Wednesday, December 30, 2009

वे क्षण जो जीने का सबब बन जाते हैं (२)



हर साल की तरह इस बार भी २५ दिसम्बर की रात, हाथो मे एक किताब लिये एफ़.एम.पर 'पुरानी जींस' प्रोग्राम में बेहतरीन गाने सुन रही थी.और निगाहे बार बार घडी की तरफ़ चली जाती...मन ये भी सोच रहा था,इस बार का सर्प्राइज़ तो पहले से पता है,वही बारह बजते ही केक लेकर आयेगे सब...बारह बजते ही सबसे पहला मैसेज़ एक ऐसे फ्रेंड का आया जिससे पिछले चार पांच महिने से सम्पर्क टूट सा गया था.मुझे चिढाने को,उसके हर मैसेज़ के अन्त मे होता है (वो महाराष्ट्रियन है) ’जय महाराष्ट्र" आज था "जय महाराष्ट्र" "जय बिहार" .मै मैसेज पढने और कॉल अटेंड करने में ही लगी थी कि किंजल्क ने पीछे से एक बड़ी फ़ाइल जैसी चीज़ सामने रख दी.हैरान रह गयी देखकर अलग अलग अवसरों पर ली गयी मेरी तस्वीरों से सजा एक स्क्रेपबुक था...और सबसे सुखद आश्चर्य हुआ सहेलियों द्वारा मेरे ऊपर लिखे आलेख देख..किंजल्क ने बताया पिछले एक हफ्ते से इसकी तैयारी चल रही थी.उसने मेरी सहेलियों से संपर्क किया और उन सबने भी बड़े उत्साह से उसका साथ दिया,और बड़े प्यारे testimonials लिख डाले.राज़ी ने सबके आलेख एक जगह इकट्ठे कर किंजल्क को मेल कर दिए.पर तस्वीरों के लिए किंजल्क परेशान था,क्यूंकि मेरा नया वाला लैपटॉप अभी तक ठीक होकर नहीं आया है.वैशाली ने तस्वीरें चुन चुन कर 'पेन ड्राइव' में डाल किंजल्क को दिए क्यूंकि मेरा नया वाला लैपटॉप अभी तक ठीक होकर नहीं आया और सारी तस्वीरें उसी में हैं. (इस पुराने वाले में कई ब्लोग्स नहीं खुलते.जाने कितने मित्र नाराज़ होंगे कि मैं उनकी पोस्ट नहीं पढ़ती) पर मेरे आस पास इतना कुछ होता रहा और मुझे खबर तक नहीं हुई.किंजल्क ने टेस्ट का बहाना बनाया था और देर रात तक जगा रहता.उसकी हमेशा से देर रात में पढने की आदत है,इसलिए मुझे शक भी नहीं हुआ.और वो छुप छुप कर ये स्क्रेपबुक डेकोरेट करता रहा.दिन में भी उसने अपने छोटे भाई से झूठ मूठ का झगडा कर लिया और जब मैंने डांटा तो मुहँ फुला कर अपने कमरे में चला गया ताकि मैं उस से नाराज़ रहूँ.और बार बार ना बुलाऊं और वो शांति से इसे फिनिशिंग टच दे सके..बहुत ही खूबसूरती से स्केच पेन,क्रेयोन्स,लेस की सहायता से सजाया था.सबके आलेख भी रंग बिरंगे अक्षरों में लिखे थे.इसके बर्थडे में बारिश में भीग भीग कर जो शौपिंग करती थी ( बर्थडे ५ जुलाई होने के कारण)अब सब सूद समेत वापस हो रहें थे. कनिष्क का लिखा पढ़,हम देर तक हँसते रहें.उसने मेरी डांट और मार का भी जिक्र किया था और ये भी लिखा था कि कैसे मैं हर वक़्त उसकी बम्बईया हिंदी सुधारने की कोशिश करती रहती हूँ.पतिदेव ने भी थोडा जेलस होकर शिकायत की ,'ठीक ठीक है,सिर्फ ममी के लिए ही बनाओ"

सोने में रात के दो बज गए और सुबह सुबह ही फोन बज उठा.कैनेडा से फोन था...एक बार लगा,'अदा' का है क्या...पर नहीं अदा से बात हुई है,उसकी आवाज़ नहीं थी ये...ये फ़ोन मेरी पुरानी सहेली रूपी का था,जो अपने 'ब्यूटीशियन' और हेयर स्टाइलिस्ट के काम में इतनी व्यस्त हो गयी थी कि पिछले ६ महीने से ना तो फ़ोन किया था ,ना ही नेट पर दर्शन दिए थे....और आज जैसे फ़ोन रखने को तैयार ही नहीं.

मैंने बच्चों को बोला,चलो 'लंच' और 'मूवी' के लिए चलते हैं.(अब मुझे भी तो एवज में कुछ करना था)बच्चे लंच के लिए तो मान गए,पर मूवी के लिया मना कर दिया.कनिष्क ने बताया,उसके सर का फोन आया था,वे ६ बजे आ रहें हैं,पढ़ाने.लंच से आने के बाद मैंने सोचा,चलो गुलाबजामुन बना दूँ,कब से ड्यू है और बच्चों ने भी इतना किया है.एक दिन अदा से चैट पर बात भी हो रही थी कि ब्लॉग्गिंग के चक्कर में कैसे गुलाबजामुन,केक,नमकीन,खजूर सबने बैकसीट ले लिया है.अदा ने मजाक भी किया था,'जबतक बच्चे और पति बैकसीट नहीं ले लेते तबतक सब ठीक है" किचेन में ही थी कि किंजल्क ने आवाज दी," ममी अमृत(उसका फ्रेंड) तुमसे बात करेगा"और अपना फोन मुझे थमा दिया.मैंने हेल्लो बोला और दूसरी तरफ से सात-आठ लड़के लड़कियां एक सुर में गाने लगे,"हैप्पी बर्थडे..." फिर मैंने सबका एक एक कर परिचय पूछा,सब शिकायत करने लगे..."आंटी,किंजल्क ने हमें घर नहीं बुलाया,खुद अकेले आपके साथ सेलिब्रेट कर रहा है."..मिशिका ने तो एक कदम बढ़ कर शिकायत की, "आंटी मैं होस्टल में रहती हूँ,घर के खाने के लिए तरसती हूँ,फिर भी घर पे नहीं बुलाता"..खैर सबको मैंने इनवाईट किया..(यह भी सोचने लगी..लो,अब कुछ ना कुछ बना कर भेजना पड़ेगा)
किचेन से निकल थोडा सुस्ता ही रही थी कि कॉलबेल बजी.हमेशा की तरह दोनों बच्चे 'तुम देखो'...'तुम क्यूँ नहीं'..करते रहें...मुझे ही खोलना पड़ा...और सामने थीं वैशाली,तंगम राजी(मेनन),नेहा,,इंदिरा और राजी
(अय्यर)...एक सुन्दर सा बुके और केक पर जलती हुई कैंडल लिए.वैशाली ने कैमरा ऑन रखा था और खटाखट मेरे खुले मुहँ और विस्फारित नेत्रों का फोटो लिए जा रही थी.बच्चे पीछे खड़े हंस रहें थे.पता चला, ये सब इनलोगों की मिलीभगत थी.सहेलियों ने किंजल्क को फोन कर बता दिया था ,तभी इन दोनों ने मूवी के लिए मना कर दिया था..और कनिष्क ने ट्यूशन का बहाना बनाया था.वरना फिल्म के लिए और कनिष्क मना कर दे?...असंभव. अभी भी दोनों इसीलिए दरवाजा भी नहीं खोल रहें थे.इनलोगों ने बुके थमाया..फिर मुझे आदेश दिया...अब कपड़े बदल कर आओ...गाउन में केक नहीं कटेगा..मैंने ना नुकुर की तो...कहने लगीं ये 'तंगम' के केक की इन्सल्ट होगी...तंगम प्रोफेशनल बेकर है और अद्भुत केक बनाती है.क्रिसमस के एक महीने पहले से उसके केक की बुकिंग शुरू हो जाती है और इतनी व्यस्तता में उसने मेरे लिए केक बनाया.पर वो है ही ऐसी..आए दिन किसी ना किसी बहाने हमें केक,पेस्ट्री खिलाती रहती है. और घर मे तो बिस्किट के सिवा कुछ था ही नहीं उन्हें पेश करने को. मैंने बच्चों को ही दौड़ाया ,समोसे ,आइसक्रीम लाने .और मन ही मन शुक्र मनाया ..अच्छा हुआ,गुलाबजामुन बनाए...कुछ तो घर का बना है...काफी धमाल रहा..और इतने हंगामे के बाद रात में फॅमिली के साथ quite dinner अच्छा लगा.

