीरेंद्र ने बताया कि रूपा के लिए मोबाइल ले दिया है..अब आप अपना नंबर दे दीजिये..उसने कहा.."ना आप रूपा का नंबर दीजिये..मैं उसे फोन करके सरप्राइज़ कर दूंगी..." <br />
ओके कह कर उन्होंने नंबर भी दे दिया उसने सेव तो कर लिया..पर घर गयी तो आदतन ,लैंड लाइन ही खटका डाला. रूपा ने बताया वो दो दिन बाद ही हफ्ते भर के लिए सापरिवार कोई शादी अटेंड करने ससुराल जा रही है. <br />
<br />
वीरेंद्र भी छुट्टी ले चले गए . कुछ दिन तक कोई खबर नहीं आई . वह समझ रही थी, रूपा रिश्तेदारों में बिजी होगी...वापस शहर आते ही फोन करेगी. पर पता नहीं क्या इंट्यूशन हुआ ,एक शाम यूँ ही कॉल कर बैठी..दो मिनट के लिए ही सही....बात कर लेगी. पर रूपा ने ना तो फोन उठाया ना ही कॉल बैक किया. उसे आश्चर्य हुआ,अगले दो दिन में उसने कई कॉल कर डाले पर रिंग होता रहा. फोन नहीं उठाया उसने. उसका कॉल भी नहीं आया तो उसे आश्चर्य हुआ.पता था, बिजी होगी..फिर भी एक बार भी फोन ना उठाये ऐसी क्या व्यस्तता..उसके बाद अक्सर ही वो कई कॉल कर डालती पर नतीजा वही..नो रिस्पौंस सोचा ,लगता है..रिश्तेदारों में ज्यादा ही व्यस्त है..पर कुछ दिन बाद जो खबर आई वो तो सबका दिल दहला गयी. अब रूपा किसी भी व्यस्तता से छुट्टी पा चुकी थी..एक भीषण बस एक्सीडेंट में अपने बेटे के साथ इस लोक को विदा कह चुकी थी. वीरेंद्र को कई फ्रैक्चर्स थे पर ज़िन्दगी को कोई खतरा नहीं था. आखिर रूपा ने उनकी लम्बी ज़िन्दगी के लिए व्रत जो रखे थे और सफल हुई थी उसकी पूजा. <br />
<br />
उसके दुख का कोई ठिकाना नहीं था पर वीरेंद्र के दुख के सामने उसका दुख नगण्य था. कॉलेज के काफी लोग मिलकर उनके शहर हॉस्पिटल में देखने गए थे. वीरेंद्र ने एक भी बात नहीं की बस शून्य आँखों से छत देखते रहें थे. उसका कलेजा मुहँ को आ गया था. वीरेंद्र के स्वस्थ होने की प्रार्थना करती रहती पर साथ ही सोचती हॉस्पिटल से निकल वे वापस कैसे सामन्य ज़िन्दगी जी पाएंगे. उसके दुख की सीमा नहीं थी.<br />
<br />
इस हादसे के करीब दो महीने बाद.... कॉलेज से आ कपड़े समेट रही थी कि उसका मोबाइल बज उठा..देखा..'रूपा कॉलिंग' वो तो जड़ हो गयी...उसने नंबर डिलीट ही नहीं किया था. समझ गयी वीरेंद्र होंगे दूसरे एंड पर .किसी तरह कांपते हाथो से फोन उठाया. वीरेंद्र की आवाज़ आई..'इस नंबर से बहुत सारे मिस्ड कॉल थे इस सेल पर" उसका गला भर आया...किसी तरह रुंधे हुए स्वर में बताया.."वीरेंद्र जी....मैं हूँ ....सरिता " और वीरेंद्र दहाड़ मार रो पड़े..उसकी भी सिसकियाँ बंध गयीं. उस दिन तो कुछ भी बात नहीं हो पायी..."ये क्या हो गया सरिता जी.."..बस बार बार यही कहते रहें..."आपकी सहेली मुझे छोड़कर चली गयी.."<br />
<br />
वीरेंद्र हॉस्पिटल से डिस्चार्ज हो घर आ गए थे .पर अभी पूर्ण स्वस्थ होना बाकी था. अब अक्सर वीरेंद्र के फोन आने लगे....वो उन्हें अपनी शक्ति भर ढाढस बताती रहती . हमेशा निराशावादी बातें करते .."अब क्या करूँगा जीकर...कैसी नौकरी...अब रिजायीन कर दूंगा ..किसके लिए पैसे कमाना है.." वो उन्हें समझाती रहती..वही सैकड़ों बार कही बातें दुहराती रहती.."जानेवाला तो चला गया...अब जीना तो पड़ेगा..वगैरह ..वगैरह "<br />
<br />
उनके दुख से वह भी दुखी हो जाती...समझ नहीं पाती..उन स्मृतियों से भरे घर में अब वो किस तरह रह सकेंगे...उसे लगता ,शायद वही अपने माता-पिता के पास ही वे रह जाएँ...किसी ना किसी कॉलेज में नौकरी उन्हें मिल ही जायेगी. पर जब एक महीने बाद उन्होंने कहा कि वे उसी कॉलेज में ज्वाइन करने आ रहें हैं तो बहुत आश्चर्य हुआ उसे. पर फिर सोचा ,आखिर उन्हें नई ज़िन्दगी भी तो शुरू करनी होगी...इतनी बढ़िया नौकरी क्यूँ कुर्बान करें. शुरू में दसेक दिनों तक माता-पिता साथ आए थे पर फिर अपनी जगह छोड़ उनका मन नहीं लगा...और वे वापस चले गए...अब वीरेंद्र नितांत अकेले थे अपने घर में..सोच कर उसकी रूह काँप जाती ,'हर तरफ यादें बिखरी पड़ी होंगी..कैसे रह पाते होंगे..<br />
<br />
अब भी वीरेंद्र खाली पीरियड होते ही उसके डिपार्टमेंट में चले आते. अब तो सबकी सहानुभूति थी उनके साथ. वह भी पूरी कोशिश करती कि उनका दुख बांटने की कोशिश करे..पर मुश्किल थी, कैसे.??.'संवाद अब भी उनके बीच नहीं हो पाता और अब तो कुछ विषय भी प्रतिबंधित हो गए थे..पहले रूपा की... उनके बेटे की कितनी बातें कर लेती थी..अब ध्यान रखती की गलती से भी उनका नाम ना आ जाए ,उसकी जुबान पर. अपने बच्चों की ही पढ़ाई की स्कूल की बातें किया करती थी ..पर अब अपने बच्चों का भी नाम नहीं लेती कि कहीं उन्हें अपने बेटे की याद ना आ जाए.<br />
<br />
वीरेंद्र बताते रात भर वे सो नहीं पाते हैं...और उनकी स्थिति वो समझ सकती थी. उसने सुझाया <br />
"योगा किया कीजिये ..मन भी शांत होगा और नींद भी समय पर आ जाएगी"<br />
<br />
"पर सुबह उठूँ कैसे...चार-पांच बजे सुबह तो नींद आती है.."<br />
<br />
"बस एकाध दिन कोशिश कर उठ जाइए..फिर बॉडी क्लॉक सेट हो जायेगा और जल्दी नींद आ जाया करेगी."<br />
<br />
"नहीं हो पाता कितना भी कोशिश करता हूँ..नींद नहीं खुलती "<br />
<br />
"ठीक है..मैं उठा दिया करुँगी.." और वह सुबह बच्चों के लिए टिफिन बनाने उठती और किचन से उन्हें फोन करके उठाया करती कि कहीं पति ना जाग जाएँ. पति कितने भी उदार थे ..वीरेंद्र से सहानुभूति भी थी...पर सुबह -सुबह अपनी बीवी का किसी और को फोन करके जगाना भी नागवार ना गुजरे..ये अपेक्षा उनके मेल इगो से कुछ ज्यादा हो जाती. <br />
<br />
चार-पांच दिनों बाद ही उनकी आदत बन गयी और वे अपने आप जल्दी उठने लगे और सोने भी लगे. उसने भी फिर ना तो पूछा ना ही फोन किया. सोचा,उसने तो अपना कर्तव्य निभाया अब आगे वे जाने.<br />
<br />
परन्तु अब धीरे-धीरे उनकी कंपनी असह्य होने लगी थी क्यूंकि बात करते पता चलता उनके विचार किसी बिंदु पर नहीं मिलते. राजनीतिक,सामाजिक, किसी विषय पर वे एक तरह नहीं सोचते. किताबो की बात करने की कोशिश करती तो यहाँ भी पसंद बिलकुल अलग थी..उन्हें आधुनिक,नया लेखन बिलकुल पसंद नहीं था . फिल्मे, क्रिकेट, अखबारों की गॉसिप में उनकी कोई रूचि नहीं थी. बड़े शुष्क किस्म के इन्सान थे. और मुश्किल थी कि वे एक सीमा तक असहिष्णु थे. उन्हें लगता जो उन्हें पसंद वो दूसरे को कैसे पसंद नहीं आ सकता??.वो मजाक में बात टाल भी देती पर बहस पर उतारू हो जाते. और मुश्किल ये कि वे नए दोस्त भी नहीं बनाते. उनके डिपार्टमेंट के लोगो ने दोस्ती का हाथ बढाया...क्लास के बाद कहीं चलने के लिए पूछ लेते. उस से जिक्र करते तो वह भी उत्साह बढ़ाती ,"आपको जाना चाहिए था...ऐसे ही तो लोगो से जान-पहचान होगी"<br />
<br />
पर वे पुराना राग ले बैठ जाते.."नहीं मुझे क्या करना है..दोस्ती करके..मेरा जी उचट गया है, दुनिया से ..मैं तो बस कॉलेज आता हूँ..पढाता हूँ..घर चला जाता हूँ...मुझे नहीं दिलचस्पी,किसी से दोस्ती करने में ...कहीं आने-जाने में " कुछ प्रोफेसर्स इनके परिचितों के दोस्त, रिश्तेदार ही निकल आए...एक जनाब...उनके कजिन के क्लासमेट थे...एक उनके चाचा के पड़ोसी .उसे लगा अब तो कम से कम पुराने परिचितों के हवाले ही उनके करीब जाएंगे...उसने हुलस कर पूछा .."ये तो बड़ी अच्छी बात है...अब तो आप उनसे कितनी सारी पुरानी बातें शेयर कर सकते हैं" <br />
<br />
लेकिन फिर.."ना मुझे कोई इंटरेस्ट नहीं....मुझे नहीं करनी कोई बात .." उनके ठंढे से जबाब ने उसके सारे उत्साह पर पानी फेर दिया. <br />
(क्रमशः)</div>
rashmi ravijahttp://www.blogger.com/profile/04858127136023935113noreply@blogger.com27tag:blogger.com,1999:blog-6953374982088960088.post-88602599066790928802010-12-10T09:02:00.000-08:002010-12-10T09:02:58.604-08:00कहानी 'छोटी भाभी' की<span style="font-family: 'Arial Unicode MS';">इन दिनों व्यस्तता कुछ ऐसी चल रही है कि कहानी के इतने प्लॉट्स दिमाग में होते हुए भी...उन्हें विस्तार देने का मौका नहीं मिल पा रहा...और ख्याल आया...कहानी सुनवाई तो जा ही सकती है. ये कहानी भी आकशवाणी से प्रसारित हुई थी. इसे ब्लॉग पर भी पोस्ट कर चुकी हूँ<a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2010_02_01_archive.html"> "होठों से आँखों तक का सफ़र ".</a>.शीर्षक से..... दोनों कहानियों में थोड़ा बहुत अंतर ..रेडियो के समय सीमा के कारण नज़र आ सकता है<br />
<br />
तो मुलाहिजा फरमाएं :) </span><br />
<br />
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<br />
<object height="28" width="335"><param value="http://www.divshare.com/flash/audio_embed?data=YTo2OntzOjU6ImFwaUlkIjtzOjE6IjQiO3M6NjoiZmlsZUlkIjtpOjEyNzkxNjU3O3M6NDoiY29kZSI7czoxMjoiMTI3OTE2NTctNTMwIjtzOjY6InVzZXJJZCI7aToxNzk4MDE0O3M6MTI6ImV4dGVybmFsQ2FsbCI7aToxO3M6NDoidGltZSI7aToxMjg2Nzk4NTM5O30=&autoplay=default" name="movie"></param><param name="allowFullScreen" value="true"></param><param name="allowscriptaccess" value="always"></param><param name="wmode" value="transparent"></param><embed wmode="transparent" height="28" width="335" type="application/x-shockwave-flash" allowscriptaccess="always" allowfullscreen="true" src="http://www.divshare.com/flash/audio_embed?data=YTo2OntzOjU6ImFwaUlkIjtzOjE6IjQiO3M6NjoiZmlsZUlkIjtpOjEyNzkxNjU3O3M6NDoiY29kZSI7czoxMjoiMTI3OTE2NTctNTMwIjtzOjY6InVzZXJJZCI7aToxNzk4MDE0O3M6MTI6ImV4dGVybmFsQ2FsbCI7aToxO3M6NDoidGltZSI7aToxMjg2Nzk4NTM5O30=&autoplay=default"></embed></object><br />
<br />
चाहें तो सुन ले...या फिर इस लिंक पर पूरी कहानी पढ़ सकते हैं.<br />
<a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2009/09/blog-post.html">http://mankapakhi.blogspot.com/2009/09/blog-post.html </a><br />
<div class="ii gt" id=":33i"><div id=":33j"><div></div><div></div><div></div></div></div><br />
<div class="ii gt" id=":3gy"><div id=":3gz"><div></div><div><a ?claim="kpucgzvmxlzg&ping=http://mankapakhi.blogspot.com/"" href="http://draft.blogger.com/%3Ca%20href=" http:="" target="_blank" www.chitthajagat.in=""><br />
</a></div><div></div></div></div>rashmi ravijahttp://www.blogger.com/profile/04858127136023935113noreply@blogger.com24tag:blogger.com,1999:blog-6953374982088960088.post-22546992919671846592010-09-27T04:21:00.000-07:002010-09-27T20:07:25.091-07:00हैप्पी बर्थडे ... मन का पाखी<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TKBytaYpgVI/AAAAAAAABC4/a8IO4bo3_IQ/s1600/index.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="264" src="http://1.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TKBytaYpgVI/AAAAAAAABC4/a8IO4bo3_IQ/s320/index.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: left;">'मन का पाखी' ने एक वर्ष की उड़ान भर ली और अब तक थका हो...ऐसा महसूस तो होता नहीं. वैसे भी मन के पाखी को इस ब्लॉग आकाश की खबर बहुत दिनों बाद चली. और गलती मेरी थी, पिछले 5 साल से नेट पर सक्रिय हूँ पर हिंदी ब्लोग्स के बारे में मालूम नहीं था. बस कभी कभार 'चवन्नी चैप' पढ़ लिया करती थी. एक बार वहाँ हिंदी फिल्मो से सम्बंधित किसी के संस्मरण पढ़े और मेरा भी मन हो आया कि अपने अनुभवों को कलमबद्ध करूँ. मैने भी अपने संस्मरण लिख कर <b>अजय(ब्रहमात्मज) भैया</b> को भेज दिए (.हाँ, वे मेरे भैया भी हैं.) उन्हें पसंद आई और उन्होंने पोस्ट कर दी. उस पोस्ट पर काफी कमेंट्स आए पर उस से ज्यादा लोगों ने उन्हें फोन कर के बोला,कि 'बहुत अच्छा लिखा है.' मैने बेवकूफी भरा प्रश्न पूछ लिया कि "जब इतने लोगों को अच्छा लगा तो उन्होंने कमेंट्स क्यूँ नहीं लिखे?" और अजय भैया ने बताया "सबलोग कमेंट्स नहीं लिखते" (अब तो मैं भी यह बात बहुत अच्छी तरह जान गयी हूँ...इसलिए मेरे ब्लॉग के <b>Silent Readers </b>आप सबो का भी बहुत आभार,मेरा लिखा ,पढ़ते रहने के लिए:) ) </div><br />
अजय भैया ने मुझे अपना ब्लॉग बनाने की सलाह दे डाली . पर मैं बहुत आशंकित थी. यूँ तो पहले भी मैं पत्रिकाओं में लिखती थी.पर लिखने और छपने के बीच एक एडिटर होता था. यहाँ खुद ही निर्णय लेना था,क्या लिखना है? पर अजय भैया रोज ही पूछने लगे थे. उन्हें ऑनलाइन देख मैं डर जाती. उन्हें पता था,मैने कहानियां लिख रखी हैं.कहने लगे कम से कम एक जगह एकत्रित करने की सोच ही ब्लॉग बना डालो. और मैने ब्लॉग बना कर अपनी एक कहानी पोस्ट कर दी.,<b>चंडीदत्त शुक्ल ,आशीष राय,रेखा श्रीवास्तव ,कुश, ममता</b> ये लोग पहली पोस्ट से ही मेरे ब्लॉग के पाठक बन गए और लगातार उत्साहवर्द्धन करते रहें. आप सबका शुक्रिया .<br />
<br />
दूसरी पोस्ट पर भी कई नए लोगों के कमेंट्स आए.उसके बाद तो मुझमे आत्मविश्वास आ गया,और किसी भी विषय पर लिखने लगी. आज जब पुरानी पोस्ट पर नज़र डाली तो कुछ नाम देख हैरान रह गयी.<b>उड़न तश्तरी , डिम्पल, निर्मला कपिला, रश्मि प्रभा,दिलीप कवठेकर, कमल शर्मा, प्रवीण शाह, सुलभ सतरंगी, रंगनाथ सिंह, पंकज उपाध्याय, गिरीश बिल्लोरे, दर्पण शाह , अपूर्व, विजय कुमार सप्पति, शमा, अनिल कांत, रंजना भाटिया, जाकिर अली, सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, नीरज गोस्वामी, सुरेश चिपलूनकर, डा. दराल</b> ये लोग शुरू से ही टिप्पणी देकर मेरी हौसला अफजाई करते रहें ह<span style="background-color: blue;">ैं</span> ('जी' सबमे कॉमन है :)) आप सबो का शुक्रिया.<br />
<br />
<b>निर्मला जी</b> ने जब लिखा "तुम्हारी शैली बहुत प्रभावित करती है" और अगले कमेंट्स में कई लोगों ने उसका अनुमोदन किया तो मैने आश्चर्य से सोचा, "अच्छा ! मेरी कोई शैली भी है. " ऐसे ही<b> दीपक मशाल ,अजय झा,राज भाटिया जी, विवेक रस्तोगी जी </b> और कई लोगों ने कहा 'आपके लेखन में सहज प्रवाह है" तो मन में संतोष हुआ. मुझे किसी भी लेख में सबसे ज्यादा उसका फ्लो पसंद आता है...और थोड़ा बहुत मेरे लिखने में भी आ गया है, अच्छा लगा,जान. <b>नीरज गोस्वामी जी</b> का ये कहना ,"आपके विचार बहुत स्पष्ट हैं" और <b>गौतम राजरिशी</b> का बार बार उल्लेखित करना कि "आप का विषय चयन अचंभित कर देता है '...हैरान कर देता, इतना कुछ दिख गया ,इनलोगों को मेरे लेखन में और मुझे कुछ पता ही नहीं था. <br />
<br />
एक शाम अमिताभ बच्चन के ब्लॉग में पढ़ा, कि वे मिडिया द्वारा ब्लॉग को महत्व नहीं दिए जाने से बहुत दुखी हैं और मैने एक पोस्ट लिख डाली ,अमिताभ और<a href="http://draft.blogger.com/,http://mankapakhi.blogspot.com/2009/10/blog-post_26.html"> ब्लॉग जगत का साझा दर्द</a> उस पोस्ट पर काफी लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया दीं <b>अविनाश वाचस्पति, स्मित अजित गुप्ता, हरकीरत हकीर, गिरश बिल्लोरे, मुफलिस,रंजना ,शाहिद मिर्ज़ा शाहिद, कुलवंत हैप्पी,अर्क्जेश ,सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, दिगंबर नासावा, किशोर चौधरी, डा.प्रवीण चोपड़ा</b>,.इनमे से कुछ लोग तो नियमित रूप से मेरी पोस्ट्स पढ़ते हैं. सबका आभार.<br />
<br />
पर मैं हैरान थी, लोगों को मेरी पोस्ट के बारे में पता कैसे चल जाता है? अजय भैया के कहने पर मैने ब्लॉग वाणी पर रजिस्टर कर लिया था .पर ना मुझे वहाँ कुछ देखना आता था ना ही मैं कभी वहाँ 'लॉग इन' करती. ऐसे में एक पोस्ट पर नमूदार हुए <b>'महफूज़ अली'</b>. और गूगल ने हमें दोस्त बना दिया.'हॉट लिस्ट','चटका' ,वहाँ से दुसरो की पोस्ट पर कैसे जा सकते हैं, यह सब महफूज़ ने समझाया. महफूज़ की दोस्ती जिन्हें मिली है, उन्हें पता है कि सारी दुनिया आपके विरुद्ध हो जाए पर आप,महफूज़ को अपने साथ खड़ा पाएंगे. और महफूज़ अपने दोस्तों की कही किसी बात का बुरा नहीं मानते. मैने दो,तीन बार किसी और की पोस्ट पर दिए ,महफूज़ के कमेन्ट पर पब्लिकली बड़े कड़े शब्दों में आपत्ति प्रकट की है. महफूज़ की जगह कोई और होता तो मैं शब्दों में हेर-फेर कर माइल्ड बना देती.पर मुझे पता था,इस से महफूज़ से मेरी दोस्ती के इक्वेशन पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा..और ऐसा ही हुआ. बस महफूज़,अपना उतावलापन जरा कम कर लो, और जल्दी से अपनी गृहस्थी बसा लो, अपने आप स्थिरता आ जाएगी.शुभकामनाएं. <br />
<br />
<b>महफूज़</b> ने <b>अदा</b> और <b>शिखा</b> को मेरे ब्लॉग से परिचित करवाया. <b>अदा </b>से आंचलिक भाषा में टिप्पणियों के आदान-प्रदान को मैने बहुत एन्जॉय किया. अदा, इतनी व्यस्त रहने के बावजूद,अपने दोस्तों की प्रशंसा कर उन्हें आसमान पर बिठाना , नव-वर्ष और जन्मदिन पर शुभकामनाएं देना नहीं भूलती. सीखने पड़ेंगे ये सारे गुण.<br />
<br />
<b>शिखा</b> और मैं तो अक्सर इनविजिबल मोड में रहकर पोस्ट लिखते रहते हैं और डिस्कस भी करते रहते हैं. कमियां भी बताते हैं और एक दुसरे को आश्वस्त भी करते हैं,"न एडिट की जरूरत नहीं,रहने दो" शिखा से जाना कि ये 'फौलोवर लिस्ट' और 'डैश बोर्ड' क्या बला है. उसकी बहुत अच्छी आदत है कोई भी कमेन्ट करे वो उन्हें थैंक्स बोलती है,उनका ब्लॉग चेक करती है,फौलो करती है और कमेन्ट भी कर आती है. मैं बहुत कोशिश करती हूँ ये सब सीखने की,पर मेरी लम्बी किस्तों को टाइप करने की थकान और कुछ मेरा laid back attitude आड़े आ जाता है. (शिखा, बहुत कुछ जमा हो गया है तुमसे सीखने को :))<br />
<br />
शिखा और अदा के साथ <b>वाणी गीत</b> और <b>संगीता स्वरुप</b> जी भी मेरा ब्लॉग पढने लगीं. ये लोग इतनी सारगर्भित टिप्पणी देती हैं कि मेरी पोस्ट इनकी टिप्पणियों के बिना अधूरी रहती है. वाणी बहुत ही अच्छी सहेली है और उसके बेबाक विचार और सुन्दर लेखन शैली की तो फैन हूँ मैं.<br />
<br />
मैने ब्लॉग जगत में कई जगह बहसों में जम कर हिस्सा लियाऔर खुल कर अपने विचार रखे. शायद<br />
यही देख, ,<b>रचना जी</b> ने <b>नारी ब्लॉग</b> पर लिखने का निमंत्रण दिया.और मैने वहाँ ,<a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2009/12/blog-post_23.html%20">'मोनालिसा स्माइल</a> फिल्म के बारे में लिखा,जो अब भी मेरे प्रिय पोस्ट में से एक हैं.एक पूरा सन्डे 'बेनामी जी' के ब्लॉग पर बहस में व्यतीत हुआ और मुझे पता भी नहीं था कि मेरी 'विवाह-संस्था' पर इतनी आस्था है. दूसरे पक्ष की वकालत ,'गिरिजेश राव जी, अमरेन्द्र त्रिपाठी, लवली गोस्वामी,दिव्या श्रीवास्तव जैसी शख्सियत कर रहें थे और मैं अकेले 'मोर्चा संभाले थी. जब अंत में सबकी खिंचाई करने वाले, बेनामी जी ने कहा' आपकी सोच में एक सफाई है ,जो नमन मांगती है ' तो मेरा सन्डे बर्बाद होने का सारा मलाल चला गया. चिट्ठा चर्चा पर भी अपनी असहमति जताने में मैने हिचक नहीं बरती. <br />
<br />
पर चिट्ठा चर्चा ने एक बहुत ही प्यारी सहेली दी.<b>'वंदना अवस्थी दुबे'</b> ,उस से बातें करते तो लगता है.'कॉलेज के नहीं स्कूल के दिन लौट आए हैं.बात बात पे कहती है,"विद्या कसम" जो मैने स्कूल के बाद अब तक नहीं सुना था .मेरे लेखन की सजग पाठक है और किसी भी कमी की तरफ तुरंत इंगित करती है. 'विद्या कसम' ,वंदना ऐसी ही पैनी नज़र रखना मेरे लिखे पर:) <br />
<br />
पापा की सर्विस में उनकी पोस्टिंग के समय हुए कुछ रोचक (और भयावह भी ) घटनाओं पर लिखे संस्मरण और मुंबई की लोकल ट्रेन के संसमरण लोगों को खूब पसंद आए<b>.चंडीदत्त जी</b> ने सलाह दी कि, "संस्मरण, शब्द चित्र और रेखा चित्र " पर ज्यादा कंसंट्रेट करूँ. <b>शरद जी</b> के आश्वासन पर ,डायरी में कैद अपनी कुछ कविताएँ भी पोस्ट करने की हिम्मत कर डाली. बच्चों के लिए<a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2009/11/blog-post_27.html"> खेल की अनिवार्यता</a>..... <a href="http://draft.blogger.com/,http://mankapakhi.blogspot.com/2010/01/blog-post.html%20">काउंसलिंग की आवश्यकता</a>और बाल मजदूर की त्रासदी पर भी लिखे मेरे पोस्ट, पसंद आए सबको. कई लोगों ने मुझे बच्चों से संबंधित विषयों पर लिखने की सलाह दी. <b>विजय कुमार सपत्ति जी </b> <a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2009/10/blog-post_13.html%20">शिवकासीमें काम कर रहें बाल मजदूरों की दशा</a> के बारे में पढ़कर इतने द्रवित हो गए कि मुझसे<b> 'नुक्कड़ ब्लॉग' </b>से जुड़ने का आग्रह किया ताकि <b>मानस के मोती </b>के जरिये , पोस्ट सब तक पहुँच सके. आप सबका आभार,मेरे लेखन पर इतनी बारीक नज़र रखने के लिए.<br />
<br />
अलग-अलग विषयों पर लिखना जारी था और<b> ममता कुमार</b> (मेरी भाभी ) मुझसे पूछती रहतीं, "कहानी कब पोस्ट कर रही हैं?" प्रथम पोस्ट से अब तक की हर पोस्ट वे पढ़ती हैं और जहाँ सहमत ना हों,आपत्ति जताने से भी नहीं चूकती , इनके जैसे ही कुछ नॉन-ब्लॉगर सौरभ हूँका,आलोक, आदि कुछ अंग्रेजी पढने-लिखने -बोलने वाले लोग हैं पर मेरा लिखा बड़े शौक से पढ़ते हैं. शुक्रिया दोस्तों.<br />
<br />
मैने कहानी की किस्तें डालनी शुरू कर दीं.अब कई लोग नेट पर लम्बी कहानी पढने के आदी नहीं हैं. मैने भी दूसरे आलेखों के लिए दूसरा ब्लॉग बना लिया.जिन्हें कहानियों का शौक था, बस वे लोग ही इस ब्लॉग पर आते रहें. पहले लघु उपन्यास की अंतिम किस्त पर<b> आचार्य सलिल जी ,डा.अमर कुमार जी, रवि रतलामी जी, ज्ञानदत्त पण्डे जी, ताऊ रामपुरिया जी</b>, इन लोगों की टिप्पणी से पता चला ये लोग भी मेरा लिखा पढ़ रहें थे. <br />
<br />
मेरे लेखन ने,<b>आचार्य सलिल जी, ज्ञानदत्त जी, सारिका,आलोक, डा. अमर कुमार, डा.तरु </b>...... कई लोगों को (शायद भावनाओ की रौ में) दिग्गज साहित्यकारों के लेखन और उनकी कृतियों की याद दिला दी. शायद मैं सातवें आसमान पर पहुँच जाती पर <b>चंडीदत्त जी, शरद जी, शहरोज़ भाई, अनूप शुक्ल जी,राजेश उत्साही जी </b>की टिप्पणियों ने हमेशा धरातल पर रखा. इन लोगों ने मेरा उत्साहवर्धन भी कम नहीं किया. पर यदा-कदा बताते भी रहें कि,यहाँ शिल्प की कमी है,या साहित्यिक शब्दों की कमी खलती है,वगैरह. <br />
<br />
प्रारम्भ से जिन लोगों ने मेरी पोस्ट्स पढनी शुरू की,अब तक अपना स्नेह बनाये रखा है . बाद में कुछ नए नाम भी शामिल हो गए. <br />
प्रथम उपन्यास से <b>वंदना गुप्ता, सतीश पंचम जी, हरि शर्मा जी, दीपक शुक्ल जी, मनु जी,मुदिता, पूनम, शुभम जैन, विनोदकुमार पाण्डेय, अबयज खान,पाबला जी</b> हर किस्त पर साथ बने रहे. <span style="color: #4c1130;">खुशदीप भाई </span>ने तो मुझे सीरियल में स्क्रिप्ट लेखन की कोशिश की सलाह भी दे डाली. <br />
<br />
दूसरे लघु उपन्यास से ,<span style="color: #4c1130;"> <b>मुक्ति, संजीत त्रिपाठी, हिमांशु मोहन</b> जी</span> जुड़ गए और अपनी समीक्षात्मक टिप्पणियों से मेरी मेहनत सार्थक करते रहें.<span style="color: #cc0000;"><b></b></span> <b>अनूप शुक्ल जी</b> ने कुछ अंशों को बॉक्स में उद्धृत करने की तकनीकी सलाह भी दी.पर मैं नाकाम रही. (अब उन्हें सलाह देने के लिए थैंक्यू बोलूं या मेरे अमल ना कर पाने के लिए सॉरी, समझ में नहीं आता :))<br />
<br />
तीसरा लघु उपन्यास तो इन्हीं पाठकों के साथ ने लिखवा ली.<b><span style="color: #cc0000;">साधना वैद्य जी और शोभना चौरे , इंदु पूरी जी, प्रवीण पाण्डेय जी, घुघूती बासूती जी</span></b> <b> </b> ने भी पढ़ा और ख़ास नज़र रखी,इस उपन्यास पर.<br />
<br />
पिछली दो कहानियों पर <b>अली जी </b>की समीक्षात्मक टिप्पणी ने अपनी ही लिखी कहानी को समझने में मदद की. <b> </b><span style="color: blue;"><b>अभी और रोहित</b> </span> की संवेदनशीलता भी कहीं गहरे छू गयी. <br />
<br />
एक उल्लेख और करना चाहूंगी, <b>"पराग, तुम भी..</b>" में पहली बार मैने अपने लेखन में थोड़ी बोल्डनेस दिखाई (अपने स्टैण्डर्ड से ) दरअसल दिखानी पड़ी क्यूंकि वो 2010 की कहानी है ,और आज लड़के-लड़की साथ मिलकर सिर्फ चाँद और फूल नहीं देखते. किसी ने मुझे आगाह भी किया कि ये ब्लॉग जगत है, ज्यादातर लोग , सिर्फ उन्हीं उद्धरणों को कोट करके अपनी प्रतिक्रिया देंगे. पर एक भी पाठक ने ऐसा नहीं किया और कहानी के मूल स्वरुप को ही समझने की कोशिश की. सच , मुझे गर्व हो आया,पाठकों पर. और ब्लॉग जगत से कोई शिकायत नहीं ,यहाँ काफी अच्छे लोग हैं जो बहुत अच्छा लिखते हैं और प्रोत्साहित भी करते हैं,अच्छा लिखने को..<br />
<br />
सभी पाठकों का बहुत बहुत शुक्रिया, जिनके साथ और उत्साहवर्द्धन ने इस एक साल की ब्लॉग यात्रा को इतना खुशनुमा बनाए रखा.<br />
<br />
मन के पाखी की, स्वच्छंद विचरण की यही जिजीविषा बनी रहें और थकान,ऊब, निराशा उसके पास भी ना फटके...बस यही कामना है.<br />
<br />
<b>कुछ ऐसी टिप्पणियाँ, जो बेहतर लिखने को उत्साहित करती हैं और जिम्मेवारी का अहसास भी </b><br />
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आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल जी <br />
<a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2010/03/3.html">http://mankapakhi.blogspot.com/2009/10/blog-post_13.html </a><br />
ज्ञानदत पाण्डेय जी <br />
<a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2010/03/4.html">http://mankapakhi.blogspot.com/2010/03/4.html</a><br />
अविनाश वाचस्पति जी,<br />
<a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2010_02_01_archive.html">http://mankapakhi.blogspot.com/2010/02/blog-post_11.html </a><br />
खुशदीप भाई<br />
<a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2010/01/blog-post_30.html">http://mankapakhi.blogspot.com/2010/01/blog-post_30.html</a><br />
शहरोज़ भाई<br />
<a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2009/12/blog-post_17.html"></a><a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2009/12/blog-post_17.html">http://mankapakhi.blogspot.com/2009/12/blog-post_17.html</a><br />
हिमांशु मोहन जी,<br />
<a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2010_03_01_archive.html">http://mankapakhi.blogspot.com/2010/05/blog-post.html </a><br />
प्रवीण शुक्ल प्रार्थी जी,<br />
<a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2009/12/blog-post_17.html">http://mankapakhi.blogspot.com/2009/12/blog-post_17.html </a>rashmi ravijahttp://www.blogger.com/profile/04858127136023935113noreply@blogger.com54tag:blogger.com,1999:blog-6953374982088960088.post-71063465235883072882010-08-31T07:39:00.000-07:002017-10-11T23:04:39.871-07:00आँखों का अनकहा सच<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://3.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TH0TXgnY91I/AAAAAAAABA4/VnfI5Avjuh8/s1600/images.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><br />
</a></div>
<b>(ये वो कहानी नहीं, जिसका जिक्र मैने अपनी पिछली पोस्ट में किया था....वो तो किस्तों वाली होगी...कुछ दिन चलेगी....यह भी थोड़ी लम्बी तो है..पर एक पोस्ट में ही समेट</b> दिया है )<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://3.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TH0TXgnY91I/AAAAAAAABA4/VnfI5Avjuh8/s1600/images.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="212" src="https://3.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TH0TXgnY91I/AAAAAAAABA4/VnfI5Avjuh8/s320/images.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">दोनों बच्चे शोर कर रहें हैं...आपस में कुछ ना कुछ बहस झगडा चल रहा है...शालिनी मुश्किल से उन्हें, आँखें दिखा कर चुप कराती है ,उसकी तो सारी इन्द्रियाँ सिमट कर बस कान बन गए हैं...फ्लाईट के पायलट का नाम अनाउंस होने ही वाला है....और धड़कन एक पल को रुक जाती है...और फिर थकी सी ठंढी सांस वापस निकल जाती है...उसका नाम नहीं था...पता नहीं कभी यह रुकी सांस उल्लासित होकर बाहर आएगी भी या नहीं. वापस शिथिल हो कर सर पीछे को टिका देती हैं...बच्चों का झगड़ना फिर शुरू हो गया है...करने दो...एयर होस्टेस अभी आँखें दिखायेगी तो खुद ही चुप हो जाएंगे.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">जब से यहाँ वहाँ से उड़ती हुई खबर उसके कानों तक पहुंची है कि मानस ने डोमेस्टिक एयरलाइन्स ज्वाइन की है.हर बार कैप्टन का नाम ध्यान से सुनती है कि शायद वही हो जबकि उसे पता भी नहीं कौन सी एयरलाइन्स ज्वाइन की है. एयरपोर्ट पर भी बच्चे और ट्रॉली संभालते भी खोजी निगाहें दौड़ती रहती हैं. और लगता अभी किसी तरफ से मानस का हँसता चेहरा सामने आ जायेगा. हर सोशल नेट्वर्क पर भी उसे ढूंढ्ने की कोशिश की पर निराशा ही हाथ आयी.पर क्यूं, किसलिए उसे ढूँढने की कोशिश कर रही थी?? यह सवाल खुद से भी कई बार पूछ चुकी पर जबाब कोई नही मिलता.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">और अपनी बेवकूफी पर हंस भी पड़ती है...मानस का छठी कक्षा वाला चेहरा ही सबसे पहले ध्यान में आता है...जब वह पहली बार उस पर इतना हंसा था...पर तब तो वह कित्ता रोई थी.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">इंग्लिश के नए टीचर आए थे.आते ही डस्टर पटका और रौबीली आवाज़ में, सबको नोटबुक निकालने को कहा. फिर बहुत सारे कठिन ग्रामर के लेसन दिए हल करने को. सबकी कापियाँ जमा कर लीं चेक करने के लिए.. उनसे डर तो गए थे सब पर कितनी देर शांत रह पाते.देर शांत रहते..धीरे धीरे बातें शुरू हो गयीं.शालिनी, रीता और शर्मीला भी सर जोड़े नई फिल्म की कहानी सुनने लगीं जो पिछले हफ्ते ही शर्मीला अपने नए जीजाजी और दीदी के साथ देख कर आई थी. उसे कितनी कोफ़्त होती...वो क्यूँ सबसे बड़ी है? उसकी भी कोई बड़ी दीदी होती तो वो भी शर्मीला जैसी उनलोगों के साथ फिल्म देखकर आती और कहानियाँ सुनातीं.पर अभी तो बस सुननी पड़ती थीं. बेच बीच में सर के चिल्लाने कि आवाज़ आती रहती.पर वे लोग तो इतना धीरे बोल रही थीं. सर शायद पीछे बैठे लड़कों पर नाराज़ हो रहें थे .अचानक जोर का एक चॉक का टुकड़ा उसके सर से टकराया.उसने सर उठाया..और सर चिल्ला पड़े,"क्या गपाश्टक हो रहा है...चलो बेंच पर खड़ी हो जाओ" तब , इंग्लिश के सर भी हिंदी में ही बाते करते थे और कई बार तो लेसन भी हिंदी में ही एक्सप्लेन कर जाते. उसे तो काटो तो खून नहीं. आजतक कभी डांट भी नहीं पड़ी और सीधा बेंच पर खड़ी हो जाओ. वो हतप्रभ मुहँ खोले देखती रहीं तो फिर से चिल्लाये..."मुहँ क्या देख रही हो....स्टैंड अप ऑन द बेंच (इस बार अंग्रेजी में बोले)</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">वो सर झुकाए खड़ी हो गयी. और आँखों से धार बंध चली. पूरा क्लास सकते में था.इसलिए नहीं कि सर चिल्ला रहें थे.इसलिए कि वह बेंच पर खड़ी थी. सारे बच्चे ,मुहँ खोले उसे देख रहें थे.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">सर, वापस कॉपियाँ चेक करने में लग गए थे.एक एक कॉपी चेक करते...बच्चे का नाम पुकारते...उस बच्चे को डांटते और फिर कॉपी उसकी तरफ फेंक देते. किसी ने अच्छा नहीं किया था. यह देख उसका रोना और बढ़ता जा रहा था .अब सर के सामने उसकी कॉपी थी. उनका बडबडाना बदस्तूर चालू था..."कोई भी नहीं पढता...किसलिए स्कूल आते हो तुमलोग"...फिर माथे पर चढ़ी भृकुटी थोड़ी शिथिल हुई.."अँ.. ये तो सही हैं....हम्म ये भी सही है...ओह ये भी सही है.."अब आश्चर्य का भाव था,चेहरे पर...."हम्म क्या बात है...ये भी राईट..हम्म..पंद्रह में से बारह राईट..." अब थोड़ी सी मुस्कान तिर आई थी उनके चहरे पर....नाम देख पुकारा..."शालिनी कौन है ?" वो चुप रही.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">" हू इज शालिनी?" (फिर से अंग्रेजी पर आ गए )</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">इस बार मानस ने हँसते हुए कहा..'सर वो जो बेंच पर खड़ी रो रही है,ना..वही है शालिनी"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"ओह्ह!! सिट डाउन..... सिट डाउन...ले जाओ अपनी कॉपी...गुड़, यू हैभ डन बेल "</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">वो उतर तो गयी थी...