कुछ ऐसे लोगों की शुभकामनाएं मिलीं जो अनापेक्षित थीं...बेचारे मिथिलेश की हर पोस्ट की मैं पोस्टमार्टम कर डालती हूँ...और बड़े तीखे कमेंट्स देती हूँ ..पर उसने केक और समोसे से सजा प्यारा सा मेल भेजा.हिमांशु से मेरी, अपनी दूसरी पोस्ट पर ही थोड़ी सी बहस हो गयी थी...तब से वो मुहँ फुला कर बैठा है...पर विश करना नहीं भूला. डा.अनुराग ने २,३, महीने बाद कमेन्ट लिखे थे मेरी 'मोनालिसा' वाली पोस्ट पर फिर अगले दिन ही डिलीट कर दिए (वजह नहीं पता,..यहाँ तो कोई वैमनस्य कोई बहस भी नहीं हुई थी और ये लिखने मिटाने का दौर तो शायद टीन एज के बाद ही ख़तम हो जाता है :) ) ....पर फेसबुक पर अपनी शुभकामनाएं दीं..एक मनोवैज्ञानिक मित्र हैं डा. कौसर..हमेशा शिकायत करती हूँ कि आप हमेशा 'पोलिटिकली करेक्ट' बात करते हैं,कभी तो डाक्टरी लबादा उतार कर बोलिए,एक बार उन्होंने आम इंसान की तरह कोई बात कही .और मुझे बुरा लग गया.....पर मेरे बुरा मानने का उन्होंने बुरा नहीं माना और अच्छा सा मैसेज भेजा .बाकी सारे तो दोस्त ही हैं..विश ना किया तो कहाँ जायेंगे :)

वैसे सबका तहे दिल से शुक्रिया, मेरा एक मामूली सा दिन इतना ख़ास बनाने के लिए.

Monday, December 28, 2009

वे क्षण, जो जीने का सबब बन जाते हैं

इस बार जन्मदिन पर कई सरप्राइज़ मिले...मैंने अपने प्रोफाइल पर जन्मदिन नहीं लिखा है,लिहाज़ा मुझे लगा यहाँ तो किसी को पता नहीं होगा...पर किसी नेक दिल मित्र ने लगता है पाबला जी को खबर कर दी...और उन्होंने 'ब्लॉगर्स जन्मदिन' वाले ब्लॉग पर यह खबर डाल दी और शुरू हो गया बधाइयों का तांता...कुछ लोगों ने ई.मेल का माध्यम चुना,शुभकामनाएं भेजने का...सबलोगों को कोटिशः धन्यवाद..

ख़ुशी हुई देख...बरसों पहले शुरू हुआ यह सरप्राइज़ का सिलसिला अबतक जारी है...बचपन में जन्मदिन के दिन हम सुबह सुबह नए कपड़े पहन, मंदिर जाते थे और हमारी पसंद का खाना बनता था. शायद नौ-दस बरस की थी, तब की बात है..जन्मदिन वाले दिन,शाम को बाहर खेल रही थी..नौकर ने आकर बोला,ममी ने सारे बच्चों के साथ बुलाया है...अबूझ से सब अन्दर गए तो नमकीन और मिठाइयां मिलीं. लेकिन हमारे साथ खेलने वाली 'नईमा' घर के अन्दर आने को तैयार नहीं थी...जबरदस्ती अन्दर लेकर आई पर वह कुछ खाने को तैयार नहीं...बड़ी मुश्किल से मनाया था,उसे खाने को. पर उस कच्ची उम्र में ही मुझे आभास हो गया था कि 'नईमा' का हर घर में यूँ खुले दिल से स्वागत नहीं होता.

एक बार अपने मामा की शादी में हम सब इकट्ठे हुए थे..मेरा जन्मदिन भी उन्ही दिनों पड़ा और सारे छोटे भाई-बहनों ने मिलकर डांस-म्युज़िक-ड्रामा का एक सुन्दर प्रोग्राम पेश किया था...बस मैं थोड़ी अकेली पड़ गयी थी, उस दिन...जहाँ भी जाती, मुझे भगा दिया जाता.."हमलोग रिहर्सल कर रहें हैं,तुम यहाँ से जाओ .तुम्हारे लिए सरप्राइज़ है"..(उस प्रोग्राम की तस्वीर एक कजिन के औरकुट प्रोफाइल से चुरा ली है,उसके लिए भी सरप्राइज़ होगा,ये:))..आज उन भाई-बहनों में से कुछ की शादी हो गयी है..कुछ जिम्मेवारी वाले पद पर आसीन हैं....पर कितने मासूम लग रहें हैं....इन तस्वीरों में.


अपनी कॉलेज की सहेली सीमा को मैं अपने हर जन्मदिन पर याद कर लेती हूँ... ठंढ के दिनों में वह हमेशा खांसी-जुकाम से परेशान रहती पर इतनी ठंढ में भी इस दिन दो मोज़े,स्वेटर जैकेट,स्कार्फ पहने सी सी करती हुई...अमृता प्रीतम,निर्मल वर्मा या मोहन राकेश की किताबें लिए मुझे विश करने , दरवाजे पर सुबह सुबह हाज़िर हो जाती.

अभी कुछ साल पहले मेरे workaholic पति थोडा जल्दी आ गए थे.हम सब एक रेस्तरां में डिनर के लिए गए..वहाँ मॉकटेल में 'बर्थडे बैश' नामक एक पेय था.बच्चों ने तो 'मिकी माउस' ड्रिंक लिया..मेरे लिए 'बर्थडे बैश' ऑर्डर कर दिया.हम खाना ख़त्म कर डेज़र्ट का इंतज़ार कर रहें थे कि अचानक पूरा रेस्तरां.."हैप्पी बर्थडे सॉंग" से गूंजने लगा.और वेटर एक केक पर जलती हुई मोमबत्ती लेकर हमारी तरफ आया.मुझे पता ही नहीं चला कब उसने चुपके से आकर पूछ लिया था कि किसका बर्थडे है.सारे लोग हमारी मेज़ की तरफ देख रहें थे..मुझे तो बहुत ही एम्बैरेसिंग लगा.उसपर से पास वाली टेबल पर एक छोटी सी दो साल की लड़की ने शायद अभी अभी ;हैप्पी बर्थडे' कहना सीखा था...हर दो मिनट पर दौड़ कर आती और मुझे 'एपी बड्डे' कहकर चली जाती.अब जब कभी डिनर के लिए जाती हूँ..सबको पहले ताकीद कर देती हूँ...प्लीज़ डिस्क्लोज मत करना किसका बर्थडे है.

जाड़ा,गर्मी, बरसात हो या जन्मदिन , हमारी मॉर्निंग वाक कभी नहीं छूटती.सुबह की शुरुआत सहेलियों के साथ हँसते-बतियाते हुए करने से बेहतर और क्या होगा?...और उसपर से स्वास्थ्य भी सुधर जाए तो सोने पे सुहागा..३ साल पहले मैं मोर्निंग वाक से लौटी तो देखा,मेरा छोटा बेटा 'कनिष्क' कंप्यूटर पर बैठा है.मैंने जोरदार डांट लगाई,"ममी नहीं है तो सुबह सुबह गेम खेलना शुरू" वह चुपचाप उठकर चला गया.जब काम से निश्चिन्त हो,मैंने कम्प्यूटर खोला तो देखा,वाल पेपर पर रंग बिरंगे अक्षरों में लिखा है.."HAPPY BIRTHDAY MOM"

पिछले साल बड़े बेटे किंजल्क ने बिलकुल ही सरप्राइज़ कर दिया.25 दिसंबर की रात मैं थकी मांदी,सोफे पर, हाथ में एक किताब लिए ,घडी की सुईओं के 12 पर जाने का इंतज़ार कर रही थी.क्यूंकि मुझे पता था,मेरे साथ सुदूर शहरों में रजाइयों में दुबके कई लोग
भी उतनी ही बेसब्री से आधी रात का इंतज़ार कर रहें हैं...पता नहीं कब आँख लग गयी और अचानक तेज़ रौशनी और फुलझड़ी जैसी आवाज़ सुन मैं चौंक कर उठ बैठी(आजकल केक पर कैंडल की जगह उसके ही आकार की अनार जैसी फुलझड़ी लगाने का रिवाज चल पड़ा है)..डर कर इधर उधर देख ही रही थी कि देखा Three men in my life मुस्कुराते हुए 'हैप्पी बर्थडे बोल रहें हैं.किंजल्क की कोचिंग क्लास शाम सात बजे से रात दस बजे तक होती थी.लौटते वक़्त उसने केक लाया था और जितने कौशल से मैं इनके 'सैंटा क्लॉस' वाले गिफ्ट छुपाती थी वही सारे ट्रिक उसने मुझसे ये केक छुपाने में आजमा लिए थे...और तीनो जन सोने का बहाना कर जल्दी बिस्तर पर चले गए थे.

कभी कभी लगता है,ज़िन्दगी गोल गोल घूमती है और जहाँ से हमने शुरुआत की थी,वापस वहीँ पहुँच जाती है..हमारे मोर्निंग वाक के रास्ते में अयप्पा स्वामी का मंदिर है हर साल वहाँ २० से ३० दिसंबर तक भव्य पूजा समारोह होता है.सुन्दर फूलों से पंडाल सजाया जाता है.पूरे दिन पूजा,अर्चना चलती रहती है..सुबह सुबह ही कई महिलायें नहा धोकर गीले बाल पीठ पर छितराए मलयालम में रामायण पढ़ती रहती हैं.मेरी सहेली राज़ी (जो मुंबई में पली बढ़ी है, पर मूलतः केरल की है.).ने कहा 'क्यूँ ना हमलोग भी सुबह सुबह नहा कर वाक करते हुए मंदिर में दर्शन को जाएँ,' मैंने और वैशाली (ये कर्नाटक की है) ने अनुमोदन किया और तीनो सहेलियों का
प्रातः भ्रमण के साथ मंदिर गमन भी शुरू हो गया ..मेरा जन्मदिन बीच में पड़ता है,सो अब बचपन में जन्मदिन वाले दिन सुबह सुबह मंदिर जाने के दिन फिर से लौट आए हैं. वैसे मुझे और वैशाली को दर्शन के साथ साथ ,प्रसाद के रूप में मिलने वाले गरम गरम स्वादिष्ट पायसम का कम आकर्षण नहीं रहता.

(इस बार के जन्मदिन पर इतने सारे सरप्राइज़ मिले
की उसकी चर्चा अगले पोस्ट में)

Wednesday, December 23, 2009

मुस्कुराते चेहरों के पीछे का दर्द


(यूँ तो कई विषयों को अपनी पोस्ट्स में समेटने की कोशिश की है पर अपनी बिरादरी पर आजतक कुछ नहीं लिखा...कुछ दिनों पहले'नारी' ब्लॉग पर एक फिल्म के बहाने अपने देश में स्त्रियों की स्थिति पर कुछ मनन करने की कोशिश की थी.,..आज वो पोस्ट यहाँ है )

यूँ ही चैनल फ्लिप कर रही थी कि देखा एक फिल्म आ रही है,"मोनालिसा स्माईल'...अपनी सहेलियों को SMS करने लगी तो ध्यान आया ब्लॉगजगत पर भी बहुत सारे दोस्त हैं,पता नहीं उन्होंने यह फिल्म देखी है कि नहीं,उन्हें भी इस फिल्म से रु-ब-रु करवाया जाए.यह प्रासंगिक भी है क्यूंकि आजकल ब्लॉगजगत में 'चर्चा-ए-नारी' ने कलमकारों को उलझा कर रखा हुआ है.

यह फिल्म, दायरे में सीमित ,महिलाओं की सोच बदलने की है...अपनी अस्मिता तलाश करने की है....अपना अस्तित्व स्थापित करने की है.

अमेरिका के 1950 के दौर की कहानी है और बिलकुल हम से मिलती जुलती.(दुःख होता है,हम 60 साल पीछे चल रहें हैं)मिस वाटसन(जूलिया रॉबर्ट्स) की नियुक्ति लड़कियों के एक कॉलेज में होती हैं.वे पाती हैं,लडकियां बहुत मेधावी हैं,स्मार्ट हैं पर उनकी सोच एक परंपरा की शिकार है.जो कुछ सिलेबस में है,वे उसे तोते की तरह रट जाती हैं.उनकी अपनी कोई सोच नहीं है.लडकियां कॉलेज को टाईम पास की तरह लेती हैं, जबतक उनकी शादी नहीं हो जाती.(कुछ अपने यहाँ की कहानी जैसी नहीं लगती?)

मिस वाटसन उन्हें अपना विचार खुद बनाने के लिए प्रेरित करती हैं.उनमे इतना आत्मविश्वास जगाने की कोशिश करती हैं कि वे अपना निर्णय खुद ले सकें.एक बहुत ही मेधावी छात्र है,जिसे लॉयर बनने की इच्छा है. पर जब मिस वाटसन उस से पूछती हैं कि वो ग्रैजुएशन के बाद क्या करेगी वो कहती है 'I am getting married "
"then ?"
"Then I will b remain married"
लड़कियों का गोल सिर्फ शादी है,वाटसन शादी के खिलाफ नहीं हैं पर वे चाहती हैं कि लड़कियां अपना अस्तित्व तलाशें और पत्नी के अलावा भी उनकी कोई पहचान है,उसे समझें.

वे उस लड़की को law school का फार्म लाकर देती हैं.पर उसका मंगेतर कहता है कि ये कॉलेज घर से काफी दूर है और वह समय पर टेबल पर खाना लगाने नहीं पहुँच पायेगी.जूलिया उसे सात और कॉलेज के फ़ार्म लाकर देती हैं,जो घर के पास है.और कहती हैं कि अब वो दोनों काम एक साथ कर सकती है. पर परंपरा में बंधी लड़कीअपने मगेटर की नाराज़गी का ख़याल कर , खुद इनकार कर देती है.

दूसरी एक बेट्टी नाम की छात्रा,मिस वाटसन का बहुत विरोध करती है.क्यूंकि उसे लगता है वह लड़कियों को बहका रही हैं.इस लड़की की शादी हो जाती है.वह घर और पति के प्रति पूर्ण समर्पित है.घर और पति ही उसकी दुनिया है.पर पति का कहीं और अफेयर है और वह बहाने बनाकर ज्यादातर घर से बाहर रहता है.जब इसे पता चलता है तो वह अपने माता-पिता के घर जाती है पर उसकी माँ उसे वहां रुकने नहीं देती और कहती है"अब पति का घर ही उसका घर है. माँ उसे समझाती है कि सब ठीक हो जाएगा,बस किसी को कानोकान खबर ना हो "( पता नहीं कितनी भारतीय लड़कियों ने भी ये सब सुना होगा)

फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण दृश्य है जब बेट्टी अपनी माँ को मोनालिसा की तस्वीर दिखाती है.उसकी माँ कहती है " She is smiling "
बेट्टी पूछती है " I know but is she HAPPY ??बेट्टी आगे कहती है ,"She looks happy. It dsnt matter.if she is really happy or
not "

बेट्टी डाइवोर्स फाईल करती है और घर छोड़ देती है.कॉलेज की सबसे बदनाम लड़की उसे सहारा देती है.माँ बहुत नाराज़ होती है और तब बेट्टी कहती है ," When You closed the door of my own house where can i go ? "
मिस वाटसन एक प्रोफ़ेसर के करीब आ जाती है,तभी उनका पुराना प्रेमी जिसे वाटसन का यूँ इस शहर में कॉलेज में पढ़ाना बिलकुल पसंद नहीं था,अचानक आ जाता है.और प्रपोज़ कर अंगूठी पहना देता है.पर वाटसन कहती है,"एक अरसे से हमारा कोई contact नहीं और तुम्हारा जब चाहे मेरी ज़िन्दगी में चले आना और जब चाहे चले जाना मुझे मंजूर नहीं..वो शादी से इनकार कर देती है.कुछ दिन बाद प्रोफ़ेसर की असलियत भी खुल जाती है.वह युद्ध के झूठे किस्से सुना war hero बना रहता था.

जाहिर है कॉलेज मनेजमेंट मिस वाटसन के स्वतंत्र विचारों को पचा नहीं पाता.और उनका contract रीन्यू नहीं करना चाहता.पर उनके सब्जेक्ट में ही सबसे ज्यादा छात्रों ने दाखिला लिया है इसलिए वह उनपर कई शर्तें लगाता है.कि वे सिलेबस से अलग कुछ नहीं पढ़ाएंगी."....लेसन प्लान पहले से अप्रूव करवायेंगी ...'छात्राओं को कॉलेज के बाहर कोई सलाह नहीं देंगी'.

मिस वाटसन त्यागपत्र दे देती हैं और चल देती हैं ,किसी और कॉलेज की लड़कियों को जकड़न से मुक्त कराने,रस्मो रिवाजों की कुछ और झूठी दीवार गिराने .
सबसे सुन्दर अंतिम दृश्य है जब मिस वाटसन कार में जा रही हैं और सारी लड़कियां ग्रैजुएशन गाउन पहने,कार के आस पास
सायकिल चलाती उन्हें उन्हें विदा दे रही हैं.