पर इतने अपमान के बाद कॉपी लेने नहीं गयी. वे स्वर को कोमल बना कर</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">बोले.."ले जाओ अपनी कॉपी"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">वो भी हठी की तरह खड़ी रही.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">इस बार मानस उठ कर बोला.."सर मैं दे आऊं??" और हंस पड़ा.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"क्यूँ..."</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"ही ही ही.. वो नहीं जा रही ना..."</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"तुम्हार क्या नाम है?...."</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"मानस"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"कितने नंबर मिले तुम्हे?"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"पांच"..मुस्कराहट अब भी वैसे ही जमी थी उसके चहरे पर.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"और हंस रहें हो..शर्म नहीं आती...खड़े हो जाओ बेंच पर..."डांट कर कहा ...और फिर उसी स्वर में उसे भी बोला.."ले जाओ आपनी कॉपी.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">सहम कर वो चुपचाप अपनी कॉपी ले आई.पर मानस बेंच पर खड़ा भी हँसता ही रहा.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">घंटी बजी और सर के जाते ही,सब भाग लिए दरवाजे की तरफ. अंतिम पीरियड था. वो शर्म से सर झुकाए,धीरे धीरे बढ़ रही थी कि आवाज़ आई 'रोनी बिल्ली" खूनी आँखों से देखा तो मानस और उसके चार-पांच शैतान दोस्त हंस रहें थे. बस वहीँ विष बेल के बीज पड़ गए.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">000</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">फिर तो मानस कोई मौका नहीं छोड़ता, उसे चिढाने का. उसी की कॉलोनी में चार घर छोड़ कर रहता था. साथ खेलने वाले सारे बच्चों को पता चल गया था. उसे बेंच पर खड़े होने की सजा मिली थी और वह रोई थी. खेल में भी मानस इतना तंग करता कि वह रो ही देती. लुक्का-छिपी खेलते तो पता नहीं कहाँ , छुपा रहता और फिर उसे धप्पा कर देता...बार-बार उसे ही चोर बनना पड़ता अंत में तंग आ वह रो देती.तो फिर उसे चिढाने का बहाना मिल जाता. कोई भी खेल शुरू करने के पहले कहता..'मैं नहीं खेलता, हारने पर लोग रोने लगते हैं..."</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">सबकी आँखें उसकी तरफ उठ जातीं. फिर सब मानस को मनाने में लग जाते और शालिनी गुस्सा पीते हुए खुद में ही सिमट जाती.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">वह उसे गुस्से मे घूरती और वह दाँत दिखाता रह्ता.पर इस बार गुस्से मे घूरने की बारी मानस की थी जब सिक्स मंथली एक्ज़ाम मे वह फ़र्स्ट आई थी और मानस को बहुत कम नम्बर मिले थे. हर शाम की तरह वह शोभा के साथ, बाहर घूम रही थी. मानस के घर के सामने से गुजरते हुए, शोभा ने बताया कि आज अचानक वह मानस के घर गयी तो देखा, चाची मानस को आंगन में दौडा दौडा कर मार रही हैं और बोलती जा रही हैं "वह लड़की होकर भी फर्स्ट आ गयी ...इतने अच्छे नंबर लेकर आई...और तुम मुश्किल से पास हुए...अब भागते किधर हो?."</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"> उस दृश्य की कल्पना कर वह दोनो हंस पड़ीं..उसी वक्त मानस घर से बाहर आ गया. दोनो अचकचा कर चुप हो गयीं पर मानस समझ गया कि वे दोनों उसी पर हंस रही थीं. उसे इतने गुस्से से घूरा कि अगर किसी देव ने कभी प्रसन्न होकर उसे कोई वर दिये होते तो वो वहीं भस्म हो जाती. उस विषबेल पर अब पत्ते निकल आये थे.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">और अब माँ की मार का बदला वह रोज उसे स्कूल में तंग कर के लेता. अक्सर इंग्लिश टीचर उसे रीडींग डालने को बोलते और मानस जोर से चिल्ला कर बोलता, "सर सुनायी नहीं दे रहा". कभी कभी तंग आ कर टीचर, उसे, शालिनी की बराबर वाली बेन्च पर बिठा देते, तब भी वह बाज नहीं आता. कान को हाथ की ओट मे लेकर सुनने की एक्टिंग करता.सारा क्लास मुँह छुपा कर हंसता रह्ता.और शालिनी का ध्यान भंग हो जाता. अगर टीचर ,उसे बोर्ड पर कोई सवाल हल करने को देते तब भी चिल्लाता, "सर कुछ दिखाई नहीं दे रहा." वह उचक उचक कर और बडा लिखने की कोशिश करती और इस चक्कर मे सब टेढा मेढा हो जाता.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">उसे बस आश्चर्य इस बात का होता, इतनी शैतानी करने पर भी सारे टीचर उसे इतना मानते कैसे थे? ऑफिस से रजिस्टर लाना हो, किसी को बुलाना हो, हमेशा मानस को ही बुलाते. शायद रेस मे हमेशा जीतता था, इसी लिये. स्पोर्ट्स डे के दिन मानस का ही बोलबाला रह्ता.सौ मीटर, चार सौ मीटर रेस, लौन्ग जम्प, हाई जम्प, सब मे वह ढेर सारे कप्स जीतता. अपने लाल हो आए चेहरे से पसीना पोंछते ,वह उसे एक बार गर्वीली नज़र से जरूर देख लेता.वो मुहँ घुमा लेती. बाकी सब तो"माss नस ...माss नस" का नारा लगाते, रह्ते, उसे बधाई देते.शर्मीला,,रीता, मीना सब जातीं , पर वो दूर ही खडी रह्ती. मानस तो कभी उस से बात भी नहीं करता,और इतना परेशान करता वो क्यूं जाये बधाई देने? विष-बेल अब बढती जा रही थी.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">धीरे धीरे मानस ने शाम को उन सबके साथ खेलना छोड दिया. अब वह मैदान में बडे बच्चों के साथ क्रिकेट और फ़ुटबाल खेलने जाता.क्लास पर क्लास बढते गये पर स्कूल मे तंग करना वैसे ही जारी रहा. मानस की ड्राईंग बहुत अच्छी थी,जबकि,उसकी कम्जोर. फिज़िक्स के ड्राईंग तो वह फिर भी कर लेती पर बायोलोजि के ड्राइंग मे उसकी जान निकल जाती. कुछ भी ठीक से नहीं बना पाती. जब प्रैक्टिकल बुक जमा होती करेक्शन के लिये, वह सोचती बस मानस की नज़र ना पड़े,पर मानस किसी न किसी की बुक ढूंढ्ने के बहाने देख ही लेता और देख कर उपहास के ऐसे ऐसे मुहं बनाता कि उसकी झुकी गर्दन शर्म से और झुक जाती.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">फ़ेयरवेल के दिन परम्परानुसार सबने साडी पहनी, उसे देख्ते ही मानस बोला, "कोई शादी है क्या...लोग इतना सज धज कर आ रहे हैं." उसका सारा तैयार होना व्यर्थ हो गया.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">और इसी डर के मारे, कौलोनी मे अनीता दी की शादी मे जब उसने सब की ज़िद पर साडी पहनी तो पूरे समय मानस के सामने पडने से बचती रही. एक बार जब एकदम से सामने आ गया तो उसने जल्दी से मुहँ फ़ेर लिया.और वह धीमे से उसे सुना कर बोलता चला ही गया,"पता नहीं इतना घमंड किस बात का है?"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">शालिनी सोचती रह जाती , कब किया उस ने घमंड? फ़र्स्ट आना क्या घमंड करने जैसा है? अब वह उसकी खुशी के लिये फ़ेल तो नहीं हो सकती. और उस ने मुहँ बिचका दिया.खाता रहे जितनी मार खानी हो अपनी माँ से. उसकी बला से.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">वह गर्ल्स कॉलेज में आ गयी तो मानस से पीछा छूटा.पर कहीं उसके तानों की इतनी आदत पड गयी थी कि क्लास मे सब सूना सूना लगता. मानस के घर के बिल्कुल बगल मे एक शर्मा अंकल ट्रांस्फ़र हो कर आये थे.उनकी तीन लड्कियाँ थीं, तीनों का मानस के घर मे आना जाना था. उनसे हमेशा मानस को हँस कर बातें करते देखती तो आश्चर्य होता, उसे तो लगता था, मानस को लड़कियों से ही चिढ है.पर उसे क्या, जिस से मर्जी हो उस से बात करे.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">एक बार शर्मा अन्कल के यहाँ गयी थी, बाहर ही उनकी बेटी निशा मिल गई, वो ऊन की सलाइयाँ, मानस की माँ को देने जा रही थी. उसे भी कहा, "चल मेरे साथ"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"मैं नहीं जाती मानस के यहाँ"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"क्यूँ?"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"ऐसे ही उस के यहाँ कोई लडकी भी नहीं."</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"तो क्या हुआ...वो तो तुम्हारे ही क्लास मे था,स्कूल मे?...पर तुम लोग कभी बात भी नहिं करते...झगडा है क्या, उस से?"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"नहीं,झगड़ा क्यूँ होगा.?"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"अरे..झगडा तो किसी भी बात पर हो सकता है...वैसे मानस घर पर है नही..अभी अभी उसे बाहर जाते देखा है...बता ना...झगडा है उस से??</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"नहीं बाबा...कोई झगडा नहीं...चलो चलती हूँ....." उसकी बातों से बचने को वो साथ चल दी."</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">वो हर कमरे मे चाची चाची कह्ती घूमने लगी पर चाची कहीं नहीं थीं. तुम यहिं रुको, मै छ्त पर देख कर आती हूँ, वह मानस का कमरा था. वह उसकी मेज़ पर आकर उसकी किताबें, उलट पलट कर देखने लगी.’देखूं कुछ पढ़ता भी है या,सब वैसे ही कोरी हैं"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">पहली नोटबुक जो खोली , देखा, सुन्दर सा एक फ़ूल बना हुअ है...’ह्म्म ठीक ही सोचा था उसने ,अब भी नहीं पढ़ता.यही चित्रकारी करता रह्ता है’ पर तभी ध्यान से जो देखा तो देखा फ़ूल के बीच मे बड़ी खूबसूरती से लिखा हुअ है, ’शालिनी’. उस के दिल की धड़्कन अचानक बढ़ गई. फ़िर तो जल्दी जल्दी कई नोटबुक पलट डाले और तकरीबन सबमे, फ़ूल पत्ती, बेल बने हुये थे और बीच बीच मे लिख हुअ था, शालिनी.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">एकदम से डर गई वह.पसीने से नहा गई. जल्दी से बाहर निकल आई. चेहरा , लाल पड़ गया था और दिल धौंकनी की तरह चल जोर जोर से धड़क रहा था.निशा के सामने पड़ने की हिम्मत नहीं थी उसमे. आंगन से ही आवाज़ लगाई उसने ,"निशा...मैं जा रही हूँ"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"अरे रुक मैं बस आ गई..." निशा की आवाज़ भी उसने बाहर निकलते निकलते सुनी. </span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">घर आकर सीधा छ्त पर भाग गई, निशा क्या किसी का सामना करने की हिम्मत नहीं थी उसमे. साँस जब सम पर आई तब दिमाग कुछ सोचने लायक हुआ. पर वह इतना घबरा क्यूँ रही है,क्या अकेली शालिनी है वो दुनिया मे? उसके कॉलेज मे लड़्कियाँ भी तो पढ़ती हैं. उन मे से ही कोई होगी या क्य पता, जिन प्रोफ़ेसर के यहाँ ट्यूशन पढने जाता है, उनकी बेटी का नाम हो शालिनी. उसका नाम कैसे हो सकता है? उसके पढाई मे तेज़ होने के कारण. उस से तो वह बचपन से ही नफ़रत करता है, स्कूल मे रीता,शर्मिला सबसे बातें करता है, कॉलोनी में भी शोभा, निशा से कितना खुलकर बात करता है. एक सिर्फ़ उस से दूर रहता है, दूर ही नहीं हमेशा नीचा दिखाने की कोशिश , अब उसका नाम कैसे लिख सकता है..नामुमकिन. उस विष-बेल में अमृत धारा कैसे बह सकती है?</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">और अगर सच मे लिखा हो तो....न... न वह इतना हैंन्डसम है, इतन स्मार्ट, और वह कितनी छुई मुई सी है, बस कीताबी कीड़ा...ना..उसे तो कोई अपने जैसी स्मार्ट लड़की ही पसन्द आयेगी.जो जिसे चाहे मुहँ पर जबाब दे दे ,उसकी तो किसी को देखते ही जुबान तालु से चिपक जाती है. बेकार मे सपने बुन रही है वह.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">और फ़िर जैसे खुद को ही पहली बार जाना. सपने??...तो क्या, उसे मानस से कोई नराज़गी नहीं.पहले तो उसे बड़ा गुस्सा आता था, उस पर...हाँ आता तो था,पर जब से कॉलेज अलग हुये हैं,उसकी कमी बहुत खलती है. तो क्या वह...ना ना...ये सोचने का भी क्या फ़ायदा...वो कभी मानस की पसन्द हो ही नहीं सकती,ये जरूर कोई और शालिनी है, नहीं तो क्या अब तक वह एक बार भी नज़र उठा उसे देखता भी नहीं. इतनी सारी लड़कियों से बात करता है, सिवाय उसके. इसका मतलब वो उसे पसंद नहीं करता...हाँ, उसे तो उसके जैसा ही कोई पढ़ाकू पसंद करेगा....मोटी कांच के चश्मेवाला, चिपके बाल....पूरी बाहँ की शर्ट, गले तक बंद बटन....यक... और जैसे अपनी कल्पना से ही घबराकर उठ कर नीचे भाग गयी.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">शुक्र है,माँ घर में नहीं थीं..वरना उसका बदहवास चेहरा देख पूछ ही बैठतीं,क्या हुआ?...उसने सोफे</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">पर लेट, टी.वी. ऑन कर दिया...कुछ तो ध्यान बंटे...पर स्क्रीन पर तो एक सुन्दर सा फूल दिख रहा था, जिसके अंदर लिखा था, शालिनी. घबरा कर आँखें बंद कीं तो पलकों में भी वही फूल मुस्करा उठा. उसने कुशन उठा कर जोरो से आँखों पर भींच लिया.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">पर इसके बाद से वह काफी डर गयी थी. बालकनी में खड़ी रहती और दूर से भी मानस को आते देखती तो धडकनें तेज़ हो जातीं और वह झट से छुप जाती. लगता जैसे, सबकी नज़रें उन दोनों को ही देख रही हैं. निशा कितनी बार बुलाने आती..चलो बाहर टहलते हैं..पर वो उसे छत परले जाती, कहीं मानस से सामना ना हो जाए. कभी आते-जाते मानस सामने पड़ भी जाता तो पसीने से नहा उठती और जल्दी से कतरा कर निकल आती. जबकि बार बार खुद से कहती..."वो शालिनी कोई और है...वो तो हो ही नहीं सकती"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">मानस दिखता भी कम...निशा बताती...बहुत मेहनत से पढ़ाई कर रहा है..उसका मन होता कहे, 'जरा उसकी कॉपियाँ पलट कर देखो..पढता है या ड्राइंग करता है' पर जब बारहवीं का रिजल्ट आया तो सब हैरान रह गए, मानस को 'फर्स्ट क्लास' मिली थी. उसके बराबर में आ गया था वह...जो पापा को शायद अच्छा नहीं लगा था, बार बार कहते.."लड़कों का कुछ पता नहीं,कब पढने की लगन जाग जाये.."</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">माँ बहुत खुश थी,कहतीं.." मानस की माँ की चिंता दूर हो गयी...हमेशा कहती थीं..."तुम्हारी तो बिटिया है..वो भी इतनी तेज है..और मानस तो ..लड़का होकर भी नहीं पढता....कैसे मिलेगी, नौकरी?"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">मानस का अच्छा रिजल्ट उसे इस शहर से भी दूर ले गया. वह बड़े शहर में पढने चला गया.जाने के एक दिन पहले, कई बार मानस को उसके घर के सामने से आते-जाते देखा....पर हर बार वह ओट में हो जाती. हिममत ही नहीं हुई सामने आने की.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">000</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">उसने भी खुद को पढ़ाई में झोंक दिया.अपने भविष्य की रूपरेखा भी तय कर ली, ग्रेजुएशन के बाद कम्पीटीशन देगी...और फिर एक बढ़िया सी नौकरी. बड़ी सी मेज़ होगी...फाइलों से लदी. सामने चपरासी हाथ बांधे खड़ा रहेगा...वाह क्या रुआब होगा.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">पर उसे कहाँ पता था, वह तो परीक्षा की तैयारियों में उलझी है...घर वाले किसी और तैयारी में. यूँ ही पढ़ाई से ब्रेक लेने किचेन में कुछ डब्बे टटोलने आई तो बरामदे में बैठी माँ और पड़ोस वाली, सिन्हा चाची का स्वर कानो में पड़ा. " अब लड़की के भाग्य हैं और क्या..घर बैठे तुम्हे इतना अच्छा लड़का मिल गया " सिन्हा चाची थीं.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"हाँ , वो तो है...हमने अभी कहाँ कुछ सोचा था, वो तो इसकी बुआ आई थीं उन्होंने ही बताया उनकी पड़ोस में एक बहुत अच्छा लड़का है. उनलोगों को बस अच्छे घर की गोरी,पढने में तेज़ लड़की चाहिए..."</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"अरे तेज़ लड़की...मतलब?..नौकरी करवाएंगे क्या?? लड़का अच्छा कमाता तो है...?"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"सच कहूँ तो मैं भी ऐसे ही हैरान हो गयी थी, पर सुषमा जी ने जब बताया सुन कर कुछ अजीब ही लगा....लड़की पढने में तेज़ होनी चाहिए..ताकि बच्चे मेधावी हों...क्या क्या नखरे होते जा रहें है लड़केवालों..के..पर इनकी दहेज़ की ज्यादा मांग नहीं और शालिनी को तो दूर से बाज़ार में देख कर ही पसंद कर लिया...वरना आप शालिनी को तो जानती हैं , ना??...वह कभी तैयार होती 'लड़की दिखाने को"?? दिमाग में क्या फितूर भरा हुआ है..बहुत पढना है....कम्पीटीशन देना है..ऑफिसर बनना है....पर हमें तो ,बिना चप्पल घिसे अच्छा लड़का मिल गया...हम तो गंगा नहा लिए."...माँ थीं.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">वो घड़े से पानी ले रही थी, मन हुआ ग्लास दे मारे घड़े पर और सारा पानी फ़ैल जाए,किचेन के साथ साथ उनके मंसूबों पर भी.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">पर कुछ नहीं कर सकी और अनजान बन वापस कमरे में लौट आई...बस किताब उठा जोर से दूर फेंक दी ..और बरसती आँखें ,तकिये में छुपा लीं.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">पढने का भी मन नहीं होता...पर मन को बहलाने का कोई दूसरा साधन भी नहीं था...नोटबुक खोलती तो बार-बार मानस के उकेरे फूल पत्ती दिखने लगते...पर खुद को ही डांट देती...पता नहीं, किस शालिनी का नाम वह लिखता रहता है.. और वह दिवास्वप्न देख रही है.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">000</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">इम्तहान ख़त्म हो गए और उसकी शादी की तैयारियां शुरू हो गयीं. घर जिस तेजी से मेहमान से भरने लगा,उतनी तेजी से ही उसके दिल में खालीपन घर करने लगा....कोई उत्साह,उमंग मन में जागती ही नहीं. उसने इस जीवन की कल्पना तो कभी नहीं की थी?? उसके मन की इच्छा को भली-भांति जानते हुए भी अगर माता-पिता एक बोझ समझ दूसरे हाथ में सौंप गंगा नहा लेना चाहते हैं..तो ऐसा ही सही.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">मन इतना अवसाद से घिर चुका था, मानस का भी ख़याल नहीं आता, आता तो यही कि उसे कम से कम जिसकी चाहना है वो,उसे मिल जाए.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">आज उसकी शादी थी और उसे पीली साड़ी पहना,आँखों में काजल लगा, एक कमरे में बिठा दिया गया था. सारे भाई-बहन, मेहमान, चहकते हुए रंग-बिरंगे कपड़ों में सजे इधर से उधर दौड़ते रहते. पल भर को हमउम्र बहने पास आ बैठतीं फिर ही ही करती हुई बाहर चल देतीं. वो वीतराग सी चुपचाप एक चटाई पर बैठी रहती. तभी माँ का तेज़ स्वर कानों में पड़ा..."अरे मानस की माँ कहाँ,जा रही हैं?? खाना खा कर जाइये. " कुछ दिनों से घर में सब चिल्ला चिल्ला कर बातें करते. धीरे बोलना सब भूल ही गए थे जैसे. पिछले दो दिन से ज्यादा करीबी लोगों का खाना शालिनी के घर ही होता था. बस समय समय पर वे लोग कपड़े बदल कर आ जाते.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">" बस थोड़ी देर में आती हूँ...मानस की ट्रेन का टाइम हो चला है...वो आने ही वाला होगा..."</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"अच्छा मानस आ रहा है??...आप तो कह रही थीं...उसकी छुट्टी नहीं"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"हाँ पहले तो उसने यही कहा था...पर कल कहा कि दो दिनों के लिए आ रहा है..."</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"बहुत अच्छा हुआ...कॉलोनी के लड़के ही काम नहीं संभालेंगे तो कौन संभालेगा..जल्दी आइये उसे साथ लेकर"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">शालिनी को जैसे जोर का चक्कर आ गया...क्यूँ आ रहा है मानस?...क्यूँ उसके लिए सबकुछ इतना मुश्किल बना रहा है?....क्या पहले ही यह राह कम दुष्कर नहीं. पर रोक नहीं सकी खुद को...खिड़की पर जा खड़ी हुई. कोई घंटे भर, खड़े रहने के बाद, जब पैर दुखने लगे...तब जाकर, उसकी नज़रों के फ्रेम में एक आकृति नमूदार हुई और वह घबराकर चटाई पर आकर वापस बैठ गयी. सर घुटनों में छुपा लिया.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">बरामदे में मानस के पदचाप के साथ....उसकी आवाज़...नमस्ते चाची..प्रणाम दादी..सुन रही थी. जरूर ,छोटू को ढूंढ रहा होगा. पर उसकी पदचाप तो कमरे तक आती जा रही थी और परदा उठा वह भीतर दाखिल हो गया..उसकी झुकी गर्दन और झुक गयी.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">'शालिनी"...इतने दिनों में पहली बार मानस ने बिना किसी व्यंग्य के उसका नाम पुकारा. पर उसका झुका सर उठ नहीं सका.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"शालिनी..." इस बार मानस की आवाज़ थरथरा रही थी....और उसकी आँखों से दो बूँद...पानी टपक गए.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"शालिनी....क्या हमेशा नाराज़ ही रही होगी..." गीली हो आई थी मानस की आवाज़ और उसके आँखों से आंसुओं की धार बंध चली.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"ओक्के .. नो प्रॉब्लम....इट्स फाइन ...यू टेक केयर.." और बहुत ही भारी थके क़दमों से वह बाहर निकल गया.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">उसने जल्दी से सर उठा..'मानस' पुकारना चाहा..पर तब तक वह परदे उठा बाहर कदम रख चुका था....उसकी थमती रुलाई दूने वेग से उमड़ पड़ी.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">बाहर माँ की आवाज़ सुनाई दी.." आ गए बेटा..बहुत अच्छा किया...तुमलोगों को ही तो सब संभालना है. पर तुम मेरा एक काम करो....मेरा कैमरा तुम संभालो. फोटोग्राफर तो हैं ही..पर वो सबको पहचानता नहीं ना.....तुम मेरे कैमरे से, सारे करीबी लोगों की अच्छी अच्छी फोटो लेना...सारे रस्मों की... हाँ.."</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">और माँ कमरे में आ गयीं.."शालिनी जरा आलमारी से कैमरा निकाल दो तो..."</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">उसने बिजली की फुर्ती से कैमरा निकाल कर दे दिया...और साथ में चार रील भी. माँ ने सारी तैयारी कर रखी थी.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">मानस के हाथों में कैमरा देखना था कि बच्चों की फरमाईश शुरू हो गयी, एक हमारी फोटो लो ना भैया.." उधर से लड़कियों का झुण्ड खिलखिलाता हुआ आया..."भैया एक फोटो हमारी भी"...तभी मामियों ,चाचियों का ग्रुप टोकरी में कुछ सामान लिए उसके कमरे तक आता दिखा,और साथ में मानस को हिदायत..."अंदर चलो....रस्म होने वाली है...उसकी फोटो ले लेना..."</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">कैमरा संभालता मानस अंदर दाखिल हो गया. इसके पहले भी इन चाची,मौसी,मामी,बुआ, दादी का ग्रुप उसे अक्सर घेरे रहता और अजीब अजीब से रस्म करवाता रहता, 'यहाँ चावल चढाओ' .'यहाँ टीका करो.' वह कठपुतली सी बिना किसी अहसास के रस्म निभाये जाती पर आज थोड़ी सी अनकम्फर्टेबल थी... पूरे समय लगता रहा,एक जोड़ी आँखें उसपर टिकी हुई हैं. रस्म ख़त्म होते होते....उसके पैर सुन्न पड़ गए थे. उसने आशा भरी आँखों से उनलोगों की तरफ देखा, पर वे लोग खुद में ही मगन थीं..."अरे ये तो लाल कपड़े में बाँधा जाता है"...."सुपारी नहीं रखी?"..."पान के पत्ते भी चाहिए थे"..."क्या जीजी अभी तो आपने बेटी की शादी की है...और सब भूल गयीं "</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">किसी का ध्यान उसकी तरफ नहीं था. और एक हाथ उसके आँखों के सामने आया, नज़रें उठाईं तो देखा, 'मानस ने सहारे के लिए हाथ बढाया है' वह उसकी आँखों का आग्रह समझ गया था. कैसे नहीं समझता ,'बचपन से बस आँखों की भाषा ही तो जानी है'</span></div>
<div style="font-size: small;">
<br /></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">उसका हाथ थाम, उठते हुए लड़खड़ा सी गयी..और मानस ने एकदम से थाम लिया,..'अरे संभल के' ..कितना स्वाभाविक सा लग रह है सब कुछ ...जैसे कितने पुराने ,गहरे दोस्त हों. वो बीच में फैली विष-बेल कहाँ विलीन हो गयी थी.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">महिलाओं का सारा ग्रुप कोई मंगल गीत गाते हुए ,आँगन की तरफ चला गया कोई और रस्म निभाने. और जैसे उसे होश आया, अपनी पसीजती हथेली उसने मानस के हाथों से छुड़ा ली.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">कमरे में सिर्फ मानस और वह थे, और थी बड़ी ही असहज करती हुई सी चुप्पी.उसने ही चुप्पी तोड़ी.."खाना खाया?"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"हाँ"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"झूठ"..हंसी आ गयी उसे..."जब से आए हो कैमरा संभाले खड़े हो...खाना कब खा लिया?"....फिर से एकदम सहज हो उठा सब कुछ.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">मानस भी मुस्कुरा पड़ा...फिर थोड़ा रुक कर पूछा, "तुमने खाया?"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"नहीं....मेरा उपवास है...मुझे कुछ भी नहीं खाना.."</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"अरे क्यूँ?"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"लड़कियों को शायद पहले से ही ट्रेनिंग दी जाती है कि आदत बनी रहें...क्या पता वहाँ जाकर कुछ खाने को मिले या नहीं...या पता नहीं कब मिले.." हंस दी वह.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"बेकार की बातें हैं सब.....मैं ले आऊं?...कुछ खाओगी?..भूख लगी है?"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"नहींssss...." उसने जरा जोर से ही कह दिया..मानो ये थोड़ा सा एकांत मिला है...इसे गंवाना नहीं चाहती हो.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">फिर से दोनों चुप हो गए. इस बार मानस ने ही थोड़ी देर अपनी हथेलियों को घूरते हुए कहा, "बड़ी जल्दी थी, तुम्हे शादी की"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">उसने एक नज़र मानस को देखा, और नज़रें खिड़की से बाहर टिका दीं..."किसी ने कहा ही नहीं इंतज़ार करने को.."</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"कैसे कहता...वह कुछ बन तो जाता पहले...तुम कहाँ इतनी तेज़....टॉपर....और मैं नकारा..किसी तरह पास होने वाला." कहने की रौ में मानस भूल गया था कि इशारे में बातें हो रही थीं.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"तुम स्कूल के..कॉलोनी के.... कॉलेज के हीरो थे" एक एक शब्द पर जोर देते हुए कहा,उसने.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"मुझे सिर्फ एक का हीरो बनना था"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"तुम उसके हीरो थे" जरा जोर देकर कहा उसने तो मानस एकदम से पूछ बैठा...</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"सच??.." मानस के दिल की धड़कन बढ़ गयी थी.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">शालिनी ने एक नज़र मानस को देखा और नज़रें खिड़की के बाहर आम के पेड़ की फुनगी पर टिका दीं...जहाँ कुछ गुलाबी कोमल पत्ते उग आए थे.ऐसा ही कुछ कोमल सा उनके बीच भी उग रहा था...पर इन नवजात कोंपलों की उम्र कितनी कम थी. वो पेड़ के कोंपल की तरह प्रौढ़ हरे पत्ते में बदल पायेंगे कभी?</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"हाँ सच...पर तुम तो पता नहीं किस शालिनी के नाम की माला जप रहें थे...</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">अपनी नोटबुक में उसका नाम ही लिखते रहते थे..." उलाहना भरा स्वर था उसका.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"व्हाटssss ???? .." बुरी तरह चौंक गया वह.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">उसकी असहजता पर मुस्कुरा पड़ी वह, "हाँ मानस एक बार निशा के साथ मैं तुम्हारे घर गयी थी...देखा..नोटबुक में फूल-पत्तियों के बीच किसी शालिनी का नाम लिख रखा है...मैं देखते ही भाग आई..."</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"ये...ये... तो बहुत गलत है...यूँ चोरी..चोरी किसी की किताब कॉपियाँ..देखना...बैड मैनर्स... वेरी वेरी बैड, मैनर्स " मानस का चेहरा लाल पड़ते जा रहा था, बोला,"...और मैं दूसरी किस शालिनी को जानता हूँ...? "...फिर एकदम से उसकी नज़रों में सीधा देखते हुए कहा ..."अगर ऐसा होता तो आज मैं यहाँ आता??...मुझे तो जैसे ही माँ ने बताया....बस दिमाग में एक ही बात थी...'मुझे यहाँ पहुंचना है...हर हाल में..क्यूँ, कैसे मैं कुछ नहीं जानता...दो कपड़े बैग में डाले और सीधा स्टेशन आ गया....रात भर जाग कर टॉयलेट के पास एक रुमाल बिछा कर बैठ कर आया हूँ....और तुम कह रही हो..कोई और शालिनी होगी" दर्द से भीग आया स्वर उसका.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">उसकी भी आँखें भर आयीं....अब क्या फायदा मानस...तुमने जरा सी हिम्मत नहीं की...और कोई संकेत भी नहीं दिया..उल्टा उसे हमेशा चिढाते,खिझाते ही रहें , और चिढाने की बात से सब पिछला याद आ गया, रोष उमड़ आया....आज उसे सारा हिसाब लेना ही होगा. एकदम से बोल पड़ी..."तुम मुझे इतना चिढाते, रुलाते क्यूँ थे?"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"तुम्हारी अटेंशन पाने को..इतना भी नहीं समझती थी तुम"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"हाँ, नहीं समझती थी...और जब समझने लगी....तुम दूर चले गए "..हताश होकर बोली वह.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"पता नहीं, मुझे क्यूँ तुम हमेशा डरी-सहमी सी लगती थी...लगता था तुम्हे किसी की सुरक्षा की जरूरत है...तुम्हे याद है..हमेशा मैं तुम्हारे पीछे आता था और किसी को आवाज़ देकर जता देता था की मैं पीछे ही हूँ....पर तुमने कभी एक बार मुड कर भी नहीं देखा"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"क्या देखती...मैं तो डर जाती थी...अब फिर कुछ चिढ़ाओगे..."</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"बुध्दू हो तुम..बिलकुल...स्कूल में और किसी लड़के ने कभी कुछ कहा?...तंग किया?...परेशान किया??...क्यूंकि सब जानते थे...तुम्हे परेशान करने का अधिकार सिर्फ मेरा है..वरना वो तुम्हारी सहेलियाँ...रीता, शर्मीला..याद है..कितना परेशान करते थे लड़के, उन्हें??..." और जैसे उसे कुछ याद आ गया, हंस पड़ा...."वो उचक उचक कर बोर्ड पर 'सम' बनाती तुम...और वो बेंच पर खड़ी हो कर रोती हुई...एकदम रोनी बिल्ली लगती थी.."</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"अच्छा और क्लास में मुर्गा बने तुम कैसे दिखते थे...शर्मा सर तो तुम्हारी पीठ पर किताबें भी रख देते थे और तुम उन्हें गिरा देते....सर तुम्हे आधे घंटे और खड़ा रखते...."उसके भी होठों पर मुस्कान तिर आई.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"उन्हीं सब से तो दूर जाना था., मैं तुम्हारे काबिल बनना चाहता था...जी-जान लगा दी थी मैने पढ़ाई में...अब क्या पढूंगा...सब छोड़ दूंगा..." झुंझला गया वह.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"बेवकूफी की बातें मत करो....मेरी पढ़ाई तो अकारथ गयी....तुम बहुत बड़े आदमी बनना ,मानस..मुझे अच्छा लगेगा."</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"तुमने इतनी जल्दी शादी के लिए 'हाँ' क्यूँ कहा,शालिनी....??" मानस ने आजिजी से कहा.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"किसने पूछा मानस??...हम लड़कियों से कभी पूछते हैं??....बता देते हैं,बस..कई बार तो तुरंत बताते भी नहीं...दूसरों से पता चलता है कि उनकी शादी ठीक हो गयी है...." गला भर आया उसका.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">मानस भी चुप हो आया, फिर शायद उसे थोड़ा सहज करने के लिए मुस्कुराता हुआ बोला, "चलो..भाग चलते हैं "</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">वह उसका प्रयास समझ गयी थी...उसमे शामिल होती हुई बोली, "ड्राइविंग आती है?.."</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"ना"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"बाइक है?"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"उह्हूँ "..मानस ने भी साथ देते हुए सर हिला दिया.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"कोई दोस्त है...गाड़ी लेकर खड़ा...?"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"ना "</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">'फिर कैसे भागेंगे?..पैदल??...पकडे जाएंगे ...भागना कैंसल..