हमें भी कुछ ऐसे ही 'मिस वाटसन' की सख्त जरूरत है.

Thursday, December 17, 2009

पीक आवर्स" में मुंबई लोकल ट्रेन में यात्रा



कोई मुंबई में हो और उसका कभी,लोकल ट्रेन से साबका ना पड़े ,ऐसा तो हो ही नहीं सकता.मुझे वैसे भी लोकल ट्रेन बहुत पसंद हैं.कार की यात्रा बहुत बोरिंग होती है,अनगिनत ट्रैफिक जैम...सौ दिन चले ढाई कोस वाला किस्सा.इसलिए जब भी अकेले जाना हो या सिर्फ बच्चों के साथ,ट्रेन ही अच्छी लगती है. और वैसे समय पर जाती हूँ जब ट्रेन में आराम से जगह मिल जाती है चढ़ने उतरने में परेशानी नहीं होती.
वैसे जब बच्चे छोटे थे तो अक्सर काफी एम्बैरेसिंग भी हो जाता था.एक बार अकेले ही बच्चों के साथ जा रही थी.बच्चे अति उत्साहित.हर स्टेशन का नाम जोर जोर से बोल रहें थे..शरारते वैसे हीं और सौ सवाल, अलग.छोटे बेटे कनिष्क ने बगल वाली कम्पार्टमेंट करीब करीब खाली देख पूछा "वो कौन सी क्लास है?".
मैंने कहा,"फर्स्ट क्लास".
"हमलोग उसमे क्यूँ नहीं बैठे"
"उसका किराया,ग्यारह गुना ज्यादा है. और यहाँ आराम से जगह मिल गयी है"(सेकेण्ड क्लास का अगर ७ रुपये होता है तो फर्स्ट क्लास का ७७ रुपये ,पास बनवाने पर बहुत सस्ता पड़ता है और ऑफिस ,कॉलेज जाने वाले,पास लेकर फर्स्ट क्लास में ही सफ़र करते है)
फिर उसने पूछा,'ये कौन सी क्लास है.?"
मैंने कहा "सेकेण्ड"
"थर्ड क्लास कहाँ है?"
"थर्ड क्लास नहीं होता"
कुछ देर सोचता रहा फिर चिल्ला कर बोला,"ओह्हो! थर्ड क्लास में तो हमलोग पटना जाते हैं",(उसका मतलब थ्री टीयर ए.सी.से था )पर मैंने कुछ नहीं कहा,सोचने दो लोगों को कि मैं थर्ड क्लास में ही जाती हूँ.अगर एक्सप्लेन करने बैठती तो ४ सवाल उसमे से और निकल आते.

जब मैंने 'रेडियो स्टेशन' जाना शुरू किया तो नियमित ट्रेन सफ़र शुरू हुआ..मेरी रेकॉर्डिंग
हमेशा दोपहर को होती,मैं आराम से घर का काम ख़त्म कर के जाती और ४ बजे तक वापसी की ट्रेन पकडती.स्टेशन से एक सैंडविच लेती,एक कॉफ़ी और आराम से हेडफोन पे गाना सुनते,कोई किताब पढ़ते.एक घंटे का सफ़र कट जाता.
एक दिन मेरी दो रेकॉर्डिंग थी.अक्सर जैसा होता है..लेट हो रही थी,मैं...आलमीरा खोला तो एक 'फुल स्लीव' की ड्रेस सामने दिख गयी.सोचा,चलो वहां का ए.सी.तो इतना चिल्ड होता है कोई बात नहीं.'शू रैक' खोला और सामने जो सैंडल पड़ी थी,पहन कर निकल गयी.ऑटो में बैठने के बाद गौर किया कि ये तो पेन्सिल हिल की सैंडल है.पर फिर लगा..स्टेशन से १० मिनट का वाक ही तो है.और मुझे कभी ऊँची एडी की सैंडल में परशानी नहीं होती.इसलिए चिंता नहीं की.

एक रेकॉर्डिंग के बाद.रेडियो ऑफिसर ने यूँ ही पूछा, "आप कुछ ज्यादा वक़्त निकाल सकती हैं,रेडियो स्टेशन के लिए?"मैंने कहा..."हाँ..अब बच्चे बड़े हो गए हैं तो काफी वक़्त है मेरे पास".मुझे लगा कुछ और असाईनमेंट देंगे.उन्होंने कहा,"फिर प्रोडक्शन असिस्टेंट के रूप में ज्वाइन कर लीजिये.क्यूंकि हमारे प्रोडक्शन असिस्टेंट ने किसी वजह से रिजाइन कर दिया है.आप अब यहाँ के सारे काम समझ गयी हैं".मैं कुछ सोचने लगी.ये मौका तो बडा अच्छा था.मुझे यहाँ के लोग और माहौल भी अच्छा लगता था. समय भी था.पर एक समस्या थी मेरा बेटा दसवीं में आ गया था.बोर्ड के एक्जाम के वक़्त यूँ घर से दूर रहना ठीक होगा?...यही सब सोच रही थी कि उन्होंने मेरी ख़ामोशी को 'हाँ' समझ लिया (मेरे बेटे का फेवरेट डायलौग ,जब भी उसकी किसी अन्रिज़नेबल डिमांड पर गुस्से में चुप रहती हूँ तो कहता है.'आपकी ख़ामोशी को मैं हाँ समझूं ?")..यहाँ भी मेरी चुप्पी को हाँ समझ लिया गया.श्रुति नाम की एक अनाउंसर से उन्होंने रिक्वेस्ट किया,इन्हें जरा 'लाइब्रेरी','ट्रांसमिशन रूम'.'ड्यूटी रूम' सब दिखा दो.मुंबई का आकाशवाणी भवन काफी बडा है.दो बिल्डिंग्स हैं.स्टूडियो और ऑफिस अलग अलग.एक तिलस्म सा लगता है.श्रुति ने भी बताया कि जब वे लोग ट्रेनिंग के लिए आए थे तो एक लड़के ने आग्रह किया था,"प्लीज, हमें सबसे पहले ऑफिस का एक नक्शा दे दीजिये.पता ही नहीं चलता कौन सा दरवाजा खोलो और सामने क्या आ जायेगा.लिफ्ट,स्टूडियो,या ऑफिस."
श्रुति के साथ घूमते हुए अब मेरे पेन्सिल हिल ने तकलीफ देनी शुरू कर दी थी.और स्टूडियो भ्रमण जारी ही था.ट्रांसमिशन रूम में देखा,ऍफ़,एम् की एक 'आर. जे.'एक गाना लगा,सर पे हाथ रखे किसी सोच में डूबी बैठी है.मैंने सोचा ,अभी गाना ख़त्म होगा और ये चहकना शुरू कर देगी.सुनने वालों को इल्हाम भी नहीं होगा,अभी दो पल पहले की इसकी गंभीर मुखमुद्रा का.

राम राम करके स्टूडियो भ्रमण ख़त्म हुआ, तो मेरी जान छूटी. मेरी रेकॉर्डिंग रह ही गयी.अब तो मन हो रहा था.सैंडल उतार कर हाथ में ही ले लूँ..नज़र दौड़ाने लगी कहीं कोई 'शू इम्पोरियम' दिख जाए तो एक सादी सी चप्पल खरीद लूँ.पर ये 'ताज' और 'लिओपोल्ड कैफे' का इलाका था.यहाँ बस बड़े बड़े प्रतिष्ठान ही थे.कोई टैक्सी वाला भी इतनी कम दूरी के लिए तैयार नहीं होता.(इस इलाके में ऑटो नहीं चलते)खैर ,दुखते पैर लिए किसी तरह स्टेशन पहुंची और आदतन एक सैंडविच और कॉफ़ी ले ट्रेन में चढ़ गयी.सारी सीट भर गयीं थी.सोचा चलो कुछ देर में कोई उतरेगा तो सीट मिल ही जाएगी..मैं आराम से पैसेज में एक सीट से पीठ टिका खड़ी हो गयी.यह ध्यान ही नहीं रहा कि ये ऑफिस से छूटने का समय है,भीड़ का रेला आता ही होगा.क्षण भर में ही कॉलेज और ऑफिस की लड़कियों से एक एक इंच जगह भर गयी.मैं तो बीच में पिस सी गयी..हाथ की सैंडविच तो धीरे से बैग में डाल दिया.पर कॉफ़ी का क्या करूँ?चींटी के सरकने की भी जगह नहीं थी कि दरवाजे तक जाकर फेंक सकूँ.उस पर से डर की कहीं गरम कॉफ़ी किसी के ऊपर एक बूँद,छलक ना जाए.फुल स्लीव में गर्मी से बेहाल.पसीने से तर बतर मैंने गरम गरम कॉफ़ी गटकना शुरू कर दिया.मुंबई के लोग कभी भी किसी को नहीं टोकते.वरना देखने वालों के मन में आ ही रहा होगा,'ये क्या पागलपन कर रही है'.पर सबने देख कर भी अनदेखा कर दिया.अब ग्लास का क्या करूँ.?धीरे से बैग में ही डाल लिया.बैग में दूसरी स्क्रिप्ट पड़ी थी.पर होने दो सत्यानाश.कोई उपाय ही नहीं था.

.ट्रेन अपनी रफ़्तार से दौड़ी जा रही थी.हर स्टेशन पर उतरने वालों से दुगुने लोग चढ़ जाते,मैं थोड़ी और दब जाती.और सीटों पर बैठे लोग तो सब अंतिम स्टॉप वाले थे.मेरी स्टाईलिश सैंडल के तो क्या कहने.जब असह्य हो गया तो मैंने धीरे से सैंडल उतार दी.पर मुंबई कि महिलायें अचानक मेरी हाईट डेढ़ इंच कम होते देख भी नहीं चौंकीं.पता नहीं नोटिस किया या नहीं.पर चेहरा सबका निर्विकार ही था.तभी मेरे बेटे का फोन आया.और हमारी बातचीत में दो तीन बार रेकॉर्डिंग शब्द सुन,पता नहीं पास बैठी लड़की ने क्या सोचा.झट खड़ी होकर मुझे बैठने की जगह दे दी.(शायद मुझे कोई गायिका समझ बैठी:)..मैं थोडा सा ना नुकुर कर बैठ गयी.और सैंडल धीरे से सीट के अन्दर खिसका दिया.मेरा भी अंतिम स्टॉप ही था.सब लोग उतरने लगे पर मुझे बैठा देख,चौंके तो जरूर होंगे,पर आदतन कुछ कहा नहीं.सबके उतरते ही मैंने झट से सैंडल निकाले और पहन कर उतर गयी.

पर मेरा ordeal यहीं ख़त्म नहीं हुआ था.स्टेशन से बाहर एक ऑटो नहीं.बस स्टॉप की तरफ नज़र डाली तो सांप सी क्यू का कोई अंत ही नज़र नहीं आया.मेरे साथ एक एयर होस्टेस भी खड़ी थी.उसे भी मेरी तरफ ही जाना था.संयोग से किसी कार्यवश कार की जगह 'पीक आवर्स' में लोकल से आना पड़ा था,उसे..बेजार से हम खड़े थे सारे ऑटो तेजी से निकल जा रहें थे. एक पुलिसमैन पर नज़र पड़ते ही,उस एयर होस्टेस ने शिकायत की.पर उसने एक शब्द कुछ नहीं कहा.मुझे बडा गुस्सा आया,ये लोग तो हमारी सहायता के लिए हैं.और इनकी बेरुखी देखो.पर जैसे ही 'ग्रीन सिग्नल' हुआ.उस पुलिसमैन ने बड़ी फ़िल्मी स्टाईल में चश्मा उतार जेब में रखा और एक रिक्शे को हाथ दिखा रोका,और आँखों से ही हमें बैठने का इशारा किया.बोला फिर भी एक शब्द नहीं.

दूसरे दिन का किस्सा भी कम रोचक नहीं.मैंने घर आकर हर पहलू से विचार किया और सोचा,इस ऑफर को स्वीकार नहीं कर सकती.यहाँ कामकाजी महिलायें बच्चों के बोर्ड एक्जाम आते ही एक महीने की छुट्टी ले,घर बैठ जाती हैं.और मैं अब ज्वाइन करूँ? रेडियो में इतनी छुट्टी तो मिल नहीं सकती.लिहाज़ा ये अवसर भी खो देना पड़ा..दूसरे दिन बिलुक सादी सी चप्पल और आरामदायक कपड़े पहन,कर ना कहने को गयी.एक 'एलीट' स्कूल के बच्चे आए हुए थे और एक नाटक की रेकॉर्डिंग चल रही थी.मुझे देखते ही उस ऑफिसर ने थोडा बहुत समझाया और मुझ पर सारी जिम्मेवारी सौंप चलता बना. मुझे मुहँ खोलने का मौका ही नहीं दिया.इन टीनेजर्स बच्चों ने २५ मिनट के प्ले की रेकॉर्डिंग में ३ घंटे लगा दिए.एक गलती करता सब हंस पड़ते.दस मिनट लग जाते,शांत कराने में..फिर बीच में किसी को खांसी आती,छींक आती,प्यास लगती तो कभी बाथरूम जाना होता.जब अपनी रेकॉर्डिंग ख़त्म करके, मैंने इस ऑफर को स्वीकार करने में अपनी असमर्थता जताई तो वे हैरान रह गए,'पहले क्यूँ नहीं बताया.?'क्या कहती,आपने मौका कब दिया.?'कोई बात नहीं' कह कर मन ही मन कुढ़ते अपनी दरियादिली दिखा दी.

आज फिर पीक आवर्स था.पर इस बार अपनी ड्यूटी ख़त्म कर श्रुति भी साथ थी.मैं स्टेशन पर उसे बता ही रही थी कि महिलायें भी चलती ट्रेन में दौड़कर चढ़ती हैं.श्रुति ने कहा,',हाँ चढ़ना ही पड़ता है,वरना सीट नहीं मिलती' तभी ट्रेन आ गयी...और श्रुति भी दौड़ती हुई चलती ट्रेन में चढ़ गयी.मेरी हिम्मत तो नहीं थी,पर ईश्वर को कुछ दया आ गयी.और ट्रेन रुकने पर चढ़ने के बावजूद मुझे बैठने कि जगह मिल गयी.पर श्रुति से मैं बिछड़ गयी थी और हमने नंबर भी एक्सचेंज नहीं किया था.दरअसल, मैं अक्सर अपना प्रोग्राम ही सुनना भूल जाती हूँ.श्रुति ने कहा था.अनाउंस करने से पहले वो sms कर याद दिला देगी.पर मुझे इतना पता था कि स्टेशन आने से एक स्टेशन पहले ही गेट के पास खड़ा होना पड़ता है क्यूंकि ट्रेन सिर्फ १/२ मिनट के लिए रूकती है.अगर आप गेट के पास ना खड़े हों तो नहीं उतर पाएंगे.एक स्टेशन पहले मैं भी गेट के पास पहुँच गयी और नंबर एक्सचेंज किया.श्रुति ने जोर से जरा आस पास वालों को सुनाते हुए ही कहा...'हाँ आपके प्रोग्राम की अनाउन्समेंट से पहले,फ़ोन करती हूँ आपको'.मैं मन ही मन मुस्कुरा पड़ी.चाहे कितने भी मैच्योर हो जाएँ हम.आस पास वालों की आँखों में अपनी पहचान देखने की ललक ख़त्म नहीं होती.

Monday, December 14, 2009

उम्र की सांझ का, बीहड़ अकेलापन


पिछले पोस्ट्स में बच्चों की ही बाते होती रहीं...महानगरों में वृद्धों की कारुणिक अवस्था भी ,कम हलचल नहीं मचाती मन में. अपने पीछे इन्होने एक भरपूर जीवन जिया होता है.पर महानगर में ये किसी अबोध बालक से अनजान दीखते हैं.यहाँ का रहन सहन,भाषाएँ सब अलग होती हैं.इनका कोई मित्र नहीं होता.बच्चों की भी मजबूरी होती है.बूढे माता-पिता को अकेले गाँव में कैसे छोड़ें?..और यहाँ वे अपेक्षित समय चाह कर भी नहीं दे पाते.
दिल्ली में मेरे घर के सामने ही एक पार्क था.देखती गर्मियों में शाम से देर रात तक और सर्दियों में करीब करीब सारा दिन ही,वृद्ध उन बेंचों पर बैठे शून्य निहारा करते.मुंबई में तो उनकी स्थिति और भी सोचनीय है.ये पार्क में होती तमाम हलचल के बीच,गुमनाम से बैठे होते हैं.कितनी बार बेंचों पर पास आकर दो लोग बैठ भी जाते हैं,पर उनकी उपस्थिति से अनजान अपनी बातों में ही मशगूल होते हैं.
रोज शाम को योगा क्लास से लौटते हुए देखती हूँ , पांचवी मंजिल पर एक जोड़ी उदास आँखें खिड़की पर टंगी होती हैं...और मैं नज़रें नीचे कर लेती हूँ.वृधावस्था अमीरी और गरीबी नहीं देखती.सबको एक सा ही सताती है.एक बार मरीन ड्राईव पर देखा.एक शानदार कार आई.ड्राईवर ने डिक्की में से व्हील चेयर निकाली और एक वृद्ध को सहारा देकर कार से उतारा.समुद्र तट के किनारे वे वृद्ध घंटों तक सूर्यास्त निहारते रहें.