पहले से सब प्लान करना था ना"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"हाँ, अब तो कैंसल ही करना पड़ेगा....कैसे कुछ प्लान करता....तुम तो ऊँची डाली पर लगी उस फूल के समान थी,जहाँ तक पहुँचने के लिए मैं इतनी मशक्कत कर सीढ़ी तैयार कर रहा था ...और तुम बीच में ही किसी और की झोली...में..." आगे के शब्द मानस ने अधूरे छोड़ दिए.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">इतनी महेनत से हल्की-फुलकी बात करने की कोशिश की थी उसने पर फिर से उदासी ने अपने घेरे में ले लिया, दोनों को.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"वैसे , हू इज दिस लकी चैप ....मैने माँ से कुछ पूछा ही नहीं..."</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"क्या पता "</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"व्हाट डू यू मीन ...क्या पता....मिली नहीं हो?"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"ना...और कोई इंटरेस्ट भी नहीं....जो भी हो...पति परमेश्वर मानना होगा उसे"</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"अरे चाचा जी ने बहुत अच्छा लड़का ढूँढा होगा...मस्ट बी अ गुड़ कैच..वरना तुम्हारी पढ़ाई ,तुम्हारा कैरियर यूँ बीच में नहीं छुडवा देते.. बहुत काबिल होगा..."..उदासी घिर आई थी उसके स्वर में , जिसने उसे भी कहीं गहरे छू लिया.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"मानस, मुझे बहुत डर लग रहा है.." अनायास ही थरथरा आई आवाज़ उसकी.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">मानस का मन हुआ उसे आगे बढ़ ,गले से लगा कर उसके अंदर का सारा डर सोख ले. एक आवेग सा उमड़ा...पर उसकी पीली साड़ी और मेहंदी रचे हाथ दिख गए...जो किसी और के नाम के थे. वैसे ही जड़ बना बैठा रहा.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">और तभी निशा और शोभा ने ये कहते ,कमरे में कदम रखा...."शालिनी चलो..मंडप में तुम्हे बुला रहें हैं तुम्हे... " मानस को देखकर एकदम से चौंक गयी.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"अरे तुम कब आए....हम्म बेस्ट फ्रेंड की शादी में तो सब आते हैं...पर पक्के दुश्मन की शादी में आते पहली बार देखा किसी को..." शोभा की आवाज़ में चुहल थी.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">मानस और शालिनी की नज़रें मिलीं....और सारा अनकहा सिमट आया, क्या थे वे...दोस्त..दुश्मन..या क्या.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">निशा की नज़र मानस के हाथ में थमे कैमरे पर पड़ी और वह मचल उठी..'मानस शालिनी के साथ हमारी फोटो लो ना".</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">दोनों उससे लग कर खड़ी हो गयीं और जब निशा ने उसे कंधे से घेर गीली आवाज़ में कहा, "कितना मिस करेंगे तुम्हे...कैसे रहेंगे हमलोग तुम्हारे बिना..." शालिनी का इतनी देर से रुका आंसुओं का सैलाब बह चला....दोनों सहेलियाँ भी आँखें पोंछने लगीं और उसे पता था कैमरे के पीछे भी किसी की आँखें गीली हैं.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">वह मानस से पहली और आखिरी आत्मीय बातचीत थी. बड़ी दीदियाँ,उसे तैयार करने.., संवारने ले गयीं...मानस भी नहीं दिखा फिर. जब स्टेज पर जयमाल के लिए, सब लेकर जा रहें थे ...देखा,मानस कैमरा लिए बिलकुल सामने खड़ा है...नज़रें मिलीं और वहीँ जम कर रह गयीं. एक टीस सी उठी दिल में, अब वह किसी और के पहलू में बैठने जा रही है. उसके कदम लड़खड़ा से गए, 'अरे संभालो..." सबको लगा, भारी लहंगा पैरों में फंस गया है. स्टेज पर उसका दूल्हा बैठा था...नज़र उठा कर भी नहीं देखा उसे...अब तो सारी ज़िन्दगी यही चेहरा देखना..है और स्टेज के नीचे खड़ा चेहरा शायद फिर कभी ना मिले देखने को.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">स्टेज पर तो सब यंत्रवत करती रही...लोगों की तालियाँ, हंसी ठहाकों , कैमरे के लिए बार बार वो माला पकड़ना , सबके आग्रह पर मुस्काराना ...सब मशीनवत चलता रहा पर जब कन्यादान के समय उसे माता-पिता के बगल से उठा उस अजनबी के पास बिठाया जाने लगा तो जैसे अंदर कुछ जोर का दरक गया. सामने निगाहें उठाईं तो पाया, मानस की नज़रें उस पर ही जमी हैं...उसने मानस की ओर देखा और उसकी नज़रों में इतनी शिकायत,इतना उलाहना भरा था कि मानस उसके नज़रों कि ताब सह नहीं सका. उसने गर्दन झुका कैमरा किसी और को पकडाया और वहाँ से चला गया. और वह एक अनजान व्यक्ति के पास बिठा दी गयी, अब उसका हाथ किसी और के हाथों में सौंप दिया गया था.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">उसे पता था, अब मानस नहीं आएगा...और वह उसकी विदाई तक नहीं आया.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">शालिनी के पापा, सिर्फ शालिनी की पढ़ाई की वजह से अपना ट्रांसफर कई बार रुकवा चुके थे, अब शालिनी की शादी के बाद,उन्होंने भी ट्रांसफर दूसरी जगह ले लिया और मानस फिर कभी नहीं मिला.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<br /></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">'प्लीज़ टाई योर सीट बेल्ट' की उद्घोषणा से उसकी तन्द्रा भंग हुई. बच्चों की सीट बेल्ट बाँधी...उन्हें जगाया...प्लेन लैंड होने वाली थी.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">फिर से एयरपोर्ट पर निगाहें इधर-उधर भटकने लगी थी.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">000</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">शालिनी को कहाँ पता था, उसी समय देश के किसी दूसरे एअरपोर्ट पर यूँ ही एक जोड़ी निगाहें उसके लिए भटक रही थीं. जब से मानस की माँ को वाया वाया किसी से पता चला था कि शालिनी अब छुट्टियों में बच्चों को लेकर प्लेन से ही मायके आती है. उन्होंने यूँ ही मानस से एक बार पूछ लिया, "तुम्हे कभी मिली शालिनी?..." और आगे खुद ही जोड़ दिया..."मिल भी गयी तो पहचानेगा कहाँ ....अब तक कितनी बदल गयी होगी."</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">मानस ने मन ही मन कहा, "माँ, वो अस्सी साल की भी हो जाए तब भी पहचान लूँगा... उसकी आँखें और मुस्कुराहट तो नहीं बदलेंगी....और तब से स्कूल की छुट्टियां शुरू होते ही, मानस की नज़रें, एयरपोर्ट पर किसी को ढूंढती रहती हैं. उसकी एयर होस्टेस पत्नी को भी पता है, कि बचपन की अपनी फ्रेंड को वह ढूंढता रहता है.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">कभी कभी मजाक भी करती है, "क्या बात है...कुछ प्यार व्यार का चक्कर तो नहीं था.."</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"व्हाट रब्बिश....हमलोग स्कूल में साथ थे....वी वर जस्ट किड्स "</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">उनलोगों के बीच जो भी था, उसे वह कोई नाम दे सकता है,क्या?</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">"फिर क्यूँ, इस तरह उसे ढूंढते रहते हो? "....रोज़ा उसे थोड़ा और चिढाती है.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">यही तो सैकड़ों बार खुद से भी पूछता रहता है,... क्यूँ...किसलिए.....पर जबाब कोई नहीं मिलता .</span></div>
</div>
rashmi ravijahttp://www.blogger.com/profile/04858127136023935113noreply@blogger.com51tag:blogger.com,1999:blog-6953374982088960088.post-62237468939723672362010-08-20T07:31:00.000-07:002010-08-20T08:28:15.795-07:00जब पाठकों ने लिखवा ली कहानी<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TG6J8oVhhtI/AAAAAAAAA_U/TixOuXr9oaQ/s1600/R6.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><br />
</a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TG6J8oVhhtI/AAAAAAAAA_U/TixOuXr9oaQ/s1600/R6.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://2.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TG6J8oVhhtI/AAAAAAAAA_U/TixOuXr9oaQ/s1600/R6.jpg" /></a></div>ये कहना जरा भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह लम्बी कहानी सचमुच पाठकों ने ही लिखवा ली. जैसा कि पहले भी मैने जिक्र किया ,छः पेज की कहानी को ४ पेज में कर के , सिर्फ ९ मिनट में समेटी थी ..... और सोचा ,अब तो अपना ब्लॉग है. Unedited version ब्लॉग पर डाल दूंगी.पर मन में एक शंका थी,यह बहुत ही सीधी सादी कहानी थी,कोई नाटकीयता नहीं...अप्रत्याशित मोड़ नहीं. <b>सब कहेंगे दो नॉवेल लिख लिया ,अब रश्मि का लेखन चुक गया है. </b>पर अपना लिखा एक जगह इकट्ठा करने की ख्वाहिश भी थी. सो बड़ी हिचकिचाहट के साथ पहली किस्त पोस्ट कर दी.<br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TG6KJd5eJMI/AAAAAAAAA_Y/QBtcCfYClpo/s1600/r9.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="http://1.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TG6KJd5eJMI/AAAAAAAAA_Y/QBtcCfYClpo/s1600/r9.jpg" /></a></div><a href="http://1.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TG6KJd5eJMI/AAAAAAAAA_Y/QBtcCfYClpo/s1600/r9.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><br />
</a><br />
टिप्पणियों और मेल में लोगों की प्रतिक्रिया देख सुखद आश्चर्य हुआ, गाँव की पृष्ठभूमि पर लिखी इस कहानी की पहली किस्त खूब पसंद आई थी लोगों को...किसी ने थोड़ा व्यंग्य भी किया कि "छः बच्चे ?कहीं परिवार नियोजन वाले ना दुखी हो जाएँ" पर मैं चुप रही, छः बच्चे इसलिए थे कि मुझे छः अलग अलग जिंदगियां दिखानी थीं...कुछ ने कमेंट्स में कहा भी कि हम भी छः भाई-बहन हैं....कहीं हमारी कहानी तो नहीं,मतलब यह इतनी अनहोनी बात भी नहीं.<br />
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फिर भी मुझे लगा, कि ३,४ किस्त में सिमट जायेगी. पर पाठको का प्यार और उत्साहवर्द्धन लिखवाता गया और मैं लिखती गयी. <b>शिखा, वाणी गीत, वंदना अवस्थी, वंदना गुप्ता, मुक्ति,सारिका, दीपक, आशीष,शुभम जैन,संजीत त्रिपाठी, मुदिता, रेखा दी, संगीता स्वरुपजी, घुघूती जी,राज भाटिया जी,समीर जी, निर्मला दी, रश्मि दी,शमा जी, हमेशा की तरह ये लोग पहली किस्त से ही साथ हो लिए</b>, और बहुत ही सजगता से कहानी पर नज़र रखी थी. और भरोसा भी देते गए कि कहानी सत्य के करीब है.<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TG6Ll9lDevI/AAAAAAAAA_g/S1YuorDg40I/s1600/R4.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><br />
</a></div><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TG6Ll9lDevI/AAAAAAAAA_g/S1YuorDg40I/s1600/R4.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://4.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TG6Ll9lDevI/AAAAAAAAA_g/S1YuorDg40I/s1600/R4.jpg" /></a></div>इस कहानी से कुछ नए नाम जुड़े...<b>साधना वैद्य जी और शोभना चौरे जी,</b> ...उनकी टिप्पणियाँ हमेशा एक नया जोश देती रहीं. राधा-कृष्ण के सिले कपड़े, शादी के बाद भी नैनों से ही प्रेमलीला, मनिहारिन,बच्चों के माध्यम से ससुर जी से बात करना और बड़े-बूढों का खांस कर घर में घुसना...मेरे साथ साथ बहुतों को याद आ गया.<br />
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मुक्ति और वाणी का हर किस्त पर ये कहना कि ऐसा उनके गाँव में भी होता था,<b> शिखा,वंदना गुप्ता संगीता जी ,घुघूती जी</b> का गाँव की एक एक बात ध्यान से पढना ,क्यूंकि इन लोगों ने ग्राम्य-जीवन पास से देखा ही नहीं, बरबस मुस्कराहट ला देता. <b>वंदना अवस्थी,संजीत त्रिपाठी </b> ने आश्चर्य भी किया कि शहर में रहकर इतने वास्तविकता के करीब कैसे लिखा?...मैने गाँव के जीवन को जिया नहीं पर देखा तो जरूर है...बरसों पहले ही सही.. थोड़ा डर तो था,न्याय कर पाउंगी या नहीं पर कुछ अपनी कल्पना की छौंक भी लगाती रही.<b>शिखा एवं आशीष जी</b> में शर्त लग गयी की मुझे भोजपुरी नहीं आती....जबकि बखूबी आती है. <b>दीपक मशाल</b> ने शिकायत भी की , सारी लड़कियां हिरोइन और लड़के विलेन..ऐसा क्यूँ??<br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TG6MNXrvZhI/AAAAAAAAA_k/L2_tU8fkGck/s1600/r8.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><br />
</a></div><b>प्रवीण पाण्डेय जी, डॉक्टर दराल, अनामिका जी,रचना दीक्षित जी, इस्मत जैदी जी , ताऊ रामपुरिया जी,रवि धवन जी, जाकिर अली, विनोद पाण्डेय, रोहित, सौरभ , हिमांशु मोहन जी</b> ये लोग भी समय मिलने पर कहानी पढ़ते रहें और अपनी टिप्पणियों से उत्साहवर्धन करते रहें<b>.हिमांशु जी</b> ने अंतिम किस्त पर बहुत ही ख़ूबसूरत टिप्पणी की.<a href="http://2.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TG6MNXrvZhI/AAAAAAAAA_k/L2_tU8fkGck/s1600/r8.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="http://2.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TG6MNXrvZhI/AAAAAAAAA_k/L2_tU8fkGck/s1600/r8.jpg" /></a><br />
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दूसरी किस्त में ममता की शादी कि बात पढ़ ,सबको लगा ये ममता की कहानी है..टिप्पणियों में ममता की कहानी आगे बढ़ने का सबको इंतज़ार था पर अब तो कहानी स्मिता पर आ गयी.<b>शोभना जी</b> ने बताया,स्मिता जैसी ही ज़िन्दगी देखी थी उन्होंने मुंबई में. इस कहानी की पात्र नमिता का चरित्र सबको खूब पसंद आया. सब इंतज़ार करने लगे, कि नमिता शायद अब घर में बदलाव लाएगी. टिप्पणियाँ पढ़, मुझे लगता, 'मैं कुछ गलत कर रही हूँ क्या..? हमेशा पाठकों के अनुमान के विपरीत जा रही हूँ.' पर कहानी की रूप-रेखा तो पहले ही बन चुकी थी.<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TG6MedM-KmI/AAAAAAAAA_o/n1KRfQeWGkk/s1600/index.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://2.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TG6MedM-KmI/AAAAAAAAA_o/n1KRfQeWGkk/s1600/index.jpg" /></a></div><br />
प्रमोद और प्रकाश की कहानी के बाद सबको अनुमान हो गया कि ये अलग-अलग पात्रों की कहानी है. जब प्रकाश की पत्नी पूजा का कहानी में प्रवेश हुआ, तो बिंदास पूजा का चरित्र भी सबको बहुत पसंद आया.<b> घुघूती जी</b> ने कहा 'अब नमिता और पूजा मिल कर बदल देंगी घर को' पर एक बार फिर मैने निराश किया,अपने पाठकों को.और पूजा को विदेश भेज दिया. अब तक कहानी बिलकुल धरातल पर पैर जमा चल रही थी ,मैने पूजा के बहाने ,कल्पना को थोड़ी उड़ान दी. <b>इंदु जी</b> ने भले ही कभी टिप्पणी नहीं की पर उनकी पैनी नज़र थी,कहानी पर.तुरंत टोक दिया, "काश! गाँव ऐसे होते" .<br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TG6MuG-uF7I/AAAAAAAAA_s/jdYpwekrik4/s1600/R1.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="http://4.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TG6MuG-uF7I/AAAAAAAAA_s/jdYpwekrik4/s1600/R1.jpg" /></a></div>इस कहानी का सबसे बड़ा झटका था, 'नमिता' का घर छोड़ कर चले जाना. इसे पाठकों का संस्कारी मन स्वीकार नहीं कर पा रहा था. उनकी प्रतिक्रियाएँ देख, मुझे भी दुख होता,पर मैं यह भी दिखाना चाह रही थी कि 'कैसे शिक्षित, मृदु स्वभाव वाले पिता भी,बेटी का अन्तर्जातीय विवाह स्वीकार नहीं कर पाते.'<br />
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समापन किस्त पर भी सबकी प्रतिक्रिया ने चौंकाया...सबको मार्मिक लगी वो कड़ी...और करीब-करीब सबने आँखें नम होने की बात लिखी. मैं तो पोस्ट करके सो गयी थी. सुबह कमेंट्स पढ़े तो अपराध-बोध से भर गयी. <b>कभी कभी कैसी विवशता हो जाती है, कहानी की मांग ही ऐसी होती है कि पाठकों को दुखी करने का अपराध अपने सर लेना पड़ता है.</b><br />
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<a href="http://2.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TG6Nca_ekdI/AAAAAAAAA_w/evy2UxY8Vr8/s1600/R3.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://2.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/TG6Nca_ekdI/AAAAAAAAA_w/evy2UxY8Vr8/s1600/R3.jpg" /></a>यह कहानी लिखते वक़्त जाना कि गाँव की यादें इतनी सुरक्षित हैं, मेरे मन-मस्तिष्क में. <b>सचमुच दिल से शुक्रिया सभी पाठको का...उन लम्हों को फिर से जीने का मौका दिया और एक लम्बी कहानी मेरी झोली में डाल दी.</b><br />
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आगे भी ऐसे ही स्नेह,मार्गदर्शन,चौकस नज़र बनाएं रखें....अगली कहानी में उसकी ज्यादा जरूरत है क्यूंकि कागज़ पर उसे लिखना शुरू किया था (ब्लॉग बनाने से पहले) पर आधे के बाद नहीं लिख पायी. ये <b>अहसास रहें कि कुछ लोग साथ हैं तो शायद पूरी कर पाऊं.</b>rashmi ravijahttp://www.blogger.com/profile/04858127136023935113noreply@blogger.com33tag:blogger.com,1999:blog-6953374982088960088.post-9713583249133392022010-05-24T03:37:00.000-07:002010-05-24T07:54:39.001-07:00राम राम करके उपन्यास पूरा हुआ ,अब शुक्रिया कहने की बारी<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S_pVEdfn8TI/AAAAAAAAA14/_Pre3cSmK58/s1600/sonnenblumedanke.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="http://1.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S_pVEdfn8TI/AAAAAAAAA14/_Pre3cSmK58/s320/sonnenblumedanke.jpg" width="250" /></a></div><br />
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यह उपन्यास या लम्बी कहानी( <a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2010/05/13.html">आयम स्टिल वेटिंग फॉर यू, शची)</a> जो भी कहें...ख़त्म होने के बाद ही सबका शुक्रिया अदा करने का विचार था ,पर कई अडचनें आ गयीं..और टलता रहा शायद ये टल ही जाता हमेशा के लिए अगर <a href="http://www.blogger.com/profile/07060610260898563919" rel="nofollow" target="_blank">सारिका सक्सेना</a> ने 'मेकिंग ऑफ द नॉवेल ' की डिमांड नहीं की होती और मुझपर इल्जाम भी है कि मैं <a href="http://www.blogger.com/profile/17129445463729732724" rel="nofollow">mukti</a> और सारिका को लेकर थोड़ा पक्षपात करती हूँ,अब दोनों दीदी कहती हैं तो इतना हक़ तो है ही उनका.(.हाँ, दीपक,पी.डी., सौरभ तुम्हारा भी है...dnt b jealous :))<br />
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उन दोस्तों का तहेदिल से शुक्रिया जिन्होंने बड़े धैर्य से यह लम्बा नॉवेल पढ़ा जो 5 मार्च को शुरू होकर 13 मई को ख़त्म हुआ. नॉवेल के सफ़र की शुरुआत में ही मेरे लेखन के कुछ नियमित पाठक साथ हो लिये. पहली किस्त पर तो बस शुरुआत थी,सबने 'रोचक है' कह कर उत्साह बढाया.<br />
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दूसरी किस्त से कहानी ने थोड़ा जोर पकड़ा, दूसरी किस्त का ये डायलॉग "हर पढ़ी-लिखी लड़की थोड़ी फेमिनिस्ट तो ही जाती है हमेशा अपनी जाति के लिए सतर्क. कहीं कोई उनके अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण ना कर दे." सबको खूब भाया. <span dir="ltr"><a href="http://www.blogger.com/profile/01559824889850765136" rel="nofollow" target="_blank">Pankaj Upadhyay </a></span> ने अभी अभी ये उपन्यास पढना बस शुरू ही किया है. इतवार की सुबह की चाय वे शची,अभिषेक के साथ लेते हैं,उनका कहना था कि उनके शहर का शॉर्ट फॉर्म LMP है ,यानि लखीमपुर खीरी जबकि नॉवेल में LMP का अर्थ है,लव,मुहब्बत,प्यार.(उनका शहर भी बिना शर्त यही बांटता होगा शायद)<br />
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तीसरी किस्त में <span dir="ltr"><a href="http://www.blogger.com/profile/00942644736827727003" rel="nofollow" target="_blank">दीपक 'मशाल'</a></span> को अपने कॉलेज की बातें याद आ गयीं और जैसे वे फ्लैशबैक में जीने लगे उनका कहना था "आज से १०-११ साल पहले के अपने माज़ी की परते खोलने को भेज दिया.". (दीपक हमें भी ले चलये कभी वहाँ :) .<a href="http://www.blogger.com/profile/12513762898738044716" rel="nofollow" target="_blank">अभिषेक ओझा</a> ने कहा ... 'खोकर पढता हूँ मैं तो, कैरेक्टर का नाम भी तो अपना ही है'.<a href="http://www.blogger.com/profile/17633631138207427889" rel="nofollow" target="_blank">PD</a> ने तीनो किस्त एक साथ पढ़ी और बाकी के सारे किस्त उन्हें मेल में चाहिए थी.उन्होंने धमकी भी दे डाली,'भेजिए वरना घर आ जाऊंगा और <a href="http://rashmiravija.blogspot.com/2010/03/blog-post_12.html%20%20">बैगन</a>भी नहीं खाऊंगा ."<br />
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चौथी किस्त में <a href="http://www.blogger.com/profile/13199219119636372821" rel="nofollow" target="_blank">HARI SHARMA</a> जी ने इस डायलौग को उद्धृत कर सारे युवा जगत से एक अपील कर डाली,कि ध्यान रहें , "व्हेन अ गर्ल इज इन लव,शी बिकम्सा क्लेवर बट व्हेन अ बॉय इज इन लव,ही बिकम्स अ फूल".<a href="http://www.blogger.com/profile/07611846269234719146" rel="nofollow" target="_blank">shikha varshney</a> ने सलाह दे डाली कि 'आपको युवा मनोविज्ञान पर एक किताब लिखनी चाहिए' सारिका सक्सेना ने भी इसका अनुमोदन किया कि आप युवा मनोविज्ञान को बहुत अच्छी तरह समझती हैं. दरअसल हर कोई ही इस दौर से गुजरता है.बस जरूरत है रुक कर एक बार उनके जैसा सोच कर देखने की'<br />
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<a href="http://www.blogger.com/profile/09435360513561915427" rel="nofollow" target="_blank">शरद कोकास</a> जी ने पांचवी किस्त तक एक बैठक में ही पढ़ी,और कहा,"साहित्यिक भाषा की कमी ज़रूर लग रही है लेकिन अब लिख ही लिया है तो क्या किया जा सकता है । बाकी प्रवाह बहुत बढ़िया है और रोचकता भी बरकरार है । उनकी शिकायत बिलकुल जायज है.एक तो मैं पूरी कोशिश करती हूँ कि नॉवेल के चरित्र बिलकुल बोलचाल की भाषा में ही संवाद करें.कोई क्लिष्ट शब्द आए भी तो उसे आसान से शब्द में बदल देती हूँ. पर सबकी अपनी पसंद होती है,उन्हें शायद इसकी कमी इतनी खली कि आगे की किस्तें उन्होंने पढ़ी ही नहीं :) (व्यस्तता भी एक वजह हो सकती है ). इसी किस्त में अभिषेक का ये कहना' आश्चर्यचकित तो वह भी था कि इतनी आसानी से फ्लर्ट कर सकता है वो. परन्तु शायद हर पुरुष में इस किस्म का चरित्र मौजूद रहता है. और मौका पाते ही अपनी झलक दिखा जाता है' दीपक मशाल और दीपक शुक्ल ने इस कथन पर गहरी आपत्ति की.:) (जैसे ये झूठ हो, हा हा )<br />
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छठी किस्त में <a href="http://www.blogger.com/profile/18232011429396479154" rel="nofollow" target="_blank">sangeeta swarup</a> ने कहा ... कहानी के सारे पत्रों के मनोभावों को बहुत मनोवैज्ञानिक तरीके से उजागर किया है....नायक के मन में कुछ और लेकिन अपनी इगो को सर्वोपरि रखते हुए जिस तरह का आचरण दिखाया है बहुत सटीक है..' <br />
सातवीं किस्त में <a href="http://www.blogger.com/profile/13048830323802336861" rel="nofollow" target="_blank">वन्दना अवस्थी दुबे</a> का कहना था ... ' अपने स्वभाव के विरुद्ध जब हम कोई काम करते हैं, तो अभिषेक जैसी ही दशा होती है.' ,मुक्ति की मनपसंद पंक्ति लाईन थी <br />
"किन्तु कॉमन रूम ही शायद सबसे निरापद जगह है. एक ही साथ कोलाहल और एकांत दोनों अस्श्चार्य्जनक रूप से रहते हैं यहाँ." <br />
आठवीं किस्त <a href="http://www.blogger.com/profile/14584664575155747243" rel="nofollow" target="_blank">खुशदीप सहगल</a> ने ये शंका जता डाली ... " रश्मि बहना, उपन्यास का क्लाईमेक्स क्या होगा, कहीं इस पर सट्टा ही लगना शुरू न हो जाए...'<br />
नंवी किस्त में <a href="http://www.blogger.com/profile/05293412290435900116" rel="nofollow" target="_blank">ज्ञानदत्त पाण्डेय</a> जी के धीर गंभीर व्यक्तित्व से अलग एक सुकोमल पक्ष भी नज़र आया जब उन्होंने कहा,नायक की जगह मैं होता तो शची का इन्तजार करता और वह इन्तजार पुनर्जन्म के आगे भी जाता, अगर आवश्यकता होती तो! '<br />
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दसवीं किस्त के लम्बे लम्बे डायलॉग सबको ज्यादा पसंद नहीं आए, <a href="http://www.blogger.com/profile/18362995980060168287" rel="nofollow" target="_blank">Sanjeet Tripathi</a> ने बेबाकी से कहा.." hmmm, sach kahu to aaj lambe dilogs ne thoda bore kiya..." <a href="http://www.blogger.com/profile/07001026538357885879" rel="nofollow" target="_blank">अनूप शुक्ल</a> जी ने भी चुटकी ले डाली कि<br />
"नायिका को अपनी सेहत का ख्याल रखना चाहिये। छोटे-छोटे डायलाग बोलने चाहिये!" उनकी टिप्पणी बस इसी किस्त में उदय हुई और वहीँ अस्त भी हो गयी. ज़माने में गम और भी हैं,ये नॉवेल पूरा करने के सिवा.<br />
संजीत जी की ये भी डिमांड थी..."happy ending mangta hai, tipical indian ishtyle me...;) "<br />
ग्यारहवीं किस्त में दीपक मशाल,दीपक शुक्ल और हरि शर्मा 'शची को कहे गए अभिषेक के क्रूरतापूर्ण शब्दों से काफी नाराज़ हो गए... जबकि महिलायें इसे प्रेम का ही एक रूप मान रही थीं.<a href="http://www.blogger.com/profile/01846470925557893834" rel="nofollow" target="_blank">वाणी गीत</a> तो इतनी भावुक हो गयी कि कह डाला, "आंसू भरी धुंधलाती आँखों से पढ़ यह सब कुछ ..कितने दिलों की ख़ामोशी को तुम कितनी आसानी से बयान कर देती हो .मन बहुत भर आया है ...आज तो जी कर रहा है कि फूट -फूट कर रो लूं ..." मुझे उसे समझाना पड़ा कि यह एक कहानी है..शची-अभिषेक एक काल्पनिक पात्र हैं.वह इन पात्रों से इतना जुड़ गयी थी गयी थी कि एक कविता भी लिख डाली..<br />
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जिनलोगों ने हैरी पौटर फिल्म देखी हो उन्हें याद होगा, वहाँ बच्चों के नाम जब उनके पैरेंट्स के नाराज़गी भरे ख़त आते हैं तो वह ख़त डाइनिंग हॉल में चीखता हुआ आता है,जिसे howler कहते हैं ऐसा ही एक चीखता हुआ मेल आया <a href="http://www.blogger.com/profile/10771854254305269532" rel="nofollow">Saurabh Hoonka</a> का," cheating.... cheating.... this is cheating" दरअसल उन्होंने उपन्यास शुरू किया और दो घन्टे तक पढने के बाद पता चला कि अभी तक क्रमशः ही चल रहा है.फिर तो रोज उनका एक मेल आता और खीझ कर कहते, लगता है मेरे पोते भी इस नॉवेल को पढेंगे किस्त 102, किस्त 103 जब नॉवेल ख़त्म हो गया तो उनका कमेन्ट था <br />
At last i just want to say one thing................ (Sorry Abhishek but...) I am in love with Shachi..........and I am still waiting for you Shachi...<br />
अजय झा को टफ कम्पीटीशन है क्यूंकि इस नॉवेल पर तो एक टिप्पणी नहीं की पर पर बाकी हर जगह वे शची के वेट कराने की ही चर्चा करते रहें.<br />
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आगे की किस्तों में <a href="http://www.blogger.com/profile/00019337362157598975" rel="nofollow" target="_blank">वन्दना</a> ने कहा ,".आखिर यथार्थ मे जीना सीख ही लिया अभिषेक ने……………उसके द्वंद का बखूबी चित्रण किया है "<br />
<a href="http://www.blogger.com/profile/00465358651648277978" rel="nofollow" target="_blank">रेखा श्रीवास्तव</a> का भी कहना था ,... कहानी में मोड़ बहुत बढ़िया दिया है, अब आगे कि कल्पना कहाँ ले जने वाली है, वैसे उम्र के हिसाब से इंसान कि सोच बहुत बदल जाती है. इसी को कहते हैं.<br />
परिपक्वता और समय के साथ साथ चलना".खुशदीप भाई का कहना था,.. "बड़े गौर से पढ़ा इस कड़ी को...निष्कर्ष ये निकाला कि मेरे समेत हर पुरुष में एक अभिषेक है और हर नारी में एक शचि...कुछ समझौते को जीवन मान लेते हैं और कुछ जीवन को"<br />
<a href="http://www.blogger.com/profile/16662169298950506955" rel="nofollow" target="_blank">हिमान्शु मोहन</a> जी का कुछ अलग सा कमेन्ट था," लघु-उपन्यास देखा - सोचा निकल लेता हूँ चुपके से - लम्बी रचना - वो भी ब्लॉग पर - पढ़ ही नहीं पाऊँगा। फिर पढ़ गया पूरी किस्त। फिर पिछ्ली पढ़ी, फिर और पिछली…"<br />
.मुदिता ,(<a href="http://www.blogger.com/profile/14625528186795380789" rel="nofollow">roohshine</a>) बड़े ध्यान से पढ़ती थीं और एक बार बड़ी मुस्तैदी से याद दिलाया कि मैं क्रमशः लिखना भूल गयी हूँ...और पाठक समझेंगे यही अंत है नॉवेल का.<br />
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समीर जी(<a href="http://www.blogger.com/profile/06057252073193171933" rel="nofollow" target="_blank">Udan Tashtari</a> ) माफ़ करें पर उनकी टिप्पणी मैं हमेशा दो,तीन बार गौर से से पढ़ती थी कि क्या वे सचमुच इतना लम्बा उपन्यास पढ़ रहें हैं क्यूंकि औसतन १०० टिप्पणी तो वे रोज ही करते हैं..पर जब एक किस्त में उन्होंने कहा ,"<b>शब्द चित्रण</b> बहुत प्रभावी होता जा रहा है." तब मुझे यकीन हो गया कि वे सचमुच पढ़ते हैं.पर लिख तो मैं जाती लेकिन ये <b>शब्द चित्र </b>क्या बला है,मैने मुक्ति से पूछा,उसके बाद से तो मुक्ति ने जैसे हर किस्त में उनकी तरफ ध्यान दिलाने की जिम्मेवारी ही ले ली (वैसे मुक्ति पहली किस्त से ही चुनिन्दा पंक्तियाँ उद्धृत करती आई है.) शिखा,वाणी,वंदना भी यह बीड़ा उठाती थीं.<br />
<span dir="ltr"><a href="http://www.blogger.com/profile/10550068457332160511" onclick="" rel="nofollow">राज भाटिय़ा</a></span> जी ने बहुत बड़ी बात कह दी कि, 'उनके भी टीनेज़ बच्चे हैं, और यह उपन्यास पढ़ उन्हें उनकी मानसिकता समझने में मदद मिलती हैं.'<br />
@ <a href="http://www.blogger.com/profile/01342785247243151659" rel="nofollow">नेहा</a> की बेसब्री उसके कमेन्ट में झलक जाती, वो बार बार ब्लॉग खोल के देखती...कि अगला किस्त आया या नहीं.<a href="http://www.blogger.com/profile/02437731202200979518" rel="nofollow" target="_blank">Deepak Shukla</a> ने भी बड़े मनोयोग से हर किस्त पर उस अंश का सार समेटते हुए लम्बी टिप्पणियाँ कीं.<br />
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रवि धवन,ताऊ रामपुरिया,विनोद पांडे,अदा, पूनम, शाहिद मिर्ज़ा,भूतनाथ, शमा जी, ममता,जाकिर अली,रचना दीक्षित,आकांक्षा... ये लोग भी बीच बीच में यह उपन्यास पढ़ते रहें.वंदना सिंह का आखिरी किस्त पे लम्बा woww हमेशा याद रहेगा :)<br />
नॉवेल का सुखान्त होना सबको बहुत भाया ,<a href="http://www.blogger.com/profile/14755956306255938813" rel="nofollow" target="_blank">रश्मि प्रभा...</a> जी ने कहा, ab jake aaya mere bechain dil ko karar <br />
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कुछ टिप्पणियाँ ऐसी मिलीं जो आह्लादित तो कर गयीं,पर एक बहुत बड़ी जिम्मेवारी भी सौंप गयीं, <a href="http://www.blogger.com/profile/13664031006179956497" rel="nofollow" target="_blank">आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'</a> जी का ये कहना ".. बहुत दिनों बाद गद्य भी पद्य की तरह प्रवाहमय लगा. स्व. शिवानी जी को महारथ थी ऐसे लेखन में. आप कि कलम भी उसी दिशा में जा रही है" और ज्ञानदत्त जी का ये कमेन्ट, . "स्तरीय किशोर/युवा वर्गीय साहित्य की हिन्दी में बहुत कमी है। उसे भरने का आपमें बहुत पोटेंशियल है." हिमांशु मोहन जी ने कहा सूर्यबाला जी और शिवानी जी की कथाओं का मज़ा मिला। <a href="http://www.blogger.com/profile/09556018337158653778" rel="nofollow">डा० अमर कुमार</a> जी को ये नॉवेल उषा प्रियंवदा की 'रुकोगी नहीं राधिका' की याद दिला गयी , और डा. तरु(<a href="http://www.blogger.com/profile/01249888444042740428" rel="nofollow">Neeru</a>) को 'गुनाहों का देवता' की.(ओह ,दोनों ही डॉक्टर हैं,पर साहित्य प्रेमी). मैने तो कानों को हाथ लगा लिया...अगर उनलोगों के लेखन के शतांश क्या हजारवें अंश की भी जरा सी झलक मिल जाये मेरे लेखन में तो धन्य समझूँ खुद को.<br />