यही सब देखकर एक कविता उपजी थी,यह भी डायरी के पीले पन्नों में ही
क़ैद पड़ी थी अबतक.आज यहाँ शेयर कर रही हूँ.



जाने क्यूँ ,सबके बीच भी अकेला सा लगता है.
रही हैं घूर,सभी नज़रें मुझे
ऐसा अंदेशा बना रहता है.
यदि वे सचमुच घूरतीं.
तो संतोष होता
अपने अस्तित्व का बोध होता.
ठोकर खा, एक क्षण देखते तो सही
यदि मैं एक टुकड़ा ,पत्थर भी होता.

लोगों की हलचल के बीच भी,
रहता हूँ,वीराने में
दहशत सी होती है,
अकेले में भी,मुस्कुराने में
देख भी ले कोई शख्स ,तो चौंकेगा पल भर
फिर मशगूल हो जायेगा,निरपेक्ष होकर
यह निर्लिप्तता सही नहीं जायेगी.
भीतर ही भीतर टीसेगी,तिलामिलाएगी

काश ,होता मैं सिर्फ एक तिनका
चुभकर ,कभी खींचता तो ध्यान,इनका
या रह जाता, रास्ते का धूल ,बनकर
करा तो पाता,अपना भान,कभी आँखों में पड़कर

ये सब कुछ नहीं,एक इंसान हूँ,मैं
सबका होना है हश्र,यही,
सोच ,बस परेशान हूँ,मैं.

Thursday, December 10, 2009

गावस्कर के 'स्ट्रेट ड्राईव' का राज़ !!



हमारे देश को सुष्मिता सेन के रूप में पहली विश्व सुंदरी मिलीं.पर विश्व सुंदरी का खिताब एक भारतीय बाला को बहुत पहले ही मिल गया होता अगर उन्होंने अपने दिल की नहीं सुन...पोलिटिकली करेक्ट जबाब दिया होता.मशहूर मॉडल 'मधु सप्रे' फाईनल राउंड में पहुँच गयी थीं. फाईनल राउंड में 3 सुंदरियाँ होती हैं और एक ही प्रश्न तीनो से पूछे जाते हैं.जिसका जबाब सबसे अच्छा होता है,उसे मिस यूनिवर्स घोषित कर दिया जाता है.सवाल था 'अगर एक दिन के लिए आपको अपने देश का राजाध्यक्ष बना दिया गया तो आप क्या करेंगी?" बाकी दोनों ने भूख,गरीबी दूर करने की बात कही....हमारी मधु सप्रे ने कहा,"वे पूरे देश में अच्छे खेल के मैदान बनवा देंगी"...जाहिर है उन्हें खिताब नहीं मिला....बहुत पहले की बात है,पर मुझे भी सुनकर बहुत गुस्सा आया था की ये कैसा जबाब है.हमारे देश को एक विश्व सुंदरी मिलने से रह गयी.पर आज जब मैं खुद मुंबई में हूँ तो मुझे उनकी बात का मर्म पता चल रहा है.मधु सप्रे मुंबई की ही हैं और एक अच्छी एथलीट थीं

इस कंक्रीट जंगल में बच्चे खेलने को तरस कर रह जाते हैं.बिल्डिंग के सामने थोड़ी सी जगह में खेलते हैं पर हमेशा अपराधी से कभी इस अंकल के सामने कभी उस आंटी के सामने हाथ बांधे,सर झुकाए खड़े होते हैं.क्यूंकि यहाँ घर के शीशे नहीं कार का साईड मिरर ज्यादा टूटता है.कई बार दो सोसाईटी के बीच झगडा इतना बढ़ जाता है (तुम्हारी बिल्डिंग के बच्चे ने मेरी बिल्डिंग के कार के शीशे तोड़े) की नौबत पुलिस तक पहुँच जाती है.फूटबाल खेलने जितनी जगह तो होती नहीं,क्रिकेट ही ज्यादातर खेलते हैं.मै खिड़की से अक्सर देखती हूँ....इनके अपने नियम हैं खेल के...अगर बॉल ऊँची गयी...'आउट'...दूर गयी...'आउट'.....पार्किंग स्पेस में गयी ..'आउट' सिर्फ स्ट्रेट ड्राईव की इजाज़त होती है.बच्चे जमीन से लगती हुई सीधी बॉल सामने वाली विकेट की तरफ मारते हैं और रन लेने भागते हैं.एक ख्याल आया, 'सुनील गावसकर' का पसंदीदा शॉट था 'स्ट्रेट ड्राईव' और उन्हें बाकी शॉट्स की तरह इसमें भी महारत हासिल थी.कहीं यही राज़ तो नहीं??.क्यूंकि अपनी आत्म कथा 'सनी डेज़' में उन्होंने जिक्र किया था कि वे बिल्डिंग में ही क्रिकेट खेला करते थे...और कोई आउट करे तो अपनी बैट उठा, घर चल देते थे (सिर्फ गावस्कर के पास ही बैट थी).. इसी से उन्हें विकेट पर देर तक टिके रहने की आदत पड़ गयी.क्या पता स्ट्रेट ड्राईव में महारत भी यहीं से हासिल हुई हो.....सचिन और रोहित शर्मा भी मुंबई के हैं और आक्रामक खिलाड़ी हैं पर सचिन शिवाजी पार्क के सामने रहते थे और रोहित.MHB ग्राउंड के सामने...उन्हें जोरदार शॉट लगाने में कभी परेशानी नहीं महसूस हुई होगी.


मुंबई में कई सारे खुले मैदान हैं पर उनपर किसी ना किसी क्लब का कब्ज़ा है.मेरे घर के पास ही एक म्युनिस्पलिटी का मैदान था...सारे बच्चे खेला करते थे...कुछ ही दिनों बाद एक क्लब ने खरीद लिया...मिटटी भरवा कर उसे समतल किया.और ऊँची बाउंड्री बना एक मोटा सा ताला जड़ दिया गेट पर.सुबह सुबह कुछ स्थूलकाय लोग,अपनी कार में आते हैं.एक घंटे फूटबाल खेल चले जाते हैं.बच्चे सारा दिन हसरत भरी निगाह से उस ताले को तकते रहते हैं.कई बार सुनती हूँ...अरे फलां जगह बड़ी अच्छी गार्डेन बनी है...देखती हूँ,मखमली घास बिछी है,फूलों की क्यारियाँ बनी हुई हैं...सुन्दर झूले लगे हुए हैं....चारो तरफ जॉगिंग ट्रैक बने हुए हैं.पर मुझे कोई ख़ुशी नहीं होती...यही खुला मैदान छोड़ दिया होता तो बच्चे खेल तो सकते थे.एकाध खुले मैदान हैं भी तो पास वाले लोग टहलने के लिए चले आते हैं और बच्चों को खेलने से मना कर देते हैं .एक बार एक महिला ने बड़ी होशियारी से बताया कि 'मैंने तो उनकी बॉल ही लेकर रख ली,हमें चोट लगती है' .मैंने समझाने की कोशिश भी की..'थोड़ी दूर पर जो गार्डेन सिर्फ वाक के लिए बनी है...वहां चल जाइए'...उनका जबाब था..";अरे, ये घर के पास है,हम वहां क्यूँ जाएँ?"...हाँ,..वे क्यूँ जाएँ? इनलोगों के बच्चे बड़े हो गए हैं,अब इन्हें क्या फिकर.जब बच्चे छोटे होंगे तब भी उनकी खेलने की जरूरत को कितना समझा होगा,पता नहीं.

कभी कभी इतवार को बिल्डिंग के बच्चे स्टड्स,स्टॉकिंग पहन पूरी तैयारी से फूटबाल खेलने जाते हैं और थके मांदे लौटते हैं...बताते हैं तीन मैदान पार कर, जाकर उन्हें एक मैदान में खेलने की जगह मिली.कभी कभी ये लोग शैतानी से गेट के ऊपर चढ़कर जबरदस्ती किसी कल्ब के ग्राउंड में खेलकर चले आते हैं.मेरे बच्चे भी शामिल रहते हैं...पर मैं नहीं डांटती....एक तो सामूहिक रूप से ये जाते हैं और फाईन करेंगे तो पैसे तो दे ही दिए जायेंगे...दो बातें सुनाने का मौका भी मिलेगा...कि अपना शौक पूरा करने के लिए वे बच्चों से उनका बचपन छीन रहें हैं.


एक बार राहुल द्रविड़ से जब एक इंटरव्यू में पूछा गया कि" क्या बात है,आजकल छोटे शहरों से ज्यादा खिलाड़ी आ रहें हैं"..इस पर द्रविड़ का भी यही जबाब था कि महानगरों में खेलने की जगह बची ही नहीं है.खेलना हो तो कोई स्पोर्ट्स क्लब ज्वाइन करना होता है.उन्होंने अपने भाई का उदाहरण दिया कि वो 8 बजे रात को घर आते हैं. इसके बाद कहाँ समय बचता है कि बच्चे को लेकर क्लब जाएँ.हर घर की यही कहानी है.मेरा बेटा खुद छुट्टियों में दो बस बदल कर फूटबाल खेलने जाता है.मैं कहती भी हूँ कि ऑटो से चले जाओ तो कहता है...120 रुपये सिर्फ एक घंटे के खेल के लिए खर्च करना ठीक नहीं.

कमोबेश हर शहर की यही कहानी है और फिर हम शिकायत करते हैं कि बच्चे आलसी होते जा रहें हैं.उनमे मोटापा बढ़ रहा है. उन्हें सिर्फ टी.वी.और कंप्यूटर गेम्स में ही दिलचस्पी है.

Monday, December 7, 2009

घनी अमराइयों के बीच मुंबई ब्लॉगर्स की आत्मीय बैठक




मुंबई ब्लॉगर्स मीट में शामिल होने के लिए मैं काफी उत्सुक थी क्यूंकि इस ब्लॉग जगत की वजह से ही फिर से हिंदी से नाता जुड़ा है और मेरे नाम 'रश्मि रविजा' का पुनर्जन्म हुआ.हम स्त्रियों को पहले पिता का और फिर पति का सरनेम धारण करना पड़ता है.बरसों बाद अपने कॉलेज जीवन के लेखन के बाद फिर से लोग मुझे इस नाम से जानने लगे हैं.और जब शमा जी की डायरी में पहली बार 'रश्मि रविजा' लिखकर फ़ोन नंबर दिया तो सचमुच बहुत अच्छा लगा
.
यूँ तो अपने ढाई महीने के ब्लॉग काल में कई लोगों से मेल के द्वारा संवाद स्थापित हो चुका है पर 'युनुस खान' को छोड़कर मुंबई के किसी ब्लॉगर से मेरा परिचय नहीं था.पर दो बार कार्यवश 'विविध भारती' जाने के बावजूद भी उनसे मुलाक़ात नहीं हो सकी थी ,और पूना जाने की वजह से वे इस मीट में भी शामिल नहीं हो पा रहें थे.मैंने लिस्ट में नाम देख आभा मिश्रा जी(अपनाघर ब्लॉग) से संपर्क किया और जब उन्होंने बताया कि वे आ रही हैं तो बहुत ख़ुशी हुई.पर एक दिन पहले उन्होंने सूचना दी कि उनके बेटे मानस का पैर फ्रैक्चर हो गया है,इसलिए उनका आना मुमकिन नहीं.(मानस के जल्दी स्वस्थ होने की अनेक शुभकामनाएं ) मैं बहुत मायूस हो गयी तो आभा जी ने ममता जी(बतकही,रेडियो सखी ममता,ब्लॉग ) का नंबर दिया कि उनसे बात करो...वे शायद आ रही हैं.ममता जी कुछ असमंजस में थीं.उन्होंने कहा कि उनका छोटा बच्चा है और पति बाहर जा रहें हैं. फिर उन्होंने कहा कि उनके पति भी ब्लॉगर हैं.जब मैंने नाम पूछा तो उन्होंने बताया ,'युनुस खान' ये भी बताया कि ये उन्ही का नंबर है ,मैंने झट मोबाईल चेक किया तो पाया मैंने युनुस जी का नंबर ही लगाया था.बाद में ममता जी का भी पूना जाने का कार्यक्रम बन गया.

विवेक जी ने बताया, शमा जी आ रही हैं.पहली बार फोन पर ही शमा जी ने इतने अपनत्व और प्यार से बात की कि मैं अभिभूत हो गयी.रु-ब-रु मिलने पर तो उनकी शख्सियत के सब कायल हो गए होंगे.एक साथ विभिन विषयों पर वे करीब २० ब्लॉग मैनेज करती हैं.मानो उनके लिए दिन में ४८ घंटे होते हों.कई लोगों की तरह उन्होंने भी फोन पर ही पूछा,आप 'रश्मि प्रभा' तो नहीं....ये संयोग ही है कि 'रश्मि प्रभा' जी ने पहली पोस्ट से ही मेरा हमेशा उत्साह बढाया है. उनकी प्रभा में पल भर को मेरा नाम भी आलोकित हो उठा.शमा जी ने 'रश्मि प्रभा' से मिलने का रोचक किस्सा सुनाया,शमा जी के किसी ब्लॉग पर 'कलात्मक बैग' देखकर रश्मि जी ने करीब २० बैग का ऑर्डर दिया.जब शमा जी कोरियर करने लगीं तब ध्यान से नाम पढ़ा और पाया कि वे तो साथी ब्लॉगर हैं.फिर उन्होंने फोन पर बात की और पता चला वे लोग आस पास ही रहती हैं.

प्रसिद्द कथाकार 'सूरज प्रकाश जी ने भी अपने अनुभव बताये कि कैसे उनके किसी पोस्ट की चर्चा,युनुस जी ने अपने
कार्यक्रम युवावाणी' में की और १९९२ से बिछड़े किसी मित्र ने उनका कार्यक्रम सुन,कई जगह फोन करेक आखिर उन्हें ढूंढ निकाला. सूरज प्रकाश जी और राज सिंह जी भी इस मुंबई मीट में २६ साल बाद मिले.जब मैंने अविश्वास से पूछा कि आपलोगों ने एक दूसरे को पहचाना कैसे तो दोनों ने स्वीकार किया कि सचमुच चेहरे से नहीं,नाम से पहचाना.
दो साल पहले सूरज जी दुर्घटना ग्रस्त हो गए थे .किसी ने अपने ब्लॉग पर यह खबर डाल दी और एक दिन में ही सौ से अधिक शुभकामना सन्देश आ गए और करीब २८ लोगों की लिस्ट तैयार हो गयी रक्त दान करने के लिए..


अविनाश जी ने बताया कि एक बार,उन्होंने ब्लॉग में यह सूचना डाल दी कि उन्हें एक मोबाईल खरीदना है और तुरंत ही कई लोगों ने उन्हें अच्छे मोबाईल्स की सूचना उपलब्ध करा दी,इतना ही नहीं ३० किलोमीटर दूर बैठे एक पाठक ने उनसे संपर्क किया,जानकारी दी और अविनाश जी के कहने पर वह मोबाईल उनके लिए खरीद भी लिया.आज भी वे वही मोबाईल इस्तेमाल कर रहें हैं.ब्लोगिंग के जरिये घर बैठे ही उनका यह काम हो गया.

महावीर जी(मुंबई टाईगर) ने बताया कि उनकी दस वर्षीया बेटी ने उन्हें हमेशा डायरी में कुछ लिखते देख ब्लॉग शुरू करने का सुझाव दे डाला.और आज हम सब लाभान्वित हो रहें हैं.

सतीश पंचम(सफ़ेद घर ) जी का कहना था कि उन्होंने 'मैला आँचल' किताब पढ़ी और इतने प्रभावित हुए कि कई किताबें पढ़ डालीं फिर लिखना भी शुरू कर दिया.

आज प्रिंट मीडिया पर ब्लॉग चर्चा देख हम सब खुश होते हैं पर अलोक नन्दन जी ने प्रिंट मीडिया को अलविदा कह कर ब्लॉग्गिंग में कदम रखा.इतनी मेहनत से लिखे आलेख की एडिटिंग देख वे व्यथित हो जाते थे.काफी दिन कई अखबारों में काम करने के बाद उन्होंने ब्लॉग जगत का रुख कर लिया.

विवेक रस्तोगी जी(कल्पतरु) ने बैंकों की कार्यवाही की जानकारी देने हेतु एक ब्लॉग बनाया था.पर रीडरशिप ना होने के कारण उसे बंद कर दिया.अविनाश जी ने सलाह दी कि 'नुक्कड़' में पोस्ट करें फिर सबकी नज़रों से गुजरेगी.आशा है हमें जल्द ही महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिलेंगी.

शशि सिंह ने भी २००७ में ही अपना ब्लॉग बनाया था पर उनकी व्यस्तता की वजह से उनका ब्लॉग सुसुप्तावस्था में चला गया है.अविनाश जी ने उन्हें भी सलाह दी कि कम से कम महीने में एक पोस्ट जरूर डालें.
विमल जी(ठुमरी ब्लॉग)...ने अजय जी (गठरी ब्लॉग) को ब्लॉग की दुनिया से परिचित कराया और अजय जी उन्हें इस ब्लॉगर मीट में लेकर आये.


'एन डी एडम' जी पहले तो चुपचाप सबके स्केच बनाते रहें.बाद में उन्होंने बताया कि उनके परिचय का दौर 'पृथ्वीराज कपूर' से शुरू होता है,कई महत्वपूर्ण हस्तियों से उनका परिचय है और उनका स्केच वे बना चुके हैं.करीब तीन हज़ार स्केच वे अब तक बना चुके हैं.

डा रुपेश श्रीवास्तव जी और राज सिंह जी काफी देर से इस ब्लॉग मीट में आये पर अपनी जिंदादिली से इस सम्मलेन की रौनक कई गुना बढा दी.

नन्ही प्यारी सी फरहीन सबसे छोटी ब्लॉगर थीं वहां...अपनी मुस्कराहट से उन्होंने इसकी जीवन्तता कायम रखी थी.

यह ब्लॉग परिवार ऐसे ही फलता फूलता रहें और नए नए सदस्य जुड़ते रहें यही सबकी कामना है.

Wednesday, December 2, 2009

कैसा है, हमारे खिलाड़ियों का खान पान ??


एक बार लगातार चार दिन,मुझे एक ऑफिस में जाना पड़ा.वहां मैंने गौर किया कि एक लड़का 'लंच टाईम' में भी अपने कंप्यूटर पर बैठा काम करता रहता है, लंच के लिए नहीं जाता.तीसरे दिन मैंने उस से वजह पूछ ही ली.उसने बताया कि उसे कभी लंच की आदत, रही ही नहीं क्यूंकि वह दस साल की उम्र से अपने स्कूल के लिए क्रिकेट खेलता था.मुंबई की रणजी टीम में वह ज़हीर खान और अजित अगरकर के साथ खेल चुका है.(उनके साथ अपने कई फोटो भी दिखाए, उसने)क्रिकेट की प्रैक्टिस और मैच खेलने के दौरान वह नाश्ता करके घर से निकलता और रात में ही फिर खाना खाता.
उसने एक बार का वाकया बताया कि किसी क्लब की तरफ से खेल रहें थे वे.वहां खाने का बहुत अच्छा इंतजाम था. लंच टाईम में सारे खिलाड़ियों ने पेट भर कर खाना खा लिया और फिर कैच छूटते रहें,चौके,छक्के लगते रहें.कोच से बहुत डांट पड़ी और फिर से इन लोगों का पुराना रूटीन शुरू हो गया बस ब्रेकफास्ट और डिनर.
भारतीय भोजन गरिष्ठ होता है...पर उसकी जगह सलाद,फल,सूप,दूध,जूस का इंतज़ाम तो हो ही सकता है.पर नहीं ये सब उनके 'फौर्मेटिव ईअर' में नहीं होता,तब होता है जब ये भारतीय टीम में शामिल हो जाते हैं.

मैं यह सोचने पर मजबूर हो गयी कि सारे खिलाड़ियों का यही हाल होगा.क्रिकेट मैच तो पूरे पूरे दिन चलते हैं.अधिकाँश खिलाड़ी,मध्यम वर्ग से ही आते हैं.साधारण भारतीय भोजन,दाल चावल,रोटी,सब्जी ही खाते होंगे.दूध,जूस,फल,'प्रोटीन शेक' कितने खिलाड़ी अफोर्ड कर पाते होंगे.? हॉकी और फुटबौल खिलाड़ियों का हाल तो इन क्रिकेट खिलाड़ियों से भी बुरा होगा.हमारे इरफ़ान युसूफ,प्रवीण कुमार,गगन अजीत सिंह सब इन्ही पायदानों पर चढ़कर आये हैं.भारतीय टीम में चयन के पहले इन लोगों ने भी ना जाने कितने मैच खेले होंगे...और इन्ही हालातों में खेले होंगे.


क्या यही वजह है कि हमारे खिलाड़ियों में वह दम ख़म नहीं है?वे बहुत जल्दी थक जाते हैं...जल्दी इंजर्ड हो जाते हैं...मोच..स्प्रेन के शिकार हो जाते हैं क्यूंकि मांसपेशियां उतनी शक्तिशाली ही नहीं.विदेशी फुटबौल खिलाड़ियों के खेल की गति देखते ही बनती है.हमारा देश FIFA में क्वालीफाई करने का ही सपना नहीं देख सकता.टूर्नामेंट में खेलने की बात तो दीगर रही.हॉकी में भी जबतक कलाई की कलात्मकता के खेल का बोलबाला था,हमारा देश अग्रणी था पर जब से 'एस्ट्रो टर्फ'पर खेलना शुरू हुआ.हम पिछड़ने लगे क्यूंकि अब खेल कलात्मकता से ज्यादा गति पर निर्भर हो गया था.ओलम्पिक में हमारा दयनीय प्रदर्शन जारी ही है.

इन सबके पीछे.खेल सुविधाओं की अनुपस्थिति के साथ साथ क्या हमारे खिलाड़ियों का साधारण खान पान भी जिम्मेवार नहीं.??ज्यादातर भारतीय शाकाहारी होते हैं.जो लोग नौनवेज़ खाते भी हैं, वे लोग भी हफ्ते में एक या दो बार ही खाते हैं.जबकि विदेशों में ब्रेकफास्ट,लंच,डिनर में अंडा,चिकन,मटन ही होता है.शाकाहारी भोजन भी उतना ही पौष्टिक हो सकता है, अगर उसमे पनीर,सोयाबीन,दूध,दही,सलाद का समावेश किया जाए.पर हमारे गरीब देश के वासी रोज रोज,पनीर,मक्खन मलाई अफोर्ड नहीं कर सकते.हमारे आलू,बैंगन,लौकी,करेला विदेशी खिलाड़ियों के भोजन के आगे कहीं नहीं ठहरते.उसपर से कहा जाता है कि हमारा भोजन over cooked होने की वजह से अपने पोषक तत्व खो देता है. केवल दाल,राजमा,चना से कितनी शक्ति मिल पाएगी?

हमारे पडोसी देश पाकिस्तान में भी तेज़ गेंदबाजों की कभी, कमी नहीं रही.हॉकी में भी वे अच्छा करते हैं.खिलाड़ियों की मजबूत कद काठी और स्टेमिना के पीछे उनकी फ़ूड हैबिट ही है.
प्रसिद्द कॉलमिस्ट 'शोभा डे' ने भी अपने कॉलम में लिखा था कि एक बार उन्होंने देखा था ३ घंटे कि सख्त फिजिकल ट्रेनिंग के बाद खिलाड़ी.,फ़ूड स्टॉल पर 'बड़ा पाव' ( डबल रोटी के बीच में दबा आलू का बडा,मुंबई वासियों का प्रिय आहार) खा रहें हैं.इन
सबका ध्यान खेल आयोजकों को रखना चाहिए...अन्य सुविधाएं ना सही पर खिलाड़ियों को कम से कम पौष्टिक आहार तो मिले.

स्कूल के बच्चे 'कप' और 'शील्ड' जीत कर लाते हैं.स्कूल के डाइरेक्टर,प्रिंसिपल बड़े शान से उनके साथ फोटो खिंचवा..ऑफिस में डिस्प्ले के लिए रखते हैं.पर वे अपने नन्हे खिलाड़ियों का कितना ख़याल रखते हैं??बच्चे सुबह ६ बजे घर से निकलते हैं..लम्बी यात्रा कर मैच खेलने जाते हैं..घर लौटते शाम हो जाती है.स्कूल की तरफ से एक एक सैंडविच या बड़ा पाव खिला दिया और छुट्टी.मैंने देखा है,मैच के हाफ टाईम में बच्चों को एक एक चम्मच ग्लूकोज़ दिया जाता है, बस. बच्चे मिटटी सनी हथेली पर लेते हैं और ग्लूकोज़ के साथ साथ थोड़ी सी मिटटी भी उदरस्थ कर लेते हैं.बच्चों के अभिभावक टिफिन में बहुत कुछ देते हैं अगर कोच इतना भी ख्याल रखे कि सारे बच्चे अपना टिफिन खा लें तो बहुत है.पर इसकी तरफ किसी का ध्यान ही नहीं जाता.बच्चे अपनी शरारतों में मगन रहते हैं.और भोजन नज़रंदाज़ करने की नींव यहीं से पड़ जाती है.यही सिलसिला आगे तक चलता रहता है.