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सभी पाठको का बहुत बहुत से शुक्रिया,अपना किमती वक़्त जाया कर इस लघु उपन्यास को इतने मन से पढ़ा. और यही स्नेह बनाए रखियेगा...अभी बहुत कुछ लिखनेवाली हूँ.<br />
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(मुक्ति आजकल बहुत दुखी है,उसने अपनी प्यारी पप्पी <a href="http://draradhana.wordpress.com/">"कली" </a>को हमेशा के लिए खो दिया है,मुक्ति हम सब तुम्हारे दुख में शामिल हैं ,आप सबसे भी आग्रह है दुआ कीजिये कि मुक्ति को ये अपूर्णीय क्षति सहन करने की हिम्मत मिले )<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S_pWHV-B0DI/AAAAAAAAA18/5d3x2PV82hw/s1600/2474970saah3qf3tp.gif" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="186" src="http://4.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S_pWHV-B0DI/AAAAAAAAA18/5d3x2PV82hw/s400/2474970saah3qf3tp.gif" width="400" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><b>शुक्रिया सबका </b></td></tr>
</tbody></table>rashmi ravijahttp://www.blogger.com/profile/04858127136023935113noreply@blogger.com45tag:blogger.com,1999:blog-6953374982088960088.post-16997608993830278202010-02-11T08:15:00.000-08:002017-10-15T06:29:44.611-07:00होठों से आँखों तक का सफ़र (कहानी)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="http://1.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S3QtgutonII/AAAAAAAAAgw/LZ7acKXPYns/s1600-h/origemII_oiloncanvas_blue2%5B1%5D.jpg"><img alt="" border="0" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5437020690461531266" src="https://1.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S3QtgutonII/AAAAAAAAAgw/LZ7acKXPYns/s320/origemII_oiloncanvas_blue2%5B1%5D.jpg" style="cursor: hand; cursor: pointer; float: left; height: 250px; margin: 0 10px 10px 0; width: 320px;" /></a><br />
मोबाइल पर एक अनजाना नंबर देख,बड़े बेमन से फोन उठाया.पर दूसरी तरफ से छोटी भाभी की आवाज़ सुनते ही ख़ुशी से चीख पड़ी. इतने सारे सवाल कर डाले कि उन्हें सांस लेने का मौका भी नहीं दिया.मेरे सौ सवालों के बीच वो सिर्फ इतना बता पायीं कि इसी शहर में हैं,अपने बेटे के पास आई हुई हैं और मुझसे मिलना चाहती हैं.<br />
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फोन रखते ही मैं जल्दी जल्दी काम निबटाने लगी और उसी रफ़्तार से मानसपटल पर पुराने दृश्य उभरने और मिटने लगे.<br />
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पड़ोस में रहने वाली ,मेरी सहेली सुधा के छोटे भैया की शादी हुई तो जैसे उनका घर रोशनी से नहा गया.अपने नाम किरण के अनुरूप ही,छोटी भाभी कभी सूरज की किरणें बन घर में उजास भर देतीं तो कभी चंद्रमा की किरण बन शीतलता बिखेरतीं.लम्बे काले बाल,दूध और शहद मिश्रित गोरा रंग,पतली छरहरी देह और उसपर जब हंसतीं तो दांतों की धवल पंक्ति बिजली सी चमक जाती.उन्हें देखकर ही जाना कि असली हंसी क्या होती है?उनकी हंसी सिर्फ होठों तक ही सीमित नहीं रहती बल्कि आँखों में उतर कर सामने वाले के दिल में घर कर लेती थी.<br />
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फोटो तो हम सबने पहले ही देख रखी थी.उसपर से सुना फर्स्ट क्लास ग्रेजुएट हैं. थोड़ा डर से गए थे. इतनी सुन्दर और इतनी पढ़ी लिखी हैं,जरूर घमंड भी होगा.ठीक से बात भी करेंगी या नहीं.पर अपने प्यारे व्यवहार से उन्होंने घर भर का ही नहीं.सुधा की सारी सहेलियों का भी मन मोह लिया.<br />
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हम इंतज़ार करते रहते कब क्लास ख़त्म हो और हम सब सुधा के घर जा धमकें.अक्सर छत पर हमारी गोष्ठी जमती और हम यह देख दंग रह जाते,साहित्य,राजनीति,खेल,फिल्म,संगीत,सब पर भाभी की अच्छी पकड़ थी.नयी नवेली बहू को सुधा की माँ तो कुछ नहीं कहतीं पर शाम के पांच बजते ही वे, किचेन में बड़ी भाभी की हेल्प करने चली जातीं.<br />
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छोटे भैया भी उनका काफी ख़याल रखते.अक्सर शाम को ऑफिस से लौट वे भाभी को कभी दोस्तों के घर ,कभी मार्केट तो कभी फ़िल्में दिखाने ले जाते.जब स्कूटर पर भैया भाभी की जोड़ी निकलती तो सारे महल्ले की कई जोड़ी आँखें,खिडकियों से ,बालकनी से या छत से झाँकने लगतीं.सब यही कहते कैसी,राम सीता सी जोड़ी है.<br />
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समय के साथ वे एक प्यारे से बच्चे की माँ भी बनीं.अब तो छोटे बच्चे के बहाने, मैं जैसे उनके घर पर ही जमी रहती.पर नन्हे से ज्यादा आकर्षण भाभी की बातों का रहता.वे भी जैसे मेरी राह देखती रहतीं. उन्होंने भी मुझे कभी सुधा से अलग नहीं समझा.<br />
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सब कुछ अच्छा चल रहा था,फिर हुआ वह वज्रपात.जाड़े के दिन थे,अल्लसुबह भैया किसी मित्र को लाने स्टेशन जा रहें थे.और कोहरे की वजह से उनके स्कूटर का एक्सीडेंट हो गया.भैया का निर्जीव शरीर ही घर आ पाया,नन्हे सिर्फ चार महीने का था,उस वक़्त.<br />
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भाभी को उनके मायके वाले ले गए.मुझे भाभी से बिछड़ने का गम तो था. पर मुझे विश्वास था कि भाभी,अपने घर की इकलौती बेटी हैं,दो भाइयों की छोटी लाडली बहन हैं,पिता भी प्रगतिशील विचारों वाले हैं.जरूर उन्हें आगे पढ़ा कर या अच्छा सा कोर्स करवा कर नौकरी के लिए प्रोत्साहित करेंगे.मैं मन ही मन प्रार्थना करने लगी,हे भगवान्! भाभी की दूसरी शादी भी करवां दें,कैसे काटेंगी अकेली ये पहाड़ सी ज़िन्दगी. पर तब मुझे दुनियादारी की समझ नहीं थी.नहीं जानती थी कि एक विधवा या परित्यक्ता बेटी के लिए मायके में भी जगह नहीं होती.जिस घर मे वह पली बढ़ी है, अब उस घर में ही फिट नहीं हो पाती.जिन माँ-बाप का गला नहीं सूखता ,यह कहते कि,उसके ससुराल वाले तो छोड़ते ही नहीं ..दो दिन में ही बुलावा आ जाता है.पर अगर बेटी हमेशा के लिए आ जाए तो भारी पड़ जाती है. दो महीने के बाद ही भाभी के पिता यह कहते हुए उन्हें ससुराल छोड़ गए कि यह नन्हे का अपना घर है , उसे इसी घर में बडा होना चाहिए.<br />
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घर में प्रवेश करते ही,भाभी ने अपनी स्थिति स्वीकार कर ली थी.उनका अपना कमरा अब उनका नहीं था. किचन से लगे एक छोटे से कमरे में उन्हें जगह मिली थी.जहाँ बस एक तख़्त पड़ा था.उनके दहेज़ के सामान में से बस एक आलमीरा उन्हें मिला था.उनके कमरे,उनके ड्रेसिंग टेबल,टू-इन-वन,सब पर अब सुधा का कब्ज़ा था.छोटी भाभी की अनुपस्थिति में उनके पलंग पर सुधा,और बड़ी भाभी के बच्चे सोते थे.वही व्यवस्था उनके लौटने के बाद भी कायम रही.उनका कमरा देख मेरा कलेजा मुहँ को आ गया.एक रैक पर नन्हे के कपड़ों के साथ बस एक कंघी पड़ी थी.एक आईना तक नहीं.तर्क होगा,जब श्रृंगार नहीं करना,फिर आईने की क्या जरूरत.<br />
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नन्हे को तो सुधा की माँ ने जैसे अपने संरक्षण में ले लिया था.उस बच्चे में वह अपने खोये हुए बेटे को देखतीं.उसका सारा काम खुद किया करतीं.एक मिनट भी उसे खुद से अलग नहीं करती....बस भाभी को आवाजें लगातीं....बहू,जरा..नन्हे की दूध की बोतल दे जाओ...कपड़े दे जाओ...उसके नहलाने का इंतज़ाम करो...और भाभी आँगन में पटरा गरम पानी तौलिया,साबुन सब रखतीं.पर बच्चे को नहलाने का सुख.माता जी ले जातीं.भाभी नन्हे की धाय माँ भी नहीं रह गयी थीं.<br />
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फिर भी भाभी ने अपनी मुस्कराहट जिंदा रखी थी.शायद यही उनके जीने का सम्बल था.पर अब उनकी हंसी बस होठों तक ही सीमित रहती,आँखों से नहीं छलकती थी.<br />
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छोटी भाभी के घर आते ही,बड़ी भाभी को पता नहीं किन काल्पनिक रोगों ने धर दबोचा.आज उनके पैर में दर्द रहता,कल पीठ में तो परसों कमर में.सारा दिन पलंग पर आराम फरमाया करतीं.और पड़े पड़े ही छोटी भाभी को निर्देश दिया करतीं.उन्होंने अपना वजन भी खूब बढा लिया था.मैं सोचती,आज तो ये काम से बचने के लिए बहाने कर रही हैं...इतने आराम से कल इन्हें ये सारे दर्द सचमुच झेलने पड़ेंगे.<br />
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घर का सारा बोझ छोटी भाभी के कंधे पर आ गया था.सुबह उठकर बड़ी भाभी के बच्चों के टिफिन बनाने से लेकर,रात में सबके कमरे में पानी की बोतल रखने तक उनका काम अनवरत चलता रहता.बस दोपहर को थोड़ी देर का वक़्त उनका अपना होता.जब वे घर वालों के कपड़े समेट आँगन में धोने बैठती.सबलोग अपने कमरे में आराम कर रहें होते और वे मुगरी से कपड़ों पर प्रहार करती रहतीं और उसी के लय पर उनके मधुर स्वर में लता के दर्द भरे नगमे गूंजते रहते..मैं उस समय किताबें लिए छत पे होती. मुझे उनकी आवाज़ के कम्पन से पता चल जाता कि वे रो रही हैं और उनकी दर्द भरी आवाज़ सुन, मेरे भी आंसू झर झर किताबों पे गिरते रहते पर मैंने भाभी को कभी नहीं बताया...उनका ये एकमात्र निजी पल मैं उनसे नहीं छीनना चाहती थी. शायद इसी एक घंटे में वे अपने अंतर का सारा कल्मष निकाल देतीं और बाकी के २३ घंटे हंसती मुस्काती नज़र आतीं.<br />
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शायद इसी मूक पल ने जैसे कोई मूक रिश्ता स्थापित कर दिया था,हमारे बीच.मैं भाभी की तरफ देखती और भाभी नज़रें झुका लेतीं और जल्दी से काम में लग जातीं.उन्हें डर था जैसे मैं नज़रों से उनका दर्द पढ़ लूंगी.हमारी गोष्ठी अब इतिहास हो चुकी थी.मुझे अब उनके यहाँ जाना भी अच्छा नहीं लगता.क्यूंकि सुधा जिस तरह उनसे व्यवहार करती वो मुझसे देखा नहीं जाता.<br />
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एक दिन एक सहेली के घर जाना था.सुधा के घर उसे लेने गयी तो देखा,सुधा, भाभी के ऊपर चिल्ला रही है,"मेरा पिंक वाला कुरता कहाँ है?" जब भाभी ने कहा ,'इस्त्री के लिए गयी है" तो बिफर उठी वह ,"अब क्या पहनूं? कहा था ना आपको,नीरा के बर्थडे में जाना है.फिर क्यूँ दिया आपने इस्त्री में?"<br />
भाभी ने चतुराई से बात संभालने की कोशिश की.आलमारी से ब्लू रंग का कुरता निकाल कर प्यार से बोलीं,"अरे ये क्यूँ नहीं पहनती? इस रंग में कितना रंग खिलता है तुम्हारा.बहुत अच्छी लगती है तुम पर."<br />
मैंने भी हाँ में हाँ मिलाई,"हाँ सुधा,बहुत अच्छी लगती है तुम पर ये ड्रेस."<br />
"हाँ ,अब और चारा भी क्या है?"..कहती सुधा,भाभी के हाथों से वो ड्रेस ले बदलने चली गयी.<br />
मैंने ऐसे सर झुका लिया,जैसे मेरी ही गलती हो.भाभी ने भी भांप लिया और बात बदलते हुए,मेरी पढ़ाई के बारे में पूछने लगीं.पर जब हमारी आँखें मिलीं तो सारे बहाने ढह गए और भाभी की आँखें गीली हो आयीं,जिन्हें छुपाने वे जल्दी से कमरे से बाहर चली गयीं.<br />
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मैंने रास्ते में सुधा को समझाने की कोशिश की पर मेरी सहेली कैसी भावनाहीन हो गयी थी,देख आश्चर्य हुआ.उल्टा मुझपर बरस पड़ी,"उनको और काम ही क्या है,इतना भी ध्यान नहीं रख सकतीं"<br />
मन हुआ उसे रास्ते से नीचे धकेल दूँ.हाँ उस बिचारी का पति नहीं रहा...अब चौबीस घंटे तुमलोगों की चाकरी और तुम्हारे नखरे उठाने के सिवा उसके पास काम ही क्या है.मैंने बोला तो कुछ नहीं पर सुधा मेरी नाराज़गी समझ गयी.हमारी दोस्ती के बीच एक दरार सी आ गयी जो समय के साथ बढती ही चली गयी.<br />
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नन्हे अब बोलने लगा था.पर बड़ी भाभी के बच्चों की तरह वो छोटी भाभी को 'छोटी माँ' कह कर ही बुलाया करता.मैंने टोका तो भाभी ने हंस कर बात टाल दी,"अरे बच्चे जो सुनते हैं वही तो बोलना सीखते हैं" पर र्मैने पाया घर में भी कोई उसे 'छोटी माँ' की जगह मम्मी कहना नहीं सिखाता.बल्कि सबको मजे लेकर यह बात बताया करते.हर आने जाने वाले को भाभी को दिखाकर,नन्हे से पूछते,'ये कौन है' और जब नन्हे अपनी तोतली जुबान में कहता,'चोटी मा' तो जैसे सबको हंसी का खज़ाना मिल जाता.नन्हे भी अपने छोटे छोटे हाथों से ताली बजा,हंसने लगता.उसे लगता उसने कोई बडा काम कर लिया.ऐसे में भाभी जिस कौशल से हंसी के पीछे अपना दर्द छुपातीं.बड़ी से बड़ी ऑस्कर अवार्ड पाने वाली अभिनेत्रियाँ भी नहीं कर पाएंगी.<br />
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नन्हे पर उसके दादा,दादी,चाचा सब जान छिड़कते थे.उसके भविष्य की पूरी चिंता थी...कहाँ पढ़ाएंगे, कैसे पढ़ाएंगे...सारी योजनायें बनाते रहते. यूँ वे छोटी भाभी से भी कोई दुर्वयवहार नहीं करते थे. सिर्फ काम मशीनों वाला लेते थे,वरना कोई अपशब्द या कटाक्ष या व्यंग नहीं करते थे.पर दुर्वयवहार ना करना,सद्व्यवहार की गिनती में तो नहीं आता.मनुष्य की जरूरतें सिर्फ,खाने कपड़े और छत की ही नहीं होती.छोटी भाभी को भी एक सामान्य जीवन जीने का हक़ था.हंसने बोलने,बाज़ार,फिल्मे जाने का समारोह,उत्सवों में भाग लेने का हक़ था...जो अब वर्जित हो गया था,उनके लिए.<br />
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फिर मेरी शादी हो गयी.पर जब भी मायके जाना होता.कहने को तो मैं सुधा के घरवालों से मिलने जाती पर मन तड़पता रहता,भाभी से मिलने को.नन्हे अब बडा हो रहा था और जैसे धीरे धीरे उसपर असलियत खुल रही थी.क्यूंकि हंसने खलने वाला महा शरारती बच्चा,अब बिलकुल शांत हो गया था.वह अपनी माँ की स्थिति समझ रहा था.उन्हें अब 'छोटी माँ' कहकर नहीं बुलाता पर जैसे माँ कहने में भी उसे हिचक होती.वह कुछ कहता ही नहीं.इन सबसे बचने के लिए उसने किताबों की शरण ले ली थी.हर बार उसके कामयाबी के नए किस्से सुना करती और दिल गर्व से भर जाता.चलो भाभी का त्याग व्यर्थ नहीं गया.नन्हे के रूप में गहरे काले बादल की ओट से सुनहरी किरणें झाँक रही थीं अब भाभी के जीवन में पूरा प्रकाश फैलने में देर नहीं थी.<br />
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सुना नन्हे ने इंजीनियरिंग में टॉप किया है.और एक बड़ी मल्टीनेशनल कम्पनी में अच्छी नौकरी मिल गयी है.भाभी को फोन पर मुबारकबाद दी तो वे ख़ुशी से रो पड़ीं.नन्हे की शादी में बड़े प्यार से बुलाया था,भाभी ने.पर अपनी घर गृहस्थी में उलझी मैं,नहीं जा सकी.<br />
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और आज जब फोन पर सुना,नन्हे इसी शहर में है तो मन ख़ुशी से झूम उठा.<br />
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भाभी जैसे मेरे इंतज़ार में ही थीं.कॉलबेल पर हाथ रखा और दरवाजा खुल गया.भाभी को देख,मैं ठगी सी रह गयी.लगा पच्चीस साल पहले वाली भाभी खड़ी हैं.चेहरे पर वही पुरानी हंसी लौट आई थी.जो होठों से चलकर आँखों तक पहुँचती थी.नन्हे की पत्नी रुचिका बहुत ही प्यारी लड़की थी.रुचिका को भाभी ने बेटी सा प्यार दिया तो रुचिका ने भी उन्हें माँ से कम नहीं समझा.'माँ' सुनने को तरसते भाभी के कान जैसे रुचिका की माँ की पुकार सुन थक नहीं रहें थे.गुडिया सी वह लड़की पूरे समय हमारी खातिरदारी में लगी रही.बिना माँ से पूछे उसका एक काम नहीं होता. भाभी भी दुलार से भरी उसकी हर पुकार पे दौड़ी चली जातीं.दोनों को यूँ घुलमिल कर सहेलियों सी बातें करते देख जैसे दिल को ठंढक पड़ गयी.मैंने आँखें मूँद धन्यवाद दिया ईश्वर को,सच है भगवान् तुम्हारे यहाँ देर हैं अंधेर नहीं.<br />
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दोनों मुझे टैक्सी तक छोड़ने आयीं.तभी रुचिका ने कुछ कहा और भाभी खिलखिला कर हंस पड़ीं.मैं मंत्रमुग्ध सी निहारती ही रह गयी.रुचिका ने ही मेरे लिए आगे बढ़ कर टैक्सी रोकी और दोनों को हाथ हिलाता देख,लग रहा था,दो सहेलियां मुझे विदा कह रही हैं.टैक्सी चलते ही मैंने सीट पर सर टिका आँखें मूँद लीं.कुछ देर आँखें बंद कर इस ख़ूबसूरत अहसास को अन्दर तक महसूस करना चाहती थी.</div>
rashmi ravijahttp://www.blogger.com/profile/04858127136023935113noreply@blogger.com60tag:blogger.com,1999:blog-6953374982088960088.post-16764780564571250232010-02-02T03:26:00.000-08:002012-10-06T00:45:29.404-07:00"टू इन वन".....'मेकिंग ऑफ दिस नॉवेल' एंड 'थैंक्यू नोट्स "<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="http://4.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S2gNv0t--eI/AAAAAAAAAdo/txJm1WH0zek/s1600-h/42315-large%5B1%5D.jpg"><img alt="" border="0" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5433608065679030754" src="http://4.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S2gNv0t--eI/AAAAAAAAAdo/txJm1WH0zek/s320/42315-large%5B1%5D.jpg" style="cursor: hand; cursor: pointer; float: left; height: 257px; margin: 0 10px 10px 0; width: 320px;" /></a><br />
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<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">आजकल चलन है,फिल्म रिलीज़ होने के बाद ' Making of the Film ' दिखाए जाते हैं उसी तर्ज़ पर मैंने सोचा, Making of this novel ' भी क्यूँ ना लिख डालूं जब कई रोचक बातें जुडी हुई हैं इस नॉवेल से.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">मैंने नॉवेल पोस्ट करने के पहले ही सोचा था, ये सब शेयर कर लूँ.,फिर सोचा सबलोग फिर उसी नज़र से देखेंगे.अब जब लोगों ने पढ़ लिया है और पसंद भी किया है तब बता सकती हूँ कि यह नॉवेल मैंने तब लिखा था,जब मैं सिर्फ १८ बरस की थी.और यह मेरा दूसरा लघु उपन्यास है. पहला नॉवेल लिखा ,तो जैसा अक्सर होता है, सहेलियां उसकी नायिका से मेरी तुलना करने लगीं जबकि नायिका एम्.ए. की छात्रा थी और मैं इंटर में थी उस वक़्त.दरअसल रचनाकार थोड़ा बहुत अपने हर किरदार में होता है और ऐसे ही उसके संपर्क में आनेवाले लोगों की थोड़ी थोड़ी झलक हर चरित्र में मिल जाती है.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">शायद यही साबित करने की चाह होगी और मेरे सबकॉन्शस ने ये सब लिखवा लिया.क्यूंकि अभी तक सोच समझ कर नही लिखा,कभी..(आगे का नहीं जानती) उन दिनों मैं हॉस्टल से घर आई हुई थी,घर मेहमानों से भरा था...मैं कभी छत पर छुप कर लिखती,कभी सब दोपहर में सो रहें होते तो उतनी गर्मी में बरामदे में बैठकर लिखती.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">इंटर से लेकर एम्.ए.तक छात्र-छात्राओं के बीच ये दोनों नॉवेल इतना घूमा कि मुझे तीन बार फेयर करनी पड़ी.कोई भी अनजान लड़की मांग कर ले जाती और करीबी सहेलियां डांट लगातीं,ऐसे कैसे दे देती हो,कहीं नहीं लौटाया तो?....पर कैसे मना करूँ और ये मेरा विश्वास किसी ने नहीं तोडा.कई मजेदार घटनाएं भी हुईं.इंग्लिश ऑनर्स पढनेवाली,'मीता त्रिपाठी' बड़े शान से पढाई का बहाना कर मेरा नॉवेल पढ़ रही थी.माँ के पूछने पर रजिस्टर बढा दिया देखो,पढ़ रही हूँ.और उसकी माँ ने पूछा,' इंग्लिश ऑनर्स' हिंदी में कब से पढ़ाई जाने लगी??और फिर वे खुद वो नॉवेल लेकर चली गयीं पढने.आंटी ने एक प्यारा सा नोट लिख कर दिया था,मुझे जो मैंने बहुत दिन तक संभाल कर रखा था.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">एक बार कैंटीन में सुनीता और विभा के बीच बहस चल रही थी,पूछने पर पता चला,दोनों लड़ रही हैं कि "मैं अपनी बेटी का नाम "नेहा नवीना' रखूंगी"...नहीं मैं रखूंगी"...दोनों कजिन थीं.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">उन दिनों धारावाहिक कहानियों का चलन था.पर मैंने कहीं भी भेजने कि हिम्मत नहीं की.एक तो पैरेंट्स का डर,'क्या सोचेंगे...यही सब चलता रहता है इसके दिमाग में"..दूसरा पत्रों का डर,इतने रूखे सूखे विषयों पर लिखने पर तो इतने पत्र मिलते थे.ऐसी कहानी छपने पर पता नहीं कैसे कैसे पत्र आयेंगे.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">कॉलेज के बाद ये कहानियाँ.बंद ही पड़ी रहीं..कभी कभी पन्ने खुलते जब मेरी कोई कजिन मेरे पास आती.पर मेरी एक मलयाली सहेली,'राज़ी' जो अंग्रेजी पत्रिका "Society " में सह संपादक थी और जिसने बीस साल से हिंदी में कुछ नहीं पढ़ा था,उसने बड़ी मेहनत से पढ़ी.जब अजय भैया (अजय ब्रह्मात्मज) के पी.ए. ने टाइप करके भेजी तब नेट पर कई दोस्तों ने पढ़ी.और पढ़ी,मेरी ममता भाभी ने...जो बरसों पहले हमारे परिवार में शामिल हो गयी थीं ..और भाभी से ज्यादा मेरी सहेली हैं ...पर उन्हें अब तक पता ही नहीं था कि मैं कभी लिखती भी थी...उन्होंने बहुत सराहा और बढ़ावा दिया...ये ब्लॉग शुरू करने के लिए भी उन्होंने काफी प्रोत्साहित किया...और अब मेरी रचनाओं की एक सजग पाठक हैं.</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">और अब ब्लॉग के साथियों ने.कई लोगों ने कहा छपवा लो.पर जो संतोष ब्लॉग पर पोस्ट करके मिला.पुस्तक के रूप में नहीं मिलता.खुद ही बताओ लोगों को और फिर सकुचाते हुए पूछो कि कैसी लगी??</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">और हाँ,इस नॉवेल का नाम था,'दीपशिखा'...ब्लॉग पर डालते हुए बदल दिया..ये शीर्षक जरा Hep लगा(Hep की हिंदी नहीं मालूम,वैसे भी ब्लॉग पर अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग की बहुत लिबर्टी ले लेती हों,बुरा लगे किसी को तो क्षमा )...और मैंने नॉवेल में कहीं नहीं स्पष्ट किया है कि शरद और उर्मिला की शादी हो गयी.पर यहाँ सबने ऐसा ही समझा...फिर मैंने सोचा...Why Not?? निश्छल प्रेम,अटूट दोस्ती के साथ 'विधवा विवाह' का एंगल भी सही.</span></div>
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<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: medium;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S2gOA1BloKI/AAAAAAAAAdw/DHx0Vv-VY0c/s1600-h/thank-you%5B1%5D.jpg"><img alt="" border="0" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5433608357819031714" src="http://3.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S2gOA1BloKI/AAAAAAAAAdw/DHx0Vv-VY0c/s320/thank-you%5B1%5D.jpg" style="cursor: pointer; float: right; height: 213px; margin: 0px 0px 10px 10px; width: 320px;" /></a></span><span style="font-size: medium;">शुक्रिया दोस्तों :)</span></div>
<div style="font-size: small;">
<span style="font-size: medium;">मेरी कहानी इतने धैर्य से पढने के लिए सबका बहुत बहुत शुक्रिया.सबसे पहले तो चंडीदत्त शुक्ल जी का शुक्रिया,जिन्होंने इस पूरे नॉवेल को यूनिकोड में परिवर्तित कर के भेज दिया.</span></div>
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<span style="font-size: medium;">वरना मुझे एक एक शब्द टाइप करने पड़ते.(अब दूसरी कहानियाँ तो टाइप करनी ही पड़ेंगी :( )</span></div>
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<span style="font-size: medium;">मैं इसे 'उपन्यासिका' कहने वाली थी पर 'हरि शर्मा' जी ने सलाह दी कि जेंडर बहस शुरू हो जाएगी बेहतर है,लघु उपन्यास कहें.</span></div>
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<span style="font-size: medium;">विनोद पाण्डेय जी,राज भाटिया जी,समीर जी,मनु जी,प्रवीण जी,मिथिलेश,अबयज़ जी सबलोगों का बहुत बहुत शुक्रिया...आमतौर पर पुरुष इस तरह का उपन्यास नहीं पढ़ते.पर आप सबों ने बहुत धैर्य से पढ़ा,शुक्रिया.</span></div>
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<span style="font-size: medium;">शिखा,अदा,वाणी,वंदना अवस्थी,वंदना गुप्ता.सारिका जी,संगीता जी,रश्मि प्रभा जी,निर्मला जी,रंजू जी,हरकीरत जी.आप सबलोग भी लगातार उत्साह बढाती रहीं...शुक्रिया.</span></div>
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<span style="font-size: medium;">शिखा का बच्चों कि तरह जिद करना कि 'नेहा'और शरद' को प्लीज़ अलग मत करो...और धमकी भी दे डाली कि 'वरना मैं अंत बदल कर अपने ब्लॉग पे पोस्ट कर दूंगी,(हा हा नॉट अ बैड आइडिया,शिखा)</span></div>
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<span style="font-size: medium;">वंदना जी हर बार मासूमियत से पूछतीं ..आखिर ऐसा क्या हुआ होगा जो दोनों अलग हो गए....प्यार भी है,परिवार वाले भी तैयार हैं....उनके इस कथन से ही 'फ्लैश बैक' का महत्त्व पता चला,पाठक की उत्कंठा बनी रहती है.</span></div>
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<span style="font-size: medium;">सारिका जी और वाणी हमेशा तकाज़ा करतीं कि अगली किस्त कब आएगी?...सारिका जी तो कमेन्ट भी कर जातीं..'इंतज़ार है,अगली पोस्ट का"</span></div>
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<span style="font-size: medium;">दीपक मशाल का मन होता था,पढ़ते जाएँ...understandable है उनकी उम्र ही है ऐसे नॉवेल पसंद करने की :)</span></div>
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<span style="font-size: medium;">खुशदीप जी का चिंतित होना कि अक्सर आर्मी ऑफिसर कहानी या फिल्मों में शहीद ही हो जाता है...इसे दुखांत मत बनाना.वे पढने की रौ में यह भूल ही गए कि कहानी फ्लैशबैक में चल रही है.</span></div>
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<span style="font-size: medium;">हरकीरत जी और मनु जी ने टाइपिंग त्रुटियों कि ओर ध्यान दिलाया...शुरू में मैंने लापरवाही बरती थी पर बाद में थोड़ी मेहनत की.</span></div>
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<span style="font-size: medium;">अजय झा जी ने लिंक लगाने की सलाह दी..मैंने कभी लगाया, कभी नहीं अलग बात है.</span></div>
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<span style="font-size: medium;">सबसे ज्यादा मुझे डर था ,'मेजर गौतम राजरिशी जी' से. पता नहीं...क्या टेक्नीकल गलतियां नज़र आ जाएँ.आखिर एक आर्मी ऑफिसर की कहानी थी.ये लिखते हुए कि 'हर स्टेशन पे युद्ध से लौटते हुए जवानो की आरती उतारी जाती,उपहार दिए जाते."..मैं असमंजस में थी,पता नहीं ऐसा होता है या नहीं..फिर सोचा नहीं होता तो होना चाहिए...और गौतम जी ने तो यह बताकर कि "शायद आपको पता नहीं हो, किंतु एक ऐसी ही घटना हो चुकी है बिल्कुल कि जब एक आफिसर की शहादत के बाद उसी युनिट के एक जुनियर ने शहीद हुये आफिसर की विधवा का हाथ थामा...." कहानी और सत्य के फर्क को मिटा ही दिया बिलकुल.</span></div>
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<span style="font-size: medium;">ज्ञानदत्त पांडे जी,ताऊ रामपुरिया जी,रविरतलामी जी...इनलोगों के कमेंट्स अंतिम किस्त पर ही आए...मुझे पता भी नहीं था,ये लोग पढ़ रहें हैं,इसे...</span></div>
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<span style="font-size: medium;">आप सबों ने मिलकर इस नॉवेल को पोस्ट करने के लम्हों को बहुत खुशनुमा बना दिया...हाँ शुक्रिया उनलोगों का भी...जिन्होंने कमेन्ट नहीं किया,पर पढ़ा...अब उन्हें पसन्द आया या नहीं...मालूम नहीं..पर पढ़ा तो सही :)</span></div>
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rashmi ravijahttp://www.blogger.com/profile/04858127136023935113noreply@blogger.com30tag:blogger.com,1999:blog-6953374982088960088.post-41652694698066836062010-01-30T03:42:00.000-08:002010-01-30T06:03:49.408-08:00और वो चला गया,बिना मुड़े....(लघु उपन्यास )--समापन किस्त(नेहा स्कूल की प्रिंसिपल है.अपने केबिन में <a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2010/01/blog-post_08.html">अचानक शरद </a>को आते देख चौंक जाती है.और उसे शरद से अपनी<a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2010/01/blog-post_09.html"> पहली मुलाकात याद</a> आने लगती हैं.यह भी कि किशोरावस्था में वह कितनी शैतान थी.<a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2010/01/3.html">सबको कैसे तंग </a>करती रहती थी.शरद ने जब उसके साथ एक छोटी बच्ची की तरह बर्ताव किया तो <a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2010/01/4.html">बहुत नाराज़ हुई</a> थी वह.पर धीरे धीरे शरद से दोस्ती हो गयी और शरद ने घर का <a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2010/01/5.html">बोझिल वातावरण </a>बदलने में बहुत मदद की.धीरे धीरे दोनों के मन में <a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2010/01/6.html">प्यार के अंकुर </a>ने जन्म लिया और बात एंगेजमेंट तक पहुँच गयी.पर एंगेजमेंट के तुरंत पहले लड़ाई शुरू हो गयी और शरद को जाना पड़ा पर उसके पहले उसने नेहा से मिलकर उसे <a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2010/01/7.html">आश्वस्त</a> कर दिया था.)<br />गतांक से आगे <br /><br /><a href="http://3.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S2QpXLZooPI/AAAAAAAAAbg/XKrFTzWjh_I/s1600-h/6a00df3521f81088330111685da380970c-400wi%5B1%5D.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 293px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S2QpXLZooPI/AAAAAAAAAbg/XKrFTzWjh_I/s320/6a00df3521f81088330111685da380970c-400wi%5B1%5D.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5432512528689701106" /></a><br />जैसी की आशा थी (और प्रार्थना भी).... युद्ध बंद हो गया। दोनों पक्षों को जान-माल की भारी हानि उठानी पड़ी। पूरे युद्ध में भारत हावी रहा और इसके जवानों ने अपूर्व वीरता का प्रदर्शन किया था। सारे देश में उत्साह-उछाह की लहर दौड़ गई थी। युद्धस्थल से लौटते जवानों का हर स्टेशन पर भव्य स्वागत होता। उपहार और मिठाइयों के अंबार लग जाते, तिलक लगाया जाता, आरती उतारी जाती। <br /><br />इस बार उसने भी सक्रिय भाग लिया था, इन सब में। 'लायंस क्लब' में एक कमिटी बनी थी... जिसकी जेनरल सेक्रेट्री का पद संभाला था, उसने। पूरे मनोयोग से जुटी थी इसके कार्यक्रम को कार्यानिवत करने में। खाने-पीने की भी सुध नहीं रहती। <br /><br />शरद के जौहर के किस्से भी अखबारों में खूब छपे थे.यह सब पढ़ फूली नहीं समाती वह. शहर भर में चर्चा थी। सबकी प्रशंसात्मक नजरों का केन्द्र बन गई थी वह... अब बस इंतजार था उस दिन का, जब शरद के कदम पड़ेंगे, इस जमीन पर। स्वागत का ऐसा सरंजाम करेगी कि ‘शरद‘ भी आवाक् रह जाएगा। बंगले को भी नए ढंग से सजाया-सँवारा जा रहा था। <br /><br />0 0 0 <br /><br />इधर बहुत दिनों से शरद का कोई पत्र नहीं आया था। इंतजार भी नहीं था... अब तो रू-ब-रू मुलाकात होगी। इतना पता था कि वह अपने घायल साथियों की देख-भाल में लगा है। दोपहर में अलसायी सी लेटी थी कि कॉलबेल बज उठी... पोस्टमैन था... लिफाफा ले लिया। <br /><br />‘टू नेहा‘ - यह आश्चर्य कैसे? दुबारा पढ़ा, उसी के नाम यह खत था... अब अक्कल आई है, शरद महाराज को। खुशी से दमकता चेहरा लिए, अपने कमरे में आ लिफाफा खोला। ‘ओह! चार पन्नों का खत? और चारों पन्ने बिल्कुल भरे हुए‘ ‘आखिर बात कया है‘...मन ही मन मुस्कराई वह - ‘सारी कसर एक ही पत्र में पूरी कर दी है... थोड़ा सा सब्र नहीं हो सका... दिन ही कितने रह गए हैं, मुलाकात होने में‘ - चलो आराम से पढ़ेगी और पलंग पर लेट... पत्र खोला।<br /><br />‘नेही... नेही... नेही... नेही...‘<br /><br />पत्र रख आँखें मूँद ली। लगा ये शब्द कागज पर नहीं उभरे... वरन् उसके कानों में प्रतिध्वनित हो रहे हैं, लगातार। आगे था...<br /><br />‘नेही, जाने क्यों आज जी कर रहा है, यही नाम लिखता रहूँ, ताजिंदगी। आज लग रहा है, यह मात्र दो अक्षरों से बना शब्द नहीं, धड़कता हुआ एक अहसास है... मेरे पूरे वजूद को थामे रखनेवाली एक सुदृढ़ शक्ति है। क्यों होता है, नेहा ऐसा? आज जब बिछड़ने का समय आया, तब ये अहसास गहरा रहा है कि दुनिया का कोई भी बंधन... इस स्नेह बंधन से मजबूत नहीं... कितना मुश्किल, सच कितना मुश्किल है, इसकी जकड़न से छुटकारा पाना।‘ <br /><br />एकबारगी ही दिल की धड़कन गई गुना बढ़ गई। पत्र काँप गया... ‘बिछड़ने का समय‘ ‘छुटकारा पाना‘ ये सब क्या है। झटके से उठ बैठी और एक साँस में ही, धड़कते हृदय से पूरा पत्र पढ़ गई।<br /><br />पत्र क्या था... व्यक्ति के कर्त्तव्य और आकांक्षा के द्वन्द्व का दर्पण था। दिल की गहराई से निकले शब्दों में, शरद ने स्थिति बयान की थी। शरद का एक सीनियर था ,"जावेद" जो दरअसल भैया का दोस्त था.स्कूल में भैया और 'जावेद',शरद को अपने छोटे भाई से भी बढ़कर मानते थे. शरद की तरह ही, हँसमुख, खुशमिजाज, साथ ही एक सीमा तक मजाकिया। दोनों की जोड़ी ‘लारेल-हार्डी‘ के नाम से मशहूर थी हॉस्टल में। 'जावेद' को देखकर ही शायद शरद को भी 'आर्मी' ज्वाइन करने का शौक चढ़ा और जब जावेद की बटालियन में ही उसे भी शामिल किया गया तब तो जावेद ने जैसे उसे अपनी छत्र छाया में ही ले लिया.'जावेद' भैया के साथ कई बार घर भी आ चुका था भैय्या से भी अच्छी घुटती थी उसकी .<br /><br />उसके इतिहास से वाकिफ थी वह। उसने घरवालों के कड़े विरोध के बावजूद गाँव में साथ-साथ बगीचे से आम चुराने वाली, पोखर में तैरने वाली... कबड्डी खेलने वाली अपनी बचपन की संगिनी उर्मिला को अपनी जीवन-संगिनी बनाया था, जबकि उर्मिला ने सिर्फ स्कूली शिक्षा ही पा रखी थी... उर्मिला का घर-बार भी छूट गया था और अब दोस्त ही उनके सब-कुछ थे। दोस्तों का घर ही अब उनका घर था। <br /><br />और अब वही जावेद जिसने पूरे समाज से लोहा लेकर उसे सुरक्षा प्रदान की थी... अब समाज की बेरहम व्यंगबाणों से बींधने को उसे अकेला, निस्सहाय... निहत्था छोड़ गया था। साथ में दो वर्ष की नन्ही मुन्नी और छः महीने के दूधमुहें बच्चे की जिम्मेवारी भी सौंप गया था। <br /><br />जावेद ने बड़ी बहादुरी से अपने जख्मों की परवाह किए बिना दुश्मनों से लोहा लिया था। देश को तो उस चौकी पर विजय दिला दी... उसने जबकि अपनी जिंदगी हार बैठा। हॉस्पिटल में एक-एक साँस के लिए संघर्ष करते, जावेद की कोशिशों का साक्षी था, शरद। तन-मन की सुध भूल अपने जिगरी-दोस्त को काल के क्रूर हाथों से बचाने की पुरजोर कोशिश की थी, शरद ने। पर नियति ने अपने जौहर दिखा दिए। बड़ी निर्ममता से नियति के हाथों छला गया वह। शरद ने जैसे लहू की स्याही में कलम डुबो कर लिखा था... अक्षर कई जगह बिगड़ गए थे। <br /><br />‘... ईश्वर न करे कभी किसी का ऐसे दृश्य से साक्षात्कार हो। नेहा, यदि तुम सामने होती तो सच कहता हूँ जावेद की स्थिति देख, गश आ जाता तुम्हें। जावेद का शरीर गले तक सुन्न हो गया था। मस्तिष्क ने काम करना बंद कर दिया था, आवाज आनी भी बंद हो गई थी। सिर्फ उसकी बड़ी-बड़ी आँखें खुली थीं जो सारा वक्त छत घूरती रहतीं। डॉक्टर भी आश्चर्यचकित थे कि कैसे सर्वाइव कर रहा है, वह। लेकिन मैं जानता था, दो नन्हें-मुन्नों और एक बेसहारा नारी की चिंता ने ही उसकी साँसों का आना-जाना जारी रखा है। असहनीय पीड़ा झेलते हुए भी उसने अपनी जीजिविषा बनाए रखी थी। लाल-लाल आँखें, बेचैनी से सारे कमरे में घूमती और मुझपर टिक जातीं। सच, नेहा उन आँखों का अनकहा संदेश... बेचैनी देख पत्थर दिल भी मोम हो जाता। शायद ऐसे ही वे क्षण होते हैं, नेही, जब आदमी अपना सर्वस्व अर्पण करने को उद्धत हो जाता है। ... कब सोचा था? जिंदगी, ऐसे मोड़ पर भी ला खड़ा करेगी... जिस दोस्त के संग जीवन के सबसे हसीन लम्हे गुजारे थे... उसी के लिए मौत की दुआ मांग रहा था मैं। और वह भी उस दोस्त के लिए नेहा,जिसने अपनी ज़िन्दगी मेरे नाम लिख दी. हाँ, नेहा....उस चट्टान की ओट में हम दोनों ही थे..मैं जैसे ही आगे बढ़ने को हुआ,जावेद सर ने मुझे पीछे धकेल दिया.और खुद आगे बढ़ कर जायजा लेने लगे....और एक गोली उन्हें चीरती हुई निकल गयी.उस गोली पर मेरा नाम लिखा था, नेहा....मेरा...तुम्हारे शरद का (आगे स्याही बदली हुई थी ... लग रहा था इस मोड़ पर आकर शरद की लेखनी आगे बढ़ने से इंकार करने लगी... अक्षर भी अजीब टेढ़े-मेढ़े थे, जो थरथराते हाथ की गवाही दे रहे थे।)<a href="http://4.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S2QqpGXZPyI/AAAAAAAAAb4/xg7T1PBD6ZQ/s1600-h/600px-Vlcsnap-28610%5B1%5D.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 240px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S2QqpGXZPyI/AAAAAAAAAb4/xg7T1PBD6ZQ/s320/600px-Vlcsnap-28610%5B1%5D.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5432513936087400226" /></a><br /><br />‘... और जावेद को शांति से इस लोक से विदा करने की खातिर, मैंने उसके समक्ष प्रतिज्ञा की, बार-बार कसम खायी कि आज से उसके परिवार का बोझ मेरे कंधे पर आ गया। प्राण-पण से उनके सुख-दुख का ख्याल रखूंगा मैं... उसके बच्चों की सारी जिम्मेवारी अब मुझ पर है... पहली बार उन आँखों की लाली कुछ कम हुई... आश्चर्य!! उसके सुन्न पड़े शरीर में एक हरकत हुई। उसके हाथ उठे, शायद मेरा हाथ थामने को लेकिन बीच में ही गिर गए... बस आँखें मुझ पर टिकी रहीं... उनमें प्रगाढ़ स्नेह से आवेष्टित कृतज्ञता का भाव तैरते-तैरते जम गया था।... चेहरे पर अपूर्व शांति फैली थी... और नेहा... मेरा मित्र सदा-सदा के लिए सो गया।‘<br /><br />मुझे कोई अफसोस नहीं नेहा, झूठ नहीं कहूँगा... अफसोस था जरूर। उस सारी रात मेरी पलकें नहीं झपकीं। यह क्या कर डाला, मैंने। लेकिन जब वह दृश्य देखा, मेरी रूह काँप उठी। उर्मिला के मायके और जावेद के पिता... दोनों जगह यह मनहूस खबर देने को मैंने ही फोन किया।<br /><br />अगली सुबह ही, जावेद के पिता तो आ गए पर उर्मिला के घरवालों ने आजतक कोई खोज-खबर नहीं ली। शादी के वक्त जैसा उन्होंने कहा था... उर्मिला सचमुच उस दिन से ही मर गई थी उनके लिए। फिर भी... मैं कहूँगा... उस ताड़ना से जो जावेद के पिता ने उर्मिला को दिए, उनकी बेरूखी लाख दर्जे बेहतर थी। वे जावेद की कब्र पर तो फातिहा पढ़ते रहे लेकिन इन बिलखते बच्चों और उस उजड़ी-बिखरी नारी की ओर आँख उठा कर भी न देखा। <br /><br />जब जावेद के पिता जाने लगे तो आँसुओं में डूबी उर्मिला ने उनके पैरों पर माथा टेक दिया -‘अब्बा! अब आपके सिवा मेरा कौन सहारा है। इन जावेद के जिगर के टुकड़ों का ख्याल कीजिए... इतने नौकर-चाकर पलते हैं, आपके साए में, ये भी दो सूखी रोटी पर पल जाएंगे-‘ लेकिन हैदर साहब ने जोरों से पैर झटक दिया... उर्मिला का माथा दीवार से जा टकराया। जोरों से गरजे वह -‘काफिर! अपनी मनहूस सूरत न दिखा, मुझे। पहले तो जावेद को हमलोगों से दूर किया और अब इस जहान से भी दूर कर दिया... तेरा साया भी न पड़ने दूँगा, अपने खानदान पर... दूर हो जा मेरी नजरों से अपने इन पिल्लों को लेकर।‘<br /><br />लेकिन उर्मिला ने फिर उनके पैर पकड़ लिए। वे बार-बार पैर झटक देते और अनाप-शनाप बोलते रहते। लेकिन उर्मिला जैसे ‘उन्माद-ग्रस्त‘ हो बार-बार अपना सर उनके पैरों पर पटक देती। आखिर मैं जबरन हाथ-पैर झटकती उर्मिला को अंदर ले गया। हैदर साहब ने पलट कर भी नहीं देखा और चले गए.<br />बार-बार ये दृश्य कौंध जाता है, आँखों के समक्ष और मैं सर्वांग सिहर जाता हूँ।<br /><br />नेहा, अब तुम शायद मुझे ‘जज‘ कर सको। जानता हूँ नेही... ये तुम्हारे प्रति अन्याय है। लेकिन मैं तुम पर छोड़ता हँू ... ‘बोलो क्या यह अन्याय है?‘<br /><br />कौन है अब, उर्मिला भाभी का इस दुनिया में। कौन उन मासूमों की देख-भाल करेगा। गाँव के स्कूल से दसवीं पास उर्मिला भाभी.... क्या कर पाएंगी जावेद के सपनों को पूरा... जो उसने इन बच्चों के लिए देखे थे। नेही... ये जीवन तो अब इन बच्चों के लिए समर्पित है। यह जावेद सर की दी हुई ज़िन्दगी है,और अब इसपर सिर्फ उनके बच्चों का हक़ है.<br /><br />मुझे पता है,नेहा तुम बहुत समझदार हो.सब संभाल लोगी पर मुझे खुद पर भरोसा नहीं.और नेहा, मैं किसी मल्टी नेशनल में काम करने वाला एक्जक्यूटिव नहीं हूँ.कि देश विदेश घूमूं और मोटा सा लिफाफा हर महीने घर आ जाए.मैं कभी तपती रेगिस्तान में और कभी सियाचिन की बर्फीली हवाओं से जूझने वाला अदना सा सैनिक हूँ.बस अपनी कमाई से जावेद सर के इन दोनों बच्चों को अच्छी ज़िन्दगी दे सकूँ तो अपनी ज़िन्दगी सफल मानूंगा.<br /><br />‘क्षमा? .. ना ... क्षमा नहीं माँगूंगा... यह एक शहीद की आत्मा का अपमान होगा... नेहा... मुझे प्रेरणा दो... मेरी शक्ति बनो ताकि मैं एक शहीद के सम्मान की रक्षा कर सकूँ।‘<br /><br />भूल जाओ... यह भी नहीं कहूँगा... जानता हूँ भूलना इतना आसान नहीं...तुम्हारा अपराधी हूँ.वो सारी भावनाएं तुम में जगाईं , जिनसे अछूती थी तुम.पर क्या करूँ,नेहा...कोई रास्ता नज़र नहीं आता,एक दूसरे को भूलने के सिवा...इसलिए कोशिश करने में क्या हर्ज है? यह मुझे भी सुकून देगा, तुम्हें भी। <br /><br />अच्छा अब विदा... विदा नेही मेरी, अलविदा (विदा कहते शब्द भी कराह रहे हैं,नेही... नहीं?) <br /><br />तुम्हारा<br /><br />....(अब भी लिखने की जरूरत है :))<br /> <br /><br /><br />लगा, जैसे किसी ने आसमान में उछाल कर धरती पर पटक दिया हो... अभी... अभी कहाँ थी वह, और अब कहाँ है? क्यों दुनिया की सारी कड़वाहटें उसी के हिस्से लिखी है... पत्र हाथों से गिर पड़ा और सारी चीजें घूमती नजर आने लगीं... ‘ओऽऽह! शऽऽरऽऽद‘<br /><br />धीरे-धीरे मुंदती पलकों वाले शरीर को बेहोशी ने अपने आगोश में ले लिया। पत्र से फिसल कर एक सूखे घास का छल्ला सा गिर पड़ा था...जिस पर उसका ध्यान ही नहीं गया। <br /><br />0 0 0 <br /><br /><br />मिनटों में ही जैसे सारा पिछला जीवन जी गई -- व्यस्त होने का बहाना अब बिखरने लगा था। फाइल में गड़ी नजरें धुँधली पड़ने लगी थीं, अक्षरों की पहुँच तो पहले भी दिमाग तक नहीं थी। किसी तरह खुद को साध... शर्मा को आवाज दी... <br /><br />‘येस मैडम‘ - सुन भी बिना नजरें उठाए कहा -‘एडमिशन रजिस्टर ले आइए‘ - (शर्मा थोड़ा चौंक गया... क्योंकि ‘मिड-सेशन‘ में वह कभी भी एडमिशन की इजाजत नहीं देतीं।)<br /><br />शरद इतनी देर तक कुर्सी से पीठ टिकाए, एक प्रिंसिपल की व्यस्तता टॉलरेट कर रहा था। अभी भी नजरें तो फाइल पर ही जमीं थीं लेकिन कान शर्मा और शरद के बीच होते प्रश्नोत्तर पर ही लगे थे - फादर्स नेम की जगह सुना - ‘जावेद खान‘ और नजरें हठात् ही चौंक कर उठ गईं। जाने किस अदृश्य शक्ति से प्रेरित हो, शरद ने भी उसकी ओर देखा। और पल भर के आँखों के क्षणिक मिलन में वर्षों का अंतराल ढह गया।<a href="http://3.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S2QpyL7s1aI/AAAAAAAAAbo/XBzFkUOHp5k/s1600-h/Z1vepdd4%5B1%5D.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 120px; height: 160px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S2QpyL7s1aI/AAAAAAAAAbo/XBzFkUOHp5k/s320/Z1vepdd4%5B1%5D.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5432512992689051042" /></a><br /><br />आखिरकार... उसे फाइल गिराना ही पड़ा और बिखरे कागजों को समेटने के बहाने... अंदर का सारा कल्मष बह जाने दिया। व्यवस्थित होकर जब सर उठाया तो ये दूसरी ही नेहा थी। इतनी जल्दी संभाल लेगी, खुद को...यकीन नहीं था और अभी क्षण भर पहले की बेचैनी पर मन ही मन हँसी आ रही थी। ओह! आज इतने सारे काम निबटाने हैं उसे और वह यों निष्क्रिय बैठी अतीत के समंदर में गोते लगा रही है। बरसो पहले उसने एक पतिज्ञा की थी कि खुद भले ही 'दीपशिखा' की तरह जलती रहेगी पर जितना हो सके प्रकाश फैलाने की कोशिश करेगी ।<br /><br /> फुर्ती से फाइल पर कलम चलानी शुरू कर दी।इस रफ्तार से काम करने पर अपने स्कूल को इस शहर के ही नहीं, पूरे राज्य के और हो सके तो पूरे दशे के शीर्षस्र्थ विद्यालयों के बीच देखने का सपना कैसे पूरा हो सकेगा ?? आज ही किस कदर व्यस्तता है, स्टाफ की मीटिंग है, डी. एम. से भी अप्वाइंटमेंट है। और प्यून की पोस्ट के लिए कुछ इंटरव्यूज भी तो लेने हैं... और... और अभी राउंड पर भी तो जाना है... लेकिन ये शरद... ना शरद कौन... मि. मेहरोत्रा क्यों अभी तक बैठे हैं जबकि इनके वार्ड को ‘मिसेज जोशी‘ लेकर जा चुकी है... ये बच्चे से विदा भी ले चुके हैं... फिर? एक-दो बार उसने सवालिया निगाहों से उसे देखा भी पर... शरद तो... ओह! नो... मित्र मेहरोत्रा की आँखें तो खिड़की से भीतर आ गए बोगनवेलियां की कुछ लतरों पर जमी थीं। <br /><br />जोर की आवाज से उसने फाइल बंद की तो शरद ने चौंक कर उसकी तरफ देखा। उसने एक प्रोफेशनल मुस्कान चिपका ली - ‘आइए, मि. मेहरोत्रा मैं, स्कूल के राउंड पर जा रही हूं... आप भी चलना चाहें तो चलें... हमारा स्कूल भी देख लेंगे‘ ... और वह उठा खड़ी हुईं। <br /><br />शरद ने बिना कुछ कहे, धीरे से कुर्सी खिसकायी और उसके साथ हो लिया। पूरी बिल्डिंग की परिक्रमा कर आई... कहीं... बच्चों से कुछ पूछा... कहीं टीचर्स से कुछ बात की... शरद बस साथ बना रहा।<br /><br />आखिरकार अब उस बरामदे पर पहुँच गई, जिससे सीढ़ियाँ उतर कर बस दस कदम के फासले पर लोहे का बड़ा गेट था। फिर मुस्करा कर... ‘अच्छा तो‘ के अंदाज में शरद की तरफ देखा। पर शरद तो जैसे पाकेट में हाथ डाले किसी गहन विचार में मग्न था... ‘अब क्या ऽऽशरद... बरसों पहले जो फैसला लिया... अटल रहो न उस पर... इतने दिनों बाद पीछे मुड़ कर क्यों देखना चाहते हो ‘ तुम तेज रफ़्तार से अपनी ज़िन्दगी की राह पे कदम बढा रहें हो,(उसकी कामयाबी के किस्से अक्सर अखबारों में पढ़ती रहती थी)...और उसने भी खुद को समेट कर अपने लिए यह राह चुन ली है दोनों राहें कितनी जुदा हैं एक दूसरे से. <br /><br />असमंजस में दो पल खड़ी रहीं, फिर निश्चित कदमों से सीढ़ियों पर पैर रखा और बिना मुड़े गेट तक पहुँच गई... शरद ने भी अनुकरण किया... बाहर उसकी जीप खड़ी थी। शरद अब भी चुप खड़ा था। चाहता क्या है आखिर, शायद उसे भी नहीं पता... क्या चाहता है, वह? क्यों खड़ा है? दोनों पाकेट में हाथ डाले, उसने खोयी-खोयी निगाहें उसके चेहरे पर टिका दीं। नजरें जरूर उसके चेहरे पर थीं। पर वह जैसे उसे देख कर भी नहीं देख रहा था। क्षण भर को वह भी, जैसे वहाँ होकर भी नहीं थी। <br /><br />एकाएक... खन्न की आवाज आई। दोनों ने चौंक कर देखा, एक बच्चा कंकड़ों से पेड़ पर निशानेबाजी का अभ्यास कर रहा था। वहीं से एक नया संदर्भ मिल गया। अब इस मुलाकात पर ‘द एण्ड‘ लगाना ही होगा। शरद की ओर देखा और पाया की इस आवाज ने शरद को भी धरा पर ला खड़ा किया है। <a href="http://3.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S2QwqrtyWzI/AAAAAAAAAcI/fHDoQG-0qEE/s1600-h/IMG_0315%5B1%5D.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 154px; height: 200px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S2QwqrtyWzI/AAAAAAAAAcI/fHDoQG-0qEE/s200/IMG_0315%5B1%5D.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5432520560363068210" /></a><br /><br />पूरी चुस्त-दुरूस्त मुद्रा में बड़ी गर्मजोशी से उससे हाथ मिलाया... थैंक्यू कहा और एक ही छलाँग में जीप पर सवार हो गाड़ी स्टार्ट कर दी पूरे वेग से काली सड़क पर जीप दौड़ पड़ी....और वह चला गया ,बिना मुड़े। <br /><br />शिथिल कदमों से लौट पड़ी वह और बैग से काला चश्मा निकाल, लगा लिया आँखों पर... जबकि आकाश में फिर से काले-काले बादल घिर आए थे। <br /><br /><br />(इति - शुभम्)rashmi ravijahttp://www.blogger.com/profile/04858127136023935113noreply@blogger.com29tag:blogger.com,1999:blog-6953374982088960088.post-80966387926307958982010-01-25T05:45:00.000-08:002010-01-25T06:18:52.743-08:00और वो चला गया,बिना मुड़े....(लघु उपन्यास )--7<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://4.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S12ncAp8VaI/AAAAAAAAAao/jgB9pPpN73Q/s1600-h/1788837_75fe_625x625.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 250px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S12ncAp8VaI/AAAAAAAAAao/jgB9pPpN73Q/s320/1788837_75fe_625x625.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5430680825332782498" /></a><br />(नेहा स्कूल की प्रिंसिपल है.अपने केबिन में अचानक शरद को आते देख चौंक जाती है.और उसे शरद से अपनी पहली मुलाकात याद आने लगती हैं.यह भी कि किशोरावस्था में वह कितनी शैतान थी.सबको कैसे तंग करती रहती थी.शरद ने जब उसके साथ एक छोटी बच्ची की तरह बर्ताव किया तो बहुत नाराज़ हुई थी वह.पर धीरे धीरे शरद से दोस्ती हो गयी और शरद ने घर का बोझिल वातावरण बदलने में बहुत मदद की.धीरे धीरे दोनों के मन में प्यार के अंकुर ने जन्म लिया और बात एंगेजमेंट तक पहुँच गयी.)<br /><br />गतांक से आगे <br /><br />सुबह काफी देर से आँखें खुली। नींद जो रात भर नहीं आती....पहले तो पता ही नहीं था कि नींद क्यूँ रात भर नहीं आती और आज जब पता है तब भी दगा दे जाती है.<br />फ्रेश हो, लिविंग रूम में आकर न्यूजपेपर खोला और जो हेडलाईन पर नजर पड़ी तो चौंक गई। पेपर हाथ में लिए ही लॉन की ओर दौड़ी... डैडी को बताने। बचपन की आदत है उसकी कोई भी नई खबर पढ़ी और डैडी को बताने दौड़ पड़ी।<br /><br />‘डैडी... डैडी... न्यूजपेपर देखा आपने... लड़ाई शुरू हो गई है...‘ और फिर पेपर उनके सामने कर दिया...<br /><br />डैडी ने पेपर एक ओर हटा दिया और भारी स्वर में बोल -‘मैंने सुबह ही पढ़ लिया है‘ - बिना ध्यान दिए ही अपने उत्साह में उसने जोर-जोर से पढ़ना शुरू कर दिया तो रूखे स्वर में बोले डैडी -‘अपने कमरे में जाकर पढ़ो, यहाँ शोर मत करो।‘<br /><br />गुस्से से पैर पटकती चली आई, वह एकदम पहले वाले डैडी होते जा रहे हैं - अपने कमरे में पैर रखा ही था कि शेल्फ पर रखे, शरद की तस्वीर पर जो नजर गई तो एक पल में ही डैडी के रूखेपन का कारण समझ में आ गया। पेपर हाथों से चू पड़ा, आँखों के समक्ष अँधेरा छा गया - ओह! इस युद्ध का सम्बंध शरद से भी तो है - पसीने से सारा जिस्म नहा उठा। अगर लड़खड़ा कर कुर्सी न थाम लेती तो सीधी जमीन की शोभा बढ़ा रही होती। फिर भी खड़खड़ाहट की आवाज सुन बुआ दौड़ी हुई आई (तो, बुआ भी सुबह-सुबह खबर पढ़ते ही आ गई) जमीन पर पड़े अखबार और उसके पीले चेहरे ने सारा माजरा समझा दिया, उन्हें। बुआ ने उसे संभाल कर लिटा दिया और सर सहलाती देर तक समझाती रहीं -‘तू तो इतनी समझदार है, नेहा। ऐसे धीरज नहीं खोते... तुझे ऐसे देख, भैय्या-भाभी पर क्या बीतेगी...‘ - बुआ बोलती चली जा रही थीं। वह सुन तो रही थी लेकिन एक शब्द भी दिमाग तक नहीं जा रहा था। सोचने-समझने की शक्ति जाने कहांँ चली गई थी। शरीर शिथिल पड़ता जा रहा था और मस्तिष्क निस्पंद। बस ऐसा लग रहा था, जैसे बहुत थक गई है, वह। आँखें खोलने में भी कष्ट होता, जैसे मन-मन भर के बोझ रखे हो, दोनों पलकों पर।<br /><br />किसी तरह खुद को समेट कर लिविंग रूम में टीवी के सामने आ बैठी। भैया ने जिस तत्परता से उठ कर सोफे पर न्यूजपेपर समेटे और कंधे पर हाथ रख पास बिठा लिया कि आँखें भर आईं उसकी। कुछ ही घंटों में क्या-क्या न बदल गया। सारा घर पास-पास बैठा टीवी पर नजरें जमाए था... पर सब एक-दूसरे से निगाहें, कतरा रहे थे। दो-चार बातें होतीं... वो भी इतनी धीरे कि विश्वास करना कठिन हो जाता कि सचमुच वे जुमले हवा में तैरे भी हैं; लगा जैसे एक झंझावात गुजर गया था और छोड़ गया था अपने पीछे छूटे अवशेष... जिनमें जीवन का कोई चिन्ह शेष नहीं बचा था।<br /><br />‘एंगेज्मेंट‘ के लिए शरद एक हफ्ते की छुट्टी लेकर आया था। फोन किया कि ‘एंग्जेमेंट‘ तो नहीं होगा, पर फ्रंट पर जाने से पहले वह मिलते हुए इधर से ही जाएगा। डैडी ने कहा भी अब आ ही गए हो तो... ये सेरेमनी भी अब हो ही जाने दो, पर उसने सख्ती से मना कर दिया।<br /><br />वादे के अनुसार, शरद आया भी लेकिन इस बार कोई दौड़कर रिसीव करने नहीं गया। सब उसे खरामा-खरामा भीतर आते देखते रहे। भैय्या ने जरूर दो कदम आगे बढ़ बाहों में भर लिया था। शरद के धूपखिले मुस्कान वाले चेहरे पर भी कुछ तैर आया था। डैडी के पैरों की ओर झुका तो उन्होंने आधे में ही रोक उसे सीने से लगा लिया था। आँखों के गीलेपन को छुपा गए थे; वह सबों से दो कदम पीछे खड़ी थी... शरद की खोजती निगाहें उस पर टिकी और आंखों मे ही मुस्करा दिया पर आंखों की उदासी उससे छुप नहीं सकी थी।<br /><br />फिर भी उसने अपनी पुरानी जिंदादीली वैसे ही बरकरार रखी थी -‘अंकल देखिए तो कितना भाग्यशाली हूँ मैं? कहाँ तो लोग ट्रेनिंग ले-ले कर बरसों पड़े रहते हैं और अपने जौहर दिखाने का कोई अवसर नहीं मिलता और एक मैं हूँ, इधर ट्रेनिंग पूरी की और शौर्य-प्रदर्शन का इतना नायाब मौका मिल गया। बोलिए हूँ न, भाग्यवान।‘<br /><br />और माली काका पर नजर पड़ते ही बोला - ‘हल्लो! माली काका -‘ फिर दूसरे ही क्षण - ‘अरे, अरे हिलो नहीं, मैं तुम्हें हिलने को थोड़े ही कह रहा हूं...‘ साथ ही पूरे दिल की गहराई से लगाया गया ठहाका।<br /><br />ऐसे ही, नाश्ते के वक्त -‘हेलोऽऽ काकी, कैसी हो?‘ - काकी अबूझ सी मुंह देखती रही तो हँस पड़ा -‘अरे, बाबा ये थोड़े ही पूछ रहा हूँ कि ‘हलवा‘ कैसा है? पूछ रहा हूँ... तुम कैसी हो।‘<br /><br />पापा ने दो-चार बेहद करीबी दोस्तों को चाय पर बुला लिया था... (शर्मा अंकल तो, खैर सुबह से यहाँ ही थे) सब शरद को शुभकामनाएँ देना चाहते थे।<br /><br />सबके बीच भी शरद की जिंदादीली वैसे ही, बरकरार थी - खन्ना आंटी को सफेद बैकग्राउंड वाली साड़ी में देखकर बोला -‘क्या आंटी, आपने ऐसी साड़ी पहन रखी है अरे! ये तो सुलह का प्रतीक है। इस बार हम लोग कोई समझौता-वमझौता नहीं करेंगे। इस्लामाबाद तक खदेड़ कर न रख दिया तो कहना‘ -‘वही बेमतलब सी बातें जो कोई अर्थ नहीं रखतीं पर जड़ता तोड़ने में बड़ी सहायक होती है।<br /><br />जब रघु चाय लेकर आया तो फिर शुरू हो गया -‘यार रघु! क्या चाय बनाते हो तुम, चाय तो तुम्हारी नेहा दीदी, बनाती हैं। आह! एक बार पी ले आदमी तो स्वाद जबान से नहीं छूटे। जीवन भर दूसरा कप पीने की जरूरत नहीं। क्यों नेहा? आइडिया... उन पाकिस्तानियों पर गोलियाँ बरबाद करने से क्या फायदा... बस एक-एक कप चाय पिला दी जाए उन्हें... उनके सात पुश्त भी न रूख करने की हिम्मत करेंगे, भारत का... अऽऽ नेहा, जरा नोट करवा दो तो विधि...‘<br /><br />इस बात को गुजरे दो साल से ऊपर हो चले थे। पर शरद एक भी मौका नहीं छोड़ता - इसका जिक्र करने का। अभी भी बड़ी तफसील से सबको बता रहा था - ‘कैसे वह पहले दिन पेश आई थीं... और कोई रिएक्शन न देख, बड़ी निराश हो चली गई थी।‘<br /><br />वह फिर से उठकर जाने लगी तो बोला -‘अरे, अपनी तारीफ सुन कोई यूँ भागता है... बैठो, बैठो... और नेहा उस दिन शास्त्रीय संगीत का कौन सा रेकॉर्ड लगाया था, तुमने?‘<br /><br />‘मुझे याद नहीं‘ - उसने नजरें झुकाए धीरे से कहा तो एकदम झुंझला गया, वह - ‘ओह! गाॅड! दुश्मन की गोली खत्म करे, इससे पहले तुम लोगों की ये मनहूस चुप्पी, मार देगी, मुझे... वहाँ के रोने-धोने से घबराकर भागा तो यहाँ ये आलम है। ... सबके चेहरे ऐसे गमगीन है, जैसे मेरी मय्यत का सरंजाम हो रहा है... बाबा अभी बहुत दिनों तक रहना है, मुझे इस संसार में, क्यों तुमलोग अंतिम विदा कहने पर तुले हो?‘<br /><br />भैय्या ने तेजी से आकर उसे कंधों से थाम लिया, और सीधा आँखों में देखता हुआ जोर से बोला - ‘डोऽऽन्ट... एवर से दैट, ओक्के?‘<br /><br />मम्मी भी उठकर उसके पास चली गईं और हल्के से उसके बाल बिखेरते हुए बड़े अधिकारपूर्ण स्वर में लाड़ भरा उलाहना दिया -<br /><br />‘ऐसा नहीं कहते, बेटे‘<br /><br />‘तो क्या करूँ आंटी... आप देख रही हैं न घंटे भर से अकेले ही हँस-बोल रहा हूँ और किसी के चेहरे पर हँसी की एक रेखा तक नहीं।‘<br /><br />‘अब कोई शिकायत नहीं होगी बेटे...‘ और मम्मी खुलकर मुस्करा दी।<br /><br />‘वाउ! वंडरफुल... ऐसा ही माहौल रहा तब तो मेरी भी हिम्मत बनी रहेगी... वरना कभी-कभी तो लगता है - क्या सचमुच लौट कर नहीं देखूंगा ये सब -‘<br /><br />‘अरे , तूने फिर बोला ये... और भैया के हाथ में कोई पेपर था, उसे ही गोल कर... दो-चार जमा दिया शरद को।<br /><br />‘अरे... इतनी जोर से लगी... अभी बताता हूं तुझे...‘ और वह भैय्या के पीछे दौड़ा... दोनों की इस धींगामुश्ती ने घर का माहौल हल्का करने में काफी मदद की।<br /><br />लेकिन शरद खुद भीतर से कितना अशांत है... उसके ठहाके कितने बेजान हैं, हँसी कितनी खोखली है... ये तो बाद में पता चला।<br /><br />जाने क्यों... सबके बीच उसका मन नहीं लग रहा था... छत पर चली आई और यूं ही शून्य में जाने क्या देख रही थी कि किसी की उपस्थिति का अहसास हुआ। पलट कर देखा, तो शरद था... जाने कब से खड़ा था... एक हूक सी उठी लेकिन जब्त कर गई। स्नेहसिक्त मुस्कान से नहलाते हुए बोला... ‘चलो, जरा टहल आएं... थोड़ी दूर‘। उसने असमंजस में दरवाजे की तरफ देख तो आश्वस्त कर दिया -‘मैंने मम्मी से पूछ लिया है।‘<br /><br />छोटे वाले गेट से निकल कर वे पगडंडी पर आ गए - थोड़ी दूर पर ही एक पतली सी पहाड़ी नदी बहती थी... कोई भी बात शुरू नहीं कर पा रहा था... दोनों ही खोए-खोए से अपने विचारों में गुम कदम बढ़ा रहे थे... थोड़ी देर बाद शरद ने धीरे से उसका हाथ, अपने हाथों में ले लिया... बस अंतर उमड़ पड़ा उसका... आँखों से वर्षा की झड़ी की तरह बूंदे चेहरा भिगोने लगीं। उसने निगाह नीची कर ली, सिसकी अंदर ही घोंट ली। शरद खुद में ही खोया सा चल रहा था। नदी के कगार पर पहुंच इधर-उधर देखते हुए बोला -‘कहाँ बैठा, जाए?‘<br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://3.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S12npLS_kFI/AAAAAAAAAaw/P-e086SrluM/s1600-h/lita-gatlin-hebron-falls-23-tall-16-wide-painting-700.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 201px; height: 320px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S12npLS_kFI/AAAAAAAAAaw/P-e086SrluM/s320/lita-gatlin-hebron-falls-23-tall-16-wide-painting-700.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5430681051527614546" /></a><br />और इस क्रम में जो उसपर नजर पड़ी तो चैंक पड़ा - ‘अरे, नेहा! ये क्या;बेवकूफ लड़की...‘ लेकिन वह अब और नहीं जब्त का सकी - अपना हाथ खींच, पास ही एक पत्थर पर बैठ, घुटनों में सर छुपा, बेसंभाल हो फफक पड़ी। शरद उसके पैरों के पास बैठ गया। दोनों हाथों से उसका सर उठाने की कोशिश करता हुआ बोला - ‘नेही, प्लीज, ये क्या लगा रखा है?‘<br /><br />पर जाने कहाँ से आँसू उमड़े चले आ रहे थे। भीतर मानो कोई ग्लैशियर पिघल गया था, जो आंखों के रास्ते अपनी राह बना रहा था।<br /><br />उसकी ये हालत देख, शरद भी घबड़ा उठा। बड़ी आजीजी से गीली आवाज में बोला- ‘नेही... नेही.. प्लीज ऐसे मत रो पगली... बोल कैसे जा पाऊँगा मैं? ...तुझे ऐसी हालत में छोड़कर कदम उठेंगे, मेरे?... बोलो... नेहा प्लीज... मेरे सर की कसम जो और ... जरा भी रोई...‘<br /><br />बड़ी मुश्किल से काबू कर पाई, खुद पर। उसका चेहरा हथेलियों में भर शिकायती स्वर में बोला -<br /><br />‘यों कमजोर न बनाओ मुझे‘; आवाज की कम्पन ने ही उसे आँखें उठाकर देखने पर मजबूर कर दिया। बिना आँसुओं के ही वे आँखें, इस कदर लाल थीं कि... उनका दर्द देख अंदर से हिल गई। और दिल चीर कर रख देने वाली आवाज में फूट पड़ी - ‘शऽरऽद‘ और उन्हीं हथेलियों में सर छुपा सिसक पड़ी।<br /><br />‘नेहा... तू इस कदर परेशान क्यों है? क्या लगता है, तुझे... और शरद ने हथेली खींच, उसके सामने फैला दी - ‘ये... ये... देख... कितनी लम्बी आयु रेखा है मेरी... कुछ नहीं होगा, मुझे... नेहा, सच... तेरी आस्था... तेरा विश्वास और तेरा प्यार मेरे साथ है... क्यों है न?‘ और फिर मुस्करा कर जोड़ा - ‘कहीं, ऐसा तो नहीं कि ये बस एकतरफा प्यार ही है, तुमने कभी कुछ कहा ही नहीं।‘<br /><br />बच्चों की तरह हथेलियों से आँखें पोछते... बिना सोचे-समझे वह बोल पड़ी -‘तुमने ऐंगेज्मेंट-’सेरेमनी‘ क्यों नहीं होने दी?‘<br /><br />‘ओफ्फोह!! तो इसीलिए सारा पागलपन है, तुम्हारा‘ - हँस पड़ा था शरद (इस स्थिति में भी संभालना जानता है, खुद को... आखिर मिलीट्री मैन है) -‘सच्ची... बेवकूफ की बेवकूफ रही तू... इसमें क्या मुश्किल है, लो अभी हुआ जाता है... ये तो मन के रिश्ते है न... लोगों की भीड़ की क्या जरूरत? - और शरद ने अपनी अंगुली में पहनी अंगूठी डाल दी थी उसकी ऊँगली में, फिर बोला -‘अब तुम्हारी अंगूठी तो मुझे आएगी नहीं‘ - पास से ही एक लम्बी सी घास तोड़, उसे गोल-गोल घुमा एक छल्ले सा बना दे दिया, उसे - ‘लो अब जरा अपनी अँगुलियों को भी कष्ट दो।‘<br /><br />उसने काँपते हाथों से पहना दी तो बड़े आग्रह से बोला -<br /><br />‘अब एक बार तो मुस्करा दो‘ - और उसकी मुस्कराहट देख दर्द से आँखें फेर लीं, उसने -‘तुम्हारे मुस्कराने से तो तुम्हारा रोना लाख दर्जे बेहतर था।‘<br /><br />जाने कितनी देर तक चुपचाप बैठे रहे दोनों। गहन चिंता में डूबा चेहरा लग रहा था, उसका। जब थोड़ा अंधियारा घिरने लगा तो, वह उठ खड़ी हुई। लेकिन शरद ने फिर खींचकर बिठा दिया, उसे और थरथराती आवाज में बोला -‘नेहा, पहले एक वादा करो, अब और नहीं रोओगी, तुम।‘ तुम इस कदर भावुक हो, ऐसा तो मैं कभी सोच भी नहीं सकता था। तुम्हें तो एक चंचल, शरारती लड़की ही समझता था और वही रूप पसंद है, मुझे। जानती हो, कितना अशांत कर दिया तुम्हारे इस रूप ने? वहाँ मन लगेगा मेरा... बार-बार तुम्हारे इसी रूप का खयाल आता रहेगा। और बोलो... चाहती हो कि कुछ का कुछ कर बैठूं - नहीं नेहा, यहाँ सिर्फ मेरा-तुम्हारा नहीं... पूरे देश का सवाल है। बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, मुझपर। जिस निभाने के लिए शांत-निरूद्वेग दिमाग चाहिए। और इसके लिए मुझे तुम्हारा सहयोग चाहिए - बोलो करती हो वादा‘ - उसके हँसते-खिलखिलाते चेहरे के बीच, उसका यह रूप, शरद का मन स्वीकार नहीं कर पा रहा था।<br /><br />आँसू पीती बोली थी वह - ‘वादा करती हूँ, शरद।‘<br /><br />‘ना, ऐसे नहीं... खाओ मेरी कसम‘ और अपना हाथ आगे बढ़ा दिया। हाथ थाम वह फिर सिसक उठी थी... पर तुरंत संभाल लिया खुद को।<br /><br />‘तुम्हारी, कसम, शरद... शिकायत का कोई मौका नहीं मिलेगा, तुम्हें।‘<br /><br />‘कब्भी नहीं‘’- शरद ने शरारत से मुस्करा कर पूछा था (ये शरद भी सचमुच एक पहेली है)<br /><br />‘कभी-नहीं‘’ - आँसू पोंछ दृढ़ स्वर में बोली थी वह। ‘अरे, नहीं यार! मेरी मौत की खबर सुन तो दो-चार अश्रु-बूँद टपका ही देना, वरना आत्मा भटकती रहेगी...‘ -- हँस कर बोला तो उसने‘-<br /><br />‘तुम बहुत बुरे हो, बहुत बुरे... सच्ची बहुत बुरे हो...‘ कहती मुट्ठियों की बौछार सी कर दी उस पर।<br /><br />उसके हमले से खुद को बचाता, शरद बोला -‘अरे! तुम दोनों भाई-बहन किस जनम की दुश्मनी निकाल रहे हो‘ - और एकदम से उसे खींच कर बाहों में भर लिया।<br /><br />एक पल को लगा, जैसे सृष्टि थम सी गई है। अभी उसके सीने की धधकती आंच ठीक से महसूस भी न कर पाई थी कि झटके से अलग करता हुआ बोला -‘चलो, चलो सब ढूँढ़ रहे होंगे, हमें... बहुत देर हो गई है।‘(स्टुपिड! डर है, कहीं कमजोर न पड़ जाए, मन ही मन हँस पड़ी वह) <br /><br />वापसी का रास्ता बहुत ही आसान लगा। शरद ने एक बांह से घेर, उसे कंधे से लगा लिया था... और मन का सारा बोझ, सारा गम जाने कहाँ विलीन हो गया।<br /><br />जाने कैसी शक्ति सी आ गई थी... एक विश्वास सा जम गया था... अब कुछ अघटित नहीं होगा... बिल्कुल शांत हो आया था उसका मन। अब ये बदलाव शरद के दो पल के साथ ने दिया था या... अँगुली में पड़ी इस अँगूठी ने... कहना मुश्किल था। <br /><br />0 0 0 <br /><br />और शरद के प्रयासों ने घर का माहौल बदलने में पूरा सहयोग दिया। उदासी के बादल थोड़े ही सही, मगर छँटे जरूर थे। एक-दूसरे को संभालने के लिए जबरदस्ती ही हँसने-बोलने की कोशिश बोझिलता कम करने में बड़ी सहायक सिद्ध हुई थी। शरद तो उसी रात सीमा पर चला गया था पर वहाँ से भी उसने घर का वातावरण हल्का बनाए रखने की कोशिश जारी रखी थी। फोन तो कभी-कभार आते और इतनी डिस्टर्बेंस की कुशल-क्षेम भी ठीक से नहीं पूछ पाते एक-दूसरे का। पर उसके छोटे-छोटे खत बड़े मजेदार होते... बड़े ही मनोरंजकपूर्ण ढंग से वह युद्ध का वर्णन करता। घर में जीवंतता की लहर दौड़ जाती। उसके नाम अलग से कभी कोई खत नहीं होता... हाँ दो-चार लाइनें जरूर रहती उसके लिए। कभी तो बस इतना ही होता... ‘मैंने तुम्हें कुछ लिखने ही वाला था... पर ध्यान आया... तुमने तो रिप्लाय दिया ही नहीं... फिर क्यों लिखूँ मैं?‘<br /> (क्रमशः)rashmi ravijahttp://www.blogger.com/profile/04858127136023935113noreply@blogger.com23tag:blogger.com,1999:blog-6953374982088960088.post-75247416380000103172010-01-21T05:49:00.000-08:002010-01-23T05:19:02.359-08:00और वो चला गया,बिना मुड़े....(लघु उपन्यास )--6<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://4.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S1hemYaQR6I/AAAAAAAAAYQ/UEL5wj3Z5VI/s1600-h/Tropical+Moon+Light.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 291px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S1hemYaQR6I/AAAAAAAAAYQ/UEL5wj3Z5VI/s320/Tropical+Moon+Light.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5429193364275742626" /></a><br />अपने कमरे में पढ़ाई में मन लगाने की कोशिश कर रही थी.इतना डर लग रहा था,बिलकुल भी नहीं पढ़ पा रही थी और <br />ऐसे में में जब बुआ बड़े शौक से गहनों की डिजाइन पसंद कराने उसके कमरे में आईं तो सुलग उठी वह।<br /><br />‘देख तो नेहा, कौन-कौन सी पसंद है तुझे?‘<br /><br />‘मेरी पसंद का क्या करना है?‘- किसी तरह गुस्सा दबाते सपाट स्वर में बोली।<br /><br />‘तो और किसकी पसंद का करना है। बंद कर लिखना, आ कर देख तो.. कितनी सुंदर-सुंदर है...‘ पलंग पर करीने से सजा रही थीं वह।<br /><br />‘मैं जेवर पहनती भी हूँ ' - कलम चलाना जारी रखा।<br /><br />‘तो, अब जो पहनना होगा... जल्दी कर जैमिनी ज्वेलर्स का आदमी बैठा है बाहर।‘<br /><br />‘क्यों अब क्या खास बात हो गई भई जो पहनना होगा... मुझे नहीं पहनना जेवर-फेवर।‘<br /><br />‘ओह! नेहा, मेरा दिमाग मत खराब कर... चल आ कर देख ले चुपचाप‘ - खीझ गई बुआ।<br /><br />और एकदम तैश में आ गई वह -‘दिमाग तो मेरा खराब कर रखा है, तुमलोगों ने... एक मिनट चैन से रहने भी दोगे या नहीं। मैंने हजार बार कह दिया है... मुझे शादी नहीं करनी है, नहीं करनी है... फिर भी जेवर पसंद कर लो तो साड़ियाँ पसंद कर लो... क्यों आज डिजाईन पसंद कराने क्यों आई... एक ही बार ‘इन्वीटेशन कार्ड‘ लेकर आती कि ‘नेहा, कल तेरी शादी है‘ - उस समय अड़ जाती न तो बहुत अच्छी इज्जत बनती, डैडी की। एकदम गूँगी गाय ही समझ लिया है, लोगों ने। जिसके खूँटे बाँध देंगे, चुपचाप चली जाऊँगी... तो नेहा, ऐसी लड़की नहीं है... साड़ियों और जेवरों में तो पसंद पूछी जा रही है, पर जहाँ जिंदगी का असली सवाल है... सब मौन हैं... जिस लूले-लँगड़े के जी में आएगा... गले मढ़ देंगे।<br /><br />बुआ आवाक् देख रही थीं... उसे, अब हँसी फूटी उनकी... ‘बाबा, वह लूला-लंगड़ा नहीं है... क्यों परेशान हो रही है तू।‘<br /><br />‘ना सही, साक्षात् कामदेव ही सही... लेकिन कह दिया न... ये राह मेरे लिए नही ंतो नहीं, और अब मेरे कमरे में ये सब आया न तो सब उठा कर फेंक-फांक दूँगी, नहीं देखूँगी हीरा है या सोना।‘ बात खत्म करने के अंदाज मे कही उसने और किताबें समेटने लगी।<br /><br />बुआ ने भी हँस कर माहौल हल्का करने की कोशिश की... ‘अच्छा, अच्छा बंद कर अपना ये भाषण, किसी डिबेट के लिए संभाल कर रख, खूब तालियाँ मिलेंगी... अभी चुप कर प्राईज की जगह डैडी की डाँट ही मिलेगी। बाहर कुछ लोग बैठे हैं... क्या सोचेंगे।‘<br /><br />‘सोचेंगे... पत्थर - जी में आया कहे, किंतु बिल्कुल थक गई थी। निढाल हो, सर टिका दिया, मेज पर। <br /> <br /><br />0 0 0 <br /><br />चेहरे पर पानी के छींटे मार लौट ही रही थी कि बुआ और मम्मी की बातचीत का स्वर कानों में पड़ा... बरामदे में ही रूक गई। <br /><br />‘कमाल है, भाभी, जवाब नहीं आप लोगों का भी, कहाँ तो भैय्या कहते थे कि नेहा की पसंद के लिए कोई जाति, धर्म, देश... कोई बंधन नहीं मानेंगे और बिचारी को आज यह भी पता नहीं कि अगर शादी हो रही है तो किससे हो रही है। आज कल साधारण घरों में भी खानापूर्ति ही सही, पूछ तो लेते हैं, बता तो देते हैं।‘<br /><br />‘ये क्या कह रही हो सुधा?? नेहा, अच्छी तरह उसे जानती है, भई। बल्कि हमलोग तो यही समझ रहे हैं कि, आपस में तय है, इन लोगों का.... उधर से ही प्रपोजल आया है।‘‘<br /><br />‘मुझे तो ऐसा नहीं लगता... बार-बार वही पुरानी रट- ‘मुझे शादी नहीं करनी-शादी नहीं करनी‘<br /><br />‘हे भगवान! तब तो ये लड़की परेशानी खड़ी कर देगी। बात इतनी आगे बढ़ चुकी है।‘<br /><br />‘हुंह!!‘ - मुँह बनाया उसने। बात तुमलोग बढ़ाओ और परेशानी खड़ी करूँ मैं। लेकिन ये काम है किसका, जरूर वो चश्मुद्यीन होगा। इतना सीनियर होने पर भी आगे-पीछे घूमता रहता है -‘नेहा तुम्हें नोट्स, चाहिए होंगे या बुक्स, तो बताना मुझे।‘ लाइब्रेरी बंद हो गई है जैसे... दुनिया का आखिरी आदमी होता न तब भी उससे लेने नहीं जाती, नोट्स...<br /><br />रंग-ढंग तो बहुत दिनों से देख रही थी - लिफ्ट नहीं दी तो यहाँ तक बढ़ आया। आई. ए. एस. में क्या सेलेक्ट हो गया। यहाँ तक अधिकार समझ बैठा तो बैठे रहे जिंदगी भर। मिला तो था उस दिन शर्मिला की पार्टी में -‘नेहा, मुझे कांग्रेचुलेट नहीं किया न... इस लायक मैं कहाँ? पर मिठाई तो आ कर खा लीजिए किसी दिन‘ - जरूर उसी के यहाँ से प्रपोजल आया होगा और मम्मी-डैडी तो सातवें आसमान पर पहुँच गए होंगे। घर बैठे, आई. ए. एस. लड़का मिल गया। अभी-अभी जमीन पर आ जाएंगे वे।<br /><br />अजीब मन की हालत हो गई है। पढ़ भी कहाँ पाती है, इतना डिस्टर्ब रहती है। फाइनल सर पे आ गया है... फेल-वेल हो जाएगी तो खुशी होगी, इन लोगों को।<br /><br />नए सिरे से किताब में मन लगाने की कोशिश कर ही रही थी कि बुआ आती दीखीं। हाथ में उनके एक फोटो था। देखते ही बिफर पड़ी।<br /><br />‘बुआ! मैंने कह दिया है न‘<br /><br />‘तूने जो कहा है, मैंने सुन लिया और अब मेरी भी सुन‘ - शांत स्वर में बोलीं वह।<br /><br />‘मुझे कुछ नहीं सुनना...‘ और किताब नजरों के सामने कर जोर-जोर से पढ़ने लगी।<br /><br />‘ठीक है, फोटो रखती जा रही हूँ.... कल सुबह मुझे अपने विचार बता देना... कुछ हल निकालना होगा या नहीं। तुम अपनी बात पर अड़ी रहो... भैया-भाभी अपनी बात पर... और बाकी लोग मुफ्त में तमाशा देखें।‘<br /><br />‘मेरे विचार सबको अच्छी तरह मालूम है... और ये भी अपने साथ लेती जाओ-‘ कह हाथ मार कर फोटो गिरा दिया, पर इस क्रम में तस्वीर पर जो नजर गई तो फ्रीज हो गई वह। आश्चर्यचकति जाने कब तक वैसे ही खड़ी रह गई। हे ईश्वर! आँखें सही-सलामत तो है न, क्या देख रही है यह - जमीन पर शरद पड़ा मुस्करा रहा था। धीरे से, काँपते हाथों से तस्वीर उठा ली और एक सिहरन रोम-रोम में दौड़ती चली गई...‘शऽरऽद‘ - उसे तो इस रूप में कभी देखने की कल्पना ही नहीं की। देर तक उसके चेहरे पर देखते रहने की ताब नहीं थी। धीरे से टेबल पर तस्वीर सरका दी और खिड़की पर चली आई। अजीब गुमसुम सा लग रहा था, सबकुछ। किसी बिंदु पर विचार टिक ही नहीं रहे; क्यों अचानक इतना हल्का हो आया मन, सारा तनाव जाने कहां विलीन हो गया। मुस्काराहट खेल आई, चेहरे पर... ‘यू इडियट‘ उसे भी अंधेरे में रखा... किस कदर परेशान किया।<br /><br />खिड़की के बाहर चटकीली चांदनी फैली थी। और अनायास उसे टेरेस पर वाली चांदनी रात याद हो आई... क्या शरद भी अभी अपने छत पर खड़ा निरख रहा होगा, चांदनी में नहायी इस सृष्टि को? क्या याद आई होगी, उसे भी... उस दिन की।<br /><br />लिविंग रूम से आते बातचीत के स्वर में बार-बार उसका नाम उछल रहा था। ध्यान दिया.. मम्मी थीं।<br /><br />‘सुन लिया न, फिर न कहिएगा, पहले क्यों नहीं बताया।‘<br /><br />डैडी हूँ... हाँ करते न्यूजपेपर में डूबे थे। <br /><br />पूरा एडिटोरियल खत्म कर, पेपर रखते हुए पूछा... ‘हां, वो जेमिनी ज्वेलर्स को आर्डर दे दिया।‘<br /><br />‘कैसा आर्डर?'<br /><br />‘क्यों‘...चौंके ' डैडी।<br /><br />खीझ गईं मम्मी -‘क्या कह रही हूँ, तब से, बिटिया रानी तैय्यार नहीं है शादी को।‘<br /><br />‘ये... ये सब क्या तमाशा है-‘ डैडी जोर से बिगड़े।<br /><br />‘पूछिए अपनी लाड़ली से... जो बात थी मैंने कह दी।‘<br /><br />‘अऽऽ नेहा... कहां है? नेहा ऽऽ‘ डैडी ने गुस्सैल आवाज में पुकारा तो उसने धीरे से लाइट आफ कर दी। पर स्विच आॅफ करते-करते ही शरद की मुँह चिढ़ा दिया -‘वाज नहीं आए, दूर रहकर भी डाँट सुनवाने से।‘<br /><br />बुआ ने कह दिया - ‘सो गई है।‘<br /><br />पर नींद कहाँ आ रही थी? कुछ सोच भी नहीं पा रही थी पर जाने क्यों फूल सा हल्का हो उठा था उसका तन-बदन। लगा जैसे बड़ी मुश्किल से किसी चक्रव्यूह से निकल आई हो... सीने पर रखा कोई पत्थर सरका है, जिसके तले उसका दम घुट रहा था... अब खुलकर सांस ले सकती है। बहुत बड़ी समस्या सुलझ गई है, हालाँकि समस्या तो अपनी जगह है -‘क्यों शादी तो नहीं करनी ना, उसे? छोड़ो भी... बाद में सोचेगी यह सब। लेकिन ये शरद भी खूब निकला... एकदम छुपा रूस्तम, उसकी कारस्तानी है यह, कभी सोच भी नही सकती थी। या शायद परमानेंट डाँटने का जुगाड़ बैठा रहा है। और... सचमुच समस्या तो अपनी जगह है, शादी नहीं करनी न... पर क्यों पहले वह इतनी उद्विग्न हो रही थी और अब सहज, शांत है... कहीं सच्चाई तो नहीं थी स्वस्ति की बातों में। हालाँकि, उस दिन तो वह बहुत बुरा मान गई थी जब फूल की बात हो रही थी और स्वस्ति कह उठी थी -<br /><br />‘अपनी नेहा, फूल तो है ही, पर शरद ऋतु में खिलने वाली।‘<br /><br />नहीं समझी तो स्वस्ति ने बड़ी अदा से हँस कर दुहराया था -‘हाँऽऽ, शरद ऋतु‘<br /><br />और उसने बड़ी जोर से डाँट दिया था - ’स्वस्ति! होश संभाल कर बातें किया करो।’<br /><br />कहीं उसकी आँखों नें कुछ कह तो नहीं दिया... ऊँह! छोड़ो! होगा कुछ बाद में सोचेगी अभी तो नींद आ रही है, उसे। और सचमुच उन पंडित जी के दर्शन के बाद पहली बार पूरी पुरसुखद नींद ली उसने और किसी दुःस्वप्न ने नहीं डराया।<br /><br />डर था... डैडी बुलाकर क्राॅस एग्जामिनेशन न शुरू कर दें - लेकिन किसी ने नहीं पूछा कुछ। बुआ ने भी नहीं - शायद उसके खिले-खिले चेहरे ने ही कोई सूत्र थमा दिया उन्हें। <br /><br /><br />अपनी किताबों में डूबी थी कि अचानक फोन की घंटी बज उठी.इंतज़ार करती रही.कोई तो उठाएगा<br />पर मम्मी हमेशा की तरह बाज़ार गयी हुईं थीं.'रघु'....'रघु' ऊँचे स्वर में पुकारा. पर रघु शायद घर में नहीं था.<br /><br />भुनभुनाती हुई अपने कमरे से निकली. जरूर मम्मी की किसी सहेली का होगा.'मेरी बेटी तो डायटिंग के चक्कर में कुछ खाती ही नहीं'...'बेटा बिलकुल नहीं पढता'...पति को तो जैसे घर से कोई मतलब ही नहीं बस काम और काम'..यही सब होगा..या फिर महरी गाथा.इनलोगों को दूसरा कोई काम ही नहीं.जरा खाली हुईं और फोन लेकर बैठ गयीं.यही सब सोचते,रिसीवर उठा जरा,गुस्से में ही बोला, 'हेल्लो'<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://1.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S1hezEAWdKI/AAAAAAAAAYY/gUhWGdtU0ZE/s1600-h/n7942.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 310px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S1hezEAWdKI/AAAAAAAAAYY/gUhWGdtU0ZE/s320/n7942.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5429193582136685730" /></a><br /><br />'नेहा'...उधर से थोडा आश्चर्यमिश्रित स्वर आया.और वह फ्रीज़ हो गयी. ये तो शरद की आवाज़ थी.<br /><br />'नेहा...'<br /><br />'.......'<br /><br />"नेहा ...यू देयर "<br /><br />"हूँ" ..गले से फंसी हुई सी आवाज़ निकली और इस 'हूँ' ने ही शायद शरद को उसके मन की हलचलों की खबर दे दी.थोड़ी देर को वह भी चुप हो गया.शायद बस एक दूसरे की साँसे ही सुन पा रहें थे.पर शरद ही पहले संभला.<br /><br />'हम्म तो इसका मतलब है.....मैं रिजेक्ट नहीं हुआ'<br /><br />'मुझे क्या पता'...धीरे से बोली वह.<br /><br />'नाराज़ हो मुझसे '<br /><br />'नहीं'<br /><br />'लग तो रहा है...सॉरी नेहा..आयम रियली रियली सॉरी....मुझे सामने से कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ी.पता नहीं कैसा डर था,कहीं तुम मजाक बना, हंसी में ना उड़ा दो.डर गया था,तुम्हारी 'ना' सुनने के बाद कैसे जी पाऊंगा??इसीलिए बैकडोर से तुम्हारे मन का पता लगाना पड़ा....अरे, कुछ बोलो भी...अभी तक गुस्सा हो?<br /><br />'मैं क्यूँ गुस्सा होने लगी...मुझे तो किसी ने कुछ कहा भी नहीं'<br /><br />'ओह्ह!! तो ये बात है,लो अभी कह देते हैं...इसमें क्या है'....थोड़ी शरारत से बोला,शरद<br /><br />'फोन पे??...हाउ बोरिंग'....डर गयी, पता नहीं क्या बोल दे. <br /><br />'अच्छा तो आपको फ्लावर,वाइन और म्युज़िक के साथ चाहिए??'....शरद ने चिढाया.<br /><br />'जी नहीं...इट्स सो प्रेडिक्टेबल'<br /><br />'हे भगवान् तो क्या एफिल टावर के नीचे ले जाकर प्रपोज़ करूँ?'...जैसे खीझ गया था,शरद.<br />उसकी खीज देख,उसे भी मजा आने लगा और वो पल भर में पुरानी शरारती नेहा में बदल गयी.<br /><br />'इतना ऊँचा नहीं उड़ती मैं...मेरे पैर ज़मीन पर ही हैं'<br /><br />'तो तुम्ही बताओ'<br /><br />'हम्म.....बीच रोड पे......बिलकुल बिजी सड़क हो...चारो तरफ से ट्रैफिक आ रहा हो...एकदम पीक आवर्स में...' उसकी कल्पना के घोड़े उडान भरने लगे थे.<br /><br />'बस बस ...ये नहीं होगा मुझसे'<br /><br />'ठीक है' फिर मेरी तरफ से ना'<br /><br />'अच्छा...थोड़ा कन्सेशन मिलेगा...सड़क तो हो...पर सूनी सी..खाली सड़क?'<br /><br />'जी नहीं..एकदम बिजी रोड....सारी गाड़ियां रुक जाएँ..ट्रैफिक मैन व्हिसिल बजाना भूल जाए'...मजा आ रहा था उसे...और मत बोलो..सब मन में छुपा कर रखो.<br /><br />'नो वे...ये तो नहीं कर सकता मैं'<br /><br />'ठीक है ...फिर कैंसिल'<br /><br />'ओके...कैंसिल'<br /><br />"क्या.... कैंसिल??'..उसने जरा जोर से ही कहा,तो शरद हंस पड़ा..'अरे! मुझे आने तो दो.रोड पे शीर्षासन करके प्रपोज़ करने को बोलोगी तो वो भी कर दूंगा'<br /><br />वह भी हंसने लगी और तभी शरद बोल पड़ा,'ओ माई गोंड....आयम लेट....टाईम अप माई डियर ...मुझे भागना होगा,अब"<br /><br />एकदम से निराश हो गयी...इतनी मजेदार बात चल रही थी.पर शरद ने अभी फोन रखा नहीं था.<br /><br />'नेहा...'<br /><br />'हम्म...'<br /><br />बाय'...ओह्ह.. सिर्फ बाय कहना था उसे. <br /><br />पर फोन तो अभी तक कट नहीं हुआ था.और उसकी सारी इन्द्रियाँ कानों में सिमट आई थीं.धड़कन तेज हो गयी थी...और शरद ने कहा..'प्लीज़ टेक वेरी गुड केयर ऑफ योरसेल्फ ...एन डू वेल इन योर एग्जाम'...जैसे शरद ने सारी इमोशंस उंडेल दी उन शब्दों में फिर कुछ रुक कर कहा.'आई मीन इट '.और फोन रख दिया<br /><br />थोड़ी देर यूँ ही रिसीवर हाथों में लिए खड़ी रह गयी.कितना अच्छा है,घर में कोई नहीं है और वह थोड़ी देर यूँ चुपचाप,शांत खड़ी रह सकती है.फिर धीरे से रिसीवर रखा और धीमे कदमों से अपनी किताबों तक लौट आई.मन में बस चलता रहा...'प्लीज़ टेक केयर'...डू वेल'...'आई मीन इट'<br />0 0 0 <br /> <br /><br />उसमें वही पुरानी चपलता लौट आई थी बस बीच-बीच में रोष की लालिमा की जगह सिंदूरी आभा छिटक आती, चेहरे पर। सहेलियों के बहुत कुरेदने पर भी सच्चाई नहीं आ सकी होठों पर। लेकिन जब एंगेज्मेंट का दिन करीब आने लगा तो स्वस्ति को राजदार बना ही लिया। सुन कर किलक उठी स्वस्ति... नाराज भी हुई। -<br /><br />-‘हाय! सच नेहा, जा मैं नहीं बोलती तुझसे...इतना गैर समझा मुझे... बिल्कुल भी बात नहीं करनी तुझसे।‘ - लेकिन छलकती खुशी ने ज्यादा देर तक नाराजगी टिकने नहीं दी।<br /><br />दूसरे ही पल उसका कंधा थाम बोली-<br /><br />‘अच्छा बाूेल! मेरा गेस ठीक था या नहीं‘ वह भी मुस्कराहट दबाते धीमे से बोली - ‘लेकिन तेरा गेस तो उल्टा था... यहां मेरी तरफ से कुछ नहीं है।‘<br /><br />‘अयऽ हय... अब झूठ मत बोल... दूध की धुली हो न तुम... खूब पता है हमें, तुम्हारे मन की।‘ - फिर कुछ सोचती सी बोली थी - ‘असल में नेहा, तू इतनी भोली है, इतना निष्पाप मन है तेरा कि तुझे अपने ही मन की खबर नहीं थी... सोच कर हँसी आती है। उन दिनों तेरी बातचीत का एक ही विषय हुआ करता था -‘शरद‘। तू बीसीयों बार नाम लेती, उसका लेकिन जहाँ हम कुछ कहते कि बिगड़ पड़ती‘ - और रहस्य भरी मुस्कराहट के साथ बोली - ‘मुझे तो लगता है, शरद से ज्यादा तू ही... बीच में ही बात काट दी उसने -‘बाबा, तुझे पढ़ाई करनी है या कहीं बाहर जाना है तो सीधे से बोल ना, मुझे क्यों बना रही है, सच्ची मैं चुपचाप चली जाऊँगी, बिल्कुल बुरा नहीं मानूँगी-‘<br /><br />हँस पड़ी स्वस्ति - ‘अरे, नहीं, अब तो तेरे साथ का एक-एक पल कीमती है - सोचकर सिहर जाती हूँ, चली जाएगी तू तो कैसे बीतेंगे दिन, अपनी-तेरी दोस्ती पर हमेशा आश्चर्य होता है, मुझे... लेकिन तू अपनी अगंभीरता के विषय में इतनी गंभीर है कि मजे से पट गई मुझसे पता है विकी चाचा क्या कहते थे -‘<br /><br />‘ये तेरे विकी चाचा क्या कर रहे हैं आजकल?‘<br /><br />‘वही ‘रोड-इंस्पेक्टरी‘ और मुट्ठी में बारूद लिए घूमते हैं कि वश चले तो सारी दुनिया को आग लगा दें - खैर छोड़, पता है वो हमेशा कहते है कि ये ‘आग‘ और ‘बर्फ‘ का संगम कैसे हो गया? तू इतनी बातूनी, इतनी चंचल... सब से झट से दोस्ती कर लेती है और मेरे दोस्त ऊँगलियों पर गिने जाने वाले - पर अब तो नहीं कहेंगे‘ - भेद भरी मुस्कराहट के साथ बोली - ‘क्योंकि अब तो ये ‘फूल‘ और ‘बर्फ‘ का संगम है और इस मिलन से तो बस याद आता है, ‘गुलमर्ग‘! क्यों वहीं की बर्फ लदी चोटियाँ और डैफोडिल्स से भरी घाटियाँ साक्षी रहेंगी न...‘<br /><br />‘तूने आज पूरी बनाने की कसम ही खा रखी है... अब चली मैं‘ - और वह सचमुच उठ खड़ी हुई।<br /><br />स्वस्ति भी उठ आई -‘हाँ भई! शरद साहब की पसंद का ख्याल तो रखना है न... कहीं बातों-बातों में सात बज गए तो-‘ उसने गुस्से से आंखें तरेरीं तो स्वस्ति ने नाटकीय मुद्रा में आँखें बंद कर हाथ जोड़ लिए।rashmi ravijahttp://www.blogger.com/profile/04858127136023935113noreply@blogger.com23tag:blogger.com,1999:blog-6953374982088960088.post-24389124617237149552010-01-18T05:55:00.000-08:002010-01-18T07:02:56.979-08:00और वो चला गया,बिना मुड़े....(लघु उपन्यास )--5<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://2.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S1R1KkvtYnI/AAAAAAAAAXw/tyH8ojMmmZw/s1600-h/painting-my-garden-kitten-linda-hammar.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 256px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S1R1KkvtYnI/AAAAAAAAAXw/tyH8ojMmmZw/s320/painting-my-garden-kitten-linda-hammar.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5428092275411214962" /></a><br />‘नेहा ऽ ऽ ऽ ...‘ किसी ने इतनी मिठास भरी आवाज में पुकारा कि किताबें फेंक, उद्भ्रांत सी चारों तरफ देखने लगी।<br /><br />‘नेहा ऽऽऽ-‘ फिर आवाज आई; मुड़ कर देखा, ओह! कोई नजर तो नहीं आ रहा। परेशान सी इधर-उधर देख ही रही थी कि तभी क्राटन के पीछे कुछ सरसराहट सी लगी।<br /><br />एक ही छलाँग में पहुँच गई - ‘अरे! शऽरऽद... कब आए‘ - और हाथों से बैग थाम लिया।<br /><br />‘कमाल है, सामन अभी हाथों में ही है, और पूछने लगीं... ‘कब आए‘ - जवाब नहीं लड़कियों के दिमाग का भी.<br /><br />'ना कोई फोन, ना कोई खबर और इतने दिनों बाद यूँ ,अचानक'...चीख ही पड़ी जैसे <br /><br />'वो लीव सैंक्शन हो गयी तो घर तो जाना ही था और इधर से होकर ही तो जाना है तो सोचा मिलता चलूँ'<br />'<br />'अच्छा ...यानी रास्ते में हमारा शहर नहीं पड़ता तो तुम मिलने नहीं आते'.....थोडा गुस्से में बोला,उसने.<br /><br />'ऐसा कहना,मैंने ??'<br /><br />'और क्या' <br /><br />'क्या बात है बहुत हेल्थ बन गया है इस बार,..कितना पुट ऑन कर लिया है'...शरद ने बात बदल कर चिढाते हुए कहा.<br /><br />हाँ! हाँ! चश्मा ले लो चश्मा, कल ही बुखार से उठी हूँ और तुम्हें मोटी दिख रही हूँ।‘<br /><br /><br />‘तो, ये इतना भारी बैग उठाए कैसे खड़ी हो,मेरा भी दम फूल गया था।‘<br /><br />और उसके हाथों से बिल्कुल छूट गया बैग, ओह अँगुलियाँ टूट गईं, उसकी तो।<br /><br />शरद जोरों से हँस पड़ा -‘हाँ! अब ख्याल आया कि लड़कियाँ नाजुक होती हैं।‘<br /><br />‘नहीं, शरद, सच्ची बहुत भारी है।‘<br /><br />‘अभी तो अच्छी भली उठाए खड़ी थी।‘<br /><br />अब कौन बहस करे इससे। अंदर की ओर दौड़ पड़ी... 'मम्मी ....शरद आया है' <br /><br />थोड़ी देर तक जम कर गुल-गपाड़ा मचा रहा।सावित्री काकी भी हाथ पोंछती किचेन से निकल आई थीं.रघु फुर्ती से पानी ले आया.कौन क्या कह रहा है, कुछ सुनाई ही नहीं पड़ रहा.पर सबसे ऊपर उसकी आवाज़ ही सुनायी दे रही थी.जब माली दादा ने दरवाजे से ही' नमस्कार,शरद बाबू' बोला..तो वह बोल पड़ी,'अरे माली दादा,अब इन्हें सैल्यूट करो.इन्हें नमस्कार समझ में नहीं आता.अब ये लेफ्टिनेंट बन गए हैं,देखते नहीं कितना भाव बढ़ गया है'...अनर्गल कुछ भी बोले जा रही थी.<br /><br />शरद मंद मंद मुस्काता हुआ उसकी तरफ देखता बैठा रहा.एक बार लगा,शायद बुखार से कुछ ज्यादा ही दुबली हो गयी है,तभी इतने गौर से देख रहा है.पर उसने ध्यान दिए बिना अपना शिकायत पुराण जारी रखा...'पोस्टिंग इतनी पास मिली है,तब भी इतने दिनों बाद शकल दिखाई है.<br /><br />'अरे बाबा तुम्हे पता नहीं कितना टफ जॉब है इसका और छुट्टी कहाँ मिलती है'...मम्मी ने बचाव करने की कोशिश की पर उसने अनसुना कर दिया...'अच्छा फोन भी करने की मनाही है?..इतनी बीमार थी मैं,एक बार फोन करके हाल भी पूछा??<br /><br />'उसे सपना आया था कि तुम बीमार हो'<br /><br />'क्यूँ नहीं आया,...आना चाहिए था'<br /><br />मम्मी पर से निगाहें हटा,शरद ने कुछ ऐसी नज़रों से उसे देखा कि एकदम सकपका गयी..'लगता है कुछ ज्यादा ही बोल गयी.<br /><br />शरद ने भी जैसे उसकी असहजता भांप ली.रघु से बोला,जरा मेरा बैग लाना.सबके लिए कुछ ना कुछ गिफ्ट लाया था.कहता रहा,माँ ने बोला,जॉब लगने के बाद पहली बार जा रहें हो...कुछ लेकर जाना,वैसे मुझे तो कुछ समझ में आता नहीं..माँ ने जैसा बताया ले आया...और उस ज़खीरे में से एक एक कर तोहफे निकालता रहा.वह सांस रोके देखती रही ,सुमित्रा काकी के लिए शॉल, रघु के लिए टी-शर्ट, माली दादा के लिए मफलर,ममी के लिए नीटिंग की आकर्षक बुक,और पापा के लिये सुन्दर सी टाई...<br /><br />सबसे अंत में उसकी तरफ एक गुड़िया उछाल दी -‘लो बेबी रानी! ब्याह रचाना गुड़िया का।‘(वैसे गुड़िया थी तो बहुत सुंदर... सजावट के काम आ जाती... लेकिन चेहरा उतर गया उसका। शरद सच्ची बिल्कुल बच्ची समझता है, उसे।)<br /><br />‘अब मुँह काहे को सूज गया... मैंने कहा, एक छोटी लड़की भी है, तो माँ ने कहा, एक गुडिया ले लो' <br /><br />‘ और लो! ये उसकी बचपना का प्रचार भी करते चलता है।<br /><br />इतना मूड खराब हो गया, अपनी स्टडी टेबल पे आ यूँ ही, एक किताब खोल ली। तभी शरद ने पीछे से आँखों पर हाथ रख दिया (जाने कैसी बच्चों सी आदत है, सुमित्रा काकी भी नहीं बचतीं, इससे। पहले तो वह आराम से नख-शिख वर्णन कर जाती थीं... ‘एक महाशरारती लड़का है, जिसकी कौड़ी जैसी आंख है, पकौड़ी जैसी नाक है, हथौड़ी जैसा मुँह है, कटोरा-कट बाल है।‘ - लेकिन नाम नहीं बोलती) - लेकिन आज मुँह फुलाए चुप रही। शरद ने भी तुरंत हाथ हटा लिया और उसकी किताब की ओर झुकते हुए बोला -‘अच्छा ऽऽऽ तो यहाँ ’‘नाॅट बिदाउट माइ डाॅटर‘’ पढ़ा जा रहा है?‘<br /><br />‘क्या... ?‘ - चैंक पड़ी वह। ओह! तो शरद ने एक हाथ से उसकी आँखें बंद कर, दूसरे हाथ से ये किताब उसके समक्ष खोल कर रख दी। कितने दिनों से पढ़ना चाह रही थी, इसे... कहाँ-कहाँ न छान मारी पर नहीं मिल पाया था।<br /><br />खुशी से चहकते हुए पूछा -‘कहाँ से मिला तुम्हें, शरद? किसी लाइब्रेरी से लाए हो या किसी फ्रेंड से... या खरीद कर लाए हो।‘ - जल्दी से उलट-उलट कर देखने लगी।<br /><br />पर, शरद अपनी आदत से कैसे बाज आएगा उल्टा सवाल -‘तुम्हें, आम खाने से मतलब है, या पेड़ गिनने से?‘<br /><br />लेकिन इस वक्त बहुत खुश थी... सच्चे मन से माफ कर दी। इतनी सी बात शरद को याद रही... जानकर अच्छा लगा। <br /><br />00000 <br /><br />जंगल के बीच एक मंदिर था। काफी महात्म्य था, उसका। मम्मी को चाव था, इतने दिनों से है, यहाँ, एक बार तो जाना <br />चाहिए। जबकि इसकी ख्याति दूर-दूर तक थी। लेकिन कहे किस से? डैडी और भैय्या तो मंदिर और पूजा के नाम से ऐसे बिदकते हैं जैसे पाकिस्तान के सामने किसी ने भारत के गुण गा दिए हों।<br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://2.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S1R1d-7oEDI/AAAAAAAAAX4/nZNcaIk6I7o/s1600-h/Tiruvanamalai+morning+temple+on+the+hill.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 217px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S1R1d-7oEDI/AAAAAAAAAX4/nZNcaIk6I7o/s320/Tiruvanamalai+morning+temple+on+the+hill.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5428092608858034226" /></a><br />मम्मी ने शरद से चर्चा की और श्रवण कुमार तैय्यार।<br /><br />एक दिन अपने एक दोस्त के साथ एकाएक जीप लेकर आया और आते ही जल्दी मचाने लगा -‘चलो, झटपट हो तैयार हो जाओ, सब लोग।‘<br /><br />दो दिन पहले ही शॉपिंग के लिए गई थी और ‘लाँग स्कर्ट’ लिए थे। उसे ही पहन तैयार हो गई...<br /><br />‘मम्मी ठीक है न?‘<br /><br />मम्मी कुछ बोलतीं कि इसके पहले ही शरद टपक पड़ा -<br /><br />‘बहुत ठीक है, पर घर आकर बिसूरना नहीं कि मेरी नई स्कर्ट का सत्यानाश हो गया। याद रखिए रानी साहिबा किसी पार्टी में नहीं जंगल में तशरीफ ले जा रही हैं... जहाँ मखमली कालीन नहीं... कंकड़, पत्थर, काँटे....‘<br /><br />सुनना असहय हो उठा... बीच में ही जोर से खीझ कर बोली -‘मम्मी! देख रही हो।‘<br /><br />‘मेरे ख्याल से तो आंटी, दो साल पहले ही देख चुकी हैं, मुझे।‘<br /><br />वह कुछ बोलती कि मम्मी ने आग्रह से चुप होने का संकेत किया -‘श ऽ र ऽ द‘<br /><br />लेकिन कहता तो ठीक ही है, इतने मन से खरीदा था... इतना बढ़िया ड्रेस दाँव पर तो नहीं लगा सकती। ... ‘चूड़ीदार-समीज‘ बदल लो। लेकिन जिसने ‘नुक्स‘ निकालने की कसम ही खा रखी हो, उससे जीता जा सकता है, भला।<br /><br />लिविंग-रूम में पहुँची तो खिड़की के बाहर देखता हुआ बोला -‘हमें तो कुछ कहने की मनाही है, फिर भी बताना मेरा फर्ज है-‘ और उसकी जमीन छूती चुन्नी की ओर इशारा करते हुए बोला -‘ये झाड़ी में फँस-वँस गई...न तो लाख टेरने पर भी... ‘काँटो में उलझ गई रे ऽऽऽ‘ कोई हीरो साहब नहीं पहुँचेंगे छुड़ा ने।’ - नाटकीय स्वर में बोला तो मम्मी, उसका वो दाढ़ी वाला दोस्त; सब हँस पड़े। अब क्या मंदिर में वह जींस में जायेगी??...पर अक्कल हो तब,ना <br /><br />अपमान से लाल हो उठी वह। जरा सा भी शउर नहीं बोलने का, जता रहा है, बहुत मौड है वह। ये सब उसकी आर्मी लाइफ में चलता होगा... बोलती तो अभी एक मिनट में बंद कर देती, लेकिन दाँत दिखाता उसका वह दढ़ियल दोस्त भी तो बैठा है। शरद को जरा भी मैनर्स का ख्याल नही तो क्या वह भी छोड़ दे। जाने क्यों अब एटिकेट्स का इतना ध्यान आ जाता है... पहले तो बात पूरी भी न हुई कि जवाब हाजिर (यह तो बाद में सोचती कि ऐसा नहीं... ऐसा बोलना चाहिए था) कोई अंकल भी होते तो शायद ही बख्शती वह। ...और सचमुच रास्ता इतना खराब था कि काँटों से लगकर चुन्नी तार-तार हो गई। पर होंठ नहीं खोले उसने। <br /><br />000000 <br /><br />क्लास में कदम रखा ही था कि पाया सारी नजरें मुस्कुराती हुई, उसी पर टिकी हुई है।... क्या बात है, स्वस्ति के करीब पहुँच बैग रख आँखों में ही पूछा तो उसने भी ब्लैकबोर्ड की तरफ आँखों से ही इशारा कर दिया... जहाँ बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था -‘अंगारे बन गए फूल‘<br /><br />इसका क्या मतलब हुआ? यह तो एक फिल्म का नाम है... वह भी गलत लिखा हुआ... इससे उसका क्या ताल्लुक... किसी ने यूँ ही लिख दिया होगा। पर सबकी नजरें उसे क्यों देख रही हैं?<br /><br />’’ बैठ अभी, बताती हूँ, सर आ रहे हैं।‘ स्वस्ति ने उसके लिए जगह बनाते हुए कहा। वह भी चुपचाप बैठ गई। डस्टर ले मिटाना भी भूल गई। और तब ध्यान आया इधर कितने दिनों से न ब्लैकबोर्ड साफ करती है, न बोर्ड पर तारीख डालती है... न ही मेज कुर्सी ठीक करती है और इधर टेबल पर भी उसका आसन नहीं जमता -- नही तो सर क्लास से बाहर हुए और वह उछल कर मेज पर सवार।<br /><br />सर ने क्या पढ़ाया कुछ भी नहीं गया दिमाग तक... बेल लगते ही... डेस्क फलांगती पहुँच गई, अपनी पसंदीदा जगह पर।<br /><br />केमिस्ट्री लैब के पीछे, कामिनी के झाड़ की घनी छाया ही प्रिय स्थल था उनका। वह स्वस्ति, छवि और जूही.... बैग एक तरफ पटक आराम से बैठ गई और उसने सवाल दागा - ‘हाँ! अब बोलो, इससे मेरा क्या संबंध।‘<br /><br />छूटते ही बोली छवि... ‘तुझसे नही तो और किससे है? इतनी तेजी से किसमें परिवर्तन आता जा रहा है?‘<br /><br />‘परिवर्तन आ रहा है? क्यूँ भला, चेहरा वही, हाईट वही, रंग वही... फिर? ‘<br /><br />‘रंग-रूप में नहीं मैडम, व्यवहार में; तुझे खुद नहीं महसूस होता?‘<br /><br />‘कोई बात होगी, तब तो महसूस होगा... दिमाग मत चाटो मेरा... साफ-साफ बोलो-सचमुच खीझ गई वह।‘<br /><br />‘अच्छा बोल‘- जूही ने समझाया - ‘एक यही बात गौर कर, उस अजीत के ग्रुप से कितने दिन हो गए झड़प हुए ‘ (अजीत के ग्रुप के लड़कों से बिल्कुल नहीं बनती थी इन लोगों की और वह ग्रुप भी इन्हें तंग करने का कोई मौका नहीं छोड़ता।)<br /><br />‘अब सब के सब सुधर गए हैं।‘<br /><br />‘हाँ, आज देख ली न बानगी।‘<br /><br />‘अरे! वो ऐसे ही किसी ने लिख दिया होगा... तुम लोग ख्वाहमखाह टची हुई जा रही हो।‘<br /><br />‘नहीं मैडम, तेरे आने से पहले अजीत कह रहा था -‘आजकल अंगारे पर राख पड़ती जा रही है।‘‘ - हमलोग तो कुछ समझ नहीं पाए पर उनका ग्रुप जोर-जोर से हँसने लगा और रमेश ने कहा -‘ठीक कहते हो यार, आजकल क्लास में भी बार-बार ‘सर... मैम...आई हैव अ डाउट‘ सुनने को नहीं मिलता। सारा पीरियड उन लोगों के उबाऊ लेक्चर में ही बीत जाता है तब हमलोगों की समझ में आया, तेरा नाम उन लोगों ने आपस में अंगारा रख छोड़ा है।‘ छवि बोली और आगे स्वस्ति ने जोड़ा -‘तभी फिरोज ने एक शेर जैसा कुछ कहा कि ...‘अंगारा अब फूल बनता जा रहा है।‘ और तभी अजीत ने लिख दिया बोर्ड पर।‘<br /><br />‘और तुमलोग चुपचाप बैठी देखती रही, कितनी बार मैंने झगड़ा मोल लिया है, तुमलोगों की खातिर।‘<br /><br />‘अरे! जबतक हमलोगों की समझ में पूरी बात आती कि तू आ गई और पीछे-पीछे सर।‘<br /><br />‘खैर छोड़, इन सबको तो मैं देख लूँगी... पर तुमलोग भी मान बैठी हो कि मैं बदल गई हूँ।‘<br /><br />‘अरे, मानना-वानना क्या... ये तो जग-जाहिर है। -’ मुस्करा कर बोली छवि - ‘खुद ही सोच आज ये सब देख तू, यूँ चुपचाप रह जाती। याद है जब हमलोग नए-नए आए थे और नारंगी के छिलके लापरवाही से उनकी डेस्क पर छोड़ दिए थे - और इसी अजीत ने ब्लैकबोर्ड पर लिख दिया था कि ‘छिलके फेंकनेवालियों दिल फेंक कर देखो‘ तो कितना हंगामा हुआ था.... एप्लीकेशन ले आप ही गई थीं, हेड के पास। और उस दिन के बाद आज ये वारदात हुई और तू...‘<br /><br />‘वो तो मैं समझी नही ना... इसलिए।‘<br /><br />‘समझने-वमझने की बात नहीं... कल बस में सब शर्मिला को ‘ओ मेरी... ओ मेरी शर्मीली’’गाकर छेड़ रहे थे... मैंने तेरी तरफ देखा भी पर तू खिड़की पार देखती जाने कहाँ गुम थी। शर्मिला बिल्कुल रोने-रोने को हो रही थी... जी में आया कुछ बोलूँ पर मेरी हिम्मत तो पड़ती नहीं... और जब हमारी माउथपीस ही चुप बैठी हो‘ - स्वस्ति ने प्यार से उसका कंधा थाम लिया -‘जाने आजकल कैसी गुमसुम हुई जा रही है, बिल्कुल खोई-खोई सी।‘<br /><br />‘अच्छा-अच्छा, अब कल देखना, इस अंगारे की चमक... झुलस कर न रह गए सभी, तब कहना... फूल भी हुई जा रही हूं तो कोई गुलाब का नहीं, कैक्टस का ही।‘ - और इस बात पर चारों जन इतनी जोर से हंसे कि पतली सी डाल पर झूलती बुलबुल हड़बड़ा कर उड़ गई। <br />000000 <br /><br />लेकिन दिखा कहाँ पाई अंगारे की चमक. दूसरी ही उलझन सामने आ गई। कालेज से लौटी तो देख पंडित जी बैठे हैं। अभी कल तक इन्हें कितना तंग किया करती थी। देखते ही दूर से चिल्लाती थी -‘प्रणाऽऽऽम पंडित जी।‘ और वे इससे बहुत चिढ़ते थे... लाठीमार प्रणाम कहते इसे । उनका कहना था - ‘दोनों हथेलियाँ पूरी तरह जोड़, थोड़ा सा सर झुका तब प्रणाम शब्द उच्चारित करना चाहिए। देखते ही शब्द होठों पर तो आ गए पर चिल्ला न सकी। छिः इतनी बड़ी हो गई है, यही सब शोभा देता है... अनजाने ही उन्हीं के अंदाज में सर झुका अंदर चली गई।‘<br /><br />लेकिन ये पंडित जी तशरीफ लाए किसलिए हैं? इधर कोई व्रत-अनुष्ठान तो है नहीं। और जो उनके आने का रहस्य समझ में आया तो ऐसा लगा, जैसे काटो तो खून नहीं। इधर एक महीने से घर में कुछ सरगर्मी देख तो रही है... मम्मी के बाजार का चक्कर भी खूब लग रहा है। अक्सर बुआ आ जाती हैं और दोनों घुल-मिल कर जाने क्या योजनाएँ बनाती रहती हैं। लेकिन वह अपने एग्जाम की तैयारियों में ही उलझी थीं। बस कालेज, किताबें और अपने कमरे की ही होकर रह गई थी... ध्यान ही नहीं दिया।<br /><br />किंतु अब गौर कर रही है... मम्मी और बुआ के बाजार का चक्कर यों ही नहीं लग रहा। लेकिन... लेकिन... आँखों में आँसू छलक आए... उसके। वह तो एक बार नहीं हजार बार कह चुकी है..’उसे. शादी नहीं करनी है... नहीं करनी है।’ सब जानते हैं... फिर क्यों बड़े आराम से जाल फैला रहे हैं, सब। ये गुपचुप तैय्यारियाँ बींध कर रख दे रही है, मन को। ओह! कोई कुछ पूछता-कहता भी तो नहीं। कैसे खुद जाकर कह दे कि ’नहीं करनी.हैं;शादी;उसे और अगर जबाब मिले ’कौन करवा रहा है तुम्हारी शादी? ...तो?? बेबसी से आँखें डबडबा कर रह जाती है।<br /><br />अजीब त्रासदी है, भारतीय बाला होना भी । कितनी बड़ी विडम्बना है... उसकी जिंदगी के अहम् फैसले लिए जा रहे हैं और वह दर्शक बनी मूक देखती रहे पर आज के दर्शक तो रिएक्ट करते हैं, रिमार्क कसते हैं या कुर्सी छोड़ ही चले जाते हैं। पर यहाँ तो...<br /><br />बस आँख, कान बंद किए अपने जीवन के बलि चढ़ने की मूक वेदना महसूस करती रहे।<br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://1.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S1R2ZNKmeJI/AAAAAAAAAYA/qFCFRCBReck/s1600-h/images.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 124px; height: 88px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S1R2ZNKmeJI/AAAAAAAAAYA/qFCFRCBReck/s400/images.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5428093626291222674" /></a><br />उदास चेहरा लिए वह घर भर में घूमती रहती है... पर किसी को कोई गुमान ही नहीं। सब समझते हैं एग्जाम की टेंशन है. सिक्के का दूसरा पहलू देखने का कष्ट किसी को गवारा नहीं। चुपचाप बिस्तर पर पड़ी रहती है, तकिया, आँसुओं से गीला होता रहता है। इतना असहाय तो कभी महसूस नहीं किया, जीवन में। घर की नए सिरे से साज-संभाल होती देख खीझ कर रह जाती है और कोसती रहती है, खुद को... हाँ! ठीक कहती है, स्वस्ति, बिल्कुल ठीक कहती है, बहुत बदल गई है, वह। अभी पहले वाली नेहा होती तो सीधा जाकर कड़क कर पूछती...<br /><br />‘क्या हो रहा है, यह सब?‘ - और फिर चीख-चीख कर आसमान सर पर उठा लेती।<br /><br />पर, अब तो कदम उठते ही नहीं। जबान तालू से चिपक कर रह जाती है। हुँह! अंगारे की चमक दिखाएंगी? अंगारे पर राख क्या पानी पड़ गया पानी... और बिल्कुल बुझ गया है, वह... अब मात्र कोयले का एक टुकड़ा रह गया है - , बदसूरत, बेकाम का।<br /><br />बेबसी और गुस्से से सर पटक-पटक कर रह जाती... ये शरद भी जाने कहां मर गया... दो महीने से सूरत नहीं दिखाई उसने। लेकिन ये अचानक, शरद का नाम कैसे आ गया, होठों पर। शरद से क्या मतलब इन सब बातों का... हाँ कोई मतलब नहीं..उसका तो कब से कुछ पता भी नहीं,बस कभी कभार फोन आ जाता है. पहले तो महीने में तीन-तीन बार आकर बोर करेगा। जाने क्यों लगता... अभी शरद होता तो सारी समस्या हल हो जाती। शायद उससे कह पाती - ‘शरद समझा दो इन लोगों को। उसे नहीं करनी शादी-वादी।‘ भले ही चिढ़ाता, सह लेती पर काम तो बन जाता।<br /><br />किंतु वह तो मीलों दूर ‘इम्फाल‘ में बैठा है... नयी-नयी पोस्टिंग है, ‘प्रिंस-स्टेज‘ छोड़कर क्यों आने लगा? क्या जाने कभी आए ही नहीं। कितने सारे दोस्त तो बनते हैं, भैय्या के और बिछड़ जाते हैं। पर शरद महज भैय्या का दोस्त ही तो नहीं... मम्मी-डैडी भी तो कितना मानते हैं उसे। कम से कम एक बार तो उसे आना ही चाहिए। लेकिन क्या पता तब तक सब कुछ खत्म हो जाए... सुबक उठी वह।rashmi ravijahttp://www.blogger.com/profile/04858127136023935113noreply@blogger.com19tag:blogger.com,1999:blog-6953374982088960088.post-4769874434029663972010-01-14T04:58:00.000-08:002010-01-17T05:26:36.926-08:00और वो चला गया,बिना मुड़े....(लघु उपन्यास )--4<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://2.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S08bP5Dx8eI/AAAAAAAAAXQ/w4QJaWabBRw/s1600-h/images+(1).jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 124px; height: 93px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S08bP5Dx8eI/AAAAAAAAAXQ/w4QJaWabBRw/s320/images+(1).jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5426586035833401826" /></a><br /><br />(नेहा स्कूल की प्रिंसिपल है.अपने केबिन में अचानक शरद को आते देख चौंक जाती है.और उसे शरद से अपनी <a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2010/01/blog-post_08.html">पहली मुलाकात </a>याद आने लगती हैं.यह भी कि किशोरावस्था में वह कितनी शैतान थी.सबको कैसे तंग करती रहती थी.शरद ने जब उसके साथ एक छोटी बच्ची की तरह बर्ताव किया तो बहुत <a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2010/01/blog-post_09.html">नाराज़</a> हुई थी वह.पर धीरे धीरे शरद से दोस्ती हो गयी और शरद ने घर का <a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2010/01/3.html">बोझिल वातावरण</a> बदलने में बहुत मदद की) <br /><br />गतांक से आगे <br /><br />कॉलेज खुला तो इतने दिनों से छूटी सहेलियों का ख्याल आया। बातें... बातें और बस बातें... सबों के पास इतना कुछ था कहने को... और वक्त इतना कम। अनजाने ही शायद शरद के सारे कारनामे सुना गई वह। यह भी ध्यान तब आया जब स्वस्ति ने टोका - ‘तेरी बातों से तो ऐसा लगता है, जैसे शरद आठ दिन नहीं, आठ महीने रहकर गया है।‘<br /><br />‘अरे! वह सुबह से रात तक कोई न कोई गुल खिलाते रहता था... और सब तो ठीक था, पर मुझ पर ही बहुत रौब जमाता था... क्या करती... मम्मी डैडी ने भी इतना सर चढ़ा रखा था कि बस।‘<br /><br />और यह शरद हर पंद्रह दिन बाद रौब जमाने पहुंच जाता... ट्रेनिंग सेंटर पास ही था। इस बार भैया के आने पर ‘वाटर फाल‘ जाने का प्रोग्राम बना। वह मन ही मन चाह रही थी कि डैडी न जाएं तो अच्छा। डैडी भी कहां तैयार थे... हमेशा की तरह कहा -‘इस संडे तो जरा मैं बीजी हूँ, तुमलोग घूम आओ।‘<br /><br />पर शरद अड़ गया -‘एक दिन का समय...अपने लिए निकालिए न,अंकल,...अच्छा लगेगा, हमलोग तो मौज-मस्ती करें और आप फाइलों से जूझते रहें। नहीं अंकल... सोचेंगे कुछ नहीं... आप चल रहे हैं।‘<br /><br />और डैडी ने हथियार डाल दिए -‘अच्छा अब तुमलोगों का इतना मन है तो समय निकालना ही होगा, पर फिर सेटरडे मैं बहुत देर से घर आऊंगा...अपनी आंटी से कह दो... फिर कोई शिकायत नहीं करेंगी।‘ और प्रस्ताव सर्व सम्मति से पास हो गया। डैडी को भी अब यह सब रास आने लगा था। वैसे तो उसने भी खूब जिद की थी... लेकिन सच कहे तो अंर्तमन से नहीं चाहती थी कि डैडी के साथ जाना पड़े। उतनी फ्रीडम कहाँ रहेगी? कितने भी खुल गए हों तो क्या... शरारतें करने की छूट तो नहीं मिली। हँसते-खेलते समय भी, एक सहम सी व्याप्त रहती है। कहीं सीमा का अतिक्रमण न हो जाए। और पहाड़ी पर चढ़ने को जब सीढ़ियों का सहारा लेना पड़े तो क्या मजा?<br /><br />लेकिन उसकी शंका निर्मूल सिद्ध हुई। डैडी, इतने खुशमिजाज हैं और इतने लतीफे उन्हें याद हैं, किसी को भी पता नहीं था - रास्ते भर अपने संस्मरण और लतीफे सुना-सुना कर हँसाते रहे सबको।<br /><br />जब वे लोग डैडी के साथ धीरे-धीरे चलने लगे तो उन्होंने उत्फुल्लता से कहा, ‘...आह! हम बूढ़ों के साथ क्यों घिसट रहे हो तुमलोग... गो अहेड...एन्जॉय योरसेल्फ।‘<br /><br />‘अंकल... शरद ने शायद कुछ प्रतिवाद में कहा था पर यहां सुनने की फुर्सत किसे थी। वह तो उछलती, कूदती दूर निकल आई थी। पर डैडी ने छूट दे दी तो क्या... शरद तो उसकी पहरेदारी को मौजूद था। मम्मी ने एक बार कह क्या दिया कि ‘तुम झरने के पास मत जाना, एक मिनट स्थिर नहीं रहती हो, कहीं पैर रपट गया तो लेने के देने पड़ जाएंगे।‘ - बस बात गाँठ बाँध ली।<br /><br />खुद तो आराम से भैया के साथ पानी में पैर डाले बैठा था... वह आ ही रही थी कि दूर से ही चिल्लाया... ‘नहीं नेहा, अब आगे नहीं... वहीं से देखो।‘- वह परवाह न करते हुए आगे बढ़ती रही तो वहीं से डपट दिया -‘कह रहा हूँ न, वहीं से देखो, मना किया जा रहा है, सुनाई नहीं दे रहा’<br /><br />.इतना बुरा लगा। अपमान से आँसू निकल आए। उल्टे पाँव लौट पड़ी।<br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://1.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S08bZ2z4kxI/AAAAAAAAAXY/8gv_fNtl4PA/s1600-h/images.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 120px; height: 139px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S08bZ2z4kxI/AAAAAAAAAXY/8gv_fNtl4PA/s320/images.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5426586207028548370" /></a><br /><br />चुपचाप एकांत में आ बैठ गई, किसी को फिक्र भी क्या... सबकी अपनी जोड़ियाँ हैं, एक वह ही तो अकेली है... किसी को उसकी परवाह भी नहीं।<br /><br />जब नाश्ता निकाला गया तो उसकी खोज हुई... आकर चुपचाप बैठ गई। सब आपस में बातें किए जा रहे हैं। उसकी ओर किसी का ध्यान ही नहीं। तभी शरद भारी आवाज में जोर से बोला -‘मैं बहुत नाराज हूँ, कोई नहीं बोलेगा, मुझसे?‘<br /><br />सबकी दृष्टि उसकी ओर उठ गई। डैडी हँसते हुए बोले -‘क्या हुआ भई, बिटिया रानी इतनी चुप क्यों है?‘<br /><br />‘डैडी देखिए, खुद तो इतने पास जाकर पानी में पैर डाले बैठे थे दोनों जन और मुझे कितनी दूर पर ही रोक दिया - शिकायती स्वर में बोली वह। आँखें छलछला आईं।‘<br /><br />’तो क्या गलत किया, हमलोग चुपचाप बैठे थे या तुम्हारी तरह उछलकूद कर रहे थे।’ भैया ने तरफदारी की तो एकदम सुलग उठी वह -‘भैय्या, तुम्हारी ही शह पर इतना मन बढ़ा हुआ है, किस तरह डाँट दिया मुझे। कितने सारे लोग थे वहाँ।‘<br /><br />‘अच्छा... अच्छा...‘ -डैडी ने बीचबचाव किया। ‘तुझे देखना ही है न, जा देख आ, लेकिन संभल के।‘<br /><br />‘येल्लो ऽऽऽ‘ - अपनी जीत पर इतनी खुश हुई कि एकदम से मुहँ चिढ़ा दौड़ पड़ी। कूदती-फाँदती चली जा रही थी कि मम्मी जोर से चिल्लाई -‘नहीं नेहा, इस तरह नहीं... चलो लौट आओ... नहीं जाना है।‘<br /><br />ओफ्! इतना गुस्सा आया, खुद पर। इसी कारण वो सब जाने से मना कर रहे थे। कैसे भूल गई वह? मुँह फुलाए वहीं पत्थर पर बैठ गई। अब शरद उठा -‘मैं साथ में चला जाता हूं, अंकल।‘<br /><br />नहीं जाएगी,...वह बिल्कुल नहीं जाएगी। यही तो चाह रहा था, वह... अहसान जताने का मौका मिले।<br /><br />‘चलिए, महारानी जी, मुलाजिम सैर करा लाए आपको।‘<br /><br />उसने मुँह घुमा कर बिल्कुल अनसुना कर दिया। शरद धीरे से पीछे की तरफ झाँककर बोला -‘यहाँ से वे लोग दिख तो नहीं रहे, बिल्कुल... हूंऽऽऽ ऐसे ही चुपचाप बैठी रहना... इसी बहाने मैं घूम आऊँ, एक बार।‘<br /><br />और वह जब सचमुच मुड़ गया तो एकदम से उठ गई वह... ‘एक तुम ही चालाक हो न।‘<br /><br />‘ना... ना... मेरा नम्बर तो दूसरा है।‘<br /><br />छोड़ो... इन बातों में वह यह मौका नहीं खोएगी। चलो, ये लोग अकेले नहीं जाने देंगे तो ऐसे ही सही।<br /><br />झरने को बिल्कुल पास से देखने का अपना ही आनंद है। हरीतिमा से आच्छादित काले-काले पत्थर और उनके बीच छलछलाता पिघले चांदी सा पानी। मानो काली चमकीली केशराशि पर हरी चूनर ओढ़े कोई चाँद सी दुल्हन हँसी से दोहरी हुई जा रही हो... या सफेद मलमल की खूब फ्रिल लगी फ्रॉक पहने कोई शरारती बच्ची, अपनी माँ की पकड से छूट... खिलखिलाते हुए बड़ी वेग से दौड़ी चली आ रही हो। जो समतल पर आ कर बांकी चाल वाली गंभीर युवती में बदल गई हो। जहाँ पानी गिर रहा था वहाँ दूर-दूर तक बस झाग ही झाग नजर आ रहा था... जैसे मनों डिटरजेंट पाउडर उलट दिया गया हो।<br /><br />मंत्रमुग्ध सी जाने कब तक यह मनमोहक दृश्य निहारती रही। सच, सब कुछ इतना खुशगवार लग रहा था कि सारा अपमान, गुस्सा सब भूलभाल किलक उठी -‘एई, शरद!! कितना अच्छा लग रहा है न।‘<br /><br />‘अँ ऽ ऽ ऽ‘ - शरद भी जैसे किसी दूसरी दुनिया में खोया था। लौट कर खोयी-खोयी सी दृष्टि उसपर टिका दी... ये ऐसे क्यों देख रहा है... पहचान नहीं रहा क्या... या शायद सोच रहा होगा अब इस बात को कैसे काटे... कुछ दिनों से एक अजीब सी बात देख रही है... सबके सामने तो लड़ता-झगड़ता रहता है, चिढ़ाता-खिझाता रहता है पर जब भी अकेला हो, जुबान जाने कहाँ गुम हो जाती है.....उदास सा कहीं खो जाता है, हिम्मत जो नहीं पड़ती होगी...वहाँ तो दूसरों के बल पर उछलता रहता है। अकेले में लोहा ले तब न।<br /><br />कल रात की ही बात है, अगर मम्मी या भैय्या होते तो बिना अपनी टें, टें किए न रहता।<br /><br />चाँदनी रात, देख तो जैसे वह पागल हो जाती है। इतना पसंद है उसे कि जी चाहता है कि कोई जादू की छड़ी घुमा उसे रात भर के लिए किसी पेड़ या पौधे में बदल दे... फिर जी भर कर नहाती रहेगी चाँदनी में। जब स्कूल कैम्प के लिए गई थी तो वह और स्वस्ति टीचर की नजर बचा एक चक्कर लगा ही आती थी फील्ड का... घर में फील्ड कहाँ मयस्सर पर छत तो है।<br /><br />कल भी जब खिड़की के बाहर ऐसी चाँदनी बिखरी देखी तो चुपके से दरवाजा खोल टैरेस पर आ गई। रेलिंग पर झुकी पी ही रही थी इस सुहानी छटा को कि एक ट्रक की हेड-लाईट बड़े जोरों से चमकी... उसकी चौंध से बचने को जो आँखें फेर सर घुमाया तो चीख निकलते-निकलते रह गई। थोड़ी ही दूर पर एक और आकृति रेलिंग के सहारे टिकी खड़ी थी। डर से काँप ही रही थी कि पहचान गई... ये तो शरद है। अब तो इसे गोल्डेन चांस मिल गया... लगाएगा एक झाड़ कि रात में यहाँ खड़ी क्या कर रही हो। उसे क्या मालूम कि इस ‘आर्मी मैन‘ को भी महत्व पता है, चाँदनी का।<br /><br />जबाब सोच ही रही थी... लेकिन यह कुछ बोलता क्यों नहीं... हेड लाईट की रोशनी में तो निश्चय ही देख लिया है, उसे। लेकिन यह तो वैसे ही खड़ा है... अब क्या मजा आएगा... यमदूत की तरह उसकी हर खुशी का गला घोंटने पहुँच जाता है। अपने कमरे की तरफ लौट पड़ी... करीब से गुजरी तो पलट कर दूसरी दिशा में बढ़ गया। इसे समझना भगवान के भी वश की बात नहीं। जी में आएगा तो छोटी-छोटी बातों पर डाँट खिलाता रहेगा... स्वस्ति के यहाँ से लौटने में सात बज गए तो कैसा भैय्या को चढ़ा दिया और भैय्या भी तुरंत बातों में आ जाते हैं... क्या पहले नहीं लौटी वह सात बजे तक। पर आज शरद के चढ़ाने पर डाँट दिया -‘हमेशा तो चार घंटे बैठती हो वहाँ, फिर और पहले ही क्यों नहीं गई... ये वक्त है घर लौटने का?‘ ...मन ही मन भुनभुनाई, पर कहीं अच्छा भी लगा, चलो कुछ ख्याल तो है... पहले तो कहीं भी आओ या जाओ... कुछ भी करो। न तो प्रशंसा ही मिलेगी न कोई आलोचना ही करेगा।<br /><br />और अब जब सचमुच डाँटने की बात है तो चुप लगा गया या क्या जाने, कल सबके सामने बोलेगा और सबसे डाँट सुनवाएगा... पता नहीं कैसी दुश्मनी है उससे... सोचती, सहमती जाने कब सो गई... लेकिन शरद ने तो फिर कोई चर्चा तक नहीं की।<br /><br />और अभी कैसे घूर रहा है, खा ही जाएगा जैसे। मन नहीं था तो क्यों आया? नहीं ले आता, तो कोई मर तो नहीं जाती वह... जोर से बोली, ‘तुम्हें अच्छा नहीं लग रहा क्या?‘<br /><br />अब जैसे अपने में लौटा वह... वही पुरानी अकड़... ‘हाँ! हाँ! बहुत अच्छा लग रहा है... सारे कपड़े भीग जाएंगे न तो और भी अच्छा लगेगा... चलो अब, बहुत हुआ प्रकृति-दर्शन।‘ -उपहास भरे स्वर में बोला।<br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://2.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S08bjn-SV4I/AAAAAAAAAXg/BgSJgrl6Aew/s1600-h/glade_1.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 258px; height: 320px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S08bjn-SV4I/AAAAAAAAAXg/BgSJgrl6Aew/s320/glade_1.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5426586374844340098" /></a><br />‘हे, भगवान! उसने तो ध्यान ही नहीं दिया। हवा के झोंकों के सहारे झरने से पानी की फुहारें सी पड़ रही थीं दोनों पर... कपड़े हल्के-हल्के सिमसमा आए थे।‘<br /><br />0000 <br /><br />‘तू उस दिन पार्टी में क्यो नहीं आई... तेरे इंतजार में कितनी देर तक केक नहीं काटा था मैंने।‘- स्वस्ति ने शिकायत की।<br /><br />‘अरे! उसी शरद महाराज का काम था, गाड़ी खराब थी। भैया को तो जानती ही है, मेरी सहेलियों के घर के तो जैसे ‘एलसेशियन-डॉग' रहते हैं, काट ही लेंगे उसे। और बस शरद ने चढ़ा दिया मम्मी को... ‘रात में अकेले कैसे जाएगी।‘ - कितनी मिन्नते की... बस आधे घंटे में चली आऊँगी पर नही तो बस नहीं। मैंने तो तेरे लिए जगजीत-चित्रा की सी॰डी॰ भी सुबह ही ले ली थी।‘<br /><br />‘अरे तू और गजल... कब से?‘ - उछल पड़ी स्वस्ति।<br /><br />‘क्यों?‘<br /><br />‘अरे! पहले तो तुझे बड़ी बोरिंग लगती थी?‘<br /><br />'पहले समझती जो नही थी' <br /><br />‘अय... हयऽऽ‘ नेहा गजलों में दिलचस्पी हो गई है, आपकी... क्या बात है, मैडम..?.‘ स्वस्ति ने शोखी से कहा तो मासूमियत से पूछ बैठी वह - ‘क्या बात होगी?‘<br /><br />उसका भोलापन देख आगे कुछ नहीं कहा स्वस्ति ने। पुरानी बात पर लौट आई -<br /><br />‘खैर, सफाई तो मैंने सुन ली, पर शरद के साथ तो आ सकती थी।‘<br /><br />‘अह! चल उस लंगूर के साथ‘ - उसने तेजी से कहा तो एकदम से उसकी आँखों में देख, स्वस्ति पूछ बैठी -‘एक बात पूछूं?‘<br /><br />‘क्या?‘<br /><br />‘ना, पहले बोल।‘<br /><br />‘कोई मैंने मना किया है।‘<br /><br />‘चाहे छोड़।‘<br /><br />‘ना... अब तो पूछना ही पड़ेगा।‘<br /><br />‘छोड़, पूछना क्या, मेरी बात का जवाब तेरी आँखें दे रही हैं... चल छत पे चलते हैं कितना सुहाना मौसम है।‘<br /><br />‘स्वस्ति, तेरी यही पहेलियोंवाली बातें, मेरी समझ में नहीं आती।‘<br /><br />स्वस्ति ने प्यार से नाक पकड़ हिला दी और गाल थपथपा दिए - ‘अब, सब समझने लगोगी, मैडम!‘ <br /><br />00000rashmi ravijahttp://www.blogger.com/profile/04858127136023935113noreply@blogger.com19tag:blogger.com,1999:blog-6953374982088960088.post-25389323478116624612010-01-11T05:33:00.000-08:002010-01-11T06:09:16.083-08:00और वो चला गया,बिना मुड़े....(लघु उपन्यास)--3<a href="http://4.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S0sqsJTGRNI/AAAAAAAAAUA/P_8gDoSa5CE/s1600-h/Paul-Cezanne-XX-Boy-in-a-Red-Vest-1888-1890-2%5B1%5D.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 160px; height: 200px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S0sqsJTGRNI/AAAAAAAAAUA/P_8gDoSa5CE/s200/Paul-Cezanne-XX-Boy-in-a-Red-Vest-1888-1890-2%5B1%5D.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5425477113996526802" /></a><br /><strong>(नेहा स्कूल की प्रिंसिपल है.अपने केबिन में अचानक शरद को आते देख चौंक जाती है.और उसे शरद से अपनी <a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2010/01/blog-post_08.html">पहली मुलाक़ात</a> याद आने लगती हैं.यह भी कि किशोरावस्था में वह कितनी शैतान थी.सबको कैसे तंग करती रहती थी.शरद ने जब उसके साथ एक छोटी बच्ची की तरह बर्ताव किया तो बहुत <a href="http://mankapakhi.blogspot.com/2010/01/blog-post_09.html#comments">नाराज़ </a>हुई थी वह)</strong><br /><br /><strong>गतांक से आगे </strong><br /><br />तभी मम्मी आई और चिंतित स्वर में बोलीं -‘बुआ की तबितयत, अचानक खराब हो गई है, रमण का फोन आया है, मुझे तुरंत जाना होगा, लौटने में शायद शाम हो जाए, गेस्ट-रूम शरद के लिए ठीक करवा देना। खाने में ये ये बनवा लेना और... और अपनी शरारतें जरा बंद रखना।‘<br /><br />वो ऽऽ मारा... इससे अच्छी बात भला और क्या हो सकती है। अब तो पूरा चार्ज ही मिल गया... चलो मि. शरद... आगे-आगे देखो, होता है क्या। प्रकट में बोली -‘मम्मी, बस ऐसे ही सब मुझे दोष देते हैं... क्या करती हूँ मैं, एक भी शिकायत मिले तो देखना।‘<br /><br />‘नहीं कुछ देखना-वेखना नहीं, मुझे मिलनी ही नहीं चाहिए-‘ मम्मी को कुछ सुनने की फुर्सत नहीं थी। तुरंत बाहर निकल गईं। <br /><br />खुशी से उछल पड़ी वह और अचानक पंचम सुर में अलाप उठी... ‘आ ऽ ऽ देखें जरा, किसमें कितना है दम, ख्याल आया तो हड़बड़ा कर चुप हुई।‘ <br /><br />कार स्टार्ट होने की आवाज आई तो वह झपटकर ड्राइंगरूम में आ गई। ऐसी चाय, भला चुपचाप पीने का मजा क्या? जल्दी से ढूढ़-ढ़ाँढ़ कर एक शास्त्रीय संगीत का सी.डी.लगा दिया । असली मजा तो अब आएगा जब वेस्टर्न म्युजिक पर थिरकने वाले को यह संगीत भी गटकना पड़ेगा। मुस्कराहट दबाते, एक पत्रिका में मुँह छुपाकर बैठ गई। <br /><br />कप रख, खड़े हो, शरद ने एक जोरदार अँगड़ाई ली (मानो, इस चाय ने सारी थकान दूर कर दी हो) और एक अदद मुस्कराहट के साथ पूछा -‘कब से शुरू किया है, ये शास्त्रीय संगीत सुनना ?‘<br /><br />जी में आता है, नोच कर फेंक दें इस मुस्कुराहट को। सच में अगर देखती रही तो कुछ न कुछ कर बैठेगी। इतना गुस्सा आता है, आज तक, इस तरह किसी ने उसके अस्तित्व को नहीं नकारा। पन्ने पर नजर गड़ाए ही रहस्यमय ढंग से बोली -<br /><br />‘कब्भी से नहीं।‘<br /><br />‘यही मैं भी सोच रहा हूँ।‘ -छूटते ही शरद बोला। <br /><br />‘क्या ऽ ऽ‘ - अब चैंकी वह।<br /><br />‘यही कि दूसरा कुछ नहीं मिला तो यही लगा दिया।‘<br /><br />‘जी ऽऽ नहीं, कब्भी से नहीं का मतलब, बचपन से ही सुनती आ रही हूं, डैडी को शौक है, कभी शुरू करने का सवाल ही नहीं‘ - उसने जरा जोर से कहा।<br /><br />शरद ने भी वैसे ही स्वर में चिढ़ाया -‘तो, नेहा जी, अभी डैडी होते ना, तो आपने जम कर डाँट खायी होती।‘<br /><br />ओह! कैसे बोल रहा है, जाने कब से जान-पहचान हो। <br /><br />‘क्यों ऽ ऽ ऽ‘ भौं चढ़ाई उसने। <br /><br />‘पगली, ये राग, रात में सुना जाता है, औरा तुम दिन में दस बजे लगाए बैठी हो - डाँट नहीं खाओगी तो क्या तारीफ करेंगे कि बिटिया रानी को बड़ी समझ है, संगीत की।‘<br /><br />अब इस आदमी से लड़ा जा सकता है भला, इतने अपनत्व और प्यार से बोल रहा है, जैसे युगों से परिचित हो। जी में आया, पत्रिका फेंक-फांक खूब गप्पे मारे, जैसे शर्मा अंकल से करती है। उन्हीं जैसा नहीं लगता वह। लेकिन वे तो अंकल हैं - लेकिन ये साहब क्या हैं, बमुश्किल चार साल बड़े होंगे उससे और रौब ऐसे मार रहे हैं जैसे चालीस साल बड़े हों। उससे सही नहीं जाएगी, ये बाॅसिंग।<br /><br />देखा, मनोयोग से रेकाॅर्ड छाँटनें में लगा है -‘ये राग तो ‘कुमार गंधर्व‘ का पसंदीदा राग है, सुन कर सब कुछ भूल जाए, आदमी, अंकल को शौक है, तब तो जरूर होना चाहिए।‘ वह उसकी तरफ पीठ किए ही बोल रहा था। चुपके से चली आई, वह। अब बतियाते रहें, दीवार से। लेकिन कुछ भी, कहेा- है, नं. वन बेवकूफ... इसमें संदेह नहीं, विश्वास कर ही लिया कि उसकी शास्त्रीय संगीत में रुचि है। ... रुचि है खाक... उसने तो ‘कुमार गंधर्व‘ का नाम तक नहीं सुना।<br />***<br />फिर नाश्ते खाने में खिलवाड़ करने की हिम्मत नहीं हुई उसकी... इसका क्या है, ये तो लक्कड़ हजम, पत्थर-हजम है... कुछ भी चबा लेगा। कहीं बीमार-वीमार पड़ गया तो वो जम भी जाएगा, दस दिन और डॉक्टर की फीस भरनी पड़ेगी, सो अलग, और उसकी जो लानत मलामत होगी, उसकी ते कल्पना ही बेकार है।<br /><br />लेकिन इस बार दूसरा ही हथकंडा अपनाया, जी भर कर उपेक्षा की। रघु ने पूछा भी, कमरा ठीक करने की बाबत... तो टाल गई... सामान वैसे ही पैसेज में पड़ा रहा। खाने के टेबल पर भी ऐसे मुँह बना रखा जैसे उसके साथ एक टेबल पर बैठकर अहसान कर रही हो। लेकिन उसकी उपेक्षा की परवाह भी किसे थी। उन आठ दिनों में लगता है, खूब रंग जमा गया था क्योंकि सुमित्रा काकाी के पोते के हालचाल से लेकर रघु के जमीन के झगड़े सबके विषय में खूब घुलमिलकर आधिकारिक ढंग से बातें कर रहा था। इन लोगों से व्यक्गित तौर पर कभी किसी ने बातें नहीं कीं इसलिए बड़ी खातिर-तवज्जो हो रही थी, शरद की। उसने कुछ भी हिदायत नहीं दी थी पर, डायनिंग टेबल स्वादिश्ट व्यंजनों से लदा पड़ा था।<br /><br />सुमित्रा काकी का वात्सल्य भाव उमड़ा जा रहा था -‘ई ‘मलाई कोफ्ते‘ तो लो, खास तुमरे वास्ते बनायी है।‘ वह चुपचाप रोटी टूँगती रही। शरद ने उसे भी बातें में समेटने की कोशिश की -‘अ ऽ ऽ नेहा, जरा वो डोंगा इधर बढ़ाना तो।‘<br /><br />उसने हाथ रोककर रघु को आवाज दी और चेहरा पूरी तरह निर्विकार रखे... कहा-‘ये डोंगा, जरा उधर बढ़ा दो।‘<br /><br />रघु के हाथ खाली नहीं थे। शरद ने तुरंत कहा -‘रहने दो... रहने दो... ले लेता हूँ, मैं। और आधा उठकर खींच लिया डोंगा अपनी तरफ। आवाज में कोई गिला-शिकवा नहीं। चेहरे पर एक शिकन तक नहीं... आराम से सब्जी डाल रहा था अपनी प्लेट में। लेकिन काकी ने उसकी चुप्पी गौर की।‘ <br /><br /><br />‘ई नेहा बिटिया को का हुआ आज? कौनो सहेली से लड़ाई हो गई का?‘ - हँह, इन शरद महाराज से नहीं हो सकती ना। जाने कितना रूतबा जमा गया है, एक हफ्ते में ही। <br /><br />वह कुछ बोलती कि मजे से अंगुलियां चाटता, शरद बोला -‘तुम्हारी नेहा, बिटिया का टाँसिल बढ़ गया है... आह! चटनी तो तुम क्या खूब बनाती हो, काकी। ‘लिटरली‘..लोग. अंगुलियां चाटते रह जाए ‘लिटरली ?? खूब समझ रही होंगी, काकी।<br /><br />‘अउर ई मजे में दही खा रही है, मालकिन नहीं है तो?‘ - काकी बोलीं।<br /><br />‘किसका टाँसिल बढ़ गया है‘ - तेज स्वर में कहा उसने।<br /><br />‘ओह! साॅरी गला ठीक है, दरअसल जब मेरा टाँसिल बढ़ जाता है तो मुझे बोलने में बड़ी तकलीफ होती है, तुम इतना कम बोल रही थी तो मैंने सोचा, शायद... ‘ और एक विशुद्ध निर्दोष हँसी।<br /><br />‘हुँह! सोचने की दुम, जितना दिमाग होगा, उतना ही तो सोचोगे...‘ मन ही मन भुनभुनाते हुए एकबारगी ही कुर्सी ठेल उठ खड़ी हुई। यह भी नहीं देखा, शरद ने खाना खत्म किया भी है या नहीं।<br />***<br />अपने रूम में बिस्तर पे लेट, एक बुक उठा ली... तभी ध्यान आया शरद को तो आराम करने की कोई जगह बताई ही नहीं... रघु ने पूछा भी था... कमरा ठीक करने की बाबत... पर वह टाल गई थी। एक बार जी में आया... चलकर कमरा ठीक करवा ही दे... और व्यंग से मुस्करा दी... आखिर ‘अतिथिदेवो भव‘ और अतिथि-सत्कार तो परम धर्म है। पर यह विचार शीघ्र ही दूध की उफान की तरह बैठ गया। चलो भी, जब से आया है, उसे बना रहा है... और उसके आराम की फिक्र करती रहे वह। बहुत कष्ट हो रहा है तो अपना बैग उठाए और रास्ता नापे... और किताब में खो गई वह।<br /><br />आँखें खुली तो पसीने से तर-ब-तर थी... ओह! ये पावरकट तो जान लेकर रहेगा एक दिन... पता नहीं कब किताब पढ़ते-पढ़ते आँख लग गई थी उसकी। बहुत देर तक ठंढे पानी से हाथ-मुंह धोती रही। अचानक ध्यान आया जरा इन महाशय का हाल देखें... और जो देखा तो ईष्र्या से भर उठी... लान में झूले पर लेटा... शरद ठंढी-ठंढी हवाओं के झोकों का मजा लेता... एक मोटी सी किताब में डूबा था।<br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S0srDHMDTsI/AAAAAAAAAUQ/eIFeBH-L8O4/s1600-h/Paul-Cezanne-XX-Boy-Resting-1890%5B1%5D.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 165px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S0srDHMDTsI/AAAAAAAAAUQ/eIFeBH-L8O4/s200/Paul-Cezanne-XX-Boy-Resting-1890%5B1%5D.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5425477508567092930" /></a><br /><br />जी तो उसका भी कर रहा है, जरा लाॅन में टहले तो कुछ राहत मिले... पर वो हजरत जो वहां जमे हैं। टपक ही पड़ेंगे और आखिर कब तक वह अपना मुँह बंद रखेगी वह भी अकारण।<br /><br />एक फैसला लिया... अब कोई मतलब नहीं रखना उसे, शरद से... मरे या जीए... रहे या जाए... उसकी बला से... ओफ्!! सुबह से खुलकर हंसी तक नहीं और वह शर्मिला का नं. मिलाने लगी।<br /><br />और अपने फैसले पर अटल भी रही। सबसे काट लिया खुद को। पर यहाँ परवाह भी किसे थी ? सारा घर ही शरद के गिर्द सिमटा जा रहा था। शरद के मित्र साहब भी अब तशरीफ ले आए थे। <br />***<br />जब दसरे दिन शरद ने जाने की पेशकश की तो भैया ने उसकी छुट्टी का पूरा प्लान बनाकर रख दिया। यहाँ तक कि शरद की मम्मी को भी फोन कर के इजाजत माँग ली... और एक हफ्ते के लिए शरद को रोक लिया।<br /><br />यह देख अच्छा भी लगा अैर रूआँसी भी हो गई, लड़कियों में इतनी निश्छल दोस्ती क्यों नहीं होती? एक-दूसरे पर इतना अधिकार क्यों नहीं होता?<br /><br />भैया का तो खैर वह दोस्त ही था। पर मम्मी को तो जैसे नया बेटा ही मिल गया था। कभी भैया से इतनी सहजता से बातें करते नहीें देखा। कभी बाजार का काम कहतीं भी तो हिचकते हुए। पर शरद से तो बड़े अधिकार से नापसंद चीजें लौटा लाने को भी कह डालतीं। और शरद भी इतना घुल मिल गया था कि आराम से कह डालता ...‘ओह! आंटी... क्या फर्क है इन दोनों रंगों में... आपने कहा ‘ग्रीन कलर‘ और मैंने ला दिया।‘<br /><br />मम्मी भी खीझकर बोलतीं -‘हाँ! ये ‘पैरेटग्रीन‘ और ‘बाॅटलग्रीन‘ में तुम्हें कोई अंतर नजर नहीं आ रहा न। ... ‘पैंरेटग्रीन और क्रीम कलर का स्वेटर बना दूँ तो अंकल गले में डालना तो दूर, घर में देखना भी पसंद नहीं करेंगे... चलो चैंज करके लाओ इसे।‘<br /><br />मम्मी और भैया के अलावा शरद के प्रशंसकों की एक फौज ही थी - रघु, सुमित्रा काकी, माली दादा... सब शामिल थे... पर इन सबको छोड़ वह तो डैडी से भी गप्पे लगा लेता। जबकि वह और भैया बाहर चाहे जितनी उधम मचा लें। डैडी के सामने तो भीगी बिल्ली ही बन जाते हैं। डैडी के रौबीले व्यक्तित्व ने कभी इतनी छूट ही नहीं दी। पर शरद के लिए तो जैसे सात खून माफ थे। वह तो डैडी के सामने ही आराम से कुर्सी उल्टी कर उसके पीठ पर ठुड्डी टिकाए बातें करता रहता और आश्चर्य!! डैडी कुछ भी नहीं कहते। जबकि इतने सलीके पसंद डैडी, मेहमानों तक की ज्यादती बर्दाश्त नहीं कर पाते। पर शरद का व्यवहार इतना बेलौस था कि क्या कहे कोई... कैसे कहे कोई??<br /><br />अब तो बातों का सिलसिला डायनिंग टेबल पर भी नहीं छूटता। पूरे जोश-ओ-खरोश के साथ... व्यंजनों की प्रशंसा की जाती है, नुक्स निकाले जाते हैं, सुझाव दिए जाते हैं, साथ ही फमाईशें भी की जाती हैं। वरना सिर्फ प्लेट, चम्मचों की खनखनाहट के बीच मन भर मुँह लटकाए जल्दी-जल्दी कौर निगलता याद है उसे। अब मम्मी भी तो कितने शौक से नई-नई डिश बनाती है... जबकि पहले तो जैसे रस्मपूर्ति होती थी।<br /><br />पर इन सबके बीच रह-रह कर कुछ काँटे सा चुभ रहा था... बहुत ही आहत हो उठी थी वह। गौर किया... यहां तो शरद की उपेक्षा के चक्कर में खुद उसी की उपेक्षा हुई जा रही है। यूँ पहले भी घर में कोई खास बातचीत तो नहीं थी पर तब तो किसी की किसी के साथ नहीं थी। और जिसकी उपेक्षा करने की कोशिश कर रही है, उसे तो इलहाम तक नहीं। एकमात्र वही पूरे अधिकारपूर्ण ढंग से बातें करता -‘नेहा, जरा आज का न्यूजपेपर दे जाना तो‘ - या - बाबा रे! इतना पढ़ती है लड़की, टाॅप भी किया तो क्या तारीफ? (अलग-थलग दिखने की यही तो तरकीब है, हर वक्त किताबें थामे रहो।)<br /><br />और एक बार जब उसे पेन चाहिए थी तो बेझिझक उसके कमरे में पहुँच गया... और ... ‘अरे! यहाँ नाॅवेल पढ़े जा रही है, और हमलोग सोच रहे हैं... रानी बिटिया ‘कार्ल माक्र्स‘ को घोंट रही है। ये शाम का वक्त कोई पढ़ने का है, चलो बाहर।‘ ... और जबरदस्ती बाहर ले आया था उसे। याद नहीं पड़ता... कभी भैया ने उसके कमरे में पैर भी रखा हो।<br /><br />फिर तो पूरी तरह शामिल हो गई, वह भी... यहाँ इंकार भी किसी था? और अब लगता है, यह ईंट-गारे-सीमेंट से बना निर्जीव मकान नहीं... अहसासों, भावनाओं से धड़कता घर है। यूँ चहल-पहल पहले भी रहती थी... उसकी सहेलियों की चहचहाटों से, भैया के दोस्तों की धमाचैकड़ी से या पापा के मित्रों के छतफाड़ ठहाके से... ऐसा कभी नहीं हुआ कि घर के चारों जन मिल बैठें और लफ्फजी गुलछर्रे उड़ा रहे हों।<br /><br />मम्मी की तो पूरी शख्सियत ही बदल गई, लगती थी। कभी भी उन लोगों ने मम्मी को घर की साज-संभाल से अलग या किचेन से परे देखा ही नहीं। शरद बड़े आराम से मम्मी से राजनीति, साहित्य, संगीत यहाँ तक कि फिल्मों के विषय में भी बातें करता रहता और वह आश्चर्यचकित रह जाती, मम्मी इतनी वले-इ-फाॅर्म्ड है, इन सब विषयों पर। उस दिन जब क्रिकेट की चर्चा छिड़ी थी और न उसे, न शरद को न भैया को ही याद आ रहा था कि ‘ओवल टेस्ट‘ में भारत कितने रनों से जीतते, जीतते रह गया था तो मम्मी ने बिना नींटींग पर से नजरें हटाए ही कहा था -‘नौ रन‘ आश्चर्य से मुँह खुला रह गया था, उसका। भैया ने भी चकित होकर पूछा था -‘मम्मी तुम और क्रिकेट?‘<br /><br />हँस पड़ी थी मम्मी। -‘क्यों चैबीस घंटे टीवी आॅन रहता है, फुल वाॅल्यूम में कमेंट्री चलती रहती है तो क्या मैं आँखों पर पट्टी और कानों में रूई डाले बैठी रहती हूँ - और उसे ध्यान आया। सच ही तो है घर में इतनी सारी पत्रिकाएं, न्यूजपेपर आते हैं और मम्मी पढ़ती भी खूब है। वे लोग तो यह भी भूल चले थे कि मम्मी अपने जमाने की फस्र्ट क्लास एम ए हैं। जो गिने चुने लोग ही होते थे एम ए।<br /><br />अब लगता है, यह घर का यही माहौल वह भी तो चाहती थी, लेकिन किसी से सहयोग मिले, तब तो। डैडी के लिए तो घर का मतलब था, पेपर, ब्रेकफास्ट, डिनर (लंच वे आॅफिस में लिया करते थे) और नींद... बस। और मम्मी इतना कम बोलतीं - सिर्फ काम की बातें, बस। और भैया को रौब जमाने से ही फुर्सत नहीं। महीने में दस दिन तो उसके साथ लड़ाई ही रहती... रौब तो ये शरद भी कम नहीं जमाता, पर दूसरे ही पल मना भी लेता है, अपनी गलती मान भी लेता है। जबकि भैया... हुँह! हार कर खुद जातीं बातें करने और तब ऐसे बोलता जैसे अहसान कर रहा हो।<br /><br />पर अब तो आराम से ताश की बाजी जमती, बरसों बाद कैरम की धूल झाड़ी गई... भैया भी उदार हो लेता है। बरना लूडो तक कभी नहीं खेला उसके साथ<br /><br />बाहर निकली, तो देखा शरद कैरम की गोटियाँ जमा रहा है। भैया... मनपसंद गानों की सीडी ढँूढ़ने में लगे थे। उसे आदेश दिया शरद ने... ‘अपने लिए, एक चेयर लेकर आओ।‘<br /><br />‘पर तीन जन कैसे खेलेंगे!‘<br /><br />‘कयों तुम नहीं खेलोगी, शर्मिला टैगोर का बुलावा आ गया क्या?‘<br /><br />‘जी नहीं।‘<br /><br />‘ओह! समझा... जूही चावला तशरीफ ला रही हैं।‘<br /><br />’’नहीं बाबा’’<br /><br />अच्छा तो; पूनम ढिल्लों से मिलने जा रही हो ? <br /><br /><br />‘ओफ्फोह! कह तो दिया... न कोई आ रही है, न मैं कहीं जा रही हूं, (अब उसकी तीन सहेलियों के नाम, फिल्म एक्ट्रेसों से मिलते थे, तो उसका क्या कसूर, पर शरद को तो जैसे ये नाम रट गए थे, हर दो मिनट में दुहरा लेता) ... पर हमलोग सिर्फ तीन हैं, कैसे खेलेंगे?‘<br /><br />‘क्यों, तीन क्यों?? आंटी कहाँ गईं?‘<br /><br />‘मम्मी ऽ ऽ खेलेंगी‘ हँसी छूट गई उसकी तो। <br /><a href="http://3.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S0svK1U-RMI/AAAAAAAAAUY/d2XU0c3_1GI/s1600-h/R38GCALY0CMACAY8AI34CA1UX8SGCAFH97KHCA4REXVJCAOH7N4ICABIY4LPCARU1EDICAD4E7OVCAHAF0W5CA4MVM52CAOVN100CA59DLLPCAIV6U6ACA40IM8KCANQZ753CA51ZB3WCAE2A1N5CA8LDKSC.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 135px; height: 101px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S0svK1U-RMI/AAAAAAAAAUY/d2XU0c3_1GI/s200/R38GCALY0CMACAY8AI34CA1UX8SGCAFH97KHCA4REXVJCAOH7N4ICABIY4LPCARU1EDICAD4E7OVCAHAF0W5CA4MVM52CAOVN100CA59DLLPCAIV6U6ACA40IM8KCANQZ753CA51ZB3WCAE2A1N5CA8LDKSC.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5425482039258137794" /></a><br />‘क्यों नहीं खेलेंगी, हमलोग तो यहाँ जमे हैं, अकेली क्या करेंगी वो?‘<br /><br />मम्मी भी कहाँ तैयार थीं। टालने की कोशिश की, पर एक नहीं माना शरद -‘‘इसमें क्या है, यों स्ट्राइकर पे हाथ रखा और यों मारा शाॅट कम से कम इस गिलहरी से तो अच्छा ही खेलिएगा।‘<br /><br />और सचमुच जब मम्मी ने दूसरे ही शाॅट में क्वीन कवर कर लिया तो उसने भी घोषणा कर दी, अगले चांस मे वह और मम्मी पार्टनर रहेंगी। <br />***<br />शरद आठ दिन रहकर, मौज-मस्ती कर चला गया पर सबको जैसे एक सूत्र में पिरो गया। उसे डर था... शरद के जाने के बाद कहीं घर वापस पुराने ढर्रे पर न लौट पर नहीं, डैडी एक बार खुले तो फिर पुराने उधड़े स्वेटर सा परत दर परत खुलते ही चले गए। अब पहले से जल्दी घर भी तो लौटने लगे हैं। आदमी की व्यस्ततम जिंदगी में भी एक कोना ऐसा होता है... जिसकी पूर्ति घर-परिवार में ही हो सकती है।<br /><br />भैया भी खूब दिलचस्पी लेने लगा है, घर में... पिक्चर, पिकनिक... चारों इकट्ठे जाते तो पैर नहीं पड़ते उसके जमीन पर। पहली बार भैया के हास्टल जाने पर चीजें देर तक धँुधली नजर आती रहीं।rashmi ravijahttp://www.blogger.com/profile/04858127136023935113noreply@blogger.com18tag:blogger.com,1999:blog-6953374982088960088.post-67235651252906409552010-01-09T05:29:00.000-08:002010-01-09T05:37:37.284-08:00और वो चला गया,बिना मुड़े...--२ (लघु उपन्यास)<strong>गतांक से आगे<br /> (नेहा स्कूल की प्रिंसिपल है.अपने केबिन में अचानक शरद को आते देख चौंक जाती है.और उसे शरद से अपनी पहली मुलाक़ात याद आने लगती हैं.यह भी कि किशोरावस्था में वह कितनी शैतान थी.सबको कैसे तंग करती रहती थी.सड़क छाप रोमियो से भी लोहा ले लेती थी )</strong><br /><a href="http://2.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S0iFHvHFarI/AAAAAAAAARM/217qPrOec3M/s1600-h/7port30b%5B1%5D.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 138px; height: 200px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S0iFHvHFarI/AAAAAAAAARM/217qPrOec3M/s200/7port30b%5B1%5D.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5424732119119522482" /></a><br />लाॅन में कुर्सी डाले मम्मी के साथ बैठी थी। मम्मी एक मोटे से उपन्यास में डूबी थीं उसने भी अपनी नोटबुक खोल रखी थी पर जी नहीं लग रहा था पढ़ने में। <br /><br />बोर हो चली थी, निगाहें भटक रही थीं कि कोई शगल मिले कि जानकी माँ को देखते ही उसकी बाँछें खिल गई। अब तो घंटा भर आराम से कट जाएगा... जानकी माँ थी ही इतनी गप्पी। पूरे उछाह से स्वागत किया... ‘हाँ जानकी माँ! आज लग रहा है कोई नानी या दादी माँ तशरीफ ला रही है... हर चीज उम्र पर शोभा देती है। देखो तो कितनी गरिमामय लग रही है... वो सब क्या पहन लेती थी... झुमका, हँसुली, पायजेब.. देर से ही सही मेरी बात समझ में तो आई।‘<br /><br />जानकी माँ को हमेशा जेवर, बिंदी, आलता से सजी देख और श्रृंगार का बेतरह शौक देख अक्सर टोक देती थी... ‘अब यह सब बंद कर अपनी बहुरिया को दे दो... दुल्हन आ गई है घर में, कब तक दुल्हन बनी रहोगी?‘<br /><br />अगर जानकी माँ का मूड ठीक रहता तो कहतीं-‘ई सब सुहाग का चीज है बिटिया...‘ और सूप रख हाथ जोड़ माथे से लगा लेती -‘एही बिनती है भगवान से... ऐसे ही सिंगार-पटार करते उठा लें।‘ और जो मूड जरा गड़बड़ हुआ तो बोलतीं -‘अबही से हम कवन बुढ़िया हो गई, पचास भी नहीं लगा है... और उ सब जो साठ-पैंसठ की बुढ़िया सब केस रंगे, ओठ रंगे... चमचम साड़ी गहना पहने रहे तो ठीक?? काहे न... बड़कन के घर के लोग हैं न‘... और उसे मान लेना पड़ता... बात तो ठीक है।<br /><br />लेकिन आज उसने आँख उठाकर भी न देखा और स्थिर कदमों से आती... मम्मी का घुटना पकड़ जोरों से बिलख उठीं... ‘हम तू लुट... गए मालीकन... जानकी के बाबू बड़ा सवारथी निकले... बीच मझधार में छोड़ कर हमको चले गए। अब अकेले कैसे जीएँगे हम... कौनो सहारा नहीं रहा।‘<br /><br />सन्न रह गई वह। वह तो उसे यों सादी-सादी देख वह सब बोल गई। उसके सादे रूप के पीछे यह कारण होगा... ऐसा तो सपने में भी ख्याल नही आया। अवाक हो जड़ बनी बैठी रही। अनजाने ही कितना दिल दुखाया इस निरीह नारी का।<br /><br />मम्मी ने जब भीतर से पर्स लाने को कहा तब तंद्रा टूटी उसकी - पर्स दे घास पर ही बैठ गई। भीगे स्वर में बोली... ‘गलती से जाने क्या निकल गया मुँह से, तुम ध्यान मत देना, जानकी माँ। मुझे कुछ मालूम नहीं था।‘<br /><br />जानकी माँ उसे पकड़ दिल चीज कर रख देेनेवाली आवाज में रो पड़ी। उसकी आँखें भी भीगती चली गईं। <br /><br />बाद में भी जाने कब तक अवसन्न सी बैठी रह गई। मम्मी के टोकने पर अपराधी स्वर में बोली थीं... ‘मम्मी उसने रंगीन साड़ी पहनी थी न, इसीलिए मेरे दिमाग में यह बात आई ही नहीं... उसे तो... ऐसे में तो सफेद साड़ी पहननी चाहिए न।‘<br /><br />‘वो ऽ ऽ गरीब कहाँ से लाएंगी सफेद साड़ी, सबकी उतरन ही तो पहनती हैं... जिसने जैसा दे दिया... इन्हें तो शायद ‘कफन‘ ही नया नसीब होता है... लोकाचार भी सब पैसे वालों को चोंचले हैं।‘ - मम्मी ने समझाया।<br /><br />सुबह उठी तब भी ये भारीपन दिलो-दिमाग पर तारी था। कल वाली घटना भुलाए नहीं भूल रही थी। इसलिए मन बदलने की खातिर लाॅन में चलीं आई। सुनहरी धूप, हरी दूब, उसपर झिलमिलाते ओसकण... सब मिलकर एक अलग ही छटा प्रस्तुत कर रहे थे कि... शरद को प्रवेश करते देख उसका शरारती दिमाग पैंतरे लेने लगा।<br /><br />रस्ते के दोनों ओर झूलते डहेलियां औरों की तरह शरद को भी मोह रहे थे। और वह रूक-रूक कर कुछ झुकते हुए बड़े गौर से उन्हें देखते हुए आगे बढ़ रहा था। <br /><br />धीरे से पीछे जाकर उसने बड़े पुराने परिचित की तरह गर्मजोशी से कहा -‘हल्लो!!! मि. शरद... ‘ आशा थी हड़बड़ा कर पलटेगा तो एक खनकती हुई हँसी उसे और भी स्तंभित कर देगी। लेकिन उसने तो धीमे से नजरें घुमायीं और उसका जायजा लेता हुआ हल्के से हँस कर बोला... ‘हलो! आपकी तारीफ।‘ जैसे कोई बड़ा बुजुर्ग शरारती बच्चे की नादानी पर हँसता है।<br /><br />खीझ गया उसका मन, ऐंठ कर बोली-‘जितनी भी की जाए कम है।‘<br /><br />‘करेक्ट.. बिल्कुल सही‘ उसकी बात खत्म भी न हुइ कि बोल उठा वह -‘आज के युग के लिए ‘अपना काम स्वयं करो‘ की जगह ‘अपनी प्रशंसा आप करो‘ वाला सूत्र ही ठीक रहेगा... वरना यहाँ दूसरों के लिए मर-खप जाओ.. पर तारीफ के दो बोल न फूटेंगे किसी के मुख से.. बिल्कुल प्रैक्टीकल बात की तुमने... आई एप्रीशिएट।‘<br /><br />‘हम्म् तो बच्चू को बालेना भी आता है। देखती हूँ कब तक जुबान साथ देती है। और उसने अपना नुस्खा नं. 1, आजमाया। यानी किसी को बुरी तरह काॅशस कर देने वाली दृष्टि से घूरना कितनेा को पानी पिला चुकी थी वह अपने इस हथियार से। भैया के एक दोस्त तो इस कदर परेशान हो गए थे कि दो मिनट में ही मैदान छोड़ गए थे। ये कहते हुए कि ... ‘एक जरूरी काम याद आ गया है.. निलय से बाद में मिल लूँगा।‘ और हफ्ते भर सूरत नहीं दिखाई थी उन्होंने। बहुत बाद में बताया था कि कभी लगता उल्टा शर्ट पहन कर चले आए हैं... या बालों में कंधी करना भूल गए है... या शायद चेहरे पर कुछ लगा हुआ है... और भागकर दस मिनट तक प्रत्येक कोण से निहारते रहे थे खुद को, आईने में।<br /><br />शर्मा आंटी तो आते ही हथियार डाल देती - ‘भई, इस तरह मत देखा कर, कुछ गड़बड़ हो तो पहले ही बता दे।‘<br /><br />यहाँ भी वह भौं चढ़ाए, माथे पर बल डाले, सामने वाले का निरीक्षण करती रही थी। एक पल को तो शरद भी काँशस हो ही गया था, लेकिन दूसरे ही क्षण असलियत समझ हँस पड़ा... ‘ऐसे क्या देख रही हो, भई, पागलखाने से नहीं छूटा हूँ... और आसपास कोई अजायबघर भी तो नहीं... सीधा रेलवे स्टेशन से आ रहा हूँ।‘<br /><br />ओह!... कोई फड़कता सा जबाब देना चाहिए और कुछ सूझ ही नहीं रहा... ‘थैंक गाॅड! मम्मी ने उबार लिया। आवाज सुनते ही बाहर निकल आई थीं। शरद उन्हें देख पांवों तक झुक आया। बस अब तो मम्मी के ‘गुडबुक‘ में नाम दर्ज हो गया। यह अप-टू-डेट लिबास और यह विनीत भाव। गदगद हो गईं होंगी मम्मी तो... हो ही गईं... पीठ थपथपाते हुए अंदर ले गई... कुशल-क्षेम पूछती रहीं... बातों से पता लगा जनाब उसकी अनुपस्थिति में पूरे दस दिन यहाँ की मेहमानवाजी का लुत्फ उठा गए हैं। (सुना तो था कि भैय्या का कोई दोस्त आया था, पर वो तो बचपन से देख रही है, हाॅस्टल से कोई न कोई दोस्त भैय्या के साथ आया ही करता थ) ... आंटी इधर से गुजर रहा था तो बिना मिले जाना अच्छा नहीं लगा... और आपकी नाराजगी का डर तो था ही... अच्छा! ये नियल कहाँ है? (भले आदमी को इतनी देर बाद अपने दोस्त की सुध आई है) ... बताने पर खड़े अफसोस भरे स्वर में बोला -‘कल लौटेगा?? तब तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। सोच रहा था आज रात की ट्रेन से निकल जाऊँ।‘<br /><br />वह चैंकी... सोच रहा था... क्या मतलब... यानी अब जमोगे। मम्मी बड़े लाड़ से बोल रही थीं -‘अरे, ऐसे कैसे... कुछ दिन रूको, फिर जाना।‘<br /><br />हुँह। कुछ दिन?? इनको रूखसत करने के लिए तो कुछ मिनट ही काफी होंगे। वह भी इसलिए कि खाल जरा मोटी है। वरना अनचाहे लोगों को तो वह दो पल में ही दरवाजे का रूख करवा देती है और मजा ये कि वे खुद ही शीघ्रतिशीघ्र दरवाजे की तरफ कदम बढ़ाने को उत्सुक होते हैं।<br /><br />तभी अचानक ख्याल आया वह तो बिल्कुल उपेक्षित खड़ी है, चुपचाप... क्यों... खड़ी है। क्यों खड़ी है भला? बहुत बेटा-बेटा कर रही है हैं, मम्मी... तो करें अपने बेटे का स्वागत... दोनों में से जरा सा किसी को भी गुमान नहीं कि... वह भी खड़ी है यहां। और वह पलट कर चल दी। जाने उसके पलटने के अंदाज ने ही उसके मन की बात उजागर कर दी या क्या कि दोनों ने अचानक उसकी तरफ पलट कर देखा (ठीक ही तो कहती है स्वस्ति, नेहा सिर्फ तेरा चेहरा ही आईना नहीं बल्कि तू खुद एक आदमकद दर्पण है... तेरे हाव-भाव तक तेरे मन की झलक दे जाते हैं।) मम्मी ने तुरंत कहा -‘यही है, नेहा।‘<br /><br />‘वह तो मैं देखते ही समझ गया था।‘ सोफे पर थोड़ा और फैलते हुए बोला, साथ ही वही बुर्जुगाना मुस्कुराहट। तिलमिला कर रह गई वह... हुँह! देखते ही समझ गया था। नाम लिखा है ना, उसका चेहरे पर - झूठ की भी हद होती है। वह सिर झटक कर चल दी!<br /><br />माँ का नाराजगी भरा स्वर भी उभरा... ‘नेहाऽऽ!‘ परवाह नहीं।<br /><br />जाते-जाते सुना शायद माँ ने नाश्ते के लिए पूछा था क्योंकि जनबा फरमा रहे थे... ‘आंटी, नाश्ता-वाश्ता तो बाद में अभी तो बस एक कड़क चाय चलेगी। स्टेशन का चाय ने मुँह का जायका बिगाड़ कर रख दिया।‘ - हद है, लोग कहते हैं नाश्ता-वाश्ता छोड़िए सिर्फ चाय मँगवाइए और ये... कटसी तो है ही नहीं जरा भी।<a href="http://2.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S0iFc5scshI/AAAAAAAAARc/DkDvoCN3yXA/s1600-h/TEA+WITH+ROYAL+DALTON+OLD+ENGLISH+ROSE%5B1%5D.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 189px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S0iFc5scshI/AAAAAAAAARc/DkDvoCN3yXA/s200/TEA+WITH+ROYAL+DALTON+OLD+ENGLISH+ROSE%5B1%5D.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5424732482737844754" /></a><br /><br />सर हिलाया उसने... चलो ठीक है, रघु बाजार गया है और सुमित्रा काकी गेहूँ धो रही हैं। चाय तो उसे ही बनानी होगी। ऐसी चाय पिलाएगी, बच्चू जीवन भर याद रखोगे। ठीक ही सोचा था, माँ थोड़े देर में आईं और चाय का आदेश दे चली गईं। आश्चर्य चकित भी हुईं कि बिना ना-नुकुर किए इतनी सहजता से कैसे तैयार हो गई वह।<br /><br />पूरे मनोयोग से चाय बनायी उसने। इतनी एकाग्रता से उसे काम करते देख लें तो मम्मी, डैडी, भैया, रघु, सुमित्रा काकी सब गदगद हो जाएं। चाय में बस थोड़ी काली मिर्च छिड़की हल्का सा नमक मिलाया, पास रखी मसाले की शीशियों में से जरा-जरा सा डाला और चम्मच हिलाती हुई पहुँच गईं।<br /><br />परदे के पास पहुँची ही थी कि सुना -‘अब तो बस तीन महीने की ट्रेनिंग बाकी है न... इतनी कम उम्र में सेकेंड लेफ्टिनेंट बन जाओगे... बहुत ही अच्छा कैरियर चुना...‘<br /><br />हाथ कांप गया उसका। गाॅड, ये चिकने-चुपड़े वाला लड़का लेफ्टिनेंट है... ना चेहरे पर कोई कठोरता... ना आवाज ही रौबदार क्या जाने उसने ध्यान न दिया हो। ना बाबा... ये चाय नहीं देगी... कौन जाने ‘कप‘ पटक दे और चीखने-चिल्लाने लगे तो? रिवाॅल्वर भी जरूर होगी इसके पास... घर में कोई है भी नहीं। कहीं शूट-वूट कर निकल भागे तो? बाप रे! इन लोगों का गुस्सा भी मशहूर है। कोई आँच तो इन पर आएगी नहीं... जिस तरह इन लोगों का मन बढ़ा हुआ है, जो जी में आए कर डालो और खूबसूरती से उसे एक ‘एनकाउंटर‘ का नाम दे दो। - एक क्षण में ही खुराफाती दिमाग यह सब सोच गया... लेकिन अब करती भी क्या एक पैर अंदर रख चुकी थी।<br /><br />‘डरते-डरते कप‘ टेबल पर रख ही रही थी कि बीच में ही थाम लिया शरद ने और मुस्कुराते हुए पूछा -‘किस स्कूल में हो?‘<br /><br />सिर से पाँव तक लहक उठी वह। सारा डर जाने कहाँ उड़ गया। बहुत अच्छा किया जो ऐसी चाय बना लाई। अभी लौटा ले जाती तो कितना अफसोस होता... इसी लायक है वह ‘लेफ्टिनेंट बनने जा रहा है, हुँह! शक्ल तो देखो जरा, ऐसा लगता है, जैसे ए बी सी डी सीख रहा है... और उसे स्कूल में समझता है... हुँह!‘<br /><br />गुस्से से तमतमाता चेहरा लिए कुछ बोलने जा ही रही थी कि माँ हँस पड़ी -‘अरे! वह बी ए पार्ट टू में है, तुम्हें इतनी बच्ची लगती है।‘<br /><br />‘अच्छा ऽ ऽ ऽ‘ -आश्चर्य से मुँह फाड़ा (हे भगवान! कोई मक्खी घुस जाए, मुँह में) और फिर... ‘बच्ची तो खैर है ही।‘<br /><br />ठीक है, बच्ची हूँ न, तो अभी एक सिप लो, सारा बचपन पता चल जाएगा। और आगे आने वाले दृश्य की कल्पना कर तनी हुई नसें ढीली पड़ गईं.. उमड़ती हुई हँसी ने सारा गुस्सा काफूर कर दिया। अभी मुँह बनाते हुए थू-थू करेगा न तो असली लेफ्टिनेंट लगेगा... क्या मजा आएगा... बड़ा स्नेह उमड़ रहा है न मम्मी का, कितनी मेहनत से बनाई थी ये क्रोशिए का सफेद टेबल-क्लाॅथ... अभी जब चाय से तर होगा न तब दिखाइएगा ये प्रेम भाव। या ये नई कालीन खराब होगी तब; हाल ही में डैडी ने मँगवाया है, जयपुर से। कोई पानी का ग्लास भी ले कर आए तो कहते हैं... ‘ऐ! देखो जरा ध्यान से।‘ तब पता चलेगा मम्मी को.... जब डाँट पड़ेगी। जिस-तिस को बैठा लेती हैं। और अगर कुछ बोलेगा तो बिल्कुल नकार जाएगी उल्टा बुरा मान जाएगी... बिगड़ पड़ेगी -‘कैसी बातें करते हैं, ऐसी भी भला कहीं चाय बनती है, दिमाग तो ठीक है, आपका? कोई उसकी झूठी चाय चखने से तो रहा।‘<br /><br />पूरी तरह तैयार हो, वह एकटक उसके चेहरे पर नजरें जमाए खड़ी थी। लेकिन ये तो कप लिए बैठा है। ...कहीं भनक तो नहीं लग गई... तभी शरद ने प्याला होठों की ओर बढ़ाया और उसकी सांस रूक गई। लेकिन सांस थोड़ी और देर तक रूकी रह गई। उसके सामने जो बैठा है, वह आदमी ही है न। शरद ने एक सिप लिया और एकदम उसी मुखमुद्रा में मम्मी के अगले प्रश्न का उत्तर देने लगा। एक शिकन तक नहीं उभरी चेहरे पर। जैसे बिल्कुल सामान्य चाय हो। यही नहीं, दूसरा सिप लिया फिर उसके बाद तीसरा, चैथा, पाँचवा... और मम्मी से वैसे ही बातें करता रहा।<br /><br />एक बार उसकी तरफ नजर तक नहीं की। कम से कम विजयी नजरों से ही देख लेता... कि देखो, मैंने पी ली... लेकिन कोई रिएक्शन नहीं और वह और नहीं रूक सकी। दिमाग को ठकठकाया; कहीं ऐसा तो नहीं कि वह सोचती ही रह गई और सामान्य चाय बना कर दे आई। किचन में जाकर देखा, लापरवाही से खुली रह गई शीशियाँ इस सत्य से इंकार कर रही थीं। हाथ जोड़ माथे से लगा लिया... ‘मान गए भई, गैंडे की खाल है तुम्हारी।‘rashmi ravijahttp://www.blogger.com/profile/04858127136023935113noreply@blogger.com26tag:blogger.com,1999:blog-6953374982088960088.post-54040611038257742312010-01-08T06:15:00.002-08:002010-01-08T07:01:26.434-08:00और वो चला गया,बिना मुड़े...<a href="http://2.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S0dInRgPGbI/AAAAAAAAAQU/HhiKAk3jTjs/s1600-h/school_right_front%5B1%5D.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 150px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S0dInRgPGbI/AAAAAAAAAQU/HhiKAk3jTjs/s200/school_right_front%5B1%5D.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5424384115741759922" /></a><br />दो दिनों की लगातार बारिश के बाद चैंधियाती धूप निखरी थी सफेद कमीज और लाल निक्कर में सजे छोटे-छोटे बच्चों की चहचहाहट से मैंदान गूंज रहा था। अपने केबिन में बैठे इन सबकी प्यारी-प्यारी उछलकूद देखना बड़ा ही भला गल रहा था। इनमें ही खो सी गई थी कि प्यून ने आकर किसी का विजिटींग कार्ड थमाया... ‘कर्नल एस. के. मेहरोत्रा‘ यूं ही सरसरी निगाह डाल मशीनी ढंग से कह डाला -‘भेज दो।‘<br /><br />‘मे आय कम इन‘ - की रौबीली आवाज सुन... -‘येस कम इन‘ भी यंत्रवत ही कह डाला। नजरें तो फील्ड में धींगामुश्ती करते दो बच्चों पर ही टीकी थीं और आंखें बड़ी बेचैनी से तलाश रही थीं कि कोई टीचर इन पर नजर रखने केा है या नहीं। मिस शारदा की उनकी तरफ बढ़ते देख चैन की सांस ली और आगंतुक की ओर जो घुमायीं तो पल भर की आंखें झपकाना ही भूल गई। चित्रलिखे सी जड़वत अवाक देखती रह गई। ये क्या देख रही है वह या काफी देर तक धूप में देखते रहने से आकृति स्पष्ट नजर नहीं आ रही। दो तीन बार आंखें झिपझिपा कर खोलीं तब भी शरद का मुस्कुराता चेहरा ही सामने था जो बड़ी आतुरता से अपनी बात कहने की प्रतीक्षा कर रहा था। साथ में सहमा-सहमा सा नौ-दस साल का बच्चा भी खड़ा था।<br /><br />आगंतुक से नजरें बचाते हुए उसने अपने बालों की ओर हाथ बढ़ाया और चोर नजरों से आलमीरे की ओर देख लिया। जिसके शीशे लगे दरवाजे में चेहरा भी साफ नजर आ रहा था। सही है... उसके चेहरे ने अपनी सारी मासूमियत खो दी थी। और अब उस पर एक दबंग, कठोर, कर्मठ महिला का चेहरा चस्पां हो गया था। मोटे फ्रेम के चश्मे और बालों में झिलमिलाते चाँदी के तारों ने चेहरे को गरिमायुक्त बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। फिर भी यह बदलाव क्या इतना था कि जिसके तले उसकी पुरानी छवि ने यों दम तोड़ दिया। ‘नेहा कपूर‘ के व्यक्तित्व ने क्या ‘नेहा नवीना‘ को इस कदर आच्छन्न कर लिया कि पहचान की सारी कड़ियाँ ही शेष हो गईं। समय के गर्त ने शायद उसके अतीत को सदा के लिए अपने अंक में समेट लिया। नही ंतो क्या शरद की आँखों में कुछ नहीं कौंधता। उन नीली आँखों के सागर में कोइ्र लहर तरंगायित नहीं होती। <br /><br /><br />हालांकि उसने तो चेहरे पे झलक रहे प्रौढ़ता के गांभीर्य... माथ पे झूलती लट की जगह उलट कर संवारे गए बाल और कनपटियों पर कुछ सफेद बाल (जैसे शेव के बाद थोड़े से साबुन के झाग अनधुले रह गए हों) सहित शरद को एक नजर में ही पहचान लिया था। लेकिन उसका क्या... उसने तो तब शरद को बिना कभी देखे ही पहचान लिया था। <br /><br />सुबह का वक्त था... सूरज की किरणों और फूलों की पंखुड़ियों के बीच मान-मनौव्वल चल ही रहा था। पंखुड़ियों ने अभी अपना घूँघट पूरी तरह नहीं सरकाया था और न अपने आंसू ही पोंछे थे। वह अपने गीले बाल पीठ पर छितराए लाॅन में टलह रही थी कि... गेट को हल्का सा धक्का दे, कंधे पर एयरबैग लटकाए, एक नौजवान ने बड़ी लापरवाही से प्रवेश किया। कुछ ही क्षणों में पहचान लिया उसने... भैय्या के एलबम में फोटो देखी थी। बस इतना लिंक काफी था वरना उसे तो जाने-अनजाने लोगों का किसी ना किसी से चेहरा मिलाते रहने का व्यसन सा था। अपने आस-पास उसने बड़े-बड़े नामों वाले चर्चित चेहरों का अच्छा-खासा हुजूम जुटा लिया था। उसके सामने वाले बंगले में अशोक कुमार रहा करते थे तो अमजद खान उसकी काॅलोनी में पहरा देते थे। निरूपा राय उसके यहाँ सब्जी बेचने आती तो संदीप पाटील नुक्कड़ पे पान बेचता था। <br /><br />शरद को देखते ही उसके चुलबुले दिमाग में शरारत का कीड़ा रेंगने लगा। थी ही इतनी शराती इतनी चंचल कि लोग पनाह मांगते थे। एक मिनट स्थिर बैठने की तो जैसे कसम थी उसे। हर पल उछल-कूद मचाते रहना सबको छेड़ते रहना उसकी दैनिक आदतों में शुमार था। और उसकी ‘छेड़छाड‘़से ‘छेड़छाड के लिए जाने जाने वाले महानुभाव भी बरी नहीं थे। राह चलते किसी भी चवन्नी छाप हीरो की हिम्मत नहीं थी कि एक भी जुमला उछाल सके। शुरूआत में जरूर कुछ ने तेजी दिखाने की कोशिश की लेकिन उहें ऐसी अजीबो-गरीब स्थिति का सामना करना पड़ा कि तौबा कर ली सबने।<br /><br />‘डिबेट‘ में मारे गए फस्र्ट प्राइज इतना तो तय कर ही देते थे कि तर्क में उसे कोई भी परास्त नहीं कर सकता। बात खत्म भी न हुई कि जवाब हाजिर। <br /><br />चैराहे पर सिगरेट का कश लगाते दो चार लड़कों ने उसे लाल ड्रेस में गुजरते देख आवाज कसी थी - ‘वो ऽऽ देखो! लाल परी‘ और वह त्वरित वेग से मुड़ उनकी बिल्कुल पास पहुँच पूछ बैठी थी -‘जी! आपने मुझसे कुछ कहा, कभी देखी है परी? मैं तो बचपन से ढँूंढ़ रही हूँ, नहीं दीखी मुझे... आपने देख ली... कहाँ है परी?‘<br /><br />उसके इस अप्रत्याशित हमले के लिए तैयार नहीं थे... बिलकुल घबरा से गए। <br /><br />आसपास खड़ी भीड़ विस्फारित नेत्रों से देख रही थी और जबतक लड़के इस आकस्मिक हमले से सम्भल कुछ कहने की स्थिति में होते... वह बड़े शान से लौट पड़ी थी। <br /><br />अब तो उसकी हरकतों ने उसकी सहेलियों में भी काफी आत्मविश्वास भर दिया था। (हालांकि उसे आत्मविश्वास दिया था उसकी ‘जूडो कराटे‘ की ट्रेनिंग ने) इनका इस्तेमाल करने की जरूरत तो नही ंपड़ी लेकिन इसने इतनी हिम्मत जरूर दे दिया कि ईंट का जवाब पत्थर से दे सके। और तब जाना कि लड़के भी छुई-मुई सी कतरा कर निकल जाने वाली... लेकिन इस कतराने के क्षण में भी जतन से सँवारे अपने रूप की एक झलक देने का मोह रखनेवाली लड़कियों को ही निशाना बनाते हैं। किसी ने स्वच्छंदता से खुल कर सामना करने की कोशिश की नहीं कि भीगी बिल्ली बन जाते हैं। <br /><br />और इस सारे बदलाव का श्रेय नेहा नवीना यानी उसे दिया जाता है जबकि यह सब तो अनजाने में हो गया किसी योजना के तहत उसने कुछ नहीं किया। किसी भी चीज को गंभीरता से लेना तो उसके स्वभाव में शामिल ही नहीं। भले ही माली काका और उनकी पत्नी या रघु और मंगल के बीच झगड़े सुलझाती वह बड़ी धीर गंभीर नजर आए। लेकिन गंभीरता से उसका कोसों दूर का नाता नहीं। सावित्री काकी के अंदर जाते ही बिल्कुल नन्हीं नेहा बन ठुनकने लगती -‘माली दादा, तुम्हें तो अब इलायची अदरक डाली बढ़िया चाय मिल जाएगी... मुझे भी अपनी पसंद की चीज चाहिए।‘<a href="http://3.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S0dD7phzGFI/AAAAAAAAAQE/6DfdljVxAXQ/s1600-h/ges.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 135px; height: 95px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_rvGz_NURh1I/S0dD7phzGFI/AAAAAAAAAQE/6DfdljVxAXQ/s400/ges.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5424378968230008914" /></a><br /><br /><br />माली दादा उसकी शरारत समझ जाते पीले गुलाब के गुच्छे वे हर शाम डैडी के कमरे में सजाते थे - क्योंकि उनका सबसे प्रिय इसी रंग का यही फूल था। वह उसी की फर्माईश कर बैठती और पूरी नहीं करने की दशा में तरह तरह के गुलदस्ते बनवाती। और ढेर सारे कच्चे अमरूद तुड़वाती। माली काका भी खुश-खुश उसकी फर्माईशें पूरी करते जाते और बतरस का आनंद भी लेते रहते। उसे वह नन्हीं नेहा ही समझते -‘अच्छा कच्चे अमरूद खाओगी और पेट में दरद होगा, तब?‘<br /><br />‘अच्छा होगा न, फिर सावित्री काकी से खट्टा-मीठा चूरण भी खाने को मिलेगा।‘ वह अमरूद पर दाँत गड़ाती बालती।<br /><br />‘पता नहीं हमारी बिटिया कब बड़ी होगी?‘ - मनोयोग से गुलदस्ता बनाते माली काका जैसे अपने-आप से ही बोलते। तो वह आँखें चैड़ी कर कह उठती -‘मैं बताऊँ... बारह तारीख को बारह बज कर बारह मिनट पर।‘<br /><br />माली दादा अनी ठेंठ अलीगढ़ी अंदाज में हो हो कर हँस पड़ते। फिर बड़ी संजीदगी से कहते -‘इतना लगी रहती है, बिटिया, चली जाएगी तो ये घर बाग-बगीचा सब सूना हो जाएगा।‘<br /><br />‘कहाँ चली जाऊँगी?‘ - वह इठला कर पूछती तो क्षोभ उतर आता माली काका के स्वर में - ‘अरे! वहीं जहाँ पाँच बरस पहले जाना चाहिए था।... क्या कहूं ... सहर में रहकर छोटे मालिक की बुद्धि भरमा गई है... नही ंतो अपने यहां तेरहवां लगते ही लड़की अपने घरबार को हो जाती थीं‘<br /><br />‘बस फिर वहीं गंदी बात... अभी बताती हूँ‘ - और वह दौड़कर कोई तितली हाथों में कैद कर लेती। यह माली काका को निरस्त करने का सबसे कारगर हथियार था।<br /><br />एक बार उसने बताया था कि कैसे उसकी सहेलियाँ तितलियों को किताबों के बीच दबा कर मार देती हैं। और फिर उन्हें ग्रीटींग कार्ड सजाने के काम में लाती हैं। माली काका ने कानों पर हाथ रख लिया -‘राम-राम बिटिया ऐसा भी कहीं होता है।‘<br /><br />‘क्यों नहीं होता, खूब होता है... अब यहाँ भी होगा... मैं भी सजाऊँगी ऐसे ही।‘<br /><br />रोश उमड़ आया था उनके स्वर में, याद नहीं कभी इतनी झिड़की भरी आवाज सुनी हो... ‘ना... ना बिटिया ऐसा जघन्य काम नहीं होने देंगे हम... जीव हत्या सबसे बड़ा पाप है... जो चीज हम जो चीज हम दे नहीं सकते उसे लेने का क्या हक है?‘... सीधे सादे शब्दों में उन्होंने अपना दर्शन रख दिया था।<br /><br />लेकिन वह उन्हें खिझाती रहती... ‘क्या हुआ एक न एक दिन तो सबको मरना ही है। अच्छा है न जितनी जल्दी इसे कीड़े वाली योनि से छुटकार मिल जाए‘ - फिर बड़े राजदार ढंग से बोलती -‘क्या जाने काका इसे मनुष्य जन्म मिले।‘<br /><br />‘हाँ हाँ! देवता का मिलेगा, पहले तू छोड़ इसे‘ - फिर खूब मिन्नतें करवा तितली को आजाद करती।<br /><br />उस दिन भी उनके हाथों में काले-पीले रंगों वाली एक खूबसूरत तितली फड़फड़ाती देख माली दादा अधबना गुलदस्ता छोड़ उसकी ओर भागे थे। वह कुछ और दूर जाती हुई बोली थी -‘क्यों अब और बोलोगे जाना है?‘<br /><br />असमंजस में खड़े रहते माली काका -‘तूने तो बड़ी धरमसंकट में डाल दिया बेटी... कैसे कहूँ कि नहीं जाना है।‘<br /><br />‘ठीक है कहेा‘... मुँह फुलाए कहती वह और हाथों में फड़फड़ाती तितली से बोलती ’’तितली रानी, अब तो तुम हमेशा मेरे साथ रहोगी... मिनट-दो मिनट देश लो इस दुनिया को।‘’<br /><br />उसका अभिप्राय जान बड़ी अजीजी से कहते माली दादा... ‘अच्छा, अब नहीं कहँूगा, छोड़ दे बिटिया, इसे।‘<br /><br />‘कभी नहीं कहोगे कि जाना है...‘<br /><br />‘कभी नहीं।‘ ... वे बड़ी मरी सी आवाज में बोलते। <br />और वह एक बारगी ही तितली को हवा में उड़ा झूठे रोश से पैर पटकने लगती -‘हाँ, हाँ... क्यों कहोगे... रामकली को तो कब का भेज दिया अपने ससुराल... मुझे कहते हो... यहीं रहना है, हमेशा।‘<br /><br />मुस्करा पड़ते माली दाद... ‘तुझसे बातों में कौन जीत सकता है बिटिया... इसी से तो कहता हूं... चली जाएगी तो कैसे रहेंगे, हमलोग?‘<br /><br />‘ऐ हे ऐ... फिर कहा... चली जाएगी‘ - छूटते ही बोलती वह और खिखिलाकर हँस पड़ते दोनों।<br /><br />नित नई शरारतें ईजाद करना और हर किसी की खिंचाई करते रहना तो जैसे उसकी हाॅबी ही थी। लेकिन इसमें मात्र एक बाल सुलभ भोलापन और उसकी खिलंदड़ी तबियत ही थी। किसी किस्म की दुर्भावना नहीं। जान-बूझकर किसी का दिल नहीं दुखाया... अगर कभी अनजाने में ऐसे कर भी बैठी तो सच्चे दिल से माफी माँगने में भी देर नहीं की।<br /><br />क्रमशः (ये एक लघु उपन्यास है,जरा धीरज धरना होगा :) )rashmi ravijahttp://www.blogger.com/profile/04858127136023935113noreply@blogger